Friday 19 April 2013

" नमो " पर भारी " राग आडवाणी "

2009 के लोकसभा चुनावों का मौसम याद कीजिए। तब पीएम इन वेटिंग का राग भाजपा में उफान पर था लेकिन आज ऐसी कोई कार्ययोजना भाजपा की वार रूम पालिटिक्स में शामिल नहीं है। अटल बिहारी के सन्यास के बाद भाजपा ने तब आडवाणी के चेहरे को मतदाताओं के सामने पेश किया था लेकिन इस बार मसला पेचीदा हो चला है क्योंकि गुजरात चुनाव में लगातार तीन जीत दर्ज कराने के बाद मोदी की नजरें दिल्ली पर लगी हुई है और गुजरात की  चौकड़ी  के साथ उनकी भाजपा संसदीय बोर्ड में धमाकेदार इन्ट्री हो चुकी है । पार्टी का एक खेमा जहां 2014 में मोदी के नाम के साथ चुनौती वैतरणी पार करने के मूड में दिख रहा है वहीं गठबंधन दौर में मोदी को आगे करने पर एनडीए में बिखराव भी तय दिख रहा है जिससे 2014 की चुनावी बिसात दिलचस्प मोड़ पर आ खड़ी हुई है।

    राजग में इस समय बाजपेयी के उत्तराधिकारी को लेकर खींचतान मची है। ‘वाइब्रेट गुजरात‘ के लाख दावों और हवा के बीच राजग में मोदी की राह आसान नहीं लग रही। उनके नेतत्व को इस दौर में न केवल अपनी  पार्टी भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से ही चुनौती नहीं मिल रही है वरन जदयू, शिवसेना सरीखे भाजपा के पुराने साथी भी आंखे  तरेर रहे हैं। ‘नमों‘ का जाप  भले ही भाजपा का एक बड़ा  कैडर इस दौर में कर रहा हो लेकिन नीतिश कुमार ‘नमों‘ की राह में सबसे बड़ा खतरा है जिनके समर्थक उनकी दिक्कतों को बढ़ा सकते हैं।

पिछले दिनों जनता दल यूनाइटेड ने अपने दिल्ली के अधिवेशन में नरेन्द्र मोदी का नाम लिये बगैर जिस तरह भाजपा पर सीधे निशाना साधा  उसने लोकसभा चुनावों से ठीक पहले एनडीए में प्रधानमंत्री पद के संकट को बढ़ाने का काम किया है। जदयू के बाद अब शिवसेना ने भी भाजपा पर एनडीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार जल्द घोषित करने की मांग कर डाली है जिसने एक नई  हलचल एनडीए में शुरू कर दी है। शायद इसी वजह से आडवानी के घर एनडीए की कोर कमेटी अपना मंथन शुरू कर रही है।

  
 अटल बिहारी अपने करिश्माई और उदार व्यक्तित्व के चलते अपने दौर में  विरोधियों को पटखनी देने की कला में निपुण थे वहीं उस दौर में अपने आसरे उन्होंने गठबंधन की बिसात  को बिछाकर पहली बार एक नई  राजनीतिक लकीर खींचने का काम किया। उनके राजनीति से सन्यास के बाद अब भाजपा के किसी नेता में अटल सरीखी बात नही रही। नरेन्द्र मोदी कारपोरेट, मध्यम वर्ग और भाजपा के कैडर में भले ही जान फूंक सकते हैं लेकिन गोधरा का जिन्न उनकी भावी राजनीति की राह में ऐसा रोड़ा  है जो प्रधानमंत्री पद के लिए एनडीए में टूट पैदा कर सकता हे। वहीं सुषमा से लेकर जेटली और खुद राजनाथ से लेकर डा0 जोशी में वह जोश नहीं जो चुनावी साल में लोकसभा सीटें भाजपा की बढ़ा पाएं । इन सबके बीच इन दिनों भाजपा में प्रधानमंत्री पद को लेकर अंदरखाने  जबरदस्त जंग  चल रही है।
  
 जिन्ना विवाद के बाद जहां आडवाणी संघ की नजरों से उतर गये वहीं 2009 में उन्हीं को आगे कर भाजपा 15वीं लोकसभा के समर में कूदी जहां उसे मुंह की खानी पड़ी जिसके बाद भाजपा में आडवाणी की भूमिका सलाहकारों जैसी कर दी गई लेकिन पर्दे के पीछे रहकर भी भले ही इस दौर में भाजपा में नमों का नाम जोर शोर से उछल रहा है लेकिन मोदी की उग्र हिन्दुत्व वाली छवि के चलते कई पुराने सहयोगी एनडीए का साथ न केवल छोड़ सकते हैं बल्कि नये सहयोगी भी साथ आने से पहले दस बार सोचेंगे। ऐसे में आडवाणी के सितारे 2014 में बुलन्दियों में जाने के आसार  अभी से नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों जदयू ने इशारों इशारो  में मोदी से परहेज कर जहां आडवाणी के नाम को आगे किया तो वहीं शिवसेना ने भी दो कदम आगे जाकर आडवाणी के नाम पर रजामंदी के संकेत दिखाए हैं। इसने इन बातों को बल दिया है आडवाणी को आगे करने से 2014  में भाजपा नहीं वरन एनडीए का दायरा बढ़ा सकता है बल्कि सरकार बनाने के लिए बहुमत सहयोगियों के जरिये जुटाया जा सकता है। नमों के मुकाबले आडवाणी न केवल एनडीए का भरोसा जीत सकते हैं बल्कि सुषमा से लेकर जेटली, वैंकेय्या से लेकर अनन्त कुमार और खुद राजनाथ से लेकर डा0 जोशी उनके नाम पर किसी तरह का रोड़ा नहीं अटकायेंगे। हिन्दुत्व व सेकुलारवादी रास्ते पर चलना उनके लिए मोदी के मुकाबले ज्यादा आसान होगा साथ ही बाजपेयी की तर्ज पर वह अपनी ईमानदारी के जरिये एनडीए का भरोसा भी जीत सकते हैं।
   
बीते दौर में जिन्ना विवाद के समय जब आडवाणी संघ के सीधे निशाने पर थे तो जदयू और टीडीपी ने तहे दिल से आडवाणी के बयान का समर्थन किया था जबकि जार्ज फर्नाडीज ने तब आडवाणी की तारीफों में कसीदे हम उनके साथ हैं कहकर पढ़े। यही नहीं तब नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू ने आडवाणी को बचाने की पूरी कोशिशें की थी जिसके बाद एनडीए में आडवाणी की उम्मीदवारी को लेकर किसी तरह का पेंच नहीं अटका और सभी ने तहे दिल से आडवाणी को अपना नेता मान लिया। इस बार मोदी के मुकाबले आडवाणी के लिए 2014 की जमीन ज्यादा मुफीद लग रही है। मोदी को रोकने के लिए अगर आडवाणी   खूंटा गाड़कर खड़े हो जाते हैं तो एनडीए के पुराने सहयोगी  तो साथ रहेंगे ही नये साथी भी चुनाव के बाद जुड़ सकते हैं। यूपीए-2 की तमाम विफलताएं इस समय किसी से छिपी नहीं है। भ्रष्टाचार, महंगाई के दर्द से देश का आम वोटर कराह रहा है और यही 2014 में एनडीए का सबसे बड़ा मुद्दा बन सकता है। मोदी के नाम को आगे कर भाजपा भले ही 200 सीटें ले आये लेकिन पूर्ण बहुमत के जुगाड़ के लिए उसे सहयोगियों पर ही निर्भर होना पड़ेगा इससे बेहतर विकल्प यह है कि भाजपा 150 से 170 तक ही सिमट जाये तो आडवाणी अपने आसरे नये पुराने सहयोगियों को साथ लेकर मिशन दिल्ली पूरा कर सकते हैं । जानकारों की मानें तो चुनावों में आडवाणी ही भाजपा के सर्वमान्य नेता रहेंगे लेकिन कुछ लोग जबरन नमो-नमो राग को हवा दे रहे हैं।
   
भाजपा के भीतर इस समय एक नये सत्ता केन्द्र के रूप में राजनाथ सिंह का नाम भी उभर रहा है क्योंकि संघ का शुरूवात से उन पर खासा वरदहस्त रहा है। मोहन भागवत से लेकर संघ और भाजपा का एक बड़ा कैडर उनके हर फैसले पर साथ है जो उन्हें डार्क हार्स तो बना ही रहा है। शायद इसी के चलते दूसरी पंक्ति के नेता होने के बावजूद दिल्ली की डी  कंपनी वाली चौकड़ी को नकारकर वह संघ का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। यही वजह है दुबारा संघ ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर बिठाया। राजनाथ सिंह के पिछले कार्यकाल में भाजपा भले ही 2009 का लोकसभा चुनाव हार गई  लेकिन उन्होंने संघ को भी नजरअंदाज नहीं किया। वर्तमान में वह भी आडवाणी को अटल  बिहारी के बाद भाजपा का सबसे बड़ा नेता मान रहे हैं। वह जानते हैं अगर नमो की हवा हवा ही रह जाती है और खुद उनके नाम पर एनडीए का कुनबा नहीं बढ़ता है तो भाजपा में आडवाणी ही वह शख्स हैं जो एनडीए का दायरा बढ़ाकर यूपीए के विजयरथ को रोक सकते हैं। असल में भाजपा आज जहां खड़ी है वहां आडवाणी को मेहनत को हम नहीं नकार सकते। शायद यही वजह है इस दौर में नेताजी भी उनकी ईमानदारी के कसीदे कांग्रेस को आईना दिखाने के लिए पड़ रहे हैं। 1968 में दीनदयाल उपाध्याय के बाद से आडवाणी ही भाजपा संगठन को नेतृत्व व दिशा देते रहे हैं। बाजपेयी के बाद स्वाभाविक तौर पर भाजपा में वह सर्वमान्य नेता थे। आज भी हैं और शायद आगे भी रहें। जिन्ना विवाद के बाद भले ही संघ ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा लिया लेकिन 2009 में फिर उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया। आज भी भाजपा में बिना आडवाणी से राय लिये बिना पत्ता भी नहीं हिलता। हाल ही में गडकरी की दुबारा अध्यक्ष पद पर आडवाणी की राय को तवज्जो मिली जो बताता है संघ भी इस दौर में आडवाणी को अनदेखा किये बिना नहीं चल सकता। राजनाथ सिंह दूसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर भले ही बैठ गये हो लेकिन वह भी आडवाणी को विश्वास में लिये बिना नहीं चल सकते। नमो के मुकाबले राजग में आडवाणी की छवि ज्यादा स्वीकार्य दिख रही है। यह दौर गठबन्धन का है और सरकारे भी साझा कार्यक्रमों की  छाँव  में चला करती है। आडवाणी का लम्बा राजनैतिक अनुभव भावी सरकार को कुशल नेतृत्व दे सकता है। आने वाले दिनों में एनडीए का कुनबा मोदी के नाम पर अगर बिखरता है तो आडवाणी ही ऐसा नाम है जो बिखराव को रोक सकते है। भाजपा की नजरे फिलहाल मध्यप्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राज्यस्थान के विधान सभा चुनावों  पर टिकी है जहां के चुनावी परिणाम बहती हवा का थोड़ा बहुत  अहसास तो पार्टी को करवा ही देंगे। अगर पार्टी यहां अच्छा करती है तो हवा के रूख के मद्देनजर भाजपा पीएम पद के लिये अपने पत्ते खोल सकती है। वर्तमान में कोई दल अपने बूते सरकार नहीं बना सकता। भाजपा के सामने भी 2014 में यही असल चुनौती है जहां उसे उसके सहयोगी ही पहुंचा सकते है। नये-पुराने सहयोगी भी भाजपा की नई राह 2014 में खोलेंगे बशर्ते ऐसे नेता को पार्टी प्रधान मंत्री पद के लिये प्रोजेक्ट करे जो सब को साथ लेकर चले और सेकुलर छवि का हो। अगर आडवाणी खुद प्रधानमंत्री पद के लिये रजामंद हो जाते है तो भाजपा, संघ क्या एनडीए में भी आडवाणी सरीखा कोई विकल्प इस दौर में मौजूद नहीं है।



Monday 8 April 2013

अलविदा ....आयरन लेडी



“मुझे थैचर की मृत्यु से गहरा दुःख पहुंचा है | हमने एक दूर द्रष्टा नेता खो दिया है’’  | ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने कुछ इन्ही शब्दों के साथ अपने प्रधानमंत्री को आखरी विदाई दी | बीते सोमवार को ब्रिटेन के हर नागरिक की आँखें नम हो गई जब उन्होंने अपने प्रिय नेता की मौत का समाचार सुना | अपने प्रिय नेता को खोने का गम कैसा होता है यह ब्रिटेन की इकलौती महिला प्रधानमंत्री रही मार्गेट थैचर की मृत्यु से समझा जा सकता है | ब्रिटेन की राजनीती में आयरन लेडी का जो मकाम थैचर ने अपने आसरे गढा उसको छू पाना किसी भी नेता के लिए भविष्य में आसान नहीं लगता |

 आयरन लेडी के नाम से मशहूर थैचर की समकालीन विश्व राजनीती पर पकड़ कॉ अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीसवी सदी की सबसे सशक्त शख्सियतो में उनका नाम उस दौर में शुमार था | अपनी राजनीतिक पारी में तीन बार जीत की हेट्रिक लगाने वाली थैचर ने १९७९ से १९९० तक के दौर में ब्रिटेन को ना केवल कुशल नेतृत्व प्रदान किया बल्कि उस दौर में कंजरवेटिव पार्टी की बिसात को अपने करिश्मे से नया आयाम दिया और सबसे लंबे वक्त तक ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बन इतिहास के पन्नों में अपने को अमर कर दिया | थैचर ने अपने अंदाज में जहाँ राजनीतिक लीक पर चलने का साहस दिखाया वहीँ तमाम कयासो को धता बताते हुए अपने विचारों और समझ बूझ के साथ राजनीती की रपटीली राहों में अपना रास्ता खुदबखुद तैयार किया और शायद यही वजह रही उनके सिद्धांतों को उस दौर में थैचरिज्म नाम दे दिया गया |

शुरुवात में थैचर की राजनीती में रूचि नहीं थी लेकिन १९५९ में संसद बनकर उन्होंने राजनीति के मिजाज को अपने अंदाज में ना केवल जिया बल्कि समझ बूझ से राजनीती की बिसात को बिछाया | १९७५ में जब पूर्व प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ को उनकी ही पार्टी ने पद से बेदखल कर दिया तब वह मजबूत नेता के तौर पर कंजरवेटिव पार्टी में उभर कर सबके सामने आई और उनका लोहा हर किसी को मानना पड़ा | यही वजह थी १९७९, १९८३ और १९८७ के चुनाव में ताबड़तोड़ जीत की हैट्रिक  बनवाकर थैचर ने अपने को ब्रिटेन के साथ ही विश्व की राजनीती में मजबूत नेता के तौर पर उभारा | सत्तर के दशक को कोई नहीं भूल सकता जब रूस की व्यापक आलोचना के मसले पर उनके द्वारा एक शानदार भाषण दिया गया जिसके चलते रूस ने उनको आयरन लेडी का खिताब देना पड़ा |

शीत युद्ध का दौर भी हर किसी के जेहन में बना है | उस समय पूरा विश्व दो गुटों में बट गया था | एक गुट का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था तो सोवियत संघ भी उस दौर में सुधारों की प्रक्रिया से गुजर रहा था | ब्रिटेन उस दौर में अमेरिका का साथी बना | उस दौर में रीगन और जार्ज एच  बुश के साथ उनकी खूब जमी | थैचर ने अपने लंबे कार्यकाल में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था ने नयी जान फूंकी और कई सरकारी योजनाओं का निजीकरण किया | उस दौर में भारत में जहाँ आर्थिक सुधारों की शुरुवात नरसिंह राव शासन में शुरू हुई तो वित्त मंत्री की कमान मनमोहन सिंह ने थामी थी तो वहीँ थैचर  ने ब्रिटेन में आर्थिक सुधारों का झंडा उठाकर अर्थव्यवस्था को नया आयाम दिया | थैचर के शासन में सोवियत संघ का विभाजन हुआ तब पूँजीवाद हावी हो गया और साम्यवाद का ग्राफ गिरने लगा | थैचर ने अपनी नीतियों के आसरे आर्थिक सुधार मुक्त अर्थव्यवस्था की शक्ल में ढालकर किये  और ब्रिटेन में पूँजीवाद को प्रधानता देने का काम किया | 

अस्सी के दशक में अर्जेंटीना के फाकलैंड आयलैंड में दखल के बाद कई सलाहकारों ने थैचर से कहा आप इस समस्या पर हाथ ना डालिए लेकिन थैचर ने अपने दिल की सुनी और इस समस्या को सुलझा लिया  और द्वीप हासिल किया | थैचर की गिनती उस दौर में रीगन से लेकर गौर्वाचौव सरीखे नेताओ के साथ अगर होती थी तो इसके पीछे उनकी राजनीतिक सूझ बूझ जिम्मेदार थी और शायद इसी सूझबूझ ने उन्हें उस दौर में ताकतवर और कद्दावर महिला प्रधानमंत्री के रूप में विश्व की राजनीती में चर्चित कर दिया | उनकी मृत्यु से ब्रिटेन और विश्व ने एक ऐसा महान नेता खो दिया है  जिसके मन में कुछ अलग करने का जज्बा था जिसकी भरपाई करना आसान  भी नहीं रहेगा | राजनीती के अखाड़े में ऐसे मुकाम बहुत कम नेता पा पाते हैं | सच कहें तो कुशल राजनेता वह है जो भीड़ की नब्ज पकड़ना जानता है  और थैचर की गिनती इसी श्रेणी में होती थी और यही चीज राजनीती में उनको सही मायनों में आयरन लेडी बनाती थी |