Friday 30 October 2015

युवा दिलों की धड़कन बनता ऍफ़ एम




यह नजारा मेट्रो से लगी दिल्ली की एक झुग्गी झोपड़ी का है जहाँ पर कई कामगार मजदूरों की टोली मेट्रो ट्रैक बिछाने के काम में सवेरे से आ जाती है और दिन की शुरुवात से पहले मामू के खोमचे के पास चाय और नाश्ते को लेकर भीड़ लगाए रहती है | अब यह भीड़ उस समय अधिक बढ़ जाती है जब क्रिकेट मैच चल रहा होता है | भारत और अफ्रीका के बीच चौथे वन डे मैच शुरू हो गया है | विराट कोहली मैच के तीसरे ओवर में सिक्स लगा देते हैं | रोमांच पैदा होता है | आस पास इंडिया जीतेगा के नारे चल निकलते हैं और विराट और रैना के चौक्कों और छक्कों के बीच भारत तेजी से 100 रन बना लेता है तो मामू की दुकान पर पहली बार देश प्रेम दिखता है जहाँ पूरे मजदूरों की टोली जश्न से सरोबार हो उठती है और यह वाकया यह भी बताता है क्यों क्रिकेट गली गली में खेला जाता है और क्यों देवताओं की भांति क्रिकेटरों को हमारे देश की जनता पूजती है ? उनके अच्छे खेल के लिए जनता न केवल हवन करती है बल्कि हर पल सिर्फ भारत की जीत की ही दुआ करती दिखाई देती है |

 शाम ढलते ढलते जब भारत मैच पर पकड़ आना लेता है और अफ्रीका की टीम हार की तरफ बढती है तो फिर यह मजदूरों की टोली मामू की दुकान में कमेन्टरी सुनने एकत्रित हो जाती है और भारत के जीतने पर नाच गाकर जश्न मनाती है |  यह तो महज एक बानगी भर है | आज आपको ऐसे लोग हर इलाके में मिल जायेंगे जिनके दिन की शुरुवात ऍफ़ एम से होती है |

 दीपा कॉल सेण्टर में काम करती है | नोएडा सुबह 5 बजे जाना है लेकिन इतने सुबह मेट्रो नहीं मिल पाती सो उसके दफ्तर से कैब लेने आ जाती है | झटपट उठकर वह कैब पकड़ने निकल पड़ती है | खाना पीना तो छोड़ो , अपना पिंक कलर का पर्स और हाथो में आई फ़ोन और कान में हैडफ़ोन लगाकर वह अपनी मंजिल को चल निकलती है | नोएडा अभी बहुत दूर है लेकिन उसके साथी ऍफ़ एम ने सुबह सुबह भजन और पुराने गाने बजाकर उसका मनोरंजन बखूबी कर दिया | हर दिन वह सफ़र में बोर नहीं होती  और तो और खाली समय में आते जाते समय वह कान में हैडफ़ोन ही लगाये रखती है | ऐसा मेट्रो शहर में ही संभव है जहाँ लोग एक दूजे से बात करना पसंद नहीं करते हैं लेकिन बसों और मेट्रो में ऍफ़ एम की बातें बड़ी  आत्मीयता से सुनते देखे जा सकते हैं |   
    
अनिमेष  काफी व्यस्त  इंसान है | वह सोते समय जागता है , जागते समय सोता है | कब पढता है ? कब खाता है ? दिन भर क्या करता है इसका कुछ भी आता पता नहीं | दिन भर के काम काज निपटाने के बाद जब वह रात को 8 से 10 के बीच राजीव चौक मेट्रो स्टेशन से नोएडा के लिए निकलता है तो उसे भी मनोरंजन के लिए कुछ चाहिए | ऐसे में मेट्रो की भीडभाड के बीच उसका जीवनसाथी  ऍफ़ एम बन जाता है | वह चाहे मेट्रो के दरवाजे में खड़ा हो या सीट के पास बैठकर डेली टाइम्स पढ़े ,गर्मी के दौरान उमस में कहीं भी फंसा रहे या डी टी सी के स्टॉप पर खड़ा होकर बाहरी मुद्रिका की प्रतीक्षा करे हर जगह उसका साथी मोबाइल और ऍफ़ एम बन जाता है |  पता नहीं दिन भर अनिमेष के कान से हैडफ़ोन बाहर क्यों नहीं निकलता ? 

यही हाल आई आई टी की कोचिंग लेने जा रहे  संदीप का है जो आर के पुरम से बस में चढ़ता है | तभी कान में ऍफ़ एम से सूचना मिलती है आज मुनिरका वाले रूट पर बड़ा जाम लगा है अब वह मेट्रो की राह जाम से बचने के लिए पकड़ता है | ऐसा करके उसने अपने समय की बचत कर ली | अगर वह बस में बैठकर जिया सराय जाता तो शायद उसकी कोचिंग के महत्वपूर्ण टापिक क्लीयर नहीं हो पाते और बहुत कुछ छूट जाता |  मोबाइल में ऍफ़ एम की सुविधा ने निश्चित ही रेडियो में नई जान फूंकने का काम किया है | पहले रेडियो के दर्शन बहुत कम मोबाइल में हो पाते थे लेकिन आज बड़े बाजार में हर कंपनी ऍफ़ एम की सुविधा लोगों को दे रही है जिसके चलते महानगरों में रेड ऍफ़ एम से लेकर रेडियो मिर्ची , रेडियो वन और मेट्रो फीवर की धूम मची हुई है | महानगरों में ऍफ़ एम चैनलों की बाढ़ आई हुई है | हर कोई चैनल लोगों को पुराने और नए नगमे ना केवल सुना रहा है बल्कि हर समस्या और खबर से लोगों को सीधे रूबरू करवा रहा है |  इस प्रकार ऍफ़ एम युवाओं की आज पहली पसंद न केवल बन गया है बल्कि हर कोई मोबाइल में ऍफ़ एम संगीत का लुफ्त उठाने में पीछे नहीं है | सही मायनों में मेट्रो शहर में नई धड़कन ऍफ़ एम बन गया है जिसे किसी भी कोने में अपनी सुविधा और समय के अनुसार सुना जा सकता है |

आने वाले दिनों में ऍफ़ एम सेक्टर में बूम आने जा रहा है | सरकार ने तीसरे चरण की ऍफ़ एम नीलामी की प्रक्रिया पूरी कर ली है | अब ऍफ़ एम के दायरे को मेट्रो महानगरों से निकालकर शहर तक ले जाने की कोशिश की जा रही है | अगर ऐसा होता है तो ऍफ़ एम सेक्टर युवाओं के लिए नए रोजगार के द्वार निश्चित ही खोलेगा | ऍफ़ एम ने युवाओं को हाल के वर्षो में बहुत प्रभावित किया है और युवा भी दिल लगाकर इसके प्रसारणों का लाभ लेने में पीछे नहीं हैं | फास्ट फ़ूड संस्कृति की तरह ऍफ़ एम ने युवाओं के बीच उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्यक्रम बनाने शुरू कर दिए हैं | ऍफ़ एम चैनलों के जॉकी युवा वर्ग की तमाम समस्याओं से अपने प्रोग्रामो में सीधे रूबरू हुआ करते हैं जिसे देखकर कई बार ऐसा लगा प्राइवेट चैनल से युवा वर्ग सीधा जुड़ाव महसूस करते हैं | 
 प्रधानमंत्री के मन की बात संबोधन को रेडियो पर सुनने के लिए समाज के हर तबके ने जिस तरह रेडियो का सहारा लिया उसने इस माध्यम में नए प्राण फूंकने का काम किया है | जब से आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री ने मन की बात  शुरू की है उनकी बात ऍफ़ एम चैनलों के जरिये एक बार फिर घर घर पहुंच रही है। देश का कोई ऐसा कस्‍बा ऐसा नहीं बचा है जहां से प्रधानमंत्री की  मन की बात पर  रविवार को चर्चा नहीं हो रही हो | दिल्ली  स्थित  आकाशवाणी भवन  में  हर दिन मन की बात के लिए पहुंच  रहे पत्र इस बात की गवाही दे रहे हैं लोगों को  हमारे प्रधानमन्त्री का यह  नया तरीका बेहद पसंद आ रहा है देशवासी प्रधानमंत्री की इस पहल से खासे खुश हैं और संडे की सुबह से गाँवों , कस्बों में सजने वाली महफिलों में  चर्चा के केंद्र में मन की बात ही होती है | यानी साफ़ है प्रधानमंत्री की इस नई पहल से रेडियो अपने नए रूप में एक बार फिर हमारे देश में  लोकप्रियता के शिखर पर जा रहा है और लोग आकाशवाणी और प्राइवेट ऍफ़ एम चैनलों के जरिये मन की बात का लुफ्त उठाने से पीछे नहीं हैं |

साफ़ है आज ऍफ़ एम न केवल लोगों का मनोरंजन कर रहा है बल्कि श्रोताओं के साथ सीधा जुड़ाव होने से दोनों के बीच दोस्ताना सम्बन्ध हो गए हैं | आने वाले दिनों में ऍफ़ एम की  यह नई क्रांति भारत में नया इतिहास लिखेगी इस संभावना से अब तो कम से कम हम इनकार नहीं कर सकते | सरकार की भी कोशिश है जल्द ही समाचारों की दुनिया के लिए भी प्राइवेट ऍफ़ एम चैनलों को खोल दिया जाए जिससे कि 24 घंटे के खबरिया चैनलों की तरह वहां भी लोग देश और दुनिया की बदलती तस्वीर को शब्दों के बिम्ब के आसरे महसूस कर सकें | देखना होगा इस दिशा में क्या कोई नई कामयाबी ऍफ़ एम को मिल पाती है ?      

Sunday 25 October 2015

आगे- आगे एनडी पीछे- पीछे रोहित

      




कांग्रेस के कद्दावर नेता और चार बार अविभाजित उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी इन दिनों उत्तराखंड के प्रवास पर हैं |  बीते दिनों उनके समर्थकों ने उनका 90 वां जन्म दिन बड़ी धूम धाम से हल्द्वानी में मनाया जहाँ तिवारी के समर्थकों और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने शिरकत की | इस आयोजन में जहाँ यू पी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी शामिल हुए वहीँ उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत से लेकर उत्तराखंड की राजनीति के बड़े बड़े दिग्गज नेताओं ने तिवारी के कसीदे पड़ उन्हें ना केवल विकासपुरुष की उपाधि से विभूषित किया बल्कि उनके दीर्घायु होने की कामना की | यूँ तो यह कार्यक्रम गैर राजनीतिक था लेकिन अपने नब्बे वर्ष के पडाव पर  बर्थडे के बहाने एन डी तिवारी ने इस मौके पर अपने बेटे रोहित को उत्तराखंड में रीलांच करने में कोई कसर नहीं छोडी | तिवारी ने पिछले एक हफ्ते से भी ज्यादा समय से नैनीताल जिले में सक्रियता जिस अंदाज में बढाई हुई है उससे उत्तराखंड की राजनीती में गहमागहमी बढ़ गई है क्युकि उत्तराखंड की राजनीति का बड़ा कवच लम्बे समय से एन डी के इर्द गिर्द ही घूमता रहा है और प्रदेश में उनके चाहने वाले प्रशंसक न केवल कांग्रेस बल्कि हर राजनीतिक दल में आज भी मौजूद हैं |  तिवारी ने अपने कार्यकाल में विकास कार्यों से जनता के दिलों में अपने लिए अलग छवि बनाई है शायद यही वजह रही अपने नब्बे बरस के पडाव पर जन्मदिन के आयोजन में उनके चाहने वालों की भारी भीड़ बधाई देने पहुंची और तिवारी जी ने भी किसी को निराश नहीं किया | 
    
उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है लिहाजा एन डी तिवारी की नैनीताल में फिर से सक्रियता से तिवारी के विरोधियों की नींद उडी हुई है | उत्तराखंड की राजनीती में एन डी फैक्टर खासा अहम रहा है और आज भी तिवारी को विकास पुरुष की संज्ञा से नवाजा जाता रहा है तो इसका बड़ा कारण अपने कार्यकाल में तिवारी के द्वारा खींची गई वह लकीर है जिसके पास आज तक उत्तराखंड का कोई मंत्री , नेता और मुख्यमंत्री तक नहीं फटक सका है | आज भी उत्तराखंड के गाँवों से लेकर शहर तक में तिवारी के बार में एक जुमला कहा जाता है जितना पैसा तिवारी जी उत्तराखंड के लिए अपने संपर्कों के आसरे लेकर आये उतना कोई मौजूदा नेता नहीं ला सकता शायद यही वजह है तिवारी जी विकास के शिखर पुरुष के रूप में उत्तराखंड के हर तबके में सर्वस्वीकार्य हैं |  उत्तराखंड की राजनीती में कई लोगों ने एन डी तिवारी से ही राजनीती का ककहरा सीखा है लिहाजा आने वाले दिनों में अगर वह अपने बेटे रोहित शेखर को आगे करते हैं तो उनके विरोधियों की मुश्किलें बढ़नी तय हैं | इससे उन नेताओं में ख़ुशी है जिनकी अतीत में तिवारी के साथ निकटता रही है | उत्तराखंड में कई कांग्रेस के विधायक और मंत्री हरीश रावत की सरकार में जरूर हैं लेकिन इनमे बड़ा तबका ऐसा है जो  ‘हरदा’ के एकला चलो रे राग से सरकार में अपनी उपेक्षा से इस समय आहत है लिहाजा अगर उत्तराखंड  में तिवारी 2017 से पहले अपनी सियासी विरासत रोहित के जरिये साधते हैं तो उन्हें इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए कई समर्थक मिल सकते हैं |  कैबिनेट मंत्री इंदिरा हृदयेश से लेकर डॉ हरक सिंह रावत , यशपाल आर्य से लेकर विजय बहुगुणा सरीखे कई बड़े नाम तिवारी की छत्रछाया में ही बढे हैं | 


बीते कुछ बरस से नेताजी के साथ लखनऊ  में एन डी तिवारी की गलबहियां उत्तराखंड की राजनीती में कोई नया गुल खिला सकती  है । अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो रोहित शेखर को आगे कर समाजवादी पार्टी  उत्तराखंड में अपना मास्टर स्ट्रोक आने वाले कुछ समय बाद खेल सकती है |  दरअसल 2009  में आंध्र प्रदेश के "सीडी" काण्ड  के बाद जहां तिवारी  की  कांग्रेसी आलाकमान से दूरियां  बढ़ गयी  वहीँ चुनावी बरस में तिवारी की राय को कांग्रेस लगातार अनदेखा करती रही  जिसके चलते राजनीतिक  बियावान में तिवारी अपने तरकश से अंतिम तीर आने वाले कुछ दिनों में छोड़ कर अपने विरोधियों को चौंका सकते हैं |  इन दिनों एन डी तिवारी अपने पुश्तैनी गाँव जाकर लोगों से उत्तराखंड के राजनीतिक मिजाज की टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं |  इस दौर में वह न केवल अपने पुराने स्कूल गए हैं बल्कि भवाली सैनिटोरियम से लेकर नैनीताल के विकास कार्यों को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं |  हालाँकि इशारों इशारों में तिवारी जी ने यह कहा है वह रोहित को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने जा रहे हैं जिसके गहरे निहितार्थ इन दिनों गली गली में निकाले जा रहे हैं | रोहित के चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर उन्होंने यह जरूर कहा है रोहित अपना फैसला लेने के लिए स्वतन्त्र है लेकिन यह तय है तिवारी जी दूरदर्शी नेता  रहे हैं और अपने तजुर्बे के आधार पर कोई भी बात करते अगर देखे जा रहे हैं तो इसके गहरे मायने  हैं |  रोहित के आगामी विधान सभा चुनाव लड़ने के सम्बन्ध में तिवारी अपने गृहनगर के कुछ करीबियों से परामर्श कर अपने पत्ते 2016 में खोल सकते हैं  । हाल ही में उनके जन्म दिन के मौके पर बेटे रोहित शेखर ने यह जरूर कहा कि उम्र के इस पडाव पर उत्तराखंड सरकार ने तिवारी जी को न केवल तन्हा छोड़ा दिया बल्कि उनके पिता से सारी  सुख सुविधा छीन ली वहीँ उत्तर प्रदेश के सी एम अखिलेश ने उन्हें न केवल आसरा दिया बल्कि खुद उनको दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री का दर्जा दिया | अब  इन संकेतों को अगर डिकोड किया जाए तो साफ़ है तिवारी का पूरा परिवार उत्तराखंड में अपनी उपेक्षा से ख़ासा आहत दिखा है |  जाहिर है ऐसे में रोहित शेखर के कांग्रेस में जाने की संभावनाओं का चैनल इतनी आसानी से कम से कम उत्तराखंड में तो नहीं खुलने जा रहा है | वैसे भी कांग्रेस की 2017 की बिछने जा रही बिसात में वंशवाद की अमरबेल बढने के आसार दिख रहे हैं जिसमें इंदिरा हृदयेश से लेकर यशपाल आर्य , हरीश रावत से लेकर विजय बहुगुणा सरीखे कई नेता सभी अपने पुत्र पुत्रियों के टिकात के लिए टकटकी लगाये बैठे हैं | ऐसे में रोहित को कांग्रेस एप्रोच करेगी यह मौजूदा हालातों में मुश्किल पहेली दिखती है | हाँ, समाजवादी पार्टी की राह पकड़कर वह ना केवल उत्तराखंड में अपनी नई संभावनाएं तलाश सकते हैं बल्कि उत्तराखंड में तिवारी के करीबियों को भी उत्तराखंड में साध सकते हैं | सक्रिय  राजनीती में  नारायण  दत्त तिवारी की इस वापसी से  न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस के तमाम दिग्गजों के होश फाख्ता किये हुए हैं शायद यही वजह है हर राजनीतिक दल नैनीताल उधमसिंहनगर  को लेकर अपने पत्ते फेंटने  की स्थिति में नहीं है ।

     लम्बे समय से लखनऊ में नेताजी और अखिलेश यादव के साथ तिवारी की इस नई  जुगलबंदी को उत्तराखंड की सियासत में अब एक नई लकीर  खींचने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है  । बताया जाता है नेताजी ने रोहित शेखर तिवारी को उत्तराखंड  से लड़ने का ऑफर दिया है जिस पर रोहित  इन दिनों अपने पिता  तिवारी के साथ अपनी बिसात  बिछाते नजर आ रहे हैं । कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग नेता और उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के बेटे रोहित शेखर के  नैनीताल-ऊधमसिंहनगर की किसी एक सीट से समाजवादी पार्टी सपा के टिकट पर 2017 में विधान सभा का  चुनाव लड़ने की चर्चा जोर शोर से चल निकली है | गौरतलब है इस सीट से तिवारी तीन बार सांसद रह चुके हैं |  तीन बार उत्तर प्रदेश और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे एनडी की राज्य में मान्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक बने आठ मुख्यमंत्रियों में वह ऐसे इकलौते सीएम हैं जिन्होंने काफी खींचतान के बावजूद अपना  कार्यकाल पूरा किया |

18 अक्तूबर, 1925 को नैनीताल के बलूती गांव में पैदा हुए तिवारी आजादी के समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष रहे  । तिवारी  देश के  ऐसे इकलौते  नेता हैं जो राजनीति में  परोक्ष रूप से सक्रिय हैं | उत्तर प्रदेश में चार बार और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तथा केंद्र में लगभग हर महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रहे तिवारी  की राजनीतिक पारी राजनीती की पिच पर उनकी बैटिंग करने की टेस्ट मैच  स्टाइल को बखूबी बयां करती है । 1952 में काशीपुर से चुनाव जीत कर पहली बार विधानसभा पहुंचे एनडी तिवारी के अपने 90 वें जन्म दिन पर  अपने बेटे रोहित को विरासत सौंप देने की सुगबुगाहट से उत्तराखंड के  बड़े-बड़े नेताओं के पसीने इस दौर  में छूट रहे हैं क्योंकि नैनीताल और उधमसिंहनगर  का पूरा इलाका  तिवारी का मजबूत गढ़ रहा है । अपने कार्यकाल में इस तराई के इलाके में तिवारी ने विकास की जो गंगा बहाई उसकी आज भी विपक्षी तारीफ़ किया करते हैं और जितना कुछ आज यहाँ दिख रहा है यह सब तिवारी जी की ही देन है | अपने कार्यकाल में तिवारी ने न केवल इस इलाके में सडकों का भारी जाल बिछाया बल्कि औद्योगिक इकाईयों की स्थापना से लेकर बुनियादी इन्फ्रास्ट्रेक्चर मुहैय्या करवाने में तिवारी के योगदान को आज भी नहीं भुलाया जा सकता शायद यही वजह है उनके विरोधी भी उनके राजनीतिक कौशल के कायल रहे हैं । वैसे एन डी तिवारी के सक्रिय  राजनीतिक जीवन की शुरुवात भी  इसी नैनीताल की कर्मभूमि से ही हुई  । चालीस के दशक में जनान्दोलनों में सक्रिय  रहे तिवारी ने अपनी सियासी पारी को नई उड़ान इसी नैनीताल संसदीय इलाके ने जहाँ दी ,वहीँ स्वतंत्रता आंदोलन और आपातकाल  के दौर में भी तिवारी ने अपनी भागीदारी से अपनी राजनीतिक कुशलता को बखूबी साबित किया । नारायण दत्त तिवारी नब्बे  के दशक  में प्रधानमंत्री की कुर्सी से भी चूक गए थे । उस दौर को अगर याद करें तो नरसिंह राव ने चुनाव नहीं लड़ा लेकिन  नरसिंह  राव  पीएम बन गए । आज भी तिवारी के मन में  पी एम न बन सकने की कसक है | उनकी मानें तो 1991 में नैनीताल बहेड़ी संसदीय  सीट से वह इसलिए चुनाव हार गए क्युकि चुनाव प्रचार के दौरान अभिनेता दिलीप कुमार ने बहेड़ी में सभा की | उनका असली नाम युसूफ मिया था और किसी ने अफवाह उड़ा दी कि युसूफ मियां की सिफारिश पर ही उन्हें टिकट मिला है | इससे लोगों में गलत सन्देश गया और उनके वोट कट गए |  अगर तिवारी नैनीताल में नहीं हारते तो शायद वह उस समय देश के प्रधानमंत्री बन जाते ।  इसके बाद तिवारी की उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के रूप में इंट्री वानप्रस्थ के रूप में 2002  में हुई । इसी वर्ष  उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने पर कांग्रेस आलाकमान ने  हरीश रावत को नकारकर एनडी तिवारी को  सरकार की बागडोर सौंपी थी |  तिवारी उस समय लोकसभा में नैनीताल सीट से ही सांसद थे लिहाजा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर रामनगर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और रिकार्ड जीत दर्ज कर उत्तराखंड में अपनी  धमाकेदार इंट्री की। तिवारी के तमाम राजनीतिक कौशल के वाबजूद उनके विरोधी तिवारी को राज्य आंदोलन के मुखर विरोधी नेता के रूप में आये  हैं शायद इसकी बड़ी वजह तिवारी का अतीत में दिया गया वह बयान रहा जिसमे उन्होंने कहा था उत्तराखंड उनकी लाश पर बनेगा लेकिन इन सब के बीच नारायण दत्त तिवारी की गिनती विकास पुरुष के रूप में उत्तराखंड में होती रही है । इसका सबसे बड़ा कारण यह था उन्होंने अपनी सरकार में विरोधियो के साथ तो लोहा लिया ही साथ ही विपक्षियो को भी अपनी अदा से खुश रखा शायद यही वजह रही  उस दौर में भाजपा पर मित्र विपक्ष के आरोप भी लगे ।

 उत्तराखंड में 2002 विधानसभा चुनाव  के बाद उन्होंने  कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन 2012 में हल्द्वानी, रामनगर, काशीपुर , विकासनगरकिच्छा ,जसपुर, रुद्रपुर और गदरपुर में कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए  बड़े रोड शो करके वोट मांगे ।  इस लिहाज से उत्तराखंड में तिवारी फैक्टर की अहमियत को अब भी नहीं नकारा जा सकता । 2009  में  हैदराबाद राजभवन "सेक्स स्कैंडल" और  " रोहित  शेखर" पुत्र विवाद के बाद सियासत में  बेशक उनका सियासी कद घट जरुर गया और उनके अपने कांग्रेसियों ने उनसे दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी लेकिन  तिवारी टायर्ड  नहीं हुए बल्कि देहरादून  में फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का "अनंतवन "  फिर से उनकी नई राजनीति का नया  केंद्र बन गया  जहाँ से उन्होंने लखनऊ की तरफ अपने कदम बढ़ाये और नेताजी और अखिलेश सरकार को अपना मार्गदर्शन देने का  न केवल काम  किया बल्कि  यू पी के कई सरकारी विभागो की ख़ाक छानकर यह बता दिया अभी भी राजनीती तिवारी की रग रग में बसी है । भले ही कांग्रेस आलाकमान उनको भाव ना दे लेकिन वह हर किसी को सलाह देने को तैयार हैं ।

अब उत्तर प्रदेश के युवा सी एम  अखिलेश  यादव  नारायण दत्त  तिवारी के इसी राजनीतिक कौशल को कैश करने की  योजना  अपने सिपहसालारों  के साथ बनाने में जुटे हैं जिसमे सपा  रोहित शेखर तिवारी के आसरे उत्तराखंड में अपनी पकड़ मजबूत बनाने की योजना को मूर्त रूप देने  में लगी  है । वैसे सपा का उत्तराखंड में खासा जनाधार नहीं है क्युकि  अलग राज्य आंदोलन के दौर में सपा के बहुत कटु अनुभव रहे हैं । अतीत में जहाँ रामपुर तिराहा काण्ड  पार्टी की  छवि को खराब  कर चुका है वहीँ उत्तराखड में मायावती का हाथी लगातार इस दौर में पहाड़ की चढ़ाई चढ़ चुका है बल्कि अपना वोट बैंक भी मजबूत कर रहा है । सपा अब 2017 के उत्तराखंड चुनावों से पहले  तिवारी को साथ लेकर उनके बेटे रोहित को  चुनाव लड़वाकर जहाँ  उत्तराखंड में अपना वोट बैंक मजबूत  कर सकती  है वहीं तिवारी के साथ उत्तराखंड में  ब्राह्मणों  का बड़ा जनाधार होने से सपा अन्य राजनीतिक दलों  के खिलाफ नई गोलबंदी  पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी कर सकती है । अगर ऐसा होता है तो भाजपा , कांग्रेस और बसपा के जनाधार में  बड़ी सेंध लगने का अंदेशा है । जहाँ तक रोहित शेखर तिवारी की एन डी के उत्तराधिकारी के रूप स्वीकार्यता का सवाल है तो इसकी चाबी जनता के हाथ में है | रोहित को समझना होगा राजनीति की राह रपटीली जरूर है लेकिन जनता के सरोकारों को विकास का मुल्लमा चढ़ाकर नई  पहचान न केवल दी जा सकती है बल्कि लोगों के दिल में भी जगह बनाई जा सकती है साथ  ही उन्हें इस बात को भी समझना होगा वह केवल राजनीती परिवारवाद बढाने के लिए राजनीति में नहीं आ रहे हैं, उन्हें अपने पिता एन डी के विकासकार्यों को आगे बढ़ाना है | इसके लिए सबसे सही तरीका संवाद है और एन डी भी इस कुशलता के माहिर खिलाड़ी रहे हैं लिहाजा रोहित को भी आज चाहिए वह लोगों के बीच व्यक्तिगत तौर पर जाकर अपनी अलग पहचान खुद से बनाये और जनता से जुडी जमीनी राजनीती करें | वह इसमें कितना कामयाब होंगे यह तो आना वाला कल ही  बतायेगा लेकिन यह तय है रोहित शेखर उत्तराखंड में तिवारी जी की लोकप्रियता का पूरा लाभ उठाने के मूड में दिखाई दे रहे हैं और इन दिनों पिता पुत्र की यह नई जोड़ी  उत्तराखंड में राजनीति के बैरोमीटर पर लोगों की नब्ज  और मिजाज को टटोलने में लगी हुई है जिसके गहरे निहितार्थ निकलने लाजमी हैं |

Sunday 11 October 2015

सूचना अधिकार के दस बरस




आरटीआई यानी सूचना का अधिकार कानून देश के इतिहास में अब तक के सबसे कारगर और प्रभावी कानूनों में से एक शायद यही क़ानून होगा जो सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाला  अमोघ हथियार है जिसके इस्तेमाल से कई बार सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खुल चुकी है । देश में हुए कई छोटे-बड़े घोटालों और सार्वजनिक भ्रष्टाचार को सार्वजनिक करने में इसी कानून की अहम भूमिका रही है। 2005 में यूपीए सरकार ने देश को सूचना अधिकार के रूप में एक कारगर अस्त्र प्रदान किया | इसको लागू करने के पीछे दो मुख्य उददेश्य थे | कामकाजी प्रक्रिया को जानने का हक़ देकर पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना साथ ही सरकारी कामकाज में टालमटोल वाली संस्कृति से उत्पन्न भ्रष्टाचार को कम करना | सरकार की कोशिश थी कि इस अधिकार के आने के बाद लोगो को सूचनाये आसानी से मिल जाएगी और यह अधिकार लोकतंत्र के सशक्तीकरण की दिशा मे एक मील का पत्थर साबित होगा लेकिन मौजूदा दौर में सूचनाए पाना भी इस देश में आसान नही रहा | लोगो को समय पर सूचनाए न मिले पाने की घटनाये आये दिन समाचार पत्रों में छाई  हैं जो यह साबित करने के लिए काफी है क्या यह देश कानून से चल सकता है ?    

स्वीडन ऐसा प्रथम देश था जिसने 1766 में अपने देश के नागरिको को सबसे पहले संवैधानिक रूप से यह अधिकार प्रदान किया | भारत में प्रथम प्रेस आयोग के गठन के समय से ही सूचना अधिकार की विकास यात्रा 1952 में शुरू हो गई |  इसके बाद इस अधिकार को लेकर हरी झंडी मिलने से पहले कई बैठकों का लम्बा दौर चला जिसका नतीजा सिफर ही रहा | सूचना अधिकार को आम जन तक पहुचाने की पहल सार्थक रूप से वी पी सिंह के जमाने में शुरू हुई लेकिन इस दौरान बनाये गए प्रावधान इतने लचर थे कि उस दौर में वी पी सिंह को भी इसे ख़ारिज करने पर मजबूर होना पड़ा था | 90 के दशक में संयुक्त मोर्चा की गुजराल सरकार  और फिर बाद मे एनडीए की सरकारों के समय इसमें सकारात्मक पहल नही हो पाई | यूपीए सरकार के पहले साल के कार्यकाल में अरुणा राय, अरविन्द केजरीवाल सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओ की मेहनत रंग लाई जिसके चलते सरकार को सूचना का अधिकार लागू करने पर मजबूर होना पड़ा था |  

 सूचना के अधिकार के तहत देश के किसी भी नागरिक को किसी भी सरकारी कार्यालय से सूचना मांगने का हक़ है| यह अधिकार लोगो को अधिकार सम्पन्न तो बनाता जरुर है लेकिन मौजूदा समय में हमारे देश के सरकारी विभागों में सूचना मांगे जाने के एवज  में टरकाने वाली कार्यसंस्कृति कम नही हुई है जिसके चलते कई सूचनाओ को देने में कर्मचारी आनाकानी करते हैं | अगर यह कानून सही ढंग से अमल में लाया जाए तो आम आदमी  के पास इससे सशक्त अधिकार शायद ही कोई होगा लेकिन हर विभाग में लालफीताशाही का साम्राज्य पहले भी कायम था और आज अभी भी  है |    

इस अधिकार के लागू होने के 10  बरस बाद भी देश की नौकरशाही इस अधिकार का गला घोटने  में तुली हुई है | निश्चित समय में सूचना न दिए जाने पर इस अधिकार के तहत अधिकारियो के विरुद्ध दंड देने का प्रावधान है लेकिन आज भी देश के भीतर  हालत यह है कि अधिकारियो और कर्मचारियों पर कोई कार्यवाही नही हुई है | कई राज्यों में जहाँ सूचना अधिकारियो का टोटा बना हुआ है वहीँ कई जगह टायर्ड नौकरशाही के आसरे सूचना अधिकार का बाजा बजाया जा रहा है |  जिन अधिकारियो ने अपनी पूरी जिन्दगी रिश्वत लेकर गुजारी है क्या देश का आम आदमी उनसे उम्मीद रख सकता है कि वह लोगो को समय पर सूचनाए दे सकते हैं | शायद अब समय आ गया है जब केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है कि वह लोगो को सही सूचनाए मुहैया करवाने की दिशा में ध्यान दें | अभी भी कई लोगो को सूचनाए देश में जहाँ आसानी से नही मिल रही हैं वही केंद्रीय सूचना आयोग में  आवेदनकर्ताओ ने अधिकारियो और कर्मचारियों के विरुद्ध शिकायतों का अम्बार लगाया हुआ है जिस पर सुनवाई तो दूर कारवाही तक नही हो पा रही है |

 गैर सरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राईट इनिशिएटिव की रिपोर्ट बताती है कि इस क़ानून की धार भोथरी कर दी गई है |  5 राज्यों में सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं जिनमे तेलंगाना सरीखा नया राज्य भी शामिल है | खुद केंद्र में ही केंद्रीय सूचना आयुक्त का पद खाली रहा | नई नियुक्ति तब हुई जब मामला न्यायपालिका के संज्ञान में आया | 2014 में सूचना आयुक्तों के 14 फीसदी पद खाली थे यह संख्या बढ़कर अब 20 फीसदी पहुच चुकी है | कानून के प्रावधानों के तहत प्रत्येक सूचना आयोग में 11 आयुक्त होने चाहिए लेकिन असम में 9 , मध्य प्रदेश , राजस्थान , सिक्किम , मेघालय में सिर्फ  एक ही सूचना आयुक्त काम कर रहे हैं तो वहीँ गोवा, हिमाचल, झारखण्ड , मणिपुर, मिजोरम , नागालैंड, उडीसा , बंगाल में सिर्फ दो दो सूचना आयुक्त ही कम कर रहे हैं | गुजरात में 7 , तमिलनाडू और छत्तीसगढ़ में सूचना आयुक्तों के 8 पद रिक्त पड़े हैं | आज भी देश के भीतर बड़ी आबादी ऐसी है जो गावो का प्रतिनिधित्व करती है उसके पास इस अधिकार को लेकर ज्यादा  जानकारी नही है |  ब्लाक स्तर  और ग्राम स्तर पर एक आम नागरिक की फरियाद हमारे सरकारी अधिकारी नही सुनते जिसके चलते वह निराशा में जीता है और हमारे अधिकारी शान और शौकत वाली जिन्दगी का तमगा हासिल कर लेते है | अभी भी  ग्रामीण स्तर  पर इस अधिकार के बारे में लोगो को जागरूक करने की जरुरत है तभी आने वाले वर्षो में यह अधिकार आम जनता का अधिकार बन सकेगा और इस काम में मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और मीडिया की एजेंडा सेटिंग थियोरी को अगर आधार बनाया जाए तो मीडिया इसमें लोगों को यह बताने की कोशिश करता है कि कौन सा मुद्दा उसके लिए महत्वपूर्ण  है और कौन सा गौड़  इस आधार पर मीडिया अगर आरटीआइ के प्रचार प्रसार में जागरूक रहे तो यह अधिकार लोगों को निश्चित ही अधिकार सम्पन्न बनाएगा | 

बेशक बीते एक दशक की यात्रा  में संसद में इस अधिकार को पारित करवाकर सरकार ने यह सन्देश देने की कोशिश जरुर की है कि अब आम आदमी सरकारी तंत्र के आगे नतमस्तक नही है बल्कि जरुरत पड़ने पर इस अमोघ  अस्त्र को शासन  से जवाबदारी के लिए इस्तेमाल कर सकता है | इसकी बानगी सूचना अधिकार के लागू  होने के कुछ महीनों बाद ही दिखाई देने लगी जब देश के कई लोगो ने कई दुरूह सुचनाये विभागों से हासिल की जिसका जिक्र मीडिया ने अपनी खबरों  में बखूबी किया भी वहीँ  मीडिया ने भी इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल अपनी खबरों की पैकेजिंग करने में किया | खोजी पत्रकारिता के लिए सूचना का अधिकार मुख्य हथियार साबित हो सकता है और इसकी मदद से खोजपरक पत्रकारिता की जा सकती है। आरटीआइ के लागू होने से पहले भी खोजी पत्रकारिता होती रही है। लेकिन वर्तमान परिवेश में इसका बड़ा लाभ लिया जा सकता है।  सूचना का अधिकार अधिनियम ने बीते दस बरसों में एक नयी क्रांति को जन्म देने के साथ ही सरकार को और जवाबदेह बनाया है |  नेताओ अधिकारियों विधायिका और कार्य पालिका की सांठगाँठ की पोले खोली है और कई भ्रष्टाचार उजागर किये हैं | आलम यह है कि इस अधिकार से कई  मंत्रियों तक को  कुर्सी से हाथ धोना पड़ा है | सूचना अधिकार क़ानून लागू होने के बाद सकारात्मक परिणाम कई मोर्चो पर देखने को मिले हैं |  चूँकि सरकारी कामों में पारदर्शिता बढ़ी है अतः इसे शुभ संकेत के रूप में देख सकते हैं और कहा जा सकता है अब यह अधिकार केवल वैधानिक नहीं रहा इसकी ताकत दिनों दिन बढ़ रही है और लोगों में जागरूकता भी आ रही है यही नहीं  अब गोपनीयता की आड़ में भ्रष्टाचार की गुंजाईश भी घटी है |  सूचना अधिकार की अब तक सबसे बड़ी सफलताओं में से यह एक बड़ी सफलता है जिसने भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं और आला अधिकारियों के होंश उड़ा दिए हैं और मीडिया में खबरें आने के बाद  देश भर के नेताओं और अधिकारियों में यह सन्देश गया है कि पैसे के लालच में कुर्सी जा सकती है जिससे समाज में थोडा भय तो दिखाई ही देता है लेकिन इसका स्याह पक्ष यह भी है कि पावरफुल नेताओं और अधिकारियों की पोल खोलने का खामयाजा भी सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं को भुगतना पड़ता है|  उन पर हमले होते हैं और  कई कार्यकर्ता मारे जाते हैं |  यह एक चिंता का विषय बन गया है | 
  
एक स्वयंसेवी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2010 में महाराष्ट्र में छह आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई और कई पर हमले किए गए। गुजरात में एक आरटीआइ कार्यकर्ता अमित जेठवा की जान चली गयी |  गिर के जंगलों में हो रहे अवैध खनन के खिलाफ जेठवा ने  उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। इसके कुछ समय बाद ही मोटरसाइकिल सवार बदमाशों ने गुजरात उच्च न्यायालय के नजदीक जेठवा की गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्या के सिलसिले में पुलिस ने एक  सांसद के भतीजे को राजकोट हवाई अड्डे के पास से गिरफ्तार किया गया। कई आरटीआइ एक्टिविस्टो की हत्या भी इस अधिकार के तहत सूचना मांगे जाने के चलते इस देश में हुई हैं जो यह बताने के लिए काफी है इस दौर में आम आदमी के सरोकार हाशिये  पर चले गए है और उसको सूचना मांगने के एवज में गोली खाने पर भी मजबूर होना पड सकता है | यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि  इस दौर में सूचना अधिकार होने के बाद भी सूचना मांगने की राह  इस दौर में कितना मुश्किल हो चली  है यही नहीं आकंडे  यह भी बताते हैं बीते 10 सालों में 40 आरटीआइ एक्टिविस्टों की हत्या कर दी गई | महाराष्ट्र सूचना मांगने वालों की हत्या और उत्पीडन में पूरे देश में अव्वल रहा है | वहां अब तक तकरीबन 53 आवेदनकर्ताओं पर जानलेवा हमले हो चुके हैं जिनमे 9 लोगों की जान जा चुकी है | गुजरात में 34 आवेदकों पर हमले हो चुके हैं जिनमे 3 लोग मारे जा चुके हैं | बिहार में 6 लोग सूचना माँगने के चलते मारे जा चुके हैं | सूचना अधिकार के तहत भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों का क्या हश्र होता है यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक्टिविस्टों को भी अब इस देश के समाज के ठेकेदार प्रताड़ित ही नहीं करते वरन उनको जान से भी हाथ धोना पड़ रहा है |  झारखंड के ललित मेहता, नियामत अंसारी , कामेश्वर यादव ने नरेगा में नेताओं और खनन माफियाओं के काकस को बेनकाब किया तो जब्बदारण गोधवी ( गुजरात) , सतीश शेट्टी, अरुण सामंत, विट्टल  गीता , दत्तात्रय पाटिल (महाराष्ट्र ), विजय प्रताप (यू पी) सहला मसूद ( मध्य प्रदेश ), सत्येन्द्र दुबे ने आरटीआइ के जरिये ही भ्रष्टाचार उजागर किया लेकिन इन्हें इसके बदले मौत मिली | क्या यही है हमारी सरकारों और सामज के ठेकेदारों का दायित्व और क्या इसी के चलते यह कानून बीते दस बरस पहले से लागू है ? 

सीआईसी की जानकारी के अनुसार 2006 -07 से 2012-13 के बीच 7 बरसों में आयोग में 147924 अपीलें पंजीकृत हुई हैं | उक्त अवधि में 116333 अपीलों और शिकायतों का निपटारा किया गया है | इस तरह 7 वर्ष में 31591 अपीलें लंबित हैं | आरटीआइ असेसमेंट एंड एडवोकेसी ग्रुप के अनुसार दिसंबर 2013 तक सबसे अधिक शिकायतें यू पी (48442), महाराष्ट्र (32390) , सी आई सी ( 26115) में सबसे अधिक मामले लंबित हैं | रिपोर्ट को अगर आधार बनाएं तो 2012-13 में सबसे ज्यादा अपीलें महाराष्ट्र (73968) में प्राप्त की गई जिसके बाद केंद्रीय सूचना आयोग( 62723) और फिर यू पी (62008 ) का नंबर आता है | निपटारे के मामले में भी महाराष्ट्र सूचना आयोग में सबसे अधिक (61442)अपीलें निपटाई गई | इसके बाद यू पी (60865) और केंद्रीय सूचना आयोग (47662 ) शामिल रहे |  

 सूचना का अधिकार कानून तब मजबूत कहा जायेगा जब भारत का प्रत्येक नागरिक इस अधिकार का प्रयोग करना प्रारंभ करेगा। सूचना के अधिकार ने आज आम आदमी को उन लोगों से लड़ने की शक्ति दी है जिनसे लडने के बारे में वो कभी सोच भी नहीं सकता था | आज सूचना अधिकार से मीडिया को कितनी शक्ति मिल गयी है यह इस बात से समझी जा सकती है किसी भी मसले पर सूचनाये पाना अब पहले जितना मुश्किल भरा नहीं रहा  आज  मीडिया को चाहिए वह इस अमोघ अस्त्र से का अधिक से अधिक उपयोग करे और भ्रष्ट नेताओं एवं नौकरशाहों क असल सच को आम जनता के सामने ला सके | सूचना के अधिकार की  सामजिक परिवर्तन में अहम भूमिका हैं |  सूचना का अधिकार लोकतंत्र  में आम आदमी के लिए एक हथियार  है जिससे वह अपने हक की  लड़ाई  लड़ रहा  हैं |  देश में सिर्फ यही एक कानून है जो सरकारी मशीनरी को सामाजिक सरोकार पर मजबूर कर सकता है |  सूचना के अधिकार ने लोगों को न सिर्फ एक रास्ता मुहैया कराया है  बल्कि सूचना हासिल कर सरकारों और प्रतिष्ठानों की कार्यप्रणाली में भी सकारात्मक सुधार कराने की कोशिशें की हैं | केंद्रीय मंत्रियों के अपार विदेश दौरे हों या किसी मुख्यमंत्री के आवास में चायपानी पर हुआ अपार खर्च,  प्रशासन की  मनमानी हो या  जजों की संपत्ति का ब्यौरा हो इस बहाने किसी न किसी रूप में एक दबाव तो बनता ही है और फिर यह सूचनाएं अगर मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुच रही हैं तो इसे मीडिया के लिए शुभ संकेत कहा जा सकता है | 


सूचना अधिकार की सबसे बड़ी चिंता यह  है कि कानून में उन लोगों की सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है जिन्हें व्हिसलब्लोअर्स कहा जाता है |  वे जो गलत के खिलाफ बोलते हैं, आवाज उठाते हैं उन एक्टिविस्टों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सूचना आयोग और उसके अधीन समस्त राज्यों के सूचना आयोगों की मशीनरी के पास कोई ठोस प्रबंध या औजार नहीं हैं |  इस अधिकार की  सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें जवाबदेही तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है शायद यही वजह है कि इस शिथिलता के चलते  लम्बी आपत्तियों का निपटारा आज तक नहीं हो पाया है  | पर्याप्त ढांचागत विकास ना होने के चलते लोक सूचना अधिकारियों के यहाँ काम करने का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है साथ ही आपत्तियों के निस्तारण के लिए सूचना अधिकारीयों के यहाँ कोई अधिकतम समय सीमा निर्धारित न किये जाने से आये दिन आम आदमी की दुश्वारियां बीते एक दशक में बढ़ी हैं | सूचना अधिकार से जुडी एक विडम्बना यह भी है कि यह अधिकार तो आम  जन को दे दिया गया है लेकिन इस अधिकार के विपरीत 1923 के सरकारी गोपनीयता क़ानून को समाप्त नहीं किया गया है जिससे विरोधाभास की स्थितिया पैदा हुई हैं | पारदर्शिता के मामले में यह क़ानून अवरोधक है इसलिए सूचना अधिकार कानून को कारगर और प्रभावी बनाने के लिए इसे समाप्त किया जाना जरूरी है |  सूचना अधिकार को असरदार बनाने के लिए सरकार  को चाहिए वह इसकी कमियों पर ध्यान दे और ऐसा सिस्टम विकसित करे जिससे आम आदमी को सूचना पाने में कोई दिक्कतें ना हों |  सबसे बड़ी समस्या हमारे देश में यह है आज भी हमारे ऑफिसों में लालफीताशाही का साम्राज्य कायम है और अधिकारी और कर्मचारी लोगों के प्रति जबाबदेह नहीं हैं | सबसे बड़ी समस्या  नौकरशाही के जबरदस्त दखल से पैदा हुई है जो किसी भी काम को सुस्त चाल से करना चाहते हैं ऐसे में सरकारों को अच्छी कार्यसंस्कृति  विकसित करने  पर बल देना होगा | साथ ही सूचना अधिकार के प्रसार में मीडिया तत्परता दिखा सकता है | आज मीडिया को चहिये वह आरटीआई को प्रोत्साहित करे और आमजन इन्टरनेट के माध्यम से सूचना प्राप्त करना शुरू कर दें तो देश में यह बड़ी क्रांति का सूत्रपात होगा। सूचना के अधिकार को आमजन का अधिकार बनाने में मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है लिहाजा अपने-अपने स्तर पर यदि मीडिया सूचना के अधिकार को प्रोत्साहित करने का उपक्रम प्रारंभ करता है तो सूचना का अधिकार कानून  की  धार भारत में मजबूत होगी  | जो भी हो सूचना अधिकार क़ानून के होने से देश में सुशासन की अवधारणा मजबूत हुई है सरकारी  काम काज  में जहाँ पारदर्शिता बढ़ी  है वहीँ भ्रष्टाचार पर कुछ हद तक अंकुश लगा है यह उपलब्धियां निश्चित ही एक जिम्मेदार लोकतंत्र के अच्छे दिनों के लिए एक शुभ संकेत हैं |