Monday 27 February 2017

जेलियांग के बाद लीजीत्सु




पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड  एक  भीषण  गंभीर राजनीतिक संकट से  बाहर निकल आया है । बीते दिनों  मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग के  नाटकीय  इस्तीफे ने इस छोटे से राज्य के राजनीतिक संकट को जहाँ बढाने का काम किया  वहीँ सत्तारूढ़ नागा पीपुल्स फ्रंट  ,एनपीए  ने शुर्होजेली लीजीत्सु को विधायक दल का नेता चुन लिया जिसके बाद सभी ने 22  फरवरी को ग्यारह मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके साथ नागालैंड में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर चल रही रस्साकसी थम गई ।

असल में निवर्तमान मुख्यमंत्री जेलियांग ने जनवरी के आखिर में नगर निकाय चुनाव  कराने का ऐलान किया था जिसमें  शहरी निकाय चुनावों के लिए महिलाओं का आरक्षण तैंतीस प्रतिशत कर दिया था। इसके बाद से वहां पर  विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था। इस विरोध प्रदर्शन ने तब हिंसक रूप ले लिया जब पुलिस से झड़प में दीमापुर में दो युवकों की मौत हो गई। इसके बाद प्रदर्शन बहुत उग्र हो गया । गुस्साई भीड़ ने कोहिमा स्थित मुख्यमंत्री आवास को  अपने कब्जे में लेने की कोशिशे तेज़  कर दी । प्रदर्शन  काफी उग्र हुए ।  कई सरकारी भवनों में जहाँ आग लगी वहीँ  राष्ट्रीय सम्पत्ति  को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया ।  प्रदर्शनकारियों ने दीमापुर और कोहिमा के बीच राजमार्ग  को घंटो बाधित कर दिया ।  राज्य के कई इलाकों में कर्फ्यू  लगा रहा जिससे जनजीवन  बुरी तरह प्रभावित हुआ ।  इसी दौरान नागालैंड ट्राइब एक्शन काउंसिल नाम से गठित संगठन ने मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और उनके कैबिनेट को इस्तीफा देने की मांग की। साथ ही कई संगठनों ने मांग की थी कि राज्य सरकार स्थानीय निकाय चुनावों को निरस्त करे, प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले पुलिस और सुरक्षाकर्मियों को निलंबित करें और जेलियांग मुख्यमंत्री पद से हट जाएं। । नगालैंड की सरकार ने नगालैंड ट्राइब्स एक्शन कमिटी  कोहिमा और ज्वाइंट कोऑर्डिनेशन कमिटी की मांग को स्वीकार करते हुए शहरी स्थानीय निकाय चुनावों की पूरी प्रक्रिया के साथ ही तैंतीस फीसदी महिला आरक्षण को निरस्त कर दिया। 

राज्य में जब हालात खराब होने लगे  तब मुख्यमंत्री जेलियांग के खिलाफ बगावती सुर उठने लगे । एनपीएफ पार्टी के कई विधायक मुख्यमंत्री के खिलाफ हो गए। ऐसे में राज्य के मौजूदा हालात पर चर्चा के लिए सत्ताधारी एनपीएफ के विधायकों ने बैठक की। इस बैठक में शामिल अधिकांश विधायक नगा गुटों के विरोध प्रदर्शनों को ठीक ढंग से संभाल पाने में असमर्थता के चलते जेलियांग को सीएम पद से हटाने की मांग पर सहमत दिखे। इसके बाद जेलियांग ने इस्तीफा दिया। जेलियांग ने एनपीएफ के विधायकों को लिखे एक पत्र में कहा कि उन्होंने आंदोलनकारी समूहों और सरकार के बीच गतिरोध तोड़ने के लिए इस्तीफा देने का फैसला किया । मुख्यमंत्री पद से टीआर जेलियांग के इस्तीफे के बाद नए मुख्यमंत्री के तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य के एकमात्र लोकसभा सदस्य नीफियू रियो का नाम चल रहा था। उनके पक्ष में आमराय बन जाने के बावजूद वे विधायक दल का नेता नहीं चुने जा सके। एक तो इसलिए कि उनके बजाय जेलियांग मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एनपीएफ के अध्यक्ष शुर्होजेली लीजीत्सु को देखना चाहते थे। रियो ही थे जिन्होंने 2015 में जेलियांग को मुख्यमंत्री पद से बेदखल करने की कोशिश की थी।एनपीएफ ने पार्टी-विरोधी गतिविधियों के आरोप में पिछले साल रियो की सदस्यता अनिश्चित काल के लिए निलंबित कर दी थी। लिहाजा, राज्य के ग्यारहवें मुख्यमंत्री के रूप में लीजीत्सु के चुने जाने का रास्ता साफ हो गया। 

 साठ सदस्यीय नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ 49 विधायक हैं, जिनमें से करीब 40  विधायक इस बैठक में शामिल हुए थे और वह अधिकांश विधायकों ने नगालैंड के एक मात्र सांसद नेफियू रियो को विधायक दल का नेता चुना था। लेकिन एनपीएफ ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पिछले साल रेयो की सदस्यता अनिश्चितकालीन के लिए निलंबित कर दी थी। दिलचस्प यह है  नागालैंड के 60   विधायकों वाली विधानसभा में कोई भी नेता विपक्ष में नहीं है। इसके अलावा किसी भी पार्टी ने शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं के आरक्षण के विरोध में चल रहे आंदोलन के खिलाफ खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं की। यही नहीं, राज्य की सारी विधायिका ने ‘नगालैंड ट्राइब्स एक्शन कमेटी’ और ‘जाइंट कोआर्डिनेशन कमेटी’ के आगे घुटने टेक दिए।साथ राज्य सरकार ने दोनों नागा गुटों के उग्र प्रदर्शन के आगे अपने घुटने  टेक दिए। नागालैंड में  विपक्ष नाममात्र का  है।  साठ सदस्यीय विधानसभा में सभी  एनपीएफ के ही विधायक हैं। एनपीएफ के 49  विधायकों के अलावा चार भाजपा के और सात निर्दलीय हैं। लेकिन विपक्ष में बैठनाकिसी को पसंद नहीं था लिहाजा सभी  विधायक सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक अलायंस आॅफ नगालैंड (डीएएन) में शामिल हैं। 

अब लीजीत्सु के सामने यह चुनौती होगी वह महिला सशक्तीकरण के लिए निकाय चुनावों में महिलाओं का आरक्षण लागू कर पाएंगे। क्या वह नागा गुटों के विरोध प्रदर्शनों से निपट पाएंगे ? क्या वह भी अपने  पूर्ववर्ती सी एम की तरह बेबस नजर आएंगे ?  ऐसे मुश्किल दौर में  लीजीत्सु के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय संगठनों के विरोध से निपटने और शांति कायम करने की होगी ? बड़ा सवाल यह है क्या वह नई  लकीर नागालैंड में खींच पाएंगे ?  क्या वे स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण के प्रावधान को लागू करा पाएंगे? लीजीत्सु  ऐसे वक्त मुख्यमंत्री पद का दायित्व लेने जा रहे हैं जब राज्य एक उथल-पुथल से गुजरा है और उसका तनाव अब भी जारी  है। लीजीत्सु के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय संगठनों के विरोध से निपटने और शांति कायम करने की है। देखना होगा इसमें वो कितना सफल हो पाते हैं ? 

Thursday 23 February 2017

उत्तराखंड : जंग के बाद अब कुर्सी का जोड़ तोड़





उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से निपट गया है । इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा । वह भी इस मायने में क्युकि राष्ट्रपति शासन के बाद कांग्रेस से निकाले गए कई नेता भाजपा में जहाँ शामिल हुए वहीँ वोट के इस मौसम में कांग्रेस में भी कमोवेश भाजपा सरीखे हालात रहे । कांग्रेस को भी कई सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ा वहीँ भाजपा में भी बरसो से काम करने वाले कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए बागियों को गले लगाया गया । उत्तराखंड के चुनावी मिजाज की टोह लेने पर इस बार मतदाता के भीतर एक अलग तरह की ख़ामोशी नजर आयी । जल , जमीन , जंगल के मुद्दे  हाशिये पर जहाँ नजर आये वहीँ पलायन को लेकर दोनों राष्ट्रीय दलों की चुप्पी ने कई सवालों को खड़ा किया ।  बढ़ती बेरोजगारी पर किसी ने चिंता नहीं जताई । वहीँ  फ्री डेटा और मोबाइल लैपटॉप तक चुनावी मेनीफेस्टो सिमट कर रह गया ।

उत्तराखंड में परिणाम चाहे जैसे भी आएं लेकिन एक बात तो साफ़ है यहाँ पर मुख्य मुकाबला  भाजपा और कांग्रेस में ही है । राज्य गठन के बाद से कमोवेश हर चुनाव में दोनों  राजनीतिक दल बारी बारी से राज करते आये हैं । कांग्रेस ने इस बार जहाँ मुख्यमंत्री हरीश रावत के चेहरे को आगे किया वहीँ गुटबाजी से उलझ रही भाजपा पी एम मोदी के भरोसे मैदान में उतरी । पहाड़ों में सर्द  मौसम के बावजूद इस बार रिकॉर्ड 70 फीसदी मतदान हुआ जो अपने में एक रिकॉर्ड है । मतदाता पहली बार बूथों पर उत्साह के साथ नजर आये ।  बंपर वोटिंग को भाजपा और कांग्रेस  अपने अपने पक्ष में बता रही हैं। भाजपा सत्ता में  बदलाव की आस लगाए बैठी है  तो कांग्रेस को उम्मीद है हरदा अगले  पांच बरस  अपने नाम कर जायेंगे । इस चुनाव की सबसे बड़ी चिंता दोनों पार्टियों के बागी प्रत्याशियों ने बढ़ाई  हुई है । पिछले चुनावों में भाजपा की तरफ से खंडूरी चुनाव हार गए थे । वह मुख्यमंत्री का बड़ा चेहरा रहे थे  । वहीँ कांग्रेस की बात करें तो उसने भी मैदान नहीं छोड़ा । भाजपा 19  तो कांग्रेस 20  रही थी । यही कारण  था उन चुनावों में सत्ता की चाबी भी बागियों के पास रही । इस चुनावो में भी  पहाड़ी इलाकों  के साथ मैदानी इलाकों में बसपा का हाथी अगर चढ़ाई करता है और कुछ सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशी अच्छा वोट पा लेते हैं तो इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के होश फाख्ता हो सकते हैं ।

उत्तराखण्ड में हुए रिकॉर्ड मतदान के बारे में अलग अलग तरह के कयास लगने शुरू हो गए हैं ।   भाजपा की मानें तो उत्तराखंड में प्रधानमंत्री मोदी का जादू अभी भी कम नहीं हुआ  है । साथ ही हरीश रावत के खिलाफ  एंटी इंकेबेंसी  इस बार रंग लायी है  वहीँ  दूसरी तरफ कांग्रेस मान रही है नोटबंदी और बढ़ती महंगाई और मोदी सरकार के प्रति निराशा  के चलते बड़ी संख्या में लोग  मतदान केंद्रों तक पहुंचे हैं । पिछले कुछ समय से देश के मिजाज को अगर हम परखें तो एक ख़ास बात यह पायी गयी है रिकॉर्ड मतदान  अब सत्ता विरोधी  साबित नहीं हुआ है । बिहार , बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी रिकॉर्ड मतदान को बदलाव का संकेत माना गया था। इसके बावजूद नतीजे एकदम उलट आए और इन सभी राज्यो में पार्टी की वापसी हुई । उत्तराखंड में भाजपा ने इस चुनाव में अपने स्टार प्रचारकों की भारी भीड़ उतारी वहीँ प्रधानमंत्री मोदी को पिथौरागढ़ जैसे सीमान्त जनपद की रैली में उतारा ।  वहीँ  टिकटों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार में  कांग्रेस  भाजपा की तुलना में पिछड़ती रही। यहाँ कांग्रेस केवल हरीश रावत के मैजिक के आगे निर्भर रही ।प्रधान मंत्री मोदी ने  राज्य में हुई ताबड़तोड़ रैलियों में पहाड़ के पानी से लेकर पहाड़  की जवानी तक के मुद्दों  को हवा दी । पलायन पर चिंता जताने के साथ ही उन्होंने  टूरिज्म को बढ़ावा देने की बात कही । साथ ही अपनी रैलियों में सेना का जिक्र जरूर किया । उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर लोग सेना में हैं लिहाजा मोदी सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर वन रैंक वन  पेंशन  जैसे मुद्दे  उठाने से पीछे नहीं रहे । उन्होंने रावत सरकार के भ्रष्टाचार  को लेकर सवाल दागे और सत्ता परिवर्तन की तरफ इशारा किया ।  मोदी की रैलियों में जबरदस्त भीड़ नजर आयी । श्रीनगर और पिथौरागढ़ जैसे जिलों में दूर दूर से उनको सुनने  लोग आये । अब उनके भाषण का क्या असर हुआ यह तो 11 मार्च को आने वाले नतीजों के बाद ही पता चल पायेगा वहीँ कांग्रेस मुख्यमंत्री हरीश रावत पर पूरी तरह से निर्भर  रही। चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में  पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हरिद्वार जनपद में रोड शो किया। रावत पर उनके विरोधी गढ़वाल और कुमाऊं में भेद करने का आरोप लगाते रहे हैं  लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान  कुमाऊं और गढ़वाल के सुदूर क्षेत्रों में वह अकेले चुनाव प्रचार करने पहुंचे  साथ ही इस बार उन्होंने कुमाऊ और गढ़वाल दो सीटों से चुनाव लड़ा । इसके पीछे रणनीति दोनों इलाकों में कांग्रेस की ताकत को मजबूत करने की रही । बड़े पैमाने पर लोग कांग्रेस छोड़  गए जिससे पार्टी में रावत की कार्यशैली  को लेकर सवाल भी उठते  रहे । विपरीत और विषम हालातों में  रावत अगर उत्तराखंड में वापसी कर जाते हैं  तो पार्टी में उनका कद बहुत बढ़ जाएगा साथ ही  कांग्रेस आलाकमान के सामने वह और अधिक मजबूत होंगे। पार्टी के अंदर उनके विरोधियों को मजबूरन शांत होना पड़ेगा।

उत्तराखंड में  रिकॉर्ड मतदान होने के बावजूद यह साफ नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी।  दिल्ली और बिहार में तमाम राजनीतिक पंडितों के अनुमान ध्वस्त हो गए । बिहार में भी 2015  में   ज्यादा मतदान हुआ था ।  यहाँ राजनीतिक पंडित लालू के साथ नीतीश के महागठबंधन को नुकसान होने की बात कर रहे थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालू , नीतीश और कांग्रेस महागठबंधन को पूर्ण बहुमत से कहीं ज्यादा सीटें मिलीं।  बंगाल और तमिलनाडु में भी राजनीतिक पंडितों से मतदाताओं का मिजाज  समझने में चूक हुई।  तमिलनाडु में रिकॉर्ड मतदान के बावजूद पुनः जयललिता की सरकार बनी। वहां रिकॉर्ड मतदान का कारण सत्ता विरोधी लहर नहीं थी। प्रदेश के मतदाताओं ने जिस तरह का उत्साह दिखाया है इससे राजनीतिक दलों की नींद उडी हुई है । फिर बिहार , बंगाल , तमिलनाडु , दिल्ली की तर्ज पर अगर इसे देखे तो हवा का रुख सत्ता के साथ भी हो सकता है । वैसे उत्तराखंड में बारी बरी से भाजपा और कांग्रेस की सरकार बनती रही है । तीसरी ताकत के रूप में उत्तराखंड क्रांति दल जरूर है लेकिन पिछले 16 बरस में आपसी टूट से उसे नुकसान  झेलने को मजबूर होना पड़ा है । राज्य के मैदानी इलाकों में बसपा का कई जगह प्रभाव अभी भी कायम है । ऐसे में अगर कोई बड़ा उलट फेर होता है और खुदा ना खास्ता बागी  जीत ना पाएं लेकिन भाजपा और कांग्रेस का खेल खराब तो कर ही सकते हैं ।

उत्तराखंड गठन  के बाद हुए पहले आम चुनाव में 54  फीसदी मतदान हुआ । तब कांग्रेस की सरकार बनी जिसके मुखिया  नारायण  दत्त  तिवारी थे  । 2007  में मतदान का आंकड़ा 59  फीसदी पर पहुंच गया तब भाजपा ने वापसी की जिसकी कमान बी सी खंडूरी के हाथ रही ।  2012  के बरस में  मतदान का प्रतिशत 65 फीसदी पर कर  गया  जो इस बार 70  पहुंच गया है। ध्यान देने वाली बात यह है उत्तराखण्ड में हर चुनाव के बाद निजाम भी बदले हैं ।   इस लिहाज से कुछ कुछ सत्ता परिवर्तन और एंटी इंकम्बेन्सी के आसार भी दिख रहे हैं  । फिलहाल नजरें 11 मार्च की तरफ हैं जहाँ यह निर्धारित होगा क्या मोदी का विजय रथ रावत रोकते हैं या 2014  के लोक सभा चुनावों की तर्ज पर  मोदी उत्तराखंड में अपने मैजिक के आसरे रावत की लुटिया डुबोकर कांग्रेस मुक्त उत्तराखंड कर पाते हैं  ?