Wednesday 28 November 2018

दोराहे पर पाकिस्तान






आज पाक उस दोराहे पर खड़ा है जहाँ वह यह तय नहीं कर पा रहा है कि अपने मुल्क में वह कट्टर पंथी संगठनो और आतंकियों का साथ दे या फिर अमरीका की आतंकवाद विरोधी मुहिम में साझीदार बन खड़ा हो। एक चुनी हुई इमरान खान की सरकार के दौर में पाक के हालात दिन पर दिन बद से बद्तर होते जा रहे है लोग इस बात के कयास लगा रहे थे कि इमरान खान के सत्ता संभालने के बाद पाक में नया सवेरा होगा लेकिन एक के बाद एक संकट से घिरे पाकिस्तान कि आवाम का जीना दुश्वार हो गया है। वहां पर अलग सा बदला बदला माहौल दिख रहा है। ऐसे मे दिल में अगर यह विचार आ जाए वहां पर जम्हूरियत का क्या भविष्य है तो इसका जवाब यह होगा क्या वह यहाँ कभी सफल भी हो पाई है ?

जब भी वहां सूरज की नई किरण उम्मीद बनकर निकली है तो उस किरण के मार्ग मे सैन्य शासन ने दखल देकर उसको अपना लिबास ओड़ने को ना केवल मजबूर ही किया है बल्कि इस बात को भी पिछले कई बरसो से साबित किया है कि बिना सेना के पाक के भीतर सरकार में भी पत्ता तक नहीं हिलता। इमरान खान भी पाक के कट्टर पंथियों के हाथ की कठपुतली ही बने है

भारतीय दर्शन में आचार्य रामानुज ''स्यादवाद" की जमकर आलोचना करते है। इस प्रसंग मे आज हम पाक को फिट कर सकते हैं। रामानुज कहा करते थे किसी पदार्थ मे "भाव" और "अभाव" दोनों साथ साथ नही रह सकते है इस तरह यदि हम यह चाहते हैं कि पाक के पदार्थ रुपी लोकतंत्र मे सेना और सरकार दोनों साथ साथ चलेंगे तो यह नैकस्मिन सम्भवात वाली बात ही होगी। फिर पाक में तानाशाह की भरमार जिस तरीके से एक लम्बे दौर से रही है उसमे दोनों के साथ आने की उम्मीद तो बेमानी ही लगती है मुशर्रफ़ से पहले से ही सैन्य शासको ने किस तरह रिमोट अपने हाथ में लेकर पाक को चलाया और उनका क्या हश्र हुआ हम सब यह जानते है। 9 साल तक मुशर्रफ़ ने पाक मे किस तरह काम किया उसकी मिसाल आज तक वहाँ की अवाम को देखने को नही मिली है मुशर्रफ़ ने कारगिल की ज़ंग खेल नवाज की पीठ में छूरा भोंक कर की और कारगिल मे हार मिलने के बाद पाक को अपने स्टाइल में चलाने के फेर मे उनको सुपर सीड कर खुद सत्ता हथिया ली जिसके बाद वह अपनी सरजमी से बेदखल कर दिए गए 1999 मे मुशर्रफ़ का पहला अवतार तानाशाह के रूप मे हुआ। दूसरा अवतार सैनिक वर्दी के उतरने के बाद राष्ट्रपति की कुर्सी से चिपके रहने के रूप मे देखा जा सकता था जहाँ अमरीका को साधकर उन्होंने अपना एकछत्र राज कायम किया सत्ता का स्वाद कितना मजेदार होता है यह सब परवेज मुशर्रफ़ की शातिर चालबाजियों से समझा जा सकता था जब सैनिक वर्दी उतरने के बाद भी वह वहां की सुप्रीम पोस्ट पर विराजमान हुए 

जिस दौर मे मुशर्रफ़ ने नवाज से सत्ता हथियाई उस समय की स्थितियाँ अलग थी भारत के पोकरण की प्रतिक्रिया मे पाक ने गौरी का परीक्षण कर डाला उनको पाक की खस्ता हाल अर्थव्यवस्था का तनिक भी आभास नही हुआ भारत ने तो विश्व के सारे प्रतिबंधो को झेल लिया लेकिन पाक के लिए यह सब कर पाना मुश्किल था लेकिन फिर भी मुशर्रफ़ ने चुनौतियों को स्वीकार किया और जैसे तैसे दो बरस तक पाक की गाडी पटरी पर दौड़ाई 2001 मुशर्रफ़ के लिए नई सौगात लेकर आया जब 9/11 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर मे हमला हो गया जिसकी जिम्मेदारी ओसामा बिन लादेन ने ली जिसमे अमेरिका के बहुत नागरिक मारे गए बेगुनाह नागरिकों की मौत का बदला लेने और वैश्विक आतंकवाद समाप्त करने के संकल्प के साथ अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन के संगठन को प्रतिबंधित संगठनो की सूची मे डाल दिया और उसके खिलाफ आर पार की लड़ाई लड़ने की ठानी अमेरिका के साथ आतंक के खात्मे के लिए पहली बार पाक यहीं से उसका हम दम साथी बनने को ना केवल तैयार हुआ बल्कि झटके में अपने प्रतिबंधो से भी मुक्त हो गया जो दुनिया ने परमाणु परीक्षण के बाद लगाये थे यह बात तालिबानी लडाको के गले नही उतर पाई

आतंकवाद के खात्मे के नाम पर पाक सरकार को मुशर्रफ़ के कारण अरबों रुपये की मदद मिलनी शुरू हुई जिसने पाक के लिए टानिक का काम करना शुरू किया जिस कारण विकास के मोर्चे पर हिचकोले खा रही पाक की अर्थव्यवस्था मे नई जान आयी उस दौर में अमेरिका ने पाक से कहा लादेन हर हाल मे चाहिए चाहे जिन्दा या मुर्दा लेकिन मुशर्रफ़ ने होशियारी दिखाते हुए फूक फूक कर कदम रखा आतंक और दहशतगर्दी को ख़त्म करने के लिए अभियान शुरू होने से पहले तक अफगानिस्तान में तालिबान की तूती बोला करती थी ओसामा के चेलों ने इस पूरे इलाके मे अपना आधिपत्य जहाँ कायम किया वहीँ कबीलाई इलाको में उसने अपनी मजबूत पकड़ कर ली।

अमेरिका द्वारा मुशर्रफ़ को मदद दिए जाने के निर्णय को ओसामा के अनुयायी तक नही पचा पा रहे थे लेकिन उनको क्या पता मुशर्रफ़ ने अपने इस कदम से एक तीर से दो निशाने खेले 9/11 के बाद मुशर्रफ़ के अमेरिका के पैसो से अपने सूबा सरहद की सेहत मजबूत की आतंकवाद समाप्त करना तो दूर मुशर्रफ़ तमाशबीन बने रहेअमेरिका के सैनिक जब अफगान इलाके पर हमला करते तो पाक सरकार के भेदिये जवाबी कार्यवाही की जानकारी उनको हर दम पंहुचा देते थे जिस कारण वह हर दिन अपना नया घर खोजते रहतेअमेरिका के सैनिकों को चकमा देकर यह लडाके पाक के अन्दर छिपे रहते ऐसी सूरत मे उनको पकड़ पाना मुश्किल होता जा रहा था चित भी मेरी पट भी मेरी फोर्मुले के सहारे मुशर्रफ़ ने पाक मे सत्ता समीकरणों का जमकर लुफ्त उठाया जिसके बाद इमरान शाहबाज और नवाज शरीफ के बाद वहाँ कोई ऐसा नेता नही बचा जो उनका बाल बांका कर सके  

अमेरिका से अत्यधिक निकटता दहशतगर्दो को रास नही आई और ओसामा बिन लादेन के एबटाबाद में मारे जाने और अफगान सीमा को निशाना बनाये जाने की घटना के बाद से पाकिस्तान में स्वात, पेशावर सरीखे इलाको में तालिबानी लडाको ने अपने पैर मजबूती के साथ जमाने शुरू कर दिए जिनके खात्मे के लिए अमेरिका ने कभी पाक की सरकार को मदद दी और आज तक वहाँ की तस्वीर खून से रंगी ही है

अमरीकी मदद का पाक ने बेजा इस्तेमाल शुरू से आतंक की फैक्ट्रियो को पालने पोसने में ही किया है। मुशर्रफ़ के जाने के बाद जहाँ डेरा इस्माईल खान और आयुध कारखाने मे बड़े बड़े विस्फोट हुए वहीँ मिया नवाज शरीफ के आने के बाद भी मस्जिदों से लेकर सेना को निशाने पर लिया गया है खैबर से लेकर क्वेटा वजीरिस्तान से लेकर स्वात घाटी सब जगह तालिबानी आतंकियों ने मासूम लोगो को अपने निशाने पर लिया है इन विस्फोटों में सबसे ज्यादा तहरीके तालिबान का नाम सामने आया जो तालिबानी लडाको को लेकर पाक में अपना कहर बरपाते रहता है

असल में अफगानिस्तान में रहने वाले तालिबानी लडाको का यह संगठन है जिसकी अब उत्तरी कबीलाई इलाको पर अभी भी मजबूत पकड़ है। 2013 में हकिमुल्ला मसूद की हत्या के बाद से ही इसकी कमान मौलाना फजउल्लाह को सौंपी गई जिसने अफगानिस्तान से सटी पाकिस्तानी सेना की जवाबी कार्यवाहियों के जवाब में पाकिस्तान के भीतर दहशत का वातावरण बनाने में देरी नहीं लगाई है आज आलम यह है सेना के पूरे दखल के बावजूद भी तालिबानी आतंक पाक को अन्दर से खोखला करने पर तुला हुआ है और अब खुद ही नासूर बन गया है सरकार होने के बाद भी वहाँ पर सेना की राह आज भी अलग दिख रही है वह यह नही चाहते किसी सूरत पर पाक के भीतर अमेरिका की सेनाओं की इंट्री हो जहाँ पर कट्टर लोग छिपे है लेकिन ट्रम्प के आने के बाद पाक की पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी है सरकार और पाक की सेना दोनों अभी तक यह तय नही कर पा रहे हैं कि आतंक के खिलाफ जंग में किसका साथ दिया जाए ? यानि पहली बार परिस्थितियां उधेड़बुन इधर कुआं तो उधर खाई वाली हो चली हैं। जब भी पाक की तरफ से कठोर कार्यवाही तालिबानियों के खिलाफ की जाती है उसकी प्रतिक्रिया में भी कट्टर पंथी बम विस्फोट से अपना जवाब हर समय देते नजर आते हैं और हर हमले के बाद जिम्मेदारी लेने से भी पीछे नहीं हटते

 पिछले कई बरस से पाकिस्तान में आतंकवाद ने मजबूती के साथ पैर पसारे हैं। मौजूदा दौर में इमरान खान की सियासी पार्टी तहरीक का सिक्का मजबूती के साथ चल रहा है लेकिन खुद मिया इमरान का इन कट्टर पंथियों के खिलाफ एक दौर में बहुत सॉफ्ट कॉर्नर रहा है। सियासत की कुछ मजबूरियों के तहत उन्हें पाकिस्तान की सरजमीं से दहशतगर्दों को पूरी तरह से खत्म करने का साझा वायदा भी करना पड़ा है। पाकिस्तान में पिछले कुछ समय से जमात उद दावा, जैश ए महुम्मद , लश्कर ऐ तैयबा, हरकत उल मुजाहिदीन सरीखे दर्जनो संगठनो को बीज और खाद न केवल मुहैया करवाई गयी है बल्कि डी कंपनी यानी दाऊद इब्राहीम को भी अपने यहाँ पनाह दी। नवाज शरीफ इमरान खान भी दहशतगर्दों के खिलाफ बड़ी जंग लड़ने की बात जरूर कही है लेकिन सेना के अब तक के इतिहास को देखते हुए यह लगता नहीं पाकिस्तान अपने कट्टर पंथियों के खिलाफ कोई बड़ी लड़ाई सीधे लड़ पायेगा। 

26\11 के मुंबई हमलों के मुख्य आरोपी हाफिज सईद पर पाकिस्तान सबूत देने के बावजूद भी कार्रवाई तक नहीं कर सका है जबकि उसका संगठन जमात उद दावा संयुक्त राष्ट्र संगठन की प्रतिबंधित संगठन की सूची में खुद शामिल है। यही नहीं उस पर करोडो डालरों का इनाम भी रखा जा चुका है जिसके बाद भी पाकिस्तान की सेना और सरकार दोनों आज तक उसका बाल बांका नहीं कर सकी है। मुंबई हमलों के आरोपी जकी-उर रहमान लखवी को फ्री छोड़ दिए जाने से आतंक के मुद्दे पर पाकिस्तान का दोहरा रवैया एक बार फिर से उजागर हो गया है। हमने पाकिस्तान को पर्याप्त सबूत दिए थे इसके बावजूद इस मामले की वहां पर ठीक से सुनवाई नहीं हुई और लखवी को जमानत दे दी गई। लखवी हाफिज सईद का दाहिना हाथ माना जाता है और उसने पाकिस्तान में कसाब के साथी आतंकियों को मुम्बई हमले की ट्रेनिंग ही नहीं दी बल्कि पाक में बैठकर मुंबई हमलों की पल पल की अपडेट ली। अब ऐसे हालातो में क्या हम पाक से ख़ाक उम्मीद कर सकते हैं?  

पाकिस्तान की सेना एक मकसद के तहत अब कश्मीरी आतंकवादियों को साथ लेकर भारत में हमले कर रही है साथ ही कश्मीर को लेकर नई बिसात आतंकियों को साथ लेकर बिछा रही है 18 नवंबर को अमृतसर के निरंकारी भवन में हुए हमले के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता क्युकि जिन ग्रेनेड से हमला हुआ वे भी पाकिस्तान में ही बने थे लेकिन पाक हर हमले में अपने को पाक साफ़ बताने से बाज नहीं आता पाक की फितरत ही झूठ और फरेब में ही टिकी हुई है क्या नफरत की नीव में सुलग रहा पाकिस्तान अब भी इमरान खान के आने के बाद बदलने को बेकरार है ? जी नहीं, फिलहाल तो हमें यह दूर की कौड़ी ही नजर आ रहा है। ऐसे में भारत सरकार को भी चाहिए वह तब तक पाक से कोई बात नहीं करे जब तक वह आतंकवाद पर कठोर कार्यवाही न करे

Wednesday 14 November 2018

एन डी तिवारी को कैसे याद रखेगा इतिहास ?

       





देश  की राजनीति का बड़ा कवच लम्बे समय से एन डी तिवारी के इर्द गिर्द ही घूमता रहा है और  उनके चाहने वाले प्रशंसक न केवल कांग्रेस बल्कि हर राजनीतिक दल में आज भी मौजूद हैं |  तिवारी ने अपने कार्यकाल में विकास कार्यों से जनता के दिलों में अपने लिए  न केवल  अलग छवि बनाई बल्क़ि  तिवारी जी ने भी किसी को निराश नहीं किया |  उत्तराखंड की राजनीती में भी एन डी फैक्टर खासा अहम रहा है और तिवारी को विकास पुरुष की संज्ञा से  अगर  नवाजा जाता रहा  तो इसका बड़ा कारण अपने कार्यकाल में तिवारी के द्वारा खींची गई वह लकीर रही  जिसके पास आज तक उत्तराखंड का कोई मंत्री , नेता और मुख्यमंत्री तक नहीं फटक सका है | आज भी उत्तराखंड के गाँवों से लेकर शहर तक में तिवारी के बार में एक जुमला कहा जाता है जितना पैसा तिवारी जी उत्तराखंड के लिए अपने संपर्कों के आसरे लेकर आये उतना कोई मौजूदा नेता नहीं ला सकता शायद यही वजह है तिवारी जी विकास के शिखर पुरुष के रूप में उत्तराखंड के हर तबके में सर्वस्वीकार्य रहे  |   

 उत्तराखंड की राजनीती में कई लोगों ने एन डी तिवारी से ही राजनीती का ककहरा सीखा |  इंदिरा हृदयेश से लेकर डॉ हरक सिंह रावत , यशपाल आर्य से लेकर विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज  सरीखे कई बड़े नाम तिवारी की छत्रछाया में ही पले  बढे हैं | 2009  में आंध्र प्रदेश के "सीडी" काण्ड  के बाद जहां तिवारी  की  कांग्रेसी आलाकमान से दूरियां  बढ़ गयी  वहीँ  हर बार चुनावी बरस में तिवारी की राय को कांग्रेस लगातार अनदेखा करती रही  जिसके चलते राजनीतिक  बियावान में उम्र के अंतिम पड़ाव में   तिवारी अकेले पड़  गए लेकिन फिर भी उत्तराखंड को लेकर उनकी सक्रियता हमेशा  बनी रही |   इस दौर में वह न केवल अपने पुराने स्कूल गए  बल्कि भवाली सैनिटोरियम से लेकर एच एम  टी  फैक्ट्री नैनीताल  के विकास कार्यों को लेकर चिंतित नजर आये  |   उम्र के अंतिम  पडाव पर एन डी  को न केवल उनकी पार्टी ने  तन्हा छोड़ा दिया बल्कि उनसे  सारी  सुख सुविधा छीन ली वहीँ उत्तर प्रदेश के पूर्व सी एम अखिलेश ने उन्हें न केवल आसरा दिया बल्कि खुद उनको दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री का दर्जा दिया |   एक मुलाक़ात के  दौरान  तिवारी जी के बेटे रोहित  ने  मुझे दिल्ली में एक  बताया  था  तिवारी का पूरा परिवार उत्तराखंड में अपनी उपेक्षा से ख़ासा आहत है |  कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग नेता और उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने   नैनीताल-ऊधमसिंहनगर की  सीट में एक दौर में विकास की गंगा बहाई  | गौरतलब है इस सीट से तिवारी तीन बार सांसद रह चुके थे  |  तीन बार उत्तर प्रदेश और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे एनडी की राज्य में मान्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था  कि अब तक बने 9 मुख्यमंत्रियों में वह  उत्तराखंड के ऐसे इकलौते सीएम रहे  जिन्होंने काफी खींचतान  के बावजूद अपना  कार्यकाल पूरा किया |

18 अक्तूबर, 1925 को नैनीताल के बलूती गांव में पैदा हुए तिवारी तिवारी  देश के  ऐसे इकलौते  नेता रहे  जो राजनीति में  परोक्ष रूप से सक्रिय रहे  |  तिवारी के पिता पूरन चंद तिवारी स्वतंत्रता सेनानी थे।  पिता के संस्कार बेटे नारायण दत्त तिवारी में भी आए । देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर विद्यार्थी जीवन में ही आजादी के आंदोलन से जुड़ गए । भारत  छोड़ो आंदोलन में पिता और पुत्र दोनों एक साथ गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए । जेल से छूटने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पूरी की । आजादी के समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष भी  रहे  । जवाहरलाल नेहरू, महामना मदनमोहन मालवीय, आचार्य नरेंद्र देव आदि के संपर्क में आए और समाजवादी बन गए | उत्तर प्रदेश में 3  बार और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तथा केंद्र में लगभग हर महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रहे तिवारी  की राजनीतिक पारी राजनीती की पिच पर उनकी बैटिंग करने की टेस्ट मैच  स्टाइल को बखूबी बयां करती थी  । वित्त मंत्री  में तिवारी तूती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था  उनके दौर में  देश की विकास की विकास दर पहली बार दहाई  आंकड़े को पार गई  | 

 1951-52 के चुनाव में नैनीताल उत्तर सीट से पहली बार सोशलिस्ट  पार्टी के बैनर तले  तिवारी ने  चुनाव जीत कर सबको  चौंका  दिया | उस दौर को याद करें तो सही मायनों में कांग्रेस की हवा के बावजूद  तिवारी जी पहली बार विधानसभा पहुंचे  ।   उस चुनाव में 431 सदस्यीय  सदन में सोशलिस्ट  पार्टी के  20  सदस्य चुनाव जीत गए | 1965  में वह कांग्रेस के टिकट पर  विधान सभा का चुनाव  न केवल जीते बल्कि मंत्री परिषद में जगह बनाने में सफल हुए | 1968  में  जवाहरलाल  नेहरू युवा केन्द्र  स्थापना  तिवारी  योगदान को नहीं भुलाया जा सकता | 1969 -1971 में  कांग्रेस  के युवा संगठन  कमान भी जहाँ तिवारी जिम्मे आई वहीं   1 जनवरी 1976  में पहली  बार  उत्तर प्रदेश  मुख्यमंत्री बनने  गौरव तिवारी  को हासिल हुआ | दूसरी बार तिवारी  1984 और तीसरी बार 1988 में वह  उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुख्यमंत्री रहे। 

  नैनीताल और उधमसिंहनगर  का पूरा इलाका  तिवारी का मजबूत गढ़ रहा  । अपने कार्यकाल में इस तराई के इलाके में तिवारी ने विकास की जो गंगा बहाई उसकी आज भी विपक्षी तारीफ़ किया करते हैं और जितना कुछ आज उत्तराखंड में  दिख रहा है यह सब तिवारी की ही देन है | अपने कार्यकाल में एन  डी तिवारी ने न केवल इस इलाके में सडकों का भारी जाल बिछाया बल्कि औद्योगिक इकाईयों की स्थापना से लेकर बुनियादी इन्फ्रास्ट्रेक्चर मुहैय्या करवाने में तिवारी के योगदान को आज भी नहीं भुलाया जा सकता शायद यही वजह है उनके विरोधी भी उनके राजनीतिक कौशल के कायल रहे  । नोएडा , ग्रेटर नोएडा, ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ,   ट्रोनिका सिटी सरीखी परिकल्पनाएं जहाँ आज चकाचौंध अट्टालिकाओं में दिखता  है यह सब  तिवारी की  देन है | यही नहीं गंगा  यमुना  तहजीब से जुडी नवाबों  की नगरी लखनऊ के गोमतीनगर और इंदिरानगर सरीखे इलाके तिवारी जी  के बसाये  हुए हैं | 

एन डी तिवारी के सक्रिय  राजनीतिक जीवन की शुरुवात भी  नैनीताल की कर्मभूमि से ही हुई  । चालीस के दशक में जनान्दोलनों में सक्रिय  रहे तिवारी ने अपनी सियासी पारी को नई उड़ान इसी नैनीताल संसदीय इलाके ने जहाँ दी ,वहीँ स्वतंत्रता आंदोलन और आपातकाल  के दौर में भी तिवारी ने अपनी भागीदारी से अपनी राजनीतिक कुशलता को बखूबी साबित किया । नारायण दत्त तिवारी नब्बे  के दशक  में प्रधानमंत्री की कुर्सी से भी चूक गए थे । उस दौर को अगर याद करें तो नरसिंह राव ने चुनाव नहीं लड़ा लेकिन  नरसिंह  राव  पीएम बन गए । आज भी तिवारी के मन में  पी एम न बन सकने की कसक रही  |  1991  में नैनीताल बहेड़ी संसदीय  सीट से वह इसलिए चुनाव हार गए क्युकि चुनाव प्रचार के दौरान अभिनेता दिलीप कुमार ने बहेड़ी में सभा की | उनका असली नाम युसूफ मिया था और किसी ने अफवाह उड़ा दी कि युसूफ मियां की सिफारिश पर ही उन्हें टिकट मिला है | इससे लोगों में गलत सन्देश गया और उनके वोट कट गए |  अगर तिवारी नैनीताल में नहीं हारते तो शायद वह उस समय देश के प्रधानमंत्री बन जाते । 800  वोटों के मामूली अंतर  हुई  इस हार चलते तिवारी पीएम  कुर्सी के करीब आते आते फिसल गए  और नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने | 1995 में उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर  अपनी अलग पार्टी बनाई लेकिन सफल नहीं हो  सके और 2 बरस बाद ही घर वापसी कर  गए | 

    इसके बाद तिवारी की उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के रूप में इंट्री वानप्रस्थ के रूप में 2002  में हुई । इसी वर्ष  उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने पर कांग्रेस आलाकमान ने  हरीश रावत को नकारकर एनडी तिवारी को  सरकार की बागडोर सौंपी थी |  तिवारी उस समय लोकसभा में नैनीताल सीट से ही सांसद थे लिहाजा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर रामनगर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और रिकार्ड जीत दर्ज कर उत्तराखंड में अपनी  धमाकेदार इंट्री की। तिवारी के तमाम राजनीतिक कौशल के वाबजूद उनके विरोधी तिवारी को राज्य आंदोलन के मुखर विरोधी नेता के रूप में आये   शायद इसकी बड़ी वजह तिवारी का अतीत में दिया गया वह बयान रहा जिसमे उन्होंने कहा था उत्तराखंड उनकी लाश पर बनेगा लेकिन इन सब के बीच नारायण दत्त तिवारी की गिनती विकास पुरुष के रूप में उत्तराखंड में होती रही तो  इसका सबसे बड़ा कारण यह था उन्होंने अपनी सरकार में विरोधियो के साथ तो लोहा लिया ही साथ ही विपक्षियो को भी अपनी अदा से खुश रखा शायद यही वजह रही  उस दौर में भाजपा पर मित्र विपक्ष के आरोप भी लगे और तिवारी ने जमकर लाल बत्तियां राज्य में बांटी  ।

 उत्तराखंड में 2002 विधानसभा चुनाव  के बाद उन्होंने  कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन 2012 में हल्द्वानी, रामनगर, काशीपुर , विकासनगर,  किच्छा ,जसपुर, रुद्रपुर और गदरपुर में कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए  बड़े रोड शो करके वोट मांगे ।  2009  में  हैदराबाद राजभवन "सेक्स स्कैंडल" और  " रोहित  शेखर" पुत्र विवाद के बाद सियासत में  बेशक उनका सियासी कद घट जरुर गया और उनके अपने कांग्रेसियों ने उनसे दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी | उत्तराखंड  में सोमनवारी बाबा का एक  किस्सा  तिवारी जी  बारे में खूब मशहूर रहा । तिवारी जब चार बरस  के थे तो सोमनवारी बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया था कि यह बालक जीवन में कई ऊंचाइयां छुएगा। बाबा के आशीर्वाद से ऐसा हुआ भी लेकिन तिवारी की एक भूल से बाबा नाराज हो गए थे। उन्होंने शाप दिया कि वह  जीवन में ऊंचाइयां तो हासिल करेंगे, लेकिन अंतिम  मोड़ पर पिछड़ जाएंगे ।  सही मायनों  में अंतिम समय में तिवारी की राजनीति कुछ इसी करवट बैठी | हैदराबाद राजभवन "सेक्स स्कैंडल" और  " रोहित  शेखर" पुत्र विवाद के बाद भी तिवारी टायर्ड  नहीं हुए बल्कि देहरादून  में फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का "अनंतवन "  फिर से उनकी नई राजनीति का नया  केंद्र बन गया  जहाँ से उन्होंने लखनऊ की तरफ अपने कदम बढ़ाये और अखिलेश सरकार को अपना मार्गदर्शन देने का  न केवल काम  किया बल्कि  यू पी के कई सरकारी विभागो की ख़ाक छानकर यह बता दिया अभी भी राजनीती तिवारी की रग रग में है  । भले ही कांग्रेस आलाकमान उनको भाव ना दे लेकिन वह  हर बड़े  और छोटे   नेता  को सलाह देने को  वह हमेशा तैयार रहे |    

 तिवारी की मौत के बाद देश की राजनीती के एक बड़े युग का अवसान हो गया |  योजना आयोग के उपाध्यक्ष , उद्योग , वाणिज्य , वित्त सरीखे भारी भरकम मंत्रालय संभालकर तिवारी ने सही मायनो में  अपनी विकास पुरुष की छवि को चमकाया  | निवेश के आसरे राजस्व बढ़ाने में तिवारी  को महारत हासिल थी और आजीवन तिवारी जी  ने अपनी  ऊर्जा विकास कार्यों को आगे बढ़ाने में लगा दी |   उनके बेटे  रोहित को अब  अपने पिता एन डी के विकासकार्यों को आगे बढ़ाना है | इसके लिए सबसे सही तरीका संवाद है और एन डी भी इस कुशलता के माहिर खिलाड़ी रहे हैं लिहाजा रोहित को भी आज चाहिए वह लोगों के बीच व्यक्तिगत तौर पर जाकर अपनी अलग पहचान खुद से बनाये और जनता से जुडी जमीनी राजनीती करें | वह इसमें कितना कामयाब होंगे यह तो आना वाला कल ही  बतायेगा लेकिन  उत्तराखंड में तिवारी जी की मौत से राजनीती  के बड़े युग का अवसान हुआ  है |