Monday, 8 April 2013

अलविदा ....आयरन लेडी



“मुझे थैचर की मृत्यु से गहरा दुःख पहुंचा है | हमने एक दूर द्रष्टा नेता खो दिया है’’  | ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने कुछ इन्ही शब्दों के साथ अपने प्रधानमंत्री को आखरी विदाई दी | बीते सोमवार को ब्रिटेन के हर नागरिक की आँखें नम हो गई जब उन्होंने अपने प्रिय नेता की मौत का समाचार सुना | अपने प्रिय नेता को खोने का गम कैसा होता है यह ब्रिटेन की इकलौती महिला प्रधानमंत्री रही मार्गेट थैचर की मृत्यु से समझा जा सकता है | ब्रिटेन की राजनीती में आयरन लेडी का जो मकाम थैचर ने अपने आसरे गढा उसको छू पाना किसी भी नेता के लिए भविष्य में आसान नहीं लगता |

 आयरन लेडी के नाम से मशहूर थैचर की समकालीन विश्व राजनीती पर पकड़ कॉ अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीसवी सदी की सबसे सशक्त शख्सियतो में उनका नाम उस दौर में शुमार था | अपनी राजनीतिक पारी में तीन बार जीत की हेट्रिक लगाने वाली थैचर ने १९७९ से १९९० तक के दौर में ब्रिटेन को ना केवल कुशल नेतृत्व प्रदान किया बल्कि उस दौर में कंजरवेटिव पार्टी की बिसात को अपने करिश्मे से नया आयाम दिया और सबसे लंबे वक्त तक ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बन इतिहास के पन्नों में अपने को अमर कर दिया | थैचर ने अपने अंदाज में जहाँ राजनीतिक लीक पर चलने का साहस दिखाया वहीँ तमाम कयासो को धता बताते हुए अपने विचारों और समझ बूझ के साथ राजनीती की रपटीली राहों में अपना रास्ता खुदबखुद तैयार किया और शायद यही वजह रही उनके सिद्धांतों को उस दौर में थैचरिज्म नाम दे दिया गया |

शुरुवात में थैचर की राजनीती में रूचि नहीं थी लेकिन १९५९ में संसद बनकर उन्होंने राजनीति के मिजाज को अपने अंदाज में ना केवल जिया बल्कि समझ बूझ से राजनीती की बिसात को बिछाया | १९७५ में जब पूर्व प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ को उनकी ही पार्टी ने पद से बेदखल कर दिया तब वह मजबूत नेता के तौर पर कंजरवेटिव पार्टी में उभर कर सबके सामने आई और उनका लोहा हर किसी को मानना पड़ा | यही वजह थी १९७९, १९८३ और १९८७ के चुनाव में ताबड़तोड़ जीत की हैट्रिक  बनवाकर थैचर ने अपने को ब्रिटेन के साथ ही विश्व की राजनीती में मजबूत नेता के तौर पर उभारा | सत्तर के दशक को कोई नहीं भूल सकता जब रूस की व्यापक आलोचना के मसले पर उनके द्वारा एक शानदार भाषण दिया गया जिसके चलते रूस ने उनको आयरन लेडी का खिताब देना पड़ा |

शीत युद्ध का दौर भी हर किसी के जेहन में बना है | उस समय पूरा विश्व दो गुटों में बट गया था | एक गुट का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था तो सोवियत संघ भी उस दौर में सुधारों की प्रक्रिया से गुजर रहा था | ब्रिटेन उस दौर में अमेरिका का साथी बना | उस दौर में रीगन और जार्ज एच  बुश के साथ उनकी खूब जमी | थैचर ने अपने लंबे कार्यकाल में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था ने नयी जान फूंकी और कई सरकारी योजनाओं का निजीकरण किया | उस दौर में भारत में जहाँ आर्थिक सुधारों की शुरुवात नरसिंह राव शासन में शुरू हुई तो वित्त मंत्री की कमान मनमोहन सिंह ने थामी थी तो वहीँ थैचर  ने ब्रिटेन में आर्थिक सुधारों का झंडा उठाकर अर्थव्यवस्था को नया आयाम दिया | थैचर के शासन में सोवियत संघ का विभाजन हुआ तब पूँजीवाद हावी हो गया और साम्यवाद का ग्राफ गिरने लगा | थैचर ने अपनी नीतियों के आसरे आर्थिक सुधार मुक्त अर्थव्यवस्था की शक्ल में ढालकर किये  और ब्रिटेन में पूँजीवाद को प्रधानता देने का काम किया | 

अस्सी के दशक में अर्जेंटीना के फाकलैंड आयलैंड में दखल के बाद कई सलाहकारों ने थैचर से कहा आप इस समस्या पर हाथ ना डालिए लेकिन थैचर ने अपने दिल की सुनी और इस समस्या को सुलझा लिया  और द्वीप हासिल किया | थैचर की गिनती उस दौर में रीगन से लेकर गौर्वाचौव सरीखे नेताओ के साथ अगर होती थी तो इसके पीछे उनकी राजनीतिक सूझ बूझ जिम्मेदार थी और शायद इसी सूझबूझ ने उन्हें उस दौर में ताकतवर और कद्दावर महिला प्रधानमंत्री के रूप में विश्व की राजनीती में चर्चित कर दिया | उनकी मृत्यु से ब्रिटेन और विश्व ने एक ऐसा महान नेता खो दिया है  जिसके मन में कुछ अलग करने का जज्बा था जिसकी भरपाई करना आसान  भी नहीं रहेगा | राजनीती के अखाड़े में ऐसे मुकाम बहुत कम नेता पा पाते हैं | सच कहें तो कुशल राजनेता वह है जो भीड़ की नब्ज पकड़ना जानता है  और थैचर की गिनती इसी श्रेणी में होती थी और यही चीज राजनीती में उनको सही मायनों में आयरन लेडी बनाती थी |



Sunday, 31 March 2013

बिछने लगी नेताजी की राजनीतिक बिसात ........

     क्या यू पी ए - २ अपना मौजूदा कार्यकाल सही से  पूरा कर पाएगी ? क्या आम लोक सभा  चुनाव  देश  में समय से ही होंगे ? क्या तृणमूल,  झारखण्ड विकास मोर्चा और द्रमुक  के बाद यू पी ए २ सरकार  से समर्थन वापस लेने वालो की जमात में कोई अन्य  सहयोगी तो शामिल  नहीं होंगे ? यह ऐसे सवाल हैं जो सियासी गलियारों में पिछले कुछ समय से सभी को परेशान  किये हुए हैं क्युकि  सैफई में होली मिलन कार्यक्रम के दौरान मुलायम सिंह ने  कांग्रेस  को लेकर  जिस  तरह की तल्ख़ भाषा  का इस्तेमाल किया उससे  यू पी ए २ का संकट  फिर  से गहराने   के आसार  दिखाई  दे रहे हैं ।  

नेताजी ने कांग्रेस को लेकर राजनीतिक लकीर खींचने की कोशिश यह कहते हुए खींची  कि  वह इस दौर में पीएम पद की  रेस  में नहीं हैं तो उन्होंने कांग्रेस पर हमला बोलते  हुए  कहा साथ देने वाले दोस्तों पर भी कांग्रेस को भरोसा नहीं रहता । यही नहीं तीन कदम आगे जाकर मुलायम ने कांग्रेस पर भय दिखाकर समर्थन लेने के आरोप लगाने के साथ ही इस बार कांग्रेस सरकार को घोटालो  की सरकार करार दे दिया  । यही नहीं सेकुलिरिज्म पर कांग्रेस के तमाशबीन होने के आरोपों की बौछार से यह सवाल गहरा गया है इन सबके पीछे नेता जी की मंशा आखिर क्या है ?  दरअसल अगले लोक सभा चुनावो  से पहले इसका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस से दूरी बनाकर चलने के साथ ही राष्ट्रीय  राजनीती में सपा  को किंग मेकर बनाना और गैर कांग्रेसी ,  गैर भाजपाई मोर्चे की अगुवाई करना  हो सकता है ।  

 
 २ ० १ ४ से ठीक पहले नेताजी कुछ ऐसी खिचड़ी पकाना चाह रहे हैं जिससे भाजपा और कांग्रेस  दोनों  दलों से इतर एक नयी मोर्चाबंदी केंद्र  में शुरू हो जिसकी कमान वह खुद अपने हाथो में लेकर  सरकार बनाने का दावा  पेश कर सकें ।  १ १ ९ ६ में जब नरसिंहराव सरकार से लोगो का मोहभंग हो गया तो नेताजी ही वह शख्स  थे जिसने समाजवादियो , वामपंथियों, लोहियावादी विचारधारा के लोगो को एक साथ   लाकर उस दौर में शरद पवार के साथ मिलकर एक नई  बिसात केंद्र की राजनीती में चंद्रशेखर को  आगे लाकर बिछाई थी । उसी तर्ज पर अब नेताजी कांग्रेस को ठेंगा दिखाते हुए अकेला चलो रे का राग अपना रहे हैं साथ में तीसरे मोर्चे के लिए भी हामी भरते दिख रहे हैं ।  १७  बरस बाद  नेताजी गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी मोर्चे के लिए अपनी शतरंजी बिसात बिछाने में लग गए हैं । अगर उत्तर प्रदेश में सपा पचास से अधिक लोक सभा सीट जीत जाती है तो नेताजी की कृष्ण मेनन मार्ग से ७ रेस  कोर्स की राह आसान  हो  सकती है ।  लेकिन असल परीक्षा तो यू पी में  है क्युकि  दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही गुजरता है । वर्तमान में सपा के 22   संसद हैं और नेताजी अपने सांसदों की संख्या आगामी लोक सभा चुनावो में बढाने के लिए अपना हर दाव  खेलने की तैयारी में दिखाई दे रहे हैं ।


जवानी में  पहलवानी के अखाड़े में अपना जोश दिखाने वाले नेताजी इस बार विपक्षियो को मात देने के लिये अपना हर दाव खेलने की तैयारी में हैं जिससे समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश के साथ अन्य  राज्यों में बदत मिल सके । नेताजी के निशाने पर अब आगामी लोक सभा चुनाव हैं यही वजह है उन्होंने पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय राजनीती में अपनी पारिवारिक विरासत को स्थापित करने के लिए जोर आजमाईश शुरू कर दी थी । शिवपाल से लेकर रामगोपाल , धर्मेन्द्र यादव से लेकर डिंपल यादव  अगर आज राजनीती में हैं तो इसके पीछे नेताजी की राजनीतिक बिसात ही है जिसके बूते वह लोक सभा चुनावो में समाजवादी पार्टी की मजबूती चाह रहे हैं चाहे इसके लिए उन्हें अपने  पूरे परिवार को ही आगे क्यों ना करना पड़  जाए । 


मुलायम की मुश्किल इस समय यह है उत्तर प्रदेश सरीखे बड़े राज्यों के अलावा सपा का अन्य  राज्यों में कुछ ख़ास जनाधार नहीं है और वह इन राज्यों में कुछ करिश्मा भी अब तक नहीं कर पायी है । आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में जहाँ उनकी  कोशिश लोक सभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना इस दौर में बन रही  है वहीँ अन्य  राज्यों को लेकर भी माथे पर चिंता की लकीरें हैं क्युकि  यू पी के अलावे अन्य  राज्यों   में सपा का संगठन लचर है । ऐसे में उनके सामने दो ही संभावनाये बन रही है या तो वह कांग्रेस के साथ  फिर जाए या फिर अपने बूते ही गैर भाजपा और गैर कांग्रेस के नारे के आसरे अपने लिए केन्द्र  की सत्ता का रास्ता साफ़ करें । मौजूदा दौर में कांग्रेस की पतली हालत के चलते सपा अपने बूते ही आगे  का रास्ता   तय करेगी लिहाजा कांग्रेस के साथ जाने का विकल्प तो बंद होता दिख रहा है । इन दिनों सपा के हर छोटे बड़े नेता की तरफ से जिस तरह यू पी ए  सरकार को कभी भी गिराने के बयान  सामने आ रहे हैं उससे यह संभावना भी बन रही है  यू  पी ए --२ सपा की बैसाखियों पर अब ज्यादा दिन नहीं चल सकती । नेताजी अपने 22   सांसदों के दम पर कभी भी मनमोहन सरकार को गिरा  सकते हैं ।
 
बीते दिनों ताबड़तोड़  अंदाज में केन्द्रीय मंत्री  बेनी प्रसाद ने  नेताजी को जिस तरह निशाने पर लिया है उससे सपा के हर कार्यकर्ता में नाराजगी बढ़  गई है और वह नेताजी के जरिये मनमोहन सरकार को गिराने का दबाव बना रहे हैं जिस पर मुलायम सिंह को फ्री हैण्ड मिल चुका  है । लोक सभा चुनाव की तैयारियों के चलते यह तो साफ़ ही लग रहा है नेताजी अब जल्द चुनावो का जुआ खेलना चाह रहे हैं । वह काग्रेस के भ्रष्टाचार के दागो को अब ज्यादा धो पाने की स्थिति में  भी नहीं दिख रहे हैं ।  ज्यादा समय तक कांग्रेस के साथ जाने से सपा के वोट बैंक को भारी  नुकसान उठाना पड़  सकता है । इस दौर में मुलायम सिंह जहाँ कांग्रेस से मेलजोल बढाने के बजाए सीधे उसे निशाने पर लेने के साथ ही दूरियां बना रहे हैं वहीँ इशारो इशारो में तीसरे मोर्चे का राग अलाप  रहे हैं । यही नहीं कांग्रेस को आईना  दिखाने की मुहिम  के तहत वह लाल कृष्ण आडवानी की तारीफों में कसीदे पड़ने से पीछे नहीं हट रहे हैं । अपनी राजनीतिक बिसात  के मद्देनजर  नेताजी अखिलेश सरकार को भी निशाने पर लेने से नहीं चूक रहे है क्युकि  एंटी इनकम्बेंसी के मिजाज  को मुलायम ने यू  पी में विपक्ष  में रहते हुए  महसूस   किया  हैं  यही  वजह है वह क़ानून व्यवस्था के नाम पर अपनी नाराजगी उत्तर प्रदेश को लेकर कई बार जाहिर कर चुके हैं ।   
 अभी कुछ दिनों पहले  सैफई में होली मिलन के दौरान नेताजी ने मध्यावधि चुनावो के लिए नवंबर तक का वक्त दे दिया जो बतलाता है सपा ने आगामी लोक सभा चुनावो के लिए कमर कस ली है । यही वजह है ५६  लोक सभा प्रत्याशी तय करने के बाद अब उनकी नजरे जल्द शेष बचे  प्रत्याशी घोषित करने की है जो एक दो महीने में शायद पूरी कर दी जाएँ । राजनीती संभावनाओ का खेल है और नेताजी बड़े दूरदर्शी नेता हैं वह जान रहे हैं यही समय है जब अगर कांग्रेस भाजपा अगर दो सौ  से कम में सिमट कर रह गए तो सपा की अगुवाई में तीसरा मोर्चा दिल्ली में अपनी दस्तक दे सकता है । वैसे वामपंथी साथियो को भी अभी भी मुलायम में तीसरे मोर्चे की उम्मीदें  दिख रहीं हैं जिसका इजहार वह कई बार बड़े मंचो से कर चुके हैं । आडवानी तो पिछले साल ही तीसरे मोर्चे में एक उम्मीद अपने ब्लॉग में देख चुके हैं जिसमे मुलायम  सिंह  कड़ी का काम कर सकते हैं ।  कुश्ती के अखाड़े की तर्ज पर नेताजी आने वाले दिनों में कुछ ऐसा गणित भी फिट कर सकते हैं जिससे अगले लोक सभा चुनाव में
कांग्रेस को   उन्हें समर्थन देने को मजबूर होना पड़े । यही वजह है इस दौर में मुलायम  कांग्रेस की सरकार गिराना नहीं चाह रहे हैं । वैसे भी इस समय भाजपा और वामपथी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के खिलाफ हैं । अगर सपा अपना बाहर  से समर्थन यू पी ए  २ से वापस ले लेती है तो सरकार गिराने का कलंक मुलायम को  खुद ढोना पड़ेगा जिससे जनता में अच्छा  सन्देश नहीं जायेगा इसलिए मुलायम राजनीती का हर दाव  इस तरह से चल रहे हैं ताकि सांप  भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ।


वर्तमान समय में मुलायम की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा उत्तर प्रदेश में होनी है । अखिलेश उत्तर प्रदेश में अपने हर चुनावी वादे को पूरा करने में लगे हुए हैं । विपक्ष अखिलेश सरकार में कानून व्यवस्था बदहाल होने के आरोप लगा रहा है साथ ही बीते दिनों प्रतापगढ  में जो कुछ घटा उसमे राजा भैया सरीखे बाहुबलियों की ठसक से समाजवादी सरकार की छवि  पर बदनुमा दाग लग गया है । अगर यही सब चलता रहा  तो आगामी दिनों में सपा का उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन फींका पड़  सकता है और अगर ज्यादा दिनों तक मुलयम  मनमोहन सरकार के साथ खड़े   होते हैं तो कांग्रेस की खराब  होती सेहद का असर खुद उनकी पार्टी पर भी पड  सकता है ।  शायद इसी के चलते मुलायम सोच समझ कर समझ बूझ  के साथ  अपनी शतरंजी चाल चल  रहे हैं । वह ऍफ़ डी  आई पर मनमोहन सरकार की नैय्या  पार लगाते हैं तो वहीँ कांग्रेस को घोटालो की सरकार कहने के साथ ही समर्थन वापसी की घुड़की भी  समय समय पर देते हैं लेकिन मनमोहन सरकार को गिराने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते क्युकि  दूरदर्शी नेता रहे नेताजी जानते हैं अगर पासा उल्टा पड़  गया और मनमोहन किसी नए सहयोगी के बूते आई सी यू से अपने को बाहर निकालने में कामयाब हो जाते हैं तो पूरे  प्रकरण में  किरकिरी सपा  की ही होगी और आगामी लोक सभा चुनाव  से ठीक पहले सपा  के लिए यह अपशकुन साबित होगा ही साथ ही नेताजी के प्रधानमंत्री बनने  के सपनो को  शायद इस बार भी पंख नहीं लग पाएं ।

Monday, 25 March 2013

सुरापान और कुमाऊं की होली ...

 होली आपसी प्रेम , भाईचारे और सदभाव का त्यौहार है ।  यह  मन में नई  उमंग और उत्साह का संचार करता है । जिस प्रकार पतझड़ के बाद बसंत  का आगमन  होता है उसी प्रकार फागुनी बयार के आते  ही एक उल्लास का माहौल हमें देखने को मिलता है । यूँ तो होली पूरे देश में और विदेश में उत्साह के साथ मनाई जाती है लेकिन इसे मनाये जाने के तौर तरीके भी अब समय  के साथ साथ बदल रहे हैं । होली मनाने के पीछे भी तमाम मान्यताये हैं । विष्णु को परम शत्रु मानने वाला हिरण्यकश्यप  जब किसी तरह प्रहलाद की प्रभु भक्ति में रुकावट नहीं  डाल  पाया तो उसने उसे मारने की ठानी ।  हिरण्यकश्यप की बहन होलिका जिसे वरदान मिला था वह जिसे भी गोद में बिठाएगी वह आग में भस्म हो जायेगा । होलिका ने भी प्रहलाद को गोद में बिठाया तो प्रहलाद तो बच गए होलिका भस्म हो गयी । तभी से होलिका दहन करने की परम्परा चल पड़ी । वैसे द्वापर युग में होली  का जिक्र आते ही राधा और कृष्ण की रास लीला भी सबकी जुबान पर आ जाती है जिसके आधार पर लोग बरसाने की तरह लोगो के बीच जाकर रंग डालते हैं । 
     

 देवभूमि उत्तराखंड की होली की पूरे देश में विशेष पहचान है । बसंत पंचमी से यहाँ पर होली की महफिले सजने लगती हैं ।  एकादशी से लगातार घर घर होली के मंगल गीत गाये जाने लगते हैं । होली  के छठे  दिन रंग की हिली खेली जाती है जिसे पहाडो में छरडी कहते हैं । होली के दिन घर घर जाकर लोग आलू के गुटके, ,गुजिया  सुपारी , सौंफ खाके गले मिलकर एक दूजे को बधाईया देते हैं और होली के गीतों की फुहार में झूमते हैं । पहाड़ो  में छरडी के अगले दिन देवर भाभी और जीजा साली का टिका होता है जिसमे सभी टीका लगाकर बधाई  देते हैं ।


 कुमाऊ में होली के अवसर पर घर घर में धूम देखी  जा सकती है ।  इसमें होलियार होली के गीत गाकर समाँ बांधते हैं तो वहीँ महिलाओ के स्वांग रचने के उदाहरण  भी देखने को मिलते हैं जहाँ  वह पुरुष वेश धारण कर खूब हसी और ठिठोली में डूबे रहते हैं ।  कुमाऊँ  अंचल में एकादशी के बाद से ही घर घर में महिलाओ की बैठकी होली शुरू हो जाती है । शहरों की अपेक्षा गावो में होली के मौके पर ख़ास चहल पहल देखने को मिलती है ।  मनी ऑर्डर  इकॉनमी पर आधारित पहाड़ में अधिकांश सैनिक जो देश की सेवा में दिन रात तत्पर रहते हैं वह भी होली के ख़ास मौके पर अपने गाव जाना नहीं भूलते जिसके चलते गावो में उनके आने से होली के त्यौहार में चार चाँद लग जाते हैं । होली और दिवाली पहाड़ में एक ऐसे त्यौहार हैं  हैं जब पूरा परिवार एकजुट रहता है । गावो में होली घर के आँगन में गाई  जाती है । आंगन  में लकडियो की धूनी जलाई जाती है जिसके पास एक व्यक्ति गले में ढोल बजाता है । पूरे गाँव के लोक गोल घेरे में झूमते हुए परिक्रमा करते हुए होली गाते हैं ।  गोल घेरे के मध्य में एक गाव का कोई बुजुर्ग पहले एक लाइन गाता है फिर उसका अनुसरण सभी लोग करते हैं । होली गाने वाले पहाड़ के ये सभी होलियार झूम झूमकर मस्ती से होली  करते हैं । एक ताल में जहाँ गीतों के बोल मिलते हैं वहीँ कदम भी एक साथ चलते, गिरते और उठते हैं । पहाड़ के गावो में खेली जाने वाली इस होली में गोल घेरे में महिलाये सम्मिलित नहीं होती बल्कि वह बैठकर पुरुषो की इस होली का आनंद लेती हैं ।


      पहाड़ में होली गायन  "सिद्धि को दाता  विघ्न विनाशन" गणेश वंदना से शुरू होता है । वही द्वादशी के दिन से रंग राग शुरू हो जाता है । मत जाओ पिया होली आय रही जैसे गीतों के जरिये जहाँ नायिका अपने पति को परदेश जाने से रोकती है वहीँ विरह की पीड़ा भी इस होली में "ठाडी जो हेरू बाट  म्यार सैय्या कब आवे" जैसे गीतों में होली का यह उत्साह चरम पर चला जाता है । पहाड़ो में अगर आप होली देखे तो यहाँ की होलिया ढलती  उम्र मे किसी भी व्यक्ति को युवावस्था की याद दिलाकर उसे अपने मोहपाश में जकड लेती हैं । कुमाऊं में छरडी  के पहले से ही  होली की जबरदस्त धूम घर घर में देखने को मिल जाती है । लोग अपना काम काज छोड़कर गाँवों में उत्साह के साथ होली के आयोजन में अपनी सहभागिता करते हैं । घर घर में होल्यारो की मंडलिया देर रात तक होली के गीतों में थिरकती रहती हैं ।  छरडी के दिन गले मिलकर लोग अपनी खुशियाँ बांटते हैं और नहाने धोने के बाद शाम को गाँवों में खड़ी  होली गायन करते हैं जो देर रात तक चलता है ।  अंत में लोग " केसरी रंग डारो  भिगावन को , सांवरी रंग डारो  भिगावन  को  " जैसे गीतों से परिवार के हर सदस्य को आशीष देते हैं ।


 उत्तराखंड में कई वर्षो पहले तक जो होली गाँवों में देखने को मिलती थी वह अब समाप्त होती जा रही है । हाल के वर्षो में रोजगार के अभाव में पहाड़ो से पलायन काफी बढ़ा है । खेती बाड़ी चौपट है तो जल जमीन जंगल के नाम पर लूट चल रही है । लोग महानगरो की तरफ रोजी रोटी की तलाश में बढ  रहे हैं जिससे होली जैसे त्यौहार भी अब  गावो में सिमटते जा रहे हैं क्युकि  इस दौर में समूची कवायद तो कॉर्पोरेट के आसरे विकास के चमचमाते सपने दिखाने में लगी हुई है और इन सबके बीच परम्परा को भी आधुनिकता का ग्रहण लग चुका  है । कुमाऊ  में गौरंग घाटी , चम्पावत, लोहाघाट और अल्मोड़ा की होली आज भी अपने अस्तित्व को बचाए हुए है  । एक दौर ऐसा भी था जब कुमाऊ  की इस होली की अलग पहचान थी और लोग इससे देखने के लिए लालायित रहते थे लेकिन अब माहौल पहले जैसा नहीं रहा । पहाड़  के गाव दिनों दिन खाली होते जा रहे हैं । युवा पीड़ी माल संस्कृति वाली हो गयी है । वह पहाड़ से जुड़ाव महसूस  नहीं करती  । शराब ने  नशा नहीं रोजगार दो के दौर में पहाड़ो को खोखला कर दिया था । अब होली के मौके पर भी सुरापान ट्रेंड अपने  चरम पर है । कच्ची शराब के कल कारखाने जहाँ  घर घर में फूलने लगे हैं वहीँ सूबे के मुखिया विजय बहुगुणा  ने शराब को बढ़ावा देने के लिए जिस तरह नीतिया यहाँ हाल के वर्षो में बनाई हैं उससे देवभूमि में अब हर चाय के ढाबे में  चाय कम सुरापान ज्यादा होने के आसार बन रहे  हैं । दस जनपथ की कृपा से  मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा कॉपरेट और सिंडिकेट के आसरे उत्तराखंड में नई  बोतल में पुरानी शराब घर घर तक पहुचाने में  गए हैं । ऐसे में सरकार की नीयत पर सवाल उठने  लगे हैं । ऊपर से होली सरीखे  बड़े त्योहारों में भी देवभूमि में शराब की गंगा बहनी अब तय ही दिख रही है । अगर ऐसा हुआ तो उत्तराखंड में होली के  मौके पर  रंग में भंग पड़ना तय है और शराब के रंग के आगे इस बार की  होली के रंग भी फीके ही रहेंगे ।

Sunday, 3 March 2013

कलह ने किया भाजपा को कमजोर .....


पार्टी विथ डिफरेंस जुमला भाजपा के बारे में जरुर कहा जाता है । इस पर अगर यकीन करें तो पार्टी में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ,और देश प्रेम का पाठ जोर शोर से हर कार्यकर्ता को ना केवल पढाया जाता है बल्कि संघ भी अपने अंदाज में राष्ट्रवाद के कसीदे पढ़कर दशको से एक नई लकीर अपने आसरे खींचता रहा है लेकिन आज भगवा खेमे में पहली बार हताशा का माहौल है । पार्टी में अब व्यक्ति की गिनती पहले होने लगी है । भगवा खेमे में इस बार हलचल ना केवल प्रधानमंत्री पद को पाने के लिए है बल्कि कांग्रेस से लगातार 2 लोक सभा चुनावो में हारने की कसक नेताओ में बरकरार है । अगर यही हालत रहे तो 2014 के लोकसभा चुनावो में भाजपा का प्रदर्शन फीका पड़ने के आसार अभी से ही दिखाई दे रहे हैं । जिस अनुशासन का हवाला देकर पार्टी अपने को दूसरो से अलग बताती थी आज वही अनुशासन पार्टी को अन्दर से कमजोर कर रहा है क्युकि अगले चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए जनता के बीच जाने के बजाए पार्टी प्रधानमंत्री के पद की किचकिच में उलझी है । उसे यह समझ नहीं आ रहा कैसे भाजपा की नैय्या 2014 में बिना अटल बिहारी के कैसे पार लगेगी ?


वर्तमान दौर में पहली बार भाजपा के अन्दर उथल पुथल है । यही कारण है बीते दिनों राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में पार्टी ने सुशासन ,संकल्प और विकल्प का नारा ही दे डाला । यह अलग बात है पार्टी में अभी भी कलह थमने का नाम नहीं ले रही और इन सबके बीच पार्टी में अरुण जेटली के अलावे विजय गोयल, सुधांशु मित्तल, नितिन गडकरी जैसे नेताओ की फ़ोन टेपिंग का साया इस राष्ट्रीय कार्यकारणी में भी देखने को मिला है जो कहीं ना कहीं भाजपा के अन्तर्विरोध को एक बार फिर सबके सामने ला रहा है । मजेदार बात यह है राजनाथ के अध्यक्ष बनने से ठीक पहले भाजपा के कई नेताओ के फ़ोन टेप होने का मसला सामने आने से यह मसला दिलचस्प बन गया है जो पार्टी के भीतर तमाम सवालों को पैदा कर रहा है । गडकरी की विदाई के बाद लोगो को उम्मीद थी कि राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद सब कुछ सामान्य हो जायेगा पर अभी तक वह अपनी टीम ही नहीं बना सके हैं । इस दौर में भाजपा के पास अपने अस्तित्व को बचाने की गहरी चुनौती है । उसके पुराने मुद्दे अब वोटर पर असर नहीं छोड़ पा रहे तो भावनात्मक मुद्दे भी लोगो को नहीं रिझा पा रहे । यू पी ए 2 की हर एक विफलता को भुनाने मे वह अब तक नाकामयाब ही रही है । हाल ही में उत्तराखंड , उत्तर प्रदेश और हिमांचल सरीखे राज्य उसके हाथ से निकल गए जहाँ वह अच्छा कर सकती थी वहीँ अन्य प्रदेशो में भी पार्टी बहुत अच्छी स्थितियों में नहीं है । हर राज्य में उसके छत्रप लगातार अपने दम पर मजबूत होते जा रहे हैं तो वही यही लोग अपने अंदाज में समय समय पर पार्टी को अपने अंदाज में ठेंगा भी दिखा रहे हैं । बीते कुछ समय पहले येदियुरप्पा और वसुंधरा राजे इसका नायाब उदाहरण रहे हैं वहीँ गुजरात में भाजपा नहीं मोदी लगातार जीत रहे हैं जो बतलाता है पार्टी में हर नेता अपने को पार्टी से बड़ा समझने लगा है जिसके चलते पार्टी 2014 में किसी नेता को प्रोजेक्ट करने से ना केवल डर रही है बल्कि मोदी को लेकर भी कमोवेश इस दौर में तस्वीर साफ़ होती नहीं दिख रही है क्युकि इससे एन डी ए के टूटने का खतरा बना हुआ है जबकि मोदी में ही पार्टी का बड़ा तबका 2014 में भाजपा के लिए नई उम्मीद देख रहा है ।

असल में भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के भीतर से ही मिल रही है । अटलबिहारी सरीखे करिश्माई नेता की कमी जहाँ भाजपा को इस दौर में खल रही है वहीँ 80 पार के आडवानी इस दौर में भी प्रधान मंत्री की कुर्सी का अपना मोह नहीं छोड़ पा रहे है । यह अलग बात है इशारो इशारो में आडवानी कहते रहे हैं पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया है अब किसी और चीज की चाह नहीं है लेकिन राजनीती का मिजाज ही कुछ ऐसा है व्यक्ति चाहकर भी इसका मोह नहीं छोड़ता । पिछले चुनाव मनमोहन को कमजोर बताने वाले आडवानी के नेतृत्व को देश का वोटर नकार चुका है लिहाजा पार्टी को आडवानी पर निर्भरता छोड़कर केवल उन्हें मार्गदर्शन तक सीमित रखतेहुए दूसरी पंक्ति के किसी नेता पर दाव 2014 में लगाना चाहिए लेकिन इस पर भी भाजपा से लेकर संघ में एका नहीं है क्युकि डी -4 की दिल्ली वाली चौकड़ी तो भागवत के निशाने पर उस दौर से ही है जिस दौर में गडकरी को महाराष्ट्र की राजनीती से पैराशूट की तर्ज पर दिल्ली में उतारा गया वहीँ सुषमा से लेकर जेटली , मोदी से लेकर राजनाथ सभी इस दौर में पीं एम् इन वेटिंग वाली आडवानी वाली लकीर पर चल निकले हैं लेकिन संघ के आशीर्वाद के बिना कोई भी इस पद को नहीं पा सकता । वहीँ इनका सपना भी तभी पूरा हो पायेगा जब 2014 के लोक सभा चुनावो में भाजपा 200 सीटें अपने दम पर पार करे जो इस समय दूर की गोटी ही दिख रही है । हमको तो यह बात हजम नहीं होती पिछले लोकसभा चुनावो में आडवानी ने कहा था अगर वह 2009 मे प्रधान मंत्री नहीं बन पाए तो वह राजनीती से सन्यास ही ले लेंगे लेकिन इस दौर में पार्टी आडवानी पर अपनी निर्भरता नहीं छोड़ पा रही । आडवानी ने चुनावो के बाद अपने को विपक्ष के नेता पद से दूर जरुर किया लेकिन सुषमा और जेटली को आगे कर अपना सबसे बड़ा दाव संघ के सामने ना केवल चला बल्कि जिस गडकरी को पिछली बार उन्होंने संघ के आसरे भाजपा के अध्यक्ष पद पर बिठाया था आज उन्ही को अपनी बिसात के जरिये दूसरा टर्म देने से रोका है जो आज भी साबित करता है आज भी भाजपा में आडवानी का सिक्का जोरो से चलता है । अब जैसे जैसे लोकसभा चुनाव पास आते जा रहे है आडवानी एक बार फिर से पुराने रंग में लौटते जा रहे हैं । हाल ही में उन्होंने पाकिस्तान को हैदराबाद बम धमाको में सीधा जिम्मेदार ठहराया है बल्कि समय समय पर बीते दौर में यू पी ए सरकार को भी अपने निशाने पर लिया है जो बताता है रेस कोर्स के लिए आडवानी आखरी जंग लड़ने के मूड में हैं और अगर खुद ना खास्ता भाजपा अच्छी सीटें नहीं ला पायी तो आडवानी का चेहरा ही ऐसा है जिस पर एन डी ए बिखरने से बच सकता है बल्कि अटल सरकार को छोड़कर गए पुराने पंछी भी फिर से जहाज पर सवार हो सकते हैं । लिहाजा आडवानी अंदरखाने अपने अंदाज में पार्टी के बीच अपना गणित बिठाने में लगे हुए हैं । वैसे भी आज भाजपा में आडवानी के रुतबे में कोई कमी नहीं आई है लिहाजा सुषमा,जेटली से लेकर शिवराज और रमन सिंह सरीखे मुख्यमंत्री उनकी उनकी सबसे बड़ी ताकत बने हुए हैं । पार्टी में आडवानी के नाम पर आज भी वैसी ही सर्व स्वीकार्यता है जैसी नेहरु गाँधी परिवार को लेकर कांग्रेस में है ।

बीते दौर को अगर याद करें तो दीनदयाल उपाध्याय , कुशाभाऊ ठाकरे, विजयराजे सिंधिया और अटल बिहारी सरीखे करिश्माई दिग्गज नेताओ का नाम जेहन में आता है जिनकी बदौलत भाजपा ने एक बड़ा मुकाम बनाया । उस दौर में पूरी पार्टी एकजुट थी । अहं का टकराव नहीं था लेकिन आज कैसा अंतर्कलह मचा हुआ है यह यशवंत सिन्हा द्वारा पार्टी फोरम से बाहर मोदी को पी एम बनाने , गडकरी को चुनौती देने के लिए खुद मैदान ए जंग में आने के बयानों से साफ झलका है ।वहीँ पार्टी अध्यक्ष द्वारा मीडिया में पी एम पद केलिए खुले तौर पर कुछ भी कहने से मनाही के बाद हर नेता पार्टी में अपने बयानों के नए तीर 2014 के चुनावो से पहले छोड़ रहा है जो बतलाता है भाजपा का मौजूदा संकट किस कदर गहराया हुआ है ? राजनाथ के आने के बाद भी पार्टी में आज कार्यकर्ताओ में वह जोश गायब है जो वाजपेयी वाले दौर में हमें देखने को मिलता था । पार्टी मे आज पंचसितारा संस्कृति हावी हो चुकी है । पार्टी का चाल,चलन और चेहरा आज बदल गया है । गडकरी के कार्यकाल में पार्टी के फंड मे सबसे ज्यादा रिकॉर्ड धन प्राप्त हुआ है जो बताता है भाजपा भी किस तरह इस दौर में कारपोरेट के आगे नतमस्तक है । कांग्रेस की तमाम बुराइया भाजपा ने आत्मसात जहाँ कर ली हैं वहीँ गुटबाजी में भी पार्टी ने कीर्तिमान ही तोड़ दिए हैं । पार्टी अपने मूल मुद्दों से भटक ही गई है । राम लहर पर सवार होकर उसने सत्ता सुख जरुर भोगा लेकिन अपने कार्यकाल में गठबंधन की मजबूरियां गिनाकर वह अपने एजेंडे से ही भटक गई । सत्ता की मलाई चाटते चाटते वह इतनी अंधी हो गई कि हिंदुत्व और एकात्म मानवतावाद रद्दी की टोकरी मे जहाँ चले गए वहीँ बाबूसिंह कुशवाहा सरीखे लोगो को उसने बीते दौर में ना केवल गले लगाया बल्कि येदियुरप्पा और निशंक सरीखे नेताओ के भ्रष्टाचार से आँखें मूँद ली । यही नहीं खंडूरी सरीखे जिस नेता को उन्होंने पिछले लोक सभा चुनावो में उत्तराखंड से हटा दिया और विधान सभा चुनावो से ३ माह पहले वापस बुलाकर अपनी भद्द ही कराई । बड़ा सवाल यह था अगर खंडूरी अच्छा काम उत्तराखंड में कर रहे थे तो उनको क्यों हटाया गया और फिर चुनाव पास आतेदेख पार्टी को उनकी याद क्यों आ गई ?यही बात वसुंधरा राजे केलिए भी लागू होती है । उनकी पिछली सरकार ने राजस्थान में अच्छा काम किया फिर भी राजनाथ ने अपने पहले कार्यकाल में उनको नेता प्रतिपक्ष पद से हटा दिया और संयोग देखिये अब राजस्थान में विधान सभा चुनावो में वही वसुंधरा पार्टी का बड़ा चेहरा होने जा रही हैं ?

भारतीय जनसंघ का दौर अलग था ।तब पार्टी के पास एक विजन था । 1977 में यह जनता पार्टी के साथ मिल गयी । इसके बाद १1979 में जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद 1980 मे भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ । 1984 में जहाँ पार्टी ने दो सीटें जीती वहीँ 1989 में 86 सीटो पर भगवा परचम लहराया । इसके बाद नब्बे का दशक आते आते पार्टी राम लहर में सवार हो गई जिसने 1996 में उसे सबसे बड़ी पार्टी बनाया । 1999 से 2004 तक भाजपा ने अटल के आसरे गठबंधन राजनीति की नई लकीर खींची जहाँ प्रमोद महाजन सरीखे नेता की मैनेजरी के जरिये भाजपा ने राजनीती में नई इबारत लिखी । पोखरण, कारगिल उस दौर की यादगार घटनाये रही । साथ ही संसद पर हमला ,आई सी 814 का अपहरण ,गोधरा पार्टी के लिए कलंक साबित हुआ जिसके दाग अभी तक नहीं छूट पाएं है । 2004 के लोकसभा चुनावो में इंडिया शाईनिंग के फब्बारे क़ी ऐसी हवा निकली जिसके जख्मो से वह लगातार पिछले दो लोक सभा चुनावो से नहीं उबर पायी है और इस बार भी चुनाव की बिसात बिछाने से ज्यादा पार्टी में प्रधान मंत्री पद को पाने के लिए सारी रस्साकसी चल रही है । कहीं यह 2014 में भाजपा की मिटटी पलीद नकार दे । बेहतर होगा वह पी एम पद के बजाए2014 में अपना प्रदर्शन सुधारने पर जोर दे । यह दौर ऐसा है जब जनता यू पी ए -2 की नीतियों से परेशान दिख रही है और कहीं का कहीं भ्रष्टाचार के मसले पर बीते कुछ समय से उसकी खासी किरकिरी भी हुई है जिसको भुनाने में भाजपा नाकामयाब ही रही है । सरकार को घेरने का हर मौका भाजपा चूकी है और भ्रष्टाचार की लड़ाई को कमजोर उसने गडकरी सरीखे नेता को बचाकर पूरा किया है जो बतलाता है भाजपा में साढे साती की यह दशा 2014 में भी कहीं उसका खेल कहीं खराब नहीं कर दे और शायद यही वजह है भाजपा पहली बार राजनाथ के अध्यक्ष बनाये जाने के बाद एकजुट होकर राष्ट्रीय कार्यकारणी के जरिये यह बतलाने की कोशिश का रही है 2014 के लिए वह कमर कस चुकी है लेकिन पार्टी का अंदरूनी कलह असंतोष के लावे को सबके सामने तो ला ही रहा है






Friday, 22 February 2013

बजट सत्र के आसरे यू पी ए छेड़ेगी चुनावी तान

जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़कर भाजपा की मुश्किलों को बढाने का ना केवल काम किया बल्कि आर एस एस को भी पहली बार गृह मंत्री के खिलाफ मोर्चाबंदी कराने को मजबूर कर दिया । इसका असर यह हुआ भाजपा ने शिंदे के खिलाफ ना केवल जगह जगह प्रदर्शन  कर उन्हें बयान वापस लेने या फिर भगवा आतंकवाद के खिलाफ सबूत पेश करने की चुनौती  ही  दे डाली । बाद में गृह मंत्री के इस बयान के असर को कांग्रेस ने देर से भांपा और सोनिया की सलाह पर इससे अपने को अलग कर बयान  से कन्नी ही  काट ली ।  हालाँकि दिग्गी राजा, मणि शंकर और हरीश रावत सरीखे खांटी कांग्रेसी नेताओ ने शिंदे की तारीफों में कसीदे पढ़ हमेशा की तरह मुस्लिम वोटरों की बांछें ही खिलाई ।

मौजूदा बजट सत्र से ठीक पहले शिंदे  ने जिस अंदाज में भाजपा के सामने माफ़ी मांगी है  उससे कई सवाल खड़े हुए हैं । मसलन क्या मौजूदा संसद के बजट सत्र  के पहले भाजपा के तगड़े विरोध और सदन के बहिष्कार के चलते तो यह कदम नहीं उठाना पड़ा है ? अगर भगवा आतंक और संघ के खिलाफ ठोस सबूत गृह मंत्रालय के पास पहले से ही थे तो शिंदे उन्हें सामने लाने से क्यों कतरा रहे थे ? क्या भगवा आतंक के आसरे आगामी लोक सभा चुनावो में यू पी ए सरकार अपना जनाधार बचाने की कोशिश कर रही है ? जेहन में यह सारे सवाल इसीलिए कौंध रहे हैं क्युकि पहली बार भाजपा के हिंदुत्व के मसले पर वापस  लौटने और नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति की कमान सौंपने के मद्देनजर कांग्रेस भी संघ की मांद में घुसकर हिन्दुत्व को न केवल अपने अंदाज में  आइना दिखा रही है वरन  कसाब ,अफजल सरीखे मुद्दों को लपककर अपने को भाजपा से बड़ा राष्ट्रवादी बताने पर तुली हुई है और शिंदे, दिग्गी और मणिशंकर सरीखे नेताओ को आगे कर भाजपा से दो दो हाथ करने की ठान रही है और इन सबके बीच शिंदे की माफ़ी के बाद भाजपा ने राहत ली है । कांग्रेस भी इससे बमबम है क्युकि अगर शिंदे माफ़ी नहीं मांगते तो शायद इस बार का बजट सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ जाता । तो क्या माना जाए इस बार बजट सत्र अब हंगामे की भेंट नहीं चढ़ेगा ? लगता ऐसा नहीं है क्युकि लोक सभा चुनावो से ठीक पहले  यह चुनावी बजट केंद्र सरकार के लिए न केवल अहम हो चला है बल्कि विपक्ष भी बहस के लिए उन  55 बिलों पर नजर गढाए बैठा है जो  इस सत्र में पारित होने हैं जिसमे सोनिया के भूमि अधिग्रहण , लोकपाल, खाद्य सुरक्षा और महिला आरक्षण सरीखे ड्रीम बिल   शामिल हैं जो २०१४ के लोक सभा चुनावो से पहले कांग्रेस की चुनावी वैतरणी पार लगा सकते हैं लेकिन यू पी ए के सहयोगियों का इन तमाम बिलों पर गतिरोध अभी भी बना हुआ है और उसके  सभी सहयोगियों को साथ लेकर चलने की मजबूरी कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती  इस समय बनी हुई है क्युकि शिमला , पचमढ़ी के बाद हाल में राहुल के जयपुर में ट्रेलर के बाद गठबंधन की लीक पर कांग्रेस के चलने के संकेत तो अभी से मिल ही रहे हैं और इस बात की गुंजाइश तो दिख ही रही है वह सहयोगियों को साथ लेकर ही किसी बिल को अमली जामा पहनाएगी ।


इस सत्र के दौरान कई गंभीर मसलो पर हमें चर्चा देखने को मिल सकती है । सत्ता पक्ष  को विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए  खुद को तैयार करना  पड़ सकता है और अगर कहीं चूक हो गई तो विपक्ष इसे बड़ा मुद्दा बनाकर कांग्रेस की चुनावी वर्ष में चिंता बढ़ा सकता है । वैसे संसदीय राजनीती में यह तकाजा है हर मुद्दे पर सदन में बहस होनी चाहिए लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे देश में संसद का हर सत्र शोर शराबे और हंगामे की भेंट ही चढ़ता  जा रहा है जो लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण  है । यू पी ए २ के पिछले बारह सत्रों में ५००  घंटे से भी  कम काम हुआ है । ज्यादातर दिनों में या तो वाक आउट हुआ है  या बिना चर्चा हुए बिल सदन के पटल पर ना केवल रखे गए हैं बल्कि पारित भी हुए हैं । यह सब देखते हुए इस बार शोर शराबे का अंदेश तो बना ही है क्युकि सदन में राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान हमें विपक्षियो के मिजाज को देखकर बहती हवा का पुराना रुख दिख रहा है लेकिन शिंदे की मांफी के बाद यह उम्मीद तो बनी है इस सत्र में सदन का कामकाज सुचारू रूप से चलेगा ।


 वेस्टलैंड हेलीकाप्टर सौदा इस सत्र में कांग्रेस के लिए परेशानी पैदा कर सकता है । हालाँकि कांग्रेस ने सी बी आई से निष्पक्ष जांच की मांग दोहराई है लेकिन दिल से कांग्रेस इस मामले को लटकाना ही चाहती है वहीँ  भाजपा के जसवंत सिंह द्वारा त्यागी बन्धुओ के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर भाजपा के नीति नियंताओ पर भी सवाल उठा रहा है क्युकि उस दौर को अगर याद करें तो सौदे को अमली जामा पहनाने की कोशिशें एन डी ए के शासन में ही शुरू हुई थी । जो भी हो सी मामले की सच्चाई देश के सामने आनी  चाहिए ।  केवल रक्षा मंत्री के इस्तीफे के नाम पर सदन में हंगामा करना और कार्यवाही बाधित करना ठीक नहीं है । इसके अलावा कोयला घोटाला इस बार भी सदन में उठने का अंदेशा बना हुआ है । इसके तार अजय संचेती से लेकर गडकरी और कांग्रेस नेता प्रकाश जाय सवाल से लेकर कई नेताओ के नाते रिश्तेदारों तक जा रहे हैं और सरकार की जांच ठन्डे बसते   में चली गई है लिहाजा एक बहस की सदन को जरुरत महसूस हो रही है । वही कैग पर सवाल उठाकर कांग्रेस ने एक बार फिर विपक्षी दलों को एक बड़ा मुद्दा दे दिया है । विपक्ष कह रहा है इस सरकार को संवैधानिक संस्थाओ पर कोई भरोसा नहीं रह गया लिहाजा वह उनके पर कतरने की तैयारी में है ।  इधर महंगाई का मुद्दा भी लम्बे समय से आम आदमी को परेशान  कर रहा है । अगर इस पर सदन में बहस होती है तो गंभीर चर्चा की नौबत आ सकती है । यह बेहद निराशाजनक है केंद्र सरकार  अपने दूसरे कार्यकाल में महंगाई दर पर अंकुश लगाने में नाकामयाब रही है । सरकार  कहती है इसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय बाजार जिम्मेदार है लेकिन महंगाई पर यह कोई ठोस उत्तर नहीं है । माना जाता है खाद्य वस्तुओ की बड़ी कीमत के पीछे तेल की बड़ी कीमतें जिम्मेदार हैं लेकिन अब तो तेल की कीमतें घट चुकी हैं । फिर भी ना जाने क्यों यह सरकार कॉरपरेट पर दरियादिली दिखा रही है । आम आदमी को तो सब्सिडी नसीब नहीं हो रही है लेकिन कॉर्पोरेट के आगे यह  सरकार पूरी तरह नतमस्तक है ।   
     यह सवाल यू पी ए से  है आखिर क्यों वह ऐसी नीतियां बनाने में नाकामयाब रही है जिससे हम खाद्यान्न सेक्टर में आत्मनिर्भर हो सकें जबकि वह लगातार ९ वर्षो से सत्ता में बनी हुई है ? इस सत्र में महिला आरक्षण का मसला सदन में फिर से गूंज सकता है । सोनिया ने जिस तरह इसमें रूचि दिखाई है उससे एक बार फिर उम्मीद  नजर आती है लेकिन लालू, मुलायम, माया सरीखे लोग इस पर कैसे राजी होंगे यह अपने में एक बड़ा सवाल जरुर है । महिलाओ की सुरक्षा के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों पर सरकार इसी सत्र में मुहर लगा सकती है । चुनावी वर्ष में दामिनी की मौत और लुटियंस की   दिल्ली में  भारी " फ्लेश माब " का जो कलंक यह यू पी ए सरकार  झेल रही है वह कठोर कानून के जरिये इसे दूर करना चाहती है । महिलाओ की सुरक्षा को लेकर सरकार पहली बार संवेदनशीलता का परिचय दे रही है । वहीँ  लोकपाल का मसला ऐसा है जिस पर यू पी ए की बीते दो बरस से खूब किरकिरी हुई है । पहली बार भ्रष्टाचार के मसले पर उसे इस मसले पर सिविल सोसाईटी से सीधे चुनौती  मिली है । छह राज्यों के विधान सभा चुनावो से ठीक पहले वह एक लोकपाल लाकर चुनावी राह खुद के लिए आसान करना चाहेगी । इस बार के सत्र में सभी की नजरें चिदंबरम और पहली बार रेल बजट ला रहे पवन बंसल पर भी टिकी रहेंगी  । चुनावी साल में दोनों अपने तरकश से आम आदमी को लुभाने की पूरी कोशिश करेंगे । मूल्य वृद्धि और किराये बढाने के बजाए सारा  ध्यान इस दौर में अब आम आदमी की तरफ ही रहेगा क्युकि आम आदमी का हाथ कांग्रेस अपने साथ मानती रही  है । यह अलग बात है संसद से इतर सड़क में केजरीवाल आम आदमी के नाम पर पार्टी बनाकर इस दौर में न केवल कांग्रेस को चुनौती  दे रहे हैं बल्कि वाड्रा से लेकर सलमान खुर्शीद और शीला दीक्षित से लेकर भाजपा की मुश्किलें चुनावी साल में बढ़ा रहे हैं । चिदंबरम इन सबके बीच चुनावी मौसम में जनता के बीच चुनावी बौछार  कर मनमोहनी बजट पेश कर सकते हैं । अल्पसंख्यको और दलितों के लिए जहाँ चुनावी साल में यह सरकार  कोई बड़ा फैसला ले सकती है वहीँ  सस्ती ब्याज दरो को करने और आम आदमी को सस्ती  कार , मकान खरीदने के लिए दिए जाने वाले ऋण की शर्तें आसान करने की दिशा में भी कदम बढ़ा सकते हैं ताकि एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभाया जा सके । वहीँ किसानो के लिए कोई बड़ा पैकेज  इस दौर में मिलने की उम्मीद दिख रही है ताकि उन्हें भी खुश किया जा सके और मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर उन्हें भी नचाया जा सके । यह अलग बात है खेती बाड़ी आज घाटे का सौदा बन चुकी है । बीते ९ बरस में तीन लाख से ज्यादा किसानो ने आत्महत्या की है । सब्सिडी या बिजली उर्वरक में छूट देकर उनका भला नहीं होने जा रहा । वहीँ बेरोजगारों के लिए इस सत्र में बजट के बहाने नौकरियों का बड़ा पिटारा खुल सकता है । अभिभाषण में प्रणव के संकेत इसकी कहानी  को बखूबी बया  कर रहे हैं ।

कुल मिलकर  यू पी ए २ के केन्द्रीय बजट के रंग लोक सभा चुनावो की बिसात  में पूरी तरह सरोबार होने के आसार हैं और इसी के आसरे यू पी ए २ बजट सत्र में  चुनावी तान  छेड़ेगी इससे भी हम नहीं नकार सकते । देखना होगा क्या इस बार बजट सत्र शांतिपूर्ण ढंग से निपटता है ?

Tuesday, 19 February 2013

खतरे की वार्निंग ग्लोबल वार्मिंग ........

 

बीते दिनों  उत्तराखंड  की धर्म नगरी हरिद्वार में अपना जाना हुआ । इलाहाबाद में मित्रो के लाख अनुनय विनय के बाद भी  महाकुम्भ में नहीं जा सका लेकिन हरिद्वार जाकर गंगा में डुबकी लगाई । वहां  गंगा की स्थिति को देखकर काफी दुःख हुआ । करोडो रुपये गंगा की साफ़ सफाई में फूंकने के बाद भी आज गंगा नदी में प्रदूषण की समस्या गंभीर हो गई है |


केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत के संसदीय इलाके में गंगा के नाम पर करोडो रुपये पानी की तरह बहा दिए गए हैं लेकिन फिर भी गंगा मईया की तस्वीर नहीं बदल पायी है ।   गंगा के घाटो का करीब से मुआयना किया तो पता चला लोग गंगा के प्रदूषित पानी से आचमन किये जा रहे थे । हरिद्वार से आगे चलकर  गढ़वाल और फिर कुमाऊ के कुछ जिलो का भ्रमण किया तो पता चला कि उत्तराखंड में मौसम लगातार बदल रहा है । कभी अचानक मौसम में ठंडक आ जाती है तो कभी अचानक गर्मी । हालत इस कदर बेकाबू हो चले हैं जाड़े  के मौसम में गर्मी पड़ रही है और गर्मी का आगमन सही ऋतु में नहीं हो पा रहा । राज्य में कृषि और बागवानी भी इस मौसम के बदलते मिजाज से सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है ।  प्राकृतिक जल स्रोत जहाँ सूखते  जा रहे हैं वहीँ राज्य के कई इलाको में गंभीर जल संकट है । यह स्थिति तब है जब  राज्य को देश का वाटर टैंक कहा जाता है । 

ऊपर की यह तस्वीर  अकेले उत्तराखंड की नहीं पूरे देश और शायद विश्व की बन चुकी है क्युकि पिछले कुछ वर्षो से मौसम का मिजाज लगातार बदलता ही जा रहा है । गर्मी का मौसम शुरू होने को है लेकिन कही भीषण ओला वृष्टि  हो रही है तो कही भारी बर्फबारी और मूसलाधार  बारिश । जब गर्मी होनी चाहिए तब ठण्ड लग रही है जब ठण्ड  पड़नी  चाहिए तो गर्मी लग रही है जो   यह बतलाता है मौसम किस करवट पूरे विश्व में बैठ रहा है ? सुनामी, कैटरीना, रीटा, नरगिस आदि परिवर्तन की इस बयार को  पिछले कुछ वर्षो से  ना केवल बखूबी बतला रहे है बल्कि  गौमुख , ग्रीनलैंड, आयरलैंड और अन्टार्कटिका में लगातार पिघल रहे ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्निंग की आहट को  करीब से  महसूस भी कर रहे हैं ।  इस प्रभाव को हमारा देश भी महसूस कर रहा है ।  पिछले कुछ समय से यहाँ के मौसम में अप्रत्याशित बदलाव हमें देखने को मिले हैं । असमय वर्षा का होना , सूखा पड़ना, बाढ़ आ जाना , हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आना तो अब आम बात हो गयी है । " सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामला "  कही जाने वाली हमारी माटी में कभी इन्द्रदेव महीनो तक अपना कहर बरपाते हैं तो कहीं इन्द्रदेव के दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं । 

  आज पूरे विश्व में वन लगातार सिकुड़ रहे हैं तो वहीँ किसानो का भी इस दौर में खेतीबाड़ी से सीधा मोहभंग हो गया है । अधिकांश जगह पर जंगलो को काटकर जैव ईधन जैट्रोफा के उत्पादन के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है तो वहीँ पहली बार जंगलो की कमी से वन्य जीवो के आशियाने भी सिकुड़ रहे हैं जो  वन्य जीवो की संख्या में आ रही गिरावट के  जरिये महसूस की जा सकती है वहीँ औद्योगीकरण की आंधी में कार्बन के कण वैश्विक स्तर पर तबाही का कारण बन रहे हैं तो इससे प्रकृति में एक बड़ा  प्राकृतिक  असंतुलन पैदा हो गया है और इन सबके मद्देनजर हमको यह तो मानना ही पड़ेगा जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से हो रहा है और यह सब ग्लोबल वार्मिंग की आहट है । औद्योगिक क्रांति के बाद जिस तरह से जीवाश्म ईधनो  का दोहन हुआ है उससे वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी है । वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की यही मात्र ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है । कार्बन डाई आक्साइड के साथ ही मीथेन , क्लोरो फ्लूरो कार्बन भी जिम्मेदार  है जिसमे 55 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड है । 

 जलवायु परिवर्तन पर आई पी सी सी ने अपनी रिपोर्ट में भविष्यवाणी की है 2015  तक विश्व की सतह का औसत तापमान 1.1से 6.4  डिग्री सेन्टीग्रेड तक बढ़ जाएगा जबकि समुद्रतल 18 सेंटीमीटर से 59 सेन्टीमीटर तक ऊपर उठेगा । रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.20  अरब लोगो को पीने का पानी नहीं मिलेगा  और लगभग 60   करोड़  लोग भूख से मारे जायेंगे । अगर यह सच साबित हुआ तो यह  दुनिया के सामने किसी भीषण संकट से कम नहीं होगा । 


कार्बन डाई आक्साइड के सबसे बड़े उत्सर्जक अमेरिका ने पहले कई बार क्योटो प्रोटोकोल पर सकारात्मक पहल की बात बड़े बड़े मंचो से दोहराई जरुर है लेकिन आज भी असलियत यह है जब भी इस पर हस्ताक्षर करने की बारी आती है तो वह इससे साफ़ मुकर जाता है । अमरीका  के साथ विकसित देशो  की बड़ी  जमात में आज भी कनाडा, जापान जैसे देश खड़े हैं जो किसी भी तरह अपना उत्सर्जन कम करने के पक्ष में नहीं दिखाई देते । विकसित देश अगर यह सब करने को राजी हो जाएँ तो उन्हें अपने जी डी पी के बड़े हिस्से का त्याग करना पड़ेगा जो तकरीबन  5.5   प्रतिशत बैठता है और यह  सब  दूर की गोटी लगती है वह यह सब करने का माद्दा रखते हैं ।  
इधर अधिकांश वैज्ञानिको का मानना है कि कारण डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित देशो को किसी भी तरह  फौजी राहत दिलाने के लिए कुछ उपाय  तो अब करने ही होंगे नहीं तो दुनिया के सामने एक बड़ा भीषण संकट पैदा हो सकता है और यकीन जान लीजिये अगर विकसित देश अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहते हैं तो तापमान में भारी वृद्धि दर्ज होनी शुरू हो जायेगी ।  वैसे इस बढ़ते तापमान का शुरुवाती असर हमें अभी से ही दिखाई  देने लगा है ।  हिमालय के ग्लेशियर अगर इसी गति से पिघलते रहे  तो 2030 तक अधिकांश ग्लेशियर जमीदोंज हो जायेंगे । नदियों का जल स्तर गिरने लगेगा तो वहीँ भीषण जल संकट सामने आएगा । वैसे ग्रीनलैंड में बर्फ की परत पतली हो रही है वहीँ उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक इलाके की कहानी भी  किसी से शायद ही अछूती है । बर्फ पिघलने से समुद्रो का जल स्तर बढ़ने लगा है जिस कारण  आने वाले समय में कई इलाको के डूबने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता  । 

कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा न केवल उपरी समुद्र  में बल्कि निचले हिस्से में भी बढती जा रही है बल्कि पशु पक्षियों में , जीव जन्तुओ में भी इसका साफ़ असर परिवर्तनों के रूप में  देखा जा सकता है जिनके नवजात समय से पूर्व ही इस दौर में काल के गाल में समाते जा रहे हैं ।  कई प्रजातियाँ इस समय संकटग्रस्त हो चली हैं जिनमे बाघ, घडियाल , गिद्ध , चीतल , भालू, कस्तूरी मृग, डाफिया, घुरड़, कस्तूरी मृग सरीखी प्रजातियाँ शामिल हैं । लगातार बढ़ रहे तापमान से हिन्द महासागर में प्रवालो को भारी नुकसान  झेलना पड़ रहा है । सूर्य से आने वाली पराबैगनी विकिरण को रोकने वाली ओजोन परत में छेद दिनों दिन गहराता ही जा रहा है । हम सब इन बातो  से इस दौर में बेखबर हो चले हैं क्युकि मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर आर्थिक सुधारों पर चल रहे इस देश में लोगो को चमचमाते मालो की चमचमाहट ही दिख रही है । ऐसे में प्रकृति से जुड़े मुद्दों की लगातार अनदेखी हो रही है । यह सवाल मन को कहीं ना कहीं कचोटता जरुर है ।

   ताजा आंकड़ो को अगर आधार बनाये तो 2030  तक पृथ्वी का तापमान 6  डिग्री बढ़ जायेगा । साथ ही 2020 तक भारत में पानी का बड़ा संकट पैदा होने जा रहा है । वहीँ पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग  का असर दिख रहा है जिसके चलते अफ्रीका में खेती योग्य भूमि आधी हो जायेगी । अगर ऐसा हुआ तो खाने को लेकर एक सबसे बड़ा संकट पूरी दुनिया के सामने आ सकता है क्युकि लगातार मौसम का बदलता मिजाज उनके यहाँ भी अपने रंग दिखायेगा ।  प्राकृतिक असंतुलन को बढाने में प्रदूषण की भूमिका भी किसी से अछूती है । कार्बन डाई आक्साइड , कार्बन  मोनो आक्साइड, सल्फर  डाई आक्साइड , क्लोरो फ्लूरो कार्बन के चलते आम व्यक्ति सांस लेने में कई जहरीले रसायनों को ग्रहण कर रहा है । नेचर पत्रिका ने अपने हालिया शोध में पाया है विश्वभर में तकरीबन एक करोड़ से ज्यादा लोग जहरीले रसायनों को अपनी सांस में ग्रहण कर रहे हैं । 

वायुमंडल में इन गैसों के दूषित प्रभाव के अलावा पालीथीन की वस्तुओ के प्रयोग से कृषि योग्य भूमि की उर्वरता कम हो रही है । यह ऐसा पदार्थ है जो जलाने पर ना तो गलता है और ना ही सड़ता है । साथ ही फ्रिज , कूलर और एसी  वाली कार्यसंस्कृति  के  अत्यधिक प्रयोग , वृक्षों की कटाई के कारण पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है । जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण तो पहले से ही अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । अन्तरिक्ष कचरे के अलावा देश के अस्पतालों से निकलने वाला मेडिकल कचरा भी पर्यावरण को नुकसान पंहुचा रहा है जो कई बीमारयो को भी खुला आमंत्रण दे रहा है ।



  ग्लोबल वार्मिंग  के  कारण मौसम में तेजी से तब्दीली हो रही है । वायुमंडल जहाँ गरमा रहा है वहीँ धरती का जल स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है । इसका ताजा उदहारण भारत का सुन्दर वन है जहाँ जमीन नीचे धंसती ही जा रही है । समुद्र का जल स्तर जहाँ बढ़ रहा है वहीँ कई बीमारियों के खतरे भी बढ़ रहे हैं । एक शोध के अनुसार समुद्र का जल स्तर 1.2से 2.0 मिलीमीटर  के स्तर तक जा पहुंचा है । यदि यही गति जारी रही तो उत्तरी ध्रुव की बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी । कोलोरेडो विश्वविद्यालय की मानें तो अन्टार्कटिका में ताप  दशमलव 5 डिग्री की दर से बढ़ रहा है । इस चिंता को समय समय पर यू एन ओ महासचिव बान की मून भी जाहिर कर चुके हैं ।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ईमानदारी से  सभी देशो को मिल जुलकर प्रयास करने की जरुरत है । दुनिया के देशो को अमेरिका के साथ विकसित देशो पर दबाव बनाना चाहिए । अमेरिका की दादागिरी पर रोक लगनी जरुरी है । साथ ही उसका भारत सरीखे विकास शील देश पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि विकास शील देश इस समय बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं । ग्लोबल वार्मिंग का दोष एक दूसरे  पर मडने के बजाए सभी को इस समय अपने अपने देशो में उत्सर्जन कम करने के लिए एक लकीर खींचने की जरुरत है क्युकि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अकेले विकासशील देशो की नहीं विकसित देशो की भी है जिनका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान रहा है । यकीन जान लीजिये अगर अभी भी नहीं चेते तो यह ग्लोबल वार्मिंग  पूरी दुनिया के लिए  आखरी वार्निंग साबित हो सकती है ।

Tuesday, 12 February 2013

वेलेन्टाइन डे : प्यार का पंचनामा

21 साल की  कविता  हाथो में गुलाब का फूल लिए कनाट  पेलेस  में  पालिका बाजार के सेंट्रल पार्क में अपने प्रेमी के आने के इंतजार में  बैठी है ।  उसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस इंतजारी के मायने इस दौर में क्या हैं ?  यह सब  वेलेन्टाइन डे की तैयारी के लिए किया जा रहा है ।  पिछले कुछ समय से  ग्लोबलाइज्ड  समाज में प्यार भी ग्लोबल ट्रेंड का हो गया है । आज जहाँ इजहार और इकरार करने के तौर तरीके बदल गए हैं वहीँ  इंटरनेट के इस दौर में प्यार भी बाजारू  हो चला है । कनाट  पेलेस के ऐसे दृश्य आज देश के हर गाँव  और कमोवेश हर कस्बे में देखने को मिल रहे हैं क्युकि पहली बार शहरी चकाचौंध  से इतर  प्यार का यह उत्सव एक बड़ा बाजार  को अपनी गिरफ्त में ले चूका है ।   हर जगह विदेशी संस्कृति पूत की भांति पाव पसारती जा रही है ।  हमारे युवाओ को लगा वैलेंटाइन का चस्का भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है । विदेशी संस्कृति की गिरफ्त में आज हम पूरी तरह से नजर आते है तभी तो शहरों से लेकर कस्बो तक वैलेंटाइन का जलवा देखते ही बनता है । आज आलम यह है यह त्यौहार भारतीयों में तेजी से अपनी पकड़ बना रहा है।

वैलेंटाइन के चकाचौंध पर अगर दृष्टि  डाले तो इस सम्बन्ध में कई किस्से प्रचलित है ।  रोमन कैथोलिक चर्च की माने तो यह "वैलेंटाइन "अथवा "वलेंतिनस " नाम के तीन लोगो को मान्यता देता है जिसमे से दो के सम्बन्ध वैलेंटाइन डे से जोड़े जाते है लेकिन बताया जाता है इन दो में से भी संत " वैलेंटाइन " खास चर्चा में रहे  । कहा जाता है संत वैलेंटाइन प्राचीन रोम में एक धर्म गुरू थे ।  उन दिनों वहाँपर "कलाउ डीयस" दो का शासन था ।  उसका मानना था अविवाहित युवक बेहतर सैनिक  हो सकते है क्युकि युद्ध के मैदान में उन्हें अपनी पत्नी या बच्चों की चिंता नही सताती  । अपनी इस मान्यता के कारण उसने तत्कालीन रोम में युवको के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया...

किन्दवंतियो की माने तो संत वैलेंटाइन के क्लाऊ डियस के इस फेसले का विरोध करने का फैसला  किया ... बताया जाता  है  वैलेंटाइन ने इस दौरान कई युवक युवतियों का प्रेम विवाह करा दिया ।  यह बात जब राजा को पता चली तो उसने संत वैलेंटाइन को १४ फरवरी को फासी की सजा दे दी । कहा जाता है  संत के इस त्याग के कारण हर साल १४ फरवरी को उनकी याद में युवा "वैलेंटाइन डे " मनाते है ।

कैथोलिक चर्च की एक अन्य मान्यता के अनुसार एक दूसरे संत वैलेंटाइन की मौत प्राचीन रोम में ईसाईयों पर हो रहे अत्याचारों से उन्हें बचाने के दरमियान हो गई  । यहाँ इस पर नई मान्यता यह है  ईसाईयों के प्रेम का प्रतीक माने जाने वाले इस संत की याद में ही वैलेंटाइन डे मनाया जाता है । एक अन्य किंदवंती के अनुसार वैलेंटाइन नाम के एक शख्स ने अपनी मौत से पहले अपनी प्रेमिका को पहला वैलेंटाइन संदेश भेजा जो एक प्रेम पत्र था  । उसकी प्रेमिका उसी जेल के जेलर की पुत्री  थी जहाँ उसको बंद किया गया था ।  उस वेलेंन टाइन  नाम के शख्स  ने प्रेम पत्र के अंत में लिखा  " फ्रॉम यूअर  वेलेंनटाइन "  । आज भी यह वैलेंटाइन पर लिखे जाने वाले हर पत्र के नीचे लिखा रहता है ...

यही नही वैलेंटाइन के बारे में कुछ अन्य किन्दवंतिया भी है  । इसके अनुसार तर्क यह दिए जाते है प्राचीन रोम के  प्रसिद्ध  पर्व "ल्युपर केलिया " के ईसाईकरण की याद में मनाया जाता है  । यह पर्व रोमन साम्राज्य के संस्थापक रोम्योलुयास और रीमस की याद में मनाया जाता है  ।  इस आयोजन पर रोमन धर्मगुरु उस गुफा में एकत्रित होते थे जहाँ एक मादा भेडिये ने रोम्योलुयास और रीमस को पाला था इस भेडिये को ल्युपा कहते थे और इसी के नाम पर उस त्यौहार का नाम ल्युपर केलिया पड़ गया ।  इस अवसर पर वहां बड़ा आयोजन होता था ।  लोग अपने घरो की सफाई करते थे साथ ही अच्छी फसल की कामना के लिए बकरी की बलि देते थे ।  कहा जाता है प्राचीन समय में यह परम्परा खासी लोक प्रिय हो गई...

एक अन्य किंदवंती यह कहती है १४ फरवरी को फ्रांस में चिडियों के प्रजनन की शुरूवात मानी जाती थी जिस कारण खुशी में यह त्यौहार वहा प्रेम पर्व के रूप में मनाया जाने लगा  । प्रेम के तार रोम से   भी  सीधे जुड़े नजर आते है  । वहा पर क्यूपिड को प्रेम की देवी के रूप में पूजा जाने लगा जबकि यूनान में इसको इरोश के नाम से जाना जाता था । प्राचीन वैलेंटाइन संदेश के बारे में भी लोगो में   एकरूपता नजर नही आती । कुछ ने माना है  यह इंग्लैंड के राजा ड्यूक ने  लिखा जो आज भी वहां के म्यूजियम में रखा हुआ है ।  ब्रिटेन की यह आग आज भारत में भी लग चुकी है । अपने दर्शन शास्त्र में भी कहा गया है " जहाँ जहाँ धुआ होगा वहा आग तो होगी ही " सो अपना भारत भी इससे अछूता कैसे रह सकता है...?

युवाओ में वैलेंटाइन की खुमारी सर चढ़कर  बोल रही है ।  इस दिन के लिए सभी पलके बिछाये बैठे रहते हैं ।   भईया प्रेम का इजहार जो करना है ? वैलेन्टाइन प्रेमी  इसको प्यार का इजहार करने का दिन बताते है ।  यूँ तो प्यार करना कोई गुनाह नही है लेकिन जब प्यार किया ही है तो इजहार करने मे देर नही होनी चाहिए लेकिन अभी का समय ऐसा है जहाँ युवक युवतिया प्यार की सही परिभाषा नही जान पाये है । वह इस बात को नही समझ पा रहे है प्यार को आप एक दिन के लिए नही बाध सकते ।वह तो  प्यार को हसी मजाक का खेल समझ रहे है ।  हमारे परम मित्र पंकज चौहान कहते है आज का प्यार मैगी के नूडल जैसा बन गया है जो दो मिनट चलता है ।  सच्चे प्रेमी के लिए तो पूरा साल प्रेम का प्रतीक बना रहता है  लेकिन आज के समय में प्यार की परिभाषा बदल चुकी है । इसका प्रभाव यह है 1 4 फरवरी को प्रेम दिवस का रूप दे दिया गया है जिसके चलते संसार भर के "कपल "प्यार का इजहार करने को उत्सुक रहते है ।

आज १४ फरवरी का कितना महत्त्व बढ गया है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है इस अवसर पर बाजारों में खासी रोनक छा जाती है । गिफ्ट सेंटर में उमड़ने वाला सैलाब , चहल पहल इस बात को बताने के लिए काफी है यह किस प्रकार आम आदमी के दिलो में एक बड़े पर्व की भांति अपनी पहचान बनने में कामयाब हुआ है । इस अवसर पर प्रेमी होटलों , रेस्ताराओ में देखे जा सकते है । प्रेम मनाने का यह चलन भारतीय संस्कृति को चोट पहुचाने का काम कर रहा है ।

  यूं तो हमारी संस्कृति में प्रेम को परमात्मा का दूसरा रूप बताया गया है अतः प्रेम करना गुनाह और प्रेम का विरोधी होना सही नही होगा लेकिन वैलेंटाइन के नाम पर जिस तरह का भोड़ापन , पश्चिमी परस्त विस्तार हो रहा है वह विरोध करने लायक ही है  । वैसे भी यह प्रेम की स्टाइल भारतीय जीवन मूल्यों से किसी तरह मेल नही खाती ।आज का वैलेंटाइन डे भारतीय काव्य शास्र में बताये गए मदनोत्सव का पश्चिमी संस्करण प्रतीत होता है लेकिन बड़ा सवाल जेहन में हमारे यह आ रहा है क्या आप प्रेम जैसे चीज को एक दिन के लिए बाध सकते है? शायद नही । पर हमारे अपने देश में वैलेंटाइन के नाम का दुरूपयोग किया जा रहा है । वैलेंटाइन के फेर में आने वाले प्रेमी भटकाव की राह में अग्रसर हो रहे है । एक समय ऐसा था जब राधा कृष्ण , मीरा वाला प्रेम हुआ करता था जो आज के वैलेंटाइन प्रेमियों का जैसा नही होता था । आज लोग प्यार के चक्कर में बरबाद हो रहे है। हीर रांझा, लैला मजनू रोमियो जूलियट  के प्रसंगों का हवाला देने वाले हमारे आज के प्रेमी यह भूल जाते है मीरा वाला प्रेम सच्ची आत्मा से सम्बन्ध रखता था ...

आज तो  प्यार बाहरी आकर्षण की चीज बनती जा रही है । प्यार को गिफ्ट और पॉकेट  में तोला जाने लगा है । वैलेंटाइन के प्रेम में फसने वाले कुछ युवा सफल तो कुछ असफल साबित होते है । जो असफल हो गए तो समझ लो बरबाद हो गए क्युकि यह प्रेम रुपी "बग" बड़ा खतरनाक है । एक बार अगर इसकी जकड में आप आ गए तो यह फिर भविष्य में भी पीछा नही छोडेगा । असफल लोगो के तबाह होने के कारण यह वैलेंटाइन डे घातक बन जाता है...

वैलेंटाइन के नाम पर आज हमारे समाज में  जिस तरह की उद्दंडता हो रही है वह चिंतनीय ही है ।  इसके नाम पर कई बार अश्लील हरकते भी  देखी जा सकती है । संपन्न तबके साथ आज का मध्यम वर्ग और अब निम्न तबका भी  इसके मकड़ जाल में फसकर अपना पैसा और समय दोनों ख़राब करते जा रहे है ।   आज वैलेंटाइन की स्टाइल बदल गई है ।  गुलाब गिफ्ट दिए ,पार्टी में थिरके बिना काम नही चलता ।  यह मनाने के लिए आपकी जेब गर्म होनी चाहिए । यह भी कोई बात हुई क्या जहाँ प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए जेब की बोली लगानी पड़ती हो ?  कभी कभार तो अपने साथी के साथ घर से दूर जाकर इसको मनाने की नौबत आ जाती है ।  डी जे की थाप पर थिरकते रात बीत जाती है ।  प्यार की खुमारी में शाम ढलने का पता भी नही चलता जिसके चलते समाज में क्राइम भी क्राइम भी बढ़  रहे हैं । 

आज के समय में वैलेंटाइन प्रेमियों की तादात बढ रही है ।  साल दर साल ... इस बार भी प्रेम का सेंसेक्स पहले से ही कुलाचे मार रहा है. । वैलेंटाइन ने एक बड़े उत्सव का रूप ले लिया है ।  मॉल , गिफ्ट, आर्चीस , डिस्को थेक, मैक डोनल्स  पार्टी   का  आज इससे चोली दामन का साथ बन गया है ।  अगर आप में यह सब कर सकने की सामर्थ्य नही है तो आपका प्रेमी नाराज । बस फिर प्रेम का  द  एंड समझे  । कॉलेज के दिनों से यह चलन चलता आ रहा है ।  अपने आस पास कालेजो में भी ऐसे दृश्य दिखाई देते है ।  पदाई में कम मन लगता है । कन्यायो पर टकटकी पहले लगती है । पुस्तकालयो में किताबो पर कम नजर लडकियों पर ज्यादा जाती है।  नोट्स के बहाने कन्याओ से मेल जोल आज की  जनरेशन  बढाती है । जिधर देखो वहां लडकियों को लाइन मारी जाती है ।  लडकियां  भी गिव एंड टेक के फार्मूले  को अपनाती हैं ।  

 प्यार का स्टाइल समय बदलने के साथ बदल रहा है ।  वैलेंटाइन प्रेमी  भी हर साल बदलते  ही जा रहे है ।आज   तो वैलेंटाइन मनाना सबकी नियति बन चुकी है  । आज प्यार की परिभाषा बदल गई है ।  वैलेंटाइन का चस्का हमारे युवाओ में तो सर चदकर बोल रहा है लेकिन उनका प्रेम आज आत्मिक नही होकर छणिक बन गया है ।  उनका प्यार पैसो में तोला जाने लगा है । आज की युवा पीड़ी को न तो प्रेम की गहराई का अहसास है न ही वह सच्चे प्रेम को परिभाषित कर सकती   है ।  उनके लिए प्यार मौज मस्ती और सैर सपाटे  का खेल बन गया है जहाँ बाजार में प्यार नीलाम हो गया है और पूरे विश्व में इस दिन मुनाफे का बड़ा कारोबार किया जा रहा है ।