बीते
दिनों उत्तराखंड की धर्म नगरी हरिद्वार में अपना जाना हुआ । इलाहाबाद
में मित्रो के लाख अनुनय विनय के बाद भी महाकुम्भ में नहीं जा सका लेकिन
हरिद्वार जाकर
गंगा में डुबकी लगाई । वहां गंगा की स्थिति को देखकर काफी दुःख हुआ ।
करोडो रुपये गंगा की साफ़ सफाई में फूंकने के बाद भी आज गंगा नदी में
प्रदूषण की समस्या गंभीर हो गई है |
केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत
के संसदीय इलाके में गंगा के नाम पर करोडो रुपये पानी की तरह बहा दिए गए
हैं लेकिन फिर भी गंगा मईया की तस्वीर नहीं बदल पायी है । गंगा के घाटो का करीब से मुआयना किया
तो पता चला लोग गंगा के प्रदूषित पानी से आचमन किये जा रहे थे । हरिद्वार
से आगे चलकर गढ़वाल और फिर कुमाऊ के कुछ जिलो का भ्रमण किया तो पता चला कि
उत्तराखंड में मौसम लगातार बदल रहा है । कभी अचानक मौसम में ठंडक आ जाती है
तो कभी अचानक गर्मी । हालत इस कदर बेकाबू हो चले हैं जाड़े के मौसम में
गर्मी पड़ रही है और गर्मी का आगमन सही ऋतु में नहीं हो पा रहा । राज्य में
कृषि और बागवानी भी इस मौसम के बदलते मिजाज से सीधे तौर पर प्रभावित हो रही
है । प्राकृतिक जल स्रोत जहाँ सूखते जा रहे हैं वहीँ राज्य के कई इलाको
में गंभीर जल संकट है । यह स्थिति तब है जब राज्य को देश का वाटर टैंक
कहा जाता है ।
ऊपर की यह तस्वीर अकेले उत्तराखंड की नहीं पूरे देश
और शायद विश्व की बन चुकी है क्युकि पिछले कुछ वर्षो से मौसम का मिजाज
लगातार बदलता ही जा रहा है । गर्मी का मौसम शुरू होने को है लेकिन कही भीषण
ओला वृष्टि हो रही है तो कही भारी बर्फबारी और मूसलाधार बारिश । जब गर्मी
होनी चाहिए तब ठण्ड लग रही है जब ठण्ड पड़नी चाहिए तो गर्मी लग रही है जो
यह बतलाता है मौसम किस करवट पूरे विश्व में बैठ रहा है ? सुनामी, कैटरीना,
रीटा, नरगिस आदि परिवर्तन की इस बयार को पिछले कुछ वर्षो से ना केवल बखूबी
बतला रहे है बल्कि गौमुख , ग्रीनलैंड, आयरलैंड और अन्टार्कटिका में लगातार
पिघल रहे ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्निंग की आहट को करीब से महसूस भी कर
रहे हैं । इस प्रभाव को हमारा देश भी महसूस कर रहा है । पिछले कुछ समय से
यहाँ के मौसम में अप्रत्याशित बदलाव हमें देखने को मिले हैं । असमय वर्षा
का होना , सूखा पड़ना, बाढ़ आ जाना , हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आना तो
अब आम बात हो गयी है । " सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामला " कही जाने वाली
हमारी माटी में कभी इन्द्रदेव महीनो तक अपना कहर बरपाते हैं तो कहीं
इन्द्रदेव के दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं ।
आज पूरे विश्व में वन लगातार सिकुड़ रहे हैं तो वहीँ
किसानो का भी इस दौर में खेतीबाड़ी से सीधा मोहभंग हो गया है । अधिकांश जगह
पर जंगलो को काटकर जैव ईधन जैट्रोफा के उत्पादन के लिए प्रयोग में लाया जा
रहा है तो वहीँ पहली बार जंगलो की कमी से वन्य जीवो के आशियाने भी सिकुड़
रहे हैं जो वन्य जीवो की संख्या में आ रही गिरावट के जरिये महसूस की जा
सकती है वहीँ औद्योगीकरण की आंधी में कार्बन के कण वैश्विक स्तर पर तबाही
का कारण बन रहे हैं तो इससे प्रकृति में एक बड़ा प्राकृतिक असंतुलन पैदा
हो गया है और इन सबके मद्देनजर हमको यह तो मानना ही पड़ेगा जलवायु परिवर्तन
निश्चित रूप से हो रहा है और यह सब ग्लोबल वार्मिंग की आहट है । औद्योगिक
क्रांति के बाद जिस तरह से जीवाश्म ईधनो का दोहन हुआ है उससे वायुमंडल में
कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी है ।
वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की यही मात्र ही ग्लोबल वार्मिंग के
लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है । कार्बन डाई आक्साइड के साथ ही मीथेन ,
क्लोरो फ्लूरो कार्बन भी जिम्मेदार है जिसमे 55 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड है
।
जलवायु परिवर्तन पर आई पी सी सी ने अपनी रिपोर्ट में
भविष्यवाणी की है 2015 तक विश्व की सतह का औसत तापमान 1.1से 6.4 डिग्री
सेन्टीग्रेड तक बढ़ जाएगा जबकि समुद्रतल 18 सेंटीमीटर से 59 सेन्टीमीटर तक
ऊपर उठेगा । रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.20 अरब लोगो को पीने का पानी
नहीं मिलेगा और लगभग 60 करोड़ लोग भूख से मारे जायेंगे । अगर यह सच
साबित हुआ तो यह दुनिया के सामने किसी भीषण संकट से कम नहीं होगा ।
कार्बन डाई आक्साइड के सबसे बड़े
उत्सर्जक अमेरिका ने पहले कई बार क्योटो प्रोटोकोल पर सकारात्मक पहल की बात
बड़े बड़े मंचो से दोहराई जरुर है लेकिन आज भी असलियत यह है
जब भी इस पर हस्ताक्षर करने की बारी आती है तो वह इससे साफ़ मुकर जाता है ।
अमरीका के साथ विकसित देशो की बड़ी जमात में आज भी कनाडा, जापान जैसे देश खड़े हैं जो किसी
भी तरह अपना उत्सर्जन कम करने के पक्ष में नहीं दिखाई देते । विकसित देश
अगर यह सब करने को राजी हो जाएँ तो उन्हें अपने जी डी पी के बड़े हिस्से का
त्याग करना पड़ेगा जो तकरीबन 5.5 प्रतिशत बैठता है और यह सब दूर की गोटी
लगती है वह यह सब करने का माद्दा रखते हैं ।
इधर अधिकांश वैज्ञानिको का
मानना है कि कारण डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित देशो
को किसी भी तरह फौजी राहत दिलाने के लिए कुछ उपाय तो अब करने ही होंगे नहीं
तो दुनिया के सामने एक बड़ा भीषण संकट पैदा हो सकता है और यकीन जान लीजिये
अगर विकसित देश अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहते हैं तो तापमान में भारी वृद्धि
दर्ज होनी शुरू हो जायेगी । वैसे इस बढ़ते तापमान का शुरुवाती असर हमें
अभी से ही दिखाई देने लगा है । हिमालय के ग्लेशियर अगर इसी गति से पिघलते
रहे तो 2030 तक अधिकांश ग्लेशियर जमीदोंज हो जायेंगे । नदियों का जल स्तर
गिरने लगेगा तो वहीँ भीषण जल संकट सामने आएगा । वैसे ग्रीनलैंड में बर्फ
की परत पतली हो रही है वहीँ उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक इलाके की कहानी भी
किसी से शायद ही अछूती है । बर्फ पिघलने से समुद्रो का जल स्तर बढ़ने लगा
है जिस कारण आने वाले समय में कई इलाको के डूबने की सम्भावना से इनकार नहीं
किया जा सकता ।
कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा न केवल उपरी समुद्र में
बल्कि निचले हिस्से में भी बढती जा रही है बल्कि पशु पक्षियों में , जीव
जन्तुओ में भी इसका साफ़ असर परिवर्तनों के रूप में देखा जा सकता है जिनके
नवजात समय से पूर्व ही इस दौर में काल के गाल में समाते जा रहे हैं । कई
प्रजातियाँ इस समय संकटग्रस्त हो चली हैं जिनमे बाघ, घडियाल , गिद्ध , चीतल
, भालू, कस्तूरी मृग, डाफिया, घुरड़, कस्तूरी मृग सरीखी प्रजातियाँ शामिल
हैं । लगातार बढ़ रहे तापमान से हिन्द महासागर में प्रवालो को भारी नुकसान
झेलना पड़ रहा है । सूर्य से आने वाली पराबैगनी विकिरण को रोकने वाली ओजोन
परत में छेद दिनों दिन गहराता ही जा रहा है । हम सब इन बातो से इस दौर में
बेखबर हो चले हैं क्युकि मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर आर्थिक सुधारों पर
चल रहे इस देश में लोगो को चमचमाते मालो की चमचमाहट ही दिख रही है । ऐसे
में प्रकृति से जुड़े मुद्दों की लगातार अनदेखी हो रही है । यह सवाल मन को कहीं ना कहीं कचोटता जरुर है ।
ताजा आंकड़ो को अगर आधार बनाये तो 2030 तक पृथ्वी का
तापमान 6 डिग्री बढ़ जायेगा । साथ ही 2020 तक भारत में पानी का बड़ा संकट
पैदा होने जा रहा है । वहीँ पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिख रहा
है जिसके चलते अफ्रीका में खेती योग्य भूमि आधी हो जायेगी । अगर ऐसा हुआ
तो खाने को लेकर एक सबसे बड़ा संकट पूरी दुनिया के सामने आ सकता है क्युकि
लगातार मौसम का बदलता मिजाज उनके यहाँ भी अपने रंग दिखायेगा । प्राकृतिक
असंतुलन को बढाने में प्रदूषण की भूमिका भी किसी से अछूती है । कार्बन डाई
आक्साइड , कार्बन मोनो आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड , क्लोरो फ्लूरो
कार्बन के चलते आम व्यक्ति सांस लेने में कई जहरीले रसायनों को ग्रहण कर
रहा है । नेचर पत्रिका ने अपने हालिया शोध में पाया है विश्वभर में तकरीबन
एक करोड़ से ज्यादा लोग जहरीले रसायनों को अपनी सांस में ग्रहण कर रहे हैं
।
वायुमंडल में इन गैसों के दूषित प्रभाव के अलावा पालीथीन की वस्तुओ के
प्रयोग से कृषि योग्य भूमि की उर्वरता कम हो रही है । यह ऐसा पदार्थ है जो
जलाने पर ना तो गलता है और ना ही सड़ता है । साथ ही फ्रिज , कूलर और एसी
वाली कार्यसंस्कृति के अत्यधिक प्रयोग , वृक्षों की कटाई के कारण
पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है । जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण , ध्वनि
प्रदूषण तो पहले से ही अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । अन्तरिक्ष कचरे के अलावा
देश के अस्पतालों से निकलने वाला मेडिकल कचरा भी पर्यावरण को नुकसान
पंहुचा रहा है जो कई बीमारयो को भी खुला आमंत्रण दे रहा है ।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में तेजी से तब्दीली हो रही है ।
वायुमंडल जहाँ गरमा रहा है वहीँ धरती का जल स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा
है । इसका ताजा उदहारण भारत का सुन्दर वन है जहाँ जमीन नीचे धंसती ही जा
रही है । समुद्र का जल स्तर जहाँ बढ़ रहा है वहीँ कई बीमारियों के खतरे भी
बढ़ रहे हैं । एक शोध के अनुसार समुद्र का जल स्तर 1.2से 2.0 मिलीमीटर के
स्तर तक जा पहुंचा है । यदि यही गति जारी रही तो उत्तरी ध्रुव की बर्फ
पूरी तरह पिघल जाएगी । कोलोरेडो विश्वविद्यालय की मानें तो अन्टार्कटिका
में ताप दशमलव 5 डिग्री की दर से बढ़ रहा है । इस चिंता को समय समय पर यू
एन ओ महासचिव बान की मून भी जाहिर कर चुके हैं ।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ईमानदारी से सभी देशो को
मिल जुलकर प्रयास करने की जरुरत है । दुनिया के देशो को अमेरिका के साथ
विकसित देशो पर दबाव बनाना चाहिए । अमेरिका की दादागिरी पर रोक लगनी जरुरी
है । साथ ही उसका भारत सरीखे विकास शील देश पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि
विकास शील देश इस समय बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे
हैं । ग्लोबल वार्मिंग का दोष एक दूसरे पर मडने के बजाए सभी को इस समय अपने
अपने देशो में उत्सर्जन कम करने के लिए एक लकीर खींचने की जरुरत है क्युकि
ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अकेले विकासशील देशो की नहीं विकसित देशो की भी
है जिनका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान रहा है ।
यकीन जान लीजिये अगर अभी भी नहीं चेते तो यह ग्लोबल वार्मिंग पूरी
दुनिया के लिए आखरी वार्निंग साबित हो सकती है ।