कोई हम दम ना रहा कोई सहारा ना रहा
हम किसी के ना रहे कोई हमारा ना रहा
शाम तन्हाई की है आएगी मंजिल कैसे
जो मुझे राह दिखाए वही तारा ना रहा
क्या बताऊ मैं कहाँ यू ही चला जाता हू
जो मुझे फिर से बुला ले वो इशारा ना रहा
झुमरू की याद जेहन में आ रही है | मजरूह सुल्तानपुरी और किशोर की गायकी इस गाने में चार चाँद लगा देती है | पुराने गीतों के बारे में प्रायः कहा जाता है "ओल्ड इस गोल्ड " | इसका सही से पता अब चल रहा है | 70 के दशक की राजनीती के सबसे बड़े महानायक पर यह जुमला फिट बैठ रहा है | कभी ट्रेड यूनियनों के आंदोलनों के अगवा रहे जार्ज की कहानी जीवन के अंतिम समय में ऐसी हो जायेगी , ऐसी कल्पना शायद किसी ने नहीं की होगी | कभी समाजवाद का झंडा बुलंद करने वाला यह शेर आज हमेशा के लिए चैन की नींद सो गया है और अल्जाइमर्स से बाहर नहीं आ पाया | उसके निधन की खबर अस्वस्थ सियासत तले तब गई |
आज की नयी नवेली पीढ़ी के पास इतनी भी फुर्सत नहीं कि वह उस दौर को जी ले जिसमें जॉर्ज जनता के सरोकारों की राजनीती करते देश की राजनीति के पोस्टर बॉय के रूप में उभरे | वह भी एक दौर था जब देश की राजनीती का असली बैरोमीटर मुजफ्फरपुर हुआ करता था | यह भी एक दौर है जब मोदिनोमिक्स कीबिसात तले समूची सियासत 360 डिग्री घूम चुकी है | जॉर्ज की सियासत को समझने के लिए हमें उस दौर में जाना होगा जब ट्रेड यूनियन आंदोलन को नयी धार देने में वह आगे न केवल रहे बल्कि जे पी के आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने और इंदिरा के खिलाफ आक्रोश को हवा देने में वह नई लकीर खींचते नजर आये | यही नहीं नीतीश कुमार , शरद यादव को मोहरा बनाकर लालू प्रसाद को राजनीती की बिसात में चेक देने से लेकर गैर कांग्रेस वाद का झंडा बुलंद करने में जॉर्ज हमेशा आगे रहे | वह मानते थे कि नेहरूपरिवार देश की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण है इसलिए समाजवादी पार्टी के कलकत्ता अधिवेशन में डॉ लोहिया ने पहली बार जब गैर-कांग्रेस का नारा दिया तो गैर-कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करने वालों में जॉर्ज फर्नांडिस आगे थे | जॉर्ज फर्नांडिस पर आरोप लगा कि वो किसी भी कीमत पर कांग्रेस पार्टी को सत्ता से उखाड़ना चाहते थे | इसके लिए उनपर रेल की पटरियों को डाइनामाइट से उड़ाने का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया गया | डायनामाइट का इस्तेमाल कर जॉर्ज और उनके साथ सरकार के प्रमुख संस्थाओं और रेल पटरियों को उखाड़कर पूरे सिस्टम को हिला देना चाहते थे |
फर्नाडीस को 10 जून, 1976 को कोलकाता में गिरफ्तार कर उन पर बहुचर्चित बड़ौदा डायनामाइट मामले में केस चलाया गया था। उन पर तत्कालीन इंदिरा सरकार का तख्तापलट करने की कोशिश में सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने का भी मुकदमा चलाया गया था। वह सरकार की गैरसंवैधानिक नीतियों का सशस्त्र विरोध करने के पक्षधर थे | इसके लिये हथियार की जरूरत थी और हथियार जुटाने के लिए जॉर्ज फर्नांडिस ने पुणे से मुंबई जाने वाली ट्रैन को लूटने का प्लान बनाया | दरअसल इस ट्रैन से सरकारी गोला बारूद भेजा जाता था | आपातकाल समाप्त होने के ठीक बाद 1977 में जेल से मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ने वाले जॉर्ज भारी मतों से जीते थे। यह चुनाव तानाशाही बनाम लोकशाही के रूप में जाना जाता था। जॉर्ज के खिलाफ कांग्रेस के नेता नीतेश्वर प्रसाद सिंह चुनाव लड़े थे। जॉर्ज की हथकड़ी लगी तस्वीर की चर्चा पूरे देश में रही। पूरा मुजफ्फरपुर इस तस्वीर से पाट दिया गया था। केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज ने प्रचार कमान संभाली थी। सुषमा का चुनाव प्रचार व प्रभावशाली भाषण काफी चर्चित रहा। कहा जाता है कि सुषमा स्वराज का राजनीति में उदय मुजफ्फरपुर चुनाव के बाद ही हुआ। 1980 में जॉर्ज ने फिर मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा। उनके खिलाफ कांग्रेस के रजनी रंजन साहू उम्मीदवार थे। इस बार भी जॉर्ज फर्नांडीस चुनाव जीते। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1984 के चुनाव में जॉर्ज साहब ने मुजफ्फरपुर का चुनावी मैदान छोड़ दिया और बेंगलुरु से भाग्य आजमाया, लेकिन वह हार गए। वर्ष 1989 के चुनाव में जॉर्ज साहब फिर मुजफ्फरपुर लौटे और पूर्व केन्द्रीय मंत्री व कांग्रेसी उम्मीदवार ललितेश्वर प्रसाद शाही और 1991 में कांग्रेसी उम्मीदवार रघुनाथ पाण्डेय को पराजित किया। 1996 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज ने नालंदा कूच किया और राजद उम्मीदवार विजय कुमार यादव को धूल चटाई वहीँ 1999 में वामपंथी उम्मीदवार गया सिंह को पराजित किया । वर्ष 2004 के लोककसभा चुनाव में जॉर्ज साहब ने फिर मुजफ्फरपुर का रुख किया और लोजपा के उम्मीदवार भगवानलाल सहनी को पराजित किया परन्तु 2009 के चुनाव में जयनारायण निषाद से से पराजित हो गए। 15 वी लोकसभा का जब भी जिक्र होगा तो यह जॉर्ज के बिना अधूरा रहेगा | असल में मुज्जफरपुर से जार्ज फर्नांडीज अक्सर चुनाव लड़ा करते थे लेकिन 1 5 वी लोक सभा में उनका पत्ता कट गया.....नीतीश और शरद यादव की जोड़ी ने उनको टिकट देने से साफ़ मना कर दिया | इसके बाद यह संसदीय इलाका पूरे देश में चर्चा में आ गया था | तब नीतीश ने तो साफ़ कह दिया था अगर जार्ज यहाँ से चुनाव लड़ते है तो वह चुनाव लड़कर अपनी भद करवाएंगे | पर जार्ज कहाँ मानते? उन्होंने निर्दलीय चुनाव में कूदने की ठान ली | आखिरकार इस बार उनकी नही चल पायी और उनको पराजय का मुह देखना पड़ा | जार्ज के चलते मुजफ्फरपुर में विकास कार्य तो तेजी से हुए लेकिन निर्दलीय मैदान में उतरने से उनकी राह आसान नही हो पायी |
जार्ज को समझने ले लिए हमको 50 के दशक की तरफ रुख करना होगा | यही वह दौर था जब उन्होंने कर्नाटक की धरती को अपने जन्म से पवित्र कर दिया था..3 जून 1930 को जान और एलिस फर्नांडीज के घर उनका जन्म मंगलौर में हुआ था | 50 के दशक में एक मजदूर नेता के तौर पर उन्होंने अपना परचम महाराष्ट्र की राजनीती में लहराया | यही वह दौर था जब उनकी राजनीती परवान पर गयी | कहा तो यहाँ तक जाता है हिंदी फिल्मो के "ट्रेजिडी किंग " दिलीप कुमार को उनसे बहुत प्रेरणा मिला करती थी | अपनी फिल्मो की शूटिंग से पहले वह जार्ज की सभाओ में जाकर अपने को तैयार करते थे | जार्ज को असली पहचान उस समय मिली जब 1967 में उन्होंने मुंबई में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता एस के पाटिल को पराजित कर दिया | लोकसभा में पाटिल जैसे बड़े नेता को हराकर उन्होंने उस समय लोक सभा में दस्तक दी | इस जीत ने जार्ज को राजनीती का महानायक बना दिया | बाद में अपने समाजवाद का झंडा बुलंद करते हुए 1974 में वह रेलवे संघ के मुखिया बना दिए गए | उस समय उनकी ताकत को देखकर तत्कालीन सरकार के भी होश उड़ गए थे | जार्ज जब सामने हड़ताल के नेतृत्व के लिए आगे आते थे तो उनको सुनने के लिए मजदूर कामगारों की टोली से सड़के जाम हो जाया करती थी |
आपातकाल के दौरान उन्होंने मुजफ्फरपुर की जेल से अपना नामांकन भरा और जे पीका समर्थन किया | तब जॉर्ज के पोस्टर मुजफ्फरपुर के हर घर में लगा करते थे | लोग उनके लिए मन्नते माँगा करते थे और कहा करते थे जेल का ताला टूटेगा हमारा जॉर्ज छूटेगा | 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उनको उद्योग मंत्री बनाया गया | उस समय उनके मंत्रालय में जया जेटली के पति अशोक जेटली हुआ करते थे | उसी समय उनकी जया जेटली से पहचान हुई | बाद में यह दोस्ती में बदल गयी और वे उनके साथ रहने लगी | लैला कबीर और जॉर्ज के किस्से राजनीती में सुने जाते हैं | लैला कबीर उनकी जिन्दगी में उस समय आ गयी थी जब वह मुम्बई में संघर्ष कर रहे थे | तभी उनकी मुलाकात तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री हुमायु कबीर की पुत्री लैला कबीर से हुई जो उस समय समाज सेवा से जुडी हुई थी | लैला के पास नर्सिंग का डिप्लोमा था और वह इसी में अपना करियर बनाना चाहती थी | बताया जाता है तब जार्ज ने ही उनकी मदद की और उनके साथ यही निकटता प्रेम सम्बन्ध में बदल गयी और 21 जुलाई 1971 को वे परिणय सूत्र में बढ़ गए| इसके बाद कुछ वर्षो तक दोनों के बीच सब कुछ ठीक चला परन्तु जैसे ही जॉर्ज मोरार जी की सरकार में उद्योग मंत्री बनाये गए तो लैला कबीर जॉर्ज से दूर होती गई | जॉर्ज अपने निजी सचिव अशोक जेटली की पत्नी जया जेटली के ज्यादा निकट चले गए | इस प्रेम को देखते हुए लैला कबीर ने अपने को जॉर्ज से दूर कर लिया और 31 अक्तूबर 1984 से दोनों अलग अलग रहने लगे | इसके बाद लैला दिल्ली के पंचशील पार्क में रहने लगी | वहीँ जॉर्ज कृष्ण मेनन मार्ग में | बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर एक दौर में लालू अपराजेय मान लिए गए थे। लालू के शासन के तीसरे साल में जब जॉर्ज ने उन्हें सत्ता से नेस्तनाबूद करने की ठानी तो किसी को सहसा यकीं नहीं हुआ | वह भी एक दौर आया जब 1995 के विधानसभा चुनाव में समता पार्टी महज सात सीटों पर सिमट गई तो यही कहा गया कि जॉर्ज की सियासत का अंत हो जायेगा | लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पराजय के बाद शरद और नीतीश कुमार ठोस रणनीति के साथ मैदान में आए जिसमें लालू की जंगलराज की सियासत को घेरने का ब्रह्मास्त्र जॉर्ज ने ही छोड़ा | लालू के दुर्ग पर फतह पाने के लिए उन्होंने भाजपा से दोस्ती की और एनडीए के संयोजक भी बने जिसमें बाजपेयी के साथ कई पार्टियों का कुनबा 1998 में जुड़ा |
जार्ज को समझने ले लिए हमको 50 के दशक की तरफ रुख करना होगा | यही वह दौर था जब उन्होंने कर्नाटक की धरती को अपने जन्म से पवित्र कर दिया था..3 जून 1930 को जान और एलिस फर्नांडीज के घर उनका जन्म मंगलौर में हुआ था | 50 के दशक में एक मजदूर नेता के तौर पर उन्होंने अपना परचम महाराष्ट्र की राजनीती में लहराया | यही वह दौर था जब उनकी राजनीती परवान पर गयी | कहा तो यहाँ तक जाता है हिंदी फिल्मो के "ट्रेजिडी किंग " दिलीप कुमार को उनसे बहुत प्रेरणा मिला करती थी | अपनी फिल्मो की शूटिंग से पहले वह जार्ज की सभाओ में जाकर अपने को तैयार करते थे | जार्ज को असली पहचान उस समय मिली जब 1967 में उन्होंने मुंबई में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता एस के पाटिल को पराजित कर दिया | लोकसभा में पाटिल जैसे बड़े नेता को हराकर उन्होंने उस समय लोक सभा में दस्तक दी | इस जीत ने जार्ज को राजनीती का महानायक बना दिया | बाद में अपने समाजवाद का झंडा बुलंद करते हुए 1974 में वह रेलवे संघ के मुखिया बना दिए गए | उस समय उनकी ताकत को देखकर तत्कालीन सरकार के भी होश उड़ गए थे | जार्ज जब सामने हड़ताल के नेतृत्व के लिए आगे आते थे तो उनको सुनने के लिए मजदूर कामगारों की टोली से सड़के जाम हो जाया करती थी |
आपातकाल के दौरान उन्होंने मुजफ्फरपुर की जेल से अपना नामांकन भरा और जे पीका समर्थन किया | तब जॉर्ज के पोस्टर मुजफ्फरपुर के हर घर में लगा करते थे | लोग उनके लिए मन्नते माँगा करते थे और कहा करते थे जेल का ताला टूटेगा हमारा जॉर्ज छूटेगा | 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उनको उद्योग मंत्री बनाया गया | उस समय उनके मंत्रालय में जया जेटली के पति अशोक जेटली हुआ करते थे | उसी समय उनकी जया जेटली से पहचान हुई | बाद में यह दोस्ती में बदल गयी और वे उनके साथ रहने लगी | लैला कबीर और जॉर्ज के किस्से राजनीती में सुने जाते हैं | लैला कबीर उनकी जिन्दगी में उस समय आ गयी थी जब वह मुम्बई में संघर्ष कर रहे थे | तभी उनकी मुलाकात तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री हुमायु कबीर की पुत्री लैला कबीर से हुई जो उस समय समाज सेवा से जुडी हुई थी | लैला के पास नर्सिंग का डिप्लोमा था और वह इसी में अपना करियर बनाना चाहती थी | बताया जाता है तब जार्ज ने ही उनकी मदद की और उनके साथ यही निकटता प्रेम सम्बन्ध में बदल गयी और 21 जुलाई 1971 को वे परिणय सूत्र में बढ़ गए| इसके बाद कुछ वर्षो तक दोनों के बीच सब कुछ ठीक चला परन्तु जैसे ही जॉर्ज मोरार जी की सरकार में उद्योग मंत्री बनाये गए तो लैला कबीर जॉर्ज से दूर होती गई | जॉर्ज अपने निजी सचिव अशोक जेटली की पत्नी जया जेटली के ज्यादा निकट चले गए | इस प्रेम को देखते हुए लैला कबीर ने अपने को जॉर्ज से दूर कर लिया और 31 अक्तूबर 1984 से दोनों अलग अलग रहने लगे | इसके बाद लैला दिल्ली के पंचशील पार्क में रहने लगी | वहीँ जॉर्ज कृष्ण मेनन मार्ग में | बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर एक दौर में लालू अपराजेय मान लिए गए थे। लालू के शासन के तीसरे साल में जब जॉर्ज ने उन्हें सत्ता से नेस्तनाबूद करने की ठानी तो किसी को सहसा यकीं नहीं हुआ | वह भी एक दौर आया जब 1995 के विधानसभा चुनाव में समता पार्टी महज सात सीटों पर सिमट गई तो यही कहा गया कि जॉर्ज की सियासत का अंत हो जायेगा | लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पराजय के बाद शरद और नीतीश कुमार ठोस रणनीति के साथ मैदान में आए जिसमें लालू की जंगलराज की सियासत को घेरने का ब्रह्मास्त्र जॉर्ज ने ही छोड़ा | लालू के दुर्ग पर फतह पाने के लिए उन्होंने भाजपा से दोस्ती की और एनडीए के संयोजक भी बने जिसमें बाजपेयी के साथ कई पार्टियों का कुनबा 1998 में जुड़ा |
पहली बार विचाराधारा से इतर कोई दल एनडीए का घटक बना तो वह जॉर्ज की समता पार्टी थी। इसके बाद जॉर्ज एनडीए के संयोजक बने और उन्होंने कई दलों को एनडीए में लाने में अहम भूमिका निभाई। जॉर्ज की स्वीकार्यता ज्यादा होने के कारण उन्हें एनडीए का संयोजक बनाया गया और इस प्रकार कई दल एनडीए का हिस्सा बने। एनडीए के भीतर और बाहर दोनों जगह वाजपेयी के बाद उनकी स्वीकार्यता सर्वाधिक थी। 1998 से 2004 के बीच दो बार एनडीए की सरकार के गठन और विभिन्न मौकों पर उत्पन्न परिस्थितियों एवं मतभेदों के समाधान में जॉर्ज फर्नांडिस अहम भूमिका निभाते थे। इस प्रकार कांग्रेस के खिलाफ तीसरे मोर्चे की विफलता से जो स्थान रिक्त हो रहा था, उसे एनडीए ने पूरा किया। 2000 आते-आते लालू प्रसाद की सत्ता को चुनौती मिली और बिहार में यह जुमला कहा जाने लगा समोसे में रहेगा आलू पर बिहार में नहीं रहेंगे लालू | जार्ज के दौर में ही यह मिथ टूट गया था कि लालू अपराजेय हैं। केंद्रीय मंत्री के रूप में जार्ज हमेशा दो फैसलों के लिए जाने रहेंगे । 1977 में उन्होंने कोका कोला व आईबीएम को भारत से बाहर कर दिया था और 2002 में देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी एचपीसीएल को बेचने की प्रक्रिया में अड़ंगा लगाया था। 1999 में रक्षामंत्री रहते हुए उन्होंने कारगिल से पाक सैनिकों को खदेड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में 1989 में वह रेल महकमे के ही मंत्री बने थे। इस सरकार में अधिकांश वामपंथी नेता थे। संघ विरोधी पर अटल सरकार में रहे जॉर्ज फर्नाडीस आरएसएस के कट्टर आलोचक थे लेकिन उन्होंने भाजपा नीत राजग की अटल सरकार में 1998 व 1999 में रक्षा मंत्री पद संभाला था। उन्हीं के नेतृत्व में भारत ने कारगिल युद्ध लड़ा और 1998 में पोकरण में परमाणु परीक्षण किए थे।
जॉर्ज की छवि रक्षा सौदों में दलाली से लेकर तहलका तक में बहुत धूमिल हुई | लेकिन जार्ज अपनी स्पष्ट वादिता और मूल्यों की राजनीति के लिए हमेशा जाने जाते रहेंगे | रक्षा सौदों में दलाली के मसले पर विपक्ष ने उनको खूब घेरा लेकिन जार्ज इस्तीफ़ा देने से नहीं घबराये | ऐसा कहा जाता है तहलका दाग लगाने में जया जेटली की बड़ी भूमिका रही | यही नही जॉर्ज को मुजफ्फर पुर से लोकसभा चुनाव लड़वाने की रणनीति भी खुद जया की थी | इस हार के बाद उनको राज्य सभा में भेजने की कोई जरुरत नही थी | वैसे भी एक दौर में जॉर्ज कहा करते थे समाजवादी कभी राज्य सभा के रास्ते "इंट्री" नहीं करते |
जॉर्ज की छवि रक्षा सौदों में दलाली से लेकर तहलका तक में बहुत धूमिल हुई | लेकिन जार्ज अपनी स्पष्ट वादिता और मूल्यों की राजनीति के लिए हमेशा जाने जाते रहेंगे | रक्षा सौदों में दलाली के मसले पर विपक्ष ने उनको खूब घेरा लेकिन जार्ज इस्तीफ़ा देने से नहीं घबराये | ऐसा कहा जाता है तहलका दाग लगाने में जया जेटली की बड़ी भूमिका रही | यही नही जॉर्ज को मुजफ्फर पुर से लोकसभा चुनाव लड़वाने की रणनीति भी खुद जया की थी | इस हार के बाद उनको राज्य सभा में भेजने की कोई जरुरत नही थी | वैसे भी एक दौर में जॉर्ज कहा करते थे समाजवादी कभी राज्य सभा के रास्ते "इंट्री" नहीं करते |
इन सब बातो के बावजूद भी उनका राज्य सभा जाना मेरे मन में कई बार सवालों को पैदा करता था | यही नही शरद नीतीश की जोड़ी का हाथ पकड़कर उनको राज्य सभा पहुचाना कई बार उनकी समाजवादी उनकी छवि पर ग्रहण लगाता था | जार्ज भले ही आज भले ही हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन भारतीय राजनीती के इतिहास में हमेशा उनको संघर्षशील , जिंदादिल और सादगीपूर्ण और शालीन नेता के तौर पर याद किया जाता रहेगा जिसने अपनी राजनीति से जनता के सरोकारों की हमेशा फ़िक्र की | अब जॉर्ज की मौत के बाद उनकी संपत्ति को लेकर विवाद गर्माने के आसार बन रहे हैं | चुनावो के दौरान जॉर्ज द्वारा दी गयी जानकारी के मुताबिक वह करोडो के स्वामी है जिनके पास मुम्बई , हुबली, दिल्ली में करोड़ो की संपत्ति है | यहीं नही मुम्बई के एक बैंक में उनके शेयरों की कीमत भी अब काफी हो चली है | ऐसे में आने वाले दिनों में संपत्ति को लेकर विवाद होना तो लाजमी ही है|
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