Monday, 26 November 2012

वाइब्रेन्ट गुजरात में "ब्रांड " मोदी ...................

गुजरात के चुनावी अखाड़े में इस समय चुनावी सरगर्मियां  तेज हो चुकी  हैं । भाजपा और कांग्रेस इस बार भी यहाँ पर आमने सामने खड़ी हैं लेकिन टिकट चयन से लेकर हाईटेक प्रचार में मोदी कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों पर भारी पड़ते दिखाई देते हैं । इसकी छाप  बीते दिनों घोषित प्रत्याशियों की सूची को देखकर देखी जा सकती हैं जहाँ कांग्रेस ने पहले तो अपने प्रत्याशियों की दो -- दो  सूची घोषित की लेकिन बाद में एक चरण के उम्मीदवारों की सूची को कार्यकर्ताओ के विरोध के चलते  उसे रात सादे तीन बजे रद्द करने को मजबूर होना पड़ा वहीँ भाजपा टिकट चयन में कांग्रेस से आगे न केवल निकली बल्कि प्रचार में भी उसने उसको पीछे छोड़ दिया  है  । राजनीती के जानकारों की माने तो नरेन्द्र मोदी तीसरी बार भाजपा  की गुजरात में वापसी कराकर छह करोड़ गुजरातियों के सम्मान की रक्षा को बेताब खड़े दिख रहे हैं तो वहीँ पहली बार उनकी नजरें दिल्ली के सिंहासन पर भी  लगी हुई हैं ।

          पिछले दिनों भाजपा की केन्द्रीय समिति की एक बैठक में भाजपा की दिल्ली वाली " डी कम्पनी"  मोदी से  सीधे मुखातिब हुई  । मौका था गुजरात विधान सभा में भाजपा के टिकट  बटवारे का । इस बार भी टिकटों के बटवारे में मोदी ने अपने फ्री हैण्ड  का बखूबी इस्तेमाल किया और  "डी कंपनी " की   धमाचौकड़ी को यह अहसास करा ही दिया टिकट आवंटन में तो चलेगी तो मोदी की  ही  और वही नेता टिकट पाने में कामयाब होगा जो मोदी की चुनावी बिसात में फिट बैठेगा । बीते दस बरस में यह मौका पहली बार आया है जब गुजरात का कोई सीऍम टिकटों का चयन करने सीधे  दिल्ली पंहुचा है ।यही नहीं मोदी ने पहली बार दिल्ली पहुंचकर पार्टी के बड़े और छोटे नेताओ को मोदी होने के मायने बता दिए हैं । तो क्या माना जाए गुजरात चुनावो के निपटने के बाद मोदी  के कदम अहमदाबाद से सीधे निकलकर दिल्ली के सिंहासन की तरफ बढ़ रहे हैं ? गुजरात चुनावो में मोदी की भारी बहुमत से जीत ही उनके लिए 2014 की चुनावी बिसात में अहम् भूमिका अदा  करेगी।

               गुजरात विधान सभा के हाल के चुनावो में एक तरफ मोदी खड़े  हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस है जिसके पास कोई ऐसा चेहरा इस चुनाव में नहीं बचा है जो  मोदी के मुकाबले में कहीं ठहरता है । भाजपा से निष्काषित और अब कांग्रेस में गए शंकर सिंह वाघेला से लेकर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अर्जुन मोड़वाडिया तक के सभी नेताओ में आपसी गुटबाजी इतनी ज्यादा  है  कि इस  बार के चुनावो में भी यह पार्टी का खेल खराब करती ही दिख रही है जिसके चलते मोदी की राह आसान लग रही है । वहीँ मोदी के सामने भी खुद अपनी पार्टी के असंतुष्टों से निपटने की तगड़ी चुनौती है। आरएसएस के असंतुष्ट स्वयंसेवको से लेकर वीएचपी और बजरंग दल सरीखे संगठन जहाँ इस बार भी मोदी के धुर विरोधियो में शामिल हैं वहीँ भाजपा को गुड बाय कह चुके पूर्व मुख्यमंत्री केशु भाई पटेल अब गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाकर मोदी को ललकार  रहे हैं । लेकिन इन सबके बीच  आम गुजराती वोटर से अगर आप चुनाव के बारे में पूछें तो उसके मुह पर मोदी के अलावे  कोई चेहरा  इस दौर में नहीं ठहरता । मुस्लिम बाहुल्य इलाको में भी मोदी ने  अपने विकास कार्य के बूते अपने विरोधियो को भी अपने पाले में लाने की गोलबंदी इस चुनाव में की है । जाहिर है मोदी की नजरें इस बार मुसलमानों पर भी लगी हुई हैं जहाँ वह अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने में जुटे हैं क्युकि  दिल्ली का रास्ता गुजरात के बूते ही तैयार करना है । शायद इसीलिए आरएसएस भी मोदी की नाव में सवारी करने का मन इस दौर में बना  चुका  है । चूँकि गुजरात दंगो पर आई एसआईटी की रिपोर्ट ने मोदी को क्लीन चिट  दे दी है और अब अदालत से भी उनको राहत मिल चुकी है लिहाजा "हिन्दू  हृदय सम्राट " को अब राजनीती के असल हीरो के रूप में पेश करने से संघ पीछे नहीं हटने वाला है ।इसके संकेत गुजरात में मोदी की फिर से जीत के बाद देखने को मिलेंगे ।

                     इस साल संघ ने अपने मुखपत्र " आर्गनाइजर " में चूँकि यह लिखा कि  मोदी  ने गुजरात  दंगो के दौरान राजधर्म निभाने में कोई  कोताही नहीं की जो बहती हवा के असल रुख का अहसास तो करवा ही रहा है । साथ ही इसी बहाने  संघ मोदी को अपना  खुला समर्थन भी दे रहा है क्युकि  संघ मान चुका  है गुजरात से लेकर आगामी लोक सभा चुनावो में अकेले नरेन्द्र मोदी ऐसे नेता हैं जो संघ के राष्ट्रवाद को अपने कद में ढाल सकते हैं और हिंदुत्व को एक नई  पहचान दे सकते हैं ।इसके संकेत हाल ही में कुछ महीने पहले मोदी और मोहन भागवत के बीच हुई मुलाकात के दौरान देखने को मिले थे  जहाँ गुजरात चुनावो से ठीक पहले मोहन भागवत ने नरेन्द्र मोदी को "नमस्ते प्रजा वत्सले मातृभूमि " का पाठ पढ़ाकर  मोदी को संघ की आखरी उम्मीद होने का पाठ पढाया । साथ ही  भाजपा की दिल्ली वाली डी कंपनी के पीएम बनने की संभावनाओ को नकार दिया है ।

इधर मोदी भी अपने अंदाज में गुजरात के रण  में  कांग्रेस की मुश्किलें अपने विकास कार्यो के द्वारा बढ़ा  रहे हैं । मोदी ने हाल के समय में जहाँ गुजरात चुनावो से पूर्व अपने सदभावना  उपवास के माध्यम से अपनी छवि बदलने की कोशिश की है तो वहीँ विवेकानंद विकास यात्रा के जरिये युवाओ के बीच अपनी अलग पहचान बनाने में भी सफलता हासिल की है ।साथ ही यह पहला मौका  है जब वह गुजरात के मुद्दों से इतर राष्ट्रीय मुद्दों को अपने चुनाव प्रचार में आक्रामक ढंग से उठा रहे हैं  और राहुल  ,सोनिया से लेकर मनमोहन  तक पर सीधे वार करने से नही चूक रहे हैं । यद्यपि 2002 के गोधरा दंगो का जिन्न मोदी  का पीछा  आज भी नही छोड़ रहा है वहीँ उनके दल की कद्दावर मंत्री रही माया कोडनानी को 28 साल तो बजरंग दल के बाबू  बजरंगी को नरोदा पाटिया  नरसंहार में उम्रकैद की सजा ने  उनकी मुश्किलों को बढ़ाने  का  काम  किया है लेकिन बीते दस बरस में यह पहला मौका है  जब नरोदा पाटिया  और  गोधरा सरीखे मुद्दो को मोदी के विरोधी  पीछे छोड़ चुके हैं । गुजरात  के पिछले विधान सभा चुनाव में सोनिया गाँधी द्वारा मोदी को मौत का सौदागर बताने भर से मोदी की जीत की राह आसान हो गई थी शायद इस बार यही सोचकर कांग्रेस दंगो के मसलो को छोड़कर अन्य  मुद्दे राज्य में उठा रही है क्युकि हिन्दू ह्रदय सम्राट जनता की नब्ज पकड़ना जानते  हैं ।वह अपने खिलाफ बनने वाले हर माहौल को हिंदुत्व वोटो के  ध्रुवीकरण के जरिये भारी वोटो में तब्दील करने का माद्दा रखते हैं । गुजरात में मोदी ने अपने विकास कार्य से लोगो का दिल जीता है साथ ही वहां का कायाकल्प किया है । एक दशक पहले के गुजरात को कौन भूल सकता है ? कौन भूल सकता है भुज के भूकंप को जब यह पूरा इलाका तहस नहस हो गया था लेकिनं आज वहां जाकर अगर आप भुज को देखें  तो  यकीन ही नहीं करेंगे यह गुजरात का वही भुज है जहाँ कभी भूकंप के झटके आये थे ।

आज मोदी ने अपने विकास कार्यो से गुजरात को एक माडल स्टेट के रूप में खड़ा किया है ।मोदी ने इस दरमियान ना केवल सड़को का भारी जाल बिछाया है बल्कि बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओ को भी चुस्त दुरुस्त करने के साथ ही गुजरात में कॉरपोरेट  के आसरे विकास की नई  लकीर खींची  है । यही नहीं आज स्थिति ऐसी है कॉरपोरेट इस दौर में खुले तौर मोदी के साथ खड़ा है  जहाँ मुकेश अम्बानी से लेकर सुनील भारती मित्तल और रतन टाटा से लेकर अनिल अम्बानी तक सभी नरेन्द्र  मोदी की तारीफों के कसीदे पढ़ते नजर आते है और उनको वह देश की अगुवाई करने वाले नेताओ में शुमार  करने से पीछे नहीं हटते तो इसका कारण मोदी का विकास माडल रहा है जिन्होंने आम गुजराती के मन में अपनी अलग पहचान बनाने  में सफलता हासिल की है । शायद यही कारण है गुजरात का आम वोटर भी अब गुजराती अस्मिता की चाशनी में मोदी के हाथो में अपना भविष्य सुरक्षित देख रहा  है । 1985 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे माधव  सिंह सोलंकी ने  छत्रिय ,आदिवासी, दलित और मुसलमानों को साथ लेकर "खाम "  रणनीति के आसरे 182 में से 149 सीटें जीती थी वहीँ मोदी भी इस बार हिंदुत्व माडल को गुजराती अस्मिता के साथ जोड़कर 150 सीटें जीतकर दो तिहाई बहुमत से गुजरात  में भाजपा की सरकार बनाना चाहते हैं ।

मोदी ने इस चुनाव में अपना सब कुछ  पर लगा दिया है ।ट्विटर से लेकर फेसबुक , थ्रीडी प्रचार से लेकर ऑनलाइन चैटिंग ,  मुखौटा प्रचार से लेकर हाईटेक प्रचार सभी जगह मोदी की जय जय हो रही है । यहाँ तक कि मीडिया भी   इस चुनाव में मोदी का यशोगान करता नजर  आ रहा है । मोदी माधव  सिंह सोलंकी से आगे निकलकर  "खाम " रणनीति  के  आसरे अपने लिए रिकॉर्ड मतो से जीत का रास्ता तैयार कर रहे हैं ।हर विषय पर वह अपनी राय इस चुनाव प्रचार के दौरान सोशल मीडिया पर रख रहे हैं और चुनाव प्रचार में हिंदी का प्रयोग कर उसे ग्लोबल बना रहे हैं । छह करोड़ गुजरातियों में 16 फीसदी आदिवासी, 15 फीसदी पटेल हैं तो वहीँ 10 फीसदी मुस्लिम , 7 फीसदी दलित और 8 फीसदी ब्राह्मण हैं  वहीँ 44 फीसदी पिछड़ी जाति  के लोग शामिल हैं ।पटेल समुदाय पर जहाँ केशु भाई की पकड़ मजबूत है वहीँ पिछड़ी जाति  पर मोदी की पकड़  मजबूत  है ।  मोदी खुद  भी ओबीसी जाति से आते हैं जहाँ पर उनका मजबूत जनाधार रहा है ।पिछली बार भी गुजरात  के चुनावो में केशु भाई फेक्टर बड़ा बताया जा रहा था लेकिन  वहां पर उनकी  कोई   बड़ी भूमिका देखने को नहीं मिली परन्तु इस साल वह अपनी गुजरात  परिवर्तन पार्टी के जरिये ताल ठोक रहे हैं जहाँ मोदी से नाराज नेताओ का एक बड़ा तबका उनके साथ शामिल बताया जा  रहा  है ।ऐसे माहौल में मोदी की मुश्किलें  बढ़ सकती हैं लेकिन राजनीती के जानकारो  का कहना है  गुजरात  के चुनाव निपटने तक ही केशु भाई बड़ा फेक्टर माना जाएगा  । मतदान  निपटने के बाद  वह संघ के जरिये मोदी को ही लाभ पहुचायेंगे ।

कांग्रेस के पास मोदी की काट का कोई फार्मूला इस दौर में बचा नहीं है लिहाजा इस चुनाव में भी वह मोदी के खिलाफ फर्जी इनकाउंटर , कैग की गुजरात पर आई रिपोर्ट , सौराष्ट्र में सूखा , किसानो की ख़ुदकुशी और राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति ना होने का मुद्दा उछाल  रही है वहीँ मोदी केंद्र द्वारा गुजरात के साथ किए गए सौतेले व्यवहार और यू पी ए  2 के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर उसे तगड़ी चुनौती दे  रहे  है ।  अगर गुजरात के साथ हिमाचल में भी भाजपा की जीत होती है  तो यकीन जान लीजिए मोदी का नाम राष्ट्रीय  फलक पर मजबूत नेता के तौर पर उभरेगा । पिछले दिनों ब्रिटेन के  उच्चायुक्त की मोदी से मुलाक़ात के बाद जहाँ उनके समर्थको की बाछें खिली हुई हैं वहीँ अब मोदी सभी वर्गो में अपनी पैठ मजबूत कर 2014 का रास्ता दिल्ली के लिए खुद के बूते अगर  तैयार कर रहे हैं तो इसमें शक शायद ही किसी को हो । गोधरा अब काफी  पीछे छूट चुका  है  । अपने माडल से मोदी ने गुजरात को एक  नई पहचान दी है  । आज उनके इस माडल की उनके विरोधी भी सराहना करते हैं ।यह ब्रांड  मोदी का चेहरा है जिसने  हिंदुत्व की प्रयोगशाला में उन्होंने अपने अथक परिश्रम से सींचा है । मोदी प्रतिदिन 19 से 20 घंटे काम करते हैं और बंद कमरों में बैठकर विरोधी  की हर चाल का माकूल जवाब देने की रणनीति तैयार करते हैं । इस काम में वह भाजपा के आरएस एस को ठेंगा दिखाकर अपनी पार्टी के नेताओं को भी  ठिकाने लगाने से परहेज  अगर नहीं करते तो समझा जा  सकता है बीते एक दशक में मोदी ने  तमाम आरोपों के  बीच किस तरह  के करिश्माई नेता की पहचान बनाई है ।

एक दौर में संघ के प्रचारक रहे नरेन्द्र भाई मोदी कुशल  संगठनकर्ता भी रहे है । शायद इसी के चलते वह अपने बूते हर बार गुजरात में सरकार और संगठन में अच्छा  तालमेल  बनाने में सफल हुए हैं ।20  दिसंबर को अगर गुजरात में भाजपा बड़ी  दिवाली मनाने में सफल होती है तो इसके बाद अपनी जीत से मोदी यह सन्देश देने में कामयाब हो जायेंगे अब गुजरात का बोझ उठाने के बाद वह  राष्ट्रीय  फलक पर अपनी पहचान बनाने निकलने जा रहे हैं । संभव है इसके बाद भाजपा पीएम पद के लिए "ब्रांड मोदी " नाम को  भुनाएगी । ऐसी सूरत में पार्टी उन्हें 2014 के लोक सभा चुनावो से ठीक पहले प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने से शायद ही हिचकेगी । राहुल गाँधी की तरह भाजपा में भी पार्टी की  मोदी पर निर्भरता शायद बढ़ जाएगी । लोक सभा में  उम्मीदवारों  के चयन से लेकर चुनाव संचालन  समिति की कमान तब मोदी के पास ही रहेगी ।अगले लोक सभा चुनाव से पहले सभी की नजरें गुजरात , हिमाचल में हैं अगर मोदी की वापसी गुजरात में आने वाले दिनो मे होती है  तो मध्य प्रदेश , राजस्थान , छत्तीसगढ़ , दिल्ली सरीखे 10  राज्यो में अगले साल होने जा रहे विधान सभा चुनावो में यह जीत पार्टी और कार्यकर्ताओ में नया जोश तो अवश्य ही भरेगी ।लेकिन फिलहाल सभी की नजरें मोदी की शानदार जीत पर लगी हैं और वाइब्रेन्ट  गुजरात   को भी 20 दिसम्बर तक  का इन्तजार है ।        
                      

Friday, 23 November 2012

राजनीती के मैदान पर केजरीवाल ...................



“ जब सारी व्यवस्था ही लूट खसोट की पोषक बन जाए | शासक वर्ग सत्ता की ठसक दिखाते हुए सत्ता के मद में चूर हो जाए और आम आदमी के सरोकार हाशिये पर चले जाए तो ऐसे में रास्ता किस ओर जाए और किया भी क्या जाए " ? 
मध्य प्रदेश के सीहोर के बिलकिसगंज इलाके से ताल्लुक रखने वाले  राजकुमार परमार जब मौजूदा व्यवस्था से थक हार कर आक्रोश में यह जवाब देते हैं तो भारतीय राजनीती के असल स्तर का पता चलता है | कांग्रेस के युवराज के बजाए अब वह राजनीती के नए युवराज केजरीवाल के जरिए देश की हालत सुधारने निकलने जा रहे हैं | २६ नवंबर को सभी की नजरें जहाँ जंतर मंतर पर केजरीवाल के समर्थन में सड़को पर उतरने वाले जनसैलाब पर रहेंगी वहीँ राजकुमार सरीखे युवा लोग भी केजरीवाल की घोषित होने जा रही पार्टी का हिस्सा बन अपने इलाको में हर व्यक्ति को आम आदमी की पार्टी से जोड़ने का रोडमैप तैयार करेंगे | २६ नवम्बर १९४९ को अपने देश में संविधान का विधान बना था वहीँ २६ जनवरी  १९५० को यह लागू हुआ था | इसी से प्रेरित होकर २६ नवंबर को केजरीवाल और उनकी युवा टीम देशवासियों को राजनीती का एक नया विकल्प देती दिखाई देगी क्युकि इस दिन आईएसी से इतर उनका संगठन पहली बार उस पार्टी का स्वरूप ग्रहण करेगा जिसमे आम आदमी मुख्यधारा में दिखाई देगा | सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अपने निशाने पर लेने वाले अरविन्द केजरीवाल की इंट्री भारतीय राजनीती में उस “एंग्री यंगमैन “ के तौर पर हो रही है जिसके केंद्र में पहली बार आम आदमी है जो इस दौर में हाशिये पर चला गया है वहीँ अरविन्द आम आदमी के आसरे भारत की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था की जड़ो को खदबदाने की कोशिशे कर रहे हैं जिसमे उनको सफलताए भी मिल ही है शायद यही कारण है आम आदमी केजरीवाल में उस करिश्माई युवा तुर्क का अक्स देख रहा है जिसके मन में सिस्टम से लड़ने की चाहत है और वह सिस्टम में घुसकर नेताओ को आइना दिखा रहा है |


                                
  
दरअसल भारतीय राजनीती इस दौर में सबसे नाजुक दौर से गुजर रही है | यह पहला मौका है जब सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष की साख मिटटी में मिल गई है | एक के बाद एक घोटाले भारतीय लोकतंत्र के लिए कलंक बनते जा रहे हैं लेकिन सरकार को आम आदमी से कुछ लेना देना नहीं है क्युकि उसकी पूरी जोर आजमाईश विदेशी निवेश बढाने और कारपोरेट के आसरे मनमोहनी इकोनोमिक्स की लकीर खीचने में लगी हुई है | उदारीकरण के बाद इस देश में जिस तेजी से कारपोरेट  के लिए सरकारों ने फलक फावड़े बिछाए हैं उसने उसी तेजी के साथ भ्रष्टाचार की गंगोत्री बहाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है | इस लूट के खिलाफ समय समय देश में आवाजें उठती रही हैं लेकिन आज तक कोई सकारात्मक पहल इस दौर में नहीं हो पायी है | स्थितिया कितनी बेकाबू हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगर मौजूदा दौर में कोई केजरीवाल सरीखा व्यक्ति तत्कालीन कानून मंत्री और वर्तमान विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद में चुनौती देता है तो माननीय मंत्री उसे खून से रंगने और निपटा देने की बात कहते हैं वहीँ दम्भी प्रवक्ता रहे और वर्तमान में सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी अन्ना को भगौड़ा एक दौर में घोषित कर देते हैं जो आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ की असल तस्वीर आँखों के सामने लाता है | देश में यह पहला मौका रहा है  जब २०११ मे अन्ना की अगस्त क्रांति , रामदेव के जनान्दोलन ने लोगो को इस भ्रष्टाचार के दानव के खिलाफ लड़ने के लिए सड़क पर एकजुट किया और पहली बार राजनेताओ की साख पर सीधे सवाल इसी दौर में ही उठने लगे |

 

दरअसल अपने देश में अब भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या बन चुका है | प्रायः लोग इसको लाइलाज समझने लगते हैं लेकिन अब समय आ गया है जब इससे निजात पाने का विकल्प  लोगो को देना होगा | देश के युवाओ में इसे लेकर गहरा आक्रोश है और वह पहली बार देश के नेताओ से लेकर नौकरशाहों को निशाने पर लेकर उनकी जमीन को निशाने पर ले रहा है और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जा रही हर लड़ाई में अपनी भागीदारी दर्ज कर रहा है | इस लड़ाई में पहली बार वो लोग भी युवाओ के साथ दिख रहे है जो अपने अपने पदों से रिटायर होकर भ्रष्टाचार मुक्त भारत के सपने को साकार करने सड़क से संसद तक का रास्ता अख्तियार करने को भी तैयार खड़े हैं |
                          
  

देश की पैसठ फीसदी युवा आबादी अब आगामी चुनाव में अपनी बिसात के जरिए सत्ता के हठी तंत्र को भोथरा करने में जुटी है जिसमे अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम के साथी टिमटिमाते दिए में रोशनी दिखाते नजर आते हैं | अरब स्प्रिंग से प्रेरित होकर भारत में भी लोग तहरीर चौक की तर्ज पर नया भारत बसाने का सपना अब देखने लगे हैं और शायद उसी का परिणाम था पूरे देश में अन्ना आन्दोलन की परिणति ऐसी हुई जिसने पहली बार लोकतंत्र में लोक के महत्व को साबित कर दिखाया | २ जी , आदर्श सोसाईटी , कामनवेल्थ घोटाला ,कर्नाटक की खदान में हुआ घोटाला यह सब ऐसे मुद्दे थे जिसने अन्ना के आन्दोलन को प्लेटफोर्म देने का काम किया | लोगो ने इस जनांदोलन से सीधा जुड़ाव महसूस किया शायद इसी के चलते सभी नए इस पर बढ़ चढकर भागीदारी बीते बरस की | आज अन्ना और अरविन्द की राहें भले ही जुदा हो गई हैं लेकिन दोनों का मुद्दा एक है देश से भ्रष्टाचार का खात्मा और इसी के चलते अब केजरीवाल जहाँ अब सत्ता के मठाधीशो को उनकी माद में घुसकर चुनौती दे रहे हैं वहीँ राजनेताओ को आईना दिखाकर यह भी बतला रहे हैं २०१४ में खुद अकेले ही चलना है और अकेले ही रास्ता भी तैयार करना है | केजरीवाल के राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे भी अब फिर से जनलोकपाल की लड़ाई नई टीम के साथ लड़ने वाले हैं | जो लोग सोचते थे अन्ना का आन्दोलन अब खत्म हो गया है वह शायद यह भूल गए हैं असली लड़ाई तो अब शुरू हो रही है जब रामदेव और अन्ना देश भर में घूम घूमकर २०१४ के चुनावो के लिए नई अलख जगाने लोगो के बीच निकलेंगे | अन्ना अगले महीने पटना के गाँधी मैदान से भ्रष्टाचार की लम्बी लड़ाई की हुंकार भरेंगे जिसमे कई रिटायर्ड नौकरशाह और अधिकारी भी उनका साथ देंगे और पूरे देश में भ्रष्टाचार समाप्त करने जन जन को जगायेंगे |  ऐसे में भ्रष्टाचार देश में एक बड़ा मुद्दा बन सकता है |  मौजूदा दौर में भारतीय राजनीती के सामने जैसा संकट खड़ा है वैसा पहले कभी खड़ा नहीं था |

              

 इस दौर में जहाँ कांग्रेस की  भ्रष्टाचार के मसले पर खासी किरकिरी हो रही है वहीँ कोयले की कालिक के दाग से लेकर पूर्ति के गडबडझाले पर पहली बार उस विपक्षी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सवाल उठे हैं जो पार्टी अपने को पार्टी विथ डिफरेंस कहती नहीं थकती है | ऐसे हालातो में  “केशव कुञ्ज” उनको अध्यक्ष पद पर अगर बनाए रखता है तो समझा जा सकता है ऐसा करके उसकी भ्रष्टाचार की लड़ाई खुद कमजोर नजर आने लगी  है | आम जनता में यह सन्देश जा रहा है दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में भ्रष्टाचार के मसले पर भी मैच फिक्सिंग है | अगर इच्छा शक्ति  होती तो दोनों पार्टिया उन लोगो को पद से हटा देती जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे हैं लेकिन मनमोहन को देखिये मंत्रिमंडल विस्तार में उन्ही दागियो का प्रमोशन कर देते हैं जिनकी वजह से पार्टी की साख को नुकसान हुआ है | ऐसे माहौल में केजरीवाल सरीखे लोग अब लोगो को यह विश्वास करा रहे हैं अब भ्रष्टाचारी नेताओ के दिन जल्द ही लदने वाले हैं तो समझा जा सकता है आने वाले दिनों में नई बिसात संसदीय राजनीती में बिछने जा रही है जिसमे जनता के हाथ सत्ता की चाबी सही मायनों में होगी | न केवल केजरीवाल के साथ बल्कि रामदेव और अन्ना के गैर राजनीतिक आन्दोलन के साथ भी अब जनता खड़ी होती इस दौर में अगर दिख रही है तो इसका बड़ा कारण यह है आम आदमी इस दौर में भ्रष्टाचार से परेशान है | मिसाल के तौर अरविन्द  केजरीवाल को ही लीजिए अन्ना के राजनीतिक विकल्प देने के सवाल पर जब दोनों ने अलग राहें चुनी तो कई लोगो ने सोचा बिना अन्ना के केजरीवाल की राह मुश्किल भरी रहेगी लेकिन जनलोकपाल पर मनमोहन , सोनिया और गडकरी के घेराव , बिजली की बड़ी कीमतों के खिलाफ दिल्ली में विशाल प्रदर्शन द्वारा उन्होंने अपनी असली ताकत का एहसास करा दिया | युवाओ की एक बड़ी टीम उनके साथ हर मसले पर खड़ी रही चाहे वाड्रा का मामला लें या गडकरी का हर जगह उनको युवा साथियो का सहयोग इस दौर में मिला है | आज आलम यह है केजरीवाल के पास भ्रष्टाचार की आये दिन सैकड़ो शिकायते देश भर से आ रही हैं जिन पर वह अपने साथियो के साथ प्रतिदिन बहस करते हैं और युवा साथियो से लैस केजरीवाल ब्रिगेड उस पर गंभीरता के साथ अध्ययन करती है |
                               
  

मौजूदा दौर में पक्ष और विपक्ष दोनों यह कहते हैं कि आरोप लगने से कोई आरोपी नहीं हो जाता और वह जाँच से भी घबराते हैं वहीँ केजरीवाल को देखिये उन्होंने अपने साथियों की जांच के लिए भी अलग से टीम गठित कर दी है | इस दौर में जहाँ प्रशांत भूषण पर हिमाचल में नियमो को ताक पर रखकर जमीन लेने के आरोप लगे वहीँ मयंक गाँधी पर भी अपने चाचा को   महाराष्ट्र में जमीन देने के भी आरोप लगे हैं वहीँ अंजलि दमानिया पर भी ऊँगली  उठी जिसमे फर्जी किसान बनकर रायगढ़ में कम दामो पर खरीदी गई ३५ एकड़ जमीन को बेचकर मुनाफा बनाने का संगीन आरोप लगा है  लेकिन केजरीवाल ने उन सभी की जांच करने का ऐलान एक झटके में कर लोगो का बीच एक नई नजीर पेश कर डाली है | आम जनता उनके इस निर्णय के साथ खड़ी दिखाई देती है | लोगो को उम्मीद है कि केजरीवाल की नई पार्टी अन्य पार्टियों से इतर अलग राह पर चलेगी | जंतर मंतर पर आगामी सोमवार को पार्टी की न केवल आम सभा होने जा रही है बल्कि संविधान भी घोषित होगा | इसके बाद केजरीवाल चुनावी अखाड़े में कूदेंगे जहाँ पर उनकी असली परीक्षा होगी | उनकी नज़रे फिलहाल दिल्ली पर टिकी हैं | अगले साल दिल्ली में नगर निगम के चुनाव होने हैं | शीला दीक्षित की मुश्किलें बिजली की बड़ी कीमतों ने बढ़ाई हुई हैं | ऊपर से सरकार के खिलाफ आम जनमानस में रोष है | केजरीवाल ने वहां पर आम सभाए कर जनता से  जुड़े मुद्दे उठाये हैं | जनता बिजली, पानी , महंगाई से कराह रही है ऊपर से भ्रष्टाचार से देश का आम आदमी परेशान  इस दौर में हो चुका है | केजरीवाल इन्ही मुद्दो के आसरे जनता में घर घर पैठ बनाने की कोशिशो में लगे हैं |
                             
कुछ लोग केजरीवाल की राजनीती को ख़ारिज करने में लगे हुए हैं और उनको आये दिन निशाने पर ले रहे हैं | कांग्रेसी जहाँ सत्ता के मद में चूर होकर केजरीवाल को लोकतंत्र के लिए खतरा बता रहे हैं वहीँ भाजपा भी उसी के सुर में सुर मिला रही है जबकि हमारे देश के राजनीतिक दल शायद इस बात को भूल रहे हैं कि मौजूदा दौर में हमारे राजनीतिक सिस्टम में गन्दगी भर गई है | अपराधियों और माफिया प्रवृति के लोग राजनीती की बहती गंगा में डुबकी लगा रहे है | हत्या, चोरी, बलात्कार जैसे संगीन अपराधो में लिप्त लोग लोकतंत्र की शोभा बड़ा रहे है | राजनीती में भाई भतीजावाद, परिवारवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता भरी हुई है और इन सबके बीच अगर केजरीवाल राजनीति का शुद्धिकरण करने जंतर मंतर  निकल रहे हैं तो वह कौन सा संगीन अपराध कर रहे हैं जो हमारे देश की बड़ी राजनीतिक जमात उनको ख़ारिज करने पर तुली हुई है | यही नहीं पत्रकारों की एक बड़ी जमात भी अब उनके पार्टी बनाने के फैसले पर साथ नहीं है | हमारे पत्रकारिता जगत के लिए यह शर्म की बात है जो खुलासे केजरीवाल कर रहे हैं उन पर अब तक किसी भी मीडिया घराने ने कई बरस से ना तो कलम ही चलाई और ना ही अपने चैनल में उन पर खबरें दिखाई  | केजरीवाल के यही खुलासे शायद अब इसी जमात को हजम नहीं हो रहे हैं | वैसे भी केजरीवाल जिस बेबाकी से मीडिया को उत्तर देते हैं उससे पत्रकारों के पसीने प्रेस कांफ्रेंस में छूट जाते हैं |  कुछ पत्रकारों और मठाधीशो ने राजनीती को अपनी जागीर समझ लिया है अब केजरीवाल नए सिरे से राजनीती को परिभाषित करने जा रहे हैं जिसके केंद्र में पहली बार आम आदमी रहेगा | अब तक देश की सभी पार्टियों द्वारा वह आम आदमी छला जाता रहा है | अब केजरीवाल अपनी पार्टी द्वारा जनता की नब्ज पकड़ेंगे | यही एक नेता की खासियत होती है | वह इसे बखूबी जानते हैं और इसकी खुशबू उन्होंने अपने सरकारी सेवाकाल के दौरान भी महसूस की  है |  यह तय हो चुका है उनकी पार्टी में सब अब आम आदमी ही तय करेगा और शायद इसीलिए यह पार्टी आम आदमी की होने जा रही है जिसमे ना तो महासचिव होगा ना अध्यक्ष | यह पार्टी जनता के सपनो की पार्टी होगी | तो इन्तजार कीजिये २६ नवंबर को जंतर मंतर से होने जा रहे केजरीवाल के बड़े एलान का | हमारी भी नजरें अब वहीँ की ओर हैं |

अन्तरिक्ष में सुनीता की ऊँची उड़ान........................





सपनो के आकाश में ऊँचा उड़ने का ख्वाब देखकर सुनीता ने ना केवल उसे जिया बल्कि उसे पदाई के बाद हकीकत में भी बदला | अन्तरिक्ष में उनकी यह ऊँची उड़ान  सही मायनों में सुनीता के असल कद का अहसास कराती है | भारतीय मूल की अन्तरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स और उनके दो सहयोगी फ्लाईट इंजीनियर बीते दिनों  यूरो  मालेंन्चेंको और अकी होशिंदे  के साथ चार महीने अन्तरिक्ष में बिताने के बाद सकुशल धरती पर लौट आई | बीते सोमवार को कजाकिस्तान के अर्कालिक स्टेशन पर सुबह सात बजकर तेईस मिनट पर स्पेस एयरक्राफ्ट  सोयूज जैसे ही लैंड हुआ हर किसी देशवासी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा क्युकि यही वह मिशन था जिस पर काम के द्वारा अन्तरिक्ष की असल उड़ान का रुख वैज्ञानिक तय करने जा रहे है |


 नासा के स्पेस मिशन एक्सपेडिशन ३३ की फ्लाइट इंजीनियर रही सुनीता इस साल 15 जुलाई को अन्तरिक्ष के लिए रवाना हुई थी | सुनीता की यह लम्बी उड़ान कई मायनों में यादगार रही है |यह कोई पहला मौका नहीं है जब सुनीता ने अपनी उड़ान द्वारा अन्तरिक्ष का सफ़र तय किया है | इससे पहले 2006 में वह अन्तरिक्ष के सफ़र को तय कर चुकी हैं | इस बार उन्होंने आईएसएस में १२७ दिन का लम्बा वक्त बिताने का नया कीर्तिमान स्थापित किया है | नासा के मिशन एक्सपेडिशन में जहाँ इस बार सुनीता ने अन्तरिक्ष मे दूसरी बार कदम बढाये वहीँ उनके साथी होशिदे दूसरी बार तो मालेंन्चेंको पांचवी बार अन्तरिक्ष की सैर कर चुके हैं |सुनीता के साथ उनके दो सहयोगियों के सकुशल वापस आने के बाद अब उनका अन्तरिक्ष यान सोयुज स्पेस से अलग जरुर हो गया है लेकिन वहां पर नासा की रिसर्च खत्म  नहीं हुई है | वैसे भी रिसर्च एक बहुत लम्बी प्रक्रिया  है और वैज्ञानिको को किसी नई खोज का पता लगाने के लिए लम्बे समय तक अध्ययन करना पड़ता है | जाहिर तौर पर नासा भी इसी लीक पर चल रहा है शायद तभी सुनीता के साथ मौजूद तीन और अन्तरिक्ष यात्रियों की अन्तरिक्ष से वापसी अगले साल तक धरती पर होगी | वह भी अन्तरिक्ष में नई सम्भावनाये तलाशने निकले है | उनका यह अध्ययन निश्चित रूप से वैज्ञानिको को अन्तरिक्ष की जमीनी सच्चाई से जहाँ वाकिफ कराएगा  वहीँ वहां पर जीवन के तौर तरीके की भी विस्तृत जानकारी लोगो को मिलेगी |

                      सुनीता और उनके साथियो के द्वारा किये गए अध्ययनों का लाभ निश्चित ही वैज्ञानिक उठा सकते है | इस वैज्ञानिक अध्ययन के जरिये अन्तरिक्ष के तौर तरीको को तो समझा ही जा सकेगा वहीँ कई गूढ़ रहस्यों से पर्दा हट सकता है | सुनीता की यह नई उपलब्धि पूरे विश्व के लिए एक मिसाल है लेकिन  एक भारतीय के तौर पर यह हमारे लिए भी ख़ुशी का पल है क्युकि सुनीता मूल रूप से भारत से ही ताल्लुक रखती हैं | इससे ज्यादा दिल को सुकून देने वाली बात क्या हो सकती है आज भी वह अपने भारत देश से गहरा लगाव रखती हैं शायद तभी उनके मन में भारत के प्रति प्यार है जिसका इजहार वह अपनी पिछली अन्तरिक्ष यात्रा के बाद भारत की अपनी यात्रा के दौरान कर चुकी हैं | बहुत सारी प्रतिभाए हमारे देश की ऐसी हैं जो अपना मूल देश छोड़ने के बाद भारत से कटे कटे सी रहती हैं | लेकिन सुनीता आज भी अपनी परम्पराए और संस्कार नहीं भूली हैं क्युकि उनकी जडें भारत में हैं और शायद यही कारण रहा है अपनी पहली अन्तरिक्ष यात्रा के बाद वह भारतीयों से गहन आत्मीयता से मिली | इस मुलाक़ात के मायने इस रूप में खास थे क्युकि उन्होंने अपने हर प्रशंसक के जवाब बहुत शालीनता के साथ ही न केवल दिए बल्कि उन्हें निराश भी नहीं किया | 

अन्तरिक्ष में सुनीता जहाँ अपने अध्ययन के माध्यम से वहां के रहस्यों पर प्रकाश डालेंगी वहीँ इससे सुनीता को  आदर्श मानने वाली लड़कियो को अब भारत में विज्ञान को लेकर रूचि जागेगी ऐसी उम्मीद भी जग रही है | सुनीता की इस उपलब्धि से हर किसी के मन में यह जज्बा जगा है हर इंसान में कुछ न कुछ खासियत रहती है | बस अपनी प्रतिभा को पहचानने की जरुरत है | सुनीता की बचपन से विज्ञान में रूचि थी | इसी रूचि ने उनके अन्तरिक्ष के सफ़र को साकार रूप प्रदान किया |  इस घटना ने  जहाँ यह साबित किया है भविष्य में अन्तरिक्ष को लेकर होने वाले अनुसंधानों में महिलाओ की भी बराबर भागीदारी सुनिश्चित हो सकती है  वहीँ इससे विज्ञान जैसे विषय को भी घर घर  लोकप्रिय बनाने में मदद मिल सकती है| ऐसी उम्मीद कई विशेषज्ञों को है |अगर सब कुछ ठीक  ठाक रहा तो जल्द ही हमारे देश के वैज्ञानिक भी  अपनी मेधा का लोहा पूरी दुनिया को मनाकर अन्तरिक्ष में सफलता के झंडे गाड सकते हैं | सुनीता की यह लम्बी उड़ान उनका अन्तरिक्ष में पथ प्रदर्शित करने के लिए काफी है |                 

Monday, 19 November 2012

कांग्रेस चली राहुल की राह ...................


                               



“जाएँगे तो लड़ते हुए जाएंगे” के जिस नारे के आसरे कांग्रेस इस दौर में आर्थिक सुधारो की फर्राटा भरने वाली मनमोहनी इकोनोमिक्स वाली अपनी लीक पर चल रही है अब उसी की थाप पर कांग्रेस के युवराज यानी राहुल गाँधी कांग्रेस के लिए आने वाले लोकसभा का चुनाव रास्ता तैयार कर रहे हैं क्युकि सूरजकुंड से निकले अमृत मंथन का सन्देश साफ़ है | राहुल को इस दौर में जहाँ कांग्रेस को खुद के लिए तैयार करना है वहीँ मनमोहन सिंह के पास भी कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किये गए वायदों को पूरा करने की एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी है | लेकिन असल चुनौती तो राहुल के सामने है जिनको आगे कर पार्टी लोकसभा चुनाव लड़ने जा रही है | सूरजकुंड में पार्टी के संवाद मंथन में यह तय हो चुका है कि कांग्रेस को राहुल की अगुवाई में ही २०१४ का रास्ता अपने बूते ही तय करना है क्युकि पार्टी ने इसी को ध्यान में रखकर राहुल को राष्ट्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाया है | पार्टी की चुनाव समन्वय समिति में राहुल के अलावे अहमद पटेल, जनार्दन, मधुसुदन, जयराम रमेश की धमाचौकड़ी को जगह दी गई  है | इसके अलावे तीन उपसमूह भी बनाए गए हैं जो चुनाव पूर्व गठबंधन, चुनावी घोषणा पत्र से लेकर प्रचार प्रसार तक का काम देखेंगे | गौर करने लायक बात है इस पूरी उपसमिति में भी सोनिया के सलाहकारों की छाप साफ़ देखी जा सकती है क्युकि जहाँ गठबंधन और चुनावी घोषणा पत्र वाला विभाग सोनिया के सबसे भरोसेमंद एंटनी के पास है तो वहीँ प्रचार प्रसार का जिम्मा गाँधी परिवार के सबसे वफादार दिग्गी राजा संभालेंगे | राहुल को आगे करने की अटकले कांग्रेस में लम्बे समय से चल रही थी आखिरकार सूरजकुंड के बाद पार्टी द्वारा लिए गए फैसलों ने एक बात तो साफ़ कर दी है आने वाला लोक सभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन के बजाए राहुल गाँधी को प्रोजेक्ट करके लड़ने जा रही है और इस बार की चुनावी बिसात में राहुल गाँधी पार्टी में अहम रोल निभाएंगे क्युकि इस चुनाव में पार्टी के टिकट आवंटन में राहुल गाँधी की ही चलेगी और वही नेता टिकट पाने में कामयाब होगा जो राहुल गाँधी की चुनावी बिसात के खांचे में फिट बैठेगा | ऐसा ना होने की सूरत में कई नेताओ के टिकट कटने का अंदेशा अभी से बनने लगा है |अगले आम चुनाव में कांग्रेस का बड़ा एक चेहरा राहुल ही  होंगे | 
                            
पार्टी में एक बड़ा तबका लम्बे समय से उनको आगे करने की बात कह रहा था | खुद मनमोहन सिंह भी उनसे मंत्रिमंडल में शामिल होने का आग्रह कर चुके थे | हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार के दौरान भी उम्मीदें लगाई गई राहुल को सरकार या संगठन में एक बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है लेकिन सूरजकुंड में राहुल को बड़ी भूमिका मिलने के बाद अब उन सारी अटकलों पर विराम लग गया है क्युकि राहुल खुद पार्टी को संभालने आगे आये हैं | राहुल गाँधी को कांग्रेस आने वाले लोकसभा चुनाव में उस ट्रंप कार्ड के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रही है जो अपनी काबिलियत के बूते देश की युवाओ की एक बड़ी आबादी के वोट का रुख कांग्रेस की ओर मोड़ सके | सूरजकुंड में सोनिया की सहमति से लिया गया यह फैसला पार्टी कार्यकर्ताओ में नए जोश का संचार भले ही कर जाए लेकिन राहुल गाँधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान भी नहीं है | २००९ के लोक सभा चुनावो में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा आरटीआई, किसान कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओ के सर ही बंधा था | वहीँ उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गाँधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था जो भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्युकि वह नेहरु की तर्ज पर भारत की खोज करने पहली बार निकले  जहाँ वह दलितों के घर आलू पूड़ी खाने जाते थे  वहीँ कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस में उजागर करते थे | लेकिन संयोग देखिये राजनीती एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है | अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है साथ ही आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ के नारों की भी हवा निकली हुई है क्युकि महंगाई चरम पर है | सरकार ने घरेलू गैस की सब्सिडी ख़त्म कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में ली है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है | वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई , घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे से लेकर तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही ऍफ़डीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है | देश की अर्थव्यवस्था जहाँ इस समय  सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है वहीँ आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्युकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है | यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनोमिक्स द्वारा आम आदमी के बजाए  कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा  दिखा रही है |
                        

ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है राहुल गाँधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है क्युकि यूपीए २ की इस सरकार के  कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा काम इस दौर में नहीं हुआ है | उल्टा कांग्रेस कामनवेल्थ ,२ जी ,कोलगेट जैसे मसलो पर लगातार घिरती जा रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है | ऊपर से रामदेव , अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है | देश में  मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं जो गडकरी से लेकर खुर्शीद तक को उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद तक में चुनौती दे चुके हैं | ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्युकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई  साख वापस नहीं आ सकती | दाग तो दाग हैं वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते | ऊपर से  आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने  नहीं रखते क्युकि उसके लिए दो जून की  रोजी रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है | वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है क्युकि वही सरकार के लिए चुनावो में बिसात बिछा रहा है | ऐसे खराब माहौल में राहुल को बैटिंग करने में दिक्कतें  पेश आ सकती हैं | साथ ही राहुल के सामने उनका अतीत भी है जो वर्तमान में भी उनका पीछा शायद ही छोड़ेगा |ज्यादा समय नहीं बीता जब २००९ में २००  से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावो में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार ,उत्तर प्रदेश, पंजाब,तमिलनाडु  के विधान सभा चुनावो में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा | उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरुर लेकिन यहाँ भी भाजपा में  खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही | इन जगहों पर राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी | संगठन भी अपने बजाय राहुल का औरा लिए करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगो की भीड़ वोटो में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गाँधी  ने भी उन इलाको का दौरा नहीं किया जहाँ कांग्रेस कमजोर नजर आई | चुनाव  निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए | ऐसे में दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है |  
                
                   
    वैसे एक दशक से ज्यादा समय से राजनीती में राहुल को लेकर कांग्रेसी चाटुकार मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा आशावान हैं | लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में राहुल का चुनावी प्रबंधन पार्टी के काम नहीं आ सका | एमबीए, एमसीए डिग्रियों से लैस उनकी युवा टीम ने जहाँ  इन्टरनेट की दुनिया में राहुल के लिए माहौल  बनाया वहीँ कांग्रेसी चाटुकारों की टोली ने उन्हें विवादित बयान देने और चुनावी सभा में बाहें ही चढ़ाना सिखाया | अगर वह जनता की नब्ज पकड़ना जानते तो शायद उत्तर प्रदेश के अखाड़े में वह उनसे कम उम्र के अखिलेश यादव से नहीं हारते | एक दशक से भारत की राजनीती में सक्रिय राहुल गाँधी जहाँ पुराने चाटुकारों से घिरे इस दौर में नजर  आते हैं वहीँ उनकी सबसे बड़ी कमी यह है की चुनाव  निपटने के बाद वह उन संसदीय इलाको और विधान सभा के इलाको में फटकना तक पसंद नहीं करते जहाँ कांग्रेस लगातार हारती जा रही है | यही उनकी सबसे बड़ी कमी इस दौर में बन चुकी है वहीँ अगर हम अखिलेश तो देखें तो उत्तर  प्रदेश के चुनावो में वह मीडिया की नज़रों से बिलकुल ओझल रहे लेकिन उन्हें अपने काम पर भरोसा था वह जनता से सीधा संवाद स्थापित करने में कामयाब रहे और जनता ने सपा को इस साल मौका दिया वहीँ कांग्रेस को उसी हाल पर छोड़ दिया जहाँ वह बरसो से उत्तर प्रदेश में खड़ी है | अखिलेश की सबसे बड़ी खूबी यह है वह अच्छे संगठनकर्ता हैं ही साथ ही वह एक एक कार्यकर्ता का नाम तक जानते हैं और उनसे  कभी भी सीधा संवाद आसानी से स्थापित कर लेते हैं | वहीँ राहुल गाँधी को अपने चाटुकारों से फुर्सत मिले तब बात बने | राहुल गाँधी को अगर  आने वाले दिनों में  अपने बूते कांग्रेस को तीसरी बार सत्ता में लाना है तो संगठन की दिशा में मजबूत प्रयास करने होंगे साथ ही कार्यकर्ताओ की भावनाओ का ध्यान रखना होगा क्युकि किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी रीड उसका कार्यकर्ता होता है अगर वह ही हाशिये पर रहे तो पार्टी का कुछ नहीं हो सकता | राहुल को उन कार्यकर्ताओ में नया जोश भरना होगा जिसके बूते वह जनता के बीच  जाकर सरकार की नीतियों के बारे में बात कर सकें | उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है |
                
       
एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीती में सक्रियता दिखाने वाले राहुल गाँधी ने शुरुवात में कोई पद ग्रहण नहीं किया | उन्होंने बुंदेलखंड के इलाको के साथ बिहार , उड़ीसा ,विदर्भ के इलाको के दौरे किये और जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओ को गौर से सुना | इसी दौरान वह उड़ीसा में  पोस्को और नियमागिरी के इलाको में जाकर वेदांता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं जिन पर पूरे देश का ध्यान गया | यही नहीं भट्टा परसौल, मुंबई की लोकल ट्रेन से लेकर कलावती के दर्द को उन्होंने बीते एक दशक में करीब से महसूस किया है | लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह रही है वह इन इलाको में एक बार अपनी शक्ल  दिखाने और  मीडिया में सुर्खी बटोरने के लिए जाते जरुर हैं । बाद  में खामोश हो जाते हैं और उन इलाको को उसी हाल पर छोड़ देते हैं जिस हाल पर वह इलाका पहले हुआ  करता था तो उनके  विरोधी भी सवाल उठाने लगते है |

मिसाल के तौर पर विदर्भ के इलाके को लीजिए | बीते एक दशक में साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्याए कर चुके हैं जिसको राहुल अपनी राजनीति से उठाते है | कलावती के दर्द को संसद के पटल पर परमाणु करार के जरिये उकेरते हैं लेकिन उसके बाद कलावती को उसी के हाल पर छोड़ देते हैं | २००५ में अपने पति को खो चुकी कलावती का दर्द आज भी कोई नहीं समझ सकता | न जाने लम्बा समय बीतने के बाद वह कहाँ  गुमनामी के अंधेरो में खो गई | राहुल उसकी सुध इस दौर में लेते नहीं दिखाई दिए जबकि आडवानी की रथ यात्रा के  दौरान २०११ में अक्तूबर के महीने में उसकी बेटी सविता ने  ख़ुदकुशी कर ली वहीँ इसी साल २०१२ में कलावती की छोटी बेटी के पति ने खेत में कीटनाशक दवाई खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी | तब राहुल गाँधी  की तरफ से उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई | जबकि कलावती के जरिये संसद में परमाणु करार पर मनमोहन सरकार ने खूब तालियाँ अपने पहले कार्यकाल में बटोरी थी  जब वाम दलों की घुड़की के आगे हमारे प्रधानमंत्री नहीं झुके | उसके बाद क्या हुआ कलावती अपने देश में बेगानी हो गयी | उत्तर प्रदेश में थकी हुई रीता बहुगुणा जोशी के हाथ कमान दी जो अपने जीवन का एक चुनाव तक नहीं जीत सकी | शुक्र है इस बार के चुनाव में उन्हें हार नहीं मिली |  चुनावो के बाद भीतरघातियो पर कारवाही  तक नहीं हुई और ना ही राहुल  उत्तर प्रदेश के आस पास फटके | यही हाल बिहार में हुआ अकेले चुनाव लड़ने का मन तो बना लिया लेकिन सगठन दुरुस्त नहीं था न कोई चेहरा था जो नीतीश के सामने टक्कर दे सकता था इसी के चलते २०१० के विधान सभा चुनाव में केवल ४ सीट ही हाथ लग सकी | चुनाव निपटने के बाद बिहार को भी वैसा ही छोड़ दिया जैसा उत्तर प्रदेश है | अब ऐसे हालातो में पार्टी का प्रदर्शन कैसे  सुधरेगा यह एक बड़ी पहेली बनता जा रहा है |  राहुल को यह कौन समझाए वोट कोई पेड पर नहीं उगते | उसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है और कार्यकर्ताओ को साथ लेकर चलना पड़ता है जिसमे संगठन एक बड़ी भूमिका अदा करता है | लेकिन राहुल की सबसे बड़ी मुश्किल यही है चुनाव के दौरान ही वह चुनाव प्रचार करने इलाको में नजर आते हैं चुनाव निपटने के बाद उन इलाको से नदारद पाए जाते है |


        

  यू पी ए २ में राहुल के पास अपने को साबित करने की एक बड़ी चुनौती है जिस पर वह अभी तक खरा नहीं उतर पाए हैं | मिसाल के तौर पर अन्ना के आन्दोलन को ही देख लीजिए उस दौरान  सोनिया गाँधी बीमार थी | राहुल को कांग्रेस के बड़े नेताओ के साथ  डिसीजन मेकिंग की कमान दी गई थी लेकिन अन्ना के आन्दोलन पर उनकी एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई | यही नहीं जनलोकपाल  जैसे अहम  मसलो पर वह उनकी पार्टी का स्टैंड सही से सामने नहीं रख पाए | वह इस पूरे दूसरे कार्यकाल में संसद से नदारद पाए गए है | सदन में कोई बड़ा बयान उनके द्वारा जहाँ नहीं दिया गया वहीँ किसानो की आत्महत्या, महंगाई, ऍफ़डीआई ,गैस सब्सिडी खत्म करने  जैसे मसलो पर उनका कोई बयान मीडिया में नहीं आया  है जो सीधे आम आदमी से जुड़े मुद्दे हैं | यही नहीं भ्रष्टाचार के मसले पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढे बैठे रहे | वाड्रा डीएलएफ  के गठजोड़ पर भी उनकी चुप्पी ने कई सवालों को जन्म तो दिया ही साथ ही कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में अपनी पार्टी के कोष से नैशनल हेराल्ड को दिए गए ९०००० करोड़ रुपये के चंदे पर भी राहुल ने खामोश रहना मुनासिब समझा | हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसे लोगो का कद बढ़ाया गया  जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे | लेकिन राहुल ने उस पर भी कुछ नहीं कहा | राहुल की भूमिका को लेकर सवाल उठने लाजमी ही हैं | अब समय आ गया है जब उनको देश से और आम जनता से जुड़े मुद्दे सामने लाने से नहीं डरना होगा तभी बात बनेगी | नहीं तो अभी के हालत कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे नजर नहीं आते | वर्तमान में पार्टी जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में ढलान पर है वहीँ मध्य प्रदेश , गुजरात  पंजाब, हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ में उसकी हालत बहुत पतली है |  औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता खोला था लेकिन यहाँ पर कांग्रेस पतली हालत में है | सबसे ज्यादा हालत आन्ध्र में है जहाँ जगन मोहन रेड्डी आने वाले विधान सभा चुनावो में मजबूत खिलाडी बनकर उभरेंगे इसके आसार अभी से नजर आने लगे हैं | देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के हालत भी कांग्रेस  जैसे ही हैं | चोर चोर मौसरे भाई जुगलबंदी दोनों पर सटीक बैठ रही है | गडकरी पर लग रहे भ्रष्टाचार के दाग भाजपा की साख ख़राब कर रहे हैं साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की लड़ाई कमजोर नजर आने लगी है | ऐसे में रास्ता इन दोनों दलों से इतर तीसरे मोर्चे की तरफ जा रहा है जहाँ पर अपने अपने राज्यों के छत्रप मजबूत स्थिति में जाते दिख रहे है जिससे भाजपा और कांग्रेस दोनों की सत्ता में आने  की सम्भावनाए  धुंधली होती दिखाई दे रही है | ऐसे में राहुल को कांग्रेस के लिए रास्ता तैयार करने में मुश्किलें पेश आ सकती हैं                                       
               


 वैसे असल परीक्षा तो आने वाले दिनों में हो रहे संसद सत्र के दौरान कांग्रेस को उठानी पड़ सकती है जब विपक्ष के भारी विरोध का सामना उसे करना पड़ेगा | ममता कांग्रेस से समर्थन वापस ले चुकी हैं ऐसे में वह यूपीए  के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने  का मन बना रही है | सभी दल अभी इस पर अपने पत्ते नहीं खोल रहे है | अगर कांग्रेस की मुश्किल विपक्षी बढ़ाते हैं तो यह भी तय है आम चुनाव जल्दी हो जायेंगे | ऐसे में कांग्रेस जल्द चुनाव का ठीकरा भाजपा  के सर फोड़कर चुनावी लाभ लेना चाहेगी | वैसे इस बात की सम्भावना अभी कम ही नजर आ रही है क्युकि कांग्रेस के भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा कानून जैसी योजनाये अभी अधर में लटकी है | नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे | देश में निवेश की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है क्युकि  २ जी  और घोटालो की आंच से कॉर्पोरेट सहमा हुआ है | जाहिर है ऐसे माहौल में कांग्रेस जल्द चुनाव का जुआ नहीं खेलना चाहेगी | उसकी कोशिश मनमोहनी इकोनोमिक्स की छाव तले आम आदमी के हित में कई कदम उठाने की होगी जिसको वह चुनाव में लोगो के बीच जाकर भुना सके और खुद को आम आदमी का हितैषी बता सके | ऐसे में उसका सबसे बड़ा खेवनहार वही गाँधी परिवार बना रहेगा जिसके बूते वह लम्बे समय से भारतीय राजनीती में छाई है और यही राहुल गाँधी का औरा उसे चुनावी मुकाबले में भाजपा के बराबर खड़ा कर सकता है क्युकि सोनिया का स्वास्थ्य सही नहीं है | मनमोहन के आलावे कोई चेहरा पार्टी में ऐसा इस दौर में बचा नहीं है जो भीड़ खींच सके और लोगो की नब्ज पकड़ना जाने | जाहिर है रास्ता ऐसे में उसी गाँधी परिवार पर जा टिकता है  जिसके नाम पर पार्टी इतने वर्षो  से एकजुट नजर आई है और यही औरा गाँधी परिवार की पांचवी पीड़ी में पार्टी के कार्यकर्ताओ को राहुल गाँधी के रूप में नजर आता है जो उसमे  नेहरु से लेकर इंदिरा और राजीव तक का अक्स देखते हैं |  शायद इसके मर्म को सोनिया भी बखूबी  समझ रही हैं तभी कांग्रेस राहुल की राह वाली ढाई चाल चलती इस दौर में दिख रही है |

Saturday, 17 November 2012

पहाड़ो में रचे बसे थे केसी ...............





श्रद्धांजलि

“ सन २००० में जब उत्तराखंड बना तब शायद अटल जी और आडवानी जी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रस्ताव दिया था लेकिन वे इतने वरिष्ठ और ऊँचे कद के थे कि उन्होंने इसमें रूचि नहीं ली | अच्छा होता अगर वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने होते ”

देहरादून में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बी सी खंडूरी के द्वारा केसी पन्त को इन शब्दों के साथ दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि के सी के असल कद का एहसास कराने के लिए काफी है | झीलों की नगरी सरोवर नगरी मानी जाने वाले नैनीताल में पले बड़े के सी के निधन से पहाड़ ने एक कर्मठ और सौम्य नेता खो दिया और इसी के साथ भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की राजनीतिक विरासत का भी  अंत हो गया क्युकि के सी के दोनों बेटे चाहकर भी राजनीती में आने से परहेज करते रहे हैं | के सी पन्त के निधन से पूरा उत्तराखंड शोकाकुल है खासतौर से नैनीताल जिला जो उनकी कर्मस्थली एक दौर में रहा और जहाँ पर रहकर उन्होंने अपना बचपन ना केवल गुजारा बल्कि प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा भी ग्रहण की  |  


के सी पन्त का जन्म १९३१ में नैनीताल में हुआ था | प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल के सेंट जोसेफ कालेज से ग्रहण की जिसके बाद एम एस सी करने लखनऊ विश्वविद्यालय चले गए | देश के गृह मंत्री रहे गोविन्द बल्लभ पन्त के पुत्र होने के नाते उन्हें राजनीती की रपटीली राहो में जगह बनाने के लिए कड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ी | यह केसी की महानता ही थी जिन्होंने  अपनी राजनीती की बिसात खुद ही बिछाई थी और शायद यही चीज उन्हें अन्य राजनेताओ से अलग और विशिष्ट बनाती थी | भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त के विराट कद के आगे के सी का कद कुछ कम जरुर दिखाई देता था लेकिन कुशल राजनेता की लीक पर चलने का साहस उन्होंने खुद ही उठाया और खुद ही राजनीती की बिसात का रास्ता तैयार किया |
                

 १९६२ में ३१ साल की उम्र में वह नैनीताल से कांग्रेस के टिकट पर सांसद का चुनाव लड़े और सांसद निर्वाचित हुए | १९६७,१९७१ में भी उन्होंने यहाँ से धमाकेदार जीत दर्ज कर सबकी नजरें नैनीताल पर उस दौर में केन्द्रित कर दी थी |१९७७ में पूरे देश में चली जनता पार्टी की लहर ने उनका सिंहासन भी खतरे में डाल दिया जिस कारण उनको चुनाव हारना पड़ा लेकिन १९७८ में राज्य सभा के रास्ते संसद के गलियारों तक पहुचने में वह कामयाब रहे | इसके बाद  १९८९ में वह लोक सभा चुनाव जीते | इसी दरमियान उन्होंने राज्य सभा के सभापति की कुर्सी संभाली | अस्सी का यही दशक था जब राजीव गाँधी के विश्वस्त सलाहकारों में उनकी गिनती की जाने लगी थी और शायद इसी निकटता के चलते वह रक्षा मंत्री भी उस दौर में बने |

 राजनीती के मैदान में कांग्रेस के भीतर तत्कालीन उत्तर प्रदेश में उनकी किसी से प्रतिद्वंदिता थी तो वह बेशक एन डी तिवारी और हेमवती नंदन बहुगुणा थे जिनके चलते वह यू पी के सी ऍम उस दौर में नहीं बन पाए | बाद में इसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया | तिवारी के साथ सम्बन्ध मधुर नहीं रहे जिसके चलते अपनी पत्नी इला पन्त को भाजपा की सदस्यता  एक दौर में उन्होंने दिला दी | यही नहीं ९० के उस दशक के दौरान वह खुलकर भाजपा  के चुनाव प्रचार में शामिल भी उस दौर में हुए थे | १९९8 का आम चुनाव पूरा देश नहीं भूल सकता | उस समय के सी की पत्नी इला पन्त ने नारायण दत्त तिवारी को सीधे  टक्कर दी जिसके चलते तिवारी को नैनीताल सीट से हाथ धोना पड़ा था | यही नहीं1991 में अगर तिवारी नैनीताल सीट बलराज पासी से जीत जाते तो शायद देश के प्रधान मंत्री होते | कई  बार तिवारी ने इस हार के बारे में लोगो से चर्चा की है जिसकी टीस आज भी बरकरार है | उस दौरान के सी ने बलराज के चुनावी प्रचार में अपना जलवा दिखाया था ।  

१९९८ में पन्त भाजपा में शामिल हो गए | वाजपेयी सरकार में दसवे वित्त आयोग के उपाध्यक्ष २०००-२००४ के दौरान रहे | वित्त आयोग के उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने अपने गृह राज्य उत्तराखंड के बजट पर खास ध्यान दिया | पंचवर्षीय योजना में उनके राज्यों के विकास मॉडल की आज उनके विरोधी भी सराहना करते हैं |  विकास को लेकर उनकी सोच बेहद सकारात्मक थी | नैनीताल के लिए उन्होंने झील संरक्षण के लिए करोडो का बजट उस दौर में मंजूर करवाया था | पहाड़ से उनका लगाव था शायद तभी कृषि कार्यो को बदावा देने के लिए पंतनगर में कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना उनके प्रयासों से हुई | उन्होंने राजनीती को साधन नहीं साध्य माना और उनकी कुशलता और सौम्यता उन्हें महान प्रशासक बनाती थी |
             

 
           पन्त ने बोफोर्स के मसले पर लोक सभा में राजीव गाँधी का जबरदस्त बचाव किया था | अगर आज के दौर में मनमोहन के सबसे बड़े ट्रबलशूटर प्रणव मुखर्जी हुआ करते  तो उस वी पी वाले दौर में राजीव गाँधी के सबसे विश्वासपात्रो में के सी पन्त हुआ करते थे | रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने श्रीलंका में शांति सेना की तैनाती, मालदीव में भारतीय सेना की तैनाती ,दमन दीव में भारत का पहला कोस्ट गार्ड स्टेशन स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया | पृथक तेलंगाना आन्दोलन उस दौर में उनकी सूझ बूझ और मध्यस्थता के चलते समाप्त हुआ था | प्रथम फ़्लेगशिपएयरक्राफ्ट आई एन एस विराट समेत मिग २९ को सेना में शामिल करने से लेकर पोखरण में देश के पहले परमाणु विस्फोट में उनका योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता |  उन्होंने रक्षा के अलावा केंद्र में गृह, वित्त, परमाणु उर्जा, विज्ञान , शिक्षा ,भारी इंजीनियरिंग मंत्रालय की जिम्मेदारी भी  कुशलता से निभायी |

पन्त साफगोई में यकीन करते थे | चाटुकारिता के चलन पर उन्हें यकीन नहीं था | वह अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने वाले लोगो में से एक थे | यह बहुत कम नेताओ में आज के दौर में देखने को मिलता है | राजनीतिक प्रतिद्वंदिताओ के चलते ही  उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया और भाजपा मे जरुर आये लेकिन पहाड़ और देश की प्रगति के लिये सदा तत्पर रहे | उन्होंने कभी अपने जीवन में समझोता नहीं किया भाजपा में आकर भी अपने स्वाभिमान के खातिर खुद को राजनीती से अलग कर लिया | इतिहास उन्हें ऐसे  नेता और प्रशासक के तौर पर याद रखेगा  जिसने  अपने बूते राजनीतिक जमीन तैयार की और अपनी अलग पहचान बनाई | इतना सब होने के बाद भी इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उनके निधन की खबरों से बेरुखी दिखाई | यही नहीं केंद्र सरकार द्वारा उनको राजकीय सम्मान के साथ विदा न किया जाना इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है |    

Friday, 9 November 2012

पहाड़ में पलायन का दर्द .............



                                   

उत्तराखंड के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ की बेरीनाग तहसील के निकट राईआगर निवासी कमला परेशान है । वह अपनी देली (आँगन ) में बिछौना बिछाये हुए त्योहारों के मौसम में अपने बेटे का इन्तजार कर रही है । इन्तजार इतना लम्बा  हो गया है कि राहगीरों का रास्ता देखते  देखते  अब पूरा दिन बीत जाता है । मगर बेटे को देखिये उसे अब  पहाड़ो के बजाए  महानगरो का  चकाचौंध इस दौर में ज्यादा रास आता है । शादी के बाद बेटा अपने गाँव का नाम तक भूल जाता है ।महानगरीय चकाचौंध की छाव तले अपनी लाइफलाइन खोजने वाली पहाड़ की इस नई  नवेली युवा पीड़ी के पास अब इतनी फुर्सत भी नहीं कि वह अपने बूढ़े माँ -बाप से मिलने एक दिन का  भी समय निकाल सके । वह आज अपनी जड़ो से कट से गए हैं और उन गलियों का दीदार भी नहीं कर पाते जिन गलियों में माँ बाप ने अंगुली  पकड़कर उन्हें चलना फिरना सिखाया और पढ़ा लिखाकर इस काबिल  बनाया कि उसे दो जून की रोजी रोटी मयस्सर हो सके । लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध तले उसे अब पहाड़ का कष्टप्रद जीवन रास नहीं आता । यह कहानी  उत्तराखंड के  एक गाव की नहीं बल्कि आज के दौर में हजारों गावो की सच्ची  कहानी बन  चुकी है जो पलायन के चलते आज धीरे धीरे खाली होने के कगार में खड़े हैं ।
                              
                                  पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती । बचपन में अपने मामा जी के मुह से सुना यह  जुमला आज पहाड़ो में सोलह आने सच साबित हो रहा है । माटी से मेरा लगाव आज भी बना हुआ है । भले ही महानगरीय चकाचौंध तले  हमारे देश का एक बड़ा तबका बड़े शहरों में अपना जीवन ज्यादा सुखी देखता है लेकिन दिल्ली,नोएडा ,गुडगाव सरीखे नगरो से इतर अपनी जन्मस्थली उत्तराखंड मुझे ज्यादा रास आती है ।पिछले कुछ महीनों से उत्तराखंड के गाँवों को देखने का अवसर मुझे मिला । इस दौरान वहां पर रहने वाले लोगो से मेरा सीधा संवाद भी हुआ लेकिन यह जानकार मन को बहुत पीड़ा हुई उत्तराखंड की हमारी आज की  नौजवान  पीड़ी  अपने गावो से लगातार कटती जा रही है ।रोजी रोटी की तलाश में घर से  निकला यहाँ का नौजवान  अपने बुजुर्गो की सुध इस दौर में नहीं ले पा रहा है ।यहाँ के गावो में आज बुजुर्गो की अंतिम पीड़ी रह रही है और कई मकान बुजुर्गो के निधन के बाद सूने हो गए हैं ।आज आलम यह है दशहरा , दीपावली ,होली सरीखे त्यौहार भी इन इलाको में उस उत्साह के साथ नहीं मनाये जाते जो उत्साह बरसो पहले  संयुक्त परिवार के साथ देखने को मिलता था । हालात  कितने खराब हो चुके हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है आज पहाड़ो में लोगो ने खेतीबाड़ी जहाँ छोड़ दी है वहीँ पशुपालन भी इस दौर में घाटे का सौदा बन गया है क्युकि वन सम्पदा लगातार  सिकुड़ती जा रही है और माफियाओ,कारपोरेट  और सरकार का काकटेल  पहाड़ो की सुन्दरता पर ग्रहण लगा रहा है ।पहाड़ो में बढ़  रहे इस पलायन पर आज तक राज्य की  किसी  भी सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया शायद इसलिए अब लोग दबी जुबान  से इस पहाड़ी राज्य के निर्माण और अस्तित्व को लेकर सवाल उठाने लगे हैं । 

आज उत्तराखंड बने 12 वर्ष हो गए हैं लेकिन यहाँ जल , जमीन और जंगल का सवाल जस का तस बना हुआ है । स्थाई राजधानी तक इन बारह वर्षो  में तय नहीं हो पाई  है । विकास की किरण देहरादून, हरिद्वार,हल्द्वानी  के इलाको तक सीमित हो गई है । नौकरशाही बेलगाम है तो चारो तरफ भय का वातावरण है । अपराधो का ग्राफ तेजी से  जहाँ बढ़ रहा है  वहीँ बेरोजगारी का सवाल सबसे बड़ा प्रश्न  पहाड़ के युवक के सामने  हो गया है  । बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी  समस्याओ से पहाड़ के लोग अभी भी जूझ रहे हैं ।अस्पतालों में दवाई तो दूर डॉक्टर तक आने को तैयार नहीं है । वहीँ जनप्रतिनिधि इन समस्याओ को दुरुस्त करने के बजाए अपने विधान सभा छेत्रो से लगातार दूर होते जा रहे हैं । उन्हें भी अब पहाड़ी इलाको के बजाए मैदानी इलाको की आबोहवा रास आने लगी है और शायद इसी के चलते राज्य  के कई नेता अब मैदानी इलाको में अपनी सियासी जमीन तलाशने लगे हैं ।राज्य में उर्जा प्रदेश, हर्बल स्टेट के सरकारी दावे हवा हवाई साबित हो रहे हैं ।जिस अवधारणा को लेकर उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी वह अवधारणा खोखली साबित हो रही है और शहीदों  के सपनो का उत्तराखंड अभी कोसो दूर है क्युकि  इस दौर की सारी  कवायद तो इस दौर में अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे  को नीचा दिखाने और कारपोरेट के आसरे विकास के चकाचौध की लकीर खींचने पर ही जा टिकी है जहाँ आम आदमी के सरोकारों से इतर  मुनाफा कमाना ही पहली और आखरी प्राथमिकता बन चुका  है । ऐसे में हमारे देश के गाँव विकास की दौड़ में कही पीछे छूटते जा रहे हैं और अपने उत्तराखंड की लकीर भी भला इससे अछूती कैसे रह सकती है जहाँ सरकारे पलायन के दर्द को समझने से भी परहेज इस दौर में करने लगी हैं ।    

Tuesday, 30 October 2012

हिमाचल के अखाड़े में चुनावी संग्राम .............








हिमाचल  प्रदेश में पश्चिमी विक्षोभ के कारण छाई  सर्द हवाओ ने भले ही मौसम ठंडा कर दिया हो लेकिन  राजनेताओ के  ताबडतोड़ चुनावी प्रचार पर इसका कोई असर नहीं है | राजधानी शिमला से लेकर कुल्लू मनाली और चंबा सरीखे इलाकों  तक विपरीत परिस्थितियों और प्रतिकूल मौसम के बावजूद  ठण्ड में भी प्रत्याशियों का चुनावी पारा सातवे आसमान पर है | टिकटों का घमासान थमने और नाम वापसी की तारीखों के ख़त्म होने के बाद अब सभी विधान सभाओ में चुनाव प्रचार तेज हो गया है और सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत चुनाव प्रचार  पर केन्द्रित कर दी है | जैसे जैसे मतदान की तिथि चार नवम्बर पास आती जा रही है वैसे वैसे हिमाचल की शांत वादियों में चुनावी सरगर्मियां  तेज होती जा रही हैं |

 राज्य में दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के बीच इस बार भी मुख्य जंग  है लेकिन बड़े पैमाने पर इन दोनों दलों के बागी प्रत्याशियों के मैदान में होने से हिमाचल लोक हित पार्टी जैसे छोटे दलों की पौ बारह होती दिखाई दे रही है जिसमे कई अन्य दल शामिल होकर तीसरे मोर्चे का विकल्प राज्य में पेश करने का एक प्रयास करते देखे जा सकते है | राज्य में मुकाबले में यूँ  तो भाजपा और कांग्रेस मुकाबले में बराबरी पर बने हैं लेकिन जिस  तरीके से इस दौर में दोनों दलों  में टिकट के लिए नूराकुश्ती देखने को मिली उसने राज्य के आम वोटर को भी पहली बार परेशान किया हुआ है और पहली बार इस ख़ामोशी के मायने किसी को समझ नहीं आ रहे है जिससे आलाकमान के सामने बड़ी मुश्किलें आ रही है | सभी दलों के नेता अब चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में स्टार प्रचारकों के आसरे हिमाचल को फतह करने के मंसूबे पालने लगे हैं | जहाँ यू पी ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने २२ अक्टूबर को कांगड़ा और मंडी में बड़ी रैली कर भाजपा  की धूमल सरकार को ललकारा  तो वहीँ राज्य के मुख्यमंत्री धूमल  तो तीन महीने पहले से ही अपने "मिशन रिपीट " में पूरी शिद्दत के साथ जुटे  हुए हैं |  "कहो दिल से धूमल फिर से " यही वह नारा है जिसके बूते भाजपा अपने ताबड़तोड़ चुनावी प्रचार को स्टार प्रचारकों के बूते कैश कराना चाहती है | अन्य दल भी अपने चुनाव प्रचार में पीछे नहीं हैं लिहाजा माया से लेकर ममता अगर हिमाचल के अखाड़े में अपने लिए सम्भावनाये तलाश रहे हैं तो इस चुनाव के मायने समझे जा सकते हैं | आने वाले कुछ दिनों में यहाँ पर इनकी कई बड़ी सभाए भी होनी हैं |

                  हिमाचल में सत्तारूढ़ भाजपा किसी भी कीमत पर अपने हाथ से सत्ता को फिसलते हुए नहीं  देखना चाहती है | इसके लिए वह पिछले कुछ समय से एड़ी चोटी का जोर लगाये हुए है | मुख्यमंत्री धूमल देर रात तक प्रदेश में अपनी सभाए कर कांग्रेस को निशाने पर ले रहे हैं | हाल ही में सोलन की एक सभा में धूमल ने केन्द्र सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा कि अब केन्द्र सरकार ने कबाड़ खाना भी शुरू कर दिया है |उनका इशारा साफ तौर पर इस्पात मंत्रालय  की तरफ था  जिसकी कमान अभी कुछ समय पहले तक वीरभद्र सिंह के हाथो में  थी | भले ही इस सभा में उन्होंने वीरभद्र का नाम सीधे तौर पर नहीं लिया लेकिन इशारो इशारो में उन्होंने वीरभद्र पर अपने तीर छोड़ ही दिए | वहीँ वीरभद्र कहा चुप बैठते उन्होंने खुद के पाक साफ़ होने का सर्टिफिकेट तक जारी कर दिया | बिझनी की एक  चुनावी सभा में उन्होंने भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए पैसे लेकर उनके खिलाफ साजिश रचने के आरोप मढ़ दिया तो कुल्लू में मीडिया कर्मियों के साथ अपने किये पर शर्मिंदगी व्यक्त की और माफ़ी मांगी | गौरतलब है कि अभी कुछ दिनों पहले भ्रष्टाचार के मसले पर पत्रकारों के साथ उनकी सीधी झड़प हुई थी जिसके बाद एक चैनल के पत्रकार के सवाल पर वह झल्ला  उठे थे और आपा खोकर यह कहते हुए पाए गए थे कि वह उसका कैमरा फोड़ देंगे | ऊपर का यह वाकया  ये बताने के लिए काफी है कि इस बार हिमाचल के चुनाव में आम आदमी के  सामने सत्तारूढ़ भाजपा की एंटी इनकम्बेंसी से ज्यादा चिंता केन्द्र सरकार के द्वारा बढाई गई परेशानियाँ ज्यादा हैं | 

मसलन राज्य का वोटर केन्द्र सरकार की महंगाई ,भ्रष्टाचार ,घरेलू  गैस की सब्सिडी खत्म करने , ऍफ़  डी आई जैसे मुद्दों से ज्यादा परेशान दिख रहा है जिसने एक तरीके से आम आदमी की कमर तोड़ने का काम किया है  | वहीँ राज्य की कांग्रेस सरकार में जारी भारी  गुटबाजी और भ्रष्टाचार पर वीरभद्र के  विरोध के चलते भाजपा जरुर बमबम है | लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के बारे में हाल में हुए भ्रष्टाचार के खुलासो से उसकी लड़ाई भी कही न कही कमजोर नजर आ रही है | फिर भी बीते समय में धूमल सरकार ने हिमाचल में विकास की जो नई बयार बहाई है वह  आम जनता में एक सकारात्मक सन्देश देने में कामयाब भी  हुई है |किसानो के लिए शुरू की गई  दीनदयाल किसान योजना , अटल स्वास्थ्य योजना , अटल बचत योजना , अटल स्कूल यूनिफार्म योजना और  कर्मचारियों के एक बड़े वोट बैंक को ध्यान में रखकर शुरू की गई करोडो की दर्जन भर से ज्यादा योजनाये  धूमल के पिटारे में है जिसे वह जनता के बीच विकास की एक नई बयार के रूप में पेश करते नजर आ रहे हैं और यही लकीर है जिसके आसरे वह कांग्रेस के सामने एक नई नजीर पेश करते नजर आ सकते हैं |

 भाजपा ने राज्य में ६८ में से तकरीबन ४५ सीटो पर अपने प्रत्याशियों का ऐलान सबसे पहले कर कांग्रेस से मनोवैज्ञानिक तौर पर बढ़त  तो ले ही ली है  लेकिन हिमाचल में बगावत के फच्चर ने ऐसा पेंच भाजपा के सामने फसाया है जिससे पार पाने की बड़ी चुनौती  अब धूमल के सामने खड़ी हो गई है | ऊपर से शांता कुमार के साथ उनके छत्तीस  के आंकड़े ने भाजपा की रातो की नीद उड़ाई हुई है |

                                     

 हर बार के  चुनाव की तरह इस बार भी अब राज्य में कांगड़ा का इलाका सबके लिए महत्वपूर्ण हो चला है क्युकि यहाँ की तकरीबन २० सीटें प्रत्याशियों के जीत हार के गणित को सीधे प्रभावित करने का माद्दा रखती हैं | यह पूरा इलाका भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह जनपद रहा है लेकिन इस बार टिकट आवंटन में धूमल कैम्प और शांता कैम्प में टशन देखने को मिली |यह कोई पहला मौका नहीं है जब दोनों कद्दावर नेता आमने सामने आ गए | अतीत के पन्ने टटोलें तो दोनों के बीच यह तकरार नब्बे के दशक से उनका पीछा नहीं छोड़ रही है | मुख्यमंत्री  बनाये जाने को लेकर दोनों में  उसी दौर से एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ देखी जा सकती है लेकिन  ज्वालामुखी से निकला लावा आज भी इनका पीछा नहीं छोड़ रहा है | मौजूदा दौर में भी धूमल और शांता के बीच विवाद की बड़ी  जड़ कांगड़ा ही बना हुआ है | 

दरअसल ज्वालामुखी के इलाके में शांता के समर्थक रमेश धवाला के चुनावी  इलाके में परिसीमन का फच्चर ऐसा फसा कि उनकी विधान सभा के कई इलाके देहरा सीट का हिस्सा हो गए जबकि धूमल के बेहद करीबी रविन्द्र  रवि के  इलाके का अस्तित्व पूरी तरह लगभग समाप्त हो गया |थुरल का बड़ा हिस्सा देहरा में चले जाने के कारण इस दौर में टिकट आवंटन से पूर्व रवि टिकटों के जोड़ तोड़  में ही उलझे रह गए तो धवाला ज्वालामुखी से ही टिकट की मांग करने लगे | बाद में गडकरी की अदालत में फैसला आने के बाद रवि को देहरा से और धवाला को ज्वालामुखी से ही टिकट मिला | लेकिन इस मसले ने दिखा दिया कि धूमल कैम्प और शांता कैम्प किस तरह इस चुनाव में एक दुसरे को नीचा दिखाने की कोशिशे की  | भाजपा ने इस चुनाव में जहाँ रूप सिंह ठाकुर का पत्ता पूरी तरह काट दिया वहीँ डाक्टर राजन सुशांत की पत्नी सुधा को भी भाव नहीं दिया |इस बार के चुनावो में सत्ता के गलियारों में यह चर्चा आम है कि कांगड़ा में टिकट आवंटन में भाजपा आलाकमान ने  शांता कुमार को पूरी तरह से फ्री हैण्ड दिया जिसके चलते वह धूमल कैम्प को पटखनी देने में पूरी तरह कामयाब नजर आये हैं |

 शांता के भारी  दबाव का असर धूमल के चेहरे पर इस बार साफ़ झलक  रहा था जब वह अपने खासमखास राकेश पठानिया को टिकट नहीं दिलवा सके जो निर्दलीय ही अब मैदान में ताल ठोकते नजर आ रहे हैं |ज्वालामुखी के इलाके से प्रदेश भाजपा के औद्योगिक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष संजय गुलेरिया का टिकट शांता  कुमार ने इसलिए काट दिया क्युकि उनकी गिनती धूमल के सिपहसालारो में की जाने लगी थी |हालाँकि शांता पहले उनके लिए टिकट सर के बल लाने का दावा कर रहे थे |नूरपुर से कद्दावर नेता और राज्य के पर्यटन मंत्री रहे राकेश  पठानिया का भी इस चुनाव में पत्ता साफ़ शांता ने कर दिया | उन्हें भी टिकट न मिलने से उनके समर्थको के हाथ निराशा लगी है | गंगथ में भी शांता ने मनोहर धीमान को टिकट  देने का वादा पहले किया था लेकिन ऐन मौके पर रीता धीमान को प्रत्याशी बनाकर शांता ने दिखा दिया है कि धूमल पार्टी से बड़े नहीं हैं | दोनों के बीच यह तकरार कही भाजपा का पूरा खेल ही इस चुनाव में ना बिगाड़ दे |

 आज भाजपा को बागियों से कई सीटो पर तगड़ी चुनौती  मिल रही है | शान्ता कुमार के मन में अभी भी मुख्यमंत्री बनने के सपने हैं शायद इसलिए वह टिकट देने में अपने चहेतों का ध्यान रख रहे थे और समय समय पर धूमल सरकार को डेमेज करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ रहे थे | बताया जाता है उन्होंने पहले पार्टी आलाकमान  के सामने हिमाचल  में चुनाव प्रचार में  नहीं भेजे जाने को लेकर गुहार लगाई बाद में वह कांगड़ा में अपने प्रत्याशियों के लिए जोर लगाने में लग गए |

 इस बार मौका ऐसा भी आया जब उन्होंने पार्टी छोड़े जाने तक की धमकी दे डाली लेकिन आलाकमान के दखल के चलते वह ऐसा कुछ भी नहीं कर सके जिससे भाजपा के लिए राज्य में मुश्किलें खड़ी हो जाए | शांता कुमार और धूमल की टशन देखकर उत्तराखंड की याद आती है | उत्तराखंड में शांता की भूमिका में जहाँ भगत  सिंह कोशियारी  एक दौर में खड़े थे वहीँ धूमल की भूमिका में खड़े थे  बी सी खंडूरी  | दोनों के बीच टशन से राज्य में भाजपा सरकार  अस्थिर हो गई थी | बाद में दोनों की लड़ाई का फायदा निशंक को मिला था जिसके बाद भ्रष्टाचार के मामलो ने निशंक  की  बलि ले ली थी  और इसका नतीजा यह हुआ  उत्तराखंड में  7 माह  पूर्व  हुए चुनावो में भाजपा खंडूरी के नेतृत्व में अच्छा परफार्म  कर गई लेकिन सत्ता में नहीं आ पायी |

 तो क्या माना जाए  हिमाचल भी शान्ता और धूमल की बगावत के चलते उसी लीक पर जाता दिख रहा है | राजनीती में कुछ भी सम्भव है और हिमाचल  और उत्तराखंड की परिस्थितियां  भी कमोवेश एक जैसी ही है लिहाजा इस सम्भावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता अगर यही कलह जारी रहती है तो भाजपा को नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना होगा | 

                   
      
 वहीँ कांग्रेस के सामने भी भाजपा जैसी मुश्किलें इस दौर में राज्य के भीतर हैं | मंडी में डी डी ठाकुर को उम्मीदवार  बनाये जाने से कांग्रेस के कई नेता नाराज बताये जा रहे है |ऊपर से वीरभद्र  पर  भ्रष्टाचार के नए नए मामले कार्यकर्ताओ का जोश ठंडा कर रहे है | वैसे भी  केन्द्र की  यू पी ए सरकार के मंत्री इस मसले पर सरकार की हर रोज छिछालेदारी करने में लगे हुए हैं | वीरभद्र सिंह के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोपों की फुलझड़ी जलाए जाने से कार्यकर्ता हताश और निराश हो गए है | इसका असर यह है कि तकरीबन  आधी  विधान सभा की सीटो पर कांग्रेस को बागियों से कड़ी चुनौती  मिलने का अंदेशा बना है |

कांग्रेस की मुश्किल इसलिए भी असहज हो चली है क्युकि यहाँ इस चुनाव में कांग्रेस में गुटबाजी ज्यादा बढ़ गई है | वीरभद्र सिंह का यहाँ पर एक अलग गुट सक्रिय है तो वहीँ नेता प्रतिपक्ष  विद्या  स्टोक्स  , पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर और केन्द्रीय मंत्री आनंद शर्मा की राहें भी जुदा जुदा लगती हैं | मेजर विजय सिंह मनकोटिया  को वीरभद्र सिंह  ने शाहपुर से टिकट तो थमा दिया है लेकिन वह आज भी वीरभद्र सिंह के कैम्प से बाहर ही  बताये जा रहे है | दोनों के बीच रिश्ते पुराने दौर जैसे ही बने हैं | हालाँकि इस बार टिकट आवंटन में वीरभद्र ने अपना सिक्का चलाया है लेकिन भ्रष्टाचार  के आरोप और सी डी  कांड ने पार्टी के कद्दावर  नेताओ की सियासत पर ग्रहण सा लगा दिया है | कौल सिंह ठाकुर खुद अपने नेतृत्व में चुनाव लड़ने के इच्छुक थे लेकिन वीरभद्र ने उनके रास्ते में  खुद रोड़ा अटका दिया है |

 आनंद शर्मा से कभी उनके मधुर सम्बन्ध थे लेकिन उनको  भी अब केन्द्र की राजनीती ज्यादा पसंद आने लगी है लिहाजा राज्य में कांग्रेस की डूबती नैया की  तरफ उनका ध्यान नहीं जा पा रहा है | भाजपा और कांग्रेस से इतर अब सबकी नजरें इस चुनाव में महेश्वर सिंह और उनकी पार्टी हिमाचल लोक हित पार्टी पर जा टिकी है | हाल ही में उन्होंने बीजेपी के कई कार्यकर्ताओ को तोड़कर अपनी पार्टी में जोड़ा है साथ में श्याम शर्मा और महेंद्र सोफत के साथ आने से उनकी पार्टी को एक तरह से मजबूती मिली है |

महेश्वर की असली ताकत इस चुनाव में कांगड़ा में दिख सकती है जहाँ कांग्रेस और भाजपा को तगड़ी चुनौती  मिलने का अंदेशा है क्युकि यह पूरा इलाका महेंद्र का गढ़ रहा है |साथ ही कुल्लू के इलाकों में भी उनका जादू चल सकता है |इन इलाकों में एंटी इनकम्बेंसी भी एक बड़ा फैक्टर  है और महेश की शांता कुमार के साथ नजदीकिया भी सबका ध्यान इस चुनाव में खीच  रही  है | अगर महेश का जादू इन इलाकों में चल गया तो धूमल की मुश्किलें बदनी तय है | 
                              

कांग्रेस के लिए भी यह खतरे की घंटी है | हिमाचल का यह ट्रेंड पिछले समय से देखने तो मिला है कि यहाँ बारी बारी से भाजपा और कांग्रेस सत्ता में आते रहे हैं | १९७७ के बाद सिर्फ एक बार १९८५ में यहाँ पर कांग्रेस की वापसी हुई | कांग्रेस में यहाँ  यशवंत सिंह परमार १९५२ से १९७७ तक सी ऍम रहे तो ठाकुर रामलाल ने १९७७ से १९८२ तक सी ऍम की कमान संभाली| परमार के शासन का सबसे सुनहरा दौर हिमाचल में कांग्रेस के नाम रहा है शायद इसी के चलते आज जब सबसे अच्छे मुख्यमंत्रियों की बात की जाती है तो सबकी जुबान पर परमार का ही नाम आता है और लोग यह कहने लगते है उन्हें यशवंत परमार जैसा मुख्यमंत्री चाहिए |

 वीरभद्र १९८३ में सी ऍम बने  | १९९० में शांता कुमार की सरकार आई तो १९९३ में फिर वीरभद्र | इसके बाद १९९८ में धूमल मुख्यमंत्री हुए तो २००३ में वीरभद्र फिर से मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे | पिछले विधान सभा चुनावो में भाजपा ने जहाँ ४1  सीटें जीती वही कांग्रेस २३ पर सिमट कर रह गई थी |  उस चुनाव में ३ निर्दलीय प्रत्याशी भी चुनाव जीते थे |  लेकिन इस बार के हालत भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए मुश्किलों भरे हैं क्युकि दोनों दल बागियों को मनाने के लिए मान मनोवल करते देखे जा सकते हैं | 

                प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों ने आखिरी दम तक बागी प्रत्याशियों को मनाने की कोशिश की लेकिन कई सीटों पर बागी उम्मीदवारों ने पार्टी प्रत्याशियों की मुसीबत बढ़ा दी है। भाजपा सरकार के वरिष्ठ नेता रूप सिंह ठाकुर सुंदरनगर से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में हैं वहीं कांग्रेस के विधायक योगराज देहरा से आजाद प्रत्याशी के रूप में डटे हैं। रूप सिंह भाजपा के कद्दावर नेता हैं और कई बार विधायक एवं मंत्री भी रहे हैं। सांसद राजन सुशांत की पत्नी सुधा सुशांत फतेहपुर से, जयसिंहपुर से रवि धीमान, सुजानपुर से राजेंद्र राणा, कांगड़ा से पवन कुमार काजल, धर्मशाला से कमला पटियाल, सोलन से एचएन कश्यप, अर्की से आशा परिहार, बल्ह से महंत राम चौधरी, दून से दर्शन सैनी, कुसुम्पटी से दिनेश्वर दत्त, भटियात से भूपिंद्र सिंह चौहान, जवाली से संजय गुलेरिया, शिमला से तरसेम भारती व इंदौरा से मनोहर लाल धीमान भी डटे हैं।

 कांग्रेस के ऊना से ओपी रत्न, कांगड़ा से डॉ. राजेश शर्मा, कोटकहलूर से होशियार सिंह, कसौली से राम स्वरूप, बिलासपुर से जितेन्द्र चंदेल व केडी लखनपाल, बैजनाथ से ऊधो राम, करसोग से मस्त राम, सिराज से चेतराम, घुमारवीं से कश्मीर सिंह व राकेश चोपड़ा, पांवटा से किरनेश जंग, मनाली से धर्मवीर धामी, आनी से ईश्वर दास, इंदौरा से मलेंद्र राजन, कुल्लू से पूर्व मंत्री सत्य प्रकाश ठाकुर की पत्नी प्रेमलता ठाकुर व भरमौर से महेंद्र ठाकुर भी मैदान में हैं।अब नाम वापसी के बाद यह आलम है कि विधान सभा इलाको में बागियों के असर को कम करने में हिमाचल के अखाड़े में दोनों दल अपना मनेजमेंट करने में सिरे से जुट गए हैं |
                                                              
 वैसे हिमाचल के इस बार के विधान सभा चुनावो में बागियों से पार पाना  भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए आसान नहीं दिख रहा | अगर बागी सफल हो जाते हैं तो यह भाजपा और कांग्रेस सरीखे दलों के हाथ सत्ता फिसलने में देरी नहीं लगेगी और ऐसे हालातो में स्थितिया उत्तराखंड जैसे बनने का अंदेशा बना है जहाँ खंडूरी खुद तो चुनाव हार गए लेकिन भाजपा को उन्होंने करारी हार से बचा लिया लेकिन  पार्टी कांग्रेस से एक सीट कम ही ला सकी जिसके बाद निर्दलियो को साथ लेकर कांग्रेस सत्ता की दहलीज पर विजय बहुगुणा के नेतृत्व में पहुची थी | अगर हिमाचल में भी ऐसा ही होता है तो यहाँ भी सत्ता की चाबी इन्ही बागियों के हाथ रहेगी | अब देखना है हिमाचल के इस चुनाव में कहो धूमल का नारा चलता है या यह औंधे मुह गिरता है |  फिलहाल इसके लिए  २० दिसम्बर  का इन्तजार करना होगा  |