Friday, 22 February 2013

बजट सत्र के आसरे यू पी ए छेड़ेगी चुनावी तान

जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़कर भाजपा की मुश्किलों को बढाने का ना केवल काम किया बल्कि आर एस एस को भी पहली बार गृह मंत्री के खिलाफ मोर्चाबंदी कराने को मजबूर कर दिया । इसका असर यह हुआ भाजपा ने शिंदे के खिलाफ ना केवल जगह जगह प्रदर्शन  कर उन्हें बयान वापस लेने या फिर भगवा आतंकवाद के खिलाफ सबूत पेश करने की चुनौती  ही  दे डाली । बाद में गृह मंत्री के इस बयान के असर को कांग्रेस ने देर से भांपा और सोनिया की सलाह पर इससे अपने को अलग कर बयान  से कन्नी ही  काट ली ।  हालाँकि दिग्गी राजा, मणि शंकर और हरीश रावत सरीखे खांटी कांग्रेसी नेताओ ने शिंदे की तारीफों में कसीदे पढ़ हमेशा की तरह मुस्लिम वोटरों की बांछें ही खिलाई ।

मौजूदा बजट सत्र से ठीक पहले शिंदे  ने जिस अंदाज में भाजपा के सामने माफ़ी मांगी है  उससे कई सवाल खड़े हुए हैं । मसलन क्या मौजूदा संसद के बजट सत्र  के पहले भाजपा के तगड़े विरोध और सदन के बहिष्कार के चलते तो यह कदम नहीं उठाना पड़ा है ? अगर भगवा आतंक और संघ के खिलाफ ठोस सबूत गृह मंत्रालय के पास पहले से ही थे तो शिंदे उन्हें सामने लाने से क्यों कतरा रहे थे ? क्या भगवा आतंक के आसरे आगामी लोक सभा चुनावो में यू पी ए सरकार अपना जनाधार बचाने की कोशिश कर रही है ? जेहन में यह सारे सवाल इसीलिए कौंध रहे हैं क्युकि पहली बार भाजपा के हिंदुत्व के मसले पर वापस  लौटने और नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति की कमान सौंपने के मद्देनजर कांग्रेस भी संघ की मांद में घुसकर हिन्दुत्व को न केवल अपने अंदाज में  आइना दिखा रही है वरन  कसाब ,अफजल सरीखे मुद्दों को लपककर अपने को भाजपा से बड़ा राष्ट्रवादी बताने पर तुली हुई है और शिंदे, दिग्गी और मणिशंकर सरीखे नेताओ को आगे कर भाजपा से दो दो हाथ करने की ठान रही है और इन सबके बीच शिंदे की माफ़ी के बाद भाजपा ने राहत ली है । कांग्रेस भी इससे बमबम है क्युकि अगर शिंदे माफ़ी नहीं मांगते तो शायद इस बार का बजट सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ जाता । तो क्या माना जाए इस बार बजट सत्र अब हंगामे की भेंट नहीं चढ़ेगा ? लगता ऐसा नहीं है क्युकि लोक सभा चुनावो से ठीक पहले  यह चुनावी बजट केंद्र सरकार के लिए न केवल अहम हो चला है बल्कि विपक्ष भी बहस के लिए उन  55 बिलों पर नजर गढाए बैठा है जो  इस सत्र में पारित होने हैं जिसमे सोनिया के भूमि अधिग्रहण , लोकपाल, खाद्य सुरक्षा और महिला आरक्षण सरीखे ड्रीम बिल   शामिल हैं जो २०१४ के लोक सभा चुनावो से पहले कांग्रेस की चुनावी वैतरणी पार लगा सकते हैं लेकिन यू पी ए के सहयोगियों का इन तमाम बिलों पर गतिरोध अभी भी बना हुआ है और उसके  सभी सहयोगियों को साथ लेकर चलने की मजबूरी कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती  इस समय बनी हुई है क्युकि शिमला , पचमढ़ी के बाद हाल में राहुल के जयपुर में ट्रेलर के बाद गठबंधन की लीक पर कांग्रेस के चलने के संकेत तो अभी से मिल ही रहे हैं और इस बात की गुंजाइश तो दिख ही रही है वह सहयोगियों को साथ लेकर ही किसी बिल को अमली जामा पहनाएगी ।


इस सत्र के दौरान कई गंभीर मसलो पर हमें चर्चा देखने को मिल सकती है । सत्ता पक्ष  को विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए  खुद को तैयार करना  पड़ सकता है और अगर कहीं चूक हो गई तो विपक्ष इसे बड़ा मुद्दा बनाकर कांग्रेस की चुनावी वर्ष में चिंता बढ़ा सकता है । वैसे संसदीय राजनीती में यह तकाजा है हर मुद्दे पर सदन में बहस होनी चाहिए लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे देश में संसद का हर सत्र शोर शराबे और हंगामे की भेंट ही चढ़ता  जा रहा है जो लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण  है । यू पी ए २ के पिछले बारह सत्रों में ५००  घंटे से भी  कम काम हुआ है । ज्यादातर दिनों में या तो वाक आउट हुआ है  या बिना चर्चा हुए बिल सदन के पटल पर ना केवल रखे गए हैं बल्कि पारित भी हुए हैं । यह सब देखते हुए इस बार शोर शराबे का अंदेश तो बना ही है क्युकि सदन में राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान हमें विपक्षियो के मिजाज को देखकर बहती हवा का पुराना रुख दिख रहा है लेकिन शिंदे की मांफी के बाद यह उम्मीद तो बनी है इस सत्र में सदन का कामकाज सुचारू रूप से चलेगा ।


 वेस्टलैंड हेलीकाप्टर सौदा इस सत्र में कांग्रेस के लिए परेशानी पैदा कर सकता है । हालाँकि कांग्रेस ने सी बी आई से निष्पक्ष जांच की मांग दोहराई है लेकिन दिल से कांग्रेस इस मामले को लटकाना ही चाहती है वहीँ  भाजपा के जसवंत सिंह द्वारा त्यागी बन्धुओ के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर भाजपा के नीति नियंताओ पर भी सवाल उठा रहा है क्युकि उस दौर को अगर याद करें तो सौदे को अमली जामा पहनाने की कोशिशें एन डी ए के शासन में ही शुरू हुई थी । जो भी हो सी मामले की सच्चाई देश के सामने आनी  चाहिए ।  केवल रक्षा मंत्री के इस्तीफे के नाम पर सदन में हंगामा करना और कार्यवाही बाधित करना ठीक नहीं है । इसके अलावा कोयला घोटाला इस बार भी सदन में उठने का अंदेशा बना हुआ है । इसके तार अजय संचेती से लेकर गडकरी और कांग्रेस नेता प्रकाश जाय सवाल से लेकर कई नेताओ के नाते रिश्तेदारों तक जा रहे हैं और सरकार की जांच ठन्डे बसते   में चली गई है लिहाजा एक बहस की सदन को जरुरत महसूस हो रही है । वही कैग पर सवाल उठाकर कांग्रेस ने एक बार फिर विपक्षी दलों को एक बड़ा मुद्दा दे दिया है । विपक्ष कह रहा है इस सरकार को संवैधानिक संस्थाओ पर कोई भरोसा नहीं रह गया लिहाजा वह उनके पर कतरने की तैयारी में है ।  इधर महंगाई का मुद्दा भी लम्बे समय से आम आदमी को परेशान  कर रहा है । अगर इस पर सदन में बहस होती है तो गंभीर चर्चा की नौबत आ सकती है । यह बेहद निराशाजनक है केंद्र सरकार  अपने दूसरे कार्यकाल में महंगाई दर पर अंकुश लगाने में नाकामयाब रही है । सरकार  कहती है इसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय बाजार जिम्मेदार है लेकिन महंगाई पर यह कोई ठोस उत्तर नहीं है । माना जाता है खाद्य वस्तुओ की बड़ी कीमत के पीछे तेल की बड़ी कीमतें जिम्मेदार हैं लेकिन अब तो तेल की कीमतें घट चुकी हैं । फिर भी ना जाने क्यों यह सरकार कॉरपरेट पर दरियादिली दिखा रही है । आम आदमी को तो सब्सिडी नसीब नहीं हो रही है लेकिन कॉर्पोरेट के आगे यह  सरकार पूरी तरह नतमस्तक है ।   
     यह सवाल यू पी ए से  है आखिर क्यों वह ऐसी नीतियां बनाने में नाकामयाब रही है जिससे हम खाद्यान्न सेक्टर में आत्मनिर्भर हो सकें जबकि वह लगातार ९ वर्षो से सत्ता में बनी हुई है ? इस सत्र में महिला आरक्षण का मसला सदन में फिर से गूंज सकता है । सोनिया ने जिस तरह इसमें रूचि दिखाई है उससे एक बार फिर उम्मीद  नजर आती है लेकिन लालू, मुलायम, माया सरीखे लोग इस पर कैसे राजी होंगे यह अपने में एक बड़ा सवाल जरुर है । महिलाओ की सुरक्षा के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों पर सरकार इसी सत्र में मुहर लगा सकती है । चुनावी वर्ष में दामिनी की मौत और लुटियंस की   दिल्ली में  भारी " फ्लेश माब " का जो कलंक यह यू पी ए सरकार  झेल रही है वह कठोर कानून के जरिये इसे दूर करना चाहती है । महिलाओ की सुरक्षा को लेकर सरकार पहली बार संवेदनशीलता का परिचय दे रही है । वहीँ  लोकपाल का मसला ऐसा है जिस पर यू पी ए की बीते दो बरस से खूब किरकिरी हुई है । पहली बार भ्रष्टाचार के मसले पर उसे इस मसले पर सिविल सोसाईटी से सीधे चुनौती  मिली है । छह राज्यों के विधान सभा चुनावो से ठीक पहले वह एक लोकपाल लाकर चुनावी राह खुद के लिए आसान करना चाहेगी । इस बार के सत्र में सभी की नजरें चिदंबरम और पहली बार रेल बजट ला रहे पवन बंसल पर भी टिकी रहेंगी  । चुनावी साल में दोनों अपने तरकश से आम आदमी को लुभाने की पूरी कोशिश करेंगे । मूल्य वृद्धि और किराये बढाने के बजाए सारा  ध्यान इस दौर में अब आम आदमी की तरफ ही रहेगा क्युकि आम आदमी का हाथ कांग्रेस अपने साथ मानती रही  है । यह अलग बात है संसद से इतर सड़क में केजरीवाल आम आदमी के नाम पर पार्टी बनाकर इस दौर में न केवल कांग्रेस को चुनौती  दे रहे हैं बल्कि वाड्रा से लेकर सलमान खुर्शीद और शीला दीक्षित से लेकर भाजपा की मुश्किलें चुनावी साल में बढ़ा रहे हैं । चिदंबरम इन सबके बीच चुनावी मौसम में जनता के बीच चुनावी बौछार  कर मनमोहनी बजट पेश कर सकते हैं । अल्पसंख्यको और दलितों के लिए जहाँ चुनावी साल में यह सरकार  कोई बड़ा फैसला ले सकती है वहीँ  सस्ती ब्याज दरो को करने और आम आदमी को सस्ती  कार , मकान खरीदने के लिए दिए जाने वाले ऋण की शर्तें आसान करने की दिशा में भी कदम बढ़ा सकते हैं ताकि एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभाया जा सके । वहीँ किसानो के लिए कोई बड़ा पैकेज  इस दौर में मिलने की उम्मीद दिख रही है ताकि उन्हें भी खुश किया जा सके और मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर उन्हें भी नचाया जा सके । यह अलग बात है खेती बाड़ी आज घाटे का सौदा बन चुकी है । बीते ९ बरस में तीन लाख से ज्यादा किसानो ने आत्महत्या की है । सब्सिडी या बिजली उर्वरक में छूट देकर उनका भला नहीं होने जा रहा । वहीँ बेरोजगारों के लिए इस सत्र में बजट के बहाने नौकरियों का बड़ा पिटारा खुल सकता है । अभिभाषण में प्रणव के संकेत इसकी कहानी  को बखूबी बया  कर रहे हैं ।

कुल मिलकर  यू पी ए २ के केन्द्रीय बजट के रंग लोक सभा चुनावो की बिसात  में पूरी तरह सरोबार होने के आसार हैं और इसी के आसरे यू पी ए २ बजट सत्र में  चुनावी तान  छेड़ेगी इससे भी हम नहीं नकार सकते । देखना होगा क्या इस बार बजट सत्र शांतिपूर्ण ढंग से निपटता है ?

Tuesday, 19 February 2013

खतरे की वार्निंग ग्लोबल वार्मिंग ........

 

बीते दिनों  उत्तराखंड  की धर्म नगरी हरिद्वार में अपना जाना हुआ । इलाहाबाद में मित्रो के लाख अनुनय विनय के बाद भी  महाकुम्भ में नहीं जा सका लेकिन हरिद्वार जाकर गंगा में डुबकी लगाई । वहां  गंगा की स्थिति को देखकर काफी दुःख हुआ । करोडो रुपये गंगा की साफ़ सफाई में फूंकने के बाद भी आज गंगा नदी में प्रदूषण की समस्या गंभीर हो गई है |


केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत के संसदीय इलाके में गंगा के नाम पर करोडो रुपये पानी की तरह बहा दिए गए हैं लेकिन फिर भी गंगा मईया की तस्वीर नहीं बदल पायी है ।   गंगा के घाटो का करीब से मुआयना किया तो पता चला लोग गंगा के प्रदूषित पानी से आचमन किये जा रहे थे । हरिद्वार से आगे चलकर  गढ़वाल और फिर कुमाऊ के कुछ जिलो का भ्रमण किया तो पता चला कि उत्तराखंड में मौसम लगातार बदल रहा है । कभी अचानक मौसम में ठंडक आ जाती है तो कभी अचानक गर्मी । हालत इस कदर बेकाबू हो चले हैं जाड़े  के मौसम में गर्मी पड़ रही है और गर्मी का आगमन सही ऋतु में नहीं हो पा रहा । राज्य में कृषि और बागवानी भी इस मौसम के बदलते मिजाज से सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है ।  प्राकृतिक जल स्रोत जहाँ सूखते  जा रहे हैं वहीँ राज्य के कई इलाको में गंभीर जल संकट है । यह स्थिति तब है जब  राज्य को देश का वाटर टैंक कहा जाता है । 

ऊपर की यह तस्वीर  अकेले उत्तराखंड की नहीं पूरे देश और शायद विश्व की बन चुकी है क्युकि पिछले कुछ वर्षो से मौसम का मिजाज लगातार बदलता ही जा रहा है । गर्मी का मौसम शुरू होने को है लेकिन कही भीषण ओला वृष्टि  हो रही है तो कही भारी बर्फबारी और मूसलाधार  बारिश । जब गर्मी होनी चाहिए तब ठण्ड लग रही है जब ठण्ड  पड़नी  चाहिए तो गर्मी लग रही है जो   यह बतलाता है मौसम किस करवट पूरे विश्व में बैठ रहा है ? सुनामी, कैटरीना, रीटा, नरगिस आदि परिवर्तन की इस बयार को  पिछले कुछ वर्षो से  ना केवल बखूबी बतला रहे है बल्कि  गौमुख , ग्रीनलैंड, आयरलैंड और अन्टार्कटिका में लगातार पिघल रहे ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्निंग की आहट को  करीब से  महसूस भी कर रहे हैं ।  इस प्रभाव को हमारा देश भी महसूस कर रहा है ।  पिछले कुछ समय से यहाँ के मौसम में अप्रत्याशित बदलाव हमें देखने को मिले हैं । असमय वर्षा का होना , सूखा पड़ना, बाढ़ आ जाना , हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आना तो अब आम बात हो गयी है । " सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामला "  कही जाने वाली हमारी माटी में कभी इन्द्रदेव महीनो तक अपना कहर बरपाते हैं तो कहीं इन्द्रदेव के दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं । 

  आज पूरे विश्व में वन लगातार सिकुड़ रहे हैं तो वहीँ किसानो का भी इस दौर में खेतीबाड़ी से सीधा मोहभंग हो गया है । अधिकांश जगह पर जंगलो को काटकर जैव ईधन जैट्रोफा के उत्पादन के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है तो वहीँ पहली बार जंगलो की कमी से वन्य जीवो के आशियाने भी सिकुड़ रहे हैं जो  वन्य जीवो की संख्या में आ रही गिरावट के  जरिये महसूस की जा सकती है वहीँ औद्योगीकरण की आंधी में कार्बन के कण वैश्विक स्तर पर तबाही का कारण बन रहे हैं तो इससे प्रकृति में एक बड़ा  प्राकृतिक  असंतुलन पैदा हो गया है और इन सबके मद्देनजर हमको यह तो मानना ही पड़ेगा जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से हो रहा है और यह सब ग्लोबल वार्मिंग की आहट है । औद्योगिक क्रांति के बाद जिस तरह से जीवाश्म ईधनो  का दोहन हुआ है उससे वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी है । वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की यही मात्र ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है । कार्बन डाई आक्साइड के साथ ही मीथेन , क्लोरो फ्लूरो कार्बन भी जिम्मेदार  है जिसमे 55 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड है । 

 जलवायु परिवर्तन पर आई पी सी सी ने अपनी रिपोर्ट में भविष्यवाणी की है 2015  तक विश्व की सतह का औसत तापमान 1.1से 6.4  डिग्री सेन्टीग्रेड तक बढ़ जाएगा जबकि समुद्रतल 18 सेंटीमीटर से 59 सेन्टीमीटर तक ऊपर उठेगा । रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.20  अरब लोगो को पीने का पानी नहीं मिलेगा  और लगभग 60   करोड़  लोग भूख से मारे जायेंगे । अगर यह सच साबित हुआ तो यह  दुनिया के सामने किसी भीषण संकट से कम नहीं होगा । 


कार्बन डाई आक्साइड के सबसे बड़े उत्सर्जक अमेरिका ने पहले कई बार क्योटो प्रोटोकोल पर सकारात्मक पहल की बात बड़े बड़े मंचो से दोहराई जरुर है लेकिन आज भी असलियत यह है जब भी इस पर हस्ताक्षर करने की बारी आती है तो वह इससे साफ़ मुकर जाता है । अमरीका  के साथ विकसित देशो  की बड़ी  जमात में आज भी कनाडा, जापान जैसे देश खड़े हैं जो किसी भी तरह अपना उत्सर्जन कम करने के पक्ष में नहीं दिखाई देते । विकसित देश अगर यह सब करने को राजी हो जाएँ तो उन्हें अपने जी डी पी के बड़े हिस्से का त्याग करना पड़ेगा जो तकरीबन  5.5   प्रतिशत बैठता है और यह  सब  दूर की गोटी लगती है वह यह सब करने का माद्दा रखते हैं ।  
इधर अधिकांश वैज्ञानिको का मानना है कि कारण डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित देशो को किसी भी तरह  फौजी राहत दिलाने के लिए कुछ उपाय  तो अब करने ही होंगे नहीं तो दुनिया के सामने एक बड़ा भीषण संकट पैदा हो सकता है और यकीन जान लीजिये अगर विकसित देश अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहते हैं तो तापमान में भारी वृद्धि दर्ज होनी शुरू हो जायेगी ।  वैसे इस बढ़ते तापमान का शुरुवाती असर हमें अभी से ही दिखाई  देने लगा है ।  हिमालय के ग्लेशियर अगर इसी गति से पिघलते रहे  तो 2030 तक अधिकांश ग्लेशियर जमीदोंज हो जायेंगे । नदियों का जल स्तर गिरने लगेगा तो वहीँ भीषण जल संकट सामने आएगा । वैसे ग्रीनलैंड में बर्फ की परत पतली हो रही है वहीँ उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक इलाके की कहानी भी  किसी से शायद ही अछूती है । बर्फ पिघलने से समुद्रो का जल स्तर बढ़ने लगा है जिस कारण  आने वाले समय में कई इलाको के डूबने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता  । 

कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा न केवल उपरी समुद्र  में बल्कि निचले हिस्से में भी बढती जा रही है बल्कि पशु पक्षियों में , जीव जन्तुओ में भी इसका साफ़ असर परिवर्तनों के रूप में  देखा जा सकता है जिनके नवजात समय से पूर्व ही इस दौर में काल के गाल में समाते जा रहे हैं ।  कई प्रजातियाँ इस समय संकटग्रस्त हो चली हैं जिनमे बाघ, घडियाल , गिद्ध , चीतल , भालू, कस्तूरी मृग, डाफिया, घुरड़, कस्तूरी मृग सरीखी प्रजातियाँ शामिल हैं । लगातार बढ़ रहे तापमान से हिन्द महासागर में प्रवालो को भारी नुकसान  झेलना पड़ रहा है । सूर्य से आने वाली पराबैगनी विकिरण को रोकने वाली ओजोन परत में छेद दिनों दिन गहराता ही जा रहा है । हम सब इन बातो  से इस दौर में बेखबर हो चले हैं क्युकि मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर आर्थिक सुधारों पर चल रहे इस देश में लोगो को चमचमाते मालो की चमचमाहट ही दिख रही है । ऐसे में प्रकृति से जुड़े मुद्दों की लगातार अनदेखी हो रही है । यह सवाल मन को कहीं ना कहीं कचोटता जरुर है ।

   ताजा आंकड़ो को अगर आधार बनाये तो 2030  तक पृथ्वी का तापमान 6  डिग्री बढ़ जायेगा । साथ ही 2020 तक भारत में पानी का बड़ा संकट पैदा होने जा रहा है । वहीँ पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग  का असर दिख रहा है जिसके चलते अफ्रीका में खेती योग्य भूमि आधी हो जायेगी । अगर ऐसा हुआ तो खाने को लेकर एक सबसे बड़ा संकट पूरी दुनिया के सामने आ सकता है क्युकि लगातार मौसम का बदलता मिजाज उनके यहाँ भी अपने रंग दिखायेगा ।  प्राकृतिक असंतुलन को बढाने में प्रदूषण की भूमिका भी किसी से अछूती है । कार्बन डाई आक्साइड , कार्बन  मोनो आक्साइड, सल्फर  डाई आक्साइड , क्लोरो फ्लूरो कार्बन के चलते आम व्यक्ति सांस लेने में कई जहरीले रसायनों को ग्रहण कर रहा है । नेचर पत्रिका ने अपने हालिया शोध में पाया है विश्वभर में तकरीबन एक करोड़ से ज्यादा लोग जहरीले रसायनों को अपनी सांस में ग्रहण कर रहे हैं । 

वायुमंडल में इन गैसों के दूषित प्रभाव के अलावा पालीथीन की वस्तुओ के प्रयोग से कृषि योग्य भूमि की उर्वरता कम हो रही है । यह ऐसा पदार्थ है जो जलाने पर ना तो गलता है और ना ही सड़ता है । साथ ही फ्रिज , कूलर और एसी  वाली कार्यसंस्कृति  के  अत्यधिक प्रयोग , वृक्षों की कटाई के कारण पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है । जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण तो पहले से ही अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । अन्तरिक्ष कचरे के अलावा देश के अस्पतालों से निकलने वाला मेडिकल कचरा भी पर्यावरण को नुकसान पंहुचा रहा है जो कई बीमारयो को भी खुला आमंत्रण दे रहा है ।



  ग्लोबल वार्मिंग  के  कारण मौसम में तेजी से तब्दीली हो रही है । वायुमंडल जहाँ गरमा रहा है वहीँ धरती का जल स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है । इसका ताजा उदहारण भारत का सुन्दर वन है जहाँ जमीन नीचे धंसती ही जा रही है । समुद्र का जल स्तर जहाँ बढ़ रहा है वहीँ कई बीमारियों के खतरे भी बढ़ रहे हैं । एक शोध के अनुसार समुद्र का जल स्तर 1.2से 2.0 मिलीमीटर  के स्तर तक जा पहुंचा है । यदि यही गति जारी रही तो उत्तरी ध्रुव की बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी । कोलोरेडो विश्वविद्यालय की मानें तो अन्टार्कटिका में ताप  दशमलव 5 डिग्री की दर से बढ़ रहा है । इस चिंता को समय समय पर यू एन ओ महासचिव बान की मून भी जाहिर कर चुके हैं ।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ईमानदारी से  सभी देशो को मिल जुलकर प्रयास करने की जरुरत है । दुनिया के देशो को अमेरिका के साथ विकसित देशो पर दबाव बनाना चाहिए । अमेरिका की दादागिरी पर रोक लगनी जरुरी है । साथ ही उसका भारत सरीखे विकास शील देश पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि विकास शील देश इस समय बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं । ग्लोबल वार्मिंग का दोष एक दूसरे  पर मडने के बजाए सभी को इस समय अपने अपने देशो में उत्सर्जन कम करने के लिए एक लकीर खींचने की जरुरत है क्युकि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अकेले विकासशील देशो की नहीं विकसित देशो की भी है जिनका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान रहा है । यकीन जान लीजिये अगर अभी भी नहीं चेते तो यह ग्लोबल वार्मिंग  पूरी दुनिया के लिए  आखरी वार्निंग साबित हो सकती है ।

Tuesday, 12 February 2013

वेलेन्टाइन डे : प्यार का पंचनामा

21 साल की  कविता  हाथो में गुलाब का फूल लिए कनाट  पेलेस  में  पालिका बाजार के सेंट्रल पार्क में अपने प्रेमी के आने के इंतजार में  बैठी है ।  उसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस इंतजारी के मायने इस दौर में क्या हैं ?  यह सब  वेलेन्टाइन डे की तैयारी के लिए किया जा रहा है ।  पिछले कुछ समय से  ग्लोबलाइज्ड  समाज में प्यार भी ग्लोबल ट्रेंड का हो गया है । आज जहाँ इजहार और इकरार करने के तौर तरीके बदल गए हैं वहीँ  इंटरनेट के इस दौर में प्यार भी बाजारू  हो चला है । कनाट  पेलेस के ऐसे दृश्य आज देश के हर गाँव  और कमोवेश हर कस्बे में देखने को मिल रहे हैं क्युकि पहली बार शहरी चकाचौंध  से इतर  प्यार का यह उत्सव एक बड़ा बाजार  को अपनी गिरफ्त में ले चूका है ।   हर जगह विदेशी संस्कृति पूत की भांति पाव पसारती जा रही है ।  हमारे युवाओ को लगा वैलेंटाइन का चस्का भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है । विदेशी संस्कृति की गिरफ्त में आज हम पूरी तरह से नजर आते है तभी तो शहरों से लेकर कस्बो तक वैलेंटाइन का जलवा देखते ही बनता है । आज आलम यह है यह त्यौहार भारतीयों में तेजी से अपनी पकड़ बना रहा है।

वैलेंटाइन के चकाचौंध पर अगर दृष्टि  डाले तो इस सम्बन्ध में कई किस्से प्रचलित है ।  रोमन कैथोलिक चर्च की माने तो यह "वैलेंटाइन "अथवा "वलेंतिनस " नाम के तीन लोगो को मान्यता देता है जिसमे से दो के सम्बन्ध वैलेंटाइन डे से जोड़े जाते है लेकिन बताया जाता है इन दो में से भी संत " वैलेंटाइन " खास चर्चा में रहे  । कहा जाता है संत वैलेंटाइन प्राचीन रोम में एक धर्म गुरू थे ।  उन दिनों वहाँपर "कलाउ डीयस" दो का शासन था ।  उसका मानना था अविवाहित युवक बेहतर सैनिक  हो सकते है क्युकि युद्ध के मैदान में उन्हें अपनी पत्नी या बच्चों की चिंता नही सताती  । अपनी इस मान्यता के कारण उसने तत्कालीन रोम में युवको के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया...

किन्दवंतियो की माने तो संत वैलेंटाइन के क्लाऊ डियस के इस फेसले का विरोध करने का फैसला  किया ... बताया जाता  है  वैलेंटाइन ने इस दौरान कई युवक युवतियों का प्रेम विवाह करा दिया ।  यह बात जब राजा को पता चली तो उसने संत वैलेंटाइन को १४ फरवरी को फासी की सजा दे दी । कहा जाता है  संत के इस त्याग के कारण हर साल १४ फरवरी को उनकी याद में युवा "वैलेंटाइन डे " मनाते है ।

कैथोलिक चर्च की एक अन्य मान्यता के अनुसार एक दूसरे संत वैलेंटाइन की मौत प्राचीन रोम में ईसाईयों पर हो रहे अत्याचारों से उन्हें बचाने के दरमियान हो गई  । यहाँ इस पर नई मान्यता यह है  ईसाईयों के प्रेम का प्रतीक माने जाने वाले इस संत की याद में ही वैलेंटाइन डे मनाया जाता है । एक अन्य किंदवंती के अनुसार वैलेंटाइन नाम के एक शख्स ने अपनी मौत से पहले अपनी प्रेमिका को पहला वैलेंटाइन संदेश भेजा जो एक प्रेम पत्र था  । उसकी प्रेमिका उसी जेल के जेलर की पुत्री  थी जहाँ उसको बंद किया गया था ।  उस वेलेंन टाइन  नाम के शख्स  ने प्रेम पत्र के अंत में लिखा  " फ्रॉम यूअर  वेलेंनटाइन "  । आज भी यह वैलेंटाइन पर लिखे जाने वाले हर पत्र के नीचे लिखा रहता है ...

यही नही वैलेंटाइन के बारे में कुछ अन्य किन्दवंतिया भी है  । इसके अनुसार तर्क यह दिए जाते है प्राचीन रोम के  प्रसिद्ध  पर्व "ल्युपर केलिया " के ईसाईकरण की याद में मनाया जाता है  । यह पर्व रोमन साम्राज्य के संस्थापक रोम्योलुयास और रीमस की याद में मनाया जाता है  ।  इस आयोजन पर रोमन धर्मगुरु उस गुफा में एकत्रित होते थे जहाँ एक मादा भेडिये ने रोम्योलुयास और रीमस को पाला था इस भेडिये को ल्युपा कहते थे और इसी के नाम पर उस त्यौहार का नाम ल्युपर केलिया पड़ गया ।  इस अवसर पर वहां बड़ा आयोजन होता था ।  लोग अपने घरो की सफाई करते थे साथ ही अच्छी फसल की कामना के लिए बकरी की बलि देते थे ।  कहा जाता है प्राचीन समय में यह परम्परा खासी लोक प्रिय हो गई...

एक अन्य किंदवंती यह कहती है १४ फरवरी को फ्रांस में चिडियों के प्रजनन की शुरूवात मानी जाती थी जिस कारण खुशी में यह त्यौहार वहा प्रेम पर्व के रूप में मनाया जाने लगा  । प्रेम के तार रोम से   भी  सीधे जुड़े नजर आते है  । वहा पर क्यूपिड को प्रेम की देवी के रूप में पूजा जाने लगा जबकि यूनान में इसको इरोश के नाम से जाना जाता था । प्राचीन वैलेंटाइन संदेश के बारे में भी लोगो में   एकरूपता नजर नही आती । कुछ ने माना है  यह इंग्लैंड के राजा ड्यूक ने  लिखा जो आज भी वहां के म्यूजियम में रखा हुआ है ।  ब्रिटेन की यह आग आज भारत में भी लग चुकी है । अपने दर्शन शास्त्र में भी कहा गया है " जहाँ जहाँ धुआ होगा वहा आग तो होगी ही " सो अपना भारत भी इससे अछूता कैसे रह सकता है...?

युवाओ में वैलेंटाइन की खुमारी सर चढ़कर  बोल रही है ।  इस दिन के लिए सभी पलके बिछाये बैठे रहते हैं ।   भईया प्रेम का इजहार जो करना है ? वैलेन्टाइन प्रेमी  इसको प्यार का इजहार करने का दिन बताते है ।  यूँ तो प्यार करना कोई गुनाह नही है लेकिन जब प्यार किया ही है तो इजहार करने मे देर नही होनी चाहिए लेकिन अभी का समय ऐसा है जहाँ युवक युवतिया प्यार की सही परिभाषा नही जान पाये है । वह इस बात को नही समझ पा रहे है प्यार को आप एक दिन के लिए नही बाध सकते ।वह तो  प्यार को हसी मजाक का खेल समझ रहे है ।  हमारे परम मित्र पंकज चौहान कहते है आज का प्यार मैगी के नूडल जैसा बन गया है जो दो मिनट चलता है ।  सच्चे प्रेमी के लिए तो पूरा साल प्रेम का प्रतीक बना रहता है  लेकिन आज के समय में प्यार की परिभाषा बदल चुकी है । इसका प्रभाव यह है 1 4 फरवरी को प्रेम दिवस का रूप दे दिया गया है जिसके चलते संसार भर के "कपल "प्यार का इजहार करने को उत्सुक रहते है ।

आज १४ फरवरी का कितना महत्त्व बढ गया है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है इस अवसर पर बाजारों में खासी रोनक छा जाती है । गिफ्ट सेंटर में उमड़ने वाला सैलाब , चहल पहल इस बात को बताने के लिए काफी है यह किस प्रकार आम आदमी के दिलो में एक बड़े पर्व की भांति अपनी पहचान बनने में कामयाब हुआ है । इस अवसर पर प्रेमी होटलों , रेस्ताराओ में देखे जा सकते है । प्रेम मनाने का यह चलन भारतीय संस्कृति को चोट पहुचाने का काम कर रहा है ।

  यूं तो हमारी संस्कृति में प्रेम को परमात्मा का दूसरा रूप बताया गया है अतः प्रेम करना गुनाह और प्रेम का विरोधी होना सही नही होगा लेकिन वैलेंटाइन के नाम पर जिस तरह का भोड़ापन , पश्चिमी परस्त विस्तार हो रहा है वह विरोध करने लायक ही है  । वैसे भी यह प्रेम की स्टाइल भारतीय जीवन मूल्यों से किसी तरह मेल नही खाती ।आज का वैलेंटाइन डे भारतीय काव्य शास्र में बताये गए मदनोत्सव का पश्चिमी संस्करण प्रतीत होता है लेकिन बड़ा सवाल जेहन में हमारे यह आ रहा है क्या आप प्रेम जैसे चीज को एक दिन के लिए बाध सकते है? शायद नही । पर हमारे अपने देश में वैलेंटाइन के नाम का दुरूपयोग किया जा रहा है । वैलेंटाइन के फेर में आने वाले प्रेमी भटकाव की राह में अग्रसर हो रहे है । एक समय ऐसा था जब राधा कृष्ण , मीरा वाला प्रेम हुआ करता था जो आज के वैलेंटाइन प्रेमियों का जैसा नही होता था । आज लोग प्यार के चक्कर में बरबाद हो रहे है। हीर रांझा, लैला मजनू रोमियो जूलियट  के प्रसंगों का हवाला देने वाले हमारे आज के प्रेमी यह भूल जाते है मीरा वाला प्रेम सच्ची आत्मा से सम्बन्ध रखता था ...

आज तो  प्यार बाहरी आकर्षण की चीज बनती जा रही है । प्यार को गिफ्ट और पॉकेट  में तोला जाने लगा है । वैलेंटाइन के प्रेम में फसने वाले कुछ युवा सफल तो कुछ असफल साबित होते है । जो असफल हो गए तो समझ लो बरबाद हो गए क्युकि यह प्रेम रुपी "बग" बड़ा खतरनाक है । एक बार अगर इसकी जकड में आप आ गए तो यह फिर भविष्य में भी पीछा नही छोडेगा । असफल लोगो के तबाह होने के कारण यह वैलेंटाइन डे घातक बन जाता है...

वैलेंटाइन के नाम पर आज हमारे समाज में  जिस तरह की उद्दंडता हो रही है वह चिंतनीय ही है ।  इसके नाम पर कई बार अश्लील हरकते भी  देखी जा सकती है । संपन्न तबके साथ आज का मध्यम वर्ग और अब निम्न तबका भी  इसके मकड़ जाल में फसकर अपना पैसा और समय दोनों ख़राब करते जा रहे है ।   आज वैलेंटाइन की स्टाइल बदल गई है ।  गुलाब गिफ्ट दिए ,पार्टी में थिरके बिना काम नही चलता ।  यह मनाने के लिए आपकी जेब गर्म होनी चाहिए । यह भी कोई बात हुई क्या जहाँ प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए जेब की बोली लगानी पड़ती हो ?  कभी कभार तो अपने साथी के साथ घर से दूर जाकर इसको मनाने की नौबत आ जाती है ।  डी जे की थाप पर थिरकते रात बीत जाती है ।  प्यार की खुमारी में शाम ढलने का पता भी नही चलता जिसके चलते समाज में क्राइम भी क्राइम भी बढ़  रहे हैं । 

आज के समय में वैलेंटाइन प्रेमियों की तादात बढ रही है ।  साल दर साल ... इस बार भी प्रेम का सेंसेक्स पहले से ही कुलाचे मार रहा है. । वैलेंटाइन ने एक बड़े उत्सव का रूप ले लिया है ।  मॉल , गिफ्ट, आर्चीस , डिस्को थेक, मैक डोनल्स  पार्टी   का  आज इससे चोली दामन का साथ बन गया है ।  अगर आप में यह सब कर सकने की सामर्थ्य नही है तो आपका प्रेमी नाराज । बस फिर प्रेम का  द  एंड समझे  । कॉलेज के दिनों से यह चलन चलता आ रहा है ।  अपने आस पास कालेजो में भी ऐसे दृश्य दिखाई देते है ।  पदाई में कम मन लगता है । कन्यायो पर टकटकी पहले लगती है । पुस्तकालयो में किताबो पर कम नजर लडकियों पर ज्यादा जाती है।  नोट्स के बहाने कन्याओ से मेल जोल आज की  जनरेशन  बढाती है । जिधर देखो वहां लडकियों को लाइन मारी जाती है ।  लडकियां  भी गिव एंड टेक के फार्मूले  को अपनाती हैं ।  

 प्यार का स्टाइल समय बदलने के साथ बदल रहा है ।  वैलेंटाइन प्रेमी  भी हर साल बदलते  ही जा रहे है ।आज   तो वैलेंटाइन मनाना सबकी नियति बन चुकी है  । आज प्यार की परिभाषा बदल गई है ।  वैलेंटाइन का चस्का हमारे युवाओ में तो सर चदकर बोल रहा है लेकिन उनका प्रेम आज आत्मिक नही होकर छणिक बन गया है ।  उनका प्यार पैसो में तोला जाने लगा है । आज की युवा पीड़ी को न तो प्रेम की गहराई का अहसास है न ही वह सच्चे प्रेम को परिभाषित कर सकती   है ।  उनके लिए प्यार मौज मस्ती और सैर सपाटे  का खेल बन गया है जहाँ बाजार में प्यार नीलाम हो गया है और पूरे विश्व में इस दिन मुनाफे का बड़ा कारोबार किया जा रहा है ।
                         
                          

Wednesday, 30 January 2013

राजनाथ की राह में बिखरे शूल


बीते दिनों कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी को लेकर  लखनऊ  में एक समारोह का आयोजन हुआ । इस मौके पर  अब पूर्व हो चुके  भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी  भी  उपस्थित थे । मंच पर जैसे ही उनको माला  पहनाई गई तो वह माला टूट गई ।   यह गडकरी की  दुबारा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी से  ठीक पहले एक बड़ा अपशकुन साबित हुआ । चुनाव की तिथि से महीनो पहले जहाँ महेश जेठमलानी ने राष्ट्रीय कार्यकारणी से इस्तीफ़ा देकर गडकरी की मुश्किलों को बढाया वहीँ मशहूर वकील और भाजपा से  राज्य  सभा  सांसद रामजेठमलानी ने सबसे मुखर होकर गडकरी के खिलाफ अकेले मोर्चा खोला  जिसके सुर में सुर यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और जसवंत सिंह ने मिलाया । इसके बाद राम जेठमलानी को जहाँ निलंबन झेलना पड़ा वहीँ  वरिष्ठ  भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने अपने तल्ख़ तेवर बरक़रार रखते हुए गडकरी के खिलाफ चुनाव लड़ने की  घोषणा  कर भाजपा के आंतरिक लोकतंत्र की हवा निकालने का काम किया और गडकरी की मुसीबत बढ़ा दी । लेकिन असल घटनाक्रम तो नामांकन के ठीक एक दिन पहले घटा जब गडकरी विरोधी खेमे ने आयकर विभाग की छापेमारी के दौरान संघ पर इतना दबाव  बनाया कि अंत में संघ खुद को लाचार बताने को मजबूर हुआ और उसे यह बयान  मजबूरी में देना पड़ा कि भाजपा अपना अध्यक्ष चुनने को खुद स्वतन्त्र है ।

                     
 असल में भाजपा में नए अध्यक्ष के नामांकन से ठीक पहले आडवानी संघ के एक कार्यक्रम में शिरकत करने मुंबई गए थे जहाँ उनके साथ नितिन गडकरी और सर कार्यवाह भैय्या  जी जोशी भी मौजूद थे । इसी दिन महाराष्ट्र में गडकरी की कंपनी पूर्ती के गडबडझाले को लेकर आयकर विभाग ने छापेमारी की कारवाही सुबह से शुरू कर दी ।  आडवानी की भैय्या जी जोशी से मुलाकात हुई तो ना चाहते हुए बातचीत में पूर्ती का गड़बड़झाला बातचीत में आ गया । आडवानी ने भैय्या  जी  जोशी से गडकरी पर लग रहे आरोपों से भाजपा की छवि खराब होने का मसला छेडा  जिसके बाद भैय्या जी को गडकरी के साथ बंद कमरों में बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा । काफी  मान मनोव्वल के बाद गडकरी इस बात पर राजी हुए अगर संघ को उनसे परेशानी झेलनी पड़  रही है  तो वह खुद अपने पद से इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं । 

आडवानी से भैय्या जी जोशी ने गडकरी का   विकल्प सुझाने को कहा तो उन्होंने यशवंत सिन्हा का नाम सुझाया । हालाँकि पहले आडवानी  सुषमा के नाम का  दाव  एक दौर में चल चुके थे लेकिन सुषमा खुद अध्यक्ष पद के लिए इंकार कर चुकी थी लिहाजा आडवानी ने यशवंत का नाम बढाने की कोशिश की जो संघ को कतई मंजूर नहीं हुआ । बाद में गडकरी से भैय्या जी ने अपना विकल्प बताने को कहा तो उन्होंने राजनाथ सिंह का नाम सुझाया जिस पर संघ ने अपनी हामी भर दी और आडवानी को ना चाहते हुए राजनाथ को पसंद करना पड़ा । इसके बाद   शाम को दिल्ली में जेटली के घर भाजपा की  डी --4 कंपनी की बैठक हुई जिसमे रामलाल मौजूद थे जिन्होंने राजनाथ  सिंह के नाम पर सहमति बनाने में सफलता हासिल कर ली  और देर रात राजनाथ सिंह को सुबह राजतिलक की तैयारी के लिए रेडी रहने का सन्देश भिजवा  दिया  गया । सुबह होते होते राजनाथ के घर का  कोहरा भी  धीरे धीरे  छटता गया और दस बजते बजते संसदीय बोर्ड  ने  उनके नाम पर पक्की मुहर लगा दी और इस तरह राजनाथ दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में सफल रहे ।                
 दरअसल पूर्ती  का  गडबडझाला भाजपा की पिछले कुछ महीने से गले की फांस बना हुआ था जिसमे गडकरी के साथ पूरी पार्टी की खासी फजीहत हो रही थी जिससे पार्टी का उबर  पाना  मुश्किल लग रहा था क्युकि  इसके बाद भी संघ अपने लाडले गडकरी की अध्यक्ष पद पर दुबारा ताजपोशी का पूरा मन बना चुका  था लेकिन  आयकर  विभाग के छापो ने गडकरी की दुबारा ताजपोशी पर ग्रहण सा लगा दिया जिससे ऐसा दबाव पड़ा कि  एक सौ  अस्सी  डिग्री पर  झुकते  हुए गडकरी खुद इस्तीफ़ा देने को मजबूर हो गए जिसकी उम्मीद बहुत कम लोगो को थी  क्युकि  दुबारा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी को संघ कितना उतावला था इसकी मिसाल सूरजकुंड  से ही दिखाई देने लगी थी जब संघ ने भाजपा के संविधान में संशोधन तक कर डाला था  । भाजपा में आर एस एस के दखल का इससे नायाब उदाहरण कही नहीं मिल सकता । पिछली बार जब गडकरी केशव कुञ्ज के वरदहस्त के चलते अध्यक्ष बनाये गए थे तो उनकी टीम में मराठी लाबी के स्वयंसेवको  की बड़ी कतार देखने को मिली थी और कार्यकर्ता भी उस दौर में ऐसे अध्यक्ष के साथ  मजबूरन कदमताल करते नजर आये जिसका  नाम किसी ने पहले नहीं  सुना था  और उस चेहरे को मोहन भागवत ने पैराशूट की तर्ज पर दिल्ली की चौकड़ी के सामने उतारा जिस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता था ।

अब गडकरी दुबारा अध्यक्ष बनने से रह गए तो इसे  मोहन  भागवत की व्यक्तिगत  हार के तौर  पर देखा  रहा है । लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद गडकरी को देखिये वह अब भी खुद को पार्टी का सच्चा सिपाही बताने पर तुले हुए हैं । गडकरी कह रहे हैं उन  पर लगे आरोपों से भाजपा की  छवि को नुकसान  पहुँच रहा था लिहाजा  उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया लेकिन वह यह क्यों  भूल  रहे हैं अगर नैतिकता के आधार पर वह पहले ही इस्तीफ़ा दे देते तो कौन सा अनर्थ हो जाता ?  पहले तो वह किसी भी तरह की जांच से नहीं  घबरा रहे थे लेकिन अब वह अपने खिलाफ इसे कांग्रेस का षडयंत्र करार जहाँ  दे रहे हैं वहीँ आयकर अधिकारियों को भी वह लताड़ रहे हैं और हद में रहने की नसीहत दे रहे हैं जो  गडकरी  के दीवालियेपन और खासियाहट को  उजागर कर रहा है ।  गडकरी संघ की  कृपा दृष्टि  से   भाजपा के   राष्ट्रीय अध्यक्ष जरुर  रहे हों लेकिन उनकी सोच ने कार्यकर्ताओ और पार्टी के वरिष्ठ  नेताओ के सर को बीते तीन बरस में चकरा  ही दिया था । गडकरी को ना केवल  अपने  खुद के दिए बयानों पर कोई खेद रहा और ना ही बीते तीन बरस में मनमोहन सरकार को घेरने की कोई रणनीति कारगर साबित  हुई ।   

 अफजल गुरु कांग्रेस का दामाद, औरंगजेब की औलाद , तलुए चाटते जैसे ना जाने  कई नए शब्द उनकी निजी डिक्शनरी में जहाँ शामिल रहे वहीँ  फूहड़   बयानबाजी  के बावजूद उनकी सबसे बड़ी ताकत हर समय संघ को खुश करने और मोहन भागवत की  चरण वंदना   करने में लगी रही और शायद यही वजह भी रही अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने संघ के साथ इस निकटता  को ढाल के रूप में इस्तेमाल भी किया । गडकरी ने अपने कार्यकाल में कारपोरेट के आसरे पार्टी के फंड में चन्दे  की रिकॉर्ड रकम जुटाकर जहाँ संघ को खुश किया वहीँ अपने समर्थको की भारी फ़ौज  महाराष्ट्र  से  हाईजैक  कर ली जहाँ गोपी नाथ मुंडे  सरीखे जनाधार वाले नेता और उनके समर्थको को हाशिये पर  रखकर अपनी खुद की बिसात बिछाई ।  वहीँ अपने कार्यकाल में अंशुमन मिश्र  एन आर आई को भाजपा प्रत्याशी बनाये जाने , झारखंड में सोरेन के साथ जबरन सरकार बनाने ,  बाबू  सिंह कुशवाहा को  यू पी चुनावो में साथ लेने ,अजय संचेती को कोयला  खदाने आवंटित करने  के काम कर भाजपा के अध्यक्ष की  पुरानी शुचिता  को  तार तार ही कर डाला और इससे आडवानी के साथ जेटली, सुषमा सरीखे लोगो की खूब भद्द पिटी  क्युकि  उन्हें भी लगता था पार्टी की जीत का सेहरा भाजपा नेताओ के सर बधता  है और हार की बदनामी का ठीकरा  गैर आर एस एस पृष्ठभूमि के नेताओ के सर फोड़ा जाता है लिहाजा इस बार गैर संघी नेताओ ने मुखर होकर गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और संघ ने खुद की बिसात पर गडकरी को कुर्बान कर दिया ।


गडकरी के बाद अब कमान राजनाथ सिंह  के हाथ आई है । वह एक सुलझे हुए नेता है और उत्तर प्रदेश की नर्सरी से  आते हैं जहाँ भाजपा ने हिंदुत्व का परचम एक दौर में फहराकर केंद्र में सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी । लेकिन इस बार अपनी दूसरी पारी में राजनाथ के पास  बहुत कम समय बचा है । लोक सभा चुनावो से पहले पार्टी को 10 राज्यों के चुनावी समर में कूदना है वहीँ दूसरी  पंक्ति  के नेताओ  में इस दौर में आगे निकलने की जहाँ होड़ मची हुई है  तो वहीँ राज्यों में  छत्रप दिनों दिन मजबूत होते जा रहे हैं जिसके चलते आगामी चुनावो में भाजपा के लिए प्रधानमंत्री पद की  उम्मीदवारी  को लेकर  सबसे बड़ा संकट खड़ा  हो गया है ।  इधर गुजरात तीसरी बार फतह करने के बाद मोदी की महत्वाकान्शाएं बढ़ गयी हैं और उन्हें  प्रधान मंत्री पद के लिए  प्रोजेक्ट करने की मांग पार्टी के भीतर से ही  मुखर होने लगी है जिस पर एन डी ए के बिखरने का अंदेशा बना हुआ है।  ऐसे माहौल में राजनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती   एन डी ए  का दायरा बढाने और नए सहयोगियों के तलाश की है तो वहीँ पी एम  को लेकर  एन डी ए  में किसी एक नाम पर सर्व सम्मति  बनाने की  चुनौती से जूझना है ।  


अटल बिहारी को  प्रधानमंत्री बनाने में आडवानी उनके सारथी थे वहीँ राजनाथ किसके सारथी  रहेंगे और  किसको सहयोग देंगे यह सवाल अब राजनीतिक गलियारों में गरमाने लगा है ।  अब तक केन्द्रीय नेतृत्व के कमजोर होने से हर मोर्चे पर भाजपा जूझ रही थी  । उम्मीद है राजनाथ के आने से भाजपा की  ग्रह दशा कुछ ठीक होगी । गडकरी के खिलाफ लग रहे आरोप जहाँ भाजपा की छवि  पर ग्रहण लगा रहे थे  वहीँ अब उम्मीद है राजनाथ के आने के बाद  भाजपा की दुर्गति होने का अंदेशा कम हो गया है । बेदाग़  राजनाथ के कमान सौंपने के बाद अब भाजपा सड़क से संसद तक में भ्रष्टाचार की लड़ाई को मजबूती से उठा सकती है । संघ के पास इस दौर में मोदी को छोड़कर ना कोई ब्रह्मास्त्र , ना कोई हथियार है और ना ही समय । ऐसे में संघ की तरफ से  भाजपा में संघर्ष  विराम के लिए राजनाथ को आगे करने की  पहल  इस समय  ज्यादा कारगर साबित हो सकती है । वाजपेयी  के राजनीती से सन्यास के बाद भाजपा में किसी सर्व मान्य नेता के नाम पर सहमति  नहीं है । राज्यों में  उसके   छत्रप  दिनों दिन मजबूत हो  रहे हैं  तो वहीँ आडवानी का राजनीतिक करियर ढलान  पर है । 7  रेस कोर्स में जाने की  उनकी उम्मीदें  भी अब ख़त्म   हैं शायद तभी बीते बरस उन्हें अपने जन्म दिवस के मौके पर उन्हें  यह कहना पड़ा पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया । अब किसी पद की चाह नहीं रही है तो वहीँ डी -4 की दिल्ली  वाली  चौकड़ी तो बीते तीन बरस से मोहन भागवत के निशाने पर है जब अटल के राजनीती से सन्यास और लगातार दो  लोक सभा चुनाव हारने के बाद से संघ ने भाजपा को एक व्यक्ति के करिश्मे की पार्टी न बनाने की रणनीति के तहत गडकरी को दिल्ली के अखाड़े में  उतारा ताकि पार्टी में संघ का सीधा नियंत्रण स्थापित हो सके । 

लेकिन अब गडकरी की विदाई से मोहन भागवत को  तगड़ा झटका लगा है और कई  विश्लेषक  इसे उनकी  निजी हार के रूप में देख रहे हैं और अब राजनाथ सिंह भी संघ के वरदहस्त के चलते अध्यक्ष जरुर बने हैं लेकिन उनके  एन  डी ए से जुड़े नेताओ से मधुर सम्बन्ध हैं  जिसका  लाभ  वह आने वाले दिनों में जरुर लेना चाहेंगे । वह पार्टी के पहले अध्यक्ष भी रह चुके हैं लिहाजा उनका अनुभव पार्टी के नाम आएगा लेकिन राजनाथ के जेहन में उनके पिछला कार्यकाल भी जरुर उमड़ घुमड़ रहा होगा तब पार्टी में गुटबाजी चरम पर थी  जिसकी  कीमत पार्टी को लोक सभा में करारी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी वह भी उनके  अपने ही कार्यकाल में । भले ही राज्यों के चुनावो में भाजपा ने  अच्छा  प्रदर्शन  उनके कार्यकाल में किया  । कर्नाटक  में पहली बार भाजपा का कमल राजनाथ के कार्यकाल में ही   खिला  था वहीँ आज पार्टी को येदियुरप्पा  के बागी होने की बड़ी कीमत चुकानी पड़  रही है । भाजपा के 13 विधायक स्पीकर को अपना इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं जिससे  शेटटार  की मुश्किलें इस दौर में बढ़ी  ही हैं साथ में भाजपा के पास आने वाले दिनों में कर्नाटक  में दुबारा काबिज होने की बड़ी  चुनौती  भी खड़ी  है ।

वहीँ राजनाथ के गृह राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा वेंटिलेटर पर है तो राजस्थान , उत्तराखंड, हिमाचल में सत्ता से बाहर  हो चुकी है । इस दौर  ब्रांड मोदी की दीवानगी कार्यकर्ताओ से लेकर नेताओ में जरुर है लेकिन गठबंधन की राजनीति में मोदी की गुजरात से  बाहर स्वीकार्यता दूर की कौड़ी है । इससे  राजनाथ कैसे जूझते हैं यह देखने वाली बात होगी ?  देखना यह भी होगा जब  यू पी ए  2 के पास   उपलब्धियों  के  नाम पर कहने को  कुछ ख़ास नहीं है ऐसे में वह पार्टी की नैय्या  कैसे पार  लगाते है ?

पिछले कार्यकाल में राजनाथ  को आडवानी के विरोधी खेमे के नेता के तौर पर प्रचारित  किया गया था लेकिन इस बार की  परिस्थितिया बदली  बदली सी  दिख रही हैं । भाजपा लगातार 2 लोक सभा चुनाव हारने के बाद से   केंद्र में  वापसी के लिए छटपटा  रही है । उम्र के इस अंतिम पडाव पर अब आडवानी को राजनाथ में जहाँ  उम्मीद  दिख रही है और ऐसा  उत्साह किसी के अध्यक्ष बनाये जाने पर नहीं दिख रहा है तो मोदी ट्विटर पर ट्वीट  करके राजनाथ को अनुभवी नेता करार दे चुके हैं और उनसे मिलने दिल्ली तक आ पहुचे हैं जहाँ बीते दिनों ढाई घंटे दोनों के बीच मिशन 2014 को लेकर चर्चा भी  हुई है जिसके बाद भाजपा में अंदरखाने मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव समिति की कमान देने को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है । वही पिछली दफे राजनाथ ने मोदी को पार्टी के संसदीय बोर्ड से जहाँ बाहर  कर दिया था  वहीँ  इस बार राजनाथ ने  मोदी को सबसे लोकप्रिय सी एम कहना पड़ा है । जाहिर है यह सब भाजपा में  नई  संभावनाओ का द्वार खोल रहा है । 


राजनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद भले ही कोहरा छंट  चुका  है लेकिन मोदी को लेकर सस्पेंस अभी भी बरकरार है । आडवानी 7 रेस कोर्स की रेस से बाहर  हैं तो डी --4 की चौकड़ी के निशाने पर मोहन भागवत हैं  और इन सबके बीच गैर संघ  बैक ग्राउंड के नेता मोदी को पी एम बनाने की तान इस दौर में  छेड़  रहे हैं  ।  जो वसुंधरा राजनाथ से आँख मिलाना तक पसंद नहीं करती थी वह आज राजनाथ को बधाई  देने सबसे पहले पहुचती है तो वहीँ जिस खंडूरी को हटाने के लिए राजनाथ ने भगत सिंह कोश्यारी के साथ अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया था अब वहीँ खंडूरी  पार्टी के लिए इस दौर में जरुरी बन गए हैं जिनको राजनाथ आने वाले दिनों में अपने संसदीय बोर्ड में भी ले सकते हैं तो यह बदलती फिजा की तरफ इशारा कर रहा है ।               लोक सभा चुनावो से पहले राजनाथ को मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ में भाजपा की दुबारा वापसी के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा । इसके बाद महाराष्ट्र और दिल्ली में ध्यान देना होगा जहाँ भाजपा लम्बे समय से सत्ता से  बाहर  है । दक्षिण में भाजपा के दुर्ग को मजबूत करना होगा साथ ही नए सहयोगी गठबंधन के लिए ढूँढने  होंगे । इस बार निश्चित ही राजनाथ के लिए बदली परिस्थितिया हैं । लोग भाजपा में उम्मीद देख रहे हैं लेकिन पार्टी की गुटबाजी आगामी चुनाव में उसका खेल खराब कर सकती है राजनाथ को इस पर ध्यान  देना होगा । सभी को एकजुट करने की भी बड़ी चुनौती उनके सामने है । वहीँ संघ को भी बदली परिस्थियों के अनुरूप भाजपा के लिए बिसात बिछाने की  जिम्मेदारी राजनाथ के कंधो पर देनी होगी  क्युकि गडकरी के बचाव से सवाल इस दौर में संघ की तरफ भी उठे हैं । 

 संघ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है वह बहुत जल्द इस दौर में लोगो पर भरोसा कर रहा है और कहीं ना कहीं संगठन को लेकर भी बहुत जल्दबाजी दिखा रहा है । शायद इसी वजह से गडकरी सरीखे लोगो ने संघ के आसरे अपने निजी और व्यवसायिक हित ही इस दौर में साधे हैं और अब संघ की कोशिश इसी व्यक्तिनिष्ठता को  खत्म  करने की होनी चाहिए और यही चुनौती से  असल में राजनाथसिंह  को भी अब  झेलनी  है । आज भाजपा को दो नावो में सवार होना है । 


गुजरात में मोदी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर  पर अपना दक्षिणपंथी चेहरा विकास की तर्ज  पर और  उम्मीद के रूप में पेश करना  होगा जहाँ हिंदुत्व के मसले पर देश के जनमानस को एकजुट करना होगा जिसकी डगर मुश्किल दिख रही है क्युकि गुजरात की परिस्थितिया अलग थी । वहां मोदिनोमिक्स माडल को हिंदुत्व के समीकरणों और खाम रणनीति के आसरे मोदी ने  नई  पहचान अपनी विकास की लकीर खींचकर दिलाई लेकिन केंद्र में गठबंधन राजनीती में ऐसी परिस्थितिया नहीं हैं  लिहाजा  राजनाथ की राह में कई  कटीले शूल दिख रहे हैं जिनसे जूझ पाने की गंभीर  चुतौती उनके सामने है । देखते है राजनाथ दूसरी पारी में क्या करिश्मा  कर पाते हैं  ?

Sunday, 27 January 2013

चिंतन, चुनावी आहट और राहुल का ट्रेलर .......

हिंदी सिनेमा में सत्तर का दशक  बालीवुड  के लिए  नायाब तोहफा है  । इस दशक को अगर याद करें तो  स्टारडम का क्रेज असल में यहीं से शुरू होता है । इसी दौर में अमिताभ बच्चन परदे पर एंग्री यंग मैन की छवि 'दीवार' के जरिये गढ़ते हैं और शशि कपूर उनके सामने आते हैं । अमिताभ कहते हैं मेरे पास गाड़ी है ,बंगला है , बैंक बैलेंस है?  तुम्हारे पास क्या है ? तो जवाब में शशि कपूर कहते हैं "मेरे पास माँ है " । 

अब परदे से इतर राजनीती के  मैदान में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपनी इसी छवि को एंग्री यंग मैन के आसरे मतदाताओ के सामने गढ़ने की कोशिश इन दिनो कर रहे हैं क्युकि जयपुर के चिंतन शिविर से निकला सन्देश साफ़ है । इस दौर में जहाँ राहुल को 2014 की बिसात को अपने बूते बिछाना है वहीँ देश की युवा आबादी जिसकी तादात तकरीबन 65 फीसदी से ज्यादे है उसको कांग्रेस के पाले में लाना है । देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी  पार्टी कांग्रेस ने जयपुर में चिंतन कर राहुल को चुनावी कमान सौंपकर 2014 से पहले जनता को राहुल का ट्रेलर सही मायनों में दिखा दिया है । बीते दिनों जहाँ धोनी की अगुवाई में टीम इंडिया  ने इंग्लैंड की टीम को  रांची में शिकस्त देकर अपने को नम्बर वन  बनाया , वहीँ कांग्रेस ने जयपुर के चिंतन के आसरे राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर उन्हें पार्टी में नम्बर 2 का ओहदा दे ड़ाला ।  

सोनिया गाँधी के साथ ही पूरी पार्टी ने युवा कार्ड खेलकर राहुल गाँधी को  नई  जिम्मेदारी देने  में किसी तरह की हिचक नहीं दिखाई । 42 वर्षीय राहुल गाँधी को उपाध्यक्ष बनाये जाने की खबर चिंतन शिविर के अंतिम दिन जैसे ही आई वैसे ही पूरे देश भर में कांग्रेस जश्न से सरोबार हो गई ।  पहले कांग्रेस में राहुल गाँधी महासचिव हुआ करते थे अब उन्हें पार्टी ने उपाध्यक्ष के तौर  पर प्रमोट किया है  । पार्टी में अपरोक्ष रूप से उनकी गिनती सोनिया के बाद ही होती थी अब भी वह पार्टी में उनके बाद ही गिने जायेंगे सिर्फ पद का बदलाव उनके लिए किया गया है । इस लिहाज से देखें तो राहुल की इस नई  ताजपोशी को एक बड़े क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखने की जरुरत नहीं है । 

   हालांकि  हमें यह नहीं भूलना चाहिए  चुनाव समिति की कमान राहुल को सौपकर कांग्रेस 2014 की बिसात बिछाने में लग गई  है ।  उपाध्यक्ष बनाये  जाने के बाद जिस अंदाज में राहुल ने अपना भाषण दिया वह अकसर हर नेता बड़े बड़े मंच से देता रहता है और इसको  जमीनी हकीकत में बदलना आसान भी नहीं रहता  लेकिन राहुल के भाषण में भावनात्मकता का भाव जहाँ  दिखा वहीँ  पार्टी के कैडर को प्रभावित करने के लिए उन्होंने जिन बातो का जिक्र किया उससे सभी राजनीतिक दल इस दौर में जूझ रहे है । फिर भी भावनाओ के जरिये राहुल यह अहसास कराने में तो कामयाब ही रहे कि अब कांग्रेस में संगठन की मजबूती के साथ जनाधार बढाने की कोशिशो को अमली जाम पहनाने  का सही समय आ गया है । राहुल ने कांग्रेस की जिन कमियों का जिक्र अपने संबोधन में किया वह  नई नहीं हैं क्युकि इसका जिक्र वह पहले भी कई बार मंचो से करते रहे हैं लेकिन जनता उनसे जवाब चाह रही है बीते आठ बरस में उनके द्वारा इस सिस्टम को सुधारने के क्या प्रयास किये गए जब वह खुद पार्टी के महासचिव बनकर पार्टी का झंडा थामे हुए हैं  ।
  मसलन राहुल अगर सत्ता को जहर मान रहे हैं तो सवाल उठाना लाजमी है अगर ऐसा है तो वह राजनीती के अखाड़े में अपने कदम क्यों बढ़ा  रहे हैं ? टिकट के बटवारे में अगर कांग्रेस के आम कार्यकर्ता की उपेक्षा इस दौर में हुई है तो इसका दोष किसका है जब उनका पूरा परिवार राजनीती में दशको से है और खुद सोनिया पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कमान अपने हाथ में थामे हुई हैं ? सभी को मालूम है मनमोहन के दौर में सत्ता का असल केंद्र दस जनपथ बना है लेकिन राहुल कांग्रेस  को नए सिरे से परिभाषित करने पर जोर देते नजर आ रहे हैं । राहुल देश भर में ब्लाक स्तर पर नए नेता तैयार करने पर जोर दे रहे हैं लेकिन राज्यों और संगठन में कांग्रेस के बड़े नेताओ की गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि हर चुनाव में यह पार्टी का खेल खराब ही  कर रही है  और नेताओ में आपसी सामंजस्य  का अभाव साफ़ देखा जा सकता है । इसके बाद भी वह यह सब कहकर इसका दोष किसके मत्थे  आखिर गढ़ना चाहते हैं ? 


कांग्रेस ने  राहुल को उपाध्यक्ष तो घोषित कर दिया है लेकिन भावी  प्रधानमंत्री के रूप में  पेश करने पर सस्पेंस अभी भी बरकरार है । पार्टी अभी उनके नाम को प्रोजेक्ट करने से डर  रही है संभव हो इसके पीछे लोक सभा चुनावो की तैयारिया छिपी हुई हों लेकिन जयपुर के चिंतन के जरिये कांग्रेस ने यह सन्देश देने में सफलता पायी है आज का युग गठबंधन राजनीती का है और आगे भी इसी के इर्द गिर्द भारतीय राजनीती सिमट कर रहेगी शायद यही सोचकर  कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया है अब आने वाले दिनों में उसे अपने लिए नए सहयोगियों की तलाश तो शुरू करनी ही होगी क्युकि अपने बूते वह तीसरी बार सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती । पचमढ़ी में जहाँ एकला चलो रे का नारा  दिया गया था वहीँ शिमला में गठबंधन वाली लीक पर कांग्रेस चली थी । अब इस दौर में जयपुर में भी चिंतन राहुल और उनकी भावी राजनीती के मद्देनजर नए सहयोगियों को गठबंधन के आसरे अमली जामा पहनाने की कोशिशे शुरू होने  वाली हैं । 

कांग्रेस के निशाने पर 2014 है और नजरें युवा वोट बैंक पर हैं शायद तभी राहुल को बड़ा चेहरा  बनाने  की कोशिश जयपुर चिंतन के जरिये उसके द्वारा की गई है ।  उपाध्यक्ष  पद पर इस ताजपोशी ने वंशवाद की परंपरा को आगे बढाने की कांग्रेसी  पृष्ठभूमि की एक ननई  इबादत भी लिख डाली है और अब राहुल अपने युवा साथियो के साथ संगठन में जिन चेहरों को जगह देंगे उसमे भी इसकी छाप  दिखाई देगी । वैसे भी वैसे अभी राहुल की कोर टीम में   सचिन पायलट , ज्योतिरादित्य , जितिन  प्रसाद, ज्योति मिर्धा ,अरुण यादव,  संदीप दीक्षित ,अन्नू टंडन , प्रिया  दत्त सरीखे जो चेहरे शामिल हैं उन्हें राजनीती विरासत में ही मिली है । आने वाले दिनों में यही लोग उनकी टीम में अपनी दुबारा  जगह बनाने में कामयाब रहेंगे । युवा कार्ड खेलकर कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ परिवारवाद की अमरबेल को बढाने का ही काम किया है । शायद राहुल यह भूल रहे हैं वह अपनी पार्टी में चाटुकारों की एक बड़ी टोली से घिरे हैं और यही चाटुकारों की टोली  हर चुनाव में कांग्रेस का खेल खराब कर रही है ।बेहतर होगा वह इन सबसे पिंड  छुड़ाकर कांग्रेस में नयी  जान फूंके । परिवारवाद द्वारा केवल कांग्रेस ने  केवल अपनी पीड़ी को  आगे बढाने का ही काम किया है । भारत के सम्बन्ध में इसे देखे तो हिन्दुस्तान में यह एक क्रांतिकारी घटना है जहाँ नेहरु गाँधी परिवार का सत्ता में वर्चस्व पिछले कई दशको से बरकरार है और अब उसकी पांचवी पीड़ी राजनीती के मैदान में है । 


दरअसल कांग्रेस में आजादी के बाद से ही परिवारवाद के बीज बोये जाने लगे थे । इसकी शुरुवात तो हमें मोतीलाल नेहरु के दौर से ही देखने को मिलती है जब कांग्रेस के कई नेताओ के न चाहते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरु को कमान दे दी थी । महात्मा  गाँधी तो कभी नहीं चाहते थे आजादी के बाद कांग्रेस उनके नाम का उपयोग करे । शायद तभी गाँधी ने आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने की मांग की थी लेकिन नेहरु ने उनकी एक ना सुनीं । जवाहर ने भी मोतीलाल वाली लीक पर चलकर न केवल इंदिरा को उस दौर में अध्यक्ष बनाया तब उनकी उम्र भी महज 42 बरस की थी । उस दौर को अगर हम याद करें तो कांग्रेस के पास कई अच्छे चेहरे थे प्रति जिनको वह  आगे कर सकती थी लेकिन इंदिरा की बादशाहत को कोई चुनौती  नहीं दे सका ।  इंदिरा से पहले का एक दौर शास्त्री वाला भी हमें देखने को मिलता है जहाँ उन्होंने अपनी उपयोगिता को सही मायनों में साबित करके दिखाया लेकिन इसके बाद कांग्रेस ने नेहरु गाँधी परिवार के नाम को भुनाने का काम ही किया । इंदिरा एक दौर में तानाशाह भी बनी, किसी ने उन्हें दुर्गा कहा तो किसी ने गूंगी गुडिया भी कहा । वहीँ कई लोगो ने उनके नेतृत्त्व की सराहना भी की लेकिन इंदिरा के बाद संजय, राजीव , सोनिया और अब राहुल सब अपने परिवार के आसरे हर दौर में आगे रहे । सभी ने अपने परिवार से इतर किसी को सत्ता के  केंद्र में आने से रोका । नरसिंह राव वाला दौर अलग दौर रहा । उस समय पार्टी  की अगुवाई करने से सोनिया ने साफ़ इनकार कर दिया था लेकिन सीताराम केसरी के  दौर के बाद उन्होंने कमान न केवल अपने हाथ में ली वरन खड्डे में जाती कांग्रेस की नाव को भवसागर पार लगाया था । उस दौर में उन्होंने  2004 में न केवल प्रधान मंत्री का पद ठुकरा कर  अनूठी  मिसाल कायम की । लेकिन मनमोहन के दौर  में भी मनमोहन मजबूरी का नाम पी ऍम बने रहे।  असल नियंत्रण का केंद्र तो दस जनपथ  ही बना रहा |

कुछ समय पहले तक राहुल गाँधी को भी राजनीती में आने से परहेज था लेकिन वह भी न चाहते हुए राजनीती में आये । आज से 8 साल पहले जब यू पी  के चुनावो में  राहुल को स्टार बनाकर कांग्रेस ने उतारा तो उन्हें किसी ने गंभीरता के साथ नहीं सुना ।  किसी ने  राहुल पर राजनीती को जबरन थोपे जाने के आरोप भी लगाये तो  कुछ लोगो ने तो राहुल की तुलना राजीव गाँधी  से कर डाली तो कुछ राहुल में राजीव गाँधी का  अक्स देखते पाए गए लेकिन राजीव का दौर वर्तमान दौर से बिलकुल अलग है । तब कांग्रेस को चुनौती  देने वाली पार्टी कोई नहीं थी तो वहीँ आज रीजनल पार्टिया देश की राजनीती को सही मायनों में प्रभावित कर रही है । भाजपा और कांग्रेस इस दौर में बड़े दल जरुर है लेकिन दोनों अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकते शायद तभी इस दौर में गठंधन एक  सच्चाई  बन चुकी है । ऐसे माहौल में कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ ज्यादा है और एंटी इन्कम्बेंसी का भी खतरा बना है और उसकी नज़रे अब युवा वोट बैंक पर लगी दिख रही हैं । 


जयपुर के चिंतन के जरिये राहुल ने कांग्रेस  को नए रूप में ढालने का जो मंत्र  दिया है अह आने वाले दिनों में कितना कारगर होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए केवल राहुल को  उपकप्तान बनाने से अब कांग्रेस के अच्छे  दिन नहीं आने  वाले हैं क्युकी राहुल भी इस दौर में चाटुकारों की बड़ी टीम से घिरे हुए हैं और इसी टीम के साथ मिलकर वह यू पी और बिहार चुनाव में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा  चुके  है जहाँ पर  कांग्रेस को करारी  शिकस्त खाने पर मजबूर होना पड़ा  । यू पी  में एक दौर में प्रचार कर जहाँ उन्होंने अपरिपक्व नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई वहीँ कांग्रेस की सीटें भी नहीं बढाई । अभी भी अगर 2014 में राहुल के सामने अगर खुदा  ना खास्ता मोदी सामने आते हैं तो राहुल का जलवा फेल  ही रहने वाला है  । गुजरात में इस बार भी अंतिम दिनों में चुनाव प्रचार में जहाँ जहाँ राहुल गए वहां कांग्रेस की करारी हार हुई । राहुल को अब यह समझना होगा बिना पार्टी का संगठन  खड़े किये बिना कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं । राहुल को सरकार की नीतियों को जनता तक पहुचाना होगा और संगठन में नेताओ के नाते रिश्तेदारों को हटाना पड़ेगा । आज भी अधिकाश पदों पर कांग्रेस के मंत्रियो के रिश्तेदार महत्वपूर्ण पदों पर कुंडली मारकर बैठे हैं ।  2014 के लोक सभा चुनाव की  डुग डुगी  बजने में 15 माह से भी कम का समय बचा है । इतने कम समय में  संगठन मजूत हो जाएगा और सही टिकटों का बटवारा होगा यह सब संभव नहीं दिखाई देता । यह समय ऐसा है जब आम आदमी का मनमोहनी नीतियों से मोहभंग हो गया है । सरकार कॉर्पोरेट पर दरियादिली दिखा रही है जबकि आम आदमी की उपेक्षा कर रही है । महंगाई बढ़  रही है । गैस की घरेलू सब्सिडी ख़त्म है तो  डीजल के दाम लगातार बढ़ रहे है  । भ्रष्टाचार का सवाल जस का तस है । कांग्रेस अगर सोच रही है मनमोहन के बजाए राहुल का चेहरा आगे कर देने भर से कांग्रेस तीसरी बार केंद्र में वापसी कर जाएगी तो यह दिवा स्वप्न से कम नहीं लगता । ऐसे  माहौल में राहुल के सामने चुनोतियो का पहाड़ ही खड़ा है । राहुल के पिता राजीव का भी राजनीती में प्रवेश संजय गाँधी की मौत के बाद हुआ था तो उन्हें भी महासचिव बनाया गया था लेकिन तब सहानुभूति की लहर ने राजीव को सत्ता के  शीर्ष पर पहुचाया लेकिन आज के दौर में यह दूर की गोटी है क्युकि  राज्यों में रीजनल पार्टियों का प्रभुत्व है वह केंद्र में सरकार बनाने में मोल तोल  कर रही है  और शायद यही कारण  है कांग्रेस भी रिटेल में ऍफ़ डी  आई  के मसले पर इनके सहयोग  के बिना आर्थिक सुधारों का फर्राटा नहीं भर सकती ।  आज कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है । कार्यकर्ता उपेक्षित है तो उसके अपने  नेताओ के पास  मिलने का समय नहीं है । कांग्रेस 28 राज्यों में से 18 राज्यों में पूरी तरह साफ़ है । संगठन लुंज पुंज है । ऐसे में राहुल को लोगो को यह अहसास कराना होगा वह परिवारवाद की विरासत बचाने  आगे नहीं आये हैं बल्कि उनका सपना गाँव के अंतिम छोर  में खड़े व्यक्ति तक विकास पहुचाना है लेकिन बिना संगठन के यह सब संभव नहीं है । राहुल की असली चुनौती  बिहार और उत्तर प्रदेश है । यही वह प्रदेश है जहाँ  अच्छा  करने पर कांग्रेस केंद्र में सरकार बना सकती है । यू  पी में इस  28 विधायक और 22 संसद हैं । पिछले कुछ समय से यहाँ पर पार्टी का वोट प्रतिशत नहीं बढ रहा इस पर गंभीरता से विचार की जरुरत अब है । राहुल ने जयपुर में जो कुछ कहा उससे एक बारगी ऐसा लगा  वह अपने पिता राजीव वाली लीक पर चलकर कांग्रेस के लिए बिसात बिछा रहे हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए राजीव गाँधी भी कहा करते थे वह सत्ता के दलालों से कांग्रेस को बचाना चाहते हैं लेकिन इन्ही दलालों ने राजीव को फंसा दिया । बोफोर्स का जिन्न कांग्रेस की लुटिया उस दौर में डुबो गया था । अब राहुल को समझना होगा वह उन गलतियों से सबक लें ।


जयपुर में सोनिया की सहमति से राहुल को उपाध्यक्ष बनाने का फैसला पार्टी कार्यकर्ताओ में नए जोश का संचार भले ही कर जाए  लेकिन राहुल गाँधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान  भी नहीं है | २००९ के लोक सभा चुनावो में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा आरटीआई, किसान कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओ के सर ही बंधा था | वहीँ उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गाँधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था जो भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्युकि वह नेहरु की तर्ज पर भारत की  खोज करने पहली बार निकले  जहाँ वह दलितों के घर आलू पूड़ी खाने जाते थे  वहीँ कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस में उजागर करते थे  | लेकिन संयोग देखिये राजनीती एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है | अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है साथ ही आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ के नारों की भी हवा निकली हुई है क्युकि महंगाई चरम पर है | सरकार  ने घरेलू गैस की सब्सिडी ख़त्म कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में दी है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है | वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई , घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे  से लेकर डीजल , तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही ऍफ़डीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है | देश की अर्थव्यवस्था जहाँ सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है वहीँ आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्युकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है | यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनोमिक्स द्वारा आम आदमी के बजाए  कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा  दिखा रही है |


 ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है राहुल गाँधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है क्युकि यूपीए २ की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा  काम इस दौर में नहीं हुआ है | उल्टा कांग्रेस कामनवेल्थ ,२ जी ,कोलगेट जैसे मसलो पर लगातार घिरती  रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है | ऊपर से रामदेव , अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है |  यही नहीं दिल्ली में बीते दिनों हुई गैंगरेप की घटना के बाद जिस तरह फ्लैश माब  सड़को पर उतरा और उसके कदम लुटियंस की दिल्ली के रायसीना हिल्स की तरफ बढे उसने कांग्रेस के सामने मुश्किलों का पहाड़ लोक सभा चुनावो से ठीक पहले खड़ा कर दिया है।  । देश में  मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं जो गडकरी से लेकर खुर्शीद तक को उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद तक में चुनौती दे चुके हैं | ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्युकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई  साख वापस नहीं आ सकती | दाग तो दाग हैं वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते |

 ऊपर से  आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने  नहीं रखते क्युकि उसके लिए दो जून की रोजी रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है | वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है क्युकि वही सरकार के लिए चुनावो में बिसात बिछा रहा है | ऐसे खराब माहौल में राहुल को बैटिंग करने में दिक्कतें पेश आ सकती हैं | साथ ही राहुल के सामने उनका अतीत भी है जो वर्तमान में भी उनका पीछा शायद ही छोड़ेगा |ज्यादा समय नहीं बीता जब २००९ में २००  से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावो में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार ,उत्तर प्रदेश, पंजाब,तमिलनाडु के विधान सभा चुनावो में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा | उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरुर लेकिन यहाँ भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही | इन जगहों पर राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी | संगठन भी अपने बजाय राहुल का औरा लिए करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगो की भीड़ वोटो में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गाँधी ने भी उन इलाको का दौरा नहीं किया जहाँ कांग्रेस कमजोर नजर आई | चुनाव  निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए | ऐसे में  अब दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है |  
    
    वैसे एक दशक से ज्यादा समय से राजनीती में राहुल को लेकर कांग्रेसी चाटुकार मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा आशावान हैं | लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में राहुल का चुनावी प्रबंधन पार्टी के काम नहीं आ सका | एमबीए, एमसीए डिग्रियों से लैस उनकी युवा टीम ने जहाँ  इन्टरनेट की दुनिया में राहुल के लिए माहौल  बनाया वहीँ कांग्रेसी चाटुकारों की टोली ने उन्हें विवादित बयान देने और चुनावी सभा में बाहें ही चढ़ाना सिखाया | अगर वह जनता की नब्ज पकड़ना जानते तो शायद उत्तर प्रदेश के अखाड़े में वह उनसे कम उम्र के अखिलेश यादव से नहीं हारते | एक दशक से भारत की राजनीती में सक्रिय राहुल गाँधी जहाँ पुराने चाटुकारों से घिरे इस दौर में  नजर आते हैं वहीँ उनकी सबसे बड़ी कमी यह है की चुनाव  निपटने के बाद वह उन संसदीय इलाको और विधान सभा के इलाको में फटकना तक पसंद नहीं करते जहाँ कांग्रेस लगातार हारती जा रही है | यही उनकी सबसे बड़ी कमी इस दौर में बन चुकी है और शायद यही वजह है हिंदी भाषी रायो में कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह साफ़ हो गया है । दक्षिण  में आन्ध्र के जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस की मुश्किलें बढाई  हुई हैं तो केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा , केरल में उसका कोई जनाधार बचा नहीं दिख रहा । 

वहीँ अगर राहुल के बरक्स हम युवा तुर्क अखिलेश यादव को देखें तो उत्तर  प्रदेश के चुनावो में वह मीडिया की नज़रों से बिलकुल ओझल रहे लेकिन उन्हें अपने काम पर भरोसा था वह जनता से सीधा संवाद स्थापित करने में कामयाब रहे और जनता ने सपा को इस साल मौका दिया वहीँ कांग्रेस को उसी हाल पर छोड़ दिया जहाँ वह बरसो से उत्तर प्रदेश में खड़ी है |  अखिलेश की सबसे बड़ी खूबी यह है वह अच्छे संगठनकर्ता हैं ही साथ ही वह एक एक कार्यकर्ता का नाम तक जानते हैं और उनसे कभी भी सीधा संवाद आसानी से स्थापित कर लेते हैं | वहीँ राहुल गाँधी को अपने चाटुकारों से फुर्सत मिले तब बात बने | 

राहुल गाँधी को अगर आने वाले दिनों में  अपने बूते कांग्रेस को तीसरी बार सत्ता में लाना है तो संगठन की दिशा में मजबूत प्रयास करने होंगे साथ ही कार्यकर्ताओ की भावनाओ का ध्यान रखना होगा क्युकि किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी रीड उसका कार्यकर्ता होता है | अगर वह ही हाशिये पर रहे तो पार्टी का कुछ नहीं हो सकता | राहुल को उन कार्यकर्ताओ में नया जोश भरना होगा जिसके बूते वह जनता के बीच जाकर सरकार की नीतियों के बारे में बात कर सकें | उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है तो कांग्रेस की मौजूदा लोक सभा सीटो की चुनोती बरक़रार रखने की विकराल चुनौती  सामने है ।

        एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीती में सक्रियता दिखाने वाले राहुल गाँधी ने शुरुवात में कोई पद ग्रहण नहीं किया | उन्होंने बुंदेलखंड के इलाको के साथ बिहार , उड़ीसा ,विदर्भ के इलाको के दौरे किये और जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओ को गौर से सुना | इसी दौरान वह उड़ीसा में पोस्को और नियमागिरी के इलाको में जाकर वेदांता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं जिन पर पूरे देश का ध्यान गया | यही नहीं भट्टा परसौल, मुंबई की लोकल ट्रेन से लेकर कलावती के दर्द को उन्होंने बीते एक दशक में करीब से महसूस किया है | लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह रही है वह इन इलाको में एक बार अपनी शक्ल  दिखाने और  मीडिया में सुर्खी बटोरने के लिए जाते जरुर हैं  उसके बाद खामोश हो जाते हैं और उन इलाको को उसी हाल पर छोड़ देते हैं जिस हाल पर वह इलाका पहले हुआ करता था तो उनके  विरोधी  सवाल उठाने  लगते है |

मिसाल के तौर पर विदर्भ के इलाके को लीजिए | बीते एक दशक में साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्याए कर चुके हैं जिसको राहुल अपनी राजनीति से उठाते है | कलावती के दर्द को संसद के पटल पर परमाणु करार के जरिये उकेरते हैं लेकिन उसके बाद कलावती को उसी के हाल पर छोड़ देते हैं | २००५ में अपने पति को खो चुकी कलावती का दर्द आज भी कोई नहीं समझ सकता | न जाने लम्बा समय बीतने के बाद वह कहाँ गुमनामी के अंधेरो में खो गई | राहुल उसकी सुध इस दौर में लेते नहीं दिखाई दिए जबकि आडवानी की रथ यात्रा के  दौरान २०११ में अक्तूबर के महीने में उसकी बेटी सविता ने भी ख़ुदकुशी कर ली  | वहीँ इसी साल २०१२ में कलावती की छोटी बेटी के पति ने खेत में कीटनाशक दवाई खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी | तब राहुल गाँधी  की तरफ से उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई | जबकि कलावती के जरिये संसद में परमाणु करार पर मनमोहन सरकार ने खूब तालियाँ अपने पहले कार्यकाल में बटोरी थी तब  वाम दलों की घुड़की के आगे हमारे प्रधानमंत्री नहीं झुके | उसके बाद क्या हुआ कलावती अपने देश में बेगानी हो गयी |  कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में थकी हुई रीता बहुगुणा जोशी के हाथ कमान दी जो अपने जीवन का एक चुनाव तक नहीं जीत सकी | शुक्र है इस बार के चुनाव में उन्हें हार नहीं मिली |  चुनावो के बाद भीतरघातियो पर कारवाही  तक नहीं हुई और ना ही राहुल  उत्तर प्रदेश के आस पास फटके | यही हाल बिहार में हुआ अकेले चुनाव लड़ने का मन तो बना लिया लेकिन संगठन दुरुस्त नहीं था न कोई चेहरा था जो नीतीश के सामने टक्कर दे सकता था इसी के चलते २०१० के विधान सभा चुनाव में केवल ४ सीट ही हाथ लग सकी | चुनाव निपटने के बाद बिहार को भी वैसा ही छोड़ दिया जैसा उत्तर प्रदेश है | अब ऐसे हालातो में पार्टी का प्रदर्शन कैसे  सुधरेगा यह एक बड़ी पहेली बनता जा रहा है |  राहुल को यह कौन समझाए वोट कोई पेड पर नहीं उगते | उसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है और कार्यकर्ताओ को साथ लेकर चलना पड़ता है जिसमे संगठन एक बड़ी भूमिका अदा करता है | लेकिन राहुल की सबसे बड़ी मुश्किल यही है चुनाव के दौरान ही वह चुनाव प्रचार करने इलाको में नजर आते हैं चुनाव निपटने के बाद उन इलाको से नदारद पाए जाते है |
          यू पी ए २ में राहुल के पास अपने को साबित करने की एक बड़ी चुनौती है जिस पर वह अभी तक खरा नहीं उतर पाए हैं | मिसाल के तौर पर अन्ना के आन्दोलन को ही देख लीजिए उस  दौरान  सोनिया गाँधी बीमार थी | राहुल को कांग्रेस के बड़े नेताओ के साथ डिसीजन मेकिंग की कमान दी गई थी लेकिन अन्ना के आन्दोलन पर उनकी एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई | यही नहीं जनलोकपाल जैसे अहम मसलो पर वह उनकी पार्टी का स्टैंड सही से सामने नहीं रख पाए | वह इस पूरे दूसरे कार्यकाल में संसद से नदारद पाए गए है | सदन में कोई बड़ा बयान उनके द्वारा जहाँ नहीं दिया गया वहीँ किसानो की आत्महत्या, महंगाई, ऍफ़डीआई ,गैस सब्सिडी खत्म करने  जैसे मसलो पर उनका कोई बयान मीडिया में नहीं आया  है जो सीधे आम आदमी से जुड़े मुद्दे हैं | यही नहीं भ्रष्टाचार के मसले पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढे बैठे रहे | वाड्रा डीएलएफ के गठजोड़ पर भी उनकी चुप्पी ने कई सवालों को जन्म तो दिया ही साथ ही कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में अपनी पार्टी के कोष से नैशनल हेराल्ड को दिए गए ९० करोड़ रुपये के चंदे पर भी राहुल ने खामोश रहना मुनासिब समझा | हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसे लोगो का कद बढ़ाया गया  जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे | लेकिन राहुल ने उस पर भी कुछ नहीं कहा और ना ही मंत्रिमंडल विस्तार में युवा चेहरों की वैसे तरजीह मिली जिससे कहा जा सके कि विस्तार में राहुल की छाप दिखाई दे रही है | ऐसे  में  राहुल गाँधी  की भूमिका को लेकर सवाल उठने लाजमी ही हैं | अब समय आ गया है जब उनको देश से और आम जनता से जुड़े मुद्दे सामने लाने से नहीं डरना होगा तभी बात बनेगी | नहीं तो अभी के हालत  कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे नजर नहीं आते | वर्तमान में पार्टी जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में ढलान पर है वहीँ मध्य प्रदेश , गुजरात  पंजाब, हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ में उसकी हालत बहुत पतली है | औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता खोला था लेकिन यहाँ पर कांग्रेस पतली हालत में है | सबसे ज्यादा खराब हालत आन्ध्र में है जहाँ जगन मोहन रेड्डी आने वाले विधान सभा चुनावो में मजबूत खिलाडी बनकर उभरेंगे इसके आसार अभी से नजर आने लगे हैं | देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के हालत भी कांग्रेस  जैसे ही हैं | चोर चोर मौसरे भाई जुगलबंदी  यहाँ पर सटीक बैठ रही है | नितिन गडकरी पर लग रहे भ्रष्टाचार के दाग भाजपा की साख को ख़राब कर दी है भले ही संघ का लाडला अब दूसरी बार अध्यक्ष बनने से रह गया हो लेकिन इसने भाजपा की भ्रष्टाचार की लड़ाई को कमजोर ही किया है ।  ऐसे में रास्ता इन दोनों दलों से इतर तीसरे मोर्चे की तरफ जा रहा है जहाँ पर अपने अपने राज्यों के छत्रप मजबूत स्थिति में जाते दिख रहे है जिससे भाजपा और कांग्रेस दोनों की सत्ता में आने  की सम्भावनाए धुंधली होती दिखाई दे रही है | ऐसे में राहुल को कांग्रेस के लिए रास्ता तैयार करने में मुश्किलें पेश आ  सकती हैं |

                 वैसे असल परीक्षा तो आने वाले दिनों में दस राज्यों के विधान सभा चुनावो में है जहाँ कांग्रेस के साथ राहुल की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है ।  अगर यहाँ कांग्रेस अच्छा कर गई तो वह लोक सभा चुनाव का जुआ जल्द खेल सकती है ।  लेकिन यह दूर की गोटी है  राहुल इतने कम समय में कांग्रेस में नई  जान फूंक पायेंगे ? बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा , भूमि अधिग्रहण, लोकपाल  जैसे मसले अभी भी अधर में लटके हैं। मनमोहन के दौर में अमीरों और गरीबो की खाई  दिन पर दिन चौड़ी ही होती जा रही है । इस दौर में कारपोरेट दिनों दिन मजबूत होता जा रहा है तो वहीँ सरकार  ने पूरा बाजार उसके हवाले कर दिया है जहाँ नीतियों के निर्धारण में सीधे उसका साफ़ दखल देखा जा सकता है । भारत के संविधान की बहुत सारी चीजें  पीछे छूट गई हैं । समाजवाद रददी  की टोकरी में चला गया है तो जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाला कोई नेता इस दौर में नहीं बचा है । सभी वालमार्ट  के स्वागत में फलक फावड़े बिछाये हुए है । ऐसे माहौल में क्या राहुल इस पर ध्यान दे पायेंगे यह अपने में बड़ा सवाल है । 

वैसे भी यू पी ए के लिए यह समय मुश्किलों भरा है जहाँ उसके पास उपलब्धियों के नाम पर कुछ खास कहने को बचा नहीं है क्युकि  हर बार वह किसी न किसी मुश्किल में घिरती ही रही है ।  मनमोहन पी ऍम पद के अपने आखरी पडाव पर खड़े हैं । गाँधी परिवार के आसरे कांग्रेस एकजुट नजर आती है इसलिए राहुल मजबूरी का नाम कांग्रेसी चाटुकारों के लिए बन चुके हैं जो हर चुनाव में राहुल को दिग्भ्रमित करने का काम किया करते हैं । कांग्रेस में इस समय कोई जनाधार वाला नेता नहीं बचा है लिहाजा कांग्रेस को एकजुट करने के लिए राहुल ही तुरूप का पत्ता इस दौर में बन चुके हैं । ऐसे में कांग्रेस पार्टी का  सबसे बड़ा खेवनहार वही गाँधी परिवार बना रहेगा जिसके बूते वह लम्बे समय से भारतीय राजनीती में छाई है और यही राहुल गाँधी का औरा उसे चुनावी मुकाबले में भाजपा के बराबर खड़ा कर सकता है क्युकि सोनिया का स्वास्थ्य सही नहीं है | मनमोहन के आलावे कोई दूसरा चेहरा पार्टी में ऐसा इस दौर में बचा नहीं है जो भीड़ खींच सके और लोगो की नब्ज पकड़ना जाने | जाहिर है रास्ता ऐसे में उसी गाँधी परिवार पर जा टिकता है  जिसके नाम पर पार्टी इतने वर्षो से एकजुट नजर आई है और यही औरा गाँधी परिवार की पांचवी पीड़ी में पार्टी के कार्यकर्ताओ को राहुल गाँधी के रूप में नजर आता है जो उसमे नेहरु से लेकर इंदिरा, संजय  और राजीव  गाँधी तक का अक्स देख रहा है |  शायद इसके मर्म को सोनिया गाँधी भी बखूबी समझ रही हैं तभी कांग्रेस जयपुर के चिंतन के आसरे राहुल गाँधी को कमान सौंपने वाली ढाई चाल इस दौर में चलती दिखाई दे रही है |

Monday, 14 January 2013

उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा का कौन होगा नया सूबेदार ?


उत्तराखंड में सत्तारुढ कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भाजपा में नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर घमासान तेज होता जा  रहा है । मौजूदा दौर में दोनों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष की विदाई तय मानी जा रही है लेकिन नए सूबेदार के लिए दोनों दलों में कई नाम सामने आने से अब पार्टी आलाकमान के सामने दिक्कतें दिनों दिन बढती ही जा रही है । भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल जहाँ दिसम्बर में अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं तो वहीं   एक व्यक्ति एक पद के फार्मूले  के आधार पर राज्य के कांग्रेस प्रभारी चौधरी बीरेन्द्र  सिंह बीते बरस ही मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य को बदलने की बात कह चुके हैं  । लिहाजा सर्द मौसम में  दून  से लेकर दिल्ली तक सभी की जुबान पर इन दिनों एक ही सवाल है उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस का नया सूबेदार कौन होगा ?  वह भी तब जब लोक सभा चुनावो की  उल्टी  गिनती शरू हो चुकी है और उससे पहले राज्य  में दोनों पार्टियों को निकाय चुनाव और पंचायत चुनावो का सामना करना है ।

                       भले ही भाजपा  और कांग्रेस आंतरिक लोकतंत्र , अनुशासन का हवाला देकर अपने को पाक साफ़ बताये लेकिन उत्तराखंड  में इन दोनों राष्ट्रीय दलों में कुछ भी ' आल इज  वेल' नहीं है । मुख्यमंत्री विजय  बहुगुणा जहाँ अपने अंदाज में  प्रदेश को चला रहे हैं वहीं कांग्रेस का आम कार्यकर्ता इस दौर में हताश हो चुका है क्युकि  सरकार और संगठन में दूरी इस कदर बढ़ चुकी है कि इस दौर में नौकरशाह आम कांग्रेसी कार्यकर्ता को भाव नहीं दे रहे हैं तो वहीं  भाजपा में  खंडूरी, कोश्यारी और निशंक सरीखे नेता अपने अपने अंदाज में पंचायत चुनावो से लेकर निकाय और लोक सभा चुनावो की बिसात  बिछाने में लगे हुए हैं ।  आम भाजपा का कार्यकर्ता भी इस दौर में भाजपा से परेशान हो चुका  है । ऐसे में दोनों दलों के सामने नए अध्यक्ष को लेकर पहली बार सर फुटव्वल  की स्थति बनती दिख रही है । आम सहमति बननी  तो दूर हर गुट अपने अपने अंदाज में अपने समर्थको के साथ एक  दूसरे  को पटखनी देने में लगा हुआ है । राज्य  में जातीय समीकरण इतने जटिल हैं कि  मुख्यमंत्री से लेकर नेता प्रतिपक्ष  और विधान सभा अध्यक्ष से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक सभी इस दौर में इसी राजनीती के आसरे चुने जा रहे हैं ।

                       भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल तो अपना कार्यकाल दिसंबर में ही पूरा कर चुके हैं लेकिन गडकरी के दुबारा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के लिए संघ ने जिस तरह पार्टी संविधान में संशोधन किया उससे चुफाल के समर्थक इस दौर में बम बम जरुर हैं लेकिन खुद चुफाल अब दुबारा इस जिम्मेदारी  को लेने के के मूड में नहीं हैं । हालाँकि गडकरी के दुबारा अध्यक्ष बनाये जाने की सूरत में अगर चुफाल के उत्तराधिकारी की तलाश में दावेदारों की संख्या बढती है तो नए मुखिया के चयन में गडकरी की बड़ी भूमिका देखने को मिल सकती है । ऐसे में चुफाल के सितारे फिर से बुलंदियों में जा सकते हैं । चुफाल अभी भले ही न्यूट्रल हैं लेकिन उनकी सबसे बड़ी ताकत खंडूरी से निकटता है । 
चुफाल ही वह पहले  शख्स  थे जिन्होंने 2007 में खंडूरी के मुख्यमंत्री बनाये जाने का खुले तौर पर सबसे पहले समर्थन किया था । उस दौर को अगर याद करें तो 20 से ज्यादा विधायक  भगत सिंह कोश्यारी के समर्थन में खड़े थे । अपने समर्थन के लिए कोश्यारी की चिट्टी जब सभी भाजपा विधायको  के पास गई तो  कोश्यारी  के समर्थन में कई लोगो ने बिना चिट्टी पढ़े ही दस्तखत कर डाले थे  वहीँ  चुफाल ने पूरी चिट्टी न केवल पड़ी बल्कि कोश्यारी की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के विरोध में निशंक के साथ खंडूरी  का खुलकर साथ भी दिया । इसके बाद खंडूरी ने उनको अपनी कैबिनेट में न केवल मलाईदार मंत्रालय दिया बल्कि प्रदेश अध्यक्ष की बिसात भी अपने ही बूते बिछाई थी  । लिहाजा इस बार भी अगर दावेदारों का झगडा आलाकमान के सामने बढता है तो खंडूरी का वीटो चुफाल के लिए फिर से नई  सम्भावना का द्वार  खोल सकता है । चुफाल के कार्यकाल में भाजपा न केवल विधान सभा चुनावो में सत्ता के  लगभग करीब पहुची बल्कि टिहरी उपचुनाव में विजय बहुगुणा के बेटे साकेत को  धूल  चटाई । 

चुफाल के उत्तराधिकारी के चयन के लिए इस समय भाजपा में खंडूरी, कोश्यारी, निशंक के कई समर्थक दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं । नए सूबेदार के लिए भाजपा में कई नाम उभरकर सामने आ रहे हैं । बताया जाता है पार्टी आलाकमान छेत्रीय संतुलन की बिसात पर काम कर रहा है । वर्तमान में भाजपा में नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट कुमाऊँ  से हैं तो नए सूबेदार का पद   इस हिसाब से गढ़वाल के खाते में जाना चाहिए । यही नहीं अजय भट्ट  राज्य में भाजपा के ब्राहमण   चेहरे हैं इस लिहाज से गढ़वाल में किसी ठाकुर नेता को संतुलन साधने के लिहाज से आगे किया जा सकता है । दावेदारों में तीरथ सिंह रावत, मोहन सिंह गांववासी,  त्रिवेन्द्र  सिंह रावत और धन सिंह रावत के नाम प्रमुखता से उठ रहे हैं । इन सभी के पास अपने अपने दावे हैं जिनको नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है लेकिन इतना तय है  भाजपा  आलाकमान बिना खंडूरी को विश्वास में लिए बगैर भाजपा के नए सूबेदार की घोषणा नहीं करेगा क्युकि  हलिया विधान सभा चुनावो में इसी खंडूरी फैक्टर के बूते भाजपा का प्रदर्शन तमाम आशंकाओ के बावजूद ठीक रहा था । यह अलग बात है कुछ सीटो पर गुटबाजी, भीतरघात , गलत टिकटों के आवंटन से भाजपा सत्ता में वापसी से  चूक गई । चौबटटाखाल से भाजपा विधायक तीरथ सिंह रावत नए अध्यक्ष की  रेस में सबसे आगे हैं । वह  खंडूरी के सबसे करीबी हैं और इसी के चलते कई महीनों पहले से खंडूरी अपने इस विश्वासपात्र का नाम पार्टी आलाकमान के सामने  दिल्ली  में  रख चुके हैं । हालाँकि आलाकमान खंडूरी को खुद प्रदेश अध्यक्ष का पद आफर  कर चुका है लेकिन खंडूरी ने इस जिम्मेदारी को लेने से इनकार कर दिया है । साफ़ है अगले चुनावो में भी भाजपा का बाद चेहरा खंडूरी ही रहेंगे और खंडूरी तीरथ के आसरे  अब भविष्य की भाजपा तैयार करने का खाका अपने निर्देशन में खींचने वाले हैं ।
त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कोश्यारी का हनुमान जरुर कहा जाता है लेकिन  खंडूरी और निशंक की  गुड बुक में उनका नाम इस दौर में गायब है जिसके चलते उनकी प्रदेश अध्यक्ष की दावेदारी कमजोर नजर आ रही है । वैसे  भाजपा नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में वह कुछ समय पहले  कोश्यारी से गहन निकटता के बावजूद नेता प्रतिपक्ष की लड़ाई में अजय भट्ट से  पिछड  गए ।   कोश्यारी की  मुश्किल इस दौर में  निशंक ने बढाई  हुई है  । प्रदेश अध्यक्ष के लिए एक गुट द्वारा कोश्यारी  का नाम आगे किये जाने के बाद निशंक अपने समर्थको के साथ कोश्यारी  को डेमेज करने के लिए खंडूरी के साथ हाथ मिला सकते हैं ।  निशंक समर्थको की  मजबूरी ऐसी सूरत में खंडूरी  के करीबी  तीरथ सिंह रावत के साथ जाने की बन रही है ।  मोहन सिंह गांववासी  का नाम भी अध्यक्ष पद के लिए गलियारों में उछल  रहा है । वह संघ के सबसे करीबियों में शामिल होने के साथ ही कुशल संगठनकर्ता भी हैं तो वहीँ धन सिंह रावत भी संघ में सीधी  पकड़ रखने के साथ ही आलाकमान पर पकड़ रखते हैं जिस कारण  उनका दावा भी अपनी जगह है । वैसे बताते चलें इन सबसे इतर रेस में खंडूरी, निशंक , भगत  सिंह  कोश्यारी भी बने हुए हैं लेकिन इनकी  कम सम्भावनाए  इस रूप में बन रही हैं क़ि  पार्टी आने वाले लोक सभा चुनावो में पार्टी  इन्हें  अपना बड़ा चेहरा बना रही  है और इसी के जरिये भाजपा राज्य में पांच  सीटो पर कांग्रेस को  तगड़ी चुनौती  दे सकती है ।  पूर्व कैबिनेट  मंत्री  प्रकाश पन्त जो सितारगंज में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा  से बुरी तरह परास्त हो गए वह भी  अब अपनी नजरें नैनीताल संसदीय सीट पर लगाये  हैं ।  पार्टी में एक तबका उके राजनीतिक पुनर्वास के लिए उनको भाजपा की कमान राज्य में देने की बात कह रहा है लेकिन कोश्यारी खेमे ने उनके नाम पर फच्चर फंसा दिया है । वैसे बताते चलें इसी खेमे ने प्रकाश पन्त को सितारगंज सरीखी ऐसी विधान सभा से पिछले साल बहुगुणा के विरोध में उतारा उठाया जहाँ पहाड़ी वोटर गिने चुने हैं । इस खेमे की कोशिश प्रकाश पन्त की भावी राजनीति पर ग्रहण लगाने के रही और शायद  यही कारण  है प्रकाश अब राजनीतिक  बियावान में अपने लिए मैदानी इलाको में जमीन तलाश रहे हैं । 

             

        वहीँ कांग्रेस में भी प्रदेश अध्यक्ष के दावेदारों की लम्बी चौड़ी फ़ौज खड़ी है ।  मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य के कैबिनेट मंत्री बनाये जाने के बाद पार्टी आलाकमान उन्हें सरकार और संगठन की दोहरी जिम्मेदारी नहीं  देना  चाहता लिहाज पार्टी के प्रदेश प्रभारी चौधरी बीरेंद्र सिंह ने बीते साल ही दून  आकर कांग्रेस का कप्तान बदले जाने की बात कही थी । तब से कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष बदलने की राग भैरवी   तान हर जिले में सुनने को  मिली  है ।   संगठन  को ठेंगा दिखाते हुए  पार्टी का हर नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस का सूबेदार बदले जाने की बात खुले आम मीडिया में कहने से परहेज नहीं कर रहा था जिसके  बाद प्रदेश प्रभारी को ऐसी बयानबाजी पर  रोक लगानी पड़ी । अभी  भी  कई कार्यकर्ता बहुगुणा सरकार की कार्यशैली से निराश हैं । उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को 10 महीने पूरे होने वाले हैं लेकिन लालबत्ती  पाने की कार्यकर्ताओ की हसरत अभी तक अधूरी ही है ।  वहीँ सरकारके तमाम मंत्री और संतरी इस दौर में अपने नाते रिश्तेदारों को लालबत्ती के पदों पर समायोजित करने में लगे हुए हैं जिससे कांग्रेस का आम कार्यकर्ता बहुत ज्यादा नाराज है । ऐसे में यशपाल आर्य भी अब कार्यकर्ताओ के सीधे निशाने पर हैं । उनके पुत्र संजीव आर्य को हाल ही में सहकारी बैंक की लालबत्ती से नवाजा जा  चुका है तो वहीँ यशपाल की मुख्यमंत्री   बहुगुणा के साथ लगातार बढती निकटता हरीश रावत के समर्थक नहीं पचा पा रहे हैं । कुमाऊं से होने के बाद भी यशपाल कुमाऊं के कार्यकर्ताओ का दिल जीतने में नाकामयाब  अब तक रहे हैं । हालांकि  यशपाल के अध्यक्ष पद पर रहते कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव में जहाँ भाजपा को सभी 5 सीटो पर पराजित किया था वहीँ टिहरी उपचुनाव में मुख्यमंत्री बहुगुणा के बेटे साकेत की हार पर कार्यकर्ता यशपाल को सीधे निशाने पर लेने से नहीं चूक रहे हैं ।  उत्तराखंड में  कांग्रेस का मतलब केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत  हैं । उनकी आम कार्यकर्ता से लेकर उत्तराखंड के आम जन जन तक  पैठ आज भी कायम है लेकिन मुख्यमंत्री पद की  रेस में इस बार भी वह विजय बहुगुणा से पिछड  गए जबकि हरीश रावत के  पास अपने समर्थको और विधायको की बड़ी तादात थी । ऐसे में अब हरीश रावत के समर्थक यशपाल  आर्य को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने के लिए दिल्ली में पूरी तरह से एकजुट है ।  टिहरी में कांग्रेस  की हार का ठीकरा   वह संगठन पर  फोड़ रहे हैं जिसकी कमान यशपाल आर्य के हाथ में है ।

                
      हरीश रावत के समर्थक यशपाल  आर्य के स्थान पर जहां सांसद प्रदीप टम्टा  और पिथौरागढ़ से  विधायक  मयूख महर के नाम के लिए दस जनपथ में लाबिग कर रहे हैं वहीँ नारायण दत्त तिवारी गुट के समर्थक विधायको का एक गुट हरीश रावत गुट को पटखनी देने के लिए सांसद सतपाल महाराज के नाम का बड़ा दाव खेल सकते हैं । इधर  उत्तराखंड कांग्रेस में बने कई गुटों ने राज्य के प्रभारी  चौधरी वीरेंद्र सिंह की मुश्किलों को बढा  दिया है । 13 दिसंबर को  देहरादून में हुए उत्तराखंड कांग्रेस के चिंतन शिविर में महेंद्र पाल ने जिस तरह विजय बहुगुणा की तारीफों में कसीदे पड़े उससे उनका नाम भी भावी प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर लिया जा रहा है । महेंद्र पाल कुमाऊं  से आते है और मुख्यमंत्री बहुगुणा गढ़वाल के है । लिहाजा संतुलन के लिहाज से भी यह सही रहेगा । खुद केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत को पाल के नाम से कोई ऐतराज नहीं है । वहीँ हरीश रावत  का एक गुट  राज्य के पूर्व परिवहन मंत्री हीरा सिंह बिष्ट के नाम का दाव खेलने के मूड में  भी दिख रहा है । देहरादून पी सी सी कार्यालय में उनको लेकर दस जनपथ तक में  एक बड़ा बाजार गरम दिखाई दे रहा है ।  हरीश रावत के विरोधी  यह तर्क दे रहे हैं मुख्यमंत्री बहुगुणा सितारगंज से विधायक हैं जो  कुमाऊ में आता है । वही इस लिहाज से देखें तो  उनके  हिसाब से  प्रदेश  अध्यक्ष  गढ़वाल के ही खाते में आना चाहिए । लेकिन कांग्रेस की नजरें अभी भाजपा के  नए प्रदेश अध्यक्ष पर भी टिकी हैं । राज्य में कांग्रेस के सूत्रों का मानना है भाजपा का अध्यक्ष घोषित होने के बाद कांग्रेस अपने पत्ते पूरी तरह खोलेगी ।

18 से 20 जनवरी तक जयपुर में होने जा रहे कांग्रेस पार्टी के चिंतन शिविर में उत्तराखंड कांग्रेस के अगले प्रदेश अध्यक्ष के नाम पर भी चिंतन होने के आसार  दिख रहे हैं । इस बार नए अध्यक्ष पद के चयन में मुख्यमंत्री बहुगुणा की चलने की पूरी संभावना दिख रही है । दस जनपथ में बहुगुणा की सीधी पकड़, रीता बहुगुणा और अम्बिका सोनी, अहमद पटेल  से सीधी पकड़  और सांसद सतपाल महाराज के साथ गहन  निकटता प्रदेश अध्यक्ष के चयन में उनको फायदा पंहुचा सकती है । सतपाल महाराज के समर्थक हरीश रावत के केन्द्रीय मंत्रिमंडल में आने के बाद से अपने को असहज महसूस कर रहे है और महाराज के कई समर्थक अब इस बार उन पर प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी लेने का बहुत दबाव डाल  रहे हैं । सतपाल और हरीश रावत गुट में शुरू से  36 का आंकड़ा उत्तराखंड में जगजाहिर रहा  है । विजय  बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाये जाने में सतपाल महाराज की भूमिका भी किसी से शायद ही छिपी है । सतपाल ने ही हरीश  रावत सरीखे खांटी  कांग्रेसी नेता के मुख्यमंत्री बनने  की राह इस बार भी मुश्किल की जिसके बाद हरीश रावत की राय पर आलकमान ने रावत के करीबी ज्यादा विधायको को बहुगुणा  कैबिनेट में जगह दी । अब सतपाल हरीश के  केन्द्रीय मंत्री बनाये जाने को   नहीं पचा पा रहे हैं ऐसे में वह खुद राज्य के अध्यक्ष की कमान अपने हाथो में लेना चाहेंगे । अगर सतपाल खुद आगे नहीं भी आते हैं तो संभावना है वह बहुगुणा को भरोसे में लेकर किसी के नाम को आलकमान के यहाँ आगे करें । वैसे बताते चलें बहुगुणा और सतपाल अभी भी  यशपाल  आर्य को ही दूसरा कार्यकाल देने के लिए आलाकमान को  किसी तरह से मनवाने में लगे  है ।

बहरहाल भाजपा और कांग्रेस  के लिए आने वाला समय उत्तराखंड में खासा चुनौतीपूर्ण रहने वाला है । छत्रपो के कई गुट ,  सरकार और संगठन को साथ लेकर दोनों दलों को  2013  के मध्य में निकाय , पंचायत  चुनावो का सामना करना है । फिर 2014 में लोक सभा चुनावो की  डुगडुगी  बजेगी । ऐसे माहौल  में सांगठनिक  कौशल  के आसरे ही दोनों दल तमाम  चुनौतियों से पार पा सकते हैं लेकिन मौजूदा दौर में उत्तराखंड में नए सूबेदार के लिए दोनों दलों की नूराकुश्ती थमती नहीं दिख रही है लिहाजा कड़ाके की  ठण्ड में भी उत्तराखंड का राजनीतिक पारा पूरी तरह गर्म है । 



Sunday, 13 January 2013

दोस्ती में पड़ी दरार ......

भारतीय  क्रिकेट टीम को वन  डे  सीरीज में 2-1 से हराने के बाद पाकिस्तान की टीम अभी जीत के जश्न से पूरी तरह से सरोबार भी नहीं हुई  थी कि पाकिस्तान ने एक बार फिर अपना घिनौना  चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया ।  पुंछ जिले में  मेंढर सेक्टर के मनकोट  इलाके में बीते मंगलवार हुए हादसे में पाक सेना  की बॉर्डर एक्शन फ़ोर्स के
जवान भारतीय  इलाके में 100 मीटर अन्दर घुस आये और भारतीय  सेना  पर अपना धावा बोल दिया जिसमे लांसनायक सुधाकर सिंह और हेमराज को भारत ने खो दिया । ऐसा करके पकिस्तान ने  नवम्बर 2003 से चले आ रहे  संघर्ष विराम का न केवल उल्लंघन किया बल्कि बर्बर कार्यवाही कर एक भारतीय  जवान हेमराज का सर काट डाला ।  बर्बर कार्यवाही में पाक ने जहाँ  तमाम अन्तरराष्ट्रीय  कानूनों की धज्जियाँ  उड़ाई वहीँ बीते दौर में हुए कारगिल युद्ध की यादो को ताजा करा दिया ।  उस दौर को अगर हम याद करें तो कैप्टन सौरभ कालिया के शव के साथ भी पकिस्तान ने ऐसा ही सलूक किया था और सर कलम करने वाले एक  पाकिस्तानी जवान को 5 लाख रुपये के पुरस्कार से नवाजा था ।

       सुधाकर सिंह  और हेमराज के साथ की गई इस अमानवीय कार्यवाही ने हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है अब पकिस्तान के साथ  किस मुह से हम दोस्ती का हाथ बढ़ाये ? पकिस्तान के साथ दोस्ती का आधार क्या हो वह भी तब जब वह लगातार भारत की पीठ पर छुरा भौंकते  हुए लगातार विश्वासघात ही करता जा रहा है । इस दुस्साहसिक कारवाई  की जहाँ पूरे देश   में निंदा  हुई है वहीँ आम आदमी अब भारतीय नीति नियंताओ से सीधे सवाल पूछ रहा है कि अब समय आ गया है जब पकिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लिए जाएँ तो यह वाजिब सवाल है ।  यही नहीं विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अगर इस बार सरकार  के द्वारा  की  जाने वाली हर कार्यवाही के समर्थन में कदमताल कर रही हैं तो यह सही भी है क्युकि  लगातार होते हमलो से हमारा  धैर्य अब जवाब दे रहा है । बीते एक बरस में लाइन ऑफ़ कंट्रोल  में मुठभेड़  की यह 70 वी घटना है जहाँ पकिस्तान की मंशा इसके जरिये भारत में उन्माद फैलाने की ही रही है ।

     असल में  कारगिल के दौर में भी पकिस्तान ने भारत के साथ ऐसा ही सलूक किया था  ।  हमारे प्रधानमंत्री वाजपेयी रिश्तो  में गर्मजोशी लाने लाहौर बस से गए लेकिन  नवाज  शरीफ  को अँधेरे में रखकर मिया मुशर्रफ  कारगिल की पटकथा तैयार करने में लगे रहे । इस काम में उनको पाक की सेना का पूरा सहयोग मिला था । इस बार की कहानी भी पिछले बार से जुदा नहीं है । अपने कार्यकाल के अन्तिम पडाव पर खड़े पाक सेनाध्यक्ष अशफाक कियानी भारत के साथ रिश्तो को सुधारने के बजाए बिगाड़ना चाहते हैं । यह उनके द्वारा दिए गए हाल के बयानों में साफ़ झलका है । अभी कुछ दिनों पूर्व उन्होंने भारत को चेताते हुए कहा था समय आने पर भारत को माकूल जवाब दिया जायेगा । इसकी परिणति हमारी सेना के दो जवान खोने के रूप मे हुई है । पुंछ   की इस कार्यवाही में कियानी का पाक के सैनिको को  पूरा समर्थन रहा है ।  पाक में सरकार तो नाम मात्र की है वहां पर चलती सेना की ही है और बिना सेना के वहां पर पत्ता भी नहीं हिला हिलता  । कट्टरपंथियों की बड़ी जमात वहां ऐसी है जो भारत के साथ सम्बन्ध सुधरते नहीं देखना चाहती है ।  ऐसी सूरत में अगर हम बार बार उससे दोस्ती का राग  छेड़ते है  तो यह हजम नहीं होता क्युकि  छलावे के सिवा यह कुछ भी नहीं है ।


          दुखद पहलू यह है पाक जहाँ  इस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही में अपना हाथ होने से अब भी साफ़ इनकार कर रहा है वहीँ भारत सरकार  कह रही है वह हमारे सब्र का इम्तिहान नहीं ले तो यह पहेली किसी के गले नहीं उतर रही । आखिर कब तक हम पाक के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहेगे  और बातचीत से मेल मिलाप बढ़ायेंगे जबकि हर मोर्चे पर वह हमको धोखा ही धोखा देता आया है । इस घटना के बाद हमारे नीतिनियंताओ को यह सोचना पड़ेगा  अविश्वास की खाई  में दोनों मुल्को की दोस्ती में दरार पडनी  तय है । अतः अब समय आ गया है जब हम पाक के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ डालें । हमें अपने उच्चायुक्त को पाक से वापस बुला लेना  चाहिए ताकि पाक के चेहरे को पूरी दुनिया में बेनकाब किया जा  सके ।

  मुंबई  में 26/11 के हमलो में भी पाक की संलिप्तता पूरी दुनिया के सामने ना केवल उजागर हुई थी बल्कि पकडे गए आतंकी कसाब ने  यह खुलासा  भी किया हमलो की साजिश पाकिस्तान में रची गई जिसका मास्टर माइंड हाफिज मोहम्मद  सईद  था । हमने मुंबई हमलो के पर्याप्त सबूत पाक को सौंपे भी लेकिन आज तक वह इनके दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाया है । आतंक का सबसे बड़ा मास्टर माईंड हाफिज पाकिस्तान में खुला घूम रहा है और  भारत  के खिलाफ लोगो को जेहाद छेड़ने के लए उकसा भी रहा है लेकिन आज तक हम पाक को हाफिज के मसले पर ढील ही देते रहे हैं  यही कारण  है वहां की सरकार  उसे पकड़ने में नाकामयाब रही है ।  2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हमले के बाद उसके जमात उद  दावा ने  कश्मीर के ट्रेंनिग कैम्पों में घुसकर युवको को  जेहाद के लिए प्रेरित किया । अमेरिका द्वारा उसके संगठन  को प्रतिबंधित  घोषित  करने  और उस पर करोडो डालर के इनाम रखे जाने के बाद भी पाकिस्तान  सरकार  ने उसे कुछ दिन लाहौर की जेल में पकड़कर रखा और जमानत पर रिहा कर दिया । आज  पाकिस्तान  उसे   पाक में होने को सिरे से नकारता रहा है जबकि असलियत यह है पुंछ की इस बर्बर कार्यवाही में हाफिज की संलिप्तता एक बार फिर से उजागर हुई है । बताया जाता है सप्ताह भर पहले उसको
मेंढ़र इलाके से सटे पाकिस्तान के कब्जे वाले पी ओ  के में  देखा गया था जिसने पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के साथ भारत में घुसपैठ बढाने की कार्ययोजना को तैयार किया था ।  भारतीय गृह मंत्रालय भी अब इस बात को मान रहा है उस इलाके में हाफिज नजर आया था । भारत के खिलाफ इस साजिश  को अंजाम देने में उसे पाक की सेना का पूरा सहयोग मिला लेकिन पाकिस्तान को देखिये वह  अपनी सेना की करतूत को इस पूरे मामले में नकार रहा है । अब ऐसे हालातो में हम उससे बेहतर सम्बन्ध कैसे बना सकते हैं ?

 26 / 11 के हमलो के बाद भारत ने  जहाँ कहा था जब तक 26 /11 के दोषियों पर पाक  कार्यवाही नहीं करेगा तब तक हम उससे कोई बात  नहीं  करेंगे लेकिन आज तक उसके द्वारा दोषियों पर कोई कार्यवाही ना किये जाने के बाद भी हम 200 बिलियन व्यापार , वीजा  नियमो में ढील , क्रिकेट के आसरे अगर इस दौर में निकटता बढा रहे हैं तो यह हमारी लुंज पुंज विदेश नीति वाले रवैये को उजागर करता है । पिछले साल भारत दौरे पर आये रहमान मालिक से जब 26 /11 के बारे में हमने पुछा तो उन्होंने कहा इवाइडेंस और आरोपों में भेद होता है । अगर भारत सबूत पेश करता है तो पाक 26/11 के दोषियों को सजा देगा । लेकिन यह कैसा सफ़ेद झूठ  है । भारत तो पहले  ही पाक को सभी सबूत पेश कर  चुका  है लेकिन पाक उस पर कोई कार्यवाही  क्यों नहीं करता ?  अब तो  हर घटना में अपना  हाथ होने से इनकार करना पाक का शगल ही बन गया है । लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर युद्ध विराम तो नाम मात्र का है इसके बावजूद भी उस पूरे इलाके में सैनिको के बीच अकसर तनाव देखा जा सकता है और फायरिंग की घटनाएं आये  दिन होती रहती हैं । सर्द मौसम में कोहरे की आड़ में भारतीय सेना में घुसपैठ की कार्यवाहियां अब पाक की सेना कर  रही है  क्युकि  इस दौर में जम्मू में शांति ही शांति रही है । पाक  का पूरा ध्यान अपने अंदरूनी झगडो  और तालिबान में लगा रहा है । उसे लगता है अगर ऐसा ही जारी रहा तो आने वाले दिनों में कश्मीर उसके हाथ से निकल जायेगा । अतः ऐसे हालातो में वह अब लश्कर और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनो को पी ओ  के  में भारत के खिलाफ एक  बड़ी जंग लड़ने के लिए उकसा रहा  है जिसमे कई कट्टरपंथी संगठन उसे मदद कर रहे हैं । पाक की राजनीती का असल सच किसी से छुपा नहीं है । वहां पर सेना कट्टरपंथियों का हाथ की कठपुतली ही  रही है । सरकार तो नाम मात्र की लोकत्रांत्रिक  है  असल नियंत्रण तो सेना का हर जगह है ।  पाक इस बार यह महसूस कर रहा है अगर समय रहते उसने भारत के खिलाफ अपनी जंग शुरू नहीं की तो कश्मीर का मुद्दा ठंडा पड  जायेगा । अतः वह भारतीय सेना को अपने निशाने पर लेकर कट्टरपंथियों की पुरानी  लीक पर चल निकला है । आने वाले दिनों में अफगानिस्तान से अमरीकी सेनाओ की वापसी  तय मानी जा रही है ।  ऐसे में भारत को चौकन्ना रहने की जरुरत है  क्युकि  अमेरिकी  सैनिको की वापसी के बाद पाक में कई कट्टरपंथी सेना के जरिये भारत में घुसपैठ तेज कर सकते हैं । कश्मीर का राग पाक का पुराना राग है जो दोस्ती के रिश्तो में सबसे बड़ी दीवार है । ऐसे दौर में हमें पाक पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । हमारी सेना को ज्यादा से ज्यादा अधिकार सीमा से सटे इलाको में मिलने चाहिए ।


                         2 जवानो की हत्या के बाद अब भारत को पाक के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए । उसे किसी तरह की ढील नहीं मिलनी चाहिए । पकिस्तान हमारे धैर्य  की परीक्षा ना ले अब ऐसे बयान देकर काम नहीं चलने वाला क्युकि  इस घटना ने हमारे  सैनिकॊ  के मनोबल को   गिराने का काम किया है । पाक के साथ भारत को अब किसी तरह की नरमी नहीं बरतनी चाहिए और कूटनीति के जरिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर उसके खिलाफ माहौल बनाना  चाहिए  साथ ही अमेरिका सरीखे मुल्को से बात कर यह बताना  चाहिए  आतंक के असल सरगना पकिस्तान में  पल रहे हैं और आतंकवाद के नाम पर दी जाने वाली हर मदद का इस्तेमाल पाक दहशतगर्दी फैलाने में कर रहा है । इस समय पाक को  तकरीबन 3 अरब से ज्यादा की सालाना  इमदाद अमेरिका के आसरे मिल रही है जिससे पाक की माली हालत कुछ सुधरी है अन्यथा वहां की अर्थव्यवस्था तो पटरी से उतर चुकी है । आर्थिक विकास  दर  जहाँ लगातार घट रही है वहीँ आतंक के माहौल के चलते कोई नया निवेश नहीं हो पा रहा है । घरेलू गैस से लेकर तेल की बड़ी कीमतों ने संकट बढाया  है तो  वहीँ दैनिक उपभोग की चीजो के दाम आसमान छू रहे हैं । अगर पाक को विदेशो से मिलने वाली मदद इस दौर में बंद हो जाए तो उसका दीवाला निकल जायेगा । ऐसी सूरत में कट्टरपंथियों के हौंसले भी पस्त हो जायेंगे । तब भारत  पी ओ के में चल रहे आतंकी शिविरों को अपना निशाना बना सकता है ।  माकूल कार्यवाही के लिए यही समय बेहतर होगा ।  अब समय आ गया है जब पाक के खिलाफ भारत बातचीत के विकल्पों से इतर कोई बड़ी कार्यवाही की रणनीति  अख्तियार करे क्युकि एक के बाद एक झूठ  बोलकर पाक हमें धोखा दे रहा है और कश्मीर के मसले के अन्तरराष्ट्रीयकरण  के पक्ष में खड़ा है ।

                   आज तक हमने पाक के हर हमले का जवाब बयानबाजी से ही दिया है । भारत सरकार धैर्य , संयम  की दुहाई देकर हर बार लोगो के सामने सम्बन्ध सुधारने की बात दोहराती रहती है ।  इसी नरम रुख से पाक का दुस्साहस इस कदर बढ  गया है  वह हमारे जवानो के शव धड से अलग कर अंतरराष्ट्रीय नियमो का उल्लंघन करता है और कश्मीर पर मध्यस्थता का पुराना राग छेड़ता  रहता है ।यह दौर भारतीय नीति नियंताओ के लिए असली परीक्षा का है  क्युकि  उसी की नीतियां अब पाक के साथ भारत के भविष्य को ने केवल तय कर सकती है बल्कि अंतरराष्ट्रीय  मोर्चे पर यह मामला उसकी कूटनीति के आसरे दुनिया तक पहुच सकता है । लेकिन दुर्भाग्य है वोट बैंक के स्वार्थ के चलते हम अपने जवानो की शहादत का बदला लेने के बजाए धैर्य और संयम की दुहाई देकर पाक के साथ सम्बन्ध हर बार  सुधारने की बात  दोहराते  रहे हैं । दुर्भाग्य है आज इस देश में ना तो इंदिरा गाँधी सरीखा नेतृत्व किसी के पास बचा है और ना ही वाजपेयी सरीखी  विदेश नीति । क्या करें सारी  कवायद तो इस दौर में विदेशी निवेश बढाने और   मनमोहनी  इकोनोमिक्स  के आसरे विकास की लकीर खींचने और अमरीकी कंपनियों को लाभ पहुचाने में लगी है । सीमा पर देश की रक्षा करने वाले जवानो के दुःख दर्द को महसूस करने की छमता किसी राजनेता में नहीं बची है । यही नहीं जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाले शास्त्री सरीखे नेता भी इस दौर में नहीं हैं जो ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली लीक पर चला करते थे । अगर ऐसा होता तो सौरभ कालिया के दौर की पुनरावृत्ति  इस देश में नहीं होती ।