Monday, 20 January 2014

लाइट , कैमरा, एक्शन और धरने पर 'आप '


आंदोलन चलाने  से लेकर  सरकार चलाने के चंद  दिन देखने के बाद अब आम आदमी पार्टी के भीतर के कुनबे से जिस तरह की विरोधी  आवाजें आयी हैं उससे आम आदमी  पार्टी की साख लोगो के बीच प्रभावित हो रही है । आप के विरोध में खड़े लक्ष्मी नगर से आप के विधायक  विनोद कुमार बिन्नी ने अब पैंतरा बदलते हुए केजरीवाल पर सीधा निशाना साधा है और कहा है केजरीवाल की  यह पार्टी अब आम आदमी की पार्टी नहीं बल्कि खास आदमी पार्टी बनकर  रह गई है, साथ ही उन्होंने कहा है आम आदमी पार्टी को सत्ता मिलने के बाद  आम जनता से जुड़े मुद्दे कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं । बिन्नी  ने 15 जनवरी को एक बार फिर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। उन्होंने  केजरीवाल पर  जनता को गुमराह करने का आरोप लगाया जिसके जवाब  में  केजरीवाल ने भी कहा कि पहले वह मंत्री पद मांग रहे थे और अब पूर्वी दिल्ली से लोकसभा का टिकट मांग रहे हैं। फिर क्या था  बिन्नी ने केजरीवाल को तानाशाह और धोखेबाज तक करार दे दिया।

 बिन्नी की यह बगावत आप के आतंरिक लोकतंत्र की पोल तो खोल रही है साथ में केजरीवाल को भी सीधे  निशाने पर ले रही है । बिन्नी ने केजरीवाल पर सबसे गम्भीर आरोप आप सरकार के  कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाने को लेकर  लगाये है क्युक़ि  ध्यान दें तो  सत्ता में आने से  पहले  केजरीवाल ने  जहाँ भाजपा और कांग्रेस से समर्थन नहीं लेने ,ना किसी को समर्थन देने की बात दोहरायी थी  वहीँ उनके निशाने पर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी  थी जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई बड़े सबूत होने की बात केजरीवाल ने ना  केवल दोहराई थी बल्कि उनके खिलाफ घोटालो की जांच करवाने की  बात भी  बड़े मंचो  से कही थी लेकिन  आज केजरीवाल अगर विपक्षियो से ठोस सबूत लाने  की बात कर  रहे हैं तो उनकी नेकनीयती पर तो सवाल उठने लाजमी ही हैं ।वहीँ दूसरी तरफ अरविन्द यह मानते रहे है राजनीती में शुचिता और ईमानदारी लाना उनके हर विधायक का मकसद ना केवल इस दौर में है बल्कि स्वराज को आम आदमी तक पहुचाने में उनका हर कार्यकर्ता कंधे  से कन्धा मिलाकर चलेगा । लेकिन हाल के समय में घटित हुआ  बिन्नी  प्रकरण उनके दावो की पोल खोलने के साथ ही बिन्नी की मंत्री पद पाने  की लालसा को भी उजागर करता है ।

  रामलीला  मैदान में शपथ  ग्रहण से ठीक पहले भले ही बिन्नी के साथ मान मनोव्वल के बाद मामला शांत हो गया था   लेकिन सरकार  बनने  के बीस दिन बाद फिर  उनके बगावती तेवर आप की साख पर तो असर छोड़ते है साथ ही लोगो में उसकी विश्वसनीयता  को लेकर  भी  गम्भीर  सवाल  उठाते हैं । हाल के दिनों में आप के कई निर्णयो में भारी अंतर्विरोध देखने को मिले हैं जिसके बाद से यह सवाल भी बड़ा हो चला  है आने वाले दिनों में यह पार्टी किस राह पर चलेगी  जिसमे देश की अर्थ नीति से लेकर  आंतरिक सुरक्षा सरीखे मसले शामिल हैं ही साथ ही कॉर्पोरेट घरानो को लेकर आप की  नीति क्या रहेगी यह भी  आप की बड़ी पहेली होगी  और इन  सबके बीच आप के हर विधायक और नेता आये दिन किसी न किसी मसले पर घिरते ही जा रहे हैं ।

 केजरीवाल सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री राखी बिड़ला एक कार्यक्रम में जब कुछ दिनों पहले पहुंची  तो वहां उनकी गाड़ी के शीशे पर बच्चे की गेंद लग गई जिससे कार का शीशा टूट गया ।  इस घटना को उन्होंने अपने ऊपर हमले के रूप में पेश किया और थाने में केस दर्ज करा दिया जबकि  बच्चे की गेंद उनकी कार के शीशे पर लगी थी । इस घटना में भी केजरीवाल ने राखी का खूब पक्ष लिया था ।  वहीँ  केजरीवाल मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री  सत्येंद्र जैन ने सरकारी अस्पतालो के ताबड़तोड़ दौरे कर पहले मीडिया की खूब वाह वाही बटोरी लेकिन  जनकपुरी के एक अस्पताल के बाहर  एक नवजात को फेंकने का मामला सामने जब आया और मीडिया ने  कार्रवाई को लेकर सवाल पूछे  तो वह झल्ला गए और उन्होंने कहा कि यह मामला निजी अस्पताल का है,  इसके बाद भी  केजरीवाल ने उनका खूब बचाव किया । 

                     आम आदमी पार्टी में दिल्ली की सत्ता पाने के बाद एक  ख़ास बदलाव देखने को आया है । जहाँ पहले आप से जुड़ने वाले लोगो की संख्या कम थी वहीँ दिल्ली में चमत्कारिक जीत के बाद आप के कार्यकर्ता  तो उत्साहित हुए  ही पूरे देश और विदेश से उससे जुड़ने वाले सदस्य बढ़ते  गए शायद इसकी बड़ी वजह यह रही जनता केजरीवाल से बहुत उम्मीदें पालने लगी । इस  अति उत्साह में   आप ने जहाँ  लोक सभा की  सभी सीटो पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर डाला वहीँ आम जनता के लिए सचिवालय के दरवाजे इस तरह खोल दिए कि  कैबिनेट मंत्री सड़क पर जनता की समस्याएं सुनने बैठने लगा । खुद मुख्यमंत्री ने आनन फानन में जनता दरबार लगाने की घोषणा कर डाली लेकिन पहली बार जनता दरबार में  मची मारामारी के चलते जनता दरबार के अपने प्रोग्राम को ही अब  स्थगित करवा दिया । 

 दिल्ली में सरकार  बनाये जाने के बाद आप में  अलग अलग  विचारधारा से जुड़े लोगो का  संगम जुड़ना शुरू हुआ है। जहाँ भाजपा और कांग्रेस से नाराज एक बड़ा वोटर केजरीवाल में नायक -2  का अक्स देखने लगा वहीँ सामाजिक कार्यकर्ताओ से लेकर समाजवादी, कॉर्पोरेट से लेकर एक्टिविस्ट हर तरह का तबका केजरीवाल को  करिश्माई तुर्क मानने लगा ।  पार्टी में शामिल होने के बाद उनके सुर भी कई मौको पर बेमेल दिखायी दिए । मसलन प्रशांत भूषण को ही लें उन्होंने कई मौको पर कश्मीर को लेकर जनमत संग्रह कराने का पुराना मसला फिर से उठाया तो वहीँ मल्लिका साराभाई ने बड़बोले कुमार विश्वास को  अपरिपक्व  तक कह डाला  ।

 कुमार  विश्र्वास ने औरतों, अल्पसंख्यकों और समलैंगिक महिलाओं के लिए जिस तरह की शब्दावली  का प्रयोग किया उस पर  साराभाई ने कड़ा ऐतराज जताया ।  वहीँ  विश्‍वास की मलयाली नर्सों पर 6 साल पहले की गई अभद्र टिप्‍पणी पर  उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की मांग  की गई है तो हाल ही में 'आप' के साथ जुड़ने वाली मलयाली लेखिका सारा जोसफ ने भी इस मुद्दे पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्‍व से जवाब माँगा है  । इसके अलावा हाल ही में पार्टी में शामिल हुए कैप्टन गोपीनाथ ने भी दिल्ली सरकार के उस फैसले पर सवाल उठाये जिसमे केजरीवाल ने खुदरा में शीला सरकार के निर्णय को  ही पलट दिया था । यह मामला अभी शांत ही हुआ था कि अब आप फिर से नई  मुश्किलो में घिर गई है ।  आम आदमी पार्टी और पुलिस अधिकारियो के बीच विवाद ने इन दिनों दिल्ली की राजनीती में भूचाल ला दिया है ।

 आम आदमी पार्टी  की सरकार और दिल्ली पुलिस में इस कदर ठनी हुई है अब दिल्ली में केजरीवाल अपने कैबिनेट मंत्रियो के लाव लश्कर के साथ रेल भवन के सामने  धरने पर बैठ   गए हैं । यह पहला मौका है जब पहली बार कोई मुख्यमंत्री इस तरह सरकार का मुखिया होने के बावजूद अपनी मांगें मनवाने के लिए अनशन पर बैठा है । सरकार बनने के बाद जिस तरह आप के दो कैबिनेट मंत्रियो की पुलिस अधिकारियो के साथ तकरार बढी उसने आप के भविष्य को लेकर कई सवाल खड़े किये हैं । सवाल उस पुलिस को लेकर भी है जिसकी कार्यशैली हमेशा से विवादो में रही है और जो केंद्र सरकार के अधीन रहकर काम करती आयी है । । कुछ दिनों पहले दिल्ली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती,  महिला एवं बाल विकास मंत्री  राखी बिड़ला   और दिल्ली पुलिस के अधिकारियो की नोक  झोक हुई उसने आप की राजनीती को एक बार फिर लाइट , कैमरा  और एक्शन मॉड  में लाकर खड़ा कर दिया है ।

 दरअसल पूरे प्रकरण पर दो कैबिनेट मंत्री और पुलिस आमने सामने हैं । पेशे से वकील और केजरीवाल सरकार में कानून मंत्री सोमनाथ भारती पर सबूत से छेड़छाड़ और गवाहों को प्रभावित करने का एक आरोप तो पहले से ही लगा हुआ है  । अब  सोमनाथ भारती का एक नया मामला  मालवीय नगर के एस एच ओ से जुड़ गया है  ।  भारती पर आरोप है कि उनके नेतृत्व में कुछ लोगों के समूह ने अफ्रीकी महिलाओं के घर पर रात  में छापा मारा। भारती का आरोप था कि  यह महिलाएं वेश्यावृत्ति में लिप्त हैं ।दिल्ली के क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती ने पिछले हफ्ते दिल्ली पुलिस से दक्षिणी दिल्ली के एक घर पर यह  कहकर छापा मारने की मांग की थी कि वहां वेश्यावृत्ति   ड्रग्स  का धंधा होता है।

  सोमनाथ भारती ने कहा था कि दक्षिण दिल्ली के  इलाक़े में लोग  सेक्स रैकेट चलने की शिकायत उनसे कई दिनों से कर रहे थे ।  जिसके बाद वह  अपने कुछ कार्यकर्ताओं के साथ वहां पहुंचे थे और उन्होंने कुछ ग़लत होते देखा।  बाद में उस घर में रहने वाली महिलाओं और दूसरे अफ़्रीकी मूल के उनके कई साथियों ने यह  आरोप लगाया कि मंत्री के साथियों ने औरतों के साथ अभद्र व्यवहार किया । भारती के अनुसार उनके बार-बार कहने के बाद भी दिल्ली पुलिस ने लोगों की तलाशी नहीं ली और उन्हें जाने दिया जिसके बाद से विवाद गरमाया  हुआ है  तो वहीँ राखी बिडला का मामला  एक विवाहिता को ससुराल में जलाकर  मारने की कोशिश का रहा जिसकी सूचना  उन्हें सम्बंधित इलाके के लोगो से मिली और  लाव लश्कर के साथ अपने कार्यकर्ताओ को साथ लेकर उन्होंने भी  सीधे पुलिस को कार्यवाही करने को कहा जिस पर पुलिस मूक दर्शक बनी रही ।

 अब  मौके की  नजाकत समझते हुए मुख्यमंत्री  केजरीवाल ने भी मोर्चा खोल दिया है ।  पूरी दिल्ली सरकार धरने पर बैठ गई है । दिल्ली पुलिस के पांच अधिकारियो के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग को लेकर सोमवार से धरने पर बैठे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि पुलिस की मिलीभगत  के बिना  दिल्ली  में कोई भी  बड़ा अपराध नहीं हो सकता । दिल्‍ली पुलिस को केंद्र के बजाय दिल्‍ली सरकार के अधीन किए जाने की मांग को लेकर दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा आंदोलन किए जाने से दिल्ली की सियासत का पारा ठण्ड में   भी सातवें आसमान पर इन दिनों चढ़ा हुआ है । 

भले ही  केजरीवाल इसे आजादी की दूसरी लड़ाई नाम दे रहे हो लेकिन इस घटना ने एक सरकार के आंदोलनकारी चेहरे को एक बार फिर ना केवल उजागर किया है बल्कि यह सवाल भी उठाया है सरकार और दिल्ली पुलिस के बीच खेले जा रहे इस टी ट्वेंटी मुकाबले में आम जनता ही पिस  रही है और अपराधो के ग्राफ में इजाफा हो रहा है । आने वाले दिनों में आप की यह आंदोलनकारी और एक्टिविस्ट शैली  उसे कहाँ तक ले जायेगी फिलहाल कह  पाना मुश्किल है ?

Sunday, 12 January 2014

आज भी प्रासंगिक है विवेकानंद का जीवन दर्शन


(12 जनवरी जन्म दिन पर विशेष)

भारत के कण कण में कभी देवो का वास था और यहाँ की धरा को कभी  सोने की चिड़िया  भी  कहा जाता था ।  इसी धरा को कई महापुरुषों  ने अपने जन्म से धन्य  किया है ।  त्याग, सहनशीलता, गुरु भक्त और देशभक्त  सरीखे गुणों से युक्त महापुरुष इतिहास के  किसी भी कालखंड में मिलना मुश्किल हैं लेकिन विवेकानन्द जिन्हें उस दौर में नरेन्द्रनाथ नाम से पुकारा जाता था एक ऐसा नाम है जिन्होंने  करिश्माई व्यक्तित्व के किरदार को एक दौर में जिया । आज भी लोग गर्व से उनका नाम लेते हैं और युवा दिलो में  वह  एक आयकन  की भांति बसते हैं ।   इतिहास के पन्नो में विवेकानंद का दर्शन उन्हें एक ऐसे महाज्ञानी व्यक्तित्व के रूप में जगह देता है जिसने अपने ओजस्वी विचारो के द्वारा दुनिया के पटल पर भारत का नाम बुलंदियों के शिखर पर पहुँचाया । उनके द्वारा दिया गया वेदान्त दर्शन भारतीय  दर्शन की एक अनमोल धरोहर है ।
                  

विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में विश्वनाथ और भुवनेश्वरी  देवी के घर हुआ था । बचपन में नरेन्द्रनाथ नाम से जाने जाने वले विवेकानंद काफी चंचल प्रवृति के थे । उनकी माता भगवान की अनन्य उपासक थी लिहाजा माँ के सानिध्य में वह भी ईश्वर प्रेमी हो गए । बचपन में विवेकानंद की माँ इन्हें रामायण की कहानी सुनाती  थी तो इसको यह बड़ी तन्मयता से सुनते थे । रामायण में हनुमान के चरित्र ने उस दौर में इनके जीवन को खासा प्रभावित किया ।   साथ ही अपनी माँ  की तरह वह भी शिवशंकर के अनन्य भक्त हो गए । कई बार वह शिव से सीधा साक्षात्कार करते मालूम पड़ते थे और अपनी माँ से कहा करते कि  उनमे शंकर का वास है । यह सब सुनकर इनकी माँ चिंतित हो उठती कि उनका यह बेटा कहीं बाबा सन्यासी ना बन जाए । बचपन से ही नरेन्द्रनाथ पढाई  लिखाई  में रूचि लेने लगे । पढाई  में यह अव्वल दर्जे के छात्र थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है जो चीज एक बार यह पढ  लेते उसे कभी भूलते नहीं थे । 


 गुरुजनों के प्रति इनका सम्मान उस दौर में भी देखते ही बनता था । बड़े होने पर भी गुरु से इनका लगाव बना रहा । विवेकानंद का मानना था कि जीवन में सफल होने के लिए अच्छा  गुरु मिलना जरुरी है क्युकि  गुरु ही अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की तरफ ले जाता है । बचपन से ही गुरु के अलावे आध्यात्मिक  चीजो की तरफ इनका  झुकाव  हो गया और इसी दौरान मुलाकात  राम कृष्ण परमहंस से हुई जिन्होंने इन्हें अपना मानस पुत्र घोषित कर दिया ।  परमहंस की दी हुई हर शिक्षा को विवेकानंद ने अपने जीवन में ना केवल उतारा  बल्कि लोगो को भी इसके जरिये कई सन्देश दिए जिसने आगे बदने की राह खोली ।  


जीवन के अंतिम पडाव पर परमहंस सरीखे गुरु ने जब विवेकानंद को अपने पास बुलाया और कहा  अब मेरे जाने की घड़ी  आ गई है तो विवेकानंद बड़े भावुक हो गए लेकिन परमहंस  गुरु ने जनसेवा का जो गुरुमंत्र इन्हें दिया उसका प्रचार , प्रसार विवेकानंद ने देश , दुनिया में किया । विवेकानंद युवा तरुणाई पर भरोसा करते थे और ऐसा मानते थे अगर कुछ नौजवान उनको मिल जाएँ तो वह पूरी मानव जाति  की सोच को बदल सकते हैं । उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमु्ख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत,  विचार और उनके आदर्श हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं।



किसी भी देश के युवा उसका भविष्य होते हैं। उन्हीं के हाथों में देश की उन्नति की बागडोर होती है। आज देश में  भ्रष्टाचार का बोलबाला है जो घुन बनकर देश को अंदर ही अंदर खाए जा रहे हैं। ऐसे में देश की युवा शक्ति को जागृत करना और उन्हें देश के प्रति कर्तव्यों का बोध कराना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे माहौल में  विवेकानंद का  जीवन  दर्शन   युवाओ को एक नई  राह दिखा सकता है । विवेकानंद जी के विचारों में वह  तेज है जो सारे युवाओं को नई  दिशा दे सकता है   हैं । वह  आध्यात्मिक संत थे। उन्होंने सनातन धर्म को गतिशील तथा व्यावहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने  किया शायद   यही  वजह है भारत में स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

स्वामी विवेकानंद की ओजस्वी वाणी भारत में तब उम्मीद की किरण लेकर आई जब हम अंग्रेजों के जुल्म सह रहे थे। हर तरफ  निराशा का माहौल देखा जा सकता    था  उन्होंने भारत के सोए हुए जनमानस  को जगाया और उनमें नई उमंग का संचार  किया।विवेकानंद वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बहुत महत्व देते थे। वह शिक्षा और ज्ञान को आस्था की कुंजी मानते हैं। 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था 'जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की ही विजयगाथा बताया है और अब समय आ गया है भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे। यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं कि तुम में से प्रत्येक, जो कि मेरी बातें सुन रहा है, अपने-अपने मन में उसका पोषण करे और कार्यरूप में परिणत किए बिना न छोड़ें


11 सितम्बर  1893 का दिन इतिहास में  अमर है  । इस दिन अमेरिका में विश्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया जिसमे दुनिया के कोने कोने से लोगो ने शिरकत की । उस दौर में भारत के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी इन्ही के कंधो पर थी । गेरुए कपडे पहने विवेकानन्द ने  अपनी वाणी से वहां पर मौजूद जनसमुदाय को मंत्र मुग्ध कर दिया ।  जहाँ सभी अपना भाषण   लिखकर लाये थे  वहीँ विवेकानंद ने अपना मौखिक भाषण दिया । दिल से जो निकला वही बोला और जनसमुदाय के अंतर्मन को मानो  झंकृत ही कर डाला । उनके शालीन अंदाज ने लोगो  को  उन्हें सुनने को मजबूर कर दिया ।  धर्म की  व्याख्या  करते हुए वह बोले जैसे सभी नदियां  अंत में समुद्र में जाकर मिलती है वैसे ही  वैसे ही दुनिया में अलग अलग धर्म अपनाने वाले मनुष्य को एक न एक दिन  ईश्वर  की शरण में   जाकर ही लौटना पड़ता है ।

 संसार में कोई  धर्म  न बड़ा है और ना ही छोटा । इस तरह उन्होंने यह कहा संसार के सभी धर्म समान है उनमे किसी भी तरह का भेद नहीं है । इस प्रकार उन्होंने अपने ओजस्वी विचारों के जरिये हिंदुत्व की नई परिभाषा उस दौर में गड़ने का काम किया ।प्रसिद्ध भारतीय साहित्य के प्रथम नोबलिस्ट गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर भी विवेकानंद से प्रभावित थे। उन्होंने कहा था यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं। भारत को विदेशों में प्रतिष्ठा दिलाने में विवेकानंद प्रथम थे। 


उनसे प्रभावित पश्चिमी लेखक रोमां रोलां का यह कथन रोमांचित करता है‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में  कहते थे “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”इसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी ।



17 सितम्बर 1893 को शिकागो में धर्म सभा में उन्होंने भारत को "हिन्दू राष्ट्र " के नाम से सम्बोधित किया और स्वयं के "हिन्दू होने पर गर्व " महसूस किया | उन्होंने सभा को बताया  हिन्दू धर्म पर प्रबंध  ही हिन्दुत्व की राष्ट्रीय परिभाषा है | इसे समझने पर हमें हमारे विशाल देश की बाहरी विविधता में  एकता के दर्शन होते हैं |शिकागो से वापसी पर उन्होंने कहा केवल अंध देख नहीं पाते और विक्षिप्त बुद्धि समझ नहीं पाते कि यह सोया देश अब जाग उठा है |अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करने के लिए इसे अब कोई नहीं रोक सकता | उन्होंने सभी हिन्दुओं को सब भेदों से ऊपर उठकर अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व करने का ककहरा  ना  केवल सुनाया  बल्कि दुनि या  में  भारत  के नाम के झंडे  गाड़  दिए ।  


भारत वर्ष के सन्दर्भ में उन्होंने कहा  भारत  पवित्र भूमि है,भारत मेरा तीर्थ है,भारत मेरा सर्वस्व है,भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है यही वह भारत वर्ष है जहाँ मानव,प्रकृति एवं अंतर्जगत की रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे | उन्होंने कहा था चिंतन मनन कर राष्ट्र चेतना जाग्रत करो लेकिन आध्यात्मिकता का आधार न छोडो | उनका  मत था कि पाश्चात्य जगत का अमृत हमारे लिए विष हो सकता है | युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी जी कहा करते थे भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं | नैतिकता ,तेजस्विता,कर्मण्यता का अभाव न हो | उपनिषद ज्ञान के भंडार हैं ,उनमे अद्भुत ज्ञान शक्ति है ,उसका अनुसरण कर अपनी निज पहचान व राष्ट्र का अभिमान स्थापित करो |



जिस समय शिकागो में 1893 में धर्म सम्मलेन हुआ ,उस समय पाश्चात्य जगत भारत को हीन द्रष्टि से देखता था |वहां के लोगों ने बहुत प्रयास किया कि विवेकानंद को सर्व धर्म परिषद् में बोलने का समय ही ना मिले, मगर एक अमेरिकी प्रोफ़ेसर के प्रयास से उन्हें थोडा समय मिला |   भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा  कहकर स्वामी जी ने पुन: भारत को विश्व गुरु पद पर प्रतिष्ठित कर दिया |गुरुदेव रविंदर नाथ टैगोर  ने  विवेकानन्द  के बारे में कहा   है यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। 

 मद्रास की एक सभा को संबोधित करते हुए  स्वामीजी ने कहा  भारत की समस्या अन्य देशों की समस्याओं की तुलना से ज्यादा  पेचीदा है। जात, धर्म, भाषा, सरकार ये सब मिलकर राष्ट्र बनता है। फिर भारत जैसे राष्ट्र का एक अनोखा इतिहास है जहां आर्य, द्रविड़, मुसलमान मुगल एवं यूरोपीय साथ-साथ बसते हैं। बावजूद हमारे में एक पवित्र बंधन, पवित्र परम्परा रह  1894 में न्यूयार्क में उन्होंने वेदांत सोसाईटी बनाई|

 1896 की  विदेश यात्रा के बाद विवेकानंद ने पुरे देश का दौरा किया | उन्होंने कहा एक शताब्दी के ब्रिटिश शासन ने जो आघात किया है उतना अब तक के कोई आक्रान्ता नहीं कर पाए | भारत के मन को तोड़ने का कार्य ब्रिटिश लेखकों ,शिक्षाविदों ने सफलता पूर्वक किया |  स्वामी विवेकानंद ने बार-बार कहा कि भारत के पतन का कारण धर्म नहीं है अपितु धर्म के मार्ग से दूर जाने के कारण ही भारत का पतन हुआ है | जब जब हम धर्म को भूल गए तभी हमारा पतन हुआ है और धर्म के जागरण से ही हम पुनह नवोत्थान की और बढे हैं | वहीँ 1900 की शुरुवात में सेन फ्रांसिस्को में भी इसकी एक शाखा खोली ।

   भारत आकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना भी इनके  प्रयासों से ही हुई । इस दरमियान धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए कई दौरे भी  किये  जहाँ अपने वेदांत दर्शन के जरिये उन्होंने लोगो की सोच बदलने का काम सच्चे अर्थो में किया । विवेकानन्द  के द्वारा दिया गया वेदान्त दर्शन एक अनमोल धरोहर है । विवेकानन्द एक कर्मशील व्यक्ति थे और अपने विचारो के जरिये उन्होंने समाज के सोये जनमानस को जगाने का काम किया ।  वह मानते थे प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे आदर्शो  और भाव का समन्वय होना जरुरी है साथ ही शिक्षा को परिभाषित करते हुए यह कहा अपने पैरो पर खड़ा होने जो चीज सिखाये वह शिक्षा है ।

  स्वामी विवेकानन्द का लक्ष्य समाज सेवा, जनशिक्षा, धार्मिक पुनरूत्थान और शिक्षा के द्वारा जागरुकता लाना, मानव की सेवा आदि था। विश्व कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का कहना था- भारत को समझना है तो उसे स्वामी विवेकानन्द का जीवन दर्शन समझना होगा। स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक चिंतन में शुद्धता और शक्ति को आत्मसात करना है। अपने शैक्षिक चिंतन के आधार पर भारतीय संस्कृति की ख्याति यूरोप और अमेरिका में फैलाने में वे सफल हुए थे। उनका कहना था कि भारत में शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप समाज शास्त्रीय अर्थपूर्ण सामाजिक गतिशीलता नहीं आ पाई है।

 वह भारतीय समाज का पूरी तरह सुधार चाहते थे। उन्होंने ऐसे भारत की कल्पना की जो अंध विश्वास, पाखंड, अकर्मण्यता, जड़ता और आधुनिक सनक और कमजोरियों से स्वतंत्र होकर आगे बढ़ सके। विवेकानन्द ने वेदांत को नया रूप देकर उसे मोक्ष में बदलने का काम सही मायनों में करके दिखाया । 4 जुलाई 1902 को उनका देहावसान हो गया । विवेकानन्द को  आज हम इस रूप में याद करे कि  उनके द्वारा दिया गया दर्शन हम अपने में आत्मसात करें, साथ ही अपने जीवन में कर्म को प्रधानता दें तो कुछ बात बनेगीं  । बेहतर होगा युवा पीड़ी उनके विचारो से कुछ सीखे  और उनको आयकन बनाने के बजाए उनकी शिक्षा को अपने में उतारे और प्रगति पथ पर चले ।

Tuesday, 7 January 2014

"भगवा" कूचे में येदियुरप्पा की दस्तक



जिस समय भाजपा अपने चुनावी प्रबंधको को साथ लेकर "आप "की  रेड कार्पेट का तोड़ ढूंढने में लगी हुई थी   उसी समय भाजपा की कर्नाटक इकाई बेंगलूरु   में  अपने राष्ट्रीय महासचिव अनंत कुमार और राज्य इकाई अध्यक्ष प्रहलाद जोशी के साथ अपने बिछड़े साथी और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा  की भाजपा में विलय की पटकथा  लिख रही  थी  । बहुप्रतीक्षित विलय की पटकथा  ठीक उस समय लिखी गई, जब कर्नाटक भाजपा के प्रतिनिधिमंडल ने येदियुरप्पा से विलय के निमंत्रण के लिए मुलाकात की। इस  आमंत्रण को उन्होंने सहर्ष  स्वीकार  करते हुए केजीपी के भाजपा में  विलय के फैसले पर  अपनी हामी भरने में देरी नहीं लगायी । हमेशा अपनी शर्तो के आसरे  कर्नाटक  में  सियासत करने वाले येदियुरप्पा इस बार खामोश नजर आये ।  शायद इसकी बड़ी वजह कर्नाटक  में  उनकी पार्टी केजीबी का बुरा हश्र हो , लेकिन "नमो" को प्रधानमंत्री बनाने के संकल्प के साथ उन्होंने  अपनी पार्टी केजेपी का भाजपा में विलय कर  ही दिया। दक्षिण में भाजपा की पहली सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाले येद्दयुरप्पा की वापसी के लिए आधार पहले ही तैयार हो गया था।

दरअसल, विधानसभा चुनाव में उनकी  पार्टी की करारी हार ने  येदियुरप्पा की भावी राजनीती पर ग्रहण सा लगा दिया था और उसी समय से उन्होंने "नमो मंत्र" की माला जपनी शुरू कर दी थी जिसके बाद मोदी की तारीफो में कसीदे पड़कर चीजो को अपने पक्ष में करने की कोशिशे कर्नाटक में तेज हो गयी थी लेकिन भ्रष्टाचार के मसले पर कोई समझौता  ना करने वाली   भाजपा को  लिंगायत वोट बैंक के चलते अब येदियुरप्पा   की सेवाएं लेने को मजबूर होना पड़  रहा है  । भाजपा के शीर्ष  नेतृत्व को भी  जल्द यह महसूस हो गया  कि प्रभावी लिंगायत समुदाय के सर्वमान्य  नेता के रूप में येद्दयुरप्पा ही  राज्य में भाजपा का आधार बढ़ा सकते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद उन्हें  दो बरस पहले मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था। बाद में नाराज येद्दयुरप्पा ने पार्टी छोड़ दी थी जिसके बाद उन्होंने अपनी खुद की पार्टी बनायी और कर्नाटक के विधान सभा चुनावो में महज छह  सीटें पायी लेकिन भाजपा के खेल को उन्होंने पूरी तरह बीते बरस ख़राब कर दिया था । राज्य इकाई की ओर से भी केंद्रीय नेतृत्व को आशंका जताई गई थी कि विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ही अगर दोनों पार्टिया चुनाव लड़ी  तो लोकस भा चुनाव में भी भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो सकता है लिहाजा पार्टी ने अपने मिशन 272 के तहत उनको साथ लेने की ठानी ।वैसे भी पिछले लोक सभा चुनाव में  राज्य में येदियुरप्पा  की मदद से  ही भाजपा ने 18 सीटें जीती थी ।

 येदियुरप्पा को समझने के लिए हमें   बीते दो बरस की तरफ रुख करना होगा जब उन्होंने   भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा  30 नवम्बर ,2011   को ही दे दिया था लेकिन  उन्होंने अपनी खुद की पार्टी ' कर्नाटक जनता पार्टी ' को राज्य  के सियासी अखाड़े में उतारकर पहली बार आरएसएस और भाजपा की ठेंगा दिखाते हुए भाजपा को येदियुरप्पा होने के मायने बता दिए ।

                 भाजपा में येदियुरप्पा अपने को  पद से हटाए जाने के बाद से लगातार अपने को असहज महसूस कर रहे थे और समय समय पर  संगठन को पार्टी छोड़ने की घुड़की देते रहते थे ।सदानंद गौड़ा के राज्य के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद पार्टी ने येदियुरप्पा के कहने पर राज्य के विधान सभा अध्यक्ष जगदीश  शेट्टार को  12 जुलाई  2012  में मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमोट किया लेकिन येदियुरप्पा की दाल उनके साथ भी नहीं गल पाई  क्युकि  सत्ता सुख भोगते भोगते येदियुरप्पा की पार्टी में  ठसक  लगातार  बढती  ही गई और आये दिन वह आलाकमान के सामने अपनी मांगे मनवाने के लिए अपना शक्ति  प्रदर्शन करते रहते थे । यही वजह थी उन्हें पार्टी में मुख्यमंत्री पद से इतर कोई पद नहीं चाहिए था । औरंगजेब  की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता तैयार किया  था  इसी तर्ज पर कर्नाटक  में कमल खिलाने में येदियुरप्पा की भूमिका किसी से छिपी नहीं थी लिहाजा    पार्टी ने येदियुरप्पा को मनाने की लाख कोशिशे की लेकिन मोहन भागवत  से लेकर सुरेश सोनी और अरुण जेटली से लेकर वेंकैया नायडू सबका प्रबंधन डेमेज कंट्रोल के लिए काम नहीं आ सका । रही सही कसर उनके धुर विरोधी रहे भाजपा   राष्ट्रीय महासचिव अनंत कुमार ने पूरी कर दी जिन पर येदियुरप्पा सरकार को अस्थिर करने के आरोप उस दौर में लगे जिनका येदियुरप्पा के साथ खुद छत्तीस  का आंकड़ा जगजाहिर रहा।

 कर्नाटक  की पूरी राजनीती वोक्कलिक्का और लिंगायत के इर्द गिर्द ही घूमती  है जिसमे लिंगायत की बड़ी महत्वपूर्ण  भूमिका है । जहाँ  एक दौर  में  विधान सभा चुनावो में इसी लिंगायत समूह के व्यापक समर्थन के बूते येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने  का रास्ता साफ़ हुआ था वहीँ  जब येदियुरप्पा द्वारा शेट्टार को नया मुख्यमंत्री बनाया गया था तो वह भी उनकी बिरादरी से ही ताल्लुक रखते थे । आने वाले लोक सभा  चुनाव में यही लिंगायत वोट एक बार फिर हार जीत के समीकरणों  को प्रभावित करेंगे ।  कर्नाटक में   येदियुरप्पा के प्रभाव को हम नकार नहीं सकते ।   राज्य  की तकरीबन 7 करोड़ की आबादी में लिंगायतो की तादात 17 फीसदी है तो वहीँ वोक्कलिक्का 15 फीसदी  हैं जिन पर येदियुरप्पा की सबसे मजबूत पकड़ है । गौर करने लायक बात यह होगी कर्नाटक के आने वाले  चुनावो में इन दोनों समुदायों का कितना समर्थन भाजपा में वापस आने  के बाद येदियुरप्पा अपनी पार्टी के  लिए जुटा  पाते हैं ।

                      हालाँकि कुछ समय पूर्व येदियुरप्पा  की  कांग्रेस  में शामिल होने की अटकले भी मीडिया में खूब चली क्युकि  भाजपा से नाराज येदियुरप्पा ने  कई मौको पर जहाँ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनकी पार्टी के  विषय में तारीफों  के पुल  बांधे वहीँ बीते बरस सोनिया की येदियुरप्पा के गुरु से हुई मुलाकात के राजनीतिक गलियारों में  कई  सियासी अर्थ निकाले  जाने लगे थे लेकिन येदियुरप्पा अपने संगठन  के बूते कर्नाटक की सियासत में अपना खुद का मुकाम बनाना चाहते थे जो भाजपा और कांग्रेस से इतर एक अलग दल के रूप में ही  उन्हें नजर  भी आया लेकिन कर्नाटक सरीखे बड़े दक्षिण के दुर्ग में के जी पी की करारी हार के बाद येदियुरप्पा बैक फुट  पर चले गये जिसके बाद से वह सार्वजनिक मंचो से नमो नमो का गान करते रहे । भाजपा से बाहर  रहकर भी उन्होंने  प्रधानमंत्री पद के लिए नमो को अपना पूर्ण समर्थन देने और तन , मन ,धन न्योछावर करने की घोषणा की जिसके बाद से ही उनकी पार्टी में वापसी की अटकलें तेज हो गई थी  । 

                             राजनीती  संभावनाओ का खेल है । यहाँ किसी भी पल कुछ भी संभव हो सकता है । इसी सियासत के अखाड़े में बगावत और फिर वापसी  की भी पुरानी  अदावत  रही हैं । कर्नाटक की राजनीती में येदियुरप्पा का एक बड़ा नाम है  उनका साथ भाजपा  को फिर  मिलने से आने वाले  लोक सभा चुनावो में भाजपा जरुर कुछ उम्मीद कर सकती है लेकिन भ्रष्टाचार के जिस आरोप के चलते उनकी कुर्सी गई उससे पार्टी की साख पर जो बट्टा लगा उसकी भरपाई  इतनी आसान होती हो कम  से कम  हमें नहीं दिखायी देती ।   पार्टी छोड़ते समय येदियुरप्पा की आंखो से आंसू जरुर छलके  लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आया कि  उनकी कुर्सी भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते चली गई । इसके बाद उत्तराखंड में घोटालो की गंगा बहाने के आरोप  ने  रमेश पोखरियाल "निशंक" की भी उत्तराखंड के  मुख्यमंत्री पद से विदाई कराई थी । रेड्डी बंधुओ को  लाभ  पहुचाने के आरोप में लोकायुक्त जस्टिस  संतोष हेगड़े  की एक रिपोर्ट ने  कर्नाटक  में खनन के कारपोरेट गठजोड़ को न केवल सामने ला दिया बल्कि इसमें सीधे तौर पर येदियुरप्पा के साथ रेड्डी  बंधुओ  को कठघरे में खड़ा किया ।  येदियुरप्पा पर अपने रिश्तेदारो को सरकारी जमीन सस्ते में अलॉट करने , अपनी करीबी मंत्री शोभा करंदलाजे  को एक बिल्डर से  छह  करोड़ रुपये दिलवाने और खनन लाबी से अपनी " प्रेरणा एजुकेशन सोसाइटी" के लिए बीस करोड़ रुपये की रिश्वत के आरोप लगे जिनकी जांच अभी भी जारी है ।   इसी के साथ  येदियुरप्पा की  भावी राजनीती पर ग्रहण लग गया । अपने  दामन  को पाक साफ़ बताने वाले येदियुरप्पा  शायद यह भूल गए राजनीती जज्बातों से नहीं चलती । वह पार्टी के वफादार सिपाही जरुर थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं था पार्टी उन्हें करोडो के वारे न्यारे करने की खुली छूट देती ।
    
                       बहरहाल यह कोई पहला मौका नहीं है जब सियासत के अखाड़े में किसी जनाधार वाले नेता ने  पार्टी को गुडबाय  बोलकर फिर पार्टी में वापसी की है  ।  भाजपा में इससे पहले कल्याण सिंह ने एक दौर में भाजपा छोड़ी । 2010 में राष्ट्रीय  क्रांति पार्टी बनाई लेकिन कुछ कर नहीं पाए । मौलाना मुलायम नेताजी का भी दामन  थामा  लेकिन भाजपा छोड़ने के बाद से  उनका राजनीतिक करियर समाप्त ही  हो गया और अब आखरी पारी में भाजपा में वापस आने के बाद कल्याण सिंह का पुराना करिश्मा तो गायब है ही साथ में  विश्वसनीयता में  भी भारी कमी आयी है । मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को ही लीजिए  । राष्ट्रीय  जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन कुछ खास करिश्मा  वह भी नहीं कर पाई  और मजबूर होकर डेढ़  बरस पहले   यू पी के चुनावो से ठीक पहले उनकी दुबारा भाजपा में वापसी हुई । दिल्ली में  भाजपा  की सियासी जमीन  तैयार करने वाले  मदन लाल खुराना  को ही देख लें  एक दौर में उनका भी पार्टी से मोहभंग हो गया था लेकिन अपने खुद के दम पर वह सियासत में कुछ खास करिश्मा नहीं कर पाए । गुजरात में केशुभाई पटेल को ही देख लें  मोदी का बाल बाका  आज तक नहीं कर पाए । गुजरात के अखाड़े में अपनी अलग पार्टी  बनाकर मोदी के विरुद्ध वह कदम ताल भी किये लेकिन नतीजा सिफर ही हुआ और अब उनकी भी भाजपा में वापसी का माहौल बन रहा है  । केशुभाई ने अगस्त 2012 में भाजपा से अलग होकर गुजरात जनता पार्टी (जीपीपी) बनाई थी और गुजरात विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीती थीं। एक साल पहले गुजरात में भाजपा से नाराज होकर अलग पार्टी बनाने वाले केशुभाई पटेल अब फिर से भाजपा में शामिल हो सकते हैं।शंकर सिंह बाघेला को ही देखें  भाजपा छोड़ने के बाद कांग्रेस में जाकर कुछ ख़ास करिश्मा नहीं कर पाए ।2006 में अर्जुन मुंडा ने भी भाजपा को अलविदा कहा था लेकिन आज तक वह झारखण्ड में अपने बूते कोई बड़ा आधार अपने लिए तैयार नहीं कर सके हैं ।येदियुरप्पा के भविष्य के साथ अगर हम इन सबको जोडें तो एक बात साफ़ है जिन लोगो ने भी पार्टी से किनारे जाकर बगावत का झंडा  थामा वह सफल नहीं हो पाए और  लोगो के बीच उनकी साख और विश्वसनीयता को लेकर पहली बार सवाल उठे । यही नहीं दूसरी पार्टियों में जाने के बाद भी उन्हें वो सम्मान नहीं मिल पाया  जो उनकी मूल पार्टी में मिला  करता था ।
                                    
मसलन  अगर कांग्रेस के पन्ने टटोलें तो राजगोपालाचारी से लेकर जगजीवन राम , चौधरी चरण सिंह से लेकर कामराज , मोरार जी देसाई  से लेकर नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह  से लेकर नटवर सिंह तक सभी ने एक दौर में पार्टी छोड़ी लेकिन अपना अलग मुकाम नहीं बना सके । इन सबके बीच क्या येदियुरप्पा  कर्नाटक  के कीचड़  में कमल को आने वाले समय में क्या खिला पाएंगे  यह एक बड़ा सवाल जरुर है जो जेहन में आता जरुर है लेकिन  लेकिन येदियुरप्पा की गिनती कर्नाटक में एक बड़े नेता के तौर पर होती है  जिसने " नमस्ते प्रजा  वत्सले  मातृभूमे " से लेकर  इमरजेंसी  के दौर और संगठानिक  छमताओ से लेकर दक्षिण में भाजपा के सत्तासीन होने के मिजाज को बहुत निकटता  से बीते 42 बरस में  महसूस किया है । यही नहीं येदियुरप्पा  ने सरकार से लेकर  संगठन हर स्तर पर लोहा अपने बूते  मनवाया है । जहाँ 2004 में तत्कालीन  कांग्रेसी सीं एम धरम सिंह की सरकार से समर्थन वापस लेने के लिए जनता दल  सेकुलर को उन्होंने  ही  राजी  किया वहीँ  जेडीएस के आसरे कर्नाटक  की राजनीती में गठबंधन की बिसात बिछाई । यही नहीं उस दौर को अगर याद करें तो जब  कुमारस्वामी  बारी बारी से सरकार चलाने  के गठबंधन के फैसले से मुकर  गए तो येदियुरप्पा ही वह शख्स  भाजपा में थे जिन्होंने अकेले चुनाव में कूदने का मन बनाया और 2008 में पहली बार भाजपा को अपने दम पर जिताया । लेकिन सी एम बनने  के बाद से येदियुरप्पा लगातार विवादों में घिरे रहे । उस दौर में सरकारी  जमीन अपने रिश्तेदारों को  डिनोटिफाई करवाने के आरोपों से उनकी जहाँ खूब भद्द पिटी  वहीँ अपनी बेहद करीबी मंत्री शोभा करंदलाजे को एक बिल्डर से करोडो की  घूस दिलवाने के आरोपों के साथ ही उन पर अपने एनजीओ  के लिए खनन माफिया से भारी  भरकम रिश्वत लेने के आरोप भी लगे । इसके बाद लोकायुक्त संतोष हेगड़े  की एक  रिपोर्ट ने 30 जुलाई 2011 को उनकी मुख्यमंत्री  पद की कुर्सी छीन  ली । उसके बाद कर्नाटक  में भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों के हाथ राज्य में कमान आयी  जिनमे सदानंद गौड़ा , जगदीश शेट्टार शामिल रहे जिनको आगे कर भाजपा अभी हाल में  सत्ता में  वापसी नहीं कर पायी ।

 अब   कर्नाटक  में  के जी पी का बुरा हश्र देखकर येदियुरप्पा बिना शर्तो के साथ भाजपा में वापसी कर रहे हैं ।  मायने साफ़ हैं अब सबको साथ लेकर चलना है  और 2014  की "नमो" वाली  बिसात को अपने बूते ही बिछाना  है । कर्नाटक  में रीजनल पार्टियों में बंगारप्पा और रामकृष्ण हेगड़े  की पार्टियों का नाम जेहन में उभरता है लेकिन यह दोनों दल अभी तक कर्नाटक में  कुछ खास करिश्मा नहीं कर पाए हैं । कांग्रेस राज्य में सत्ता में जरुर है लेकिन  हाल के विधानसभा  चुनावो  के ट्रेंड को देखते हुए  लोक सभा चुनावो का पिछला इतिहास दोहराना उसके  लिए आसान नहीं होगा क्युकि पूरी देश में कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लेकर कमोवेश हर राज्य में देखी जा सकती है   । हालांकि कर्नाटक  की  सीधी लड़ाई  इस बार भी भाजपा और कांग्रेस में ही है लेकिन राज्य में येदियुरप्पा के कार्यकाल में  जो भाजपा  कई गुटो में बट गयी थी अब उसी के कई नेता येदियुरप्पा  को कितना पचा पाएंगे यह देखने वाली बात होगी । साथ में बाद सवाल यह भी है  भ्रष्टाचार के आरोपो में लोकायुक्त जांच में घिरे येदियुरप्पा को साथ लेकर भाजपा   राज्य में लोक सभा की कुछ सीटें जरुर ले आये लेकिन उसकी साख को जो धक्का लगा है उसकी भरपाई कर पाना इतना आसान नहीं होगा  वह भी ऐसे दौर में जब बीते एक  दो बरस में पूरे देश में  भष्टाचार  विरोधी लहर ने एक पार्टी को दिल्ली में सत्ता तक पंहुचा दिया है और जिसने पारम्परिक राजनीती के मुह पर ऐसा तमाचा मारा है जिसकी टीस पारिवारिक विरासत को सम्भालने वाले हमारे राजनेताओ को इस चुनावी बेला में सबसे ज्यादा  सता रही है  ।   ऐसे में लाख टके का सवाल यह है क्या येदियुरप्पा अपने बूते राज्य में नमो के लिए  सियासी बिसात बिछा पाएंगे   फिलहाल कुछ कहा पाना मुश्किल है क्युकि इसके लिए  जून 2014 तक का तो  इन्तजार हमें  करना ही  होगा । 

Friday, 3 January 2014

खतरे के मुहाने पर उत्तराखंड की सरोवर नगरी


बीते बरस जून में केदारनाथ में  आये जलजले की यादें अभी भी जेहन में बनी हुई हैं ।  पुरानी  यादो से आज भी मन बाहर नहीं निकल पाता क्युकि केदारघाटी की इस आपदा में कई लोगो ने उसके अपनों को न केवल खोया बल्कि इस आपदा का सीधा असर उत्तराखंड के पर्यटन उद्योग पर पड़ा जिसके चलते आज भी राज्य में पर्यटक आने से कतरा रहे हैं  । आपदा को लेकर सबसे संवेदनशील रहे उत्तराखंड की चिंता इस दौर में खुद आपदा प्रबंधन विभाग ने बढ़ाई हुई है  क्युकि  उसके अनुसार  सरोवर नगरी नैनीताल  के नेस्तनाबूद होने का खतरा मडरा रहा है  । संकट की भयावहता का अंदाजा खुद राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग की  रिपोर्ट से लगाया जा सकता है ।  इसे  अगर आधार बनाए  तो सरोवर नगरी के  तकरीबन  सौ साल पुराने  चार  से साढ़े  चार सौ मकान कभी भी जमींदोज हो सकते हैं। इन आशियानों  को  मरम्मत  की जरूरत है लेकिन शासन-प्रशासन इस खतरे को लेकर बिलकुल भी परेशान नहीं दिखायी  दे रहा ।  आलम यह है  सारे नियमों को ताक पर रख कर  भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील पहाड़ी  भूमि पर यहाँ  बेतरतीब आवासीय निर्माण जोर शोर से जारी है ।
 

अगर यह सब बदस्तूर  जारी रहा तो सरोवर नगरी नैनीताल को  भी आने वाले दिनों में किसी गम्भीर संकट का सामना कर सकता  है । खास तौर से यह समय ऐसा है जब भीषण कड़ाके की ठण्ड ने पूरे प्रदेश में अपनी दस्तक दी हुई है और बदरा आकाश में छाये हुए है ।  आज भी इस पूरे इलाके में कई लोग बड़ी तादात  में  जर्जर हो चुके मकानों में  अपना आशियाना बनाये हुए रह रहे हैं ।  प्रदेश आपदा प्रबंधन विभाग की सर्वे रिपोर्ट  के अनुसार नगर के सौ साल से अधिक पुराने 450  मकानों की हालत बद से  बदतर हो चुकी है लेकिन इसके बाद भी लोग इन भवनो से अपना मोह नहीं छोड़  पाये हैं ।  भवनों को भूकंप की दृष्टि से  संवेदनशील होने के चलते जहाँ सरकार  के सामने मुश्किलें  खड़ी  होती दिखायी दे रही हैं वहीँ  आपदा प्रबंधन विभाग के खुद कान खड़े हो गए है।  दूसरी ओर  अनियंत्रित तरीके से हो रहे  निर्माण को लेकर भी नैनीताल के सामने स्थिति  असहज हो चली है ।  यह निर्माण यहां की ऐसी पहाड़ियों पर हो रहे हैं जिनको आईआईटी  इंजीनियरों  तक ने अपनी रिपोर्ट में असुरक्षित घोषित किया  हुआ है।  इसके बावजूद सरकारी और निजी निर्माण कम्पनिया  धड़ल्ले से यहां कंक्रीट के महल खड़े कर रही हैं लेकिन इन सबके बीच  गौर करने लायक बात यह है सूबे के मुखिया विजय बहुगुणा  ने केदारघाटी की आपदा से कोई सबक नहीं लिया है शायद यही वजह है उत्तराखंड में आज भी माफिया और सरकार  के कॉकटेल ने प्रकृति के सामने ऐसा संकट खड़ा कर दिया है जो आने वाले समय में कभी भी कोई बड़ा खतरा उत्पन्न कर सकता है । नैनीताल के बारे में यह आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं क्युकि  पर्यावरणविदो ने कई सामाजिक कार्यकर्ताओ की राय में सुर मिलाते हुए  सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे मामलों को लेकर एक जनहित याचिका कुछ बरस पहले  दायर की थी। इसकी सुनवाई के दौरान न्यायालय ने  नैनीताल को न केवल संवेदनशील माना बल्कि  कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे नैनीताल की वादियो को लेकर भी सरकार की नीति को लेकर पहली बार सवाल भी उठाये थे ।  यही नहीं उस दौर में  सर्वोच्च न्यायालय ने नैनीताल ग्रुप हाउसिंग पर भी पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बाद भी निर्माण यहाँ जारी ही रहे ।
 


नैनीताल में खतरे की जद  में आ रहे   साढ़े चार सौ से अधिक मकानो को  एक सदी से अधिक समय पूरा हो चुका है।  बीते बरस यहां हुए एक  सर्वे में यह आकड़ा सामने आया है ।  भूकंप की दृष्टि से ऐसे  कई और भवनों को अति संवेदनशील माना जा रहा है। बीते  दिनों उत्तराखंड  सरकार ने भी  आपदा प्रबंधन विभाग के तहत  नगर के भवनों की रिपोर्ट सार्वजनिक की है। इसमे से साढ़े  चार सौ  भवन ऐसे पाए गए जो सन 1890  से भी पहले के बने हुए हैं। । इनमें से अधिकांश भवनो को  अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है।गौरतलब है कि भूकंप और भू-स्खलन की दृष्टि से नैनीताल अति संवेदनशील श्रेणी में आता है। पुराने दौर के पन्ने  टटोलें  तो नैनीताल की संवेदनशीलता को  ब्रिटिश शासको ने भी भांप लिया था शायद  यही वजह रही उन्होंने वक्त की नजाकत को अपने अंदाज में भांपकर  कई  कठोर कदम भी  उठाए । 1817 में यहां पर पहली बार आए सैटलमेंट कमिशनर जी डब्ल्यू को नैनीताल की संस्कृति और सभ्यता से बेहद लगाव था। उनका तो   मानना था कि अगर कोई विदेशी यहां पर पहुंचा तो इस स्थल की पवित्रता भंग हो जाएगी और संभवतः आने वाले समय में इसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाएगा। उसकी यह बात अब सोलह आने सच साबित हो रही है क्युकि माफियाओ और राजनेताओ की एक बड़ी लॉबी  पहाड़ो में बाहरी लोगो को बसाने के लिए इस दौर में एक से बढ़कर एक  सपने दिखा रही है शायद यही वजह है इस दौर में पहाड़ में जमीन के दामो ने कुलाचे मारकर नया इतिहास गढ़ा  है और वहीं  पहली बार पहाड़ी इलाको से लेकर तराई के कई इलाको पर भू माफियाओ की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है जहाँ हर किसी की नजर बाजार में  बड़े मुनाफे को कमाने की हो चली है । इसी की आड़ में इन इलाको में रिजॉर्ट  खोलने का धंधा भी जोर शोर से चल रहा है जहाँ हर कोई बहती गंगा में डुबकी लगाना चाहता है । 


 नैनीताल वर्ष 1880  में नैनीताल भूकंप की त्रासदी देख  चुका है। इस दौरान हुए भयानक भूस्खलन में  151  लोगों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद ब्रिटिश शासकों ने शहर की संवेदनशीलता को देखते हुए रखरखाव के व्यापक कार्यक्रम शुरू किये तथा एक सुरक्षा कमेटी का गठन किया। पूरे शहर में नालों का जाल बिछा दिया गया।  अस्सी  के दशक में यहां कई  नाले बनाये गए  जिनका  उद्देश्य था कि इनके जरिये  बरसात का पानी सीधे झील में चला जाये और बरसाती पानी जमीन में रिसकर भूस्खलन की पुनरावृत्ति न कर सके लेकिन चमक धमक और सैर सपाटे के लिए जाने जानी वाली इस नगरी की सुंदरता की परवाह इस दौर में  किसी को नहीं है । आपदा से बचाव की कोई तैयारी  नहीं है क्युकि हमें  आपदा से पहले जागना नहीं आता । क्या कीजियेगा इस दौर में सारी  कवायद अपनी कुर्सी बचाने से लेकर आपदा प्रबंधन को लेकर आने वाले पैसे में लूट खसोट तक ही सिमट कर  रह गई है । आम आदमी की किसी को परवाह नहीं है । इस दौर में  ना ही सैटलमेंट कमिशनर जी डब्ल्यू सरीखा कोई विदेशी शासक बचा है और ना ही  मुख्यमंत्री की कुर्सी  जनरल  बी सी खंडूरी के पास है जिनसे माफिया से लेकर राजनेताओ की एक बड़ी लॉबी खौफ  खाती थी ।   

 

आईआईटी  के इंजीनियरो ने भी अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र को अत्याधिक असुरक्षित घोषित किया  हुआ है जिसमें कहा गया है कि नैनीताल के इलाके में पहाड़ की बोझ उठाने की क्षमता समाप्त हो चुकी है जिसके  चलते यहाँ पर  किसी भी तरह का निर्माण की राह मुश्किल दिख रही  है।  अगर ऐसा ही चलता रहा  और खुद ना खास्ता यदि कोई बड़ी  भूगर्भीय हलचल होती है तो इसका खामियाजा पूरी सरोवर नगरी  को ही  भुगतना पड़ेगा जिसकी सीधी मार यहाँ के पर्यटन व्यवसाय पर ग्रहण लगा सकती है । देखना है आने वाले समय में सरकार इस चुनौती से किस तरह निपटती है ?

Wednesday, 18 December 2013

नए साल में राहुल गांधी के राजतिलक की तैयारी .............

हिंदी सिनेमा में सत्तर का दशक  बालीवुड  के लिए  नायाब तोहफा है  । इस
दशक को अगर याद करें तो  स्टारडम का क्रेज असल में यहीं से शुरू होता है
। इसी दौर में अमिताभ बच्चन परदे पर एंग्री यंग मैन की छवि 'दीवार' के
जरिये गढ़ते हैं और शशि कपूर उनके सामने आते हैं । अमिताभ कहते हैं मेरे
पास गाड़ी है ,बंगला है , बैंक बैलेंस है?  तुम्हारे पास क्या है ? तो
जवाब में शशि कपूर कहते हैं "मेरे पास माँ है " ।

अब परदे से इतर राजनीती के  मैदान में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी
अपनी इसी छवि को एंग्री यंग मैन के आसरे मतदाताओ के सामने गढ़ने की कोशिश
इन दिनो कर रहे हैं क्युकि  चार राज्यो  में करारी हार  से निकला सन्देश
साफ़ है । इस दौर में जहाँ राहुल को 2014 की बिसात को अपने बूते  बिछाना
है वहीँ देश की युवा आबादी जिसकी तादात तकरीबन 65 फीसदी से ज्यादा है और
जो नमो से लेकर केजरीवाल में भारत का भविष्य देख रही है , उसको कांग्रेस
के पाले में लाना है ।

हालांकि  हमें यह नहीं भूलना चाहिए  अब चुनाव समिति की कमान राहुल को
सौपकर  कांग्रेस 2014 की बिसात बिछाने में लग गई  है और अब नए साल  की  1
7  जनवरी को उनके पी एम पद के नाम  का ऐलान होना भर बाकी है  लेकिन चार
राज्यो में पार्टी  के ख़राब प्रदर्शन  की शिकन राहुल गांधी के चेहरे पर
साफ़ दिखाई देती है  यही वजह है जहाँ वह दागियो के अध्यादेश को नॉनसेंस
बता कर उसे फाड़ने से परहेज नहीं करते  वहीँ  मजबूत लोकपाल के लिए कैमरे
के सामने आने में वह इन दिनों देरी नहीं लगाते तो यह हवा के बदलते मिजाज
की तरफ तो इशारा करता ही है ।  ध्यान  दें तो  चाार राज्यो के चुनाव
परिणाम आने के बाद अब तक  राहुल  चार बड़े मसलो पर पहली बार पत्रकारो का
सामना करते पाये गए जहाँ करारी हार के अलावे  धारा -3 7 7 , दलितो को
पार्टी में साथ लेने  प्रतिनिधित्व  देने से लेकर लोकपाल के मसले पर पहली
बार  पत्रकारो के सामने आकर अपनी चुप्पी तोड़ी है ।   नहीं तो राहुल गांधी
की जैसी छवि बीते साढे चार बरस में बनी है उस आधार पर हम कह सकते हैं वह
मीडिया के सामने आने से कतराते थे । तो क्या माना जाए राहुल हर उस
जिम्मेदारी को लेने से परहेज नहीं कर रहे जो चुनावी साल में कांग्रेस के
चुनावी समीकरणों को प्रभावित  कर सकती है या यह माना जाए अब दिल्ली में "
आप "की प्रयोगशाला ने पहली बार राहुल को आम आदमी और उसके सरोकार से जुड़ाव
रखने का ककहरा सिखाया है जिसकी एबीसीडी वह उस हर नौजवान कार्यकर्ता और
युवा को पढ़ाएंगे जो आम आदमी का हाथ  कांग्रेस के साथ का नारा बीते कई दशक
से लगाता आया है लेकिन सत्ता की रपटीली राहो पर वह  उन राजनेताओ के हाथो
छला  जाता रहा है जिनका एक मात्र मकसद जोड़ तोड़  की  राजनीती में मुनाफा
कमाना  भर हो गया है ।


चार राज्यो की जमीन खोने के बाद  भावनाओ के जरिये राहुल यह अहसास कराने
में तो कामयाब हो  रहे हैं  कि अब कांग्रेस में संगठन की मजबूती के साथ
जनाधार बढाने की कोशिशो को अमली जामा  पहनाने  का सही समय आ गया है शायद
यही वजह है इन दिनों वह पार्टी में आम आदमी पार्टी की तर्ज पर बदलाव करने
और आम आदमी से जुड़ने की घोषणाएं करते देखे जा सकते हैं ।  राहुल
कांग्रेस की जिन कमियों का जिक्र अपनी प्रेस कॉन्फ्रेन्स में करते आये
हैं  वह  नई नहीं हैं क्युकि इसका जिक्र वह पहले भी कई बार मंचो से करते
रहे हैं लेकिन जनता  अब उनसे सीधा  जवाब चाह रही है बीते साढ़े  नौ  बरस
में उनके द्वारा इस सिस्टम को सुधारने के क्या प्रयास किये गए जब वह खुद
पार्टी के उपाध्यक्ष  बनकर पार्टी का झंडा थामे हुए हैं  ।
  मसलन  टिकट के बटवारे में अगर कांग्रेस के आम कार्यकर्ता की उपेक्षा इस
दौर में हुई है तो इसका दोष किसका है जब उनका पूरा परिवार राजनीती में
दशको से  है और खुद सोनिया  गांधी पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कमान
अपने हाथ में थामे हुई हैं ? सभी को मालूम है मनमोहन के दौर में सत्ता का
असल केंद्र दस जनपथ बना है लेकिन राहुल कांग्रेस  को नए सिरे से परिभाषित
करने पर बार बार  जोर देते नजर आ रहे हैं । राहुल देश भर में ब्लाक स्तर
पर नए नेता तैयार करने पर जोर दे रहे हैं लेकिन राज्यों और संगठन में
कांग्रेस के बड़े नेताओ की गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि हर चुनाव में यह
पार्टी का खेल खराब ही  कर रही है  और नेताओ में आपसी सामंजस्य  का अभाव
साफ़ देखा जा सकता है । इसके बाद भी वह यह सब कहकर इसका दोष किसके मत्थे
आखिर गढ़ना चाहते हैं ?

 आज का युग गठबंधन राजनीती का है और आगे भी इसी के इर्द गिर्द भारतीय
राजनीती सिमट कर रहेगी शायद यही सोचकर  कांग्रेस अब इस बात पर चिंतन कर
रही है ।  आने वाले दिनों में उसे अपने लिए नए सहयोगियों की तलाश तो शुरू
करनी ही होगी क्युकि अपने बूते वह तीसरी बार सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती
। वैसे भी यू पी ए  -२ से लगातार सहयोगी कम होते जा रहे हैं और शायद यही
वजह रही कि मनमोहन को अपने दूसरे कार्यकाल में सपा और बसपा की बैसाखियों
का सहारा वेंटिलेटर की तर्ज पर लेने को मजबूर होना पड़ा है ।  पचमढ़ी में
जहाँ एकला चलो रे का नारा  दिया गया था वहीँ शिमला में गठबंधन वाली लीक
पर कांग्रेस चली थी । अब इस दौर में  भी  राहुल की  भावी राजनीती के
मद्देनजर नए सहयोगियों को गठबंधन के आसरे अमली जामा पहनाने की कोशिशे
शुरू होने  वाली हैं ।

कांग्रेस के निशाने पर 2014 है और नजरें युवा वोट बैंक पर हैं शायद तभी
राहुल को बड़ा चेहरा  बनाने   की चर्चाओ से आजकल
2 4  अकबर रोड में  माहौल गर्म है । चर्चा तो यहाँ तक है जल्द ही
केंद्रीय मंत्रिमंडल से कई मंत्रियो की विदाई हो सकती है वहीँ कई  चेहरो
को फिर से संगठन में लाने की कवायद शुरू होने के साथ ही कांग्रेस शासित
राज्यो के मुख्यमंत्री बदलने की चर्चा का बाजार दस जनपथ तक गर्म है
जिसमे निशाने पर  उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से लेकर
महाराष्ट्र  के सीएम पृथ्वी राज चव्हाण  हैं ।   कांग्रेस इस चुनावी साल
में "कामराज " फॉर्मूले पर चलने से भी परहेज नहीं करने वाली है ,जहाँ कई
कद्दावर नेताओ का पत्ता चुनावो में साफ़ कर दिया गया था ।   अब राहुल  नए
सिरे से अपने युवा साथियो के साथ संगठन में जिन चेहरों को जगह देंगे उसमे
अब   सचिन पायलट , ज्योतिरादित्य , जितिन  प्रसाद, आर पी एन सिंह , भवर
जितेन्द्र  सिंह,  ज्योति मिर्धा ,अरुण यादव,  संदीप दीक्षित ,अन्नू टंडन
, प्रिया  दत्त सरीखे चेहरे ही  शामिल होंगे जिन्हे  राजनीती विरासत में
ही मिली है । आने वाले दिनों में यही लोग उनकी टीम में अपनी दुबारा  जगह
बनाने में कामयाब रहेंगे । युवा कार्ड खेलकर कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ
परिवारवाद की अमरबेल को बढाने का ही काम किया है । शायद राहुल यह भूल रहे
हैं वह अपनी पार्टी में चाटुकारों की एक बड़ी टोली से घिरे हैं और यही
चाटुकारों की टोली  हर चुनाव में कांग्रेस का खेल खराब कर रही है ।बेहतर
होगा वह इन सबसे पिंड  छुड़ाकर कांग्रेस में नयी  जान फूंके । परिवारवाद
द्वारा केवल कांग्रेस ने  केवल अपनी पीड़ी को  आगे बढाने का ही काम किया
है । भारत के सम्बन्ध में इसे देखे तो हिन्दुस्तान में यह एक क्रांतिकारी
घटना है जहाँ नेहरु गाँधी परिवार का सत्ता में वर्चस्व पिछले कई दशको से
बरकरार है और अब उसकी पांचवी पीड़ी राजनीती के मैदान में है ।


दरअसल कांग्रेस में आजादी के बाद से ही परिवारवाद के बीज बोये जाने लगे
थे । इसकी शुरुवात तो हमें मोतीलाल नेहरु के दौर से ही देखने को मिलती है
जब कांग्रेस के कई नेताओ के न चाहते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरु को कमान
दे दी थी । महात्मा  गाँधी तो कभी नहीं चाहते थे आजादी के बाद कांग्रेस
उनके नाम का उपयोग करे । शायद तभी महात्मा  गाँधी ने आजादी के बाद
कांग्रेस को भंग करने की मांग की थी लेकिन नेहरु ने उनकी एक ना सुनीं ।
जवाहर ने भी मोतीलाल वाली लीक पर चलकर न केवल इंदिरा को उस दौर में
अध्यक्ष बनाया तब उनकी उम्र भी महज 42 बरस की थी । उस दौर को अगर हम याद
करें तो कांग्रेस के पास कई अच्छे चेहरे थे  जिनको वह  आगे कर सकती थी
लेकिन इंदिरा की बादशाहत को कोई चुनौती  नहीं दे सका ।  इंदिरा से पहले
का एक दौर शास्त्री वाला भी हमें देखने को मिलता है जहाँ उन्होंने अपनी
उपयोगिता को सही मायनों में साबित करके दिखाया लेकिन इसके बाद कांग्रेस
ने नेहरु गाँधी परिवार के नाम को भुनाने का काम ही किया । इंदिरा एक दौर
में तानाशाह भी बनी, किसी ने उन्हें दुर्गा कहा तो किसी ने गूंगी गुडिया
भी कहा । वहीँ कई लोगो ने उनके नेतृत्व  की सराहना भी की लेकिन इंदिरा के
बाद संजय, राजीव , सोनिया और अब राहुल सब अपने परिवार के आसरे हर दौर में
आगे रहे । सभी ने अपने परिवार से इतर किसी को सत्ता के  केंद्र में आने
से रोका । नरसिंह राव वाला दौर अलग दौर रहा । उस समय पार्टी  की अगुवाई
करने से सोनिया ने साफ़ इनकार कर दिया था लेकिन सीताराम केसरी के  दौर के
बाद उन्होंने कमान न केवल अपने हाथ में ली वरन खड्डे में जाती कांग्रेस
की नाव को भवसागर पार लगाया था । उस दौर में उन्होंने  2004 में न केवल
प्रधान मंत्री का पद ठुकरा कर  अनूठी  मिसाल कायम की । लेकिन मनमोहन के
दौर  में भी मनमोहन मजबूरी का नाम पी ऍम बने रहे।  असल नियंत्रण का
केंद्र तो दस जनपथ  ही बना रहा |

कुछ समय पहले तक राहुल गाँधी को भी राजनीती में आने से परहेज था लेकिन वह
भी न चाहते हुए राजनीती में आये । आज से साढ़े  नौ  साल पहले जब यू पी  के
चुनावो में  राहुल को स्टार बनाकर कांग्रेस ने उतारा तो उन्हें किसी ने
गंभीरता के साथ नहीं सुना ।  किसी ने  राहुल पर राजनीती को जबरन थोपे
जाने के आरोप भी लगाये तो  कुछ लोगो ने तो राहुल की तुलना राजीव गाँधी
से कर डाली तो कुछ राहुल में राजीव गाँधी का  अक्स देखते पाए गए लेकिन
राजीव का दौर वर्तमान दौर से बिलकुल अलग है । तब कांग्रेस को चुनौती
देने वाली पार्टी कोई नहीं थी तो वहीँ आज रीजनल पार्टिया और छत्रप  देश
की राजनीती को सही मायनों में प्रभावित कर रहे हैं  । भाजपा और कांग्रेस
इस दौर में बड़े दल जरुर है लेकिन दोनों अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकते
शायद तभी इस दौर में गठंधन एक  सच्चाई  बन चुकी है । ऐसे माहौल में
कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ ज्यादा है और एंटी इन्कम्बेंसी का
भी खतरा अभी  बना है और उसकी नज़रे अब युवा वोट बैंक पर लगी दिख रही हैं
जिनको अपनी तरफ खींचने का हर खाका राहुल इन दिनों वार रूम में अपने कर्ता
धर्ताओ के  साथ  खींच रहे हैं ।

दिल्ली में  आम आदमी की  वैकल्पिक राजनीति ने राहुल की कांग्रेस  को नए
रूप में ढालने का जो मंत्र  दिया है  वह  आने वाले दिनों में  कांग्रेस
के लिए कितना  कारगर होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन हमें यह
भी नहीं भूलना चाहिए केवल राहुल को "नमो" की तर्ज पर आगे करने से  अब
कांग्रेस के अच्छे  दिन नहीं आने  वाले हैं क्युकि  राहुल भी इस दौर में
चाटुकारों की बड़ी टीम से घिरे हुए हैं और इसी टीम के साथ मिलकर वह यू पी
और बिहार सरीखे  में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा  चुके  है जहाँ पर
कांग्रेस को करारी  शिकस्त खाने पर मजबूर होना पड़ा   तो वहीँ राजस्थान से
लेकर  मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ,दिल्ली  में यही टोली उनके  साथ कदमताल
करती रही । यू पी  में एक दौर में प्रचार कर जहाँ उन्होंने अपरिपक्व नेता
के तौर पर अपनी पहचान बनाई वहीँ कांग्रेस की सीटें भी नहीं बढाई । इस
बार भी अंतिम दिनों में चुनाव प्रचार में जहाँ जहाँ राहुल गए वहां
कांग्रेस की करारी हार हुई । राहुल को अब यह समझना होगा बिना पार्टी का
संगठन  खड़े किये बिना कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं । राहुल
को सरकार की नीतियों को जनता तक पहुचाना होगा और संगठन में नेताओ के नाते
रिश्तेदारों को हटाना पड़ेगा । आज भी अधिकाश पदों पर कांग्रेस के मंत्रियो
के रिश्तेदार महत्वपूर्ण पदों पर कुंडली मारकर बैठे हैं ।  2014 के लोक
सभा चुनाव की  डुग डुगी  बजने में अब बहुत  कम का समय बचा है । इतने कम
समय में  संगठन मजबूत  हो जाएगा और सही टिकटों का बटवारा होगा यह सब संभव
नहीं दिखाई देता । यह समय ऐसा है जब आम आदमी का मनमोहनी नीतियों से
मोहभंग हो गया है । सरकार कॉर्पोरेट पर दरियादिली दिखा रही है जबकि आम
आदमी की उपेक्षा कर रही है । महंगाई बढ़  रही है । गैस की घरेलू सब्सिडी
ख़त्म है तो  डीजल के दाम लगातार बढ़ रहे है  । भ्रष्टाचार का सवाल जस का
तस है । कांग्रेस अगर सोच रही है मनमोहन के बजाए राहुल का चेहरा आगे कर
देने भर से कांग्रेस तीसरी बार केंद्र में वापसी कर जाएगी तो यह दिवा
स्वप्न से कम नहीं लगता । ऐसे  माहौल में राहुल के सामने  बड़ी चुनौतियों
का पहाड़ ही खड़ा है । राहुल के पिता राजीव का भी राजनीती में प्रवेश संजय
गाँधी की मौत के बाद हुआ था तो उन्हें भी महासचिव बनाया गया था लेकिन तब
सहानुभूति की लहर ने राजीव को सत्ता के  शीर्ष पर पहुचाया लेकिन आज के
दौर में यह दूर की गोटी है क्युकि  राज्यों में रीजनल पार्टियों का
प्रभुत्व है वह केंद्र में सरकार बनाने में मोल तोल  कर रही है   ।  आज
कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है । कार्यकर्ता उपेक्षित है तो
उसके अपने  नेताओ के पास  मिलने  तक का समय नहीं है । कांग्रेस 28
राज्यों में से 18 राज्यों में पूरी तरह साफ़ है । संगठन लुंज पुंज है ।
ऐसे में राहुल को लोगो को यह अहसास कराना होगा वह परिवारवाद की विरासत
बचाने  आगे नहीं आये हैं बल्कि उनका सपना गाँव के अंतिम छोर  में खड़े
व्यक्ति तक विकास पहुचाना है लेकिन बिना संगठन के यह सब संभव नहीं है ।
राहुल की असली चुनौती  बिहार और उत्तर प्रदेश है । यही वह प्रदेश है जहाँ
 अच्छा  करने पर कांग्रेस केंद्र में सरकार बना सकती है । यू  पी में इस
28 विधायक और 22 सांसद हैं । पिछले कुछ समय से यहाँ पर पार्टी का वोट
प्रतिशत नहीं बढ रहा इस पर गंभीरता से विचार की जरुरत अब है । राहुल
अक्सर मीडिया के सामने  जब भी आते हैं तो वह अपने दादा , दादी  और पिता
की राजनीती का जिक्र कर उसे महात्मा गांधी की पार्टी बनाने की बात कहते
हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए राजीव गाँधी भी कहा करते थे वह सत्ता
के दलालों से कांग्रेस को बचाना चाहते हैं लेकिन इन्ही दलालों ने राजीव
को फंसा दिया । बोफोर्स का जिन्न कांग्रेस की लुटिया उस दौर में डुबो गया
था । अब राहुल को समझना होगा वह उन गलतियों से सबक लें क्युकि  चार
राज्यो के विधान सभा चुनावो में कांग्रेस की पराजय का सन्देश साफ़ दिखायी
दे रहा है और अगर यही हाल रहा तो आने वाले लोक सभा चुनावो में पार्टी के
लिए 10 0  सीटें जीत पाना मुश्किल दिखायी देता है ।


नए साल में राहुल को आगे करने  का फैसला पार्टी कार्यकर्ताओ में नए जोश
का संचार भले ही कर जाए  लेकिन राहुल गाँधी की राह आने वाले दिनों में
इतनी आसान  भी नहीं है | २००९ के लोक सभा चुनावो में भले ही वह पार्टी के
सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा आरटीआई, किसान कर्ज
माफ़ी जैसी योजनाओ के सर ही बंधा था | वहीँ उस दौर को अगर याद करें तो आम
युवा वोटर राहुल गाँधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था जो
भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्युकि वह नेहरु की तर्ज
पर भारत की  खोज करने पहली बार निकले  जहाँ वह दलितों के घर आलू पूड़ी
खाने जाते थे  वहीँ कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार
की बहस में उजागर करते थे  | लेकिन संयोग देखिये राजनीती एक सौ अस्सी
डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है |
अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है साथ ही आम आदमी
का हाथ कांग्रेस के साथ के नारों की भी हवा निकली हुई है क्युकि चार
राज्यो में कांग्रेस की जमीन खिसक गयी है  |  राहुल को पार्टी एक ऐसे समय
में कमान देने कि सोच रही है  जब बीते साढ़े  चार बरस में मनमोहन सरकार से
देश का आम आदमी नाराज हो चला है | वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई , घरेलू
गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे  , तेल की बड़ी कीमतों के मुद्दे पर
सीधे घिर रही है | देश की अर्थव्यवस्था जहाँ सबसे मुश्किल दौर से गुजर
रही है वहीँ आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे
ज्यादा परेशान है क्युकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है | यह
सरकार अपने मनमोहनी इकोनोमिक्स द्वारा आम आदमी के बजाए  कारपोरेट घरानों
पर दरियादिली ज्यादा  दिखा रही है |

 ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है राहुल गाँधी
को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है
क्युकि यूपीए २ की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई
बड़ा  काम इस दौर में नहीं हुआ है | उल्टा कांग्रेस कामनवेल्थ ,२ जी
,कोलगेट जैसे मसलो पर लगातार घिरती  रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ
है | ऊपर से रामदेव , अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर
जिम्मेदराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है |  यही
नहीं दिल्ली में बीते बीते बरस  हुई गैंगरेप की घटना के बाद जिस तरह
फ्लैश माब  सड़को पर उतरा और उसके कदम लुटियंस की दिल्ली के रायसीना हिल्स
की तरफ बढे उसने कांग्रेस के सामने मुश्किलों का पहाड़ लोक सभा चुनावो से
ठीक पहले खड़ा कर दिया है।  । देश में  मजबूत विपक्ष के गैप को अब
केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं जो गडकरी से लेकर  खुर्शीद तक को
उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद तक में चुनौती दे चुके हैं  और दिल्ली की
पिच पर उनकी झाड़ू ने दोनों राष्ट्रीय पार्टियों  की नींद  उड़ा दी है ।|
ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को
मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्युकि राहुल को आगे
करने से कांग्रेस की साढ़े चार साल में खोयी हुई  साख वापस नहीं आ सकती |
दाग तो दाग हैं वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते फिर भी कांग्रेस भूमि
अधिग्रहण , लोकपाल और कैश फॉर सब्सिडी को गेम चेंजर मान रही है तो यह एक
भारी भूल ही होगी ।

 ऊपर से  आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने  नहीं रखते
क्युकि उसके लिए दो जून की रोजी रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार
का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है | वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर
में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है क्युकि वही सरकार के लिए
चुनावो में बिसात बिछा रहा है | ऐसे खराब माहौल में राहुल को बैटिंग करने
में दिक्कतें पेश आ सकती हैं | साथ ही राहुल के सामने उनका अतीत भी है जो
वर्तमान में भी उनका पीछा शायद ही छोड़ेगा |ज्यादा समय नहीं बीता जब २००९
में २००  से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावो में जीतने के बाद कांग्रेस का
बिहार ,उत्तर प्रदेश, पंजाब,तमिलनाडु के विधान सभा चुनावो में प्रदर्शन
बेहद निराशाजनक रहा | उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरुर लेकिन
यहाँ भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर
ही रही | इन जगहों पर राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी
| संगठन भी अपने बजाय राहुल का औरा लिए करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगो
की भीड़ वोटो में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गाँधी
ने भी उन इलाको का दौरा नहीं किया जहाँ कांग्रेस कमजोर नजर आई | चुनाव
निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए
| ऐसे में  अब दूसरी परीक्षा में भी राहुल फेल हो गए हैं । हालिया  चार
राज्यो  के विधान सभा चुनावो के परिणाम हमारे सामने हैं जहाँ कांग्रेस का
सूपड़ा साफ  हो गया है  ।

    वैसे एक दशक से ज्यादा समय से राजनीती में राहुल को लेकर कांग्रेसी
चाटुकार मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा आशावान हैं | लेकिन हमें यह नहीं
भूलना चाहिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में  बीते बरस जहाँ
राहुल का चुनावी प्रबंधन पार्टी के काम नहीं आ सका वहीँ राजस्थान में जिस
अशोक गहलोत और दिल्ली में शीला दीक्षित  की योजनाओ तारीफ करना नहीं भूलते
थे वही मजबूत दुर्ग इस साल ताश के पत्तो की तरह ढह  गए ।    एमबीए, एमसीए
डिग्रियों से लैस उनकी युवा टीम ने जहाँ  इन्टरनेट की दुनिया में राहुल
के लिए माहौल  बनाया वहीँ कांग्रेसी चाटुकारों की टोली ने उन्हें विवादित
बयान देने और चुनावी सभा में बाहें ही चढ़ाना सिखाया | अगर वह जनता की
नब्ज पकड़ना जानते तो डेढ़  बरस पहले शायद उत्तर प्रदेश के अखाड़े में वह
उनसे कम उम्र के अखिलेश यादव से नहीं हारते | एक दशक से भारत की राजनीती
में सक्रिय राहुल गाँधी जहाँ पुराने चाटुकारों से घिरे इस दौर में  नजर
आते हैं वहीँ उनकी सबसे बड़ी कमी यह है चुनाव  निपटने के बाद वह उन संसदीय
इलाको और विधान सभा के इलाको में फटकना तक पसंद नहीं करते जहाँ कांग्रेस
लगातार हारती जा रही है | यही उनकी सबसे बड़ी कमी इस दौर में बन चुकी है
और शायद यही वजह है हिंदी भाषी इलाको  में कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह
साफ़ हो गया है । दक्षिण  में आन्ध्र के जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस की
मुश्किलें बढाई  हुई हैं तो केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा ,मध्य
प्रदेश , छत्तीसगढ़  ,उड़ीसा  तमिलनाडु  में उसका कोई जनाधार बचा नहीं दिख
रहा ।



राहुल गाँधी को अगर आने वाले दिनों में  अपने बूते कांग्रेस को तीसरी बार
सत्ता में लाना है तो संगठन की दिशा में मजबूत प्रयास करने होंगे साथ ही
कार्यकर्ताओ की भावनाओ का ध्यान रखना होगा क्युकि किसी भी पार्टी की सबसे
बड़ी रीड उसका कार्यकर्ता होता है | अगर वह ही हाशिये पर रहे तो पार्टी का
कुछ नहीं हो सकता | राहुल को उन कार्यकर्ताओ में नया जोश भरना होगा जिसके
बूते वह जनता के बीच जाकर सरकार की नीतियों के बारे में बात कर सकें |
उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने
खड़ी है तो कांग्रेस की मौजूदा लोक सभा  सीटें बरक़रार रखने की विकराल
चुनौती  सामने है ।

        एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीती में सक्रियता दिखाने
वाले राहुल गाँधी ने शुरुवात में कोई पद ग्रहण नहीं किया | उन्होंने
बुंदेलखंड के इलाको के साथ बिहार , उड़ीसा ,विदर्भ के इलाको के दौरे किये
और जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओ को गौर से सुना | इसी दौरान वह उड़ीसा
में पोस्को और नियमागिरी के इलाको में जाकर वेदांता के खिलाफ विरोध
प्रदर्शन भी कर चुके हैं जिन पर पूरे देश का ध्यान गया | यही नहीं भट्टा
परसौल, मुंबई की लोकल ट्रेन से लेकर कलावती के दर्द को उन्होंने बीते एक
दशक में करीब से महसूस किया है | लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह रही है वह
इन इलाको में एक बार अपनी शक्ल  दिखाने और  मीडिया में सुर्खी बटोरने के
लिए जाते जरुर हैं  उसके बाद खामोश हो जाते हैं और उन इलाको को उसी हाल
पर छोड़ देते हैं जिस हाल पर वह इलाका पहले हुआ करता था तो उनके  विरोधी
सवाल उठाने  लगते है |

मिसाल के तौर पर विदर्भ के इलाके को लीजिए | बीते एक दशक में साढ़े तीन
लाख से ज्यादा किसान आत्महत्याए कर चुके हैं जिसको राहुल अपनी राजनीति से
उठाते है | कलावती के दर्द को संसद के पटल पर परमाणु करार के जरिये
उकेरते हैं लेकिन उसके बाद कलावती को उसी के हाल पर छोड़ देते हैं | २००५
में अपने पति को खो चुकी कलावती का दर्द आज भी कोई नहीं समझ सकता | न
जाने लम्बा समय बीतने के बाद वह कहाँ गुमनामी के अंधेरो में खो गई |
राहुल उसकी सुध इस दौर में लेते नहीं दिखाई दिए जबकि आडवानी की रथ यात्रा
के  दौरान २०११ में अक्तूबर के महीने में उसकी बेटी सविता ने भी ख़ुदकुशी
कर ली  | वहीँ २०१२ में कलावती की छोटी बेटी के पति ने खेत में कीटनाशक
दवाई खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी | तब राहुल गाँधी  की तरफ से उस पर
कोई प्रतिक्रिया नहीं आई | जबकि कलावती के जरिये संसद में परमाणु करार पर
मनमोहन सरकार ने खूब तालियाँ अपने पहले कार्यकाल में बटोरी थी तब  वाम
दलों की घुड़की के आगे हमारे प्रधानमंत्री नहीं झुके | उसके बाद क्या हुआ
कलावती अपने देश में बेगानी हो गयी |  कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में थकी
हुई रीता बहुगुणा जोशी के हाथ कमान दी जो अपने जीवन का एक चुनाव तक नहीं
जीत सकी | शुक्र है इस बार के  विधान सभा चुनाव में उन्हें हार नहीं मिली
|  चुनावो के बाद भीतरघातियो पर कारवाही  तक नहीं हुई और ना ही राहुल
उत्तर प्रदेश के आस पास फटके | यही हाल बिहार में हुआ अकेले चुनाव लड़ने
का मन तो बना लिया लेकिन संगठन दुरुस्त नहीं था न कोई चेहरा था जो नीतीश
के सामने टक्कर दे सकता था इसी के चलते २०१० के विधान सभा चुनाव में केवल
४ सीट ही हाथ लग सकी | चुनाव निपटने के बाद बिहार को भी वैसा ही छोड़ दिया
जैसा उत्तर प्रदेश है | अब ऐसे हालातो में पार्टी का प्रदर्शन कैसे
सुधरेगा यह एक बड़ी पहेली बनता जा रहा है |  राहुल को यह कौन समझाए वोट
कोई पेड पर नहीं उगते | उसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है और
कार्यकर्ताओ को साथ लेकर चलना पड़ता है जिसमे संगठन एक बड़ी भूमिका अदा
करता है | लेकिन राहुल की सबसे बड़ी मुश्किल यही है चुनाव के दौरान ही वह
चुनाव प्रचार करने इलाको में नजर आते हैं चुनाव निपटने के बाद उन इलाको
से नदारद पाए जाते है | चार राज्य गंवाने के बाद अब भी कांग्रेस जागी
नहीं है क्युकि  इस दौर में  यह सच शायद  ही किसी से छुपा हो उसका कैडर
हारे  इलाको की जमीन मजबूत करने ना तो निकलने वाला है और ना ही सड़क से
संसद तक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाएगा तो समझा जा सकता है राहुल अकेले
कौन सा तीर मारने जा रहे हैं ?

यू पी ए २ में  अब चुनावी साल में राहुल के पास अपने को साबित करने की एक
बड़ी चुनौती है जिस पर वह अभी तक खरा नहीं उतर पाए हैं | मिसाल के तौर पर
अन्ना के आन्दोलन को ही देख लीजिए उस  दौरान  सोनिया गाँधी बीमार थी |
राहुल को कांग्रेस के बड़े नेताओ के साथ डिसीजन मेकिंग की कमान दी गई थी
लेकिन अन्ना के आन्दोलन पर उनकी एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई | यही नहीं
जनलोकपाल जैसे अहम मसलो पर वह उनकी पार्टी का स्टैंड सही से सामने नहीं
रख पाए | वह इस पूरे दूसरे कार्यकाल में संसद से नदारद पाए गए है | सदन
में कोई बड़ा बयान उनके द्वारा जहाँ नहीं दिया गया वहीँ किसानो की
आत्महत्या, महंगाई, ऍफ़डीआई ,गैस सब्सिडी खत्म करने  जैसे मसलो पर उनका
कोई बयान मीडिया में नहीं आया  है जो सीधे आम आदमी से जुड़े मुद्दे हैं |
यही नहीं भ्रष्टाचार के मसले पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढे बैठे रहे |
वाड्रा डीएलएफ के गठजोड़ पर भी उनकी चुप्पी ने कई सवालों को जन्म तो दिया
ही साथ ही कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में अपनी पार्टी के कोष से
नैशनल हेराल्ड को दिए गए ९० हजार करोड़ रुपये के चंदे पर भी राहुल ने
खामोश रहना मुनासिब समझा | महीनो पहले के  मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसे
लोगो का कद बढ़ाया गया  जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे | लेकिन
राहुल ने उस पर भी कुछ नहीं कहा और ना ही मंत्रिमंडल विस्तार में युवा
चेहरों की वैसे तरजीह मिली जिससे कहा जा सके कि विस्तार में राहुल की छाप
दिखाई दे रही है | ऐसे  में  राहुल गाँधी  की भूमिका को लेकर सवाल उठने
लाजमी ही हैं | अब समय आ गया है जब उनको देश से और आम जनता से जुड़े
मुद्दे सामने लाने से नहीं डरना होगा तभी बात बनेगी | नहीं तो अभी के
हालत  कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे नजर नहीं आते | वर्तमान में पार्टी
जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में ढलान पर है वहीँ मध्य
प्रदेश , गुजरात  पंजाब, हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ में उसकी हालत
बहुत पतली है | औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण में मुग़ल
साम्राज्य की स्थापना का रास्ता खोला था लेकिन यहाँ पर कांग्रेस पतली
हालत में है | सबसे ज्यादा खराब हालत आन्ध्र में है जहाँ जगन मोहन रेड्डी
आने वाले विधान सभा चुनावो में मजबूत खिलाडी बनकर उभरेंगे इसके आसार अभी
से नजर आने लगे हैं |

                 मनमोहन के दौर में अमीरों और गरीबो की खाई  दिन पर दिन
चौड़ी ही होती जा रही है । इस दौर में कारपोरेट दिनों दिन मजबूत होता जा
रहा है तो वहीँ सरकार  ने पूरा बाजार उसके हवाले कर दिया है जहाँ नीतियों
के निर्धारण में सीधे उसका साफ़ दखल देखा जा सकता है । भारत के संविधान की
बहुत सारी चीजें  पीछे छूट गई हैं । समाजवाद रददी  की टोकरी में चला गया
है तो जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाला कोई नेता इस दौर में नहीं बचा
है । सभी वालमार्ट  के स्वागत में फलक फावड़े बिछाये हुए है । ऐसे माहौल
में क्या राहुल इस पर ध्यान दे पायेंगे यह अपने में बड़ा सवाल है ।

वैसे भी यू पी ए के लिए यह समय मुश्किलों भरा है जहाँ उसके पास
उपलब्धियों के नाम पर कुछ खास कहने को बचा नहीं है क्युकि  हर बार वह
किसी न किसी मुश्किल में घिरती ही रही है ।  मनमोहन पी ऍम पद के अपने
आखरी पडाव पर खड़े हैं । गाँधी परिवार के आसरे कांग्रेस एकजुट नजर आती है
इसलिए राहुल मजबूरी का नाम कांग्रेसी चाटुकारों के लिए बन चुके हैं जो हर
चुनाव में राहुल को दिग्भ्रमित करने का काम किया करते हैं । कांग्रेस में
इस समय कोई जनाधार वाला नेता नहीं बचा है लिहाजा कांग्रेस को एकजुट करने
के लिए राहुल ही तुरूप का इक्का  इस दौर में बन चुके हैं । ऐसे में
कांग्रेस पार्टी का  सबसे बड़ा खेवनहार वही गाँधी परिवार बना रहेगा जिसके
बूते वह लम्बे समय से भारतीय राजनीती में छाई है और यही राहुल गाँधी का
औरा उसे चुनावी मुकाबले में भाजपा के बराबर खड़ा कर सकता है क्युकि सोनिया
का स्वास्थ्य सही नहीं है | मनमोहन के आलावे कोई दूसरा चेहरा पार्टी में
ऐसा इस दौर में बचा नहीं है जो भीड़ खींच सके और लोगो की नब्ज पकड़ना जाने
| जाहिर है रास्ता ऐसे में उसी गाँधी परिवार पर जा टिकता है  जिसके नाम
पर पार्टी इतने वर्षो से एकजुट नजर आई है और यही औरा गाँधी परिवार की
पांचवी पीड़ी में पार्टी के कार्यकर्ताओ को राहुल गाँधी के रूप में नजर
आता है जो उसमे नेहरु से लेकर इंदिरा, संजय  और राजीव  गाँधी तक का अक्स
देख रहा है |  शायद इसके मर्म को सोनिया गाँधी भी बखूबी समझ रही हैं तभी
चार राज्यो में करारी हार के आसरे सोनिया गांधी  राहुल गाँधी को कमान
सौंपने वाली ढाई चाल इस दौर में चलती दिखाई दे रही है और साफगोई से यह भी
कह रही हैं अगला चुनाव किसकी अगुवाई में लड़ेंगे यह भी समय आने पर बता
देंगे ? कांग्रेस अगले साल 17 जनवरी को होने वाले पार्टी के अधिवेशन में
अगले लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर राहुल
गांधी के  नाम का ऐलान कर सकती है. अभी तक पीएम कैंडिडेट के सवाल पर
कांग्रेस सामूहिक नेतृत्व की बात कह बचती थी । इस कवायद से यह भी औपचारिक
तौर पर साफ हो गया था कि पार्टी मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अब
प्रोजेक्ट नहीं करेगी.

 पार्टी  से  जुड़े  हुए सूत्रों की मानें तो दिल्ली में ऑल इंडिया
कांग्रेस कमेटी जनवरी  में  बड़ा  अधिवेशन कर रही है जिसमें पार्टी के
पीएम कैंडिडेट के नाम के ऐलान के अलावा संगठन की चुनावी रणनीति और
अर्थव्यवस्था के पड़ने वाले प्रभावों से लेकर  चुनावी घोषणापत्र ,
राजनीतिक प्रस्ताव पारित किए जाएं इस  पर चर्चा करेगी । इसके अलावा मोदी
के खिलाफ रणनीति पर भी चर्चा होगी क्युकि  चार राज्यो  करारी हार के बाद
पहली बार कांग्रेस के नीति नियंता मान रहे हैं अब "नमो "पार्टी के लिए
सबसे बड़ा मुद्दा अगले लोक सभा चुनाव में बनने जा रहे हैं ।

राहुल भी अब अपनी पुरानी गलतियों से शायद कुछ सीख रहे हैं और हर मुद्दे
पर अपनी राय मीडिया के सामने खुलकर  रख रहे हैं ।  इशारा साफ़ है राहुल पर
 दाव  लगाने की पूरी तैयारियां  इस बार हो रही हैं । मनमोहन खामोश हैं
और शायद  ख़ामोशी की चादर  ओढ़े   अपने बचे दिनों में बैठे  रहे  क्युकि
अब सवाल  चुनावी डुगडुगी बजने और नमो से मुकाबले का है जो लगातार चुनावी
सभाएं कर पहली बार कांग्रेस को उसी माद में घुसकर न केवल चुनौती दे रहे
हैं बल्कि गांधी परिवार को भी यह बता रहे हैं अब उसकी पारिवारिक राजनीती
ढलान पर है । ऐसे विकट  हालातो में  गांधी परिवार का औरा ही कांग्रेस को
नमो के मुकाबले के लिए खड़ा कर सकता है शायद यही वजह है दस जनपथ भी इस दौर
में राहुल गांधी की ओर ताक  रहा है और जिम्मेदारियों को लेने से पीछे
नहीं हट रहा है  और  अगर सब कुछ ठीक रहा तो  नए साल 2 0 1 4  में
कांग्रेस के जनवरी  अधिवेशन में  राहुल गांधी का राजतिलक तय है ।