Wednesday, 21 May 2014

कठिन डगर के राही 'नमो'





आजाद  भारत में जन्म लेने वाले  नरेन्द्र दामोदरदास मोदी  ऐसे शख़्स  हैं जो 2001  से लगातार 14  बरस  तक गुजरात के 14 वें मुख्यमन्त्री रहे और  संयोग देखिये वह देश  के 14 वे प्रधानमन्त्री होंगे जो  26 मई  2014  को  शपथ ग्रहण करेंगे। जनआकांक्षाओं की बड़ी लहर पर सवार होकर  नमो  के कदम दिल्ली के सिंहासन पर राजतिलक के लिए तेजी से बढ रहे हैं लेकिन उनके सामने विशालकाय चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है । भारतीय राजनीती में 2014 के लोक सभा चुनावो की बिसात कई मायनो में ऐतिहासिक है क्युकि कई दशक बीतने के बाद किसी राष्ट्रीय  पार्टी को अभूतपूर्व जनादेश और सफलता मिली है । नए दौर की इस  सफलता  में किसी का बड़ा योगदान है तो बेशक वह शख्स  मोदी ही हैं जिनके अथक प्रयासों से भारतीय जनता पार्टी ने वो चमत्कार कर दिखाया है जो पार्टी ने अटल आडवाणी के दौर में नहीं किया था । संकेतो तो डिकोड करें  तो भाजपा के लिए मोदी किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं हैं क्युकि इस चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत ही नहीं बढ़ा  बल्कि देश के युवा वोटरों की बड़ी जमात ने मोदी को वोट किया । भाजपा ने इस चुनाव में मोदी को तुरूप के इक्के के  रूप में  आगे कर वोट मांगे । 'अच्छे दिन  आने वाले हैं' से लेकर 'अबकी बार मोदी सरकार ' सरीखे नारो के केंद्र में मोदी ही रहे साथ ही उन्हें नापसंद करने वालो की एक बड़ी जमात बार  बार मोदी  को ही निशाने पर लेती रही लेकिन इसके बाद भी मोदी ने  अपने दम  पर भाजपा को बहुमत में लाकर अगर खड़ा करने किया है तो इसमें मोदी की मेहनत को नहीं नकारा जा सकता । 

                     प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मोदी के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा रहेगा ।  साथ ही लोगो की उम्मीदो पर खरा उतरने की बड़ी चुनौती भी  होगी ।  अच्छे  दिन आने  वाले हैं के नारे को साकार करने के लिए उन्हें समाज के हर तबके को साथ लेने की जरुरत है । साथ ही वह अपने उन विरोधियो को भी अपने काम के बूते करारा जवाब दे सकते हैं जो बार बार गोधरा को लेकर उन्हें सांप्रदायिक करार देते रहते थे। अब ऐतिहासिक जीत के बाद अपने  बूते वह अपने विरोधियो को आइना दिखाकर एक नई राजनीतिक लकीर अपनी इस ऐतिहासिक  पारी में खींच सकते हैं   । इस आम चुनाव मे देश के कोने कोने में ताबड़ तोड़   जनसभाएं कर मोदी ने लोगो  को सुशासन  का जो सब्जबाग दिखाया है उसे उन्हें अब पूरा करना ही होगा साथ ही राम मंदिर , धा रा 370  , कामन सिविल कोड सरीखे मुद्दो के हल की  दिशा गंभीरता से सोचना होगा क्युकि  इन्ही  नारो  के आसरे  भाजपा ने कभी  केंद्र में राजनीतिक   वैतरणी  पार करने  की कसमें   खायी थी जिनसे बाद में वह यह कहकर मुकर गयी कि  पूर्ण बहुमत ना मिल पाने के   चलते यह सभी मुद्दे गठबंधन राजनीती में हाशिये पर चले गए । 

  यह दौर ऐसा है जब  अर्थव्यवस्था  बुरे दौर से गुजर रही है । नौजवान रोजगार की आस लगाये बैठे हैं । साथ ही महंगाई के डायन बनने के चलते आम आदमी की मुश्किलें हाल के कुछ बरस में बढ़ी हैं वहीँ आतंरिक और बाह्य सुरक्षा जैसे कई मुद्दे सामने खड़े हैं ।महंगाई दर 8. 59 के स्तर पर जा पहुंची है जो  लगातार लोगो का  जीना मुश्किल किये हुए है ।   यूपीए-2 के दौर में लगातार हुए घोटालो और गड़बड़झालो से  दुनिया में माहौल खराब हो गया है । निवेशकों का भरोसा बाजार से हट चुका है । ऐसे में उनके विश्वास और  भरोसे को जीतना नमो के लिए आसान नहीं होगा । वह इस बार हुए अपने चुनाव प्रचार के दौरान बार बार मनमोहन की नीतियों का मर्सिया मंच से पढते रहे  और पॉलिसी पैरालिसिस को लेकर  यू  पी ए सरकार को निशाने पर लेते रहे हैं  । अब उनके सामने खुद बड़ी चुनौती खड़ी है क्युकि  वह नाव के मांझी हैं । उनके पक्ष में इस चुनाव में  अभूतपूर्व लहर खड़ी हुई। इस ऐतिहासिक जनादेश के प्राप्त होने के बाद उनसे लोगो की उम्मीदें  भी बढ़  गयी है । सपने बेचना आसान है । उसे हकीकत का चोला पहनाना उतना ही मुश्किल । मोदी को इसे समझना होगा । बीते दस बरस में देश में तकरीबन ढाई लाख से ज्यादा किसान हमारे देश में आत्महत्या कर चुके हैं । किसानो को लेकर इस देश में अब तक ऐसी कोई नीति नहीं बनी है जिससे कहा जा सके खेती को लाभ का सौदा बनाने की दिशा में गंभीरता से विचार हुआ है । मोदी को अब अपने इस कार्यकाल में किसानो के लिए नीतियां बनाने की जरुरत है ताकि उसको फसल का उचित दाम बाजार में मिल सके । मोदी को बड़े पैमाने पर इस चुनाव में युवाओ ने वोट दिया है । बेहतर होगा वह विभिन्न सेक्टर में रोजगार प्रदान करने के लिए कोई कारगर नीतियां इनके लिए बनाएंगे । वैसे भी यू पी ए 2  में युवाओ के लिए कोरी लफ्फाजी के सिवाय कुछ नहीं हुआ है । ऐसे में युवाओ की उम्मीदो पर खरा उतरने की बड़ी चुनौती मोदी के सामने है । 

                     उद्योग जगत मोदी की तरफ आशा भरी नजर से देख रहा है । शायद यही वजह है पहली बार इस चुनाव में मोदी कॉरपरेट के डार्लिंग बनकर उभरे और इसी कॉरपरेट ने उनके लिए चुनावी बिसात बिछाने का काम किया । अब मोदी उनके साथ कैसा तालमेल बैठाते हैं यह देखने वाली बात होगी । वैसे मनमोहन के दौर में  आर्थिक सुधारो को नई हवा नरसिम्हा राव की  उस थियोरी  के आसरे देने की पहल शुरू हुई  जिसमे आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से लोन लेकर खुले बाज़ार तले बडा  खेल खेला गया जिससे पहली बार मध्यम वर्ग  मनमोहनी थाप पर नाचने को मजबूर हो गया जिसके चलते एक अलग चकाचौंध  दैनिक जीवन  मे देखने  को  मिले । खनन  से लेकर  टेलीकॉम को साधकर निजी कंपनियो के  खुले बाजार में ले जाने का जो नव उदारवाद   का खुला  खेल  नरसिंह राव की सरकार  के दौर में ही शुरु हुआ वही मनमोहन के दौर  में कारपोरेट घरानो के वारे न्यारे तक जा पहुंचा  जिसके केंद्र मे मुनाफ़ा कमाने  की जैसी होड  मची जिसने कमोवेश  हर चीज को खुले बाजार मे नीलाम कर दिया । अब मोदी इस कॉरपरेट के साथ किस नीति पर चलते हैं यह भी देखने लायक होगा । नरेंद्र मोदी के सामने संघ की नीतियों को लागू  करवाने का दबाव होगा क्युकि वह खुद  उन्होंने संघ की  नर्सरी से अपनी यात्रा शुरू की है । स्वदेशी मॉडल को लागू करना इतना आसान नहीं होगा क्युकि इस दौर में एफडीआई को लेकर खूब शोर शराबा मनमोहन के दौर में हुआ है । निवेशकों का भरोसा जीतना मोदी की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए । नए रोजगार का सृजन तभी हो पायेगा जब बाजार कुलांचे मारेगा और विदेशी संस्थागत निवेशक भारत में निवेश करेंगे । मोदी को इनके अनुकूल नीतियां बनानी  होंगी साथ ही कारपरेट माडल से इतर संघ  के स्वदेशी मॉडल पर भी चलना होगा । देखने वाली बात यह होगी आने वाले दिनों में मोदी किस धारा में बहते हैं? 

   मोदी ने इस चुनाव में विकास के नारो के साथ बड़े सपने लोगो के भीतर जगाये । अब उन सपनो को हकीकत का चोला पहनाने का समय शुरू हो गया है । लोगो को मोदी से बहुत आशाएं हैं । मोदी को गाँव  के अंतिम छोर  में खड़े व्यक्ति तक विकास का लाभ पहुचाना होगा क्युकि 2014 के इस चुनाव की इबारत साफ़ कह रही है  लोगो ने जाति, धर्म से ऊपर उठकर विकास के लिए वोट किया है । अब मोदी के शपथ ग्रहण का सभी को इन्तजार है क्युकि उसके बाद ही नयी सरकार अपना काम शुरू करेगी और नीतियों को अमली जामा पहनाने की प्रक्रिया  विधिवत रूप से शुरू होगी । 

Friday, 16 May 2014

जबरदस्त चली नमो लहर

20 दिसम्बर,  2012    के दिन को याद करें । इस दिन पूरे देश की नजरें गुजरात विधान सभा चुनावो पर केन्द्रित थी ।  गुजरात के साथ ही इस दिन हिमाचल के विधान सभा चुनावो के परिणाम भी सामने आये लेकिन पूरा मीडिया मोदीमय था । तीसरी बार गुजरात में  हैट्रिक लगाकर फतह करने के बाद नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का जोश देखते ही बन रहा था । उनकी जीत ने कार्यकर्ताओ के जोश को भी दुगना कर दिया । भाजपा के अहमदाबाद  दफ्तर में उस समय  जहाँ दिवाली मनाई जा रही थी वहीँ 11 अशोका रोड स्थित भाजपा के राष्ट्रीय दफ्तर पर सन्नाटा  पसरा था । पार्टी का कोई आला नेता और
प्रवक्ता न्यूज़ चैनल्स को बाईट देने के लिए उपलब्ध नहीं था ।   इसके  ठीक 7  दिन  बाद  मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जैसे ही मोदी के कदम दिल्ली स्थित भाजपा के दफ्तर अशोका  रोड की तरफ बढे तो पूरा माहौल मोदीमय हो गया । हर कोई उनकी तारीफों में कसीदे पढता ही  जा रहा था । यह भाजपा में मोदी के असल कद का अहसास करा रहा था जब दो बरस पहले  गुजरात जीतने के बाद दिल्ली के दफ्तर और तोरण दुर्गो में लगे बड़े बड़े कद के "ब्रांड मोदी " वाले पोस्टर मोदी की भारी  जीत की गवाही दे रहे थे । पोस्टरों में मोदी के बाँए जहाँ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तस्वीर लगी थी वहीँ  उनके दाएँ आडवानी और गडकरी की लगी तस्वीर और इन सबके बीच मोदी की लगी बड़ी तस्वीर भाजपा की दिल्ली वाली ड़ी कंपनी को सही रूप में आईना दिखा रही थी  और यहीं से तय हो गया था अबकी बार " मोदी सरकार  का जुमला "  घर घर चुनावी कम्पैनिंग में इस कदर हावी रहेगा कि पार्टी समाज के हर तबके  को साधगी  जिसमे स्वयंसेवको की बड़ी कतार मोदी मन्त्र घर घर पहुँचाने में लग गयी ।



     2014  की चुनावी बिसात पर  राजपथ पर   मोदी ने कांग्रेस से कई  मील आगे निकलकर अपनी चुनावी बिसात बिछाकर यह तो साबित कर दिया इस  बरस भाजपा के लिए  करो या मरो वाली स्थिति हो चली  थी जहाँ  भाजपा को लोक सभा चुनाव में अपना वोट का प्रतिशत हर हाल में बढ़ाना जरुरी था  नहीं तो  केंद्र की सत्ता से उसका सूपड़ा साफ़ होना लगभग तय है । शायद यही वजह है पहली बार मोदी ओबामा की तर्ज पर  " यस वी  कैन" और "यस वी  विल  डू  " का नारा देना पड़ा  क्यूकि  इस दौर में भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा बचा नहीं  जो पार्टी कैडर  में नए जोश का संचार कर सके और अपना ग्राफ  जनता के बीच सीटो  का ग्राफ बढ़ा  सके और  शायद कार्यकर्ताओ की इसी नब्ज को संघ की सहमती के आधार पर राजनाथ ने पकड़ा और  मोदी को चुनाव प्रचार समिति की कमान सौंपकर उनको अगले लोक सभा चुनाव  में प्रधान मंत्री पद का
उम्मीद वार  घोषित कर दिया ।


                भाजपा के संसदीय इतिहास में प्रचंड बहुमत पाकर  मोदी ने सही मायनों में अपनी अखिल भारतीय छवि हासिल करने के साथ ही खुद को राष्ट्रीय राजनीती में फ्रंट रनर के तौर पर पेश किया है ।  चुनावो से पहले यह भ्रम बन गया था कि मोदी पार्टी से बड़े हो गए हैं लेकिन इन  चुनाव परिणामो ने इस भ्रम को हकीकत में बदल दिया है । मोदी  ने इस चुनाव में खूब पसीना बहाया । कश्मीर से कन्याकुमारी तक 450  से ज्यादा रैलियां की और 6000 से ज्यादा जगहों पर थ्री ड़ी प्रचार किया । पूरे देश में ख़ाक छानकर तीन लाख किलोमीटर की यात्रा कर दो करोड़ से ज्यादा लोगो से चाय पर चर्चा कर सीधा संवाद किया । लोग कांग्रेस के कुशासन  , भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी थी और लोगो ने भाजपा में बड़ी उम्मीद देखी जो उन्हें मोदी में नजर आई । मोदी ने ना केवल देश के युवा वोटरो के दिलो में जगह  बनाई बल्कि अपनी सभाओ में भारी भीड़ जुटाकर  देश में एक लहर  खड़ी की । इस चुनाव में मोदी सबके निशाने पर थे और  छत्रपों की जातीय राजनीती में मोदी ने अपने अंदाज  में सेंध लगाई । पहली बार में जातीय बंधन टूटे और जनता ने एक स्थिर सरकार के लिए वोट किया  ।


     16 वी लोक सभा के  बारे में  मोदी के विरोधी ही नहीं भाजपा में उनको नापसंद करने वाली  जमात का एक बड़ा तबका इस बार मोदी की जीत  की राह में तमाम रोड़े डालता रहा  लेकिन   दिल्ली   फतह  कर मोदी ने  यह बता दिया पार्टी में उनको चुनौती देने की कुव्वत किसी में नहीं है और शायद यही वजह है इस दौर में मोदी की ठसक को चुनौती का मुकाबला भाजपा के किसी नेता ने नही किया  । वैसे भी केशव कुञ्ज ने  उनके नाम का डमरू बजाकर इस दौर में भाजपा के हर छोटे बड़े नेता को ना केवल अपने अंदाज में साधा  बल्कि पार्टी कैडर  में नमो नमो का जोश  भी भरा ।


                            अस्सी के दशक को याद करें तो उस दौर में एक बार इंदिरा गांधी ने तमाम सर्वेक्षणों की हवा  निकालकर दो तिहाई प्रचंड बहुमत पाकर संसदीय राजनीती को  आईना दिखा दिया था  और इस बार मोदी ने विकास के माडल को अपनी छवि के आसरे जीत में तब्दील कर दिया । जहाँ 2002 में उनकी जीत के पीछे सांप्रदायिक कारण जिम्मेदार थे वहीँ 2007 में कांग्रेस द्वारा उन्हें मौत का सौदागर बताने भर से उनकी जीत की राह आसान हो गई थी लेकिन इस बार की मोदी की जीत  अप्रत्याशित रही । विकास के नारे के आगे सारे नारे फ़ेल  हो गए । यह इस मायनों में कि जनता ने मोदी  के विकास माडल पर न केवल अपनी मुहर लगाई बल्कि  हर राज्य में  भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ाया ।  यही नहीं दिल्ली  फतह करने के बाद अब अब मोदित्व का परचम एक नई  बुलंदियों में पहुच गया है ।  विकास और वायब्रेन्ट गुजरात का जादू लोगो पर सर चदकर बोल रहा है अब दिल्ली की नईपारी में मोदी  के सामने  चुनौतियां का पहाड़ खड़ा है । मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में उस जनता जनार्दन की भी बड़ी भूमिका है जिसके सरोकार इस दौर में हाशिये पर चले गए । मोदी ने अपनी  बिसात में प्यादों को पीटकर वजीर बनने की जो ऐतिहासिकइबारत गढ़ी है उसकी मिसाल अब तक देखने को नहीं मिली । मोदी मंत्र पर मतदाताओ ने भरोसा जताया । लोगो ने मोदी को  तानाशाह बताने से परहेज नहीं किया तो किसी ने उन्हें हिन्दू राजनीती का झंडाबरदार बताकर उन्हें सांप्रदायिक करार दिया । लेकिन मतदाताओ ने मोदी पर लगाये जा रहे सारे आरोपों से पल्ला झाड़ लिया । प्रचंड बहुत पाकर अब नरेंद्र मोदी भाजपा में करिश्माई नेता के दौर पर उभर गए हैं । नमो के रूप  अब राजनीती में नयीपरिभाषा गढ़ते देख रहे हैं ।  जिस मनमोहन की आर्थिक नीतियों का गुणगानकांग्रेस बीते दशको  से करती आ रही  है वही काम मोदी ने गुजरात में कर दिखाया और वहां हैट्रिक लगाकर अपने विरोधियो को चारो खाने चित्त कर दिया ।   साम्प्रदायिकता का दाव   भी  इस बार फीका पड़ गया और  इन सबके बीच जातीय समीकरण भी इस चुनाव में  धवस्त हो गए ।


                हाल के लोक सभा  चुनावो में  कश्मीर  से लेकर कन्याकुमारी  और दार्जिलिंग  से लेकर बड़ोधरा तक   हर जगह मोदी की तूती ही  बोली  । पूरा देश  इस कदर मोदीमय था कई  समाज के नाराज तबको का समर्थन जुटाने की कांग्रेस और छत्रपों  की गोलबंदी इस चुनाव में काम नहीं आ सकी । शहरी , ग्रामीण , गैर आदिवासी ,छत्रिय समाज, दलित , ओ बी सी  इस चुनाव में मोदी के साथ ही खड़ा दिखा  और उन्होंने खुलकर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट किया   ।  पूरे देश का युवा वोटर अब मोदी पर गुजरात की तरह  अपनी नजरें गढाये बैठा है क्युकी पहली बार अब मोदी कोगुजरात से निकलकर अब  7  आर सी आर से अपने   कदम पूरे देश की तरफ   बढ़ाने हैं  । देश के युवा वोटरों की   मानें तो  कलह से जूझती भाजपा  का बेडा अब   मोदी ही पार लगा सकते हैं । प्रचंड बहुमत पाकर  मोदी अब बड़े नेता के तौर पर उभर कर सामने आ गए हैं । जीत के बाद मोदी निश्चित ही भाजपा में अब सबसे मजबूत हो गए हैं और संघ भी अब भाजपा की भावी रणनीतियो का खाका मोदी के आसरे ही खींचेगा ।  हिंदुत्व के पोस्टर बॉय के रूप  में मोदी का उदय छत्रपों के लिए चुनौती पेश कर सकता है । हिंदुत्व, विकास, सुशासन के जिसमॉडल को मोदी ने गुजरात में दोहराया अब उसे देश में कारगर ढंग से  लागू करना होगा । यह जीत भाजपा के ठन्डे पडे कैडर में नया जोश फूंकेगी ।2014में  अब  भाजपा  संघ  का जोश भी  बढ़  गया है । मोदी देश के वोटर को प्रभावित कर सकते हैं ।हिंदुत्व और विकास  ने गुजरात में जो लकीर खींची है वह अब गुजरात में इतिहास बन चुकी है और अब इसे मोदी के सामने इसे पूरे देश में दोहराने की बड़ी चुनौती खड़ी  है

Tuesday, 13 May 2014

इतिहास मनमोहन को कैसे याद करेगा ?




सोलहवीं लोकसभा  शोरगुल थम  चुका है और इसी के साथ सभी प्रत्याशियों की किस्मत  इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन मे कैद हो चुकी है । अब १६ मई  बेसब्री से इन्तजार है लेकिन एक  सवाल  जो सभी के  जेहन  मे  है  वह मनमोहन को लेकर है आखिर इतिहास  मनमोहन को  कैसे याद रखे  ?   

 आज से  तकरीबन   एक दशक पहले सोनिया गांधी ने जब मनमोहन को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया  तो लोग मनमोहन की  साफगोई  के कायल थे । मनमोहन  ने आर्थिक सुधारो को नई हवा नरसिम्हा राव की  उस थियोरी  के आसरे देने की पहल शुरू की जिसमे आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से लोन लेकर खुले बाज़ार तले बडा  खेल खेला गया जिससे पहली बार मध्यम वर्ग  मनमोहनी थाप पर नाचने को मजबूर हो गया जिसके चलते एक अलग चकाचौंध  दैनिक जीवन  मे देखने  को  मिले । खनन  से लेकर  टेलीकॉम को साधकर निजी कंपनियो के  खुले बाजार में ले जाने का जो नव उदारवाद   का खुला  खेल  नरसिंह राव की सरकार  के दौर में ही शुरु हुआ वही मनमोहन के दौर  में कारपोरेट घरानो के वारे न्यारे तक जा पहुंचा  जिसके केंद्र मे मुनाफ़ा कमाने  की जैसी होड  मची जिसने कमोवेश  हर चीज को खुले बाजार मे नीलाम कर दिया ।   

यू पी ए  -1  में  अमरीका  के साथ नाभिकीय करार को लेकर जहॉं  उन्होने वामपंथियो की घुड़की  से बेपरवाह होकर अपनी सरकार दांव पर लगा ड़ाली थी वहीं   यू पी ए  -2 में वह   गठबंधन धर्म के आगे लाचार  से दिखाई  देने लगे ।  इस दरमियान  प्रधान मंत्री ने गठबंधन धर्म की तमाम मजबूरियां गिनाने से भी  परहेज नहीं किया ।   यूपीए 2 शासन काल में एक के बाद एक  घोटालो की गुरु घंटाल  पोल  खुलती रही  । २जी, कामनवेल्थ , आदर्श,  कोयला ,हर बार पीएमओ की भूमिका  का अस्पष्ट रही । अन्ना आंदोलन हो या दामिनी  काण्ड  हर बार प्रधानमंत्री की चुप्पी  देश को खलती रही । मनमोहन हमेशा तमाशबीन बने रहे  । अन्ना आंदोलन के मसले को वह ठीक से हैंडल  नहीं कर सके वहीँ दामिनी के मसले पर ट्वीट करने में उन्हें हफ्ते लग गए । यूपीए सरकार में सत्ता के दो केंद्र रहे।  एकधुरी  की  कमान  खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संभाले थे  तो  दूसरी धुरी सोनिया गांधी रही जिनके हर आदेश  का  पालन करने की मजबूरी  मनमोहन के चेहरे  पर साफ़  देखी जा सकती थी  । यू पी ए 1  से ज्यादा भ्रष्ट्र यू पी ए 2  नजर  आया जहाँ एक से बढकर एक भ्रष्ट मंत्रियो की टोली मनमोहन सिंह की किचन  कैबिनेट को सुशोभित करती रही ।  वैसे  यू पी ए  2 ने तो भ्रष्ट्राचार के कई कीर्तिमानो को ध्वस्त कर दिया  जहाँ  सबसे ज्यादा ईमानदार  पी ऍम की ही  छवि  ख़राब हुई  ।  सी वी सी थॉमस की नियुक्ति से लेकर  महंगाई के डायन बनने   तक की कहानी यू पीए २ की विफलता को  ही उजागर करती  रही ।   आदर्श सोसाइटी से लेकर कामन वेल्थ , २ जी स्पेक्ट्रम से लेकर इसरो में एस बैंड आवंटन , कोलगेट तक के घोटाले तो  केंद्र की सरकार की सेहत के लिए कतई अच्छे नही रहे जिनसे पूरी दुनिया में एक ईमानदार प्रधानमंत्री की छवि तार तार हो गयी ।   

मनमोहन भले ही अच्छे अर्थशास्त्री रहे  हों परन्तु वह एक कुशल राजनेता की केटेगरी में तो कतई नही रखे जा सकते और ना ही वह भीड़ को खींचने वाले नेता  रहे । बीते  लोक सभा चुनावो से पहले भाजपा के पी ऍम इन वेटिंग आडवानी ने मनमोहन के बारे में कहा था वह देश के सबसे कमजोर प्रधान मंत्री है । उस समय कई लोगो ने आडवानी की बात को हल्के  में लिया था ,  पर आज 7 आर सी आर से  मनमोहन सिंह की विदाई बेला  पर यह बातें  सोलह आने सच साबित हो रही है ।

 मनमोहन सारे फैसले खुद से नही लेते थे ।  हमेशा सत्ता का केंद्र दस जनपद बना रहा  ।  व्यक्तिगत तौर पर भले ही मनमोहन की छवि इमानदार रही  परन्तु दिन पर दिन ख़राब हो रहे हालातो पर प्रधान मंत्री की  हर मामले पर चुप्पी से जनता में सही सन्देश नही गया । इकोनोमिक्स की तमाम खूबियाँ भले ही मनमोहन सिंह में रही हो पर सरकार चलाने की खूबियाँ तो उनमे कतई नही है | यू पी ए  २ में  पूरी तरह से दस जनपद का नियंत्रण बना रहा ।  मनमोहन को भले ही सोनिया का "फ्री हैण्ड" मिला हो पर उन्हें अपने हर फैसले पर सोनिया की सहमति  लेनी जरुरी हो जाती थी ।  दस जनपद में भी सोनिया के सिपैहसलार पूरी व्यवस्था को चलाते  थे ।


 चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु की किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह' ने  मनमोहन  की खूब फजीहत करवाई ।  इसकी नब्ज को  संजय बारु ने जिस अंदाज में पकड़ा  उससे यू  पी ए  सरकार के ईमानदार मुखिया मनमोहन सिंह  परहमले शुरू  हो गए  । एक ईमानदार  प्रधानमंत्री पहली बार कटघरे  में खड़ा रहा  ।      इस किताब के अनुसार मनमोहन सिंह एक दुर्बल मुखिया की तरह  रहे जिन्हे  महत्वपूर्ण फैसलों के लिए सोनिया गांधी का यस बॉस  बनना  पड़ा ।  लोक सभा चुनावो के  समय  इन आरोपों से विपक्ष के निशाने पर आई  कांग्रेस ने अपने बचाव में  पी एम के वर्तमान मीडिया सलाहकार  पंकज पचौरी का चेहरा सामने रखकर  अपना पक्ष जरूर रखा  जो मनमोहन के भाषणो की संख्या  और आर्थिक विकास के चमचमाते आंकड़े पेश कर यू  पी ए  2  के अभूतपूर्व विकास कहानी बताने  मे जुटी रही लेकिन  यूपीए २ के शासनकाल में हुए एक बाद एक घोटाले  जनता को यह  सोचने पर मजबूर कर देते हैं मनमोहन की  यह आखिरी  पारी कितनी विवादों से भरी रही ।  मनमोहन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि वह गठबंधन धर्म  के आगे लाचार हैं अब  विदाई बेला में यह किताब मनमोहन की बेबसी के बोल बखूबी बोल रही   है ।


 संजय बारु के आरोपों  से भले ही पी एम ओ  पाला झाड़ लिया हो  लेकिन    विश्व के सबसेबड़े लोकतंत्र के एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की क्या मजबूरी रही हो यहतो कोई नहीं जान सकता पर संजय बारु की किताब उन तमाम छिपे रहस्यों पर से पर्दा उठाती है जो यूपीए के दौरान घटे। 

इधर जाते जाते  संजय बारु का मामला ठंडा भी नहीं  हुआ था क़ि  पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब 'क्रूसेडर या कांसिपिरेटर' ने बाजार में आकर  बखेड़ा ही खड़ा कर दिया । पारेख पर नजर इसलिए भी थी  क्युकि सीबीआई ने  कोयला घोटाला मामले में पीसी पारेख को नोटिस भेजा।  पिछले वर्ष 2013 में सीबीआई नेपारेख समेत हिंडालको और अन्य अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था।मामला दर्ज किए जाने के दौरान सीबीआई ने इस बात को भी स्वीकारा था सभी अधिकारी साल 2005 से कोलगेट  घोटाले में अप्रत्यक्ष रूप से शामिलहैं। पारेख के ऊपर आरोप लगाया गया  कि उन्होंने सिर्फ कथित तौर पर हीकोल ब्लॉक आवंटन किया है।जिसमे अन्य अधिकारियों ने भी उनका साथ दिया ।इस किताब में भी  पी एम ओ  पर निशाना साधा  गया । कोलगेट  पर लिखी गई  इस किताब  में तमाम नौकरशाहों और राजनीतिक  जमात  को कठघरे में रखा गया  जहाँ मनमोहनी बिसात फीकी पढ़ गयी ।  कोयले  की आंच पहली  बार सरकार में शामिल मंत्री से  लेकर  कॉरपोरेट घरानों तक गई जहां रिश्तेदारो को आउने पौने दामो पर  कोल ब्लॉक  आवंटित कर दिए गए । कैग की रिपोर्ट में जब कोयला आवंटन में हुई धांधली को उजागरकिया गया तब तत्कालीन नियंत्रक महालेखा परीक्षक विनोद राय की भूमिका पर यूपीए ने सबसे पहले सवाल दागे जिससे यह सवाल बड़ा हो गया क्या यू पी ए  को  संवैधानिक  संस्थाओ पर   भरोसा नहीं रहा   ?    

पारिख  के अनुसार पीएम मनमोहन  ने खुली निविदा के जरिए अगस्त 2004 में कोयला आवंटन की मंजूरी दी थी। मगर उनके दो मंत्रियों शिबू सोरेन और दसई  राव ने उनकी नीतियों का पालन नहीं किया ।   दोनों मंत्रियों के कार्यकाल में कोयला मंत्रालय में निदेशक पद परनियुक्ति के लिए भी घूस ली  जाती  थी । पारिख ने कहा उन्होंने सांसदों को ब्लैकमेलिंग और वसूली करते हुए खुद देखा । यू पी ए 2  के दौर में पानी सर से इतना नीचे बह चु का था कि  अधिकारियों के   लिए ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया । पारिख ने किताब में कहा है  कोयला सचिव के रूप में उनके  कार्यकाल में जो भी उपलब्धियां हासिल की गईं वह  उस दौरान की गईं जब मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।
                                   
     नेहरू गांधी परिवार भले ही बीते चुनाव मे मनमोहन  को तुरूप के इक्के के रुप मे आगे कर चुका हो  लेकिन इस चुनाव  मनमोहन कहीँ नजर  नहीं आये । भ्रष्टाचार , क्रोनी कैपिटलिज्म , मंत्री  संतरी कॉरपोरेट के नेक्सस , घोटालो की पोल , मनी  लॉन्ड्रिंग  न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट  निगरानी में हर जॉंच ने ईमानदार प्रधानमंत्री को अपने अंतिम कार्यकाल मे इतना झकझोर दिया कि मनमोहन 7 आर सी आर से अपनी विदाई की तैयारियों मे उसी समय से जुट गये थे जब जयपुर मे बीते बरस कांग्रेस मे  राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर अघोषित रूप से उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया । 

अपने आखिरी  कार्यकाल में मनमोहन अपनी कमीज साफ़ बचाने पर भले ही लगे रहे जबकि उसके छींटें कांग्रेस और उसके सहयोगियो पर भी पडते नजर आये । शायद यही वजह रही मौजूदा 2014  का  जनादेश कांग्रेस के पतन की पटकथा चुनाव परिणाम आने से पहले ही लिख चुका है जिसमे मनमोहन की हर नीति  का मर्सिया ना केवल  पढ़ा जा रहा है बल्कि 12 ,तुगलक रोड से लेकर  15  रकाबगंज  रोड और 24 रोड  तक सन्नाटा पसरा है और पहली बार मनमोहन  आंकड़ों की बाजीगरी  ना केवल कांग्रेस को डरा रही है बल्कि  राजा  से रंक बनने की पटकथा भी आंखो से सीधा संवाद स्थापित  कर रही है जहाँ जश्न की बजाए कांग्रेस वार रुम मे अब चुनाव निपटने के बाद  घुप्प अंधेरा ही पसरा है । हमेशा की तरह इस बार भी दांव पर गांधी परिवार है मनमोहन सिंह नही ।  

Tuesday, 29 April 2014

2014 की प्रधानमंत्री पद की बिसात में राजनाथ सिंह


बीते बरस भाजपा में नए  राष्ट्रीय अध्यक्ष के नामांकन से ठीक पहले आडवानी संघ के एक कार्यक्रम में शिरकत करने मुंबई गए थे जहाँ उनके साथ नितिन गडकरी और सर कार्यवाह भैय्या  जी जोशी भी मौजूद थे । इसी दिन महाराष्ट्र में गडकरी की कंपनी पूर्ती के गडबडझाले को लेकर आयकर विभाग ने छापेमारी की कारवाही सुबह से शुरू कर दी ।  आडवानी की भैय्या जी जोशी से मुलाकात हुई तो ना चाहते हुए बातचीत में पूर्ती का गड़बड़झाला  आ गया । आडवानी ने भैय्या  जी  जोशी से गडकरी पर लग रहे आरोपों से भाजपा की छवि खराब होने का मसला छेडा  जिसके बाद भैय्या जी को गडकरी के साथ बंद कमरों में बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा । काफी  मान मनोव्वल के बाद गडकरी इस बात पर राजी हुए अगर संघ को उनसे परेशानी झेलनी पड़  रही है  तो वह खुद अपने पद से इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं । आडवानी से भैय्या जी जोशी ने गडकरी का   विकल्प सुझाने को कहा तो उन्होंने यशवंत सिन्हा का नाम सुझाया । हालाँकि पहले आडवानी  सुषमा के नाम का  दाव  एक दौर में चल चुके थे लेकिन सुषमा खुद अध्यक्ष पद के लिए इंकार कर चुकी थी लिहाजा आडवानी ने यशवंत सिंहा  का  ही नाम बढाने की कोशिश की जो संघ को कतई मंजूर नहीं हुआ । बाद में गडकरी से भैय्या जी ने अपना विकल्प बताने को कहा तो उन्होंने राजनाथ सिंह का नाम सुझाया जिस पर संघ ने अपनी हामी भर दी और आडवानी को ना चाहते हुए राजनाथ सिंह  को पसंद करना पड़ा । इसके बाद  शाम को दिल्ली में जेटली के घर भाजपा की  डी --4 कंपनी की बैठक हुई जिसमे रामलाल मौजूद थे जिन्होंने  भी राजनाथ  सिंह के नाम पर सहमति बनाने में सफलता हासिल कर ली  और देर रात राजनाथ सिंह को सुबह राजतिलक की तैयारी के लिए रेडी रहने का सन्देश भिजवा  दिया  गया । सुबह होते होते राजनाथ के घर का  कोहरा भी  छटता गया और  इस तरह राजनाथ दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में सफल रहे । 

           ऊपर का यह वाकया पार्टी मे राजनाथ के रुतबे और संघ मे उनकी मज़बूत पकड को बताने के लिये काफी है । वह ना केवल एक सुलझे हुए नेता है बल्कि  उत्तर प्रदेश की उस  नर्सरी से  आते हैं जहाँ भाजपा ने हिंदुत्व का परचम एक दौर में फहराकर केंद्र में सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी । लेकिन  बड़ा सवाल यह है  क्या इस बार अपनी दूसरी पारी में राजनाथ उस करिश्मे को दोहरा पाने की स्थिति मे हैँ जो कभी वाजपेयी- आडवाणी  ने अपने कार्यकाल मे किया था  ?   यह सवाल इस समय इसलिए भी पेचीदा हो चला  है  क्युकि   दूसरी  पंक्ति  के नेताओ  में इस दौर में आगे निकलने की जहाँ होड़ मची हुई है  तो वहीँ राज्यों में  छत्रप दिनों दिन मजबूत होते जा रहे हैं जिसके चलते आगामी चुनावो में भाजपा के लिए  2014  में सबसे बड़ा संकट  खड़ा  हो गया है  । असल  संकट यह है अगर 272  के जादुई आंकड़े तक  वह नमो  की अगुवायी मे नही पहुंची  तो क्या राजनाथ आने वाले समय मे डार्क हॉर्स  साबित होंगे ? 


  
प्रधानमंत्री पद का उम्मीवार बनाए जाने के बाद मोदी की महत्वाकांक्षा  बढ़ गयी हैं और  अगर नमो लहर फींकी रह जातीं  है तो  ऐसी सूरत मे एन डी ए को नये सहयोगी ढूँढ़ने  पड़ेंगे जिसमे  राजनाथ सिंह ट्रम्प कार्ड   हो सकते  हैं ।  ऐसे हालातो में राजनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती   एन डी ए  का दायरा बढाने और नए सहयोगियों के तलाश की होगी  ।  अटल बिहारी को  प्रधानमंत्री बनाने में आडवानी उनके सारथी थे वहीँ राजनाथ मोदी  के सारथी  इस चुनाव मे जरुर हैँ  । संघ के पास इस दौर में मोदी को छोड़कर ना कोई ब्रह्मास्त्र  है  ऐसे में  जादुई  आंकड़ा ना मिलने की सूरत मे  भाजपा में संघर्ष  विराम के लिए राजनाथ को आगे करने की  पहल   भविष्य  मे ज्यादा कारगर साबित हो सकती है । वाजपेयी  के राजनीती से सन्यास के बाद भाजपा में किसी सर्व मान्य नेता के नाम पर सहमति  नहीं है । मोदी को संघ के दवाब मे आगे जरुर किया गया  है परन्तु  पार्टी का  एक बढा  तबका अंदरखाने उनके नाम पर सहमत नही है ।  राज्यों में  उसके  छत्रप  दिनों दिन मजबूत हो  रहे हैं  तो वहीँ आडवानी का राजनीतिक करियर ढलान  पर है । 7  रेस कोर्स में जाने की  उनकी उम्मीदें  भी अब ख़त्म   हैं शायद तभी बीते बरस उन्हें अपने जन्म दिवस के मौके पर उन्हें  यह कहना पड़ा पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया । वहीँ डी -4 की दिल्ली  वाली  चौकड़ी तो बीते चार  बरस से मोहन भागवत के निशाने पर है जब अटल के राजनीती से सन्यास और लगातार दो  लोक सभा चुनाव हारने के बाद से संघ ने भाजपा को एक व्यक्ति के करिश्मे की पार्टी  न बनाने की रणनीति के तहत गडकरी को दिल्ली के अखाड़े में  उतारा ताकि पार्टी में संघ का सीधा नियंत्रण स्थापित हो सके ।  राजनाथ सिंह भी संघ के वरदहस्त के चलते अध्यक्ष जरुर बने  लेकिन उनके  एन  डी ए से जुड़े नेताओ से आज भी उनके  मधुर सम्बन्ध हैं  जिसका  लाभ  वह आने वाले दिनों में जरुर लेना चाहेंगे और शायद अपने पत्ते  16  मई के बाद  फेटेंगे  । वह पार्टी के पहले अध्यक्ष भी रह चुके हैं लिहाजा उनका अनुभव पार्टी के नाम आएगा लेकिन राजनाथ के जेहन में उनके पिछला कार्यकाल भी उस  समय  उमड़ घुमड़ रहा होगा तब पार्टी में गुटबाजी चरम पर थी  जिसकी  कीमत पार्टी को लोक सभा में करारी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी वह भी उनके  अपने ही कार्यकाल में । इस दौर  ब्रांड मोदी की दीवानगी कार्यकर्ताओ  से लेकर नेताओ में जरुर है लेकिन गठबंधन की राजनीति में मोदी की गुजरात से  बाहर स्वीकार्यता अब  भी  दूर की कौड़ी दिख रही  है । भविष्य में राजनाथ कैसे  अपनी बिसात मज़बूत करते  हैं    यह देखने वाली बात होगी ?  देखना यह भी होगा गठबंधन राजनीती के दौर मे  वह पार्टी की नैय्या  कैसे पार  लगाएगे अगर भाजपा  का प्रदर्शन  फींका  रहता  है ?

पिछले कार्यकाल में राजनाथ  को आडवानी के विरोधी खेमे के नेता के तौर पर प्रचारित  किया गया था लेकिन इस बार की  परिस्थितिया बदली  बदली सी  दिख रही हैं । भाजपा लगातार 2 लोक सभा चुनाव हारने के बाद से   केंद्र में  वापसी के लिए छटपटा  रही है । उम्र के इस अंतिम पडाव पर अब आडवानी को मोदी में जहाँ  उम्मीद  दिख रही है  वही पिछली दफे राजनाथ ने मोदी को पार्टी के संसदीय बोर्ड से  बाहर  कर दिया था  वहीँ  इस बार राजनाथ ने  मोदी को सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार  कहने को मजबूर होना  पड़ा है । जाहिर है यह सब भाजपा में  नई  संभावनाओ का द्वार खोल रहा है । संकेतो को डिकोड करें तो राजनाथ सिंह इशारो इशारो मे मोदी की तारीफो के क़सीदे यूँ  ही नही  पढ रहे हैं ।   राजनाथ  यह बात बखूबी  जान रहे हैं  मोदी अगर आशानुरूप सीटें नहीं ला पाये तो  खुद उनके  सितारे  बुलंदी  पर जा सकते हैँ ।  2014  की बिसात में आडवानी 7 रेस कोर्स की रेस से बाहर  हैं तो डी -4 की  दिल्ली वाली चौकड़ी के निशाने पर मोहन भागवत  शुरु से रहे हैं  और बदली फिजा मे  संघ  बैक ग्राउंड के नेता मोदी  पी एम  बनाने की  तान इस दौर में  छेड़  रहे हैं  ।  ऐसे में  राजनाथ संघ के आशीर्वाद से भाजपा के नये सहयोगियों को 16  मई के बाद   ना केवल साध सकते  हैं बल्कि एन डी ए के सर्वमान्य नेता के तौर पर पहचान बनाने  मे  भी सफ़ल हो सकते हैं ।  

राजनाथ को यह समझना जरुरी है कांग्रेस के खिलाफ़ इस चुनाव मे गहरी  नाराजगी  है ।  लोग भाजपा में उम्मीद देख रहे हैं लेकिन  सभी को एकजुट करने की भी बड़ी चुनौती भी  अब उनके सामने है । वहीँ संघ को भी  16  मई के बाद बदली परिस्थियों के अनुरूप भाजपा के लिए बिसात बिछाने की  जिम्मेदारी राजनाथ के कंधो पर देनी होगी  क्युकि  खुदा  ना  खास्ता  अगर  नमो  की लहर अौंधे  मुह गिरतीं है  तो  सवाल संघ की तरफ भी उठेगे क्युकि  सँघ के दखल  के बाद ही नमो नमो मन्त्र भाजपा मे गूंजा है  ।  संघ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है वह बहुत जल्द इस दौर में लोगो पर भरोसा कर रहा है और कहीं ना कहीं संगठन को लेकर भी बहुत जल्दबाजी दिखाने  मे लगा  है । शायद इसी वजह से गडकरी सरीखे लोगो ने संघ के जरिये अपने निजी और व्यवसायिक हित एक  दौर में  साधे । 

अब संघ की कोशिश इसी व्यक्तिनिष्ठता को  खत्म  करने की होनी चाहिए और यही चुनौती असल में राजनाथसिंह  को  16  मई के बाद  झेलनी पड  सकती   है । आज भाजपा को दो नावो में सवार होना है । गुजरात में मोदी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर  पर अपना दक्षिणपंथी चेहरा विकास की तर्ज  पर  पेश करना  होगा जहाँ हिंदुत्व के मसले पर देश के जनमानस को एकजुट करना होगा जिसकी डगर हमें फिलहाल तो  मुश्किल दिख रही है क्युकि गुजरात की परिस्थितिया अलग थी  पूरे देश  का मिजाज अलग है । वहां मोदिनोमिक्स माडल को हिंदुत्व के समीकरणों और खाम रणनीति के आसरे मोदी ने  नई  पहचान अपनी विकास की लकीर खींचकर दिलाई लेकिन केंद्र में गठबंधन राजनीती में ऐसी परिस्थितिया नहीं हैं  लिहाजा  राजनाथ की राह में गंभीर  चुनौती  है । 2006 से 2009 के दौरान भाजपा प्रमुख के तौर पर  राजनाथ ने काफी प्रतिष्ठा हासिल की और दिखा दिया कि चाहे मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी हो या केंद्रीय मंत्री या फिर पार्टी की कमान  वह कुशलता से हर जिम्मेदारी निभा सकते हैं।  राजनाथ सिंह पहले भी विभिन्न संकटों के बीच सरताज बनकर उभरे हैं।  देखते है राजनाथ सिंह  क्या  इस  बार 2014  की प्रधान मंत्री पद  की बिसात मे  तुरूप का इक्का बन  पाते हैं  ?

Thursday, 24 April 2014

देवभूमि में दांव पर दिग्गजों की प्रतिष्ठा


 ( ग्राउंड जीरो से )

उत्तराखंड में आगामी 7 मई को होने  मतदान पर सभी की नजरें टिकी हैं । 2014 को लेकर एक नए तरह के बद्लाव की बयार  पहाड़ो  में देखने मे आ रही है ।  पांच  लोकसभा  सीटों  वाले इस छोटे राज्य में वैसे तो भाजपा और कांग्रेस आमने सामने हैं लेकिन पहाड़ो मे बसपा के हाथी , उत्तराखंड़  क्रांति दल  और आम आदमी पार्टी ने मुकाबले को इस बार  दिलचस्प बना दिया है । भाजपा को जहाँ नमो लहर पर जीत का  भरोसा है वहीँ  कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत मुख्यमंत्री   हरीश रावत हैं जिन पर इस चुनाव मे सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने  भारी दबाव है ।  उत्तराखंड में लोक सभा की कुल 5 सीटें हैं जिनमें से 3 गढ़वाल मंडल और 2 सीटें कुमाऊं से आती हैं । उत्तराखंड में सीटो का  बंटवारा मैदानी बनाम पहाड़ी के तौर पर  होता आया है जिनमे से हरिद्वार और नैनीताल मे तराई के वोट हार जीत के गाणित को प्रभावित करते  रहे हैं । 

                            उत्तराखंड में कांग्रेस की ताबड़तोड़ सभाएं कर रहे  सी एम हरीश रावत ने राज्य मे कांग्रेस को भाजपा  के  सामने मुकाबले मे लाकर तो खड़ा कर दिया है लेकिन सत्ता विरोधी लहर और गुटबाजी  भी कांग्रेस का खेल  खऱाब कर रही है । भले ही हरीश रावत उत्तराखंड मे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं  मे  जान फूंकने  मे बीते कुछ महीनो मे क़ामयाब  हुए हैँ लेकिन सतपाल महाराज का भाजपा में शामिल होना कांग्रेस  सरकार के  लिए इस समय सरदर्द बन गया है ।  गढ़वाल के कई इलाको मे  महाराज की पकड़ और धार्मिक और आध्यत्मिक गुरु के रूप में उनकी पूरे देश पहचान  कहीं  ना कहीं कुमाऊं मंडल मे भी भाजपा को लाभ पहुचा रही है । 

 कुमाऊं की अल्मोड़ा संसदीय सीट पर भाजपा जहाँ इस बार कांग्रेस पर भारी पड़  रही है वहीँ नैनीताल मे भी वह पूर्व  सी एम  भगत सिंह कोश्यारी के आने से मुकाबले मे बनी  है । पौड़ी और टिहरी सरीखी सीटों  पर भी भाजपा अभी तक आगे चल रही है । वहीँ हरिद्वार में कांग्रेस बढत लेतीं दिख रही है क्युकि यहाँ मुख्यमंत्री हरीश रावत की प्रतिष्ठा सीधे दाव पर है । उनकी पत्नी रेणुका रावत इस सीट से ताल ठोक  रही  हैँ । ऐसे हालातो में हरीश रावत के सामने इस बार के पॉलिटिकल  टी-20 लीग  में अच्छे प्रदर्शन का  दबाव  है । वैसे भी  विजय बहुगुणा को हटाकर राहुल गांधी ने उनको सी एम की कुर्सी  इसलिए  सौंपी थी क़ि वह आने वाले लोक सभा चुनाव  कांग्रेस की हालत सुधारेंगे ।  अगर नतीजे  कांग्रेस के मन मुताबिक नहीं  आये तो  हरीश रावत की मुश्किल 16 मई के बाद बढ़ सकती है । वैसे सूत्रों की बातों पर भरोसा करें तो सतपाल महाराज मिशन -7 के तहत हरीश रावत को सत्ता से बेदखल करने के अपने गुप्त प्लान पर काम कर  चुके हैं । लोकसभा चुनावो के परिणामो के बाद सतपाल अपने समर्थक 7  विधायको को साथ लेकर हरीश रावत के सामने संकट पैदा कर सकते हैं । खुद सतपाल की पत्नी अमृता रावत इस समय हरीश की सरकार मे कैबिनेट मंत्री हैँ ।  

                   
           2009 के लोक  सभा  चुनावो में 5 सीटें गंवाने वाली भाजपा इस  बार  पूरे दम ख़म  के साथ देवभूमि  के सियासी अखाड़े  मे कदमताल कर रही है । चुनाव प्रचार से लेकर टिकटों के बँटवारे मे उसने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है । भाजपा ने इस चुनाव में अपने पूर्व मुख्यमंत्रियो की तिकड़ी को मैदान मे आगे कर दिया है । पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूरी जहाँ पौड़ी से दावेदारी कर रहे हैं वहीँ डॉ रमेश पोखरियाल  निशंक  हरिद्वार और भगत सिंह कोश्यारी नैनीताल से ताल ठोंके हुए हैँ । उत्तराखण्ड में लोकसभा की पांचों सीटों पर  मुकाबला  दिलचस्प  है ।   पहले   माना जा रहा था कि पांचों सीटें  भाजपा के खाते में  जाएंगी  लेकिन विजय बहुगुणा  का बदला जाना कांग्रेस के पक्ष में गया है। भाजपा द्वारा दिल्ली की एक एजेंसी से कराए गये एक सर्वै से इस बात की चिंता  है कि हरीश रावत के कुर्सी पर आने के बाद  सत्ता विरोधी लहर  में कमी आई है पहली दफा हरीश रावत के आने से भाजपा को अपनी रणनीति बदलणे को मजबूर होना पड़  रहा है । 


टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट पर लम्बे समय से  भाजपा का कब्जा रहा है । यह सीट टिहरी राजपरिवार की परम्परागत  सीट मानी जाती रही है ।  2009 के लोक सभा चुनावो में  विजय बहुगुणा ने इस सीट पर फतह हासिल की लेकिन 2012 में उनके  मुख्य मंत्री बनने के बाद रिक्त हुई इस सीट पर उनके बेटे उनके बेटे साकेत  बहुगुणा को  उपचुनाव मे भाजपा की रानी माला राजलक्ष्मी के हाथो मुह की खानी पड़ी थी । इस बार भाजपा ने माला पर  दाव लगाया है वहीँ कांग्रेस ने भी साकेत बहुगुणा को आगे किया है । रानी माला राजलक्ष्मी का कार्यकाल हालांकि कुछ खास  नहीं रहा है लेकिन उनका टिहरी राज परिवार से होना और कांग्रेस सरकार के खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी भाजपा के पक्ष मे जा रही है ।   इस लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाली 14  विधानसभा सीटों में से कांग्रेस का छह भाजपा का छह और अन्य का दो पर कब्जा है। यहां चालीस फीसदी ठाकुर पचास फीसदी ब्राह्मण मतदाता  हैं।  देहरादून शहर के लगभग सत्तर हजार सिख पचास हजार गोरखा और चालीस हजार मुस्लिम मतदाता हैं। देहरादून में गोरखा , पंजाबी , मुस्लिम मतदाता भी हार जीत के गाणित को गड़बड़ा सकते  हैं । तीसरी ताकत के रूप में यहाँ आप भी उभर रही है लेकिन चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच  नजर आ रहा है जिसमें निश्चित तौर पर अभी भाजपा का पलड़ा भारी है।  


वहीँ हरिद्वार सीट पर डॉ निशंक भाजपा प्रत्याशी के तौर पर हरीश की पत्नी रेणुका के सामने खड़े हैं । तकरीबन 34 हजार नए युवा वोटरो पर इस  बार  यहॉँ सभी की  नजर है  साथ  ही  साढ़े पांच लाख मुस्लिम मतदाता  हार  जीत  के गणित को    प्रभावित  कर सकते  हैं। बीते लोक सभा  चुनाव में बसपा प्रत्याशी शहजाद को लगभग दो लाख मत मिले थे। इस बार बसपा ने हाजी इस्माइल को प्रत्याशी बनाया है जबकि एक दौर मे  डॉ  अंतरिक्ष सैनी  का यहाँ से टिकट पक्का  रहे थे लेकिन बहिन जी ने बाद मे टिकट बदलकर हाज़ी को दे दिया जिससे सैनी समुदाय में असंतोष है। इस पूरे लोकसभा क्षेत्र में सैनियों के 3  लाख वोट हैं। ऐसे में कांग्रेस प्रत्याशी रेणुका रावत  को मुस्लिम के साथ-साथ दलित मतों का भी लाभ मिल सकता है । हरिद्वार संसदीय सीट  रावत ने 2009  में भारी मतों से इस सीट पर कांग्रेस की जीत दर्ज कराई थी। भाजपा के स्वामी यतीन्द्रनाथ को उन्होंने सवा लाख से अधिक मतों से पराजित कर रिकॉर्ड बनाया था। अबकी बार भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' को अपना प्रत्याशी बना लड़ाई को रोचक कर दिया है। निशंक की मुश्किल कुम्भ मे उनके द्वारा किये गये घोटालो ने बढ़ाई है साथ ही उनकी सरकार के भ्रष्टाचार  को  राजनीतिक दल निशाने  पर ले रहे  है और प्रदेश भाजपा का एक गुट निशंक  हरिद्वार से हरवाने के लिये भितरघात  कर रहा  है।   निशंक को यहां से प्रत्याशी बनाए जाने से  भाजपा के दिग्गज नेता मदन कौशिक नाराज हैँ जिनके सुर मे सुर यतीन्द्रनाथ  मिला रहे हैं । ये दोनों अपना  टिकट काटे जाने से नाराज हो चले हैं । ऐसे में मीडिया मैनेजर माने जाने वाले डॉ निशंक अपनी मैनेजरी और चुनावी प्रबन्धन कैसे करते  हैं  यह देखना दिलचस्प  होगा ।   हरिद्वार की  14  विधानसभा सीटों में से सात सीटों पर भाजपा , चार   पर कांग्रेस ,  तीन पर बसपा का कब्जा है। ऐसे में निश्चत तौर पर कांग्रेस-भाजपा की लड़ाई को बसपा ने रोचक बना दिया है । हरिद्वार में आप पर भी सभी  की नजरेँ  लगी हैं । यहाँ से प्रदेश की पूर्व डी  जी पी कंचन भट्टाचार्य मैदान मे हैं ।  

पौड़ी गढ़वाल से   भाजपा ने साफ़ छवि के   पूर्व मुख्यमंत्री  खंडूरी पर दांव  लगाया  है। खंडूरी चार बार इस सीट से सांसद रह चुके हैं । केंद्र में  अटल की कैबिनेट मे भूतल परिवहन मंत्री जब वह बने थे तो इसी सीट ने उनको कैबिनेट मंत्री  बनाया बल्कि 2007  में प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बनाया  ।  इस बार  आखिरी समय मे कांग्रेस ने यहाँ से अपने कैबिनेट  मंत्री  डॉ हरक सिंह रावत को उतारा  है। इस सीट पर  सतपाल महाराज   ने बीते लोक सभा चुनाव मे जीत हासिल  की थी  लेकिन अब उन्होने   भाजपा का दामन थाम लिया है। इसका लाभ भाजपा को मिलने के पूरे  आसार है।  यहां की चौदह विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के पास 10  भाजपा 3  और एक निर्दलीय के पास है।  भाजपा प्रत्याशी जनरल खण्डूड़ी को यहां से परास्त कर पाना सतपाल महाराज के लिए इस  बार  बेहद  मुश्किल  माना जा रहा था।लेकिन उनके  भाजपा में जाने से  खण्डूड़ी बम   बम  हैँ ।    उत्तराखंड के 2012 के विधानसभा चुनाव में राज्य मे  अपनी लोकप्रियता के रथ मे सवार  खण्डूड़ी कोटद्वार सीट कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंद्र सिंह नेगी के हाथों हार गये थे। तब भितरघात  के साथ ठाकुर ब्राह्मण  समीकरणों ने यहाँ के समीकरणों को उलझा दिया था  लेकिन   सतपाल  का भाजपा में आना खण्डूड़ी  लिये टॉनिक  का काम  सकता है । वही अतीत में  सतपाल खंडूरी के हाथो मुह की खा चुके हैं । कांग्रेस प्रत्याशी डॉ  हरक सिंह रावत को बहादुर योद्धा के रूप मे कांग्रेस प्रोजेक्ट करती रही है लेकिन इस  बार वह खंडूरी के सामने कोइ बढ़ा  उलटफेर कर पायेँगे इसकी  कम ही सम्भावना है ।  खंडूरी का पूरे उत्तराखंड मे जलवा कायम है ।   



नैनीताल संसदीय सीट से इस बार भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को मैदान में उतारा है। उनका मुकाबला 2009  में विजयी साँसद  के सी बाबा से है ।  37000 नए युवा वोट कोई बड़ा उलटफेर कर सकते हैं । बाबा अपनी हैट्रिक लगाने की तैयारी मे लगे हैं  वहीँ कोश्यारी राज्य सभा के बाद अब नमो लहर मे सवार  होकर लोक सभा मे एण्ट्री  मारने के लिये बैचैन हैं ।   इस साल 25 नवम्बर को उनका राज्य सभा कार्यकाल पूरा हो रहा  है ।कोश्यारी  की चिंता इस चुनाव मे भाजपा के पूर्व मंत्री  बची सिंह रावत एवं पूर्व सांसद बलराज पासी ने  बढ़ाई   हुई है । इन दोनों  पत्ता कोश्यारी ने साफ कर दिया और दिल्ली से अपना टिकट  फ़ाइनल कर लिया। प्रदेश संगठन ने पैनल में केवल कोश्यारी का ही नाम भेजा गया । भले ही अब ये दोनों शांत हो गये हों लेकिन  अंदरखाने यह सभी अपने समर्थकों के साथ पूरा जोर कोश्यारी को डेमेज करने में लगाये हुए हैं । कॉंगेस की इस  सीट पर पकड़  बेहद मजबूत रही है शायद  यही वजह है  हरीश फैक्टर  भी यहाँ   प्रभावी नजर आ रहा  है।  मुस्लिम मतदाता भी यहांँ  गणित  बिगाड़ सकते है। मोदी के चलते अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण  होने की सम्भावना  है। आम आदमी पार्टी ने यहां से जनकवि बल्ली सिंह चीमा को मैदान में उतारा है जो संगठन के अभाव मे बिखरी है । आप से दिल्ली जैसे करिश्मे की उम्मीद उत्तरखंड  बेमानी ही लग रहा  है । वहीँ यू के डी (ऐरी ) वेंटिलेटर पर है ।   

अल्मोड़ा- पिथौरागढ़ संसदीय सीट से कांग्रेस के निवर्तमान सांसद प्रदीप टम्टा पार्टी के प्रत्याशी हैं जिनके सामने भाजपा के सोमेश्वर के विधायक अजय  टम्टा  सामने हैं  जो 2009 के लोक सभा चुनावो में कुछ अन्तर से पराजित  हो गये  थे ।  इस सीट पर  50 फीसदी  मतदाता ठाकुर 40  फीसदी ब्राह्मण और 10  फीसदी  अन्य हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत  की प्रतिष्ठा भी यहाँ दाव पर है ।अतीत में हरीश रावत  प्रतिनिधित्व कर चुके हैं ।   प्रदीप टम्टा को हरीश रावत का  हनुमान  माना  जाता है लेकिन हरीश रावत का  गाँव यहाँ होने  से प्रदीप टम्टा को जिताने की बड़ी जिम्मेेदारी अब उनके कंधों पर आ  गयी है ।   कम उम्र में ब्लाक प्रमुख और लगातार लोकसभा में हैट्रिक लगाने के बाद  अस्सी के दशक में  पहले  चुनाव में  हरीश रावत ने डॉ मुरली  जोशी सरीखे कद्दावर  नेता को  इस  सीट  से हराकर धमाकेदार  इंट्री अविभाजित उत्तर  में की । संजय  ब्रिगेड के सिपहसालार और समर्पित सिपाही  बन हरीश ने इसके बाद इतिहास उस  समय रचा  जब डॉ मुरली मनोहर को 1984 में उनके हाथो फिर  पराजित होना  पड़ा।  इसके बाद रावत ने  भगत सिंह कोश्यारी और काशी  सिंह  ऐरी जैसे   दिग्गजों  की नींद  उड़ा डाली जब उनको भी रावत के हाथो  पटखनी  मिली ।  नब्बे के दशक  की रामलहर में   हरीश रावत का सियासी कैरियर पूरी तरह से थम गया । रामलहर में उन्हें राजनीती के नए  नवेले  खिलाडी जीवन शर्मा के हाथ हार खाने को मजबूर होना पड़ा तो 1996 , 19 98 ,1999 में पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री बची सिंह रावत के सामने  हार  गए  । रावत की इस हार के पीछे एक बड़ा कारण यहां के ब्राह्मण मतदाताओं की उनके प्रति अविश्वास और नाराजगी है। ब्राह्मण मतदाताओं की इस नाराजगी को एनडी  ने राज्य का सीएम रहते और हवा देने का काम किया था। इसके  बाद उनकी पत्नी  रेणुका  रावत भी  बची सिंह  रावत  के सामने हार गयी । 2009 में हरीश ने हरिद्वार से  भाग्य आजमाया और हरिद्वार ने  उनका  राजनीतिक  पुनर्वास  किया  जब 15  लोक सभा में वह   श्रम राज्य मंत्री बने  । 2011 में  कृषि  राज्य मंत्री , संसदीय कार्यमंत्री और फिर  जल संसाधन  मंत्री  ने दिल्ली में उनकी  राजनीतिक उड़ान  को  नई  दिशा  दी । बीते  लोकसभा  चुनाव में रावत अपने प्रदीप टम्टा को यहां से जिताने में सफल रहे थे। प्रदीप टम्टा से  जनता  खासी नाराज  है लिहा जा इस  बार उनकी  राह  आसान नहीं  लग रही ।   इस बार एंटी कांग्रेस की  हवा भी हरीश के समीकरणों को गड़बड़ा  सकती  है। 

 भाजपा हरीश फैक्टर के अलावा अजय टम्टा को टिकट मिलने से नाराज  प्रत्याशियों के भितरघात  से भी यहां आशंकित है। पूर्व आईएएस चनरराम अल्मोड़ा के डीएम भी रह चुके हैं। टिकट न मिल पाने से वह  सज्जन लाल वर्मा के साथ अब भी कोपभवन मे हैं । भगत सिंह कोश्यारी की चहेती रेखा  आर्या भी टिकट  मिलने से आहत हैं लेकिन उनको  इस   सूरत मे मना लिया गया है भाजपा प्रत्याशी  अजय टम्टा के जीतने की सूरत मे उन्हे पार्टी सोमेश्वर से विधान सभा चुनाव  जिसके  बाद  भाजपा की गुटबाज़ी पर इस सीट  पर कुछ हद तक विराम लग  गया  है । 

बहरहाल मिलाकर 2014 की उत्तराखंड की सियासी  बिसात मे   उत्तराखण्ड में  लोकसभा सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर होती नजर आ रही है। भाजपा के तीनो पूर्व मुख्यमंत्री जहॉं नमो लहर मे सवारी कर लोक सभा चुनाव जीतने के हसीन सपने देख रहे हैं वहीँ कांग्रेस मुख्यमँत्री चुकी  हरीश रावत   को आगे कर अपने विकास कार्यो और उपलब्धियों  बीच ले जाकर अखाड़े मे  उतर चुकी है । देवभूमि में 16 वी लोक सभा  का  ऊट किस करवट  बैठेगा इसके लिये फिलहाल 16 मई तक कीजिए  इन्तजार...... 

Wednesday, 23 April 2014

सियासी बिसात में "बारु" और "पारेख " का टाइम बम ....


सियासत  और खेल में  टाइमिंग का खासा  महत्व  रहा है ।  2014  की चुनावी बिसात के बीच किताबों  के  नए 'टाइम  बम' ने राजनीती को एक सौ अस्सी डिग्री पर  ना  केवल झुकने को  मजबूर कर दिया है बल्कि विपक्षी पार्टियो को भी लगे हाथ सत्ता पक्ष के खिलाफ मुखर होने का नायाब मौका दे दिया है । प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु की किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह' के आने से   इन दिनों  चुनावी पारा सातवें आसमान   पर चला गया है ।  इसकी नब्ज को बारु ने जिस अंदाज में पकड़ा गया है उससे यू  पी ए  सरकार के ईमानदार मुखिया मनमोहन सिंह  पर हमले शुरू  हो गए हैं । एक ईमानदार  प्रधानमंत्री पहली बार कटघरे  में खड़ा है ।   बारु के अनुसार यूपीए सरकार में सत्ता के दो केंद्र रहे।  एक  धुरी  की  कमान  खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संभाले थे  तो  दूसरी  धुरी सोनिया गांधी रही जिनके हर आदेश  का  पालन करने की मजबूरी  मनमोहन के चेहरे  पर साफ़  देखी जा सकती है ।   इस किताब के अनुसार मनमोहन सिंह  एक दुर्बल मुखिया की तरह  रहे जिन्हे  महत्वपूर्ण फैसलों के लिए सोनिया गांधी का यस बॉस  बनना  पड़ा ।  लोक सभा चुनावो के  समय  इन आरोपों से विपक्ष के निशाने पर आई  कांग्रेस अपने बचाव में  पी एम के वर्तमान  मीडिया सलाहकार  पंकज पचौरी का चेहरा सामने रखकर  अपना पक्ष जरूर  रख रही है जो मनमोहन के भाषणो की संख्या  और आर्थिक विकास के चमचमाते आंकड़े पेश कर यू  पी ए  2  के अभूतपूर्व विकास  बता रही है लेकिन  यूपीए २ के  शासनकाल में हुए एक बाद एक घोटाले  जनता को यह  सोचने पर मजबूर कर देते हैं मनमोहन की  यह आखिरी  पारी कितनी विवादों से भरी रही ।  मनमोहन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि वह गठबंधन धर्म  के आगे लाचार हैं अब  विदाई बेल में यह किताब मनमोहन की बेबसी के बोल बखूबी बोलती  है ।  


 संजय बारु के आरोपों  से भले ही पी एम ओ  पाला झाड़ ले लेकिन  यूपीए 2 के शासन काल में सब बढ़िया रहा ऐसा भी नहीं है  । एक के बाद एक यही घोटालो की गुरु घंटाल  पोल  खुलती रही  । २जी, कोयला ,कामनवेल्थ , आदर्श हर बार पीएमओ की भूमिका  का अस्पष्ट रही । अन्ना आंदोलन हो या दामिनी  काण्ड  हर बार प्रधानमंत्री की चुप्पी  देश को खलती रही । मनमोहन हमेशा तमाशबीन बने  रहे  । अन्ना आंदोलन के मसले को वह ठीक से हैंडल  नहीं कर सके वहीँ दामिनी के मसले पर ट्वीट करने में उन्हें हफ्ते लग गए ।   विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की क्या मजबूरी रही हो यह तो कोई नहीं जान सकता पर संजय बारु की किताब उन तमाम छिपे रहस्यों पर से पर्दा उठाती है जो यूपीए के दौरान घटे। कांग्रेस इस किताब की टाइमिंग पर सवाल उठा रही है  लेकिन   राजनीतिक दलों ने इस किताब  को लपकने में देरी नहीं लगाई है  । 


यू पी ए 1  से ज्यादा भ्रष्ट्र यू पी ए 2  नजर  आया जहाँ एक से बढकर एक  भ्रष्ट मंत्रियो की टोली मनमोहन सिंह की किचन  कैबिनेट को सुशोभित करती रही ।  वैसे  यू पी ए  2 ने तो भ्रष्ट्राचार के कई कीर्तिमानो को ध्वस्त कर दिया  जहाँ  सबसे ज्यादा  पी ऍम की छवि  ख़राब हुई  ।  सी वी सी थॉमस  की नियुक्ति से लेकर  महंगाई के डायन बनने  तक की कहानी यू पीए २ की विफलता को उजागर करती  है।  आदर्श सोसाइटी से लेकर कामन वेल्थ , २ जी स्पेक्ट्रम से लेकर इसरो में एस बैंड आवंटन , कोलगेट तक के घोटाले केंद्र की सरकार की सेहत के लिए कतई अच्छे नही रहे जिनसे पूरी दुनिया में एक ईमानदार प्रधानमंत्री की छवि तार तार हो गयी ।   मनमोहन भले ही अच्छे अर्थशास्त्री  हों परन्तु वह एक कुशल राजनेता की केटेगरी में तो कतई नही रखे जा सकते और ना ही वह भीड़ को खींचने वाले नेता  हैं । बीते  लोक सभा चुनावो से पहले भाजपा के पी ऍम इन वेटिंग आडवानी ने मनमोहन के बारे में कहा था वह देश के सबसे कमजोर प्रधान मंत्री है । उस समय कई लोगो ने आडवानी की बात को हल्के  में लिया था , आज मनमोहन सिंह पर यह बातें  सोलह आने सच साबित हो रही है । 

इस किताब ने यह भी बताया है मनमोहन सारे फैसले खुद से नही लेते । सत्ता का केंद्र दस जनपद बना रहता है ।   व्यक्तिगत तौर पर भले ही मनमोहन की छवि इमानदार रही है परन्तु दिन पर दिन ख़राब हो रहे हालातो पर प्रधान मंत्री की  हर मामले पर चुप्पी से जनता में सही सन्देश नही गया । . बारु की किताब यह भी बताती है "इकोनोमिक्स की तमाम खूबियाँ भले ही मनमोहन सिंह में रही हो पर सरकार चलाने की खूबियाँ तो उनमे कतई नही है|  यू पी ए  २  में  पूरी तरह से दस जनपद का नियंत्रण बना रहा ।  मनमोहन को भले ही सोनिया का "फ्री हैण्ड" मिला हो पर उन्हें अपने हर फैसले पर सोनिया की सहमति  लेनी जरुरी हो जाती थी ।  दस जनपद में भी सोनिया के सिपैहसलार पूरी व्यवस्था को चलाते  थे । 


 संजय बारु का मामला ठंडा भी नहीं  हुआ था क़ि  पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब 'क्रूसेडर या कांसिपिरेटर' ने बाजार में आकर  बखेड़ा ही खड़ा कर दिया । पारेख पर नजर इसलिए भी है क्युकि सीबीआई ने  कोयला घोटाला मामले में पीसी पारेख को नोटिस भेजा है।  पिछले वर्ष 2013 में सीबीआई ने पारेख समेत हिंडालको और अन्य अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था। मामला दर्ज किए जाने के दौरान सीबीआई ने इस बात को भी स्वीकारा था कि  सभी अधिकारी साल 2005 से कोलगेट  घोटाले में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। पारेख के ऊपर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने सिर्फ कथित तौर पर ही कोल ब्लॉक आवंटन किया है।जिसमे अन्य अधिकारियों ने भी उनका साथ दिया ।  इस किताब में भी  पी एम ओ  पर निशाना साधा  गया है। कोलगेट  पर लिखी गई इस किताब  में तमाम नौकरशाहों और राजनीतिक  जमात  को कठघरे में रखा गया है।  कोयले  की आंच पहली  बार सरकार में शामिल मंत्री से  लेकर  कॉरपोरेट घरानों तक गई जहां रिश्तेदारो को आउने पौने दामो पर  कोल ब्लॉक  आवंटित कर दिए गए । कैग की रिपोर्ट में जब कोयला आवंटन में हुई धांधली को उजागर किया गया तब तत्कालीन नियंत्रक महालेखा परीक्षक विनोद राय की भूमिका पर  यूपीए ने सबसे पहले सवाल दागे जिससे यह सवाल बड़ा हो गया क्या यू पी ए  को  संवैधानिक  संस्थाओ पर   भरोसा नहीं रहा ?    पारेख की लेखनी  कोयला मंत्रालय और प्रकाश जायसवाल की भूमिका पर हंगामा करने का विपक्ष को बहुत मसाला देती है। पारिख ने इस मौके पर कहा कि पीएम ने खुली निविदा के जरिए अगस्त 2004 में कोयला आवंटन की मंजूरी दी थी। मगर उनके दो मंत्रियों शिबू सोरेन और दसई  राव ने उनकी नीतियों का पालन नहीं किया ।   उन्होंने लिखा है  दोनों मंत्रियों के कार्यकाल में कोयला मंत्रालय में निदेशक पद पर नियुक्ति के लिए भी घूस ली  जाती  थी । पारिख ने कहा उन्होंने सांसदों को ब्लैकमेलिंग और वसूली करते हुए खुद देखा । यू पी ए 2  के दौर में पानी सर से इतना नीचे बह चु का था कि  अधिकारियों के लिए ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया । पारिख ने किताब में कहा है  कोयला सचिव के रूप में उनके  कार्यकाल में जो भी उपलब्धियां हासिल की गईं वह  उस दौरान की गईं जब मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था। 

बहरहाल जो भी हो देश चुनावी मॉड  में है और इन दोनों किताबो के सामने आने से जहाँ विपक्षियो को यू पी ए २ के सामने आक्रामक होने का एक बड़ा मुद्दा मिल गया है वहीं भ्रष्टाचार , महंगाई और एंटी इन्कम्बेंसी झेल रही कांग्रेस के सामने पहली बार स्थिति पेचीदा हो चली है । कई कांग्रेसी दिग्गज जहाँ पहले ही लोक सभा चुनावो से मुह फेर लिए हैं वहीँ  कई नेता ऐसे हैं जो हार के संभावित खतरों के मद्देनजर चुनाव प्रचार से ही दूर हो गए हैं । मनमोहन पहले ही 2014  की बिसात में फिट नहीं बैठ रहे हैं वहीँ गर्मी में ताबड़तोड़ प्रचार से सोनिया  के पसीने छूट रहे हैं ।  देश के मुखिया मनमोहन की  कोशिश इन लोक सभा  चुनावो के दौरान  इस बात की होनी चाहिए  थी यू पी ए २  को कैसे मौजूदा चुनौती  के दौर से बाहर निकाला जाए ? लेकिन इस चुनाव में मनमोहन कहीं नजर नहीं आ रहे तो वहीँ  उनके कई कैबिनेट मंत्री चुनाव प्रचार से दूर चले गए हैं ।  वहीँ पार्टी की चुनाव प्रचार की कमान अब राहुल और सोनिया गांधी और प्रियंका की तिकड़ी के  जिम्मे आ गयी है जो  मैदान में बिना लाव लश्कर के साथ डटे  हैं जिनकी बिसात भी जाति , धर्म , गरीबी ,सियासी तिकड़मों के आसरे मोदी को निशाने पर लेकर ही चल रही है । ऐसे में देखने वाली बात यह होगी  तमाम विरोधी लहर के बीच कांग्रेस इस लोक सभा चुनाव में क्या करिश्मा कर  पाती है ? 

Sunday, 6 April 2014

एन्टी इनकम्बेंसी के बीच हरियाणा में कांग्रेस को हुड्डा का सहारा






" हुड्डा ने काम तो बहुत कराये ..  सड़कें बनवाई ..  चमचमाते फ्लाई ओवर भी बनाये .. लेकिन इस चकाचौंध का असर रोहतक, सोनीपत , झज्जर तक ही सिमटा जिसके चलते कई इलाके आज भी विकास की बाँट जोह रहे हैं । बेरोजगारो में भारी निराशा है । घोटालो और भ्रष्टाचार के बाद भी हम इस चुनाव में हुड्डा को ही वोट करेंगे  क्युकि वो अपना भाई है अपनी बिरादरी का है । "

एनसीआर से सटे रोहतक इलाके से ताल्लुक रखने वाले एक वोटर नवीन से जब चुनावी चर्चा की तो उसके जवाब ने यह संकेत तो दे ही दिया एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर के बीच कांग्रेस के हाथ का एक मात्र सहारा  हरियाणा  के मुख्यमंत्री भूपेन्दर सिंह हुड्डा हैं शायद यही वजह है बीते एक दशक में हरियाणा में एक जुमला  'हरियाणा इज हुड्डा' , 'हुड्डा इज  हरियाणा' खूब  चला है जो इस चुनावी बरस में भी इंदिरा गांधी वाले दौर की यादें ताजा कर देता है तब इंदिरा गांधी कांग्रेस का पूरे देश में सहारा हुआ करती थी । कम से कम हरियाणा में पूरे देश में कांग्रेस  विरोधी लहर के बाद भी अगर हुड्डा की तारीफो के कसीदे वोटरों  से सुनने को मिल रहे  हैं  तो यह कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत की तरफ इशारा कराता है । 

   लोक सभा की रणभेरी बज चुकी है । हरियाणा के चुनावी महासमर में सभी   दलों ने चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में पूरी ताकत झोंक दी है । 10 अप्रैल को पहले चरण के मतदान में जिन सीटो पर सबसे ज्यादा नजर हैं उसमे हरियाणा प्रमुख है । दिल्ली से सटे होने के चलते हरियाणा में इस समय कांग्रेस के सामने अपना पिछला इतिहास दोहराने की तगड़ी चुनौती तो है साथ में हुड्डा की साख इस चुनाव में सीधे दांव पर है क्युकि उनके सामने कांग्रेस की पुरानी सीटो पर हाथ को मजबूत बनाने की तगड़ी जिम्मेदारी  है । वही ओम  प्रकाश चौटाला के सामने भी अपनी पार्टी का अस्तित्व और वजूद बचाने की  चुनौती है क्युकि जेबीटी शिक्षक  घोटाले में  जेल की हवा खाने के चलते उनके पुराने वोटर पाला  बदलने  की तैयारी में दिखायी देते हैं । हरियाणा में कांग्रेस हुड्डा के नाम के आगे अपने वोट मांगती  दिख रही है लेकिन यू पी  ए सरकार के प्रति लोगो में थोडा बहुत गुस्सा भी साफ़ दिखाई देता है । दिसंबर में दिल्ली की जमीन से रुखसत  कांग्रेस के सामने अब पडोसी राज्य हरियाणा में हुड्डा के विकास की कहानी लोगो तक  पहुचाने की जिम्मेदारी है क्युकि  भारी गुटबाजी और एंटी इंकम्बेंसी का  अंदेशा राज्य की 10  संसदीय सीटों के गणित को सीधे प्रभावित कर  रहा है लेकिन हरियाणा में विपक्ष के बिखराव का सीधा लाभ लेने के लिए हुड्डा अपनी बिसात मजबूत करते नजर आ रहे हैं जिसके चलते वह सब पर भारी पड़  रहे हैं । पिछले एक दशक में हुड्डा ने विकास कार्यो के बूते विकास की जो गंगा बहायी है उसकी नाव में सवार होकर कांग्रेस अपने लिए लोक सभा चुनावो के साथ राज्य में होने  विधान सभा चुनावो में भी अपनी बिसात अपने अनुकूल बिछाती नजर आ रही है । 

                                           मौजूदा दौर में  हरियाणा में 10 सीटो की सीधी  लड़ाई में कांग्रेस के सामने  इनलो ,भाजपा, हजका सीधे खड़ी हैं लेकिन दिल्ली से सटे होने के चलते इस लोक सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कई इलाको में माहौल को रोचक बना दिया है । इनलो को सहानुभूति की लहर का सहारा है तो वहीँ भाजपा और हजका नमो लहर से बड़े करिश्मे की उम्मीद लगाये बैठी है । वहीँ केजरीवाल के हरियाणा से होने के कारण आम आदमी पार्टी  दिल्ली सरीखे करिश्मे की उम्मीद  कर  रही है । भाजपा हजका नमो को तारणहार के रूप में देख रहे हैं वही पंजाब में भाजपा की सहयोगी  अकाली दल के लोग इनलो के चुनाव प्रचार में साथ भागीदारी कर भाजपा हजका  की मुश्किलो को सीधे बढ़ाने का काम कर रहे हैं । अगर एकमुश्त पंजाबी वोट इनलो अपने पाले में लाने में कामयाब हो जाती है तो  इससे भाजपा हजका को परेशानी कई सीटो पर पेश आ सकती है । 
               
                       15  वी लोक सभा में कांग्रेस ने हुड्डा के करिश्मे के बूते 10  में से 9  सीटें जीतकर विपक्षियों के तोते ही उड़ा दिए थे ।  उस दौर  को याद करें तो जेहन में भजनलाल का नाम आता है जिनकी गिनती देवीलाल और बंसीलाल की तरह तीसरे हरियाणा के लाल के रूप में होती रही लेकिन 2011 में उनकी मौत के बाद उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई ने   अजय चौटाला को  तकरीबन छह हजार मतों से धूल चटाई । हिसार में कुलदीप बिश्नोई पर  सबकी नजर हैं । उनके सामने इस बार दुष्यंत चौटाला हैं । कुलदीप के पिता और पूर्व सीएम भजनलाल ने 1998 में फरीदाबाद, 1984 में करनाल और 2009 में हिसार सीट पर जीत दर्ज कराई थी। कुलदीप ने 2004 में भिवानी सीट से चुनाव जीतकर संसद में प्रवेश किया। पिता के निधन के कारण हिसार उपचुनाव में कुलदीप जीते थे।इस बार भी कुलदीप हजका   भाजपा गठबंधन   के आसरे हिसार में ताल ठोक  रहे हैं जहाँ उनके सामने अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला हैं । वही इस सीट पर कांग्रेस ने संपत सिंह को आगे किया है जिससे  मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है । रोहतक की बात करें तो यहाँ दीपेन्दर हुड्डा की लहर साफ़ दिख रही है । अपने पिता के विकास कार्यो का लाभ उनको मिलता दिखायी दे रहा है । भाजपा के ओमप्रकाश धनकड़ उनको कोई ख़ास चुनौती देते नहीं दिख रहे हैं तो वहीँ इनलो और आप का भी इलाके में कुछ खास असर देखने को नहीं मिलता । 

कुरुक्षेत्र के  रण में मुकाबला त्रिकोणीय है। तीसरी बार सांसद बनने का सपना देख रहे कांग्रेस के नवीन जिंदल  के सामने  राजकुमार सैनी और  इनेलो के बलबीर सैनी  हैं। यहां सर्वाधिक जाट मतदाता हैं लेकिन लंबे समय से इस समुदाय का कोई सांसद नहीं बना है। 2004 में तो जाट नेता अभय चौटाला पराजित हो गए थे। इस बार भी इस समुदाय का कोई प्रत्याशी मजबूत  नजर नहीं आ रहा।  तय  है कि जाट जिसका साथ देंगे हवा का रुख तभी पता लगेगा ।कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र में कईकैबिनेट मंत्री  दिग्गजों की साख दांव पर है। नवीन जिंदल के सामने कोलगेट बड़ी कार्पेट बिछा रहा है तो वहीँ संसदीय इलाके से उनकी बेरुखी पर मतदाता नाराज चल रहे हैं । ऐसे में चुनाव  दिलचस्प बन गया है ।भिवानी-महेंद्रगढ़ संसदीय क्षेत्र में इस बार भी कड़ा मुकाबला होने जा रहा है।  मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस, भाजपा, इनेलो, आम आदमी पार्टी व बसपा के बीच चल रहा है। कांग्रेस की श्रुति चौधरी, भाजपा के धर्मबीर सिंह व इनेलो के राव बहादुर सिंह  चुनावी समीकरण रोचक बनाये हुए हैं  जबकि आम आदमी पार्टी के ललित कुमार अग्रवाल तथा बहुजन समाज पार्टी के वेदपाल तंवर भी मुकाबले को बहुकोणीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। कांग्रेस की श्रुति चौधरी इस बार भी अपने स्वर्गीय दादा पर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल के अलावा अपनी मां व राज्य की जनस्वास्थ्य मंत्री किरण चौधरी द्वारा कराए गए विकास कार्यो के अलावा अपने सांसद काल में कराए गए विकास कार्यो का हवाला देकर लोगों से वोट मांग रही हैं। जबकि उनके साथ समस्या गुटबाजी , भितरघात की  है। कांग्रेस के विधायक खुलकर उनके साथ आने से कतरा रहे हैं। भाजपा में शामिल हुए धर्मबीर के साथ भी पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं को लेकर स्थिति ठीक  नहीं हैं फिर भी चुनाव में नमो  मंत्र  सबसे बड़ा सहारा है।  इंडियन नेशनल लोकदल के राव बहादुर सिंह को जहां इनेलो विधायकों व पार्टी समर्थकों की पूरी मदद मिल रही हैं।  

 कांग्रेस ने करनाल में डॉ. अरविंद शर्मा को  तीसरी बार उतारा है।  पंजाबी वोट को ध्यान में रखकर भाजपा ने अश्विनी चोपड़ा को आगे किया है ।  पूर्व केन्द्रीय मंत्री आईडी स्वामी भी यहां से भाजपा की टिकट चाहते थे लेकिन मिला नहीं ।  पूर्व कृषि मंत्री जसविंदर संधू पहली बार इनेलो प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी परमजीत सिंह भी पहला चुनाव लडऩे उतरे हैं। बसपा के  टिकट पर चुनाव लड़ चुके मराठा वीरेंद्र वर्मा इस बार फिर पार्टी से उम्मीदवार हैं। फिर भी कांग्रेस को इस सीट से बडी  आस है । गुड़गांव में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल राव इंद्रजीत सब पर भारी पड़  रहे हैं । इंद्रजीत ने 1998, 2004 और 2009 का चुनाव जीतकर हैट्रिक लगाई। इस बार वे चौधर के नाम पर वोट मांग रहे हैं।आप की  तरफ से योगेन्द्र  यादव सामने जरुर हैं लेकिन राव की इस इलाके में भारी  पैठ देखते हुए  लगता नहीं है आप , इनलो यहाँ कुछ ख़ास कर पाएंगे । पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार करीब साढे़ पांच लाख तदाता इस संसदीय क्षेत्र में जुड़े हैं। इनमें ‘युवा वर्ग’ की तादाद अच्छी खासी हैं।देखने वाली बात यह होगी यह युवा एकमुश्त वोट किसके पक्ष में करते है। चंडीगढ़ में तमाम कयासों के बीच  पूर्व रेल मंत्री पवन बंसल के सामने बॉलीवुड है जहाँ भाजपा की तरफ से किरण खैर  और आप की  तरफ से गुल पनाग सियासी अखाड़े में अपनी ताल ठोंक  रही हैं। पवन बंसल को मजबूत माना जा रहा है और साथ ही स्थानीय होने का लाभ उन्हें मिलने की पूरी  सम्भावनाएं दिख रही हैं । भाजपा में किरण को कार्यकर्ताओ का पूरा समर्थन ना मिलने के चलते यहाँ कमल खिलने में परेशानी पेश आ सकती है । 


 सोनीपत  में जाटों  की तादात ज्यादा है लेकिन भाजपा ने यहाँ से ब्राह्मण रमेश कौशिक को आगे किया है जिससे प्रदीप  सांगवान  नाराज हो गए हैं । कांग्रेस प्रत्याशी जगबीर सिंह मलिक का पलड़ा इस सीट पर भारी बताया जा रहा है । चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में हुड्डा की रैलियो ने यहाँ कांग्रेस के पक्ष में समीकरण बैठा दिए हैं । विनोद शर्मा के कांग्रेस छोड़ने के बाद अम्बाला में कांग्रेस की राह आसान नहीं कही जा सकती । भाजपा प्रत्याशी रतन लाल कटारिया इनलो को कड़ी टक्कर देते दिखायी दे रहे हैं । सिरसा में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर को हजका भाजपा गठबंधन के प्रत्याशी डा. सुशील इदौरा से तगड़ी चुनौती  मिल रही है ।  इनेलो प्रत्याशी चरणजीत रोड़ी के आने से  मुकाबला दिलचस्प  बन गया है।  सिरसा में डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों की  बड़ी तादात हार जीत के समीकरणों को प्रभावित कर सकती है साथ ही पंजाब से सटे होने के चलते सिरसा में शिरोमणि  अकाली  दल के इनलो के साथ आने से पंजाबी वोट बाँटने का अंदेशा बना हुआ है ।   फरीदाबाद में  पंजाबी और गुर्जर समुदाय के मत ही निर्णायक होते हैं। चूंकि यह क्षेत्र नए परिसीमन के बाद  यहां कांग्रेस का सिक्का  है। पंजाबी बिरादरी का झुकाव यहां आजादी के बाद से ही कांग्रेस के प्रति रहा है।  यहां पंजाबी, गुर्जर समुदाय के मत ही निर्णायक होते हैं। चूंकि यह क्षेत्र नए परिसीमन के बाद एनआइटी और मेवलामहाराजपुर क्षेत्र से निकले हिस्से का बना है इसलिए यहां कांग्रेस का वर्चस्व रहा है।  शहरी क्षेत्र में भाजपा को इनेलो से टक्कर मिल रही है तो देहात में कांग्रेस प्रत्याशी से लेकिन मुस्लिम वोट यहाँ भी अहम है   । दिल्ली से सटे होने के चलते आप यहाँ कितना असर छोड़ पाती है यह भी देखने लायक होगा । लेकिन आज के खामोश वोटर के मिजाज को पढ़ पाना इतना आसान नहीं है । 

जो भी हो हरियाणा में हुड्डा के विकास कार्यो का लाभ कांग्रेस को मिलता तो  दिख  रहा है लेकिन राज्य कांग्रेस में शैलजा , बीरेंद्र सिंह , फूल मुलाना का गुट चुनाव में हुड्डा को सबक सिखाने के लिए एक हो गया है । इन  सभी का ऐसा मानना कि हुड्डा का विकास कुछ जिलो तक सिमट कर  गया जिसमे दक्षिणी हरियाणा  की उपेक्षा की गई । विकास का पैमाना जो हुड्डा ने नियत किया उससे कई कांग्रेसी कार्य कर्ताओ के मन में नाराजगी है जिसका परिणाम लोक सभा चुनाव में उन्हें उठाना  पड़  सकता है लेकिन इन सबके बीच यह  सच भी शायद किसी से छुपा है जाटलैंड में हुड्डा की तूती पहले  भी बोलती  थी और आज भी बोलती है तो यह हुड्डा के करिश्मे को बयां करने के लिए काफी है ।  हाल ही में केंद्र  सरकार द्वारा जाटों को सरकार नौकरियों में आरक्षण का  जो नया  पासा फैंका गया वह हुड्डा के लिए हरियाणा के विकेट पर  चुनावी बरस में नए  मास्टर स्ट्रोक से कम नहीं है  शायद यही वजह है हरियाणा के इस चुनाव में हुड्डा का स्ट्राइक रेट सही चल रहा है और नमो की ताबड़तोड़ रैलियो के बाद भी हरियाणा मे कीचड़ में कमल खिलना दूर की गोटी दिख रहा है ।