Friday, 30 October 2015

युवा दिलों की धड़कन बनता ऍफ़ एम




यह नजारा मेट्रो से लगी दिल्ली की एक झुग्गी झोपड़ी का है जहाँ पर कई कामगार मजदूरों की टोली मेट्रो ट्रैक बिछाने के काम में सवेरे से आ जाती है और दिन की शुरुवात से पहले मामू के खोमचे के पास चाय और नाश्ते को लेकर भीड़ लगाए रहती है | अब यह भीड़ उस समय अधिक बढ़ जाती है जब क्रिकेट मैच चल रहा होता है | भारत और अफ्रीका के बीच चौथे वन डे मैच शुरू हो गया है | विराट कोहली मैच के तीसरे ओवर में सिक्स लगा देते हैं | रोमांच पैदा होता है | आस पास इंडिया जीतेगा के नारे चल निकलते हैं और विराट और रैना के चौक्कों और छक्कों के बीच भारत तेजी से 100 रन बना लेता है तो मामू की दुकान पर पहली बार देश प्रेम दिखता है जहाँ पूरे मजदूरों की टोली जश्न से सरोबार हो उठती है और यह वाकया यह भी बताता है क्यों क्रिकेट गली गली में खेला जाता है और क्यों देवताओं की भांति क्रिकेटरों को हमारे देश की जनता पूजती है ? उनके अच्छे खेल के लिए जनता न केवल हवन करती है बल्कि हर पल सिर्फ भारत की जीत की ही दुआ करती दिखाई देती है |

 शाम ढलते ढलते जब भारत मैच पर पकड़ आना लेता है और अफ्रीका की टीम हार की तरफ बढती है तो फिर यह मजदूरों की टोली मामू की दुकान में कमेन्टरी सुनने एकत्रित हो जाती है और भारत के जीतने पर नाच गाकर जश्न मनाती है |  यह तो महज एक बानगी भर है | आज आपको ऐसे लोग हर इलाके में मिल जायेंगे जिनके दिन की शुरुवात ऍफ़ एम से होती है |

 दीपा कॉल सेण्टर में काम करती है | नोएडा सुबह 5 बजे जाना है लेकिन इतने सुबह मेट्रो नहीं मिल पाती सो उसके दफ्तर से कैब लेने आ जाती है | झटपट उठकर वह कैब पकड़ने निकल पड़ती है | खाना पीना तो छोड़ो , अपना पिंक कलर का पर्स और हाथो में आई फ़ोन और कान में हैडफ़ोन लगाकर वह अपनी मंजिल को चल निकलती है | नोएडा अभी बहुत दूर है लेकिन उसके साथी ऍफ़ एम ने सुबह सुबह भजन और पुराने गाने बजाकर उसका मनोरंजन बखूबी कर दिया | हर दिन वह सफ़र में बोर नहीं होती  और तो और खाली समय में आते जाते समय वह कान में हैडफ़ोन ही लगाये रखती है | ऐसा मेट्रो शहर में ही संभव है जहाँ लोग एक दूजे से बात करना पसंद नहीं करते हैं लेकिन बसों और मेट्रो में ऍफ़ एम की बातें बड़ी  आत्मीयता से सुनते देखे जा सकते हैं |   
    
अनिमेष  काफी व्यस्त  इंसान है | वह सोते समय जागता है , जागते समय सोता है | कब पढता है ? कब खाता है ? दिन भर क्या करता है इसका कुछ भी आता पता नहीं | दिन भर के काम काज निपटाने के बाद जब वह रात को 8 से 10 के बीच राजीव चौक मेट्रो स्टेशन से नोएडा के लिए निकलता है तो उसे भी मनोरंजन के लिए कुछ चाहिए | ऐसे में मेट्रो की भीडभाड के बीच उसका जीवनसाथी  ऍफ़ एम बन जाता है | वह चाहे मेट्रो के दरवाजे में खड़ा हो या सीट के पास बैठकर डेली टाइम्स पढ़े ,गर्मी के दौरान उमस में कहीं भी फंसा रहे या डी टी सी के स्टॉप पर खड़ा होकर बाहरी मुद्रिका की प्रतीक्षा करे हर जगह उसका साथी मोबाइल और ऍफ़ एम बन जाता है |  पता नहीं दिन भर अनिमेष के कान से हैडफ़ोन बाहर क्यों नहीं निकलता ? 

यही हाल आई आई टी की कोचिंग लेने जा रहे  संदीप का है जो आर के पुरम से बस में चढ़ता है | तभी कान में ऍफ़ एम से सूचना मिलती है आज मुनिरका वाले रूट पर बड़ा जाम लगा है अब वह मेट्रो की राह जाम से बचने के लिए पकड़ता है | ऐसा करके उसने अपने समय की बचत कर ली | अगर वह बस में बैठकर जिया सराय जाता तो शायद उसकी कोचिंग के महत्वपूर्ण टापिक क्लीयर नहीं हो पाते और बहुत कुछ छूट जाता |  मोबाइल में ऍफ़ एम की सुविधा ने निश्चित ही रेडियो में नई जान फूंकने का काम किया है | पहले रेडियो के दर्शन बहुत कम मोबाइल में हो पाते थे लेकिन आज बड़े बाजार में हर कंपनी ऍफ़ एम की सुविधा लोगों को दे रही है जिसके चलते महानगरों में रेड ऍफ़ एम से लेकर रेडियो मिर्ची , रेडियो वन और मेट्रो फीवर की धूम मची हुई है | महानगरों में ऍफ़ एम चैनलों की बाढ़ आई हुई है | हर कोई चैनल लोगों को पुराने और नए नगमे ना केवल सुना रहा है बल्कि हर समस्या और खबर से लोगों को सीधे रूबरू करवा रहा है |  इस प्रकार ऍफ़ एम युवाओं की आज पहली पसंद न केवल बन गया है बल्कि हर कोई मोबाइल में ऍफ़ एम संगीत का लुफ्त उठाने में पीछे नहीं है | सही मायनों में मेट्रो शहर में नई धड़कन ऍफ़ एम बन गया है जिसे किसी भी कोने में अपनी सुविधा और समय के अनुसार सुना जा सकता है |

आने वाले दिनों में ऍफ़ एम सेक्टर में बूम आने जा रहा है | सरकार ने तीसरे चरण की ऍफ़ एम नीलामी की प्रक्रिया पूरी कर ली है | अब ऍफ़ एम के दायरे को मेट्रो महानगरों से निकालकर शहर तक ले जाने की कोशिश की जा रही है | अगर ऐसा होता है तो ऍफ़ एम सेक्टर युवाओं के लिए नए रोजगार के द्वार निश्चित ही खोलेगा | ऍफ़ एम ने युवाओं को हाल के वर्षो में बहुत प्रभावित किया है और युवा भी दिल लगाकर इसके प्रसारणों का लाभ लेने में पीछे नहीं हैं | फास्ट फ़ूड संस्कृति की तरह ऍफ़ एम ने युवाओं के बीच उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्यक्रम बनाने शुरू कर दिए हैं | ऍफ़ एम चैनलों के जॉकी युवा वर्ग की तमाम समस्याओं से अपने प्रोग्रामो में सीधे रूबरू हुआ करते हैं जिसे देखकर कई बार ऐसा लगा प्राइवेट चैनल से युवा वर्ग सीधा जुड़ाव महसूस करते हैं | 
 प्रधानमंत्री के मन की बात संबोधन को रेडियो पर सुनने के लिए समाज के हर तबके ने जिस तरह रेडियो का सहारा लिया उसने इस माध्यम में नए प्राण फूंकने का काम किया है | जब से आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री ने मन की बात  शुरू की है उनकी बात ऍफ़ एम चैनलों के जरिये एक बार फिर घर घर पहुंच रही है। देश का कोई ऐसा कस्‍बा ऐसा नहीं बचा है जहां से प्रधानमंत्री की  मन की बात पर  रविवार को चर्चा नहीं हो रही हो | दिल्ली  स्थित  आकाशवाणी भवन  में  हर दिन मन की बात के लिए पहुंच  रहे पत्र इस बात की गवाही दे रहे हैं लोगों को  हमारे प्रधानमन्त्री का यह  नया तरीका बेहद पसंद आ रहा है देशवासी प्रधानमंत्री की इस पहल से खासे खुश हैं और संडे की सुबह से गाँवों , कस्बों में सजने वाली महफिलों में  चर्चा के केंद्र में मन की बात ही होती है | यानी साफ़ है प्रधानमंत्री की इस नई पहल से रेडियो अपने नए रूप में एक बार फिर हमारे देश में  लोकप्रियता के शिखर पर जा रहा है और लोग आकाशवाणी और प्राइवेट ऍफ़ एम चैनलों के जरिये मन की बात का लुफ्त उठाने से पीछे नहीं हैं |

साफ़ है आज ऍफ़ एम न केवल लोगों का मनोरंजन कर रहा है बल्कि श्रोताओं के साथ सीधा जुड़ाव होने से दोनों के बीच दोस्ताना सम्बन्ध हो गए हैं | आने वाले दिनों में ऍफ़ एम की  यह नई क्रांति भारत में नया इतिहास लिखेगी इस संभावना से अब तो कम से कम हम इनकार नहीं कर सकते | सरकार की भी कोशिश है जल्द ही समाचारों की दुनिया के लिए भी प्राइवेट ऍफ़ एम चैनलों को खोल दिया जाए जिससे कि 24 घंटे के खबरिया चैनलों की तरह वहां भी लोग देश और दुनिया की बदलती तस्वीर को शब्दों के बिम्ब के आसरे महसूस कर सकें | देखना होगा इस दिशा में क्या कोई नई कामयाबी ऍफ़ एम को मिल पाती है ?      

Sunday, 25 October 2015

आगे- आगे एनडी पीछे- पीछे रोहित

      




कांग्रेस के कद्दावर नेता और चार बार अविभाजित उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी इन दिनों उत्तराखंड के प्रवास पर हैं |  बीते दिनों उनके समर्थकों ने उनका 90 वां जन्म दिन बड़ी धूम धाम से हल्द्वानी में मनाया जहाँ तिवारी के समर्थकों और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने शिरकत की | इस आयोजन में जहाँ यू पी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी शामिल हुए वहीँ उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत से लेकर उत्तराखंड की राजनीति के बड़े बड़े दिग्गज नेताओं ने तिवारी के कसीदे पड़ उन्हें ना केवल विकासपुरुष की उपाधि से विभूषित किया बल्कि उनके दीर्घायु होने की कामना की | यूँ तो यह कार्यक्रम गैर राजनीतिक था लेकिन अपने नब्बे वर्ष के पडाव पर  बर्थडे के बहाने एन डी तिवारी ने इस मौके पर अपने बेटे रोहित को उत्तराखंड में रीलांच करने में कोई कसर नहीं छोडी | तिवारी ने पिछले एक हफ्ते से भी ज्यादा समय से नैनीताल जिले में सक्रियता जिस अंदाज में बढाई हुई है उससे उत्तराखंड की राजनीती में गहमागहमी बढ़ गई है क्युकि उत्तराखंड की राजनीति का बड़ा कवच लम्बे समय से एन डी के इर्द गिर्द ही घूमता रहा है और प्रदेश में उनके चाहने वाले प्रशंसक न केवल कांग्रेस बल्कि हर राजनीतिक दल में आज भी मौजूद हैं |  तिवारी ने अपने कार्यकाल में विकास कार्यों से जनता के दिलों में अपने लिए अलग छवि बनाई है शायद यही वजह रही अपने नब्बे बरस के पडाव पर जन्मदिन के आयोजन में उनके चाहने वालों की भारी भीड़ बधाई देने पहुंची और तिवारी जी ने भी किसी को निराश नहीं किया | 
    
उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है लिहाजा एन डी तिवारी की नैनीताल में फिर से सक्रियता से तिवारी के विरोधियों की नींद उडी हुई है | उत्तराखंड की राजनीती में एन डी फैक्टर खासा अहम रहा है और आज भी तिवारी को विकास पुरुष की संज्ञा से नवाजा जाता रहा है तो इसका बड़ा कारण अपने कार्यकाल में तिवारी के द्वारा खींची गई वह लकीर है जिसके पास आज तक उत्तराखंड का कोई मंत्री , नेता और मुख्यमंत्री तक नहीं फटक सका है | आज भी उत्तराखंड के गाँवों से लेकर शहर तक में तिवारी के बार में एक जुमला कहा जाता है जितना पैसा तिवारी जी उत्तराखंड के लिए अपने संपर्कों के आसरे लेकर आये उतना कोई मौजूदा नेता नहीं ला सकता शायद यही वजह है तिवारी जी विकास के शिखर पुरुष के रूप में उत्तराखंड के हर तबके में सर्वस्वीकार्य हैं |  उत्तराखंड की राजनीती में कई लोगों ने एन डी तिवारी से ही राजनीती का ककहरा सीखा है लिहाजा आने वाले दिनों में अगर वह अपने बेटे रोहित शेखर को आगे करते हैं तो उनके विरोधियों की मुश्किलें बढ़नी तय हैं | इससे उन नेताओं में ख़ुशी है जिनकी अतीत में तिवारी के साथ निकटता रही है | उत्तराखंड में कई कांग्रेस के विधायक और मंत्री हरीश रावत की सरकार में जरूर हैं लेकिन इनमे बड़ा तबका ऐसा है जो  ‘हरदा’ के एकला चलो रे राग से सरकार में अपनी उपेक्षा से इस समय आहत है लिहाजा अगर उत्तराखंड  में तिवारी 2017 से पहले अपनी सियासी विरासत रोहित के जरिये साधते हैं तो उन्हें इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए कई समर्थक मिल सकते हैं |  कैबिनेट मंत्री इंदिरा हृदयेश से लेकर डॉ हरक सिंह रावत , यशपाल आर्य से लेकर विजय बहुगुणा सरीखे कई बड़े नाम तिवारी की छत्रछाया में ही बढे हैं | 


बीते कुछ बरस से नेताजी के साथ लखनऊ  में एन डी तिवारी की गलबहियां उत्तराखंड की राजनीती में कोई नया गुल खिला सकती  है । अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो रोहित शेखर को आगे कर समाजवादी पार्टी  उत्तराखंड में अपना मास्टर स्ट्रोक आने वाले कुछ समय बाद खेल सकती है |  दरअसल 2009  में आंध्र प्रदेश के "सीडी" काण्ड  के बाद जहां तिवारी  की  कांग्रेसी आलाकमान से दूरियां  बढ़ गयी  वहीँ चुनावी बरस में तिवारी की राय को कांग्रेस लगातार अनदेखा करती रही  जिसके चलते राजनीतिक  बियावान में तिवारी अपने तरकश से अंतिम तीर आने वाले कुछ दिनों में छोड़ कर अपने विरोधियों को चौंका सकते हैं |  इन दिनों एन डी तिवारी अपने पुश्तैनी गाँव जाकर लोगों से उत्तराखंड के राजनीतिक मिजाज की टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं |  इस दौर में वह न केवल अपने पुराने स्कूल गए हैं बल्कि भवाली सैनिटोरियम से लेकर नैनीताल के विकास कार्यों को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं |  हालाँकि इशारों इशारों में तिवारी जी ने यह कहा है वह रोहित को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने जा रहे हैं जिसके गहरे निहितार्थ इन दिनों गली गली में निकाले जा रहे हैं | रोहित के चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर उन्होंने यह जरूर कहा है रोहित अपना फैसला लेने के लिए स्वतन्त्र है लेकिन यह तय है तिवारी जी दूरदर्शी नेता  रहे हैं और अपने तजुर्बे के आधार पर कोई भी बात करते अगर देखे जा रहे हैं तो इसके गहरे मायने  हैं |  रोहित के आगामी विधान सभा चुनाव लड़ने के सम्बन्ध में तिवारी अपने गृहनगर के कुछ करीबियों से परामर्श कर अपने पत्ते 2016 में खोल सकते हैं  । हाल ही में उनके जन्म दिन के मौके पर बेटे रोहित शेखर ने यह जरूर कहा कि उम्र के इस पडाव पर उत्तराखंड सरकार ने तिवारी जी को न केवल तन्हा छोड़ा दिया बल्कि उनके पिता से सारी  सुख सुविधा छीन ली वहीँ उत्तर प्रदेश के सी एम अखिलेश ने उन्हें न केवल आसरा दिया बल्कि खुद उनको दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री का दर्जा दिया | अब  इन संकेतों को अगर डिकोड किया जाए तो साफ़ है तिवारी का पूरा परिवार उत्तराखंड में अपनी उपेक्षा से ख़ासा आहत दिखा है |  जाहिर है ऐसे में रोहित शेखर के कांग्रेस में जाने की संभावनाओं का चैनल इतनी आसानी से कम से कम उत्तराखंड में तो नहीं खुलने जा रहा है | वैसे भी कांग्रेस की 2017 की बिछने जा रही बिसात में वंशवाद की अमरबेल बढने के आसार दिख रहे हैं जिसमें इंदिरा हृदयेश से लेकर यशपाल आर्य , हरीश रावत से लेकर विजय बहुगुणा सरीखे कई नेता सभी अपने पुत्र पुत्रियों के टिकात के लिए टकटकी लगाये बैठे हैं | ऐसे में रोहित को कांग्रेस एप्रोच करेगी यह मौजूदा हालातों में मुश्किल पहेली दिखती है | हाँ, समाजवादी पार्टी की राह पकड़कर वह ना केवल उत्तराखंड में अपनी नई संभावनाएं तलाश सकते हैं बल्कि उत्तराखंड में तिवारी के करीबियों को भी उत्तराखंड में साध सकते हैं | सक्रिय  राजनीती में  नारायण  दत्त तिवारी की इस वापसी से  न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस के तमाम दिग्गजों के होश फाख्ता किये हुए हैं शायद यही वजह है हर राजनीतिक दल नैनीताल उधमसिंहनगर  को लेकर अपने पत्ते फेंटने  की स्थिति में नहीं है ।

     लम्बे समय से लखनऊ में नेताजी और अखिलेश यादव के साथ तिवारी की इस नई  जुगलबंदी को उत्तराखंड की सियासत में अब एक नई लकीर  खींचने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है  । बताया जाता है नेताजी ने रोहित शेखर तिवारी को उत्तराखंड  से लड़ने का ऑफर दिया है जिस पर रोहित  इन दिनों अपने पिता  तिवारी के साथ अपनी बिसात  बिछाते नजर आ रहे हैं । कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग नेता और उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के बेटे रोहित शेखर के  नैनीताल-ऊधमसिंहनगर की किसी एक सीट से समाजवादी पार्टी सपा के टिकट पर 2017 में विधान सभा का  चुनाव लड़ने की चर्चा जोर शोर से चल निकली है | गौरतलब है इस सीट से तिवारी तीन बार सांसद रह चुके हैं |  तीन बार उत्तर प्रदेश और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे एनडी की राज्य में मान्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक बने आठ मुख्यमंत्रियों में वह ऐसे इकलौते सीएम हैं जिन्होंने काफी खींचतान के बावजूद अपना  कार्यकाल पूरा किया |

18 अक्तूबर, 1925 को नैनीताल के बलूती गांव में पैदा हुए तिवारी आजादी के समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष रहे  । तिवारी  देश के  ऐसे इकलौते  नेता हैं जो राजनीति में  परोक्ष रूप से सक्रिय हैं | उत्तर प्रदेश में चार बार और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तथा केंद्र में लगभग हर महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रहे तिवारी  की राजनीतिक पारी राजनीती की पिच पर उनकी बैटिंग करने की टेस्ट मैच  स्टाइल को बखूबी बयां करती है । 1952 में काशीपुर से चुनाव जीत कर पहली बार विधानसभा पहुंचे एनडी तिवारी के अपने 90 वें जन्म दिन पर  अपने बेटे रोहित को विरासत सौंप देने की सुगबुगाहट से उत्तराखंड के  बड़े-बड़े नेताओं के पसीने इस दौर  में छूट रहे हैं क्योंकि नैनीताल और उधमसिंहनगर  का पूरा इलाका  तिवारी का मजबूत गढ़ रहा है । अपने कार्यकाल में इस तराई के इलाके में तिवारी ने विकास की जो गंगा बहाई उसकी आज भी विपक्षी तारीफ़ किया करते हैं और जितना कुछ आज यहाँ दिख रहा है यह सब तिवारी जी की ही देन है | अपने कार्यकाल में तिवारी ने न केवल इस इलाके में सडकों का भारी जाल बिछाया बल्कि औद्योगिक इकाईयों की स्थापना से लेकर बुनियादी इन्फ्रास्ट्रेक्चर मुहैय्या करवाने में तिवारी के योगदान को आज भी नहीं भुलाया जा सकता शायद यही वजह है उनके विरोधी भी उनके राजनीतिक कौशल के कायल रहे हैं । वैसे एन डी तिवारी के सक्रिय  राजनीतिक जीवन की शुरुवात भी  इसी नैनीताल की कर्मभूमि से ही हुई  । चालीस के दशक में जनान्दोलनों में सक्रिय  रहे तिवारी ने अपनी सियासी पारी को नई उड़ान इसी नैनीताल संसदीय इलाके ने जहाँ दी ,वहीँ स्वतंत्रता आंदोलन और आपातकाल  के दौर में भी तिवारी ने अपनी भागीदारी से अपनी राजनीतिक कुशलता को बखूबी साबित किया । नारायण दत्त तिवारी नब्बे  के दशक  में प्रधानमंत्री की कुर्सी से भी चूक गए थे । उस दौर को अगर याद करें तो नरसिंह राव ने चुनाव नहीं लड़ा लेकिन  नरसिंह  राव  पीएम बन गए । आज भी तिवारी के मन में  पी एम न बन सकने की कसक है | उनकी मानें तो 1991 में नैनीताल बहेड़ी संसदीय  सीट से वह इसलिए चुनाव हार गए क्युकि चुनाव प्रचार के दौरान अभिनेता दिलीप कुमार ने बहेड़ी में सभा की | उनका असली नाम युसूफ मिया था और किसी ने अफवाह उड़ा दी कि युसूफ मियां की सिफारिश पर ही उन्हें टिकट मिला है | इससे लोगों में गलत सन्देश गया और उनके वोट कट गए |  अगर तिवारी नैनीताल में नहीं हारते तो शायद वह उस समय देश के प्रधानमंत्री बन जाते ।  इसके बाद तिवारी की उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के रूप में इंट्री वानप्रस्थ के रूप में 2002  में हुई । इसी वर्ष  उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने पर कांग्रेस आलाकमान ने  हरीश रावत को नकारकर एनडी तिवारी को  सरकार की बागडोर सौंपी थी |  तिवारी उस समय लोकसभा में नैनीताल सीट से ही सांसद थे लिहाजा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर रामनगर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और रिकार्ड जीत दर्ज कर उत्तराखंड में अपनी  धमाकेदार इंट्री की। तिवारी के तमाम राजनीतिक कौशल के वाबजूद उनके विरोधी तिवारी को राज्य आंदोलन के मुखर विरोधी नेता के रूप में आये  हैं शायद इसकी बड़ी वजह तिवारी का अतीत में दिया गया वह बयान रहा जिसमे उन्होंने कहा था उत्तराखंड उनकी लाश पर बनेगा लेकिन इन सब के बीच नारायण दत्त तिवारी की गिनती विकास पुरुष के रूप में उत्तराखंड में होती रही है । इसका सबसे बड़ा कारण यह था उन्होंने अपनी सरकार में विरोधियो के साथ तो लोहा लिया ही साथ ही विपक्षियो को भी अपनी अदा से खुश रखा शायद यही वजह रही  उस दौर में भाजपा पर मित्र विपक्ष के आरोप भी लगे ।

 उत्तराखंड में 2002 विधानसभा चुनाव  के बाद उन्होंने  कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन 2012 में हल्द्वानी, रामनगर, काशीपुर , विकासनगरकिच्छा ,जसपुर, रुद्रपुर और गदरपुर में कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए  बड़े रोड शो करके वोट मांगे ।  इस लिहाज से उत्तराखंड में तिवारी फैक्टर की अहमियत को अब भी नहीं नकारा जा सकता । 2009  में  हैदराबाद राजभवन "सेक्स स्कैंडल" और  " रोहित  शेखर" पुत्र विवाद के बाद सियासत में  बेशक उनका सियासी कद घट जरुर गया और उनके अपने कांग्रेसियों ने उनसे दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी लेकिन  तिवारी टायर्ड  नहीं हुए बल्कि देहरादून  में फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का "अनंतवन "  फिर से उनकी नई राजनीति का नया  केंद्र बन गया  जहाँ से उन्होंने लखनऊ की तरफ अपने कदम बढ़ाये और नेताजी और अखिलेश सरकार को अपना मार्गदर्शन देने का  न केवल काम  किया बल्कि  यू पी के कई सरकारी विभागो की ख़ाक छानकर यह बता दिया अभी भी राजनीती तिवारी की रग रग में बसी है । भले ही कांग्रेस आलाकमान उनको भाव ना दे लेकिन वह हर किसी को सलाह देने को तैयार हैं ।

अब उत्तर प्रदेश के युवा सी एम  अखिलेश  यादव  नारायण दत्त  तिवारी के इसी राजनीतिक कौशल को कैश करने की  योजना  अपने सिपहसालारों  के साथ बनाने में जुटे हैं जिसमे सपा  रोहित शेखर तिवारी के आसरे उत्तराखंड में अपनी पकड़ मजबूत बनाने की योजना को मूर्त रूप देने  में लगी  है । वैसे सपा का उत्तराखंड में खासा जनाधार नहीं है क्युकि  अलग राज्य आंदोलन के दौर में सपा के बहुत कटु अनुभव रहे हैं । अतीत में जहाँ रामपुर तिराहा काण्ड  पार्टी की  छवि को खराब  कर चुका है वहीँ उत्तराखड में मायावती का हाथी लगातार इस दौर में पहाड़ की चढ़ाई चढ़ चुका है बल्कि अपना वोट बैंक भी मजबूत कर रहा है । सपा अब 2017 के उत्तराखंड चुनावों से पहले  तिवारी को साथ लेकर उनके बेटे रोहित को  चुनाव लड़वाकर जहाँ  उत्तराखंड में अपना वोट बैंक मजबूत  कर सकती  है वहीं तिवारी के साथ उत्तराखंड में  ब्राह्मणों  का बड़ा जनाधार होने से सपा अन्य राजनीतिक दलों  के खिलाफ नई गोलबंदी  पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी कर सकती है । अगर ऐसा होता है तो भाजपा , कांग्रेस और बसपा के जनाधार में  बड़ी सेंध लगने का अंदेशा है । जहाँ तक रोहित शेखर तिवारी की एन डी के उत्तराधिकारी के रूप स्वीकार्यता का सवाल है तो इसकी चाबी जनता के हाथ में है | रोहित को समझना होगा राजनीति की राह रपटीली जरूर है लेकिन जनता के सरोकारों को विकास का मुल्लमा चढ़ाकर नई  पहचान न केवल दी जा सकती है बल्कि लोगों के दिल में भी जगह बनाई जा सकती है साथ  ही उन्हें इस बात को भी समझना होगा वह केवल राजनीती परिवारवाद बढाने के लिए राजनीति में नहीं आ रहे हैं, उन्हें अपने पिता एन डी के विकासकार्यों को आगे बढ़ाना है | इसके लिए सबसे सही तरीका संवाद है और एन डी भी इस कुशलता के माहिर खिलाड़ी रहे हैं लिहाजा रोहित को भी आज चाहिए वह लोगों के बीच व्यक्तिगत तौर पर जाकर अपनी अलग पहचान खुद से बनाये और जनता से जुडी जमीनी राजनीती करें | वह इसमें कितना कामयाब होंगे यह तो आना वाला कल ही  बतायेगा लेकिन यह तय है रोहित शेखर उत्तराखंड में तिवारी जी की लोकप्रियता का पूरा लाभ उठाने के मूड में दिखाई दे रहे हैं और इन दिनों पिता पुत्र की यह नई जोड़ी  उत्तराखंड में राजनीति के बैरोमीटर पर लोगों की नब्ज  और मिजाज को टटोलने में लगी हुई है जिसके गहरे निहितार्थ निकलने लाजमी हैं |

Sunday, 11 October 2015

सूचना अधिकार के दस बरस




आरटीआई यानी सूचना का अधिकार कानून देश के इतिहास में अब तक के सबसे कारगर और प्रभावी कानूनों में से एक शायद यही क़ानून होगा जो सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाला  अमोघ हथियार है जिसके इस्तेमाल से कई बार सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खुल चुकी है । देश में हुए कई छोटे-बड़े घोटालों और सार्वजनिक भ्रष्टाचार को सार्वजनिक करने में इसी कानून की अहम भूमिका रही है। 2005 में यूपीए सरकार ने देश को सूचना अधिकार के रूप में एक कारगर अस्त्र प्रदान किया | इसको लागू करने के पीछे दो मुख्य उददेश्य थे | कामकाजी प्रक्रिया को जानने का हक़ देकर पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना साथ ही सरकारी कामकाज में टालमटोल वाली संस्कृति से उत्पन्न भ्रष्टाचार को कम करना | सरकार की कोशिश थी कि इस अधिकार के आने के बाद लोगो को सूचनाये आसानी से मिल जाएगी और यह अधिकार लोकतंत्र के सशक्तीकरण की दिशा मे एक मील का पत्थर साबित होगा लेकिन मौजूदा दौर में सूचनाए पाना भी इस देश में आसान नही रहा | लोगो को समय पर सूचनाए न मिले पाने की घटनाये आये दिन समाचार पत्रों में छाई  हैं जो यह साबित करने के लिए काफी है क्या यह देश कानून से चल सकता है ?    

स्वीडन ऐसा प्रथम देश था जिसने 1766 में अपने देश के नागरिको को सबसे पहले संवैधानिक रूप से यह अधिकार प्रदान किया | भारत में प्रथम प्रेस आयोग के गठन के समय से ही सूचना अधिकार की विकास यात्रा 1952 में शुरू हो गई |  इसके बाद इस अधिकार को लेकर हरी झंडी मिलने से पहले कई बैठकों का लम्बा दौर चला जिसका नतीजा सिफर ही रहा | सूचना अधिकार को आम जन तक पहुचाने की पहल सार्थक रूप से वी पी सिंह के जमाने में शुरू हुई लेकिन इस दौरान बनाये गए प्रावधान इतने लचर थे कि उस दौर में वी पी सिंह को भी इसे ख़ारिज करने पर मजबूर होना पड़ा था | 90 के दशक में संयुक्त मोर्चा की गुजराल सरकार  और फिर बाद मे एनडीए की सरकारों के समय इसमें सकारात्मक पहल नही हो पाई | यूपीए सरकार के पहले साल के कार्यकाल में अरुणा राय, अरविन्द केजरीवाल सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओ की मेहनत रंग लाई जिसके चलते सरकार को सूचना का अधिकार लागू करने पर मजबूर होना पड़ा था |  

 सूचना के अधिकार के तहत देश के किसी भी नागरिक को किसी भी सरकारी कार्यालय से सूचना मांगने का हक़ है| यह अधिकार लोगो को अधिकार सम्पन्न तो बनाता जरुर है लेकिन मौजूदा समय में हमारे देश के सरकारी विभागों में सूचना मांगे जाने के एवज  में टरकाने वाली कार्यसंस्कृति कम नही हुई है जिसके चलते कई सूचनाओ को देने में कर्मचारी आनाकानी करते हैं | अगर यह कानून सही ढंग से अमल में लाया जाए तो आम आदमी  के पास इससे सशक्त अधिकार शायद ही कोई होगा लेकिन हर विभाग में लालफीताशाही का साम्राज्य पहले भी कायम था और आज अभी भी  है |    

इस अधिकार के लागू होने के 10  बरस बाद भी देश की नौकरशाही इस अधिकार का गला घोटने  में तुली हुई है | निश्चित समय में सूचना न दिए जाने पर इस अधिकार के तहत अधिकारियो के विरुद्ध दंड देने का प्रावधान है लेकिन आज भी देश के भीतर  हालत यह है कि अधिकारियो और कर्मचारियों पर कोई कार्यवाही नही हुई है | कई राज्यों में जहाँ सूचना अधिकारियो का टोटा बना हुआ है वहीँ कई जगह टायर्ड नौकरशाही के आसरे सूचना अधिकार का बाजा बजाया जा रहा है |  जिन अधिकारियो ने अपनी पूरी जिन्दगी रिश्वत लेकर गुजारी है क्या देश का आम आदमी उनसे उम्मीद रख सकता है कि वह लोगो को समय पर सूचनाए दे सकते हैं | शायद अब समय आ गया है जब केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है कि वह लोगो को सही सूचनाए मुहैया करवाने की दिशा में ध्यान दें | अभी भी कई लोगो को सूचनाए देश में जहाँ आसानी से नही मिल रही हैं वही केंद्रीय सूचना आयोग में  आवेदनकर्ताओ ने अधिकारियो और कर्मचारियों के विरुद्ध शिकायतों का अम्बार लगाया हुआ है जिस पर सुनवाई तो दूर कारवाही तक नही हो पा रही है |

 गैर सरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राईट इनिशिएटिव की रिपोर्ट बताती है कि इस क़ानून की धार भोथरी कर दी गई है |  5 राज्यों में सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं जिनमे तेलंगाना सरीखा नया राज्य भी शामिल है | खुद केंद्र में ही केंद्रीय सूचना आयुक्त का पद खाली रहा | नई नियुक्ति तब हुई जब मामला न्यायपालिका के संज्ञान में आया | 2014 में सूचना आयुक्तों के 14 फीसदी पद खाली थे यह संख्या बढ़कर अब 20 फीसदी पहुच चुकी है | कानून के प्रावधानों के तहत प्रत्येक सूचना आयोग में 11 आयुक्त होने चाहिए लेकिन असम में 9 , मध्य प्रदेश , राजस्थान , सिक्किम , मेघालय में सिर्फ  एक ही सूचना आयुक्त काम कर रहे हैं तो वहीँ गोवा, हिमाचल, झारखण्ड , मणिपुर, मिजोरम , नागालैंड, उडीसा , बंगाल में सिर्फ दो दो सूचना आयुक्त ही कम कर रहे हैं | गुजरात में 7 , तमिलनाडू और छत्तीसगढ़ में सूचना आयुक्तों के 8 पद रिक्त पड़े हैं | आज भी देश के भीतर बड़ी आबादी ऐसी है जो गावो का प्रतिनिधित्व करती है उसके पास इस अधिकार को लेकर ज्यादा  जानकारी नही है |  ब्लाक स्तर  और ग्राम स्तर पर एक आम नागरिक की फरियाद हमारे सरकारी अधिकारी नही सुनते जिसके चलते वह निराशा में जीता है और हमारे अधिकारी शान और शौकत वाली जिन्दगी का तमगा हासिल कर लेते है | अभी भी  ग्रामीण स्तर  पर इस अधिकार के बारे में लोगो को जागरूक करने की जरुरत है तभी आने वाले वर्षो में यह अधिकार आम जनता का अधिकार बन सकेगा और इस काम में मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और मीडिया की एजेंडा सेटिंग थियोरी को अगर आधार बनाया जाए तो मीडिया इसमें लोगों को यह बताने की कोशिश करता है कि कौन सा मुद्दा उसके लिए महत्वपूर्ण  है और कौन सा गौड़  इस आधार पर मीडिया अगर आरटीआइ के प्रचार प्रसार में जागरूक रहे तो यह अधिकार लोगों को निश्चित ही अधिकार सम्पन्न बनाएगा | 

बेशक बीते एक दशक की यात्रा  में संसद में इस अधिकार को पारित करवाकर सरकार ने यह सन्देश देने की कोशिश जरुर की है कि अब आम आदमी सरकारी तंत्र के आगे नतमस्तक नही है बल्कि जरुरत पड़ने पर इस अमोघ  अस्त्र को शासन  से जवाबदारी के लिए इस्तेमाल कर सकता है | इसकी बानगी सूचना अधिकार के लागू  होने के कुछ महीनों बाद ही दिखाई देने लगी जब देश के कई लोगो ने कई दुरूह सुचनाये विभागों से हासिल की जिसका जिक्र मीडिया ने अपनी खबरों  में बखूबी किया भी वहीँ  मीडिया ने भी इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल अपनी खबरों की पैकेजिंग करने में किया | खोजी पत्रकारिता के लिए सूचना का अधिकार मुख्य हथियार साबित हो सकता है और इसकी मदद से खोजपरक पत्रकारिता की जा सकती है। आरटीआइ के लागू होने से पहले भी खोजी पत्रकारिता होती रही है। लेकिन वर्तमान परिवेश में इसका बड़ा लाभ लिया जा सकता है।  सूचना का अधिकार अधिनियम ने बीते दस बरसों में एक नयी क्रांति को जन्म देने के साथ ही सरकार को और जवाबदेह बनाया है |  नेताओ अधिकारियों विधायिका और कार्य पालिका की सांठगाँठ की पोले खोली है और कई भ्रष्टाचार उजागर किये हैं | आलम यह है कि इस अधिकार से कई  मंत्रियों तक को  कुर्सी से हाथ धोना पड़ा है | सूचना अधिकार क़ानून लागू होने के बाद सकारात्मक परिणाम कई मोर्चो पर देखने को मिले हैं |  चूँकि सरकारी कामों में पारदर्शिता बढ़ी है अतः इसे शुभ संकेत के रूप में देख सकते हैं और कहा जा सकता है अब यह अधिकार केवल वैधानिक नहीं रहा इसकी ताकत दिनों दिन बढ़ रही है और लोगों में जागरूकता भी आ रही है यही नहीं  अब गोपनीयता की आड़ में भ्रष्टाचार की गुंजाईश भी घटी है |  सूचना अधिकार की अब तक सबसे बड़ी सफलताओं में से यह एक बड़ी सफलता है जिसने भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं और आला अधिकारियों के होंश उड़ा दिए हैं और मीडिया में खबरें आने के बाद  देश भर के नेताओं और अधिकारियों में यह सन्देश गया है कि पैसे के लालच में कुर्सी जा सकती है जिससे समाज में थोडा भय तो दिखाई ही देता है लेकिन इसका स्याह पक्ष यह भी है कि पावरफुल नेताओं और अधिकारियों की पोल खोलने का खामयाजा भी सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं को भुगतना पड़ता है|  उन पर हमले होते हैं और  कई कार्यकर्ता मारे जाते हैं |  यह एक चिंता का विषय बन गया है | 
  
एक स्वयंसेवी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2010 में महाराष्ट्र में छह आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई और कई पर हमले किए गए। गुजरात में एक आरटीआइ कार्यकर्ता अमित जेठवा की जान चली गयी |  गिर के जंगलों में हो रहे अवैध खनन के खिलाफ जेठवा ने  उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। इसके कुछ समय बाद ही मोटरसाइकिल सवार बदमाशों ने गुजरात उच्च न्यायालय के नजदीक जेठवा की गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्या के सिलसिले में पुलिस ने एक  सांसद के भतीजे को राजकोट हवाई अड्डे के पास से गिरफ्तार किया गया। कई आरटीआइ एक्टिविस्टो की हत्या भी इस अधिकार के तहत सूचना मांगे जाने के चलते इस देश में हुई हैं जो यह बताने के लिए काफी है इस दौर में आम आदमी के सरोकार हाशिये  पर चले गए है और उसको सूचना मांगने के एवज में गोली खाने पर भी मजबूर होना पड सकता है | यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि  इस दौर में सूचना अधिकार होने के बाद भी सूचना मांगने की राह  इस दौर में कितना मुश्किल हो चली  है यही नहीं आकंडे  यह भी बताते हैं बीते 10 सालों में 40 आरटीआइ एक्टिविस्टों की हत्या कर दी गई | महाराष्ट्र सूचना मांगने वालों की हत्या और उत्पीडन में पूरे देश में अव्वल रहा है | वहां अब तक तकरीबन 53 आवेदनकर्ताओं पर जानलेवा हमले हो चुके हैं जिनमे 9 लोगों की जान जा चुकी है | गुजरात में 34 आवेदकों पर हमले हो चुके हैं जिनमे 3 लोग मारे जा चुके हैं | बिहार में 6 लोग सूचना माँगने के चलते मारे जा चुके हैं | सूचना अधिकार के तहत भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों का क्या हश्र होता है यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक्टिविस्टों को भी अब इस देश के समाज के ठेकेदार प्रताड़ित ही नहीं करते वरन उनको जान से भी हाथ धोना पड़ रहा है |  झारखंड के ललित मेहता, नियामत अंसारी , कामेश्वर यादव ने नरेगा में नेताओं और खनन माफियाओं के काकस को बेनकाब किया तो जब्बदारण गोधवी ( गुजरात) , सतीश शेट्टी, अरुण सामंत, विट्टल  गीता , दत्तात्रय पाटिल (महाराष्ट्र ), विजय प्रताप (यू पी) सहला मसूद ( मध्य प्रदेश ), सत्येन्द्र दुबे ने आरटीआइ के जरिये ही भ्रष्टाचार उजागर किया लेकिन इन्हें इसके बदले मौत मिली | क्या यही है हमारी सरकारों और सामज के ठेकेदारों का दायित्व और क्या इसी के चलते यह कानून बीते दस बरस पहले से लागू है ? 

सीआईसी की जानकारी के अनुसार 2006 -07 से 2012-13 के बीच 7 बरसों में आयोग में 147924 अपीलें पंजीकृत हुई हैं | उक्त अवधि में 116333 अपीलों और शिकायतों का निपटारा किया गया है | इस तरह 7 वर्ष में 31591 अपीलें लंबित हैं | आरटीआइ असेसमेंट एंड एडवोकेसी ग्रुप के अनुसार दिसंबर 2013 तक सबसे अधिक शिकायतें यू पी (48442), महाराष्ट्र (32390) , सी आई सी ( 26115) में सबसे अधिक मामले लंबित हैं | रिपोर्ट को अगर आधार बनाएं तो 2012-13 में सबसे ज्यादा अपीलें महाराष्ट्र (73968) में प्राप्त की गई जिसके बाद केंद्रीय सूचना आयोग( 62723) और फिर यू पी (62008 ) का नंबर आता है | निपटारे के मामले में भी महाराष्ट्र सूचना आयोग में सबसे अधिक (61442)अपीलें निपटाई गई | इसके बाद यू पी (60865) और केंद्रीय सूचना आयोग (47662 ) शामिल रहे |  

 सूचना का अधिकार कानून तब मजबूत कहा जायेगा जब भारत का प्रत्येक नागरिक इस अधिकार का प्रयोग करना प्रारंभ करेगा। सूचना के अधिकार ने आज आम आदमी को उन लोगों से लड़ने की शक्ति दी है जिनसे लडने के बारे में वो कभी सोच भी नहीं सकता था | आज सूचना अधिकार से मीडिया को कितनी शक्ति मिल गयी है यह इस बात से समझी जा सकती है किसी भी मसले पर सूचनाये पाना अब पहले जितना मुश्किल भरा नहीं रहा  आज  मीडिया को चाहिए वह इस अमोघ अस्त्र से का अधिक से अधिक उपयोग करे और भ्रष्ट नेताओं एवं नौकरशाहों क असल सच को आम जनता के सामने ला सके | सूचना के अधिकार की  सामजिक परिवर्तन में अहम भूमिका हैं |  सूचना का अधिकार लोकतंत्र  में आम आदमी के लिए एक हथियार  है जिससे वह अपने हक की  लड़ाई  लड़ रहा  हैं |  देश में सिर्फ यही एक कानून है जो सरकारी मशीनरी को सामाजिक सरोकार पर मजबूर कर सकता है |  सूचना के अधिकार ने लोगों को न सिर्फ एक रास्ता मुहैया कराया है  बल्कि सूचना हासिल कर सरकारों और प्रतिष्ठानों की कार्यप्रणाली में भी सकारात्मक सुधार कराने की कोशिशें की हैं | केंद्रीय मंत्रियों के अपार विदेश दौरे हों या किसी मुख्यमंत्री के आवास में चायपानी पर हुआ अपार खर्च,  प्रशासन की  मनमानी हो या  जजों की संपत्ति का ब्यौरा हो इस बहाने किसी न किसी रूप में एक दबाव तो बनता ही है और फिर यह सूचनाएं अगर मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुच रही हैं तो इसे मीडिया के लिए शुभ संकेत कहा जा सकता है | 


सूचना अधिकार की सबसे बड़ी चिंता यह  है कि कानून में उन लोगों की सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है जिन्हें व्हिसलब्लोअर्स कहा जाता है |  वे जो गलत के खिलाफ बोलते हैं, आवाज उठाते हैं उन एक्टिविस्टों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सूचना आयोग और उसके अधीन समस्त राज्यों के सूचना आयोगों की मशीनरी के पास कोई ठोस प्रबंध या औजार नहीं हैं |  इस अधिकार की  सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें जवाबदेही तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है शायद यही वजह है कि इस शिथिलता के चलते  लम्बी आपत्तियों का निपटारा आज तक नहीं हो पाया है  | पर्याप्त ढांचागत विकास ना होने के चलते लोक सूचना अधिकारियों के यहाँ काम करने का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है साथ ही आपत्तियों के निस्तारण के लिए सूचना अधिकारीयों के यहाँ कोई अधिकतम समय सीमा निर्धारित न किये जाने से आये दिन आम आदमी की दुश्वारियां बीते एक दशक में बढ़ी हैं | सूचना अधिकार से जुडी एक विडम्बना यह भी है कि यह अधिकार तो आम  जन को दे दिया गया है लेकिन इस अधिकार के विपरीत 1923 के सरकारी गोपनीयता क़ानून को समाप्त नहीं किया गया है जिससे विरोधाभास की स्थितिया पैदा हुई हैं | पारदर्शिता के मामले में यह क़ानून अवरोधक है इसलिए सूचना अधिकार कानून को कारगर और प्रभावी बनाने के लिए इसे समाप्त किया जाना जरूरी है |  सूचना अधिकार को असरदार बनाने के लिए सरकार  को चाहिए वह इसकी कमियों पर ध्यान दे और ऐसा सिस्टम विकसित करे जिससे आम आदमी को सूचना पाने में कोई दिक्कतें ना हों |  सबसे बड़ी समस्या हमारे देश में यह है आज भी हमारे ऑफिसों में लालफीताशाही का साम्राज्य कायम है और अधिकारी और कर्मचारी लोगों के प्रति जबाबदेह नहीं हैं | सबसे बड़ी समस्या  नौकरशाही के जबरदस्त दखल से पैदा हुई है जो किसी भी काम को सुस्त चाल से करना चाहते हैं ऐसे में सरकारों को अच्छी कार्यसंस्कृति  विकसित करने  पर बल देना होगा | साथ ही सूचना अधिकार के प्रसार में मीडिया तत्परता दिखा सकता है | आज मीडिया को चहिये वह आरटीआई को प्रोत्साहित करे और आमजन इन्टरनेट के माध्यम से सूचना प्राप्त करना शुरू कर दें तो देश में यह बड़ी क्रांति का सूत्रपात होगा। सूचना के अधिकार को आमजन का अधिकार बनाने में मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है लिहाजा अपने-अपने स्तर पर यदि मीडिया सूचना के अधिकार को प्रोत्साहित करने का उपक्रम प्रारंभ करता है तो सूचना का अधिकार कानून  की  धार भारत में मजबूत होगी  | जो भी हो सूचना अधिकार क़ानून के होने से देश में सुशासन की अवधारणा मजबूत हुई है सरकारी  काम काज  में जहाँ पारदर्शिता बढ़ी  है वहीँ भ्रष्टाचार पर कुछ हद तक अंकुश लगा है यह उपलब्धियां निश्चित ही एक जिम्मेदार लोकतंत्र के अच्छे दिनों के लिए एक शुभ संकेत हैं |    

Sunday, 27 September 2015

यूरोप में शरणार्थियों का सैलाब




समंदर के आगोश में लाल रंग की शर्ट और नीले रंग के जूते पहने 3 बरस के मासूम एलेन कुर्दी के शव की तस्वीर ने दुनिया भर के लोगों को न केवल झकझोर कर रख दिया बल्कि असंवेदनशील समाज और भूख से संघर्ष करते मानव की तस्वीरों को पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया |  मासूम एलेन उन सीरियाई लोगों में से एक था जो ग्रीस जाने के लिए नाव पर सवार हुआ था । नाव के रास्ते में  डूब जाने से  उसकी मौत हो गई वो तो शुक्र रहा फोटोग्राफर निलुफेर देमीर का जिन्होंने अपने कैमरे से एलेन की फोटो खींची और देखते ही देखते यह फोटो सोशल मीडिया से लेकर ट्विटर पर ट्रेंड करने लगी और पूरी दुनिया में छा गई। औंधे मुह गिरे उस बेजान मासूम  पड़े एलेन की लाश ने यूरोपीय देशों को न केवल शरणार्थियों के असल संकट पर नए सिरे से सोचने को विवश किया बल्कि आनन फानन में अपनी सीमाएं भी खोलने को मजबूर कर दिया |  एलेन की तस्वीर अगर सही मायनों में मीडिया के सामने नहीं आई होती तो शायद  सीरिया के संकट पर पूरी दुनिया इस तरह चिंतन मनन नहीं कर पाती जैसा वह अभी कर रही है | आये दिन हर देश द्वारा शरणार्थियों के मसले पर बयानबाजी का दौर बदस्तूर  जारी है और शायद ही कोई दिन ऐसा गुजर रहा है जब दुनिया के विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों की बहस के केंद्र  में लाखों प्रवासी न रहें |  द्वितीय विश्व युद्ध  के बाद पूरी दुनिया सबसे भीषण संकट का सामना इस समय कर रही है जहाँ लाखों शरणार्थी सर छिपाने के लिए 2 गज जमीन के लिए मोहताज दिखाई दे रहे हैं वहीँ यूरोपीय देशों की भी इन शरणार्थियों के मसले पर कोई कारगर नीति ना होने से यह समस्या दिन दिन गहराती ही जा रही है |

असल में अरब देशों में 2011 के बाद से हालात भयावह होते चले गए | सीरिया में  हुआ गृह युद्ध इसकी बड़ी वजह रहा जिसकी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने अनदेखी की और असद सरकार को हटाने के लिए अपना एड़ी चोटी का जोर उन ताकतों को समर्थन देने में लगाया जो असद के विरोधी रहे | अतीत में असद की निकटता ईरान से जगजाहिर रही है और सऊदी अरब और क़तर सरीखे देशों की प्रतिद्वंदिता ईरान के शिया गुट से रही | सीरिया में पिछले पांच साल से गृहयुद्ध चल रहा है | मार्च 2011 में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुए | उस समय सीरिया की आबादी 2.3करोड़ थी |  इस बीच करीब 40 लाख लोग देश छोड़ चुके हैं और तकरीबन 80 लाख देश में ही विस्थापित हुए हैं और दो लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं |  रही सही कसर अमरीका ने ईराक पर हमले ने पूरी कर दी | सद्दाम हुसैन के पास  जैविक हथियारों का हवाला देकर अमरीका की मंशा ईराक के तेल साम्राज्य पर कब्ज़ा जमाना रही लेकिन उसके बाद से ईराक अमरीका के हाथ संभल नहीं पाया और आज हालत यह है अरब देशों में आई एस का आतंकी गढ़ मजबूत होता जा रहा है और अरब देशों से लोग खौफ के चलते हाल के कुछ बरस में पलायन करने को मजबूर हुए है | मौजूदा दौर में यूरोप का यह सबसे भयानक शरणार्थी संकट है जहाँ पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ़्रीकी और अरब देशों के लोगो की मजबूरी किसी तरह यूरोप में प्रवेश पाना बन गई है क्युकि मौजूदा दौर में उनके सामने बुनियादी जरूरत से लेकर रोजगार का संकट तो है ही साथ में इस्लामिक स्टेट के बढ़ते प्रभाव के चलते उनके सामने जिन्दगी की जंग जीतना पहली न्यूनतम जरुरत बनता जा रहा है |

यूरोपीय देशो में शरणार्थियों को पनाह देने के लिए अलग अलग रुख अपनाए जाने को लेकर यूरोपीय संघ आयोग ने अब नई योजना का एलान किया है | आयोग के चेयरमेन ज्यां क्लाड जंकर ने शरणार्थियों के संकट से निजात पाने के लिए शरणार्थियों का कोटा बढाने की योजना बनाई है | जंकर ने आशंका जताई है कि शरणार्थियों के मसले पर यूरोपियन  यूनियन में विभाजन  बढ़ सकता है ।  इधर संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग के प्रमुख एंटोनियो ग्यूटेरेस ने यूरोपीय देशों से अपील की कि वह करीब दो लाख शरणार्थियों को तुरंत शरण दें वहीँ जर्मनी ने कहा कि यूरोप के सभी देश शरणार्थियों को जगह देने से इनकार करने लगेंगे तो इससे आइडिया ऑफ यूरोप ही खत्म हो जाएगा।

शरणार्थियों को शरण देने के मसले पर अब तक जर्मनी ने जैसी उदारता दिखाई है उसकी मिसाल बहुत कम देखने को मिलती है | अपनी नई पहल से  मर्केल का कद दुनिया में ना केवल ऊँचा हुआ है बल्कि उनका मान भी बढ़ा है | शरणार्थियों के स्वागत के लिए दिल खोलकर जर्मनी न केवल पैसा लुटा रहा है बल्कि बच्चो का स्वागत उपहार से कर रहा है और जर्मनी की  इस सदाशयता का अब तक स्वीडन , स्पेन और इटली सरीखे राष्ट्रों ने समर्थन किया है साथ ही वह जंकर की नई कार्ययोजना के सुर में सुर मिलाते देखे जा सकते हैं लेकिन हंगरी को इस  पर आपत्ति है और उसने अपनी सीमा में बाढ़ लगाने का एलान कर शरणार्थी संकट को  और अधिक गहरा दिया है | हंगरी ने तो सर्बिया की सीमा पर 175 किलोमीटर लंबी बाड़ लगाकर अपना रुख इस मसले पर अधिक साफ कर दिया है |  हंगरी के पडोसी पोलैंड , चेक गणराज्य और स्लोवाकिया को शरणार्थियों के कोटे में इजाफा मौजूदा दौर में कतई मंजूर नहीं है  | इधर संयुक्त राष्ट्र संघ की शरणार्थी समिति के सदस्य गुटरेस ने भी यूरोप में कानूनी तरीके से दाखिल होंने वाले शरणार्थियों  की संख्या बढाये जाने का समर्थन किया है | ऐसे में सभी देशो की शरणार्थियों के मसले पर अलग अलग सुर होने से शरणार्थी संकट यूरोप के लिए सबसे बड़ी पहेली बन गया है जिसका सुलझना फिलहाल तो दूर की गोटी हो चला है |

 ब्रिटेन ने बीते बरस की शुरुवात के बाद से 216 तो तुर्की ने  2 लाख सीरियाई शरणार्थियों को अपनाया है।  आस्ट्रिया और जर्मनी ने भी लाखो शरणार्थियों को अपनाकर मानो इनके लिए दिल खोलकर अपने देश के दरवाजे खोल दिए हैं वहीँ जर्मनी की मर्केल सरकार ने तो शरणार्थियों के लिए 450 अरब से ज्यादा की धनराशि का बजट तक तय किया हुआ है | हालाँकि इस मसले पर अधिकाँश लोग मर्केल के इस कदम की आलोचना कर रहे हैं वहीँ कुछ मर्केल के इस कदम को कुछ लोग  सीधे अर्थव्यवस्था से जोड़ रहे हैं क्युकि जर्मनी के पास इस दौर में युवा आबादी का संकट है और शरणार्थी उसकी अर्थव्यवस्था के लिए फायदे का सौदा बन सकते हैं लेकिन मर्केल की हालिया घोषणाओं ने वैश्विक राजनीती में उनके कद को बढाने का काम किया है क्युकि यह जर्मनी की उदारता ही है जो ईयू के अन्य देशो को भी शरणार्थी मसले पर सोचने के लिए मजबूर न केवल कर रही है बल्कि यूरोप को सीधे इस संकट से जोड़ने का काम कर रही है | जर्मनी ने सबसे अधिक शरणार्थी अपनाए हैं और वहां के लोग उनका स्वागत भी कर रहे हैं। जर्मनी के उप चांसलर जिगमार गाब्रियल ने कहा है कि जर्मनी कई साल तक हर वर्ष कम से कम पांच लाख शरणार्थियों को संभाल सकता है वहीँ जर्मन चांसलर मर्केल ने कहा है कि ^जर्मनी में बड़ी संख्या में आ रहे शरणार्थियों से आने वाले बरसों में उनका देश बदल जाएगा। जर्मनी शरण देने की प्रक्रिया को और  तेज करने की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा है उनका देश छह अरब यूरो की लागत से अतिरिक्त मकान बनाएगा। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री  कैमरन पहले तो अपने घरेलू हालातों की वजह से कुछ कह पाने कि स्थिति में नहीं थे लेकिन मूड भांपकर उन्होंने भी  कहा है कि अगले पांच साल में 20  हजार शरणार्थियों को ब्रिटेन में शरण दी जाएगी इसके तहत असुरक्षित बच्चों और अनाथ बच्चों  को पहली प्राथमिकता दी जाएगी। वक्त की नजाकत देखते हुए फ्रांस के राष्ट्रपति  ओलां ने भी कहा कि फ्रांस की सरकार 24 हजार शरणार्थियों को शरण देने के लिए तैयार है।^ तुर्की के राष्ट्रपति रीसेप अर्डान ने एलेन की मौत को असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा बतलाकर नई  बहस को जन्म दे दिया है  | हालांकि अमेरिका  ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने भी  सीरियाई लोगों को शरण देने की पेशकश की है लेकिन इन सभी ने अपने  देश के कानून की समीक्षा के तहत कम करने के आदेश जारी किये हैं  |

शरणार्थियों के मसले पर यूरोपीय देशों के आतंरिक मतभेद खत्म नहीं हो रहे हैं। पहले कोटा प्रणाली का सुझाव आया जो अस्वीकृत हो गया है। इसका एक  कारण यह है कि कुछ देशों में ज्यादा शरणार्थी आ चुके हैं और वह भारी दबाव के साये में जी रहे  हैं। पूर्वी यूरोप के अधिकांश देश कोटा प्रणाली के साथ खड़े नहीं हैं क्युकि उनका मानना है बड़ी संख्या में मुस्लिमो के आने से यूरोपीय संघ का इसाई स्वरुप तहस नहस हो जाएगा |

 हंगरी सहित यूरोपीय संघ के कई देशों ने बाध्यकारी कोटा परमिट का विरोध किया है | हंगरी के प्रधानमन्त्री ओरबान ने  बुडापेस्ट में हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टोर ओरबान ने शरणार्थियों के मसले पर कहा कि यह सभी लोग यूरोप के अन्य देशों में सुरक्षित जीवन की तलाश कर रहे शरणार्थी नहीं हैं बल्कि जर्मनी में रहने की मंशा से आ रहे अप्रवासी हैं। वहीं डेनमार्क ने सैकड़ों शरणार्थियों को सीमा पर रोकने के बाद जर्मनी के साथ सभी रेल संपर्क बंद कर दिए हैं। डेनमार्क ने दोनों देशों को जोड़ने वाले हाईवे को भी बंद कर दिया है।  स्पेन के गृह मंत्री ने चेतावनी जारी करते हुए कहा है सीरिया से आ रहे इन प्रवासियों की कड़ी निगरानी जरूरी हैं क्युकि यह सभी उन शहरों से आ रहे हैं जहाँ पर आई एस आई एस का प्रभाव अधिक है ऐसे में इनके शरण लेने से आई एस आई एस के नुमाइंदे शरणार्थी बनकर यूरोप में इंट्री पा सकते हैं वहीँ न्यूजीलैंड ने तो महिलाओं और बच्चो को शरण देने और पुरुष शरणार्थियो को आई एस के आतंकियों से लड़ने की सलाह देकर एक अनूठी नई बहस को जन्म देने का काम किया है |  वैसे  आने वाले दिनों में अगर जंकर प्लान की कोशिशें रंग लायी तो यूरोपियन यूनियन में अनिवार्य कोटा परमिट परवान चढ़ सकता है और बहुत हद तक शरणार्थियों का संकट सुलझ सकता है |

अब तक साढ़े 4 लाख लोग जहाँ यूरोपीय देशों में शरण मांग चुके हैं वहीं बीते बरस सीरिया, इराक और अफ्रीकी देशों से पांच लाख से भी ज्यादा लोग भाग कर यूरोप को गले लगा चुके हैं। यूरोप में शरण लेने वाले लोगों में अधिकतर तादात सीरिया और लीबिया और अफ़्रीकी देशों की है जहां  आइएसआइएस ने आतंक का कहर बरपाया हुआ है | इराक और नाइजीरिया सरीखे शहरों से भी लोग यूरोप की तरफ या तो पलायन कर चुके हैं या वह पलायन की तैयारी में हैं | शरणार्थी संकट पर अरब जगत की चुप्पी समझ से परे दिख रही है और इन सभी अरब देशो में शरणार्थी असुरक्षित भी है शायद यह भी एक मजबूरी है जो रोजगार के अभाव में इन्हें अरब देशों से लगातार पलायन करने को मजबूर कर रही है |

  यूरोपियन देशो की सबसे बड़ी बात यह है यहाँ के सदस्य नागरिको को किसी भी देश में जाकर रोजी रोटी कमाने और फिर बसने की आजादी लेकिन शरणार्थियों के बढ़ते सैलाब ने ई यू के देशों के होश उड़ाकर रख दिए हैं शायद यही वजह है शरणार्थियों की बढ़ती संख्या से  यूरोप इस समय  परेशान हो चला हैं लेकिन असल संकट मौजूदा दौर में आई एस आई एस के उभार का है जो दुनिया भर के नौजवानो को इस्लामिक साम्राज्य खड़ा करने के लिए एकजुट कर रहा है बल्कि ऑनलाइन भर्ती का अभियान भी पूरी दुनिया में चलाये हुए है और तो और आई एस ने पाक और अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान के सहयोग से सीरिया , ईराक, टर्की, लीबिया , यमन , कैमरून में अपनी मौजूदगी का अहसास करवा दिया है शायद यही वजह है  यहाँ रहने वाले नागरिक अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और गेटवे आफ यूरोप को अपना नया आशियाना बनाने को मजबूर हो रहे हैं |  आज जरुरत इस बात की है पूरी दुनिया को शरणार्थियों के संकट के मजमून को समझते हुए आई एस आई एस के खिलाफ बड़ी जंग मिलकर लड़ने का ऐलान करना चाहिए क्युकि यह इस्लामिक स्टेट अपनी ताकत में दिनों दिन इजाफा करते जा रहा है और नौ दशक पुरानी खलीफा व्यवस्था को फिर से कायम कर अपना दबदबा पूरी दुनिया में कायम करना चाहता है लेकिन इस लड़ाई में मासूम लोग पिस रहे हैं जो खौफ के चलते अपने देशों से या तो भागने को मजबूर हो रहे हैं या भागने की तैयारी में हैं लेकिन त्रासदी देखिये मौजूदा दौर में यूरोपियन यूनियन इन शरणार्थियों को जगह देने से इनकार कर रही है या अपने देशो के दबावों के चलते किसी ठोस निर्णय को लेने में हिचक रही है लेकिन यकीन जानिए यह दुनिया का ऐसा गंभीर संकट है अगर दुनिया ने इस प्रकरण से नजरें फेर ली तो आने वाले दिनों में यह संकट भयावह रूप धारण कर सकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता | देखना होगा आने वाले दिनों में यूरोपीय देश इस संकट से कैसे पार पाते हैं ? उम्मीद पर दुनिया कायम है और शायद आने वाले दिनों में शरणार्थियों के संकट पर कोई ठोस हल निकालने की पहल ई यू के  28 देशों से ही होगी और शरणार्थी संकट की नई लकीर इन्ही देशो के आसरे खींची जाएगी इसकी उम्मीद तो हमें करनी ही चाहिए |    



Sunday, 20 September 2015

दिल्ली में डेंगू की दहशत





 डेंगू ने राजधानी दिल्ली में पाँव तेजी से पसार लिए हैं जिससे आम आदमी में दहशत है | यूँ तो हर बरस डेंगू का प्रकोप देश में दर्ज होता है लेकिन दिल्ली में इसने अब तक के सारे आंकड़े ध्वस्त कर दिए हैं। इन दिनों राजधानी के अस्पतालों में इसका व्यापक असर देखा जा सकता है | अस्पतालों में डेंगू और संक्रामक बुखार से पीड़ित लोग हर रोज बड़ी संख्या में पहुँच रहे हैं जो यह बताने के लिए काफी हैं कि राजधानी पर किस तरह डेंगू का कहर बढ़ता जा रहा है |  सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिए जहाँ जगह नहीं है वहीँ प्राइवेट अस्पतालों की मौजूदा दौर में चांदी कट रही है | एक अदद  बिस्तर पाने के लिए मारामारी चल रही है और मरीजों से मनमाने पैसे लेकर इलाज करने की पूरी कोशिश दिल्ली के निजी अस्पतालों में की जा रही है जबकि  दिल्ली सरकार इन अस्पतालों के लिए सस्ते में इलाज कराने का फरमान जारी कर चुकी है | हालाँकि सरकार और स्वास्थ्य विभाग का दावा है कि डेंगू पूरी तरह नियंत्रण में है लेकिन असलियत यह है राजधानी में इससे निपटने की कोई ठोस तैयारी ही नहीं की गई है |  अब तक डेंगू से हुई मौतों के आंकड़ों में हर दिन इजाफा ही होता जा रहा है । दिल्ली के कई इलाकों में मच्छरों के प्रकोप से लोगों को बचाने के लिए फागिंग तो दूर स्वास्थ्य कर्मियों की पर्याप्त टीमें तक गठित नहीं हैं और तो और एमसीडी ने बजट में कटौती का बहाना बनाकर सारी जिम्मेदारी केजरीवाल सरकार के जिम्मे डाल दी है | जहाँ राज्य सरकार की चिंता है कि कैसे इस समस्या से पार पाया जाए दूसरी तरफ निजी अस्पतालों को  डेंगू  के इलाज के नाम पर हर पल  अपने मुनाफे की फिक्र सता रही है। अब ऐसे भयावह हालातों में गरीबों के ऊपर क्या बीत रही होगी और वह किस तरह इलाज के लिए  दिल्ली में दर दर ठोकरें खाने को मजबूर हो रहे होंगे यह समझा जा सकता है | 

बीते दिनों डेंगू से एक नन्हे मासूम अविनाश की मौत ने दिल्ली के निजी अस्पतालों का कच्चा चिट्ठा सबके सामने खोल दिया | मासूम के परिजनों का साफ़ कहना था उन्होंने  अपने इस बच्चे के इलाज के लिए कई बड़े अस्पतालों के चक्कर काटे लेकिन सबने उनके बच्चे को दवाई तो दूर बेड तक देने से इनकार कर दिया  जिसके चलते  वह बच्चा इलाज के अभाव में  तड़पता रहा और उसने दम तोड़ दिया |  अपनों के खोने का गम क्या होता है यह इस बात से समझा जा सकता है उस नन्हे मासूम के माता पिता ने  इस घटना के बाद खुद को भी मौत के गले लगा दिया जिससे सरकार के कान खड़े हो गए और  दिल्ली सरकार ने आनन फानन में निजी अस्पतालों को डेंगू से प्रभावित लोगों के इलाज करने चेतावनी भी दे डाली |  वहीँ केंद्र ने भी डेंगू से प्रभावित लोगों के  इलाज में कोई कोताही नहीं बरतने के आदेश पहले से ही दे दिए हुए हैं  लेकिन इसके बाद भी प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी बदस्तूर जारी है |  गरीब जहाँ पर्याप्त इलाज के अभाव में परेशान हैं वहीँ अफरातफरी इतनी ज्यादा है कि मामूली बुखार पर भी लोग अपना ब्लड टेस्ट करवाने लम्बी लम्बी कतारें लगाकर खड़े हो जा रहे हैं जिससे अस्पतालों के डॉक्टरों और स्टाफ पर काम करने का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है |  

राजधानी दिल्ली में पिछले कई बरस से लगातार डेंगू का खतरा बना रहता है।  बरसात के बाद  मच्छरों की आवाजाही हर बरस शुरू होती है और यहीं से डेंगू की दस्तक शुरू हो जाती हैं लेकिन सरकारों को गरीबों की याद चुनाव के समय ही आती है | वैसे 2006 से डेंगू से हर बरस कई लोगों की जान जा रही है और आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं बीते 8 बरस में डेंगू से एक हजार  से भी ज्यादा मौतें देश में  हो चुकी है लेकिन इसके बाद भी सरकारों की डेंगू से लड़ने की कोई पुख्ता तैयारी नहीं दिखाई देती | दिल्ली में इस बरस  डेंगू टाइप टू वायरस सबसे ज्यादा दिखाई दे रहा है जो डेंगू वन और थ्री की तुलना में ज्यादा खतरनाक माना जाता है। सरकार चाहे जो दावे करे लेकिन डेंगू टाइप टू के मरीजों की संख्या इस बार विकराल रूप धारण कर रही है|  डेंगू से होने वाली मौतों का आंकड़ा आने वाले दिनों में बढने की संभावनाओं से भी अब इनकार  नहीं किया जा सकता |  

डेंगू एडिस मच्छरों के काटने से होता है  जो घर के आसपास जमा पानी में पैदा होते हैं। यह मच्छर दिन में ज्यादा सक्रिय रहता है | तेज बुखार,शरीर पर लाल-लाल चकत्ते दिखाई देना,पूरे बदन में तेज दर्द होना,उल्टी होना ,मिचलाना जैसे  लक्षण डेंगू के शुरुवाती लक्षण हैं अगर ऐसा है तो हमें तुरंत अस्पतालों की तरफ रुख करना चाहिए और डेंगू की जांच  करानी चाहिए। समय पर फौगिंग और साफ़ सफाई ही इससे बचाव का उपाय है और आम जनता के लिए भी ऐसे हालातों में सजगता बेहद जरूरी है | 

दिल्ली में अगर अभी चुनावों का समय होता तो शायद डेंगू भी बहुत बड़ा मुद्दा बन जाता और हर पार्टी के नेता इस पर राजनीति करने से बाज नहीं आते और अपने को गरीब गोरबा जनता का सबसे बड़ा हिमायती बताने से भी पीछे नहीं रहते लेकिन अभी दिल्ली में चुनाव नहीं है सो मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री जो अपने को सच्चा आम आदमी बताते हैं कैमरों के सामने आने से भी परहेज करते नजर आ रहे हैं | मंत्रियों के घर तो घंटों फौगिंग की जा रही है लेकिन झुग्गी झोपड़ी वाले इलाकों की तरफ सफाईकर्मी तो दूर एमसीडी के किसी कर्मचारी तक ने रुख नहीं किया है | दिल्ली में वैसे ही पानी के निकास की उचित व्यवस्था नहीं है | ऊपर से जो नाले हैं उनमे तैरता बदबूदार पानी और उस पर इस मौसम में रेंग रहे मच्छर हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की जनसुलभ नीतियों की तरफ इशारा कराने के लिए काफी  हैं | हम स्वच्छ भारत बनाने के बड़े दावे करते हैं | महात्मा गांधी की 150 वी जयंती पर अपना घर और क़स्बा साफ करने की बात अक्सर बड़े मंचो से कहते नहीं थकते लेकिन ऐसी सफाई के क्या मायने जहाँ 2006 के बाद से हम डेंगू के मच्छर ही साफ़ नहीं कर पाए | यह हमारी लचर स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोलने के लिए काफी है | हर बात पर केंद्र और राज्य में तकरार कर मामला नहीं सुलझ सकता | केजरीवाल सरकार जब सत्ता में आई तो बड़े जोर शोर से शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट दुगना कर दिए जाने की बात कर रही थी | स्वराज बजट पेश करते हुए आप ने कहा भी था स्वास्थ्य सेवा के लिए जो बजट आवंटित किया गया है वह पिछले बरस से 45 फीसदी अधिक है और अपने पहले बजट में दिल्ली की जनता के लिए वादों और इरादों की झड़ी विज्ञापनों के आसरे लगाने की कोई कोर कसार पार्टी ने नहीं छोडी लेकिन आज अगर अपनी सरकार के प्रचार प्रसार से ज्यादा इश्तिहार डेंगू से बचाव के लगाए गए होते तो राजधानी में पूरा सिस्टम इस तरह बेबस नहीं होता लेकिन सवाल सिस्टम से आगे का भी हो चला है क्युकि मौजूदा परिदृश्य में दिल्ली में सियासत के केंद्र में अब डेंगू भी आ गया है | भाजपा इस मसले पर जहाँ आप पार्टी को कोस रही है वहीँ कांग्रेस भी आप को घेरने का कोई मौका छोड़ रही लेकिन असल सच यह है यह दोनों दल उस दौर में बारी बारी से सरकार और एम सी डी में रहे हैं | ऐसे में उनकी यह जवाबदेही तो तत्कालीन समय से ही बनती थी क्युकि डेंगू दिल्ली  के लिए कोई नई बीमारी नहीं है और इसे बड़ी त्रासदी ही कहेंगे हमारे देश की सरकारें सत्ता में रहने के दौर में  डेंगू सरीखी बीमारी से निपटने के उपाय नहीं कर पाती और विपक्ष में रहने पर सत्तारूढ़ पार्टियों को कोसने का मौका नहीं चूकती | यह हमारे देश के  राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी कमी है कि उनकी याददाश्त बहुत कमजोर होती है और वह हर बरस के अनुभवों से सीख नहीं लेती हैं | आज हमारी राजनीतिक जमात के लिए यह जरूरी है कि वह डेंगू के बढ़ते कहर को देखते हुए कुछ ऐसे कदम उठाये  जिससे अगले बरस इस  बीमारी का समूलनाश पूरे देश में हो जाए |   

डेंगू की बीमारी के बारे में तो कायदे से यही किया जाना चाहिए बरसात की शुरुवात से पहले ही प्रचार प्रसार और जागरूकता अभियानों पर ध्यान दिया जाना चाहिए लेकिन हमारी सरकारों को तो चुनावों के समय ही जनता की याद आती है | इतने दिनों में राजधानी की हालत किस तरह हो चली है यह इस बात से समझा जा सकता है सरकारी अस्पतालों में जितने मरीज पहुँच रहे हैं वहां बिस्तर मिलना तो दूर दवाइयों तक की पूरी व्यवस्था नहीं है | हमारे समाज में किस तरह असमानता है यह इस बात से महसूस किया जा सकता है जिसके पास पैसा है वह प्राइवेट में इलाज कराने से पीछे नहीं हैं वहीँ निजी अस्पतालों की तरफ देखिये वह आगे बढकर डेंगू और संक्रामक रोगियों के इलाज के लिए नि शुल्क उपचार देने की पहल तक नहीं कर सके हैं | कैसी संवेदना है प्राइवेट अस्पतालों की जो अपना सामाजिक दायित्व तक भूलकर मुनाफा बटोरने में लगे हुए हैं | ऐसे में सरकारी की यह जिम्मेदारी बनती है वह इन अस्पतालों को अपने सामाजिक कर्त्तव्य की याद दिलाएं साथ ही इन अस्पतालों में गरीब लोगों के इलाज को सुनिश्चित करवाएं |    बड़ा सवाल यह है हर साल डेंगू की रोकथाम के लिए अस्पतालों को विशेष रूप से तैयार रहने को कहा जाता है। मगर हालत यह है कि जब  डेंगू अपना कहर बरपाता है तब पूरा सिस्टम फेल हो जाता है | सरकारी अस्पतालों पर मरीजों की बीमारियों का बोझ वैसे ही अधिक होता है लेकिन जब डेंगू सरीखी बीमारियाँ पैर पसारती हैं तो आबादी के बढ़ते प्रभाव के चलते लोग निजी अस्पतालों का रुख करते हैं  लेकिन जब यह निजी अस्पताल भी अपना पूरा ध्यान कमाई और मुनाफे पर केन्द्रित कर देते हैं तो मुश्किल बड़ी हो जाती है | जब हमारी राजधानी में ऐसा हाल है तो गावों और कस्बों में क्या होगा और वहां पर सिस्टम किस तरह धराशाई हाल के दिनों में हुआ होगा उसकी भयावहता की तस्वीर दिल्ली के आकडे पेश कर देते हैं जहाँ पूरा सिस्टम डेंगू से लड़ने में फेल हो चला है और गरीबों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं भी मयस्सर नहीं हो पा रही हैं | 

बहरहाल जिस तरह दिल्ली में  डेंगू की बीमारी से निपटने में हाल के दिनों में प्राइवेट अस्पतालों की हीलाहवाली सबके सामने उजागर हुई है उस पर अब  सरकार को कठोर कदम उठाने पर विचार करना ही होगा |  डेंगू आज किसी देश में खतरनाक बीमारी नहीं रही परन्तु हमारे देश में यह अगर जानलेवा बनी हुई है तो इसका कारण लाचार स्वास्थ्य सेवाएं , सरकारों का इसके प्रति सजग ना होना और सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों की हीलाहवाली ही है |





                  

Sunday, 13 September 2015

विराट व्यक्तित्व के धनी थे भारत रत्न गोविन्द बल्लभ पन्त

    


भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त का नाम आज भी राष्ट्रीय राजनीती में बड़े गर्व के साथ लिया जाता है |  पन्त जी के अतुलनीय योगदान के कारण वह पूरे राष्ट्र के लिए ऐसे युगपुरुष के समान थे जिसने अपने ओजस्वी विचारो के द्वारा राष्ट्रीय राजनीती में हलचल ला दी |  उनके व्यक्तित्व में समाज सेवा, त्याग, दूरदर्शिता का बेजोड़ सम्मिश्रण था |  उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और भारत रत्न गोविंद बल्लभ पंत को राजनीतिक रूप से पिछड़े माने जाने वाले पहाड़ी इलाकों को देश के राजनीतिक मानचित्र पर जगह दिलाने का श्रेय जाता है तो वहीँ तराई लिकाओं को भी आबाद कराने में उनकी खासी भूमिका रही |

 पंत जी का जन्म 10 सितम्बर 1887 ई. वर्तमान उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के खूंट  नामक गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस परिवार का सम्बन्ध कुमाऊँ की एक अत्यन्त प्राचीन और सम्मानित परम्परा से है। पन्तों की इस परम्परा का मूल स्थान महाराष्ट्र का कोंकण प्रदेश माना जाता है और इसके आदि पुरुष माने जाते हैं जयदेव पंत। ऐसी मान्यता है कि 11वीं सदी के आरम्भ में जयदेव पंत तथा उनका परिवार कुमाऊं में आकर बस गया था। गोविन्द बल्लभ पंत के पिता का नाम श्री 'मनोरथ पन्त' था। श्री मनोरथ पंत गोविन्द के जन्म से तीन वर्ष के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौड़ी गढ़वाल चले गये थे। बालक गोविन्द दो-एक बार पौड़ी गया परन्तु स्थायी रूप से अल्मोड़ा में रहा। उसका लालन-पोषण उसकी मौसी 'धनीदेवी' ने किया।

 गोविन्द ने 10 वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। 1897 में गोविन्द को स्थानीय 'रामजे कॉलेज' में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। 1899 में 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह 'पं. बालादत्त जोशी' की कन्या 'गंगा देवी' से हो गया, उस समय वह कक्षा सात में थे। गोविन्द ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेज़ी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। गोविन्द इण्टर की परीक्षा पास करने तक यहीं पर रहे। इसके पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बी.ए. में गणित, राजनीति और अंग्रेज़ी साहित्य विषय लिए। इलाहाबाद उस समय भारत की विभूतियां पं० जवाहरलाल नेहरु, पं० मोतीलाल नेहरु, सर तेजबहादुर सप्रु, श्री सतीशचन्द्र बैनर्जी व श्री सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुकर्जी सरीखे विद्वान थे। इलाहाबाद में नवयुवक गोविन्द को इन महापुरुषों का सान्निध्य एवं सम्पर्क मिला साथ ही जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण मिला

   1909 में गोविन्द बल्लभ पंत को क़ानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आने पर 'लम्सडैन' स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। जनमुद्दो की वकालत करने की तीव्र जिज्ञासा ने इनको इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एल एल बी की डिग्री लेने को विवश किया | इस उपाधि के मिलने के बाद इन्होने अपना जीवन न्यायिक कार्यो में समर्पित कर दिया |गोविन्द बल्लभ पंत जी की वकालत के बारे में कई किस्से मशहूर रहे |  उनका मुकदमा लड़ने का ढंग निराला था  जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे पंत जी उनका मुकदमा नहीं लेते थे |  काकोरी मुकद्दमें ने एक वकील के तौर पर उन्हें पहचान और प्रतिष्ठा दिलाई  | गोविंद बल्लभ पंत जी महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को देश की जनशक्ति में आत्मिक ऊर्जा का स्त्रोत मानते रहे | गोविंद बल्लभ पंत जी ने देश के राजनेताओं का ध्यान अपनी पारदर्शी कार्यशैली से आकर्षित किया | भारत के गृहमंत्री के रूप में वह आज भी प्रशासकों के आदर्श हैं|  पंत जी चिंतक, विचारक, मनीषी, दूरदृष्टा और समाजसुधारक थे|  उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज की अंतर्वेदना को जनमानस में पहुंचाया |   उनका लेखन राष्ट्रीय अस्मिता के माध्यम से लोगों के समक्ष विविध आकार ग्रहण करने में सफल हुआ |

उनके निबंध भारतीय दर्शन के प्रतिबिंब हैं | उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए भी  अपनी लेखनी उठाई |  प्रबुद्ध वर्ग के मार्गदर्शक पंत जी ने सभी मंचों से मानवतावादी निष्कर्षों को प्रसारित किया | राष्ट्रीय चेतना के प्रबल समर्थक पंत जी ने गरीबों के दर्द को बांटा और आर्थिक विषमता मिटाने के अथक प्रयास किए |1909 में पंतजी के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी आयु 23 वर्ष की थी। वह गम्भीर व उदासीन रहने लगे तथा समस्त समय क़ानून व राजनीति को देने लगे।  1910 में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोड़ा में वकालत आरम्भ की। अल्मोड़ा के बाद पंत जी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की   वहाँ से काशीपुर आ गये। उन दिनों काशीपुर के मुक़दमें डिप्टी कलक्टर की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में 6 महीने नैनीताल व सर्दियों के 6 महीने काशीपुर में रहती थी। इस प्रकार पंत जी का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुड़ा।वह अल्मोड़ा , नैनीताल , लखनऊ ,काशीपुर में अत्यधिक सक्रिय रहे | कुमाऊ परिषद् के सचिव होने के साथ ही उन्होंने गढ़वाल में भी आज़ादी की अलख जगाई |

      परिवार के दबाव पर 1912 में पंत जी का दूसरा विवाह अल्मोड़ा में हुआ। उसके बाद पंतजी काशीपुर आये। पंत जी काशीपुर में सबसे पहले 'नजकरी' में नमक वालों की कोठी में एक साल तक रहे। सन 1912-13 में पंतजी काशीपुर आये उस समय उनके पिता जी 'रेवेन्यू कलक्टर' थे। श्री 'कुंजबिहारी लाल' जो काशीपुर के वयोवृद्ध प्रतिष्ठित नागरिक थे, का मुक़दमा पंत' जी द्वारा लिये गये सबसे 'पहले मुक़दमों' में से एक था। इसकी फ़ीस उन्हें 5 रु० मिली थी।


1913 में पंतजी काशीपुर के मौहल्ला खालसा में 3-4 वर्ष तक रहे। अभी नये मकान में आये एक वर्ष भी नहीं हुआ था कि उनके पिता मनोरथ पंत का देहान्त हो गया। इस बीच एक पुत्र की प्राप्ति हुई पर उसकी भी कुछ महीनों बाद मृत्यु हो गयी। बच्चे के बाद पत्नी भी 1914 में स्वर्ग सिधार गई।1916 में पंत जी 'राजकुमार चौबे' की बैठक में चले गये। चौबे जी पंत जी के अनन्य मित्र थे। उनके द्वारा दबाव डालने पर पुनःविवाह के लिए राजी होना पडा तथा काशीपुर के ही श्री तारादत्त पाण्डे जी की पुत्री 'कलादेवी' से विवाह हुआ। उस समय पन्त जी की आयु 30 वर्ष की थी।

काशीपुर में एक बार गोविन्द बल्लभ पंत जी धोती, कुर्ता तथा गाँधी टोपी पहनकर कोर्ट चले गये। वहां अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट ने आपत्ति की। पन्त जी की वकालत की काशीपुर में धाक थी और उनकी आय 500 रुपए मासिक से भी अधिक हो गई। पंत जी के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। अंग्रेज़ शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया। पंतजी के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को ”गोविन्दगढ़“ कहती थी।
     
1914 में काशीपुर में 'प्रेमसभा' की स्थापना पंत जी के प्रयत्नों से ही हुई। ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहाँ आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। फलस्वरूप इस सभा को हटाने के अनेक प्रयत्न किये गये पर पंत जी के प्रयत्नों से वह सफल नहीं हो पाये। 1914 में ही पंत जी के प्रयत्नों से ही 'उदयराज हिन्दू हाईस्कूल' की स्थापना हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने इस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश पारित कर दिये। जब पंत जी को पता चला तो उन्होंनें चन्दा मांगकर इसको पूरा किया।
   
1916 में पंत जी काशीपुर की 'नोटीफाइड ऐरिया कमेटी' में लिये गये। बाद में कमेटी की 'शिक्षा समिति' के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय पंत जी को ही जाता  है। पंतजी ने कुमायूं में 'राष्ट्रीय आन्दोलन' को 'अंहिसा' के आधार पर संगठित किया। आरम्भ से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंत जी के हाथों में रहा। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का आरम्भ कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार तथा विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ। दिसम्बर 1920 में 'कुमाऊं परिषद' का 'वार्षिक अधिवेशन' काशीपुर में हुआ जहां 150 प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था काशीपुर नरेश की कोठी में की गई। पंतजी ने बताया कि परिषद का उद्देश्य कुमाऊं के कष्टों को दूर करना है न कि सरकार से संघर्ष करना। सन 1916 में 'कुमायूँ परिषद' की स्थापना की और इसी वर्ष 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य चुने गये। यह वर्ष  पन्त जी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ |  इस वर्ष पन्त जी अपने असाधारण कार्यो के कारण किसी के परिचय के मोहताज नही रहे | यही वह वर्ष था जब वे राष्ट्रीय राजनीती में धूमकेतु की तरह चमके| कुँमाऊ परिषद् के सचिव रहते हुए उन्होंने गढ़वाल में भी आज़ादी कि अलख जगाई | 1920 में गाँधी जी के सहयोग से असहयोग आन्दोलन में इन्होने अपना सक्रिय सहयोग दिया | की।1923 में 'स्वराज्य पार्टी' के टिकट पर उत्तर प्रदेश 'विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए  वहीँ सन 1927 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। बाद में धीरे-धीरे कांग्रेस द्वारा घोषित असहयोग आन्दोलन की लहर कुमायूं में छा गयी।

      1927 में सर्व सम्मति से कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए |  19 नवम्बर 1928 को लखनऊ में जब साईमन कमीशन आया तो नेहरु की साथ इन्होने भी उनका विरोध किया | इसी वर्ष पंडित नेहरु और पन्त जी के नेतृत्व में  साईमन कमीशन के लखनऊ आगमन पर भारी जुलूस निकाला गया जिसमे पुलिस के लाथिचार्ग में उनको गायल भी होना पड़ा |  23 जुलाई, 1928 को पन्त जी 'नैनीताल ज़िला बोर्ड' के चैयरमैन चुने गए  | पंत जी का राजनीतिक सिद्धान्त था कि अपने क्षेत्र की राजनीति की कभी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। 1929 में गांधी जी कोसानी से रामनगर होते हुए काशीपुर भी गये। काशीपुर में गांधी जी लाला नानकचन्द खत्री के बाग़ में ठहरे थे। पंत जी ने काशीपुर में एक चरखा संघ की विधिवत स्थापना नवम्बर, 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने की ठानी और स्वतंत्रता संग्राम के दौर में कई वर्ष जेल रहे | 10 अगस्त, 1931 को भवाली में उनके सुपुत्र श्रीकृष्ण चन्द्र पंत का जन्म हुआ। नवम्बर, 1934 में गोविन्द बल्लभ पंत 'रुहेलखण्ड-कुमाऊं' क्षेत्र से केन्द्रीय विधान सभा के लिए निर्विरोध चुन लिये गये। 17 जुलाई, 1937 को गोविन्द बल्लभ पंत 'संयुक्त प्रान्त' के प्रथम मुख्यमंत्री बने जिसमें नारायण दत्त तिवारी संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे।
   
            सन 1937 से 1939 एवं 1954 तक अर्थात मृत्यु पर्यन्त केन्द्रीय सरकार के स्वराष्ट्र मंत्री रहे। पन्त जी 1946 से दिसम्बर 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंत जी को भूमि सुधारों में पर्याप्त रुचि थी। 21 मई, 1952 को जमींदारी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी बनाया। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। पंत जी एक विद्वान क़ानून ज्ञाता होने के साथ ही महान नेता व महान अर्थशास्त्री भी थे। स्व कृष्णचन्द्र पंत उनके पुत्र केन्द्र सरकार में विभिन्न पदों पर रहते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे और भाजपा के टिकट पर नैनीताल संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व भी किया |

पन्त जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का विशेष प्रभाव पड़ा |गाँधी के कहने पर ये वकालत को छोड़कर राजनीती में चले आये | उस समय समाज में दो तरह की विचार धाराएं थी | पहली विचारधारा में प्रगतिशील लोग हुआ करते थे, वही दूसरी विचार धारा में स्वदेश प्रेमी लोग थे | पन्त जी ने दोनों विचार धारा में समन्वय कायम कर उत्तराखंड के कुमाऊ में राष्ट्रीय चेतना फ़ैलाने में अपनी महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई |उन्होंने गरीबो के विरोध में आवाज उठाते हुए कुली बेगार के खिलाफ विशाल आन्दोलन चलाया  | अपने प्रयासों से ही कुमाऊ परिषद की स्थापना की और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी  चुने गए | कांग्रेस के पार्टी उनकी इतनी अगाध आस्था रही 30 बरस तक वह राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यकारणी के सदस्य रहे | गांधी जी के द्वारा चलाये गए कई आन्दोलन में उन्होंने बढ़  चढ़कर भाग लिया और कई बार जेल भी जाना पड़ा |

देश की आजादी में पन्त के योगदान को कभी नही भुलाया जा सकता है | जंगे आजादी की दौर में हिमालय पुत्र की द्वारा प्रत्येक आन्दोलन चाहे वह सत्याग्रह हो या असहयोग आन्दोलन ,अपना पूरा योगदान दिया | आजादी की दौर में अपनी सक्रिय भूमिकाओं की चलते पन्त जी को कई बार जेल की यात्राये भी करनी पड़ी | देश की आज़ादी के लिए  ब्रिटिश हुकूमत के साथ वह गोलमेज वार्ता में भी वह शामिल हुए |   वर्ष 1937 में पंत जी संयुक्त प्रांत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1946 में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने | 15 अगस्त 1947 को वह आज़ाद भारत में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाये गए | इस पद पर वह 1952 तक काम करते रहे | 1952 में देश की संविधान बनाये जाने के बाद जब प्रथम आम चुनाव हुए तो उनका सञ्चालन पन्त जी की प्रयास से हुआ | इन चुनावो में कांग्रेस ने विजय पताका लहराई | 1954 में जवाहर लाल नेहरु की आग्रह पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में गृह मत्री का ताज पहना और देश के विकास में अपना योगदान दिया |

सन 1957 में गणतन्त्र दिवस पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक, सफल वक्ता, तर्क के धनी एवं उदारमना पन्त जी को भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से विभूषित राष्ट्रपति  डॉ राजेंद्र प्रसाद ने किया  | अपने कार्यकाल में पन्त जी ने विभिन्न कामो को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया | हिन्दी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने में भी गोविंद वल्लभ पंत जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा | 26 जनवरी का दिन कुमाऊ के इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण रहा | इस तिथि को भारत सरकार ने उन्हें "भारत रत्न" की उपाधि से विभूषित किया | 7 मार्च 1961 को पन्त जी की ह्रदय गति रुक जाने से मौत हो गई |

पन्त जी ने अपने प्रयासों से राष्ट्र हित के जितने काम किये उसके कारण भारतीय इतिहास में उनके योगदान को नही भुलाया जा सकता | पन्त जी को सच्ची श्रद्धांजलि तब मिल पाएगी जब हम उनके द्वारा कहे गए विचारो और सिद्धांतो पर चले | 

Monday, 31 August 2015

देवीधुरा उत्तराखंड का बग्वाल


                              


उत्तराखण्ड जहां अपनी मनमोहक प्राकृतिक सुषमा व नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए जाना जाता है वहीं इस देवभूमि की अनेक परम्पराएं यहां की धर्म संस्कृति से जुड़ी हुई है। ऐसी ही अनूठी परम्पराओं को अपने में संजोये देवीधूरा मेला है जिसे ‘‘आषाड़ी कौतिक‘‘ नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर लगने वाले इस मेले को ‘बग्वाल‘ नाम से अधिक जाना जाता है। वह इसलिए क्योंकि इस मेले में होने वाले पत्थर युद्ध को लेकर दर्शकों में कौतूहल बना रहता है।
             
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के चार जनपदों के मध्य देवीधुरा कस्बा स्थित है जो नैनीतालअल्मोड़ाउधमसिंहनगरचंपावत जिलों को एक दूसरे से जोड़ता है। जिला मुख्यालय चंपावत से 57 किमी0 की दूरी पर स्थित देवीधुरा कस्बा अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए मशहूर है। कहा जाता है कि देवीधुरा पूर्णागिरी का एक पीठ है जहां चंपा कालिका को प्रतिष्ठित किया गया। ऊंचे देवदार के घने वृक्षों व चीड़ के लम्बे वृक्षों के मध्य बग्वाल की पृष्ठभूमि चार राजपूती खामों के पुस्तैनी खेल से जुड़ी हुई है। खामों से तात्पर्य जाति से है जिसमें गहरवालवाल्कियालमगड़ियाचम्याल मुख्य है। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन पूजा कर यह सभी एक दूसरे को निमंत्रण देते हैं और बग्वाल में भागीदार बनते हैं। बग्वाल में भाग लेने वाले कुछ दिन पूर्व से अपनी तैयारियों में जुट जाते हैं। पाषाण युद्ध के रणबांकुरों के चार दल सर्वप्रथम एक-एक करके देवी माता बाराही की परिक्रमा करते हैं बग्वाल में वल्किया व लमगड़िया खाम एक छोर पश्चिम से प्रवेश करती है तो चम्याल व गहरवाल पूर्वी छोर से रणभूमि में आती है। मंदिर के पुजारी द्वारा आशीर्वाद के बाद सभी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। आमतौर पर गहरवाल खाम सबसे अंत में आती है जिन पर गहखाल खाम का व्यक्ति पत्थर फेंककर प्रहार करता है। गहरखाल के पत्थर फेकने के साथ बग्वाली कौतिक शुरू हो जाता है। युद्ध में भाग लेने वाली चार खामों वैसे तो आपस के मित्र होते हैं लेकिन पाषाण युद्ध के समय वह सारे रिश्ते-नाते छोड़ एक दूसरे पर पूरी ताकत के साथ वार कर देते हैं। सुरक्षा के लिए दलों द्वारा लाठियों व फर्रो को सटाकर एक कवच बना लिया जाता है जो घायलों की सुरक्षा का कार्य करता है।बग्वाल के दौरान पत्थरों की वर्षा द्वारा शरीर के विभिन्न अंग लहुलुहान हो जाते हैं लेकिन रक्त की बूंदे गिरने के बाद भरी कोई चित्कार नहीं सुनायी पड़ता है। मुख्य पुजारी एक व्यक्ति के शरीर के बराबर रक्त गिरने के बाद बग्वाल को रोकने का आदेश दे देते हैं पत्थर मारने का यह सिलसिला ताम्र छात्र व चंवर गाय की पूंछ के मैदान में पहुंचते ही समाप्त माना जाता हे। तकरीबन 20 से 25 मिनट तक चलने वाले इस पाषाण युद्ध के समाप्त होने के बाद बग्वाल खेलने वाली खामें एक दूसरे के गले मिलते हैं। पत्थरों से घायल हुए लोगों को गंभीर चोटें नहीं आती ऐसा माना जाता है कुछ वर्ष पूर्व तक लोग बग्वाल खेले जाने वाले मैदान की बिच्छू घास अपने शरीर में लगा लिया करते थे जिसमें वे कुछ क्षण बाद स्वयं ठीक हो जाते थे लेकिन वर्तमान में यहां घायलों के इलाज का समुचित प्रबंध रहता है।

                   

पौराणिक कथाओं के अनुसार देवीधुरा किसी समय काली के उपासना का प्रमुख केन्द्र था जिसमें देवी के गणों को प्रसन्न करने के लिए नर बलि की प्रथा प्रचलित थी यह बलि बग्वाल खेलने वाली चार खामों से ही दी जा सकती थी एक बार चमियाल खाम की एक वृद्धा  के परिवार से बलि की बारी आयी परिवार में उस वृद्धा का एकमात्र सहारा उसका एक पौत्र था। कहा जाता है उस वृद्धा ने वंश नाश के भय से मॉ बाराही की आराधना की और कठोर तप किया। वृद्धा के तप से मॉ बाराही प्रसन्न हुई और उन्होंने राजा व प्रजा से बलि का दूसरा विकल्प ढूंढने को कहा। प्रजा के विचार- विमर्श के बाद राजा ने आम सहमति बनाते हुए यह निर्णय लिया कि यदि मनुष्य के रक्त के बराबर रक्त बहा दिया जाए तो उसे नरबलि माना जा सकता है कहा जाता है तभी से पत्थर मारकर रक्त बहाने का सिला चलन में है। अठवार का तात्पर्य है कि किसी मनोकामना के पूर्ण होने के बाद व्यक्ति द्वारा जो बलि स्वेच्छा से दी जाती है अठवारी बलि बग्वाल के एक दिन पहले होती है। यह समय चतुदर्शी को रहता है। क्योंकि चतुदर्शी को पूर्णिमा पड़ती है और इसी दिन पाषाण युद्ध होती है। अठवारी में एक भैंस,छः बकरे व एक नारियल चढ़ते हैं।

देवीधुरा के बाराही देवी के मंदिर में तांबे के पिटारे में रखी देवी की मूर्तियां कई तरह के रहस्यों को समेटे हैं तांबे के पिटारे में महाकाली,सरस्वती व बाराही की मूर्तियां हैं। बाराही की मूर्ति में तेज चमक होने के कारण किसी ने अपने खुले नेत्रों से इसके दर्शन नहीे किये। ऐसा माना जाता है कि बाराही माता लक्ष्मी का नवीन रूप है जिसके दर्शन वर्जित हैं। यदि कोई इसे देखने का प्रयास करता है तो उसे अपनी ज्योति से हाथ धोना पड़ता है। इसी कारण मंदिर के मुख्य पुजारी भी देवी को स्नान कराते समय आंखों में पट्टी बांधे रखते हैं।
                 




बग्वाल के दिन चारों खामों के प्रधान देवी का पहरा करते हैं बग्वाल के अगले दिन तीनों मूर्तियों को स्नान कराया जाता है। तांबे के बक्से की चाबी गहरवाल के प्रधान के पास रहती र्है वह बग्वाल के दिन इसे अन्य प्रधानों को देता है सर्वप्रथम बाराही की मूर्ति को दूध से स्नान कराया जाता है फिर दो मूर्तियों को। तत्पश्चात् तीनों को उस बक्से में रख दिया जाता है।

 उत्तराखंड के देवीधुरा का बग्वाल ‘मेला‘ आधुनिक परमाणु युग में भी पाषाण युद्ध की परम्परा को संजोये है। यह मेला आपसी सदभाव की जीती जागती प्रत्यक्ष मिसाल हे। देवीधूरा क्षेत्र में पर्यटन की व्यापक संभावनाऐं हैं। यहां के बाराही मंदिर में प्रतिवर्ष खेले जाने वाले बग्वाल को देखने देशभर से लोग पहुंचते हैं और एक अमिट छाप लेकर जाते हैं। यहां पहुंचकर श्रद्धालुओं को देवभूमि में अपनी उपस्थिति का वास्तविक अहसास होता है। तीर्थाटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे पवित्र स्थल राज्य के आर्थिक विकास में खासे उपयोगी है। यह अलग बात है कि सरकारी अव्यवहारिक नीतियों के चलते देवीधुरा के विकास का कोई खासा तैयार नहीं किया गया है जिस कारण उत्तराखंड  में सांस्कृतिक परम्पराएं दम तोड़ रही है। वैश्वीकरण के इस दौर में यदि आज बग्वाल सरीखी सांस्कृतिक विरासत जीवित है तो इसका श्रेय इन मान्यताओं का वैज्ञानिक स्वरूप है।