Sunday, 18 September 2016

फिर पाकिस्तान ने दिया जख्म





पाकिस्तान ने एक बार फिर अपना घिनौना  चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया है  । जम्मू-कश्मीर के बारामूला में स्थित उरी सेक्टर में रविवार सुबह आतंकियों ने सेना के मुख्यालय पर आत्मघाती हमला कर दिया जिसमे 17 सैनिक शहीद हो गए  । जम्मू-कश्मीर के उरी सेक्टर में 12वीं ब्रिगेड की छावनी पर आत्मघाती हमले ने  भारतीय सेना को जबरदस्त नुकसान पहुचाया ।  शहीद होने वाले  17 जवान डोगरा रेजीमेंट के थे। इस फिदायीन हमले में 19 जवान जख्मी हुए है जिनमें कुछ की हालत बेहद गंभीर बनी हुई है। 

 ऐसा करके पाक  ने  एक बार फिर  आतंक का अपना चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया ।  असल में इस कार्यवाही ने एक बार फिर साबित कर दिया है पाक में भले ही नवाज की अगुवाई में सरकार चल रही  है लेकिन अभी भी कमोवेश वैसी ही स्थितियां हैं जैसी पहले हुआ करती थी । आज भी पाक में चलती है तो सेना और चरमपंथियों  की  और  उसके बिना पत्ता तक नहीं  हिलता  । नवाज भले ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खुद को आतंक से प्रभावित देश बताते हुए भारत के साथ  सम्बन्ध सुधारने की दुहाई देते रहते हो लेकिन उरी सेक्टर की इस कार्यवाही के शुरुवाती संकेत तो यही कहानी कह रहे हैं इस कार्यवाही को पाक के कट्टरपंथियों और आतंकियों का खुला समर्थन था जो भारत के साथ सम्बन्ध किसी कीमत पर ठीक नहीं होने देना चाहते हैं और कश्मीर को अस्थिर करने  की नापाक कोशिश करने में लगे हैं ।  यह हमला ठीक नवाज के अमरीका रवाना होने के बाद किया गया है जिससे जाहिर होता है बिना सेना को भरोसे में लिए आतंकियों ने इसे अंजाम दिया है | 
  
 डोगरा  रेजिमेंट  के जवानों के  साथ की गई  कार्यवाही ने हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है अब पकिस्तान के साथ  किस मुह से हम दोस्ती का हाथ बढ़ाये पाक  के साथ दोस्ती का आधार क्या हो वह भी तब जब वह लगातार भारत की पीठ पर छुरा भौंकते  हुए लगातार विश्वासघात ही करता जा रहा है । इस दुस्साहसिक कारवाई  की जहाँ पूरे देश में निंदा  हुई है वहीँ आम आदमी अब भारतीय नीति नियंताओ से सीधे सवाल पूछ रहा है कि अब समय आ गया है जब पकिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लिए जाएँ  और उसे अंतरराष्ट्रीय मंचो पर लताड़ा  जाए  । पठानकोट के बाद अब तक का यह सबसे बड़ा हमला है जिसमे कठघरे में सीधे पाक खड़ा है । हमेशा की तरह  अगर इस बार  भी केंद्र सरकार  धैर्य धारण करने के  लिए कदमताल करने की सोचेगी  तो यह सही  नहीं होगा क्युकि  लगातार होते हमलो से हमारा  धैर्य अब जवाब दे रहा है ।  इस घटना से पाक की मंशा धरती के स्वर्ग कश्मीर में उन्माद फैलाने की ही रही है शायद इसकी आहट नवाज और कियानी के बीच बीते कुछ दिनों पहले हुई गुप्तगू के तौर पर दिखाई देने लगी थी जिसमे उन्होंने अमरीका रवानगी से  पहले  टेबल पर कश्मीर मसले की चर्चा की थी । नवाज का यू एन ओ में भाषण 21 सितम्बर को होना है । अब ऐसे हमलों के जरिये पाक अपनी स्टेट पालिसी के तहत कश्मीर में उन्माद का वातावरण पूरी दुनिया को दिखाना चाहता है । उरी सेक्टर पर  तड़के हमला बोलने आये  सभी आतंकी  जम्मू-कश्मीर में अशांति फैलाना चाहते थे और इन्होंने इसी मकसद से घुसपैठ की । बुरहान वाणी के जुलाई में मारे जाने के बाद  से ही  घाटी में हिंसा का दौर जारी है और ताजा हमले ने पाक की संलिप्तता को फिर से उजागर कर दिया है जहाँ गृह मंत्रालय से जुड़े लोगों की जानकारी से स्पष्ट हो रहा है कि यह लश्कर का ही फ़िदायीन दस्ता था जिसका मकसद भारतीय सैनिकों के मनोबल को तोडना था | वैसे आतंरिक सुरक्षा पर 16 जुलाई को एक अलर्ट आई बी ने जारी किया था इसके बाद भी उरी पर हमला कई सवालों को मौजूदा दौर में खड़ा कर रहा है | आखिर अलर्ट के बाद भी आतंकी बेस कैम्प तक कैसे पहुंचे यह अपने में बड़ा सवाल बन गया है जिसकी पड़ताल नए सिरे से गृह मंत्रालय को करने की जरूरत है | सवाल तो भोर के उस समय का भी है जिस समय हमारे जवान सो रहे थे उस समय गॉर्ड क्या कर रहे थे ? ऐसे अनेक सवालों के जवाब तो जांच के बाद ही मिल पायेंगे लेकिन इस हमले ने एक बार फिर पाक को कठघरे में खड़ा कर दिया है क्युकि पठानकोट की तर्ज पर आतंकी सीमा पार से ही आये |

        असल में  कारगिल  के दौर में भी पाक  ने भारत के साथ ऐसा ही सलूक किया था  ।  हमारे प्रधानमंत्री वाजपेयी रिश्तो  में गर्मजोशी लाने लाहौर बस से गए लेकिन  नवाज  शरीफ  को अँधेरे में रखकर मिया मुशर्रफ  कारगिल की पटकथा तैयार करने में लगे रहे । इस काम में उनको पाक की सेना का पूरा सहयोग मिला था । इस बार की कहानी भी पिछले बार से जुदा नहीं है । अपने कार्यकाल के अन्तिम पडाव पर खड़े पाक सेनाध्यक्ष अशफाक कियानी  और नवाज भारत के साथ रिश्तो को सुधारने के बजाए अब फिर से  बिगाड़ना चाहते हैं । यह उनके द्वारा दिए गए हाल के बयानों में साफ़ झलका है । अभी कुछ दिनों पूर्व उन्होंने  कहा बकरीद पर हम कश्मीरियों के बलिदान को नजरअंदाज नहीं कर सकते । उन्हें उनके बलिदानों का फल मिलेगा ।  अब ऐसे बयानों से उनकी मंशा भारत को चेताना ही  रही |

नवाज के यू एनओ में भाषण से कुछ दिन पहले हमारी सेना के 17  जवान शहीद हो गए । उरी  की इस कार्यवाही में  पाक सेना  का  फिदायीन आतंकियों को  पूरा समर्थन रहा है । बेशक पाक में सरकार तो नाम मात्र की है वहां पर चलती सेना की ही है और बिना सेना के वहां पर पत्ता भी नहीं हिला हिलता  । कट्टरपंथियों की बड़ी जमात वहां ऐसी है जो भारत के साथ सम्बन्ध सुधरते नहीं देखना चाहती है और कश्मीर को किसी भी तरह अंतर्राष्ट्रीयकरण करना चाहती है ।आखिर कब तक हम पाक के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहेगे  और बातचीत से मेल मिलाप बढ़ायेंगे जबकि हर मोर्चे पर वह हमको धोखा ही धोखा देता आया है । इस घटना के बाद हमारे नीतिनियंताओ को यह सोचना पड़ेगा  अविश्वास की खाई  में दोनों मुल्को की दोस्ती में दरार पडनी  तय है । अतः अब समय आ गया है जब हम पाक के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ डालें  और ईंट का जवाब ईट से दें ।  घाटी बुरहान वाणी की मौत के बाद से जहाँ जल रही है वही इस दौर में लोगों के पास काम के भी लाले पड़ गए हैं लेकिन फिर भी हमारी सरकारें वहां हालात सामान्य नहीं कर पा रही हैं । अब समय आ गया है जब  अपने उच्चायुक्त को पाक से वापस बुला लेना  चाहिए ताकि पाक के चेहरे को पूरी दुनिया में बेनकाब किया जा  सके ।

  मुंबई  में 26/11 के हमलो में भी पाक की संलिप्तता पूरी दुनिया के सामने ना केवल उजागर हुई थी बल्कि पकडे गए आतंकी कसाब ने  यह खुलासा  भी किया हमलो की साजिश पाकिस्तान में रची गई जिसका मास्टर माइंड हाफिज मोहम्मद  सईद  था । हमने पठानकोट हमलो के पर्याप्त सबूत पाक को सौंपे भी लेकिन आज तक वह इनके दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाया  । आतंक का सबसे बड़ा मास्टर माईंड हाफिज पाकिस्तान में खुला घूम रहा है और  भारत  के खिलाफ लोगो को जेहाद छेड़ने के लए उकसा भी रहा है लेकिन आज तक हम पाक को हाफिज के मसले पर ढील ही देते रहे हैं  यही कारण  है वहां की सरकार  उसे पकड़ने में नाकामयाब रही है ।  2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हमले के बाद उसके जमात उद  दावा ने  कश्मीर के ट्रेंनिग कैम्पों में घुसकर युवको को  जेहाद के लिए प्रेरित किया । अमेरिका द्वारा उसके संगठन  को प्रतिबंधित  घोषित  करने  और उस पर करोडो डालर के इनाम रखे जाने के बाद भी पाकिस्तान  सरकार  ने उसे कुछ दिन लाहौर की जेल में पकड़कर रखा और जमानत पर रिहा कर दिया । आज  पाकिस्तान  उसे   पाक में होने को सिरे से नकारता रहा है जबकि असलियत यह है कि बुरहान की मौत के बाद लगातार वह भारत के खिलाफ जहर उगल रहा है और खुले आम घूम रहा है ।  भारतीय गृह मंत्रालय तो हमेशा उसको ना पकड़ सकने का रोना रोता रहा है ।   भारत के खिलाफ  होने वाली हर  साजिश  को अंजाम देने में उसे पाक की सेना और कट्टरपंथी सगठनों  का पूरा सहयोग मिल रहा है  ।  26 / 11 के हमलो के बाद भारत ने  जहा कहा था जब तक 26 /11 के दोषियों पर पाक  कार्यवाही नहीं करेगा तब तक हम उससे कोई बात  नहीं  करेंगे लेकिन आज तक उसके द्वारा दोषियों पर कोई कार्यवाही ना किये जाने के बाद भी हम उस पर कोई कार्यवाही नहीं कर पा  रहे हैं तो यह हमारी लुंज पुंज विदेश नीति वाले रवैये को उजागर करता है ।  अब तो  हर घटना में अपना  हाथ होने से इनकार करना पाक का शगल ही बन गया है । लाइन ऑफ़ कंट्रोल में अक्सर  सैनिको के बीच  तनाव देखा जा सकता है और फायरिंग की घटनाएं आये  दिन होती रहती हैं । भारतीय सेना में घुसपैठ की कार्यवाहियां अब पाक की सेना आतंकियों के साथ लगातार कर  रही है जो पठानकोट के बाद उरी के हमले में साफतौर पर उजागर हो गयी है । उसे लगता है कश्मीर में अगर हिंसा का ऐसा ही तांडव जारी रहा तो आने वाले दिनों में दुनिया की नज़रों में  कश्मीर  आ जायेगा । अतः ऐसे हालातो में वह अब लश्कर और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनो को पी ओ  के  में भारत के खिलाफ एक  बड़ी जंग लड़ने के लिए उकसा रहा  है जिसमे कई कट्टरपंथी संगठन उसे मदद कर रहे हैं  जो कश्मीर में युवाओं से पत्थर बाजी करवाते हुए अपने मिशन कश्मीर को मजबूती दे रहे हैं । पाक की राजनीती का असल सच किसी से छुपा नहीं है । वहां पर सेना कट्टरपंथियों का हाथ की कठपुतली ही  रही है । सरकार तो नाम मात्र की लोकत्रांत्रिक  है  असल नियंत्रण तो सेना का हर जगह है ।  पाक इस बार यह महसूस कर रहा है अगर समय रहते उसने भारत के खिलाफ अपनी जंग शुरू नहीं की तो कश्मीर का मुद्दा ठंडा पड  जायेगा । अतः वह भारतीय सेना को अपने निशाने पर लेकर कट्टरपंथियों की पुरानी  लीक पर चल निकला है । कश्मीर का राग पाक का पुराना राग है जो दोस्ती के रिश्तो में सबसे बड़ी दीवार है । ऐसे दौर में हमें पाक पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । हमारी सेना को ज्यादा से ज्यादा अधिकार सीमा से सटे इलाको में मिलने चाहिए साथ ही कश्मीर को अब पूरी तरह सेना के हवाले किये जाने की जरूरत है ।

 उरी के हमले के बाद अब भारत को पाक के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए । उसे किसी तरह की ढील नहीं मिलनी चाहिए । पाक  हमारे धैर्य  की परीक्षा ना ले अब ऐसे बयान देकर काम नहीं चलने वाला क्युकि  इस घटना ने हमारे  सैनिकॊ  के मनोबल को   गिराने का काम किया है । पाक के साथ भारत को अब किसी तरह की नरमी नहीं बरतनी चाहिए और कूटनीति के जरिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर उसके खिलाफ माहौल बनाना  चाहिए  साथ ही अमेरिका सरीखे मुल्को से बात कर यह बताना  चाहिए  आतंक के असल सरगना पाकिस्तान  में  पल रहे हैं और आतंकवाद के नाम पर दी जाने वाली हर मदद का इस्तेमाल पाक दहशतगर्दी फैलाने में कर रहा है ।  अगर पाक को विदेशो से मिलने वाली मदद इस दौर में बंद हो जाए तो उसका दीवाला निकल जायेगा । ऐसी सूरत में कट्टरपंथियों के हौंसले भी पस्त हो जायेंगे । तब भारत  पी ओ के में चल रहे आतंकी शिविरों को अपना निशाना बना सकता है ।  माकूल कार्यवाही के लिए यही समय बेहतर होगा ।  अब समय आ गया है जब पाक के खिलाफ भारत  कोई बड़ी कार्यवाही की रणनीति  अख्तियार करे क्युकि एक के बाद एक झूठ  बोलकर पाक हमें धोखा दे रहा है और कश्मीर के मसले के अन्तरराष्ट्रीयकरण  के पक्ष में खड़ा है ।

  आज तक हमने पाक के हर हमले का जवाब बयानबाजी से ही दिया है । भारत सरकार धैर्य संयम  की दुहाई देकर हर बार लोगो के सामने सम्बन्ध सुधारने की बात दोहराती रहती है ।  इसी नरम रुख से पाक का दुस्साहस इस कदर बढ  गया है  कभी वह  पठानकोट तो कभी उरी में हमारे जवानो को निशाना बनाता है और कश्मीर पर मध्यस्थता का पुराना राग छेड़ता  रहता है । यह दौर भारतीय नीति नियंताओ के लिए असली परीक्षा का है  क्युकि  उसी की नीतियां अब पाक के साथ भारत के भविष्य को ने केवल तय कर सकती है बल्कि अंतरराष्ट्रीय  मोर्चे पर यह मामला उसकी कूटनीति के आसरे दुनिया तक पहुच सकता है । कश्मीर की काट के तौर पर पी एम मोदी ने जिस अंदाज में बलूचिस्तान का मसला इस बार के स्वंत्रता दिवस समारोह में उठाया है उससे पाक और चीन की घिग्गी बध गई है । जवाबी कार्यवाही के तहत उसने अब कश्मीर राग की रट लगायी हुई है और  आने वाले 21 सितम्बर को नवाज के यू एन ओ के  भाषण में इसकी झलक दिखाई  पड़ सकती है । भारत की कोशिश अब यह होनी चाहिए यू एन ओ की भरी सभा में पाक को बेनकाब कर उसका हुक्का पानी बंद करवाते हुए  उसे एक आतंकी देश घोषित करवाए । अगर ऐसा होता है तो यह मोदिनोमिक्स की विदेश नीति की बड़ी जीत होगी देखना होगा आने वाले दिनों में हम पाक के प्रति किस तरह का रुख अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर अख्तियार करते है । यह  पीएम  मोदी की कूटनीति की बड़ी परीक्षा है । फिलहाल इसका इन्तजार सभी को है ।

Wednesday, 31 August 2016

सियासी बिसात में तार- तार कश्मीर और कश्मीरियत







कश्मीर में हिंसा का तांडव थमने का नाम नही ले रहा | पिछले  करीब डेढ़ महीने से जन्नत  अशांत है। राज्य में आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों के बीच लगातार झड़पों का सिलसिला जारी है | जिस कारण  सरकार को डेढ़ दशक बाद कश्मीर की सड़कों पर जहाँ बी एस एफ को उतारने पर मजबूर होना पड़ा है वहीँ विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कश्मीर के हालात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत करने के साथ ही सर्वदलीय बैठक का जो दौर शुरू किया उसका अब तक का नतीजा भी सिफर ही रहा है |
 
 केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर  में शांति बहाली के लिए जहाँ  घाटी का रुख कर चुके हैं वहीँ मुख्यमंत्री महबूबा की पी एम मोदी के साथ बैठक के बाद भी कश्मीर के हालत संभाल नहीं पा रहे हैं | आलम यह है कि अलगाववादियों को महबूबा की कड़ी चेतावनी के बाद भी जन्नत में पत्थरबाजी का दौर थमा नहीं है |  बीते सोमवार को कश्मीर घाटी में कर्फ्यू हटाए जाने के ठीक दो दिन बाद हिंसा के तांडव का खुला खेल फिर से शुरू हो गया है |  सुरक्षा बलों के साथ हुई हिंसक झड़प में एक किशोर की मौत हो गई तथा 100 से अधिक व्यक्ति घायल हो गए | भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षा बलों ने पहले आंसू गैस के गोले छोड़े और पैलेट गन का इस्तेमाल किया ।  जब भीड़ नहीं हटी तो उन्हें गोली चलानी पड़ी |  बुधवार को एक किशोर की मौत के साथ ही घाटी में नौ जुलाई से शुरू हुए इस संघर्ष में मरने वालों की संख्या अब 72 हो गई है, जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल हैं |  वहीं  हिंसक संघर्ष में अब तक 11,000 से अधिक लोग घायल हुए हैं जिसमें 7,000 नागरिक और सुरक्षा बलों के 4,000 जवान शामिल हैं | 

दरअसल कश्मीर की सियासत इस समूचे दौर में  उस मुहाने पर जा टिकी है जहां भारत सरकार और घाटी  के बीच संवाद पूरी तरह टूटा हुआ है | अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा किसी भी नेता ने कश्मीर के मसले को हल करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद भी उस लीक का पता लग पाना मुश्किल दिख रहा है क्युकि वह  अलगाववादियों से बात ना करने का एलान पहले ही कर चुकी है  । असल में कश्मीर में  आए दिन सुरक्षा बलों और आम नागरिकों के बीच अक्सर झड़पें होती रहती हैं | हिज़बुल मुज़ाहिद्दीन के चरमपंथी बुरहान वानी की मौत के बाद जो कश्मीर में हालात बन रहे हैं, उससे लगता है कि  लोग आक्रोशित हैं  । 

 90 के दशक को याद करें तो उस दौर में मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी को अगवा किया गया था तब इतनी बड़ी संख्या में लोग बाहर आए थे | जिसके बाद  1993 में हज़रत बल में चरमपंथी छिपे हुए थे जिसे सेना ने घेरे में लिया तो घाटी सुलग गई | फिर 1995 में एक सूफ़ी संत की दरगाह में एक पाकिस्तानी चरमपंथी के छिपने के बाद फिर से कश्मीर जलने लगा | 2008 में अमरनाथ की ज़मीन के विवाद के वक़्त भी काफ़ी बवाल हुआ था और कई महीनों तक प्रदर्शन हुए जिसकी गूंज दिल्ली तक पहुंची | 2010 में एक कथित एनकाउंटर के बाद भी बवाल हुआ जिसमें क़रीब 130 लोग मारे गए और 2013 में अफ़जल गुरु की फांसी के बाद भी कश्मीर में बवाल हुआ जो कुछ समय बाद थम सा गया | लेकिन  ताजा मामला आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीरी युवाओं के फूटे आक्रोश का है जिसे कश्मीर के युवा किसी आइकन से कम नहीं समझते थे | बुरहान वानी का परिवार जमात विचारधारा से काफी प्रभावित था। बुरहान वानी पाकिस्तानी आतंकी संगठन  हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य था। उस पर एक तरफ जमात का मजहबी असर था तो दूसरी तरफ वह 21वीं सदी का वह युवा था जो सोशल मीडिया  का खुलकर इस्तेमाल करने वालों में से एक था । इन दोनों स्थितियों ने बुरहान को हिजबुल का कमांडर बनने में मदद की। वानी ने सोशल मीडिया का सहारा लेकर मजहब से प्रेरित अपनी राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा दिया। इसी के आसरे  वह युवाओं के बीच खासा लोकप्रिय चेहरा बन  गया। जब उसे सेना ने मार गिराया तभी से कश्मीर में हिंसा शुरू हो गई। यह हिंसा अभी भी जारी है।1996 के बाद यहां पहली बार ऐसा हुआ कि किसी चरमपंथी की मौत के बाद इतनी बड़ी संख्या में लोग कश्मीर की  सड़कों पर बाहर आए हैं | इस विरोध प्रदर्शन से कश्मीर के पर्यटन कारोबार को जहाँ करोड़ों का नुकसान हो गया है वहीँ बीते 53 दिनों से लोगों की रोजी रोटी सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है जिसकी सुध लेने की जहमत कोई राजनेता इस दौर में लेने को तैयार नहीं है |  इस दौर में जहाँ दुकानों में ताले पड़े हैं वहीँ निजी और सरकारी शिक्षण संस्थान  और कार्यालयों में पसरा सन्नाटा इस बात की गवाही दे रहा है कि कश्मीर में हालात दिन पर दिन कैसे खराब होते जा रहे हैं और सरकार कुछ कर भी नहीं पा रही है | 

बीते दिनों कश्मीर के हालात पर महबूबा और मोदी की मुलाक़ात दिल्ली में हुई थी जिसमे महबूबा ने पीएम मोदी  की तारीफों के कसीदे पढ़ते हुए कहा पी एम मोदी ने कश्मीर के लिए  सभी तरह के जरूरी कदम उठाए हैं। उन्‍होंने याद दिलाया कि पीएम मोदी जब लाहौर से लौटे तो देश को पठानकोट आतंकी हमला झेलना पड़ा।  महबूबा ने कहा कि पीडीपी-बीजेपी गठबंधन की आधारशिला वाजेपई की कश्‍मीर नीति थी।  पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेई की कश्‍मीर नीति को वहीं से आगे बढ़ाना होगा जहां पर इसे रोक दिया गया | वहीँ कांग्रेस ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुझाव दिया है कि उन्हें वार्ता की पहल करनी चाहिए। कांग्रेस की यह टिप्पणी तब आई जब पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने कश्मीर  में  प्रतिनिधिमंडल भेजने की वकालत की। 

जानकारों के मुताबिक कश्मीर में हिंसा बढ़ने की एक वजह यह रही कि दक्षिणी कश्मीर के युवा 2010 में हुई हिंसा के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस से काफी नाराज थे। उन्होंने उमर अब्दुल्ला की सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए 2014 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी को वोट दिया। लेकिन पीडीपी और भाजपा के गठबंधन से इन युवाओं ने अपने आपको ठगा हुआ महसूस किया। इसलिए ये युवा सरकार से खुलकर लड़ने लगे हैं जिसकी मिसाल कश्मीर में   दिखाई दे रही है  | बुरहान की मौत ने आग में घी डालने  का काम किया और  जन्नत को सुलगाने   का काम अलगाववादी संगठनों ने किया। उन्होंने कश्मीर  के मुसलमानों को आक्रोशित कर सड़कों पर उतारा। धीरे-धीरे घाटी  सुलगने लगी। मौजूदा दौर में भारत पाक की बातचीत लम्बे समय से बंद है | पी एम मोदी ने बहुत हद तक अपने शपथ ग्रहण समारोह से हमारे पडोसी पाक को सम्बन्ध सुधारने का हर मौका दिया लेकिन पठानकोट के हमले ने सारी उम्मीदों  पर पानी फिर दिया | दूसरा मोदी केंद्र में प्रचंड बहुमत की सरकार चला रहे हैं | पिछली सरकारों के बातचीत के दौर में अलगाववादी नेता अक्सर शामिल हुआ करते रहे हैं लेकिन ऐसा पहला मौका है जब पी डी ऍफ़ और भाजपा सरकार केंद्र राज्य में सत्तासीन होने के बाद भी अलगाववादियों के लिए बातचीत के दरवाजे बंद कर चुकी है जिससे कश्मीर का मुद्दा अधर में लटक गया है | पाक से जब भी बात होती है तो वह कश्मीर पर खुद को भी बातचीत के लिए आमंत्रित करने की बात करता रहा है लेकिन भारत का स्टैंड इस बात पर साफ़ है जब तक पाक आतंक का रास्ता नहीं छोड़ता तब तक उससे किसी तरह की कोई बात नहीं हो सकती इस कशमकस में कश्मीरियत भी उलझ कर रह गयी है   

इधर भारतीय सरकारी एजेंसियों का भी दावा है कि कश्मीर  में चल रहे हिंसक उपद्रव में पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों और एसआई का हाथ है। भीड़ में आतंकी शामिल होकर जवानों पर पेट्रोल बम फेंक रहे हैं जिससे तनाव बढ़ रहा है और इस तनाव से पाक कश्मीर का अन्तराष्ट्रीयकरण करने की दिशा में मजबूती के साथ बढ़ने की तैयारी में है |  जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी  कश्मीर में जारी अशांति के बारे में हाल ही में कहा था कि अलगाववादी पाक की शह पर कश्मीर में माहौल को खराब कर रहे हैं। महबूबा ने कहा कि मस्जिदों से लोगों को उकसाने के लिए नापाक पैगाम दिए जा रहे हैं। अलगाववादी सिर्फ अपने स्वार्थ की खातिर ही ऐसा कर रहे हैं। पाक हवाला के जरिए अलगाववादियों को धन दे रहा है जिससे वे गरीब कश्मीरी लोगों विशेषकर युवाओं को उकसा रहे हैं। असल में इस दौर की सबसे बड़ी  मुश्किल यह है कि हर दल कश्मीर के हालात को अपने नजरिये और वोट बैंक की सियासत के अनुरूप देख रहा है | इस गुणा भाग से  राजनेताओ की सियासत बेशक फीकी पड़ने के साथ चमक सकती है  लेकिन इससे समस्या का समाधान होना दूर की गोटी ही लगता है | सियासत ने वास्तव में कभी कश्मीर और कश्मीरियत को गंभीरता से महसूस किया होता तो जन्नत के हालात आज इस कदर  बेकाबू नहीं होते जहाँ 53 दिन लोगों को अपने कमरों की चहारदीवारी में बैठकर नहीं बिताने पडते और उनके सामने दो जून की रोजी रोटी का सवाल भी नहीं घुमड़ता | 

देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कश्मीरियत इंसानियत और जम्हूरियत में यकीन रखने वाले सभी लोगों को आमंत्रित कर वाजपेयी वाली लीक पर कश्मीर में चलना चाहते हैं |शायद यही वजह है एक दो दिन में कश्मीर में 26 नेताओं के प्रतिनिधिमंडल को भेजने पर गहनता से मंथन चल रहा है | खुद राजनाथ ने अब कश्मीर की कमान अपने हाथ में ली है और वह खुद कश्मीर के नेताओं के साथ बातचीत करेंगे जिसमे अलगाववादी नेताओ से भी बातचीत का नया चैनल खोलने पर विचार चल रहा है  | यानी कश्मीर जाने वाले प्रतिनिधि दल के लोगों को कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मिलने की छूट होगी। अगर ऐसा होता है तो कुछ रास्ता निकलेगा इस बात की उम्मीद तो बन ही रही है |तो मोदी सरकार के अब कश्मीर पर नरम रुख का इन्तजार हर किसी को है  | देखना होगा ऊट किस करवट कश्मीर पर बैठता है ? 

Tuesday, 16 August 2016

जनता को निराश किया पीएम ने





आज से ठीक दो बरस पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने जब लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश के नाम अपना पहला संबोधन दिया था तो हर किसी ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की थी | हर कोई उनकी तारीफों के कसीदे न केवल पढ़ रहा था बल्कि उन्हें लीक से अलग हटकर चलने वाला प्रधानमंत्री भी बता रहा था | वैसे भी इससे पूर्व जितने भी प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से बोले वह कमोवेश बिजली , पानी और शिक्षा , गरीबी जैसे मुद्दों पर ही बात करते नजर आये | यही नहीं मोदी ने नई लीक पर चलने का साहस ना केवल बीते बरस दिखाया बल्कि अपने भाषण से लोगों में  लाल किले  में  उत्साह और उमंग का संचार किया |

मोदी ने ना केवल जोशीले भाषण से सभी का दिल जीतने की कोशिश की बल्कि स्वच्छ भारत , निर्मल भारत और आदर्श ग्राम योजना  और सबका साथ सबका  विकास सरीखे वायदों से राजनीती में आदर्श लकीर खींचने  की कोशिशें तेज की लेकिन  इस बार स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले में  पी एम बदले बदले से नजर आये | इसका एक कारण यह हो सकता है पिछली बार वह दिल्ली के लिए नए थे और उनकी सरकार का हनीमून पीरियड  चल रहा था लेकिन ठीक दो साल के बाद अब सिस्टम के अन्दर काम करने पर उन्हें इस बात का भान हो चला है कथनी और करनी को अमली जामा पहनना इतना आसान नहीं है और वह भी उस देश में जहाँ पर नौकरशाही का दौर हावी हो और हवाई घोषणाओं का पिटारा खुलता आ रहा हो  शायद यही वजह रही प्रधानमंत्री के भाषण में वह तेज गायब था जो पिछली दफा हमें देखने को मिला |

लाल किले से मोदी पहली बार जहाँ 75 मिनट बोले  और दूसरी बार मोदी 86 मिनट बोले वहीँ लाल किले से लगातार तीसरी बार 95 मिनट बोलकर उन्होंने खुद अपना रिकॉर्ड तोड़ डाला | आज़ादी के दौर को याद करें तो उस दौर में नेहरु ने 72 मिनट का भाषण दिया था | इस तरह से मोदी का स्वतंत्रता दिवस पर दिया गया  अब तक का यह सबसे लम्बा  भाषण रहा  |  देशवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने इस बार अपनी सरकार के कामकाज के बखान करने का कोई मौका नहीं छोड़ा संभवतया इसका कारण आने वाले समय में चार राज्यों में होने जा रहे विधान सभा चुनाव हों जहाँ आकंड़ों की बाजीगरी कर पी एम ने जनता को उलझाना मुनासिब समझा हो| 

 लाल किले से दिए गए अपने भाषण में पी एम मोदी ने स्वराज को सुराज में बदलने का संकल्प जताया और सुराज को आम आदमी के प्रति संवेदनशीलता के रूप में परिभाषित किया। अपने भाषण में मोदी सिर्फ और सिर्फ अपनी सरकार के सारे काम ही गिनाये। अस्पतालों में ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन से लेकर पासपोर्ट बनाने में तेजी तक के मसलों को उन्होंने उठाया | कारोबारी माहौल बनाने से लेकर 21 करोड़ लोगों को जनधन योजना से सीधे जोड़ने के मसले पर संवाद स्थापित किया | महंगाई को छह फीसद से नीचे रखने और सस्ते एल ई डी बल्ब दिए जाने को उन्होंने सरकार की बड़ी उपलब्धि बताया | दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने और बीपीएल परिवारों के लिए स्वास्थ्य बीमा, वन रैंक वन पेंशन, उज्ज्वला योजना, बिजली से वंचित अठारह हजार गांवों में से दस हजार गांवों का विद्युतीकरण, जीएसटी विधेयक को संसद की मंजूरी और स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन में बीस फीसद की बढ़ोतरी का जिक्र कर उन्होंने भरोसा दिलाना चाहा कि सरकार लोगों से किए वादे के अनुरूप ही आगे बढ रही है| उन्होंने कहा इस सरकार से लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं | उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाए के भुगतान और गुरु गोबिंद सिंह की तीन सौ पचासवीं जयंती का जिक्र कर उन्होंने उत्तर प्रदेश और पंजाब का दिल जीतने की कोशिश की, जहां कुछ महीनों बाद विधानसभा चुनाव होने हैं।

उन्होंने यह जताने से भी परहेज नहीं किया कि उनकी नीतियों में आदिवासी से लेकर गरीब और शोषित वंचित तबके तक शामिल हैं | गांधी और अम्बेडकर को साधकर उन्होने एक तीर से कई निशाने खेलने की कोशिश की |  पहली बार उनके भाषण में कॉरपरेट और नॉर्थ ईस्ट, टीम इंडिया शब्द गायब दिखा | मोदी ने अपने इस भाषण में  सिर्फ और सिर्फ अपनी सरकार की अब तक की उपलब्धियों का पिटारा ही खोला  |  मोदी ने पिछली बार गाँवों में शौचालय बनाने की बात की थी इस बार भी उन्होंने ढाई करोड़ शौचालय बनाने का काम पूरा होने की बात कही | मोदी के इस बार के भाषण में जहाँ कालाधन  गायब था वहीँ धरती के स्वर्ग कश्मीर के बिगड़ते हालातों और  दलित उत्पीडन की बढती घटनाओंपर कुछ नहीं कहा |   सांसद  आदर्श ग्राम  योजना  की प्रगति , स्वच्छ  भारत , पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढ़ लिए ।   ऐसे मसलों पर देश को पी एम की चुप्पी खूब खली | वह भी स्वतंत्रता दिवस का मौका जब पी एम लाल किले से देश के नाम अपना तीसरा संबोधन कर रहे थे और पिछले दोनों संबोधनों में उन्होंने इस मसले को पूरे देश के सामने उठाया था । 

इस बार पीएम ने पूरे विश्व के सामने पाक को बेनकाब कर दिया | प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान ,गिलगित  ,  पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के हाथों हो रहे मानवाधिकार हनन का मुद्दा उठा कर पाकिस्तान के प्रति सरकार के रुख में बदलाव के कड़े संकेत पहली बार लाल किले से दिए। लाल किले से यह किसी पीएम का पडोसी पर यह पहला सीधा वार रहा |  प्रधानमंत्री ने कहा जब पेशावर के एक स्कूल में आतंकी हमले में बच्चे मारे गए थे तो हमारी संसद में आंसू थे ।  भारतीय बच्चे आतंकित थे । यह हमारी मानवीयता का उदाहरण है लेकिन दूसरी तरफ देखिए जहां आतंकवाद को महिमामंडित किया जाता है ।  पाकिस्तान में बुरहान वानी का  जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह किस तरह की नीति है,जिसमें आतंकवादियों के साथ खुशी मनाई जाती है । 

वैसे प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत ईमानदारी और प्रशासनिक योग्यताओ और बेहतर कप्तान की योग्यताओं  पर शायद ही किसी को संदेह हो क्युकि मोदी एक मंझे  हुए राजनेता हैं और जनता के मूड को बखूबी पढने वाले राजनेता भी जो ऑडियंस देखकर भाषण देते हैं लेकिन लाल किले का इस बार का पूरा भाषण उन्होने न केवल बीच बीच में पर्ची देखकर  पढ़ा बल्कि वह  पानी पीकर धाराप्रवाह बोलते रहे और चुनावी बरस में महज सरकार की उपलब्धियों का ही जिक्र कर वाहवाही लेने की कोशिश की जिसने उस आम आदमी को लाल किले में निराश किया जिसके मन में मोदी ने बीते दो बरस में लाल किले की प्राचीर  से दिए अपने दो भाषणों में  नए  सपने जगाये थे । 

कुल मिलाकर स्वतंत्रता दिवस के अपने तीसरे भाषण में पी एम मोदी का पिछले बरस वाला जोश गायब दिखा | गुजराती दहाड़ भाषण से गायब ही रही शायद पी एम अपनी कैबिनेट इंडिया की फिरकी में उलझकर रह गए जिस कारण कश्मीर के हालातों , दलित उत्पीड़न की बढ़ रही घटनाओं पर  पी एम को न कुछ उगलते बन रहा था और ना ही कुछ निगलते | 

Tuesday, 9 August 2016

रुपानीराज में गुजरात की चुनौतियां

                 



जिस समय भाजपा की कोर टीम अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई में यू पी चुनावों की बिसात बिछाने में लगी हुई थी ठीक उसी समय भाजपा शासित राज्यों के माडल स्टेट गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने फेसबुक पर गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश कर भाजपा आलाकमान की चूलें हिलाने का काम कर दिया |  हालाँकि आनंदी बेन के बारे में कई महीनो से कयास लग रहे थे कि वो किसी राज्य की राज्यपाल बनायी जा सकती हैं लेकिन एकाएक इस्तीफे ने भाजपा के भीतर न केवल हलचल मचा दी बल्कि विपक्षियों को भी बैठे बिठाए एक मुद्दा दे दिया |  भाजपा अपने को चाल चलन और अलग चेहरे वाली पार्टी के रूप में प्रचारित कर अक्सर संसदीय लोकतंत्र और पार्टी के संसदीय बोर्ड की दुहाई देकर अपने को पार्टी विथ डिफरेंस कहती आई है लेकिन आनंदी के फेसबुक पर लिखे इस्तीफे ने चुनावी बरस में भाजपा की चिंताओं को तो बढ़ा ही दिया   |

आनंदी  के  इस्तीफे के मजमून  को समझें  तो आगामी 21 नवम्बर को 75 बरस में प्रवेश कर रही हैं लिहाजा बढती उम्र सीमा और नई भाजपा में 75 से अधिक के नेताओं के किसी पद पर विराजमान न होने की लक्ष्मण रेखा के निर्धारित होने के चलते उन्होंने यह फैसला किया है | लेकिन असल सवाल यह है आखिर तीन महीने पहले आनंदी ने इस्तीफे की पेशकश  क्यों की ?आखिर ऐसा क्या हो गया जो उन्होंने पार्टी के फोरम पर गुजरात से जुड़े सवालों को ना उठाकर सीधे सोशल मीडिया पर ही  इस्तीफ़ा दे  डाला ? उम्र तो एक बहाना है इसकी असल वजह भाजपा का गुजरात में दिन प्रतिदिन गिरता जनाधार और अमित शाह के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा भी  रहा | 

22 मई 2014 को आनंदी की जब सी एम पद के रूप में ताजपोशी हुई तो किसी ने भी नहीं सोचा था जिस गुजरात को मोदी ने अपनी छाव तले हिन्दुत्व के तडके के साथ ब्रांड गुजरात के साथ जोड़ने की कोशिश की थी उसी गुजरात में भाजपा के दुर्दिनो की शुरुवात मोदी के 7 रेस कोर्स आने के बाद शुरू हो जाएगी | असल में आनंदी मोदी के जाने के बाद सही मायनों में गुजरात को नहीं संभाल पाई |  आनंदी के कार्यकाल का सबसे बडा  रोड़ा हार्दिक पटेल का पाटीदार आन्दोलन रहा जिसने पूरे गुजरात में भाजपा विरोध की लेकर पैदा कर दी | अगस्त 2015  में पाटीदार आन्दोलन के बाद से ही लग गया था आनंदी से गुजरात संभालना मुश्किल हो रहा है  |  उसके  बाद से ही  पटेलों में असंतोष इस कदर बढ़ गया कि  हाल में संपन्न पंचायत चुनावों और नगर निगम के चुनावों में भाजपा ढेर हो गयी | भाजपा  को  31 में से 23 जिला पंचायतो में करारी हार का सामना करना पड़ा | शहरी इलाकों में जहाँ भाजपा का वोट प्रतिशत 50 फीसदी के आस पास था वहां वह घटकर 43 फीसदी पर जा पहुंचा और विपक्षी कांग्रेस ने अपने ग्रामीण जनाधार में इजाफा कर अपना वोट प्रतिशत 47 फीसदी कर कर डाला | इसके बाद से ही दिल्ली में बैठे भाजपा आलाकमान के तोते उड़ने लगे | रही सही कसर  11 जुलाई को उना में गौ रक्षकों के द्वारा दलितों की निर्मम पिटाई दी पूरी कर दी जिसने सड़क से लेकर संसद तक विपक्षियों को बैठे बिठाए एक बड़ा मुद्दा दे दिया | ऊना काण्ड से  पूरे देश में दलितों के खिलाफ गलत सन्देश पूरे देश में चला गया और पूरे मीडिया ने इसकी व्यापक कवरेज की जिसके चलते गुजरात के फब्बारे की हवा निकल गयी | दलित मुद्दा सियासी बिसात के केंद्र में हर उस राज्य में है जहाँ आगामी समय में चुनाव होने हैं | पंजाब,यू पी और उत्तराखंड के चुनावों में यह मुद्दा हावी होने का अंदेशा बना हुआ था और गुजरात में भी इसको हवा मिलनी शुरू हो गयी थी जिसके चलते भाजपा की छवि और खुद पी एम मोदी की छवि पर ग्रहण लगने की आशंका बनी हुई थी | 

इससे आभास हो चला था कि राज्य में कानून व्यवस्था काफी लचर है और व्यवस्था को संभाल पाने में आनंदी असहज हैं | गुजरात को माडल स्टेट का दर्जा भले ही भाजपा देती रही हो लेकिन असल सच यह है मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात अमित शाह ने हाईजैक कर लिया | आनंदी के समर्थकों की मानें तो राज्य के तमाम मंत्रीगण और आला अधिकारी सीधे अमित शाह को रिपोर्ट करने लगे थे जिससे आनंदी बेन के सामने मुश्किलें खड़ी हो गयी थी और गुजरात के शासन प्रशासन में अपने दखल न होने से वह कई दिनों से खुद को असहज पा रही थी | मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात के हालत खराब हो गए जिसके चलते पार्टी को पूरे देश में बड़ी नाराजगी उठानी पड़ सकती थी इसलिए समय से पहले आनंदी ने इस्तीफे की पेशकश कर भाजपा को राहत देने का काम किया लेकिन आंनदी बेन के उत्तराधिकारी के लिए आंखरी समय तक जिस अंदाज में शह मात का खुला खेल भाजपा के मॉडल स्टेट गुजरात में मचा  उसने पहली बार भाजपा की गुटबाजी को सतह पर ला दिया । 

  गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए नितिन पटेल का नाम लगभग तय हो गया था  लेकिन आखरी समय में  अमित शाह ने बाजी पलट कर रख दी ।  हालाँकि नितिन के अलावे भूपेंद्र सिंह चूड़ासमा, वित्त मंत्री सौरभ पटेल और राज्य बीजेपी अध्यक्ष और जल संसाधन और  विधानसभा अध्यक्ष तथा आदिवासी नेता गनपत वासवा के बीच अगले मुख्यमंत्री के कई दावेदार भाजपा के  सामने आये  लेकिन मोदी और शाह की रजामंदी  रूपानी  पर जाकर टिक गई  ।  यह नई  भाजपा का असल सच है जहाँ मोदी और शाह  दोनों एक दूसरे की जरूरत बन चुके हैं । इसका प्रभाव मंत्रिमंडल विस्तार से लेकर  संगठन सभी जगह देखा जा सकता है जहाँ शाह मोदी की रजामंदी के बिना भाजपा का पत्ता भी नहीं हिलता । 

 अस्सी के दशक में कांग्रेस ने गुजरात में राज करने के लिए खाम यानि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान गठजोड़ बनाया था । इसे टक्कर देने के लिए पटेल समुदाय ने भाजपा का हाथ थामा था  तब से पटेल (लेउवा और कडवा ) भाजपा की ही  गिरफ्त में हैं और पाटीदार आंदोलन के बाद भाजपा किसी  भी तरह  गुजरात में पटेलों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती लिहाजा सारे समीकरणों को साधते हुए उसने नितिन पटेल का नाम डिप्टी सी एम के रूप में चला और मंत्रिमंडल में बड़े पैमाने में पटेल समुदाय को प्रतिनिधित्व दिया ।   वैसे भी गुजरात में अगले बरस चुनावी डुगडुगी  बज रही है लिहाजा विजय रूपानी और  नितिन पटेल  की जोड़ी को आगे कर भाजपा अपना  गढ़  गुजरात  बचाने की अंतिम कोशिश में है । विजय रूपानी को आमतौर पर संगठन का आदमी माना जाता है ।  गुजरात भाजपा में उनकी अच्छी पकड़ है ।  जैन समुदाय से आने वाले रूपानी गुजरात भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर भी काबिज हैं ।   आरएसएस  के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले रूपानी आपातकाल के दौरान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था ।  आपातकाल के दौरान इन्हें जेल भी जाना पड़ा ।  एक सामान्य पार्षद से लेकर गुजरात भाजपा में कद्दावार नेता तक का सफर तय करने वाले रूपानी राजकोट का मेयर भी रह चुके हैं । साथ ही विजय रूपानी आनंदीबेन की सरकार में ट्रांसपोर्ट, वाटर सप्लाय, लेबर व रोजगार मंत्रालय संभाल चुके हैं ।  विजय रूपानी के सांगठनिक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह  चार बार गुजरात भाजपा के महासचिव रह चुके हैं  वहीँ नितिन पटेल गुजरात सरकार में सबसे अनुभवी और वरिष्ठ मंत्री रह चुके हैं ।  वह  गुजरात सरकार के सभी विभागों के मंत्री रह चुके हैं । वह काफी सुलझे हुए नेता हैं  ।  नितिन पटेल गुजरात के मेहसण्डा जिले  ताल्लुक रखते  हैं और मेंहसण्डा पाटीदार आंदोलन का गढ़ रहा  है। भाजपा आलाकमान और  पार्टी नेतृत्व का मानना है कि नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री बनाने से पाटीदार आंदोलन ठंडा पड़ जायेगा ।  गुजरात के मौजूद हालातों के मद्देनजर एक  पटेल को दीप्ती सी एम और पटेलो को मंत्रिमंडल में भागीदारी देने से पाटीदार आंदोलन के सुर ठन्डे पड जाएंगे ।विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय भले ही चौंकाने वाला फैसला है लेकिन मोदी -शाह की जोड़ी ने पहले भी ऐसे कई फैसले लिये हैं ।  हाल के बरस में देखें तो महाराष्ट्र में एकनाथ खड़से की जगह देवेंद्र फड़नवीस को सीएम बनाया गया  वहीँ   जाटलैंड हरियाणा में  पहली बार जाट नेता को किनारे कर एक पंजाबी बिरादरी से आने वाले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया । आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में पहली बार एक गैरआदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को चुना गया । 

अगले बरस गुजरात में चुनाव है जिसमे पी एम  मोदी की प्रतिष्ठा भी दांव  पर है । मोदी के लिए गुजरात की क्या अहमियत है यह इस बात से समझी जा सकती है गुजरात में उनकी जड़ें गहरी हैं जिसके सरदार बनने के बाद ही वह पी एम की कुर्सी पर बैठ पाए । ऐसे में रूपानी के सामने अब बहुत विकट  चुनौती गुजरात के सरोवर में भाजपा का कमल खिलाना है । मोदी के दिल्ली जाने के बाद बीते दो बरस में भाजपा के गुजरात मॉडल पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं । पाटीदारों का गुस्सा जहाँ बरक़रार है वहीँ ऊना  की घटना से दलित आक्रोश अभी थमा  नहीं है । गुजरात की विकास दर भी मौजूदा  दौर में गिर चुकी है वहीँ बेरोजगारी का संकट दिनों दिन बढ़ता जा रहा है । ऐसे हालातों में रूपानी के सामने गुजरात की विकट  चुनौतियां सामने हैं जिनसे पर पाना उनके लिए आसान नहीं होगा  और गुजरात की हार जीत  के साथ उत्तर प्रदेश , पंजाब , उत्तराखंड , मणिपुर , गोवा का चुनाव  2019  में मोदी सरकार का एसिड टेस्ट करेगा  । साथ ही  गुजरात में आनंदीबेन के समर्थको को साधना भी रूपानी के लिए  आसान नहीं होगा क्योंकि जिस तर्ज पर आनंदीबेन के करीबियों को अमित शाह ने ठिकाने  लगाया है उससे   मुश्किलें बढ़नी तय हैं । बहुत सम्भव है आने वाले बरस में होने वाले चुनाव में  टिकट चयन में शाह और रूपानी की ही चलेगी ऐसी सूरत में इन विधायकों को आनंदी के करीबी होने का खामियाजा भुगतना पड़  सकता है । ऐसी परिस्थितियो में रूपानी को  फूक फूक कर कदम रखने होंगे और अपने हर फैसले में नितिन पटेल को भी साधना जरूरी होगा । नितिन पटेल का सी एम बनना पहले से तय था लेकिन आखिरी समय में बाजी अमित शाह ने पलट दी जिससे नितिन भीतर ही भीतर  खफा हैं । उनके समर्थक पटेल समुदाय के लोग इसके खिलाफ राज्य की सडकों पर प्रदर्शन तक कर चुके  हैं । हालांकि संसदीय बोर्ड  के नाम पर रूपानी को सी एम  बना दिया गया है लेकिन गुजरात भाजपा में अब भी सब ठीक नहीं है । अगर ऐसा ही रहा तो  गुजरात में आनंदीबेन के इस्तीफे के बाद  गुटबाजी भाजपा को नुकसान जरूर पहुंचाएगी। नितिन पटेल और विजय रूपानी की आपसी खींचतान में सरकार भले ही अपना कार्यकाल पूरा कर ले लेकिन  एंटी इनकंबेंसी  भाजपा का खेल बिगाड़ न दे  अगर ऐसा हुआ तो यह मोदी और शाह की जोड़ी की भी  हार होगी । अब देखना होगा नए सी एम  रूपानी इन चुनौतियों से कैसे निपटते हैं ? 

Sunday, 22 May 2016

5 राज्यों के जनादेश के मायने



     



 पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे ममता , जयललिता और भाजपा  के लिए खास ही नहीं ऐतिहासिक भी रहे। पश्चिम बंगाल में ममता जहाँ  पुराने  वाम दुर्ग  को पूरी तरह  नेस्तनाबूद करने में सफल हुई  वहीँ  तमिलनाडु में जया की फिर से सत्ता में वापसी हुई ।  कांग्रेस असम में हैट्रिक लगाने के बाद पूरी तरह साफ़ हो गई तो केरल में भी उसे करारी  हार का सामना करना पड़ा । द्रमुक कांग्रेस की लाज पुदुचेरी ने बचाई | इन तमाम नतीजों के संकेत साफ हैं कि आज के वोटर का मिजाज बदल रहा है ।  अब वह विकास और स्थिर सरकार के लिए मतदान कर रहा है । 5  राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने साफ संकेत दिए हैं। मसलन कांग्रेस सिकुड़ रही है और  राज्यों में सत्ता से एक एक करके  बेदखल होकर कमजोर हो रही है वहीँ भाजपा असम में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करने के साथ दक्षिण के राज्यों में अपने वोट बैंक को  बढ़ा रही है । पश्चिम बंगाल में अपनी संख्या में बढ़ोत्तरी और केरल में खाता खोलकर भाजपा  ने  दिल्ली बिहार की करारी  पराजय पर मरहम लगा दिया है वहीँ पश्चिम बंगाल के जनादेश ने इशारा किया है  कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर भी वामपंथी दल  ढलान  पर हैं | कांग्रेस के लिए थोड़ी राहत  पुदुचेरी ने दी है | 

 पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण बात पश्चिम बंगाल में ममता की दो तिहाई बहुमत से जीत है |  वाम दुर्ग के पतन के साथ ही यहाँ पर  कांग्रेस  वाम गठजोड़ इस चुनाव में पूरी तरह  ढह गया । कांग्रेस इस चुनाव में जिस तरह साफ़ हुई है उससे पार्टी के भीतर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं | आज देश में कांग्रेस जहाँ 6 फीसदी भू भाग पर सिमट चुकी है वहीँ भाजपा की ताकत बढ़कर अब 36 फीसदी भू भाग तक पहुँच चुकी है | इन नतीजों के बाद बीजेपी का राज 9 राज्यों में हो जाएगा |  इसके साथ ही बीजेपी की सरकार देश के 36 फीसदी आबादी पर होगी, एनडीए गठबंधन की बात करें तो यह आंकड़ा 43 के पार पहुँच गया है | 

कांग्रेस मुक्त भारत का नारा नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान दिया था और लगता है कि  यह नारा सही साबित हो रहा है|   कांग्रेस के लिए पांच राज्यों के चुनाव नतीजे  सबसे बुरे रहे | पश्चिम बंगाल में अप्रत्याशित कुछ भी नहीं रहा। वहां ममता के किला फतह करने और वाम दुर्ग के ध्वस्त होने का अनुमान  एग्जिट पोलों  में पहले से ही लगाया जा रहा था। इस सूबे में  वाम शासन वापस आना अब दूर की गोटी लगता है । कांग्रेस के साथ गठबंधन के बाद भी उसका वोट प्रतिशत ना बढ़ना अब उसके कैडर के सामने एक बड़ी चुनौती है ।  ममता बनर्जी की तृणमूल  ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया। तृणमूल सिर्फ अपने बलबूते बहुमत ले आयी । लंबे संघर्ष  के बाद ममता बनर्जी का  दूसरी बार बहुमत के साथ राइटर्स बिल्डिंग में बैठने का सपना सच हो गया। अपनी विजय को ममता ने मां, माटी और मानुष की जीत बताया है। एक दौर में पश्चिम बंगाल में  शासन मतलब वाम का शासन हो गया था। उसने साढ़े तीन दशकों तक बदलाव की बयार को रोके रखा था। उसकी कमाल की किलेबंदी थी। राज्य के कोने-कोने में जाल फैला रखा था। जिसे उधेड़ पाना मुश्किल था। मगर ममता की आंधी से सब कुछ तहस-नहस हो गया। न किला बचा, न कैडर, न तिकड़म और जाल-ताल। कांग्रेस के साथ गठबंधन का भी वोटरों ने जनाजा निकाल दिया | 

 बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी की | उनकी बादशाहत को लेफ्ट और कांग्रेस मिलकर भी चुनौती नहीं दे सका | ममता ने चुनाव में विकास के नारे को जोर-शोर से उठाया |  आम जनता और गरीबों के लिए वह कई  योजनाएं लेकर आईं | ममता की जीत में राज्य की 30 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी  और मुस्लिम वोट बैंक का भी अहम रोल रहा | इसके अलावा दीदी की अनुसूचित जाति, जनजाति और महिला मतदाताओं में भी गहरी पैठ थी | ममता को इन लोगों ने दिल खोलकर वोट दिया|  विपक्ष ने शारदा घोटाले और नारद स्टिंग  और विवेकानंद फ्लाईओवर का मुद्दा भी इस चुनाव में जोर शोर से उछाला था लेकिन वोटरों ने इसे नकार दिया | ममता को इस चुनाव में 47% वोट हासिल हुए वहीँ  कांग्रेस को करीब 12 फीसदी वोट मिले |  लेफ्ट को करीब 20 फीसदी से ज्यादा वोट मिले |  बंगाल जीतने का  श्रेय ममता बनर्जी को जाता है जिनकी लोकप्रियता ने आज भी ग्रामीण इलाकों में उनके वोट बैंक को सुरक्षित रखा बल्कि जनता ने भी उनके विकास कार्यो पर अपनी मुहर लगाई ।

तमिलनाडु में जय ललिता की वापसी भी दिलचस्प है ।तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रविड़ मनेत्र कड़गम द्रमुक पुराने प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। दोनों के हाथ में सत्ता आती जाती रहती हैऔर यहाँ सत्ता हर पांच बरस में बदलती ही रही है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो सका |   अम्मा की जीत ने 50 और 60 के दशक की यादें ताजा करने के साथ ही  80 के दशक में एम जी आर के करिश्मे की याद दिला दी । 28 साल बाद  तमिलनाडु में  कोई पार्टी दोबारा सत्ता में आई है |  अम्मा ने पहले  पिछला विधानसभा चुनाव जीता। इसके बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के दिग्गज नेता 2 जी स्पेक्ट्रम की चपेट में आ गये। इसने अम्मा के लिए सारा मैदान खोल दिया | फिर लोक सभा चुनावों में अपनी सीटों में इजाफा कर दिया |  इस चुनाव में  जयललिता को जहाँ 41 फीसदी वोट मिले वहीँ डीएमके को 31 और कांग्रेस को 6.5 फीसदी |   बीजेपी भी  2  फीसदी  वोट अपने नाम कर गई | तमिल जनता ने जया के विकास कार्यो और उनकी योजनाओं पर अपनी मुहर लगाकर यह साफ़ कर दिया आज के चुनावों में विकास एक बड़ा मुद्दा बन गया है | 


 वहीँ  असम के नतीजे जरूर अहम हैं जहां कांग्रेस का सफाया इस अंदाज में होगा इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी । गोगोई अपने दम पर सरकार बनाने का सब्जबाग़  केन्द्रीय नेतृत्व को दिखा रहे थे लेकिन एंटी इन्कम्बैंसी ने उनका खेल इस बार बिगाड़ दिया । साथ ही भाजपा की सधी हुई रणनीति से कांग्रेस असम में चित्त हो गई ।  इन नतीजों के साफ संकेत हैं कि जनता को अब विकास चाहिए चाहे वो कोई भी दल क्यों न हो। विचारधारा का जमाना बीत गया। दलों के नामों का भी कोई खास मतलब नहीं रहा | इस बार बीजेपी गठबंधन को 40  फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं | इसका बड़ा कारण कांग्रेस और बदरुद्दीन की ए आई यू डी एफ का अलग अलग लड़ना रहा जिससे दोनों के वोट बैक में बिखराव का सीधा फायदा भाजपा को मिला | साथ ही सर्वानन्द सोनेवाल के चेहरे को आगे कर भाजपा ने अपना मिशन असम पहले ही चला दिया था जिसके चेहरे का सीधा लाभ भाजपा को मिला | लोक सभा में जहाँ भाजपा ने 7 सीटें जीतकर सभी को चौंका दिया था वहीँ असम में सरकार बनाकर उसने नया इतिहास रच दिया |कांग्रेस से लगभग चार गुना सीटें लाना भाजपा की मजबूरी के साथ कांग्रेस की कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। भाजपा और संघ के कैडर में इसे लेकर एक नया जोश भी है क्युकि असम से वह पूर्वोत्तर के पडोसी राज्यों में भी अपनी अखिल भारतीय पहचान को बना सकती है |  
 

पश्चिम बंगाल की तरह केरल में भी  यू डी एफ शासन हाथ से फिसला है। केरल विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनावों में वाम मोर्चा के समर्थन वाली एलडीएफ  को  जीत  मिली है।  कांग्रेस के नेतृत्व वाला यू डी एफ को  इस चुनाव में करारी शिकस्त मिली है | केरल के मतदाताओं का यह मिजाज रहा है कि वे सत्ता पार्टी को रिपोर्ट नहीं करतै। यहां अपने गढ़ में वामपंथी ने अपनी थोड़ी बहुत प्रतिष्ठा बचा ली है जो पश्चिम बंगाल में गंवाई है। यहां एलडीएफ को  यू डी  एफ  से दो गुनी सीटें मिली है।एल डी एफ  की जीत  को भ्रष्टाचार के खिलाफ जीत के तौर पर देखा जा सकता है और तमिलनाडु, पुडुचेरी के नतीजे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि मतदाता भ्रष्टाचार बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। लेकिन असम में कांग्रेस की हैट्रिक यह बताती है कि वहां स्थानीय विकास अब चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है। पुडुचेरी में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी। 30 सीट  वाले इस केन्द्र शासित प्रदेश में कांग्रेस (एनआई) और एडीएम के गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। कांग्रेस केवल एक ही सीट पर जीत हासिल कर पाई है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राज्यों के विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे ही हावी रहे। उनके परिणामों को केन्द्र की पार्टी कांग्रेस की सफलता-असफलता से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। 
 
पुदुचेरी में इस बार द्रमुक  और कांग्रेस  गठबंधन की जीत हुई है |  इस जीत के साथ ही कांग्रेस ने रंगासामी  से बदला ले लिया है |  रंगासामी  ने एन आई एन आर सी का गठन कांग्रेस से अलग होकर ही किया था |   पुदुचचेरी के इस विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी एआईएनआरसी 30 में से महज 8 सीटें ही जीत पाई और तीन बार मुख्यमंत्री रहे एन रंगासामी अपनी पार्टी को हार से नहीं बचा पाए | कुल मिलाकर चार राज्य के विधानसभा चुनाव के नतीजों से कांग्रेस ने दो राज्य असम और केरल गंवा दिए। तमिलनाडु में निराशा मिली है। पश्चिम बंगाल में उनकी भद्द पिटी है। भाजपा के लिए ये अच्छे दिनों की शुरुवात है लेकिन 2017 में यू पी , पंजाब , उत्तराखंड सरीखे कई राज्यों में यह मैजिक कितना चल पाता है यह देखने वाली बात होगी |

Tuesday, 17 May 2016

अमर सिंह की घर वापसी के मायने


 उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी  ने राज्यसभा और प्रदेश विधान परिषद के आगामी चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार  मंगलवार को सर्वसम्मति से तय कर घोषित कर दिए। इनमें हाल में सपा में वापस आये पूर्व केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के अलावा अमर सिंह तथा बिल्डर संजय सेठ भी शामिल हैं।गौरतलब है कि बोर्ड के सदस्य सपा के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव और प्रदेश के वरिष्ठ काबीना मंत्री आजम खां अमर सिंह के मुखर विरोधी रहे हैं। राज्यसभा भेजे जाने के मद्देनजर अमर सिंह की सपा में वापसी के सवाल पर यादव ने कहा कि इस बारे में सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव कोई निर्णय लेंगे। बहरहाल, राज्यसभा का अधिकृत प्रत्याशी बनाने के बाद अमर सिंह की सपा में वापसी मात्र औपचारिकता भर  रह गई है।

बीते मंगलवार  को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के आवास का नजारा देखने लायक था | नेता जी के प्रति अमर सिंह का प्रेम एक बार फिर जागने के कयास लगने शुरू हो गए हैं और पहली बार इन मुलाकातों के बाद एक नई तरह की किस्सागोई समाजवादी राजनीति को लेकर शुरू हो गयी है | यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण  है क्युकि सूबे के युवा सी एम अखिलेश भी इस दौरान  नेताजी से मिले और अमर सिंह के मसले पर  साथ बैठकर उन्होंने  अपनी  भावी राजनीति को लेकर कई चर्चाएँ भी की  | सभी ने अपने रणनीतिकारों को साधकर  कई घंटे बैठकर  यू पी की सियासत को साधने और मिशन 2017 को लेकर भी  मैराथन मंथन किया  | राज्य सभा की सीटों पर अपने प्रत्याशियों के नाम के एलान के साथ ही उत्तर प्रदेश की  राजनीतिक  बिसात के केंद्र  में अमर सिंह एक बार फिर आ गये हैं ।  दरअसल सपा ने अपने सभी  राज्यसभा उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर दी जिसमें अमर सिंह का नाम भी शामिल  है ।  इसके बाद से ही अमर सिंह का सेंसेक्स  एक बार फिर सातवें  आसमान पर चढ़ गया है ।  ऐसे में संभावना है कि उन्हें  राज्य सभा का टिकट मिलने के बाद देर सबेर उनकी सपा में घर वापसी तय  है ।

यह तीसरा ऐसा  मौका है  जब अमर सिंह नेता जी के साथ मिलकर हाल के दिनों में गलबहियां  सक्रियता बढाकर उत्तर प्रदेश के हालात को लेकर  चर्चा की है   |  इससे पहले छोटे लोहिया के रूप में पहचान रखने वाले खांटी समाजवादी जनेश्वर मिश्र के नाम पर बने पार्क के उद्घाटन के मौके पर दोनों ने साथ मिलकर सार्वजनिक मंच पहली बार साझा किया था हालांकि इस  समारोह में  भी सपा से निकाले गए अमर सिंह के आने की खबरें हवा में तैरने लगी थी लेकिन समाजवादी पार्टी से जुडे़ कार्यकर्ताओं से लेकर विधायकों तक को उम्मीद नहीं थी कि अमर सिंह सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ मंच साझा कर सकते हैं  लेकिन राजनीती में कुछ भी संभव है लिहाजा इस बार भी नेताजी के  साथ बैठने से कई कयासों को न केवल हवा मिलनी शुरू हुई  बल्कि अमर सिंह के सपा प्रेम के जागने के प्रमाण मिलने शुरू हो गए लेकिन विरोधियों के चलते नेताजी उन्हें वापस लाने के सहस नहीं जुटा पाए । 

लोकसभा चुनाव में भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ब्रह्मास्त्र को छोड़ने के बाद अब सपा को समाजवादी राजनीति साधने के लिए एक ऐसे कुशल प्रबंधक की आवश्यकता है जो नमो के शाह की बराबरी कर सके लिहाजा नेता जी भी अमर सिंह के साथ अब गलबहियां करने में लगे हुए हैं | वह एक दौर में नेता जी के हनुमान रह चुके हैं |  नेता जी भी इस बात को बखूबी समझ रहे हैं अगर यू पी में उन्हें मोदी के अश्वमेघ घोड़े की लगाम रोकनी है तो अमर सिंह सरीखे लोगो को पार्टी में वापस लाकर ही 2017  में होने वाले विधान सभा चुनाव तक  अपना जनाधार ना केवल मजबूत किया जा सकता है बल्कि कॉरपरेट की छाँव तले समाजवादी कुनबे में विस्तार किया जा सकता है | अमर की पार्टी में दोबारा  वापसी की अटकलें अब राज्य सभा का टिकट मिलने के साथ ही  फिलहाल तेज हो चली हैं। 

हालाँकि सब कुछ तय करने की चाबी खुद नेता जी के हाथो में है लेकिन  अब उनकी पार्टी में वापसी को लेकरबड़ी भूमिका देखने को मिल सकती है |  नेता जी के साथ हाल के दिनों में  अमर सिंह की मुलाकातों ने एक बार फिर उनके सपा में शामिल होने के कयासों को बल तो दे ही  दिया है |  हालाँकि एक दौर में  अमर सिंह  ने खुद कहा था कि वह किसी राजनीतिक दल में शामिल होने नहीं जा रहे हैं ।  सक्रिय राजनीति में उनकी जिंदगी के 19  साल खर्च हुए हैं और अब वह भविष्य  में राज्यसभा का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दोबारा प्रयास नहीं करेंगे लेकिन राजनीती तो संभावनाओं का खेल है । यहाँ कुछ भी संभव है लिहाजा अमर सिंह भी  बीती बातें भुलाकर राज्य सभा में जाने को बेताब हैं ।

अमर सिंह की सपा में एक दौर में ठसक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1995 में पार्टी ज्वॉइन करने के बाद नेताजी और सपा दोनों  को दिल्ली में स्थापित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।  तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने और उसमें नेताजी  की भूमिका बढ़ाने में भी अमर सिंह ही बड़े  सूत्रधार थे वहीँ इंडो यू एस न्यूक्लियर डील में भी कड़ी का काम अमर सिंह ने ही किया जब उनके सांसदों ने मनमोहन सरकार की लाज यू पीए सरकार को  बाहर से समर्थन देकर बचायी |  यू पी की जमीन से इतर पहली बार विभिन्न राज्यों में पंख पसारने में अमर सिंह के मैनेजमेंट के किस्से आज भी समाजवादी कार्यकर्ता नहीं भूले हैं | सपा में शामिल होने के बाद किसी एक नेता का इतना औरा सपा में इतना नहीं होगा जितना उनका था। उन्होंने पार्टी को फिल्मी सितारों के आसरे एक पंचसितारा रंग देने की  भरपूर कोशिश की थी। एक वक्त था जब अमर सिंह फैसले लेते थे और मुलायम उन फैसलों को स्वीकार कर लेते थे।दोनों एक जिस्म दो जान थे । उनके लिए गए फैसलो पर रजामंदी हुआ करतीं थी ।  बाद में एक वक्त ऐसा भी आया जब वह मुलायम के बेहद करीबी आजम खान के लिए गले की हड्डी बन गए | सपा में अमर सिंह की गिनती एक दौर में नौकरशाहों  से लेकर  बालीवुड उद्योगपतियों के बीच खूब जोर शोर से होती थी लेकिन पंद्रहवी लोक सभा चुनाव में मिली पराजय और आतंरिक गुटबाजी ने अमर सिंह की राजनीती का बंटाधार कर दिया | 2010  में उन्हें पार्टी से  बाहर निकाल दिया गया  जिसके बाद 2012  में विधान सभा चुनाव और 201 4 के लोक सभा चुनाव में सपा के विरोध में उन्होने अपने उम्मीदवार खड़े किये लेकिन करारी हार का सामना करने को मजबूर उन्हें होना पड़ा |  आजम खान को जहाँ उनके दौर में पार्टी से निकाल  दिया गया वहीँ अमर सिंह  के रहते एक दौर में  आजम खान सपा में नहीं टिक  सके |  यह अलग बात है आजम खान अमर की विदाई और कुछ समय जुदाई के बाद वह खुद सपा में चले आये |

 अमर सिंह के पार्टी में बढ़ते प्रभाव का नतीजा यह हुआ कि पार्टी के संस्थापक रहे नेता धीरे-धीरे दूर होने लगे। उनका आरोप था कि अमर के चलते पार्टी अपना परंपरागत  वोट बैंक खोती जा रही है। आखिरकार वह वक्त भी आ गया जब उन्हें मुलायम सिंह नजर अंदाज करने लगे। देखते ही देखते हालात बिगड़ते चले गए। उन्होंने बयान दे दिया कि मुलायम सिंह और उनके परिवार ने उनकी गंभीर बीमारी के दौरान कोई सहानुभूति नहीं रखी। इसके बाद  पार्टी ने अमर सिंह, जया प्रदा और 4 अन्य विधायकों को निष्कासित कर दिया। अमर सिंह की अगर सपा में दुबारा इंट्री होती  है तो  नगर विकास मंत्री आजम खां पार्टी से बाहर जाने का रास्ता तैयार कर सकते हैं | कल सपा  संसदीय  बोर्ड की मीटिंग को भी वह बीच में छोड़ कर चले गए ऐसी खबरें मीडिया में हैं  ।  बीते कुछ महीनो पहले आजम खां ने इस संभावना से इनकार नहीं किया था कि यदि अमर सिंह सपा में वापस आए तो उन्हें बाहर जाना पड़ सकता है | उन्होने तो खुले मंच से यहां तक कह दिया था अमर सिंह के आने के बाद खुद उनका अस्तित्व खतरे में पड  सकता है | नेताजी के बर्थडे के मौके पर भी अमर सिंह और आजम खान को लेकर खूब तलवारें भी बीते बरस  सैफई में खिंची | जहाँ  मुलायम सिंह के जन्मदिन के कार्यक्रम में  बीते बरस अमर सिंह के आने पर आजम ने करारा हमला किया वहीँ यह कहा  कि जब तूफान आता है तो कूड़ा करकट भी घर में आ जाता है। आजम खान और अमर सिंह के बीच संबंध काफी समय से तल्ख़ रहे हैं । अमर सिंह ने कहा था कि उन्होंने मुलायम के साथ 14 साल काम किया है । वह मुलायम की पार्टी में हों या ना हों लेकिन उनके दिल में जरूर हैं । अमर सिंह की इसी बात पर निशाना साधते हुए आजम ने उन्हें इशारों ही इशारों में 'कूड़ा-करकट' कहा था जिसके बाद से शीत युद्ध का दौर आज तक  थमा नहीं है ।

  वैसे अमर सिंह को सपा में वापस लाए जाने की तैयारी  2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही एक बार शुरू हो गई थी लेकिन आजम खां के वीटो के बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपना इरादा बदल दिया था। अब इस बार क्या होगा यह देखना बाकी है क्युकि आजम के अलावे सपा में अमर विरोधियो की लम्बी चौड़ी फेहिरस्त मौजूद है ।    इतिहास समय समय पर खुद को दोहराता है और संयोग देखिये सपा के पूर्व महासचिव बेनी प्रसाद वर्मा ने भी अमर सिंह के कारण ही समाजवादी पार्टी को एक समय अलविदा कहा था। अब लगभग 6 साल बाद न सिर्फ अमर सिंह का  नेता जी के साथ मिलन होना तय है बल्कि वही बेनी प्रसाद न केवल सपा को दुबारा ज्वाइन कर चुके हैं बल्कि अमर सिंह के साथ फिर राज्यसभा में इंट्री करने को बेताब हैं । 

 अमर सिंह की  मैनेजरी  के किस्से  यू पी की सियासत में कोई नए नहीं हैं । नेताजी आज भी उन्हें पसंद करते हैं  और राज्य सभा में भेजे जाने के बाद अब  आने वाले दिनों में समाजवादी सियासत का एक नया मिजाज हमें देखने को मिल सकता है |  अमर सिंह  और आजम खां का छत्तीस का आंकड़ा  भले ही जगजाहिर है लेकिन नेता जी और अमर सिंह का दोस्ताना  आज भी सलामत है शायद यही वजह है  अमर सिंह ने हर उस मौके को भुनाने का  प्रयास किया है जहाँ उन्हें फायदा  नजर आता है |  जनेश्वर पार्क के उद्घाटन के मौके पर भी कई बरस पहले  वह  नेता जी की तारीफों के पुल बांधकर साफ संकेत दे चुके थे  साईकिल  की सवारी करने में उन्हें कोई ऐतराज नहीं है | राजनीती में  किसी के दरवाजे कभी बंद नहीं किये जा सकते  और संयोग देखिये अमर सिंह के कारण ही  कभी एक समय आजम खां ने सपा को टाटा  कहा था |  जिस दौर में  आजम खां ने सपा का साथ छोड़ा था उस वक्त भी समाजवादी खेमे में अमर सिंह को निकाले जाने के समय जश्न का माहौल देखा गया ।  जिस तरह से अमर सिंह को सपा के कुछ बडे़ नेता पसन्द नहीं करते थे ठीक वही स्थिति सपा में आजम खां की भी  हो चली है| 

लोकसभा चुनाव के दौरान आजम खां ने  मुस्लिम वोट बैंक पूरा सपा के साथ लाने के बड़े दावे किये थे लेकिन नमो की लोकसभा चुनावो में चली सुनामी और राज्यों में मोदी के हुदहुद ने सपा के जनाधार का ऐसा बंटाधार कर दिया कि लोक सभा चुनावो में सपा की खासी दुर्गति हो गयी |  नेता जी को  आजम खां  पर पूरा भरोसा था  लेकिन नेताजी परिवार के अलावा सपा का पूरा कुनबा लोकसभा चुनाव में साफ हो गया  |  अब  नए  सिरे से वोटरों को साधने के लिए नेता जी यू पी की राजनीति  को  अपने अंदाज में साध रहे हैं  ।  इन्हीं परिस्थितियों से निपटने के लिए नेता जी  ने अमर सिंह की वापसी  का एक नया चैनल इस समय खोल दिया है | । हालांकि पार्टी में उनकी वापसी को लेकर ज्यादातर नेताओं ने हामी नहीं भरी है लेकिन आजम खान और शिव पाल यादव उनकी वापसी पर सबसे बड़ी रेड कार्पेट बिछा  रहे हैं | यही अमर सिंह की सबसे बड़ी मुश्किल इस दौर में बन चुकी   है |

 अमर सिंह अखिलेश और नेता जी की खिचड़ी साथ पकने के बाद से ही दिल्ली में  1 6 अशोका रोड से लेकर 5  कालिदास मार्ग  लखनऊ तक हलचल मची हुई है | अमर सिंह नेता जी  से अपने घनिष्ठ सम्बन्धो का फायदा उठाने  का कोई मौका  कम से कम  अभी तो नहीं छोड़ना चाहते हैं |  शायद ही आगे चलकर उन्हें  इससे  बेहतर मौका कभी मिले | वैसे भी इस समय सपा अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार  उत्तर प्रदेश में चला रही है |  नेता जी भी बड़े दूरदर्शी हैं | वक्त के मिजाज को वह बेहतर ढंग से पढना जानते हैं | 1996 में अपने पैंतरे से उन्होंने केंद्र में कांग्रेस को आने से जहाँ रोका वहीँ बाद में वह खुद रक्षा मंत्री बन गए |  2004 आते ही  वह कांग्रेस को परमाणु करार पर बाहर  से समर्थन का एलान करते हैं  तो यह उनकी समझ बूझ को सभी के सामने लाने का काम करता है | फिर राजनीती का यह चतुरसुजान इस बात को बखूबी समझ रहा है अगर कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ एकजुट नहीं हुए तो आने वाले दौर में उनके जैसे छत्रपों की राजनीति पर सबसे बड़ा ग्रहण लग सकता है शायद इसीलिए वह इस सियासत का तोड़ खोजने निकले हैं जहाँ उनकी बिसात में अमर सिंह  ही अब सबसे फिट बैठते हैं | नेता जी  इस राजनीती के डी एन ए को भी बखूबी समझ रहे हैं | ऐसे में अमर सिंह की घर वापसी अब राज्य सभा में इंट्री के बाद तय मानी जा रही है ।

Monday, 25 April 2016

नीतीश चले पी एम बनने




बिहार  की सत्ता पर ठसक के साथ तीसरी बार काबिज होने वाले जेडीयू अध्यक्ष और सूबे के सीएम नीतीश कुमार ने मिशन 2019 के लिए अभी से चुनावी  बिगुल फूंक दिया है नीतीश ने 2019 लोकसभा चुनाव की ज़मीन तैयार करते हुए बड़ा बयान दिया है।  उन्होंने  जद यू की कमान संभालने के बाद बड़ा ऐलान  कर दिया कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ महा गठबंधन  बनाने में वह  उत्प्रेरक की भूमिका निभायेंगे जिससे 2019 में मोदी सरकार की विदाई हो सकेगी साथ ही उन्होंने यह भी  कहा है कि अगर बीजेपी का हराना है तो तमाम पार्टियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है। पटना के श्री कृष्ण मेमोरियल हाल में जद यू की राष्ट्रीय परिषद् में नीतीश की हुंकार के बाद लग रहा है कि पी एम  मोदी के खिलाफ वह उसी तरह की गोलबंदी सभी दलों को साधकर करना चाहते हैं जैसा प्रयोग उन्होंने  बीते बरस बिहार में किया 
 
मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत की तर्ज पर नीतीश ने अब नया नारा संघ मुक्त भारत का दिया है उन्होंने भरोसा ही नहीं उम्मीद जताई है भाजपा को महागठबंधन की तर्ज पर पराजित किया जा सकता है।   तो क्या माना जाए नीतीश ने बिहार से निकलकर पहली बार राष्ट्रीय राजनीती में सक्रिय होने के संकेत दे दिए हैं और क्या पहली बार बिहार के महागठबंधन की तर्ज पर सभी दल नीतीश की छाँव तले एकजुट होकर मोदी सरकार के खिलाफ बड़ी मोर्चाबंदी करने जा रहे हैं  इन शुरुवाती संकेतों को डिकोड करें तो जद यू की कमान अपने  हाथ में लेते  ही नीतीश कुमार के निशाने पर अभी से 2019 चुका है जिसके खिलाफ वह माहौल बनाने में जुट गए हैं जिसकी शुरुवात आने वाले दिनों में उनके लखनऊ के दौरे से होने जा रही है यह भाजपा को शिकस्त देने के लिए गैर भाजपाई दलों को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिश मानी जा सकती है क्युकि दिल्ली का रास्ता यूपी  से होकर गुजरता है   भारतीय राजनीती के सन्दर्भ  में यह कथन परोक्ष रूप से फिट बैठता है। 

दिल्ली से दूर पटना में श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल में नीतीश कुमार जब अपनी राष्ट्रीय कार्यकारणी के अधिवेशन के दौरान अपना भाषण दे  रहे थे तो उनकी नजरें शायद  भारतीय राजनीती की इस ऐतिहासिक इबारत की ओर भी जा रही थी शायद इसलिए उन्होंने  लोक सभा चुनावो  से पहले  गैर भाजपा दलों और अपने कार्यकर्ताओ को तैयार  रहने की सलाह इशारो इशारो में दे डाली।

 इस राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक  में नीतीश  कुमार  की पीऍम बनने की हसरतें भी हिलारें मार रही थी शायद तभी आत्मविश्वास से लबरेज नीतीश  ने दावा कर डाला राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन  बनाने में उनकी भूमिका सिर्फ उत्प्रेरक की होगी   उत्प्रेरक किसी भी क्रिया की गति को बढाने में सहायक है  लिहाजा नीतीश ने भी अपनी सार्थकता को इशारो इशारो में बता दी    वहीँ जद यू को भी उम्मीद है नीतीश की साफ़ छवि और सुशासन बाबू की छवि को ढाल बनाकर 2019 से पहले वह गैर भाजपा दलों को अपने पाले में लाकर गठबंधन में स्वीकार्यता बढ़ा सकते हैं यूँ  तो  2019 की  चुनावी बिसात अभी बहुत दूर है मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काट की तैयारी नीतीश अभी से करने लगे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार को सामने ला रहे हैं।    बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव भी उनका इस समय  भरपूर साथ दे रहे हैं। लालू ने तो यहां तक कह दिया कि नीतीश एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे तो हमें खुशी होगी।
 
उम्मीदों और देश की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर नीतीश  द्वारा भाजपा के खिलाफ गोलबंदी का प्रयोग आसान  नहीं लगता क्युकि  बिना उत्तर प्रदेश फतह किये बिना दिल्ली में अगली सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाने के सपने देखना मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने जैसा है यू पी में इस महागठबंधन  के मजबूत  होने की सूरत में ही नीतीश प्रधान मंत्री पद की दावेदारी कर सकते हैं लेकिन यहाँ  पर भी राजनीती के दिग्गज नेताजी को साधना नीतीश के लिए  आसान नहीं होगा नेताजी  महागठबंधन  से  बिहार चुनावों से पहले ही खुद बाहर हो चुके हैं    सपा  और बसपा के इर्द गिर्द ही यू पी की  राजनीती घूमती रही है लेकिन यह दोनों दल अपने गिले शिकवे भुलाकर साथ आयेंगे ऐसा कहना दूर की  गोटी है   रही बात अजीत सिंह की  तो उनका पश्चिमी यू पी पर जबरदस्त प्रभाव है लेकिन फिलहाल वह नेताजी के आसरे खुद राज्य सभा में जाने की जुगत में दिखाई दे रहे हैं भला वह अपनी पार्टी का विलय  नीतीश की पार्टी में करवाकर  क्यों अपने पैर कुल्हाड़ी मारेंगे  ऐसा ही हाल झारखंड के पूर्व  मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का है  जिनका कोई नावलेवा  अब नहीं बचा है तो  ऐसे हालतों  में नीतीश के पी एम के  सपनों को भला  कैसे पंख लग पायेंगे ?

 नीतीश के बारे में कहा जा रहा है वह आने वाले दिनों में अपनी पार्टी जद यू ,राजद,  झारखंड विकास मोर्चा , आर एल  डी का विलय कर जनविकास दल नाम की नई पार्टी खड़ी करना चाहते हैं लेकिन भाजपा के मजबूत होने के चलते इनका यह प्रयोग पूरे देश में साकार हो पायेगा इसमें संशय है बिहार देश नहीं है और देश का मतलब इस दौर में बिहार नहीं है हर राज्य की परिस्थितिया कमोवेश अलग अलग हैं और आज का वोटर भी अब बदल चुका है राष्ट्रीय राजनीती अपनी जगह है और राज्यों में छत्रपों के वर्चस्व  हो हम नहीं नकार सकते मुलायम सिंह , मायावती , नवीन पटनायक , जयललिता , ममता ,केजरीवाल, उमर अब्दुल्ला क्यों अपने राज्यों को नीतीश की पार्टी के हवाले कर देंगे और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे ? नीतीश का साथ बिहार में कांग्रेस ने दिया सोनिया का प्रयोग बिहार में सफल रहा लेकिन देश के मसले पर कांग्रेस भी अपनी 131 बरस पुरानी साख क्यों नीतीश के साथ जाने से खोएगी ? इस बीच कांग्रेस ने नीतीश को अपना समर्थन देने पर सतर्कता बरती है 

नीतीश कुमार ने इसके साथ ही  संघ मुक्त भारत की बात कही है। उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए गैर भाजपा दलों से एकजुट होने की अपील  की है।उन्होंने भरोसा दिलाया कि भाजपा विरोधी दलों कांग्रेस वामदल और अन्य क्षेत्रीय दलों को 2019  से पहले एक साथ लाने के लिए प्रयासरत रहेंगे।नीतीश के बयान  की प्रतिक्रिया में बीजेपी का कहना है कि वह नीतीश के महामोर्चा गठित करने के प्रयासों से परेशान नहीं है। इस बीच कांग्रेस ने नीतीश को अपना समर्थन देने पर सतर्कता बरती है    बीजेपी प्रवक्ता ने कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से यह स्पष्ट करने को कहा कि क्या राहुल गांधी ऐसे किसी मोर्चे की अगुवाई करेंगे या केवल उसका हिस्सा भर होंगे   राजनीती संभावनाओ का खेल है और यहाँ  महत्वाकांशा हिलारे मारती रहती है। इस समय नीतीश के साथ भी यही हो रहा है
 
यह पहला मौका नहीं है जब अलग मोर्चा बनाने की बात कही गई है। कई बार ऐसे प्रयास हो चुके हैं मगर यह मोर्चे बहुत दूर तक सफर तय नहीं कर पाए।1996 में नेताजी  ने अपने पैतरे से केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनाने की मंशा पर जहाँ पानी फेरा था वही बाद में  वह रक्षा मंत्री बन गए। 1999  में अटल बिहारी की सरकार गिरने के बाद  अपनी  दूरदर्शिता से कांग्रेस को गच्चा देकर उसे सरकार  बनाने से रोक दिया था वही नेताजी ने  2004 में न्यूक्लिअर डील पर यू पीए 1 को संसद में विश्वासमत प्राप्त करने में जहाँ मदद की वहीँ  यू पीए 2 के तीन साल के जश्न में वह  शरीक भी  हुए  तो वहीँ मौका आने पर कांग्रेस के साथ रहकर उसी के खिलाफ तीखे तेवर दिखने से बाज नहीं आये उसकी नीतियों को कोसते हैं और तीसरे मोर्चे का राग अपनी राष्ट्रीय  कार्यकारणी में  कई  बार अलापते रहे  जिसमे वह भाजपा -कांग्रेस दोनों को किनारे कर लोहियावादी, समाजवादी , वामपंथियों को साथ लेकर राजनीति की नई लकीर उसी तर्ज पर खींचते  दिखाई  दिए  जो उन्होंने 1996 में नरसिंह राव के मोहभंग के बाद खींची थी  इसके बाद देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को साधकर तीसरे मोर्चे का दाव  खेल गया लेकिन यह प्रयोग भी असफल रहा   यू पी के  दौर में प्रोग्रेसिव  अलाइंस  बनाने  की बातें भी खूब हुई लेकिन चुनाव से पहले यह प्रयोग  भी फुस्स हो गया
 
दो बरस पहले  ही लोकसभा चुनाव के समय नेताजी  ने तमाम छोटे दलों को जोड़ कर भाजपा और कांग्रेस के सामने तीसरे मोर्चा के रूप में सशक्त चुनौती पेश करने की पहल की थी पर वह नाकामयाब रहे। अब नीतीश कुमार हर हर मोदी का भय दिखाकर सभी पार्टियों को जोड़ने की बात कर रहे हैं।   दरअसल जब लोग भाजपा और कांग्रेस से ऊब जाते हैं तब वह तीसरे विकल्प की तरफ चले जाते हैं। लेकिन जब यह दल सत्ता में रहते हैं तो इनके राजनीतिक हित  टकराने लगते हैं।  देश में अब माहौल बदल  चुका है विकास के नाम पर ही अब वोट मिल रहे हैं इस बात को हमें समझने पड़ेगा आज का भारत नब्बे के दशक वाला नहीं रहा जब मंडल कमंडल ने देश की राजनीती को झटके में बदल दाल था   आज  हर क्षेत्रीय दल का अपना समीकरण है तो पार्टियां भी जातीय  राजनीती के दंगल से अपने को बाहर नहीं निकाल पा रही हैं देश में क्षेत्रीय स्तर पर सभी विपक्षी दलों के आपस में टकराव हैं। जहां सपा होगी वहां बसपा के लिए साथ देना गवारा नहीं होगा। द्रमुक और अन्नाद्रमुक  एक साथ नहीं होना चाहेंगे। इस तरह अगर देखें तो नीतीश का सभी पार्टियों को साथ लाने का सपना तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक विपक्षी दल अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठें।
 
 राजनीती  की  नई  बिसात  में  2019  से ठीक पहले नीतीश  कुछ ऐसी खिचड़ी पकाना चाह रहे हैं जिससे भाजपा  से इतर एक नयी मोर्चाबंदी केंद्र  में शुरू हो सके जिसकी कमान वह खुद अपने हाथो में लेकर  केन्द्र  में  आने का  दावा  पेश कर सकें   1996  में जब नरसिंहराव सरकार से लोगो का मोहभंग हो गया तो नेताजी ही वह शख्स  थे जिसने समाजवादियो , वामपंथियों, लोहियावादी विचारधारा के लोगो को एक साथ   लाकर उस दौर में शरद पवार के साथ मिलकर एक नई  बिसात केंद्र की राजनीती में चंद्रशेखर को  आगे लाकर बिछाई थी उसी तर्ज पर  चलते हुए नीतीश  अपना राग गा रहे हैं  ,साथ में तीसरे मोर्चे के लिए भी हामी भरते दिख रहे हैं   दशकों  बाद वह  गैर भाजपाई  मोर्चे के लिए अपनी शतरंजी बिसात बिछाने में लग गए हैं   राजनीती के अखाड़े का यह चतुर  सुजान अब इस बात को बखूबी समझ रहा है अगर भाजपा  के खिलाफ अभी एक नहीं हुए तो समय हाथ से निकल जायेगा। वैसे भी नीतीश कुमार के पास  पी ऍम बनने का सुनहरा मौका शायद ही होगा जिसमे  1996 की  तीसरे मोर्चे  से  हुई गलतियों से सीख लेकर एक नई  दिशा में देश को ले जाने का साहस दिखा सकते है  

वैसे भी इस समय कांग्रेस ढलान  पर है तो भाजपा  पर भी  साढ़े  साती चल रही है मोदी  के लिए आने वाले 3  बरस  चुनौतियों  भरे रहेंगे वहीँ नीतीश के सामने भी आने वाले बरसों  में उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है मोदी के सामने पूरा देश है तो नीतीश के सामने बिहार मोदी गुजरात मॉडल के बूते जब 7  रेस कोर्स का सफर तय कर सकते हैं तो नीतीश भी अपने बिहार मॉडल और सुशासन बाबू के आसरे देश में नई  लकीर  खींचने का माद्दा तो रखते हैं  शायद यही वजह है  जद  यू  के कैडर मे जोश है और तीसरी  बार बिहार फतह करने के बाद बिहार मॉडल और नीतीश के आसरे  अब दिल्ली जीतने की तैयारी  है   तीसरे मोर्चे की सियासत को आगे बढाने  का यही बेहतर समय है नीतीश  इसके मर्म को शायद समझ भी रहे हैं ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि राजनीती  के अखाड़े में नीतीश  का यह दाव  कितना कारगर होता है और आने वाले दिनों में छत्रप किस तरह उनके इस कदम पर ताथैय्या  करते हैं फिलहाल इसका इन्तजार सबको है