Saturday, 27 May 2017

ड्रैगन ने बढ़ाई भारत की चिंता



72000 वर्ग किलोमीटर एरिया चीन को हारकर नेहरु उस दौर में जब ससंद गये तो सांसदों ने ये सवाल पूछा कि पंडित जी भारतीय जमीन  कब वापिस आएगी तो नेहरू इस सवाल को अक्सर टाल जाते थे | तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चीन की तरफ से मिले इस धोखे से बुरी तरह आहत थे |  संसद में नेफा पर चीन के कब्जे को लेकर हुई बहस में नेहरू ने कह दिया कि वह तो बंजर इलाका है, वहां घास का एक तिनका तक नहीं उगता | उनके इस कथन पर उन्हें टोकते हुए  दिग्गज सांसद महावीर त्यागी ने जवाबी सवाल दागा, ‘पंडित जी, आपके सिर पर भी एक बाल नहीं उगता तो क्या उसे भी चीन को भेंट कर देंगे?
 शायद नेहरू को भी तत्काल अहसास हो गया था कि यह सब कर  उन्होंने सदन में  कमज़ोर दलील पेश कर दी है, लिहाज़ा उन्होंने अपना भाषण जल्द पूरा किया |  सदन में न तो नेहरू के कथन पर और न ही महावीर त्यागी के जवाबी कथन पर कोई हंगामा या नारेबाज़ी हुई|   यही नहीं चीन से हार के बाद संसद में कृपलानी ने भी नेहरु को कठघरे में खडा करते हुए कहा अध्यक्ष महोदय प्रधानमंत्री बार बार इतिहास बनाने की बात करते हैं और चीन भूगोल बना रहा है | 

इन वाकयों का मजमून यह है मौजूदा दौर में भी चीन लगातार भारत के सामने परेशानियों को खड़ा करने में लगा हुआ है लेकिन इसे लेकर किसी तरह की कोई हलचल देश में नहीं दिखाई दे रही |  यह सवाल मौजूदा दौर में  इसलिए भी बड़ा और गहरा हो चला है क्युकि चीन की चिंताओं को अभी भी भारत शायद हल्के में ले रहा है लेकिन इन दिनों  चीन अपनी  साम्राज्यवादी नीतियों के आसरे पूरे विश्व पर अपनी पकड़ मजबूत करने का रोड मैप तैयार करने में लगा हुआ है |  पड़ोसी मुल्क चीन सदैव हमारे लिए चिंता का कारण रहा है। 1962 में उसने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा देते हुए हिमालय के सीमा क्षेत्रों से भारत पर आक्रमण कर दिया।  पड़ोसी देश होने के बावजूद चीन अक्सर भारत के खिलाफ आँखें तरेरता रहता है। 

 मौजूदा दौर में बीते दिनों चीन की महत्वाकांशी वन बेल्ट वन रोड  (ओबीओआर परियोजना ) ने फिर एक बार भारत की चिंताओं को बड़ा दिया है |  असल में चीन ने ओबीओआर परियोजना पर व्यापक सहमति बनाने के मकसद से बीजिंग में बीते दिनों पाक , रूस को एक मंच पर साधकर बड़ा सम्मेलन किया जिसमें दुनिया के 130 देशों के प्रतिनिधि , व्यापारी और फाइनेंसर शामिल हुए जबकि भारत ने इस आयोजन का बायकाट किया । 

चीन ओबीओआर के अंतर्गत चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बना रहा है। यह रास्ता पाकिस्तान को सीधे चीन से जोड़ेगा। 2442 किलोमीटर लम्बे इस रास्ते को  बनाने का मकसद दक्षिण-पश्चिमी पाकिस्तान से चीन के उत्तर-पश्चिमी स्वायत्त क्षेत्र शिंजियांग तक ग्वादर बंदरगाह रेलवे और हाइवे के माध्यम से तेल और गैस की कम समय में वितरण करना है। भारत इस रास्ते का विरोध इसलिए कर रहा है क्योंकि यह रास्ता पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान के विवादित क्षेत्र बलूचिस्तान होते हुए जायेगा। जिसे भारत अपना हिस्सा मानता है। यह रास्ता इसलिए भी विवादित है क्योंकि बलूचिस्तान प्रांत में दशकों से अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं। इसलिए भारत ने ओबीओआर सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया ।

चीन की महत्वकांक्षी ओबीओआर परियोजना कितनी विशाल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया की आधी से अधिक आबादी अब इसके दायरे में आएगी। इस परियोजना के तहत सड़क रेलवे और बंदरगाहों का ऐसा  बुनियादी जाल बिछाया जाएगा जो एशिया  ,अफ्रीका और यूरोप के बीच संपर्क और आवाजाही को आसान कर देगा | तकरीबन  पैंसठ देशों को जोड़ने की इस महापरियोजना पर चीन 2013 से साठ अरब डॉलर खर्च कर चुका है और अगले पांच बरस में इस पर 900 अरब डॉलर निवेश करने की उसकी योजना है। चीन का मानना है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा सिल्क रूट होगा और चीन की यूरोप तक सामान को पहुचाने की उसकी सीधी पहुँच  होगी | 

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग शी की मानें तो यह परियोजना एशिया के साथ  यूरोप एवं अफ्रीकी देशों का कायाकल्प कर देगी |  अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट को अमलीजामा पहनाने की मंशा से उसने सम्मेलन में भागीदार विकासशील देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को 8 अरब डालर की सहायता देने का एलान भी कर दिया है | इस महाप्रोजेक्ट में कई मार्ग और बंदरगाह परियोजनाएं भी  हैं। 

चीन ने भारत (ओबीओआर परियोजना )  में शामिल होने से इनकार करने को खेदजनक बताया है। दरअसल भारत की मुख्य चिंता इस दौर में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे सीपीईसी  को लेकर हैं क्युकि परियोजना का अधिकांश हिस्सा पाक और चीन के कब्जे में है  जिससे कश्मीर क्षेत्र पर व्यापक असर न केवल पड़ सकता है बल्कि दोनों देशो के साथ भारत के संबंधों में और तल्खी आने की संभावना है |  हालाँकि चीनी मीडिया के मुताबिक यदि ओबीओआर परियोजना को लेकर किसी देश को इतने संदेह हैं और वह इसमें शामिल होने को लेने के लिए उस देश  पर दबाव नहीं बनाएगा। दरअसल भारत का कहना है कि कोई भी देश ऐसी परियोजना को स्वीकार नहीं कर सकता जिसमें उसकी संप्रभुता एवं भूभागीय एकता संबंधी प्रमुख चिंताओं की उपेक्षा की गई हो।  

चीन की लगातार भारत को चारों तरफ से घेरने की कोशिश से भारत की चिंता बढ़ गयी है |  चीन की वन बेल्ट, वन रोड नीति, रिंग पर्ल की नीति लगातार भारत को ही हर तरफ से घेर रही है। इससे आने वाले समय में भारत के व्यापार, सुरक्षा, तथा ब्लू वॉटर इकोनॉमी पर बुरा असर पड़ सकता है। चीन ने  हर मोर्चे पर भारत के पड़ोसियों को इस मुहीम में ना केवल साधा है बल्कि उन्हें मदद और लोन दिलाने का भरोसा दिलाया है | श्रीलंका के साथ  नेपाल, पाकिस्तान, मालदीव को एक मंच पर लाकर अपने सामारिक और व्यापारिक रफ़्तार को चीन बड़ी उड़ान में तब्दील करने की सोच रहा है |  

आज चीन समुद्री क्षेत्र, रेल, सडक़ समेत सभी संपर्क मार्गों को विस्तार करने में लगा है। चीन ने  पडोसी नेपाल के साथ वन बेल्ट, वन रोड परियोजना में समझौता किया है। इसके तहत चीन तिब्बत के रास्ते नेपाल तक सडक़ मार्ग के विकास को धार देगा। चीन नेपाल तक अपने रेलमार्ग के विकास को भी गति दे रहा है। उसकी योजना रसुआगढ़ से नेपाल के बीरगंज तक अपनी रेल सेवा लेकर आने की है। बीरगंज से बिहार राज्य से सटा है। श्रीलंका में भी चीन हंबनटोटा बंदरगाह के विकास में एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है | चीन श्रीलंका की पोर्ट , सड़क , परिवहन सरीखी कई परियोजनाओं में भी दिलचस्पी ले रहा है जिनमें हंबनटोटा पोर्ट का विकास , इंडस्ट्रियल जोन निर्माण , कोलंबो पोर्ट सिटी का विकास  आदि प्रमुख रूप से शामिल है। श्रीलंका की तरह वह  अफगानिस्तान में भी सक्रियता बढाने की जुगत में है | 

पाकिस्तान के ग्वादर में बंदरगाह के विकास से लेकर बिजिंग तक सिल्क रोड का विकास उसके एजेंडे में है। यूरोप और एशिया को सडक़ मार्ग से जोडऩे की एक नई नीति पर उसका मंथन चल रहा है जिसके तहत उसकी योजना अपनी कनेक्टिविटी के विस्तार की है। इधर मोदी ने भी बीते दिनों चाबहार का दाव खेलकर चीन की चुनौती को स्वीकार तो किया लेकिन भारत के सभी पड़ोसियों को अपने पाले में लाकर भारत को अलग थलक करने का काम चीन के अपने ड्रीम प्रोजेक्ट के आसरे कर दिया है जिसमे बहुत हद तक वह सफल हो रहा है | पहली बार मोदिनोमिक्स का कूटनीतिक दांव फंस कर रह गया है |  

पुराने पन्ने टटोलें तो भारत और चीन के बीच 1962 के बाद से रिश्तों में गर्माहट लाने की बहुत कोशिशें तेज हुई लेकिन यह सब धरी की धरी ही रही हैं | भारत चीन सम्बन्ध हमेशा तल्ख़ ही रहे हैं |  1962 के बाद से दोनों देशों के बीच सीमा विवाद , नत्थी वीजा , अरुणाचल, तिब्बत  को लेकर  कई विवाद हुए हैं। पिछले दिनों चीन ने अरुणाचल प्रदेश की कुछ जगहों के नाम  जहाँ बदल डाले वहीँ दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा पर चीन आग बबूला हो उठा था | भारत ने सुरक्षा की दृष्टि से चीन सीमा पर ब्रह्मोस तैनात की थी तब भी चीन नेकड़ा एतराज जताया था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जैशे मोहम्मद सरगना हाफिज सईद को प्रतिबन्धित करने के भारत के प्रयास पर  चीन ने ही वीटो का इस्तेमाल कर भारत को आइना दिखा दिया | 

सीमा पार आतंकवाद बढाने में पाक की भूमिका किसी से छिपी नहीं है लेकिन चीन पाकिस्तान का इस मसले पर भी खुलकर साथ देने से पीछे नहीं रहता है |  यही नहीं चीन का  ब्रह्मपुत्र पर विशालकाय बांध बनाने का प्रोजेक्ट भी पाइप लाइन में है |ज्यादा समय नही बीता जब एन एस जी समूह की बैठक में बीते बरस भारत को चीन ने ही आईना दिखाया  | भारत इस समूह में सदस्यता हासिल करने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहा है। उसने बीते बरस अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस व रूस जैसे दिग्गज देशों का समर्थन भी हासिल कर लिया था  लेकिन चीन टस से मस नहीं हुआ | चीन का हमेशा से यही राग रहा है कि वह भारत का विरोध नहीं कर रहा लेकिन उसे शर्तें तो माननी होंगी। 

भारत ने समूह में प्रवेश के लिए बीते बरस मई माह में अपना दावा पेश किया | असल में चीन नहीं चाहता कि भारत को इस समूह में प्रवेश मिले। इसके लिए उसने दो शर्तें थोप रखी हैं। पहली यह कि जिन देशों ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत नहीं किए हैं उन्हें सदस्यता से महरूम रखा जाए। इसके साथ ही चीन पाकिस्तान को इस मामले में भारत के बराबर आंकता चला आ रहा है जो उसकी एक बड़ी भूल है | चीन के इस अड़ियल रुख से भारत की संभावनाएं इस बरस भी खत्म हैं | ड्रैगन के रुख में कोई बदलाव नहीं आ सकता | वह पाक के लिए कुछ भी कर सकता है भारत के लिए नहीं |

  इस बार भी जून में भारत के समर्थन में चीन के खड़े होने की नहीं के बराबर सम्भावना है | एन एस जी इसकी बैठक बर्न (स्विटजरलैंड) में अगले महीने होने जा रही है जहाँ दुनिया के तमाम परमाणु शक्ति संपन्न देश आपस में चर्चा करेंगे | कुलमिलाकर ड्रैगन  पर भारत की चिंता स्वाभाविक है | पी एम मोदी को चाहिए अब वह विश्व समुदाय के समक्ष चीन के हर मनमानीपूर्ण रवैये को ठोस ढंग से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाये तभी कुछ बात बन पाएगी नहीं तो जिस रफ़्तार के आसरे  चीन  बढ़ रहा है उसके बढ़ते कदम रुकने नामुमकिन हैं   | 

Tuesday, 16 May 2017

मुश्किल में लालू प्रसाद

लालू प्रसाद यादव का नाम जेहन में आते ही बिहार को लेकर एक अलग तरह की छवि बनती है |  सामाजिक न्याय और पिछड़ों के मसीहा कहलाने वाले लालू प्रसाद  को  अलहदा पहचान जे पी छाँव तले  मिली  जब नीतीश , जॉर्ज  , सुशील मोदी , शरद यादव , रविशंकर प्रसाद सरीखे नेताओं के साथ आपातकाल में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई |  जेपी आंदोलन के बाद लालू की राजनीति ऐसे  उफान पर रही जिसने मंडल कमंडल दौर में उनको बिहार का सरताज बना डाला |  यह सच भी शायद किसी से छिपा हो  उनके और राबड़ी देवी  के  कार्यकाल में  बिहार सबसे बुरे दौर में  कई बरस  पीछे  चला गया |  माफिया  गुंडों की लालू  प्रसाद के दौर में जहाँ तूती  बोलती थी  वही अपहरण , रंगदारी , लूटपाट , गुंडागर्दी , रेप  की घटनाएं  उस समय आम बात थी | कानून व्यवस्था लुंज पुंज थी | पुलिस के पास आप अगर प्राथमिक रिपोर्ट दर्ज करवाने जाते थे तो रजिस्टर  में वह दर्ज भी नहीं हो पाती थी |  अपने कार्यकाल में उन्होंने जहाँ  करोड़ों  के वारे न्यारे किये वहीँ  उन्होंने कानून व्यवस्था  को तार तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी  |  बिहार  उनके समय से ही पलायन का दंश झेल रहा है | उस दौर में लालू के खिलाफ जब घोटालों का जिन्न आता है  तो  जेहन में सबसे पहले चारा घोटाले का जिक्र होता है जिसने 90 के दशक में लालू को चर्चित कर दिया | लालू प्रसाद  की राजनीती उस राजनीति की देन है जिसे बतौर प्रधानमंत्री वी पी  ने हवा दी और  मंडल कमीशन को देश भर में लागू कर दिया गया। पिछड़ी राजनीति का यह तोहफा  लालू प्रसाद को  बिहार के मुख्यमंत्री के  रूप में मिला। यही नहीं आडवाणी के रथ को रोक और उन्हें गिरफ्तार कर लालू  प्रसाद ने अपनी सांप्रदायिकता विरोधी छवि को देश में  जरूर मजबूत किया। उस दौर की शासन व्यवस्था का जिक्र करें तो उनका  कार्यकाल बिहार के लिए सबसे बुरे  दौर के रूप में  जाना जाता है जिसने लालूराज को जंगलराज से जोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी |   

  गोपालगंज में एक यादव परिवार में जन्मे लालू यादव  ने राजनीती का ककहरा जेपी आंदोलन से सीखा । उस दौर को याद करें तो  रैली के दौरान ही जब  जेपी पर लाठियां बरसाई जाने लगीं तो लालू उन्हें बचाने के लिए उनकी पीठ पर लेट गए। कहा जाता है कि उनकी इस सूझ बूझ को देखते हुए उन्हें पहली बार  लोकसभा का टिकट थमा दिया गया लेकिन  लालू यादव का  असल राजनीतिक सफर आपातकाल के बाद से   शुरू हुआ जब वह पहली बार बिहार के छपरा से सांसद बने।बिहार के मुख्यमंत्री रहने के बाद वह  केंद्र सरकार में रेल मंत्री भी बनें। बिहार में लालू जब सत्ता में थे तब  साधु, सुभाष, राबड़ी और लालू (ससुराल)   के इर्द-गिर्द ही सत्ता  घूमती  थी। ठेठ गवई, चुटीली  राजनीति करने वाले लालू प्रसाद ने उस दौर में एक नई परंपरा गढ़ी जब बिहार का नाम देश दुनिया  में घोटालों ने ख़राब कर दिया |  1996 में जब चारा घोटाला सामने आया था तो मीडिया ने इसे खूब लपका | देश के किसे कोने में ऐसा पहली बार हुआ जब  जानवरों के चारे तक में घोटाले की बात सामने आई | तब इसे लेकर लालू पर खूब चुटकुले भी बने | लालू पर  90  के दशक  में मौजूदा झारखंड की चाईबासा ट्रेजरी से लाखों  रुपए निकालने का केस चल रहा था। तब चाईबासा बिहार में ही हुआ करता था। लालू यादव पर चाईबासा ट्रेजरी से पैसा निकालकर पशुपालन विभाग में ट्रांसफर कराने का केस था। पूरा चारा घोटाला करीब 950 करोड़ रुपए का था जिसमें ये केस तकरीबन 38 करोड़ रुपए की अवैध निकासी का था। अविभाजित बिहार में जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव के सीएम रहने के दौरान फर्जी बिल के जरिए पशुओं को चारा खिलाने के नाम पर निकाला गया था।  चारा घोटाले के चाईबासा ट्रेजरी केस में लालू यादव के साथ जगन्नाथ मिश्र को भी दोषी पाया गया। 

1997 में लालू के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल होने के बाद जब उन्हें सी एम पद छोड़ना पड़ा  तो वह अपनी पत्नी राबड़ी को सिंहासन  सौंप जेल चले गए और इसी दौर में  आय से अधिक संपत्ति का भी मामला उनके खिलाफ दर्ज हो चुका था | लालू को कुछ दिनों बाद बेल मिली |  लेकिन 2000 में आय से अधिक संपत्ति के मामले में लालू और राबड़ी को कोर्ट में सरेंडर करना पड़ा जहाँ  राबड़ी को तो बेल मिल गई लेकिन लालू फिर जेल गए |  2006 में आय से अधिक संपत्ति के मामले में वह और राबड़ी बरी हो गए |  2013 में लालू में रांची की सीबीआई कोर्ट ने लालू सहित 44 लोगों को सजा सुनाई | इसके साथ ही लालू को लोकसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी | वह जेल भी गए और सशर्त जमानत पर बाहर भी आ गए | |  2 बरस पूर्व बिहार चुनावों के समय यह कहा गया  लालू यादव की भावी राजनीति की मियाद पूरी हो गई  , लेकिन  सत्ता और चुनाव लड़ने से उनके दूर होने के बाद भी वह बिहार में सबसे अधिक सीट लेकर आये और नीतीश का राजतिलक करवाया  लेकिन कल सुप्रीम कोर्ट ने ने 21 बरस  पुराने 950 करोड़ के चारा घोटाले के सभी चार मामलों में लालू प्रसाद यादव पर अलग-अलग मुकदमे चलाने के निर्देश दिए  साथ ही  जगन्नाथ मिश्र और तत्कालीन ब्यूरोक्रेट सजल चक्रवर्ती पर भी साथ-साथ केस चलाने का ऐलान करके मुश्किलों को बढ़ा दिया |  यह वही मामला है, जिसमें 2014 में झारखंड उच्च न्यायालय ने यह कहकर रोक लगा दी थी कि एक ही मामले में एक ही व्यक्ति पर समान गवाहों के साथ अलग-अलग केस नहीं चल सकता। अदालत ने इस मामले में सारी कार्रवाई तय समय-सीमा में पूरी करने की शर्त भी रखी है।  वैसे अगर देखें  तो लालू प्रसाद की राजनीति पर तब तक कोई खास असर पड़ता नहीं दिखाई देता, जब तक कि वह इन या ऐसे मामलों में सजा पाकर पूरी तरह जेल न चले जाएं। लेकिन फिलहाल सच यही है कि  उनकी पार्टी की  कई मुश्किलों में इस फैसले ने इजाफा कर दिया है। पिछले कुछ दिनों से दोनों मंत्री पुत्रों सहित लालू यादव खुद भी मिट्टी घोटाले के ताजा जिन्न और अभी-अभी आए कथित लालू-शहाबुद्दीन टेलीफोन वार्ता से विपक्ष के निशाने पर हैं। ताजा फैसला इन हमलों को और धार देगा। राजनीतिक उठापटक बढ़ेगी । यह भी तय है कि फैसला लालू प्रसाद की राजनीति से ज्यादा बिहार के महागठबंधन की राजनीति पर असर डालेगा और यही असल में देखने की बात होगी। कहना न होगा कि हाल में लगे आरोपों के बाद जिस तरह की बातें सामने आईं, जिस तरह महागठबंधन के बड़े साथी लालू प्रसाद के बचाव की बजाय जद-यू अपनी छवि को लेकर सतर्क दिखा है उसने भी भविष्य के संकेत दिए हैं। यह फैसला खुलासे के 21 साल बाद आया है और  सुप्रीम कोर्ट का साफ  कहना है  चार अलग-अलग मामलों में मुकदमा चलेगा, फिर सजा का एलान होगा। अदालत ने सुनवाई की समय-सीमा भी तय कर दी है।  आने वाले दिनों में अब लालू के सामने  भारी संकट खड़ा हो गया है | इस फैसले से  48 घंटे पहले अर्णव गोस्वामी के रिपब्लिक चैनल पर आये आडियो टेप ने तहलका मचा दिया जहाँ लालू जेल में शाहबुद्दीन से बात करते नजर आ रहे थे  | इस टेप ने बिहार के सत्ता गलियारों में लालू  की हनक और नीतीश के लाचार सी एम के सच को दिखाने का काम किया है जिसके बाद जे डी यू  और राजद  को ना उगलते बन रहा है ना निगलते | रही सही कसर अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने बढ़ा दी है | 

बिहार में सत्ताधारी जदयू को डर है कि लालू प्रसाद का करियर अगर समाप्त हुआ तो नीतीश की साफ़ सुथरी  छवि पर भी ग्रहण लगना  तय है | वहीँ लालू प्रसाद जानते हैं कि दोनों बेटों को वारिस  बनाकर  उनकी पार्टी  एक नई  शुरुवात की तरह बढ़ रही थी लेकिन उनके खिलाफ चार केसों  पर अगर बड़ा फैसला आ जाता है और अलग अलग सजा हुई  तो उनको अपने वोट बैंक से हाथ गंवाना पड़  सकता है | साथ ही नीतीश  कुमार भी उनसे दूरी बना सकते हैं |  लालू के बिना  राजद में सब सून सून  होने का अंदेशा भी बन रहा है |  अब इस मामले में सुप्रीम  कोर्ट के ताजा रुख को देखते हुए लालू यादव और अन्य अभियुक्तों को  निर्दोष करार दिए जाने की संभावना नहीं के बराबर बन रही है | देखना होगा लालू प्रसाद इस मुश्किल से कैसे बाहर आते हैं जहाँ उनकी साख एक बार फिर सवालों के घेरे में है तो दूसरी तरफ राज़द के बिखरने का अंदेशा भी नजर आ रहा है |  क्या राजनीती की बिसात पर अबकी बार हिटविकेट होंगे लालू प्रसाद ? फिलहाल इस सवाल के जवाब के लिए कुछ महीने  और इन्तजार करना पड़ेगा |

Tuesday, 9 May 2017

फ्रांस में मैक्रोन की नई सुबह





फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव संपन्न हो गए जिसमे एमानुएल मैक्रोन की शानदार  जीत हुई है  | चुनाव से पहले उनके बारे में तरह तरह की बातें कही गयी लेकिन तमाम कयासों को धता बताते हुए उन्होंने कुर्सी पा ही ली |  मैक्रोन  एक ऐसे पहले  बैंकर हैं जिन्होंने  पहली बार जिन्होंने  राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी और झटके में दक्षिणपंथी मरीन ली पेन को हराया। इस चुनाव में मैक्रोन को 65.5 से 66.1 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। दूसरी ओर मरीन ली पेन 34.5 प्रतिशत तक ही सिमट गई  | मैक्रोन ने अपनी इस  ऐतिहासिक  जीत को फ्रांस हेतु नई संभावनाओं विश्वास से भरे अध्याय की शुरुवात  बताया है  ।  फ्रांस  के इस चुनाव में  खास बात युवा वोटरों  का मैक्रोन के साथ ख़ास तरह का झुकाव और उत्साह  देखने को मिला | खासतौर से शहरी युवा वोटरों ने उन्हें आँखों पर बिठाया जिसका नतीजा  आज सबके सामने है  |  मैक्रोन  की यह जीत दक्षिणपंथियों के लिए किस सदमे से काम नहीं है क्युकि हाल के बरस में पूरी दुनिया में दक्षिणपंथियों की जीत की सुनामी भारत से लेकर अमरीका और यूरोप तक चली है जिसने पहली बार वैश्विक स्तर पर एक अजीबोगरीब तरह की हलचल पैदा की है |  राष्ट्रपति चुनाव में मिली इस  ऐतिहासिक जीत के बाद अब  मैक्रोन  को बधाई देने वालों की बाढ़  आयी हुई है लेकिन उनकी नीतियां न केवल अब फ्रांस के भविष्य को तय करेगी बल्कि आतंकवाद और प्रवासियों के मसले पर कोई नई लेकर खींची जाएगी ऐसी आशा फ़्रांस के शहरी , मध्यम , प्रगतिशील तबके को है | 

मैक्रोन का जन्म 21 दिसंबर 1977 को फ्रांस के एमियेंज में हुआ। फिलोसोफी से छात्र रहे एमानुएल साल 2004 में ग्रेजुएट होने के बाद इनवेस्टमेंट बैंकर बन गए। 2006 से 2009 के बीच  वह सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य  भी रहे । 2012 में पहली बार जब  ओलांद की सरकार जब बानी तो तब मैक्रोन को डिप्टी सेक्रेटरी जनरल चुना गया। 2014 में मैक्रोन ने वित्त मंत्री का जिम्मा संभालने के साथ ही  अगस्त 2016 में उन्होंने सरकार से इस्तीफ़ा देकर  राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सबको चौंका दिया और संयोग देखिये झटके में फ्रांस के  भीतर उन्होंने नया करिश्मा कर अपनी नयी इबारत गढ़ने की तैयारी कर ली |  उनकी जीत के साथ आज फ्रांस में एक नयी सुबह की शुरुवात हुई है | पहली बार दक्षिणपंथी ताकतों को जनता ने नकार दिया है और ओलांद की सरकार के खिलाफ आक्रोश को अपनी वोट की ताकत से हवा देने का काम किया  है | इस चुनाव के एक सच यह भी है कि  हर तीन में से एक मतदाता ने या तो किसी के पक्ष में भी वोट देना ठीक नहीं समझा | फ्रांस में 1958 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, कि चुना गया राष्ट्रपति फ्रांस के दो प्रमुख राजनीतिक दलों, सोशलिस्ट और रिपब्लिकन पार्टी से नहीं है।

इसके साथ ही अब फ्रांस के नए राष्ट्रपति मैक्रोन के सामने चुनौतियों का पहाड़  खड़ा हो गया है |  आज फ्रांस को आतंकवाद , प्रवासियों के संकट और बेरोजगारी जैसे  मुद्दो पर  बेहतर काम करना है  ।  चुनावी अभियान में मैक्रोन इन मुद्दों को शालीनता के साथ हवा देते रहे | मैक्रोन  की जीत से यूरोपियन संघ को काफी राहत मिली है |  उसके नेताओं ने इस चुनाव परिणाम का खुले दिल से स्वागत किया है |  इसका बड़ा कारण उनका यूनियन के प्रति विश्वास है |  अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद यूनियन के नेताओं को आशंका थी कि कहीं फ्रांस की सत्ता भी राष्ट्रवादी  समर्थक मरीन के हाथ में न चली जाए  शायद यह वजह रही इन चुनावों में ओबामा मैक्रोन के साथ खुलकर खड़े दिखे  और उन्होंने उनकी तारीफों के कसीदे भी खूब पड़े | जीत के बाद मैक्रोन ने कहा हम भय के सामने हार नहीं मानेंगे |  विभाजन की कोशिशों के सामने घुटने नहीं टेकेंगे|  ऐसा करके उन्होंने अगले पांच साल के लिए सबको साथ लेकर चलने  का रोडमैप बना दिया है | साथ ही अतिवाद के समर्थन में वोट न डालने की अपील कर अपने बुलंद इरादे जता दिए हैं |  अपने प्रचार अभियान में मैक्रोन  ने फ्रांस को ज्यादा बिजनेस फ्रेंडली देश बनाने और कॉरपोरेट टैक्स कम करने का वादा किया था | अब उन्हें काम करके दिखाना होगा | उदार मध्यमार्गी मैक्रोन व्यापार समर्थक और यूरोपीय संघ के समर्थक हैं। मैक्रोन ने चुनावी सभाओं में   5000 बॉर्डर गार्ड्स की फोर्स बनाने के साथ ही  फ्रांसीसी राष्ट्रीयता हासिल करने के लिए फ्रैंच भाषा का राग भी  छेड़ा |  अपने चुनाव अभियान के दौरान मैक्रोन ने कहा राज्य को निरपेक्ष रहना चाहिए क्योंकि धर्मनिरपेक्षता फ्रांस हृदय में है | साफ़ है वह धर्म  के नाम को किसी बड़े विभाजन के साफ़ खिलाफ हैं |

 फ्रांस पिछले कुछ समय से मुस्लिम आतंकवादियों का दंश झेल रहा है जहाँ आई एस आई एस आये दिन आतंकी वारदातों में शामिल रहा है |  शरणार्थियों का मुद्दा राष्ट्रपति चुनावों में अहम मुद्दा रहा |  शरणार्थी संकट के   दौर में फ्रांस में लाखो शरणार्थी  आये लेकिन कई आतंकी हमलों के बाद धर्मनिरपेक्ष देश में मुसलिम आबादी के साथ तनाव बढ़ गया  | पिछले दिनों फ्रांस में तमाम आतंकी हमले हुए हैं जिसके चलते यूरोप में असहिष्णुता का भाव बढ़ा है । आज दुनियाभर में शायद इस्लामोफोबिया का डर हावी है, लेकिन यूरोप में यह कुछ ज्यादा है। मैक्रोन को इस दलदल से फ्रांस को बाहर निकालना होगा | इस जीत के साथ ही उन्होंने काफी समय से फ्रांस की राजनीति में हावी  रही रिपब्लिकन पार्टियों की जड़ें हिला दी हैं लेकिन मैक्रोन की पार्टी एन मार्शे के पास संसद में एक भी सीट नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव के बाद अगले महीने ही संसदीय चुनाव होने हैं।  मैक्रोन को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए गठबंधन का सहारा भी लेना पड़ सकता है। संसदीय  चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए उन्हें अपने राजनीतिक विरोधियों को भी साधना पड़ सकता है | फ्रांस के खर्च  में बड़ी कटौती करने की दिशा में भी उन्हें कदम बढ़ाने होंगे |  सामाजिक सुरक्षा और सरकारी नौकरियों पर इसी खर्च के चलते तलवार की तरह लटक रही है  |  मैक्रोन की नीतियां इसके समर्थन में हो सकती हैं|  बहुत संभव है वह राजकोषीय घाटे के लिए कटौती को मुकाम तक ले जायेंगे | अपने चुनावी अभियान  में  मैक्रोन ने बजट में 60 अरब यूरो की बचत करने का लक्ष्य  पहले ही रखा था अब देखने वाली बात होगी वह कौन सी नयी राह चुनते हैं जिससे  अवसर मिल सकें | मैक्रोन के सामने युवाओं को रोजगार के अवसर मुहैया कराने होंगे | युवा इस चुनाव में खुलकर  आये है इसलिए नौकरियों का नया पिटारा फ़्रांस में उन्हें खोलना ही होगा |  मैक्रोन ने चुनाव के दौरान  श्रम बाजार में सुधारों की बात कही है साथ ही कमजोर कमजोर श्रम कानूनों को बदलकर रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराना उनके चुनावी एजेंडे में रही भी है | साथ ही उन्हें आर्थिक सुधारों की दिशा में भी मजबूती के साथ अपने कदम बढ़ाने होंगे | 
इसके साथ ही आतंकवाद के मोर्चे पर उन्हें बड़ी लड़ाई लड़नी होगी | खूबसूरत  फ्रांस को पिछले कुछ बरस से आतंकी हमलों की नजर लग चुकी है जिनमें कई निर्दोष देशी और विदेशी नागरिको की जानें जा चुकी हैं |  आतंरिक सुरक्षा पिछले कुछ बरस में ढुलमुल रही है जिसके चलते एक के बाद एक आतंकी हमलों से फ्रांस दहलता रहा |  मैक्रोन को आतंकवाद पर कठोर रवैया अपनाना होगा | वैसे  मैक्रोन  अपनी नयी सियासी पारी  खेलने जा रहे हैं  | अब उनको अपने काम के दम पर अब खुद को  साबित करना  होगा | देखना दिलचस्प होगा वह खुद के लिए क्या प्राथमिकताएं आने वाले दिनों में तय करते हैं ? 

Thursday, 9 March 2017

नीतीश की नजर मिशन 2019 पर

बिहार  की सत्ता पर ठसक के साथ तीसरी बार काबिज होने वाले जेडीयू अध्यक्ष और सूबे के सीएम नीतीश कुमार ने मिशन 2019 के लिए अभी से मुनादी कर डाली  है । नीतीश ने 2019 लोकसभा चुनाव की ज़मीन तैयार करते हुए भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता को हवा देनी शुरू का दी है ।  11 मार्च के बाद अगर पीएम  मोदी का औरा फीका पड़ता है और भाजपा सकारात्मक परिणाम  पांच राज्यो के विधान सभा चुनावों में हासिल  करने में नाकामयाब रहती है तो  राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ महा गठबंधन  बनाने में नीतीश   उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं  जिससे 2019 में मोदी सरकार की विदाई हो सकेगी । साथ ही उन्होंने उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन  पटनायक को साधकर अपने पत्ते भी खोल दिए हैं । बीते दिनों उन्होंने नवीन पटनायक से मुलाकात में यह भी साफ़ कर दिया आगामी राष्ट्रपति चुनाव में  विपक्ष के प्रत्याशी के तौर पर विपक्ष अपना मजबूत उम्मीदवार उतारने पर विचार कर सकता है । नीतीश का साफ़ मानना है  अगर बीजेपी का हराना है तो तमाम पार्टियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है। नीतीश की हुंकार के बाद लग रहा है कि पी एम  मोदी के खिलाफ 11 मार्च के बाद  वह उसी तरह की गोलबंदी सभी दलों को साधकर करना चाहते हैं जैसा प्रयोग उन्होंने  बिहार में किया  ।मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत की तर्ज पर नीतीश ने  भरोसा ही नहीं उम्मीद जताई है भाजपा को महागठबंधन की तर्ज पर पराजित किया जा सकता है। 

 तो क्या माना जाए नीतीश ने बिहार से निकलकर पहली बार राष्ट्रीय राजनीती में सक्रिय होने के संकेत दे दिए हैं और क्या पहली बार बिहार के महागठबंधन की तर्ज पर सभी दल नीतीश की छाँव तले एकजुट होकर मोदी सरकार के खिलाफ बड़ी मोर्चाबंदी  11  मार्च के बाद  करने जा रहे हैं  । इन शुरुवाती संकेतों को डिकोड करें तो विपक्ष की कमान अपने  हाथ में लेते  ही नीतीश कुमार के निशाने पर अभी से 2019 आ चुका है जिसके खिलाफ वह माहौल बनाने में जुट गए हैं जिसकी शुरुवात आने वाले दिनों में उनके दक्षिण के राज्यो के  सघन दौरे से होने जा रही है । यह भाजपा को शिकस्त देने के लिए गैर भाजपाई दलों को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिश मानी जा सकती है । 
नवीन पटनायक के साथ नीतीश जब मुलाक़ात कर रहे थे  तो उनकी नजरें शायद  भारतीय राजनीती की इस ऐतिहासिक इबारत की ओर भी जा रही थी । शायद इसलिए उन्होंने  11 मार्च से पहले  गैर भाजपा दलों और अपने कार्यकर्ताओ को तैयार  रहने की सलाह इशारो इशारो में दे डाली है । आत्मविश्वास से लबरेज नीतीश  राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन  बनाने में  सिर्फ उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं । उत्प्रेरक किसी भी क्रिया की गति को बढाने में सहायक है  लिहाजा नीतीश की राष्ट्रीय राजनीती में  सार्थकता को कम   नहीं आँका जा सकता ।  वहीँ जद यू को भी उम्मीद है नीतीश की साफ़ छवि और सुशासन बाबू की छवि को ढाल बनाकर 2019 से पहले वह गैर भाजपा दलों को अपने पाले में लाकर गठबंधन में स्वीकार्यता बढ़ा सकते हैं । यूँ  तो  2019 की  चुनावी बिसात अभी बहुत दूर है मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काट की तैयारी नीतीश अभी से करने लगे हैं।विपक्षी दलों  की एकजुटता मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार पर फिट बैठ रही  है  ।   बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव भी उनका इस समय  भरपूर साथ दे रहे हैं। लालू ने तो बीते बरस ही  यहां तक कह दिया कि नीतीश एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे तो हमें खुशी होगी।

उम्मीदों और देश की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर नीतीश  द्वारा भाजपा के खिलाफ गोलबंदी का प्रयोग आसान  नहीं लगता क्युकि  बिना उत्तर प्रदेश फतह किये बिना दिल्ली में अगली सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाने के सपने देखना मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने जैसा है ।  यू पी में  11  मार्च को कांग्रेस सपा महागठबंधन  के मजबूत होने की सूरत में ही नीतीश प्रधान मंत्री पद की दावेदारी कर सकते हैं लेकिन यहाँ  पर भी राजनीती के दिग्गज नेताजी को साधना नीतीश के लिए  आसान नहीं होगा । अतीत में  नेताजी  महागठबंधन  से  बिहार चुनावों से पहले ही खुद बाहर हो चुके हैं  ।  सपा  और बसपा के इर्द गिर्द ही यू पी की  राजनीती घूमती रही है लेकिन  मोदी को रोकने के लिए और नीतीश को पी एम उम्मीदवार बनाने के लिए यह  दोनों दल अपने गिले शिकवे भुलाकर साथ आयेंगे ऐसा कहना दूर की  गोटी है ।  रही बात अजीत सिंह की  तो उनका पश्चिमी यू पी पर जबरदस्त प्रभाव है लेकिन फिलहाल वह  अपने पत्ते 11 मार्च के बाद फैंटने की सूरत में होंगे । ऐसा ही हाल झारखंड के पूर्व  मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का है  जिनका कोई नावलेवा  अब नहीं बचा है ।ममता नीतीश को लेकर साथ आ सकती है लेकिन क्या वह नीतीश को बड़ा चेहरा बनाएगी ?  तो  ऐसे हालातों  में नीतीश के पी एम के  सपनों को भला  कैसे पंख लग पायेंगे ? नीतीश के बारे में कहा जा रहा है वह भविष्य में लोक सभा चुनावों से पहले  अपनी पार्टी जद यू ,राजद,  झारखंड विकास मोर्चा , आर एल  डी का विलय कर जनविकास दल नाम की नई पार्टी खड़ी करना चाहते हैं लेकिन  पांच राज्यों में भाजपा के मजबूत होने के चलते इनका यह प्रयोग पूरे देश में साकार हो पायेगा इसमें संशय है । बिहार देश नहीं है और देश का मतलब इस दौर में बिहार नहीं है । हर राज्य की परिस्थितिया कमोवेश अलग अलग हैं और आज का वोटर भी अब बदल चुका है । राष्ट्रीय राजनीती अपनी जगह है और राज्यों में छत्रपों के वर्चस्व  हो हम नहीं नकार सकते । मुलायम सिंह , मायावती , नवीन पटनायक , ममता ,केजरीवाल, उमर अब्दुल्ला क्यों अपने राज्यों को नीतीश की पार्टी के हवाले कर देंगे और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे ? नीतीश का साथ बिहार में कांग्रेस ने दिया और कांग्रेस ने यू पी में सपा से गठबंधन किया ।  सोनिया का प्रयोग बिहार में सफल रहा लेकिन देश के मसले पर कांग्रेस भी अपनी 132  बरस पुरानी साख क्यों नीतीश के साथ जाने से खोएगी ? वैसे अगर यू पी  में  अखिलेश अच्छा प्रदर्शन कर ले जाते हैं तो वह भी खुद पी एम की कतार में खड़े हो सकते हैं । क्या वह भी नीतीश के नेतृत्व  को स्वीकार कर पाएंगे ?नीतीश कुमार ने  लोकतंत्र की रक्षा के लिए गैर भाजपा दलों से एकजुट होने की अपील  की है।उन्होंने भरोसा दिलाया कि भाजपा विरोधी दलों कांग्रेस वामदल और अन्य क्षेत्रीय दलों को 2019  से पहले एक साथ लाने के लिए प्रयासरत रहेंगे  । 

राजनीती संभावनाओ का खेल है और यहाँ  महत्वाकांशा हिलारे मारती रहती है। इस समय नीतीश के साथ भी यही हो रहा है ।अलग मोर्चा बनाने के  कई बार प्रयास हो चुके हैं मगर यह मोर्चे बहुत दूर तक सफर तय नहीं कर पाए।1996 में नेताजी  ने अपने पैतरे से केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनाने की मंशा पर जहाँ पानी फेरा था वही बाद में  वह रक्षा मंत्री बन गए। 1999  में अटल बिहारी की सरकार गिरने के बाद  अपनी  दूरदर्शिता से कांग्रेस को गच्चा देकर उसे सरकार  बनाने से रोक दिया था । वही नेताजी ने  2004 में न्यूक्लिअर डील पर यू पीए 1 को संसद में विश्वासमत प्राप्त करने में जहाँ मदद की वहीँ  यू पीए 2 के तीन साल के जश्न में वह  शरीक भी  हुए  तो वहीँ मौका आने पर कांग्रेस के साथ रहकर उसी के खिलाफ तीखे तेवर दिखने से बाज नहीं आये । उसकी नीतियों को कोसते हैं और तीसरे मोर्चे का राग अपनी राष्ट्रीय  कार्यकारणी में  कई  बार अलापते रहे  जिसमे वह भाजपा -कांग्रेस दोनों को किनारे कर लोहियावादी, समाजवादी , वामपंथियों को साथ लेकर राजनीति की नई लकीर उसी तर्ज पर खींचते  दिखाई  दिए  जो उन्होंने 1996 में नरसिंह राव के मोहभंग के बाद खींची थी  । इसके बाद देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को साधकर तीसरे मोर्चे का दाव  खेल गया लेकिन यह प्रयोग भी असफल रहा ।  यू पी ए के  दौर में प्रोग्रेसिव  अलाइंस  बनाने  की बातें भी खूब हुई लेकिन चुनाव से पहले यह प्रयोग  भी फुस्स हो गया ।3  बरस पहले  ही लोकसभा चुनाव के समय नेताजी  ने तमाम छोटे दलों को जोड़ कर भाजपा और कांग्रेस के सामने तीसरे मोर्चा के रूप में सशक्त चुनौती पेश करने की पहल की थी पर वह नाकामयाब रहे। अब नीतीश कुमार मोदी का भय दिखाकर सभी पार्टियों को जोड़ने की बात कर रहे हैं। भविष्य में उनकी कोशिश अपनी शराबबंदी की योजना को पूरे देश में प्रचारित करने की है । इसे  ब्रांड इमेज बनाने का कार्य प्रशांत किशोर करने जा रहे हैं । 

   दरअसल जब लोग भाजपा और कांग्रेस से ऊब जाते हैं तब वह तीसरे विकल्प की तरफ चले जाते हैं। लेकिन जब यह दल सत्ता में रहते हैं तो इनके राजनीतिक हित  टकराने लगते हैं।  देश में अब माहौल बदल  चुका है । विकास के नाम पर ही अब वोट मिल रहे हैं इस बात को हमें समझने पड़ेगा । आज का भारत नब्बे के दशक वाला नहीं रहा जब मंडल कमंडल ने देश की राजनीती को झटके में बदल दाल था ।  आज  हर क्षेत्रीय दल का अपना समीकरण है तो पार्टियां भी जातीय  राजनीती के दंगल से अपने को बाहर नहीं निकाल पा रही हैं । देश में क्षेत्रीय स्तर पर सभी विपक्षी दलों के आपस में टकराव हैं। जहां सपा होगी वहां बसपा के लिए साथ देना गवारा नहीं होगा। द्रमुक और अन्नाद्रमुक  एक साथ नहीं होना चाहेंगे। इस तरह अगर देखें तो नीतीश का सभी पार्टियों को साथ लाने का सपना तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक विपक्षी दल अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर न उठें। बड़ा सवाल है क्या 11 मार्च के बाद देश की सियासत बदलेगी ? अगर भाजपा कमजोर हुई और मोदी की साख घाट गयी तो क्या यह विपक्ष  की एकजुटता नया रंग होली के बाद छोड़ेगी ? ये ऐसे सवाल हैं जो इस समय पूरे देश में उमड़ गुमड़ रहे हैं ।  
 राजनीती  की  नई  बिसात  में  11  मार्च को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम  आने के बाद नीतीश कुमार  कुछ ऐसी खिचड़ी पकाना चाह रहे हैं जिससे भाजपा  से इतर एक नयी मोर्चाबंदी केंद्र  में शुरू हो सके जिसकी कमान वह खुद अपने हाथो में लेकर  सियासत  में नई  लकीर खिंच सकें ।  1996  में जब नरसिंहराव सरकार से लोगो का मोहभंग हो गया तो नेताजी ही वह शख्स  थे जिसने समाजवादियो , वामपंथियों, लोहियावादी विचारधारा के लोगो को एक साथ   लाकर उस दौर में शरद पवार के साथ मिलकर एक नई  बिसात केंद्र की राजनीती में चंद्रशेखर को  आगे लाकर बिछाई थी । उसी तर्ज पर  चलते हुए नीतीश  अपना राग गा रहे हैं  ,साथ में तीसरे मोर्चे के लिए भी हामी भरते दिख रहे हैं ।  दशकों  बाद वह  गैर भाजपाई  मोर्चे के लिए अपनी शतरंजी बिसात बिछाने में लग गए हैं ।  11 मार्च के बाद विपक्ष  की एकजुटता का सही से पता चल पायेगा । अगर मोदी का जादू चल गया  तो विपक्ष  की एकता  फीकी पड़  जाएगी और अगर भाजपा हारी तो यह प्रधानमंत्री  की करारी हार होगी क्योंकि इन पांच राज्यों के चुनावों में मुख्य चेहरा मोदी ही रहे जिनके इर्द गिर्द पूरी चुनावी कैम्पैनिंग हुई । राजनीती के अखाड़े में चतुर नीतीश कुमार इस बात को बखूबी समझ  रहे हैं 11  मार्च को  अगर मोदिनोमिक्स की हवा निकलती है तो  भाजपा  के खिलाफ तब विपक्ष पूरा एकजुट नहीं हुआ  तो समय हाथ से निकल जायेगा। वैसे भी नीतीश कुमार के पास  पी ऍम बनने का सुनहरा मौका शायद ही होगा जिसमे  1996 की  तीसरे मोर्चे  से  हुई गलतियों से सीख लेकर एक नई  दिशा में देश को ले जाने का साहस दिखा सकते है । वैसे भी इस समय देश में कांग्रेस ढलान  पर है तो भाजपा  पर भी  11  मार्च को लेकर साढ़े  साती चल रही है । 

11  मार्च के बाद मोदी  के लिए आने वाले ढाई बरस  चुनौतियों  भरे रहेंगे वहीँ नीतीश के सामने भी आने वाले बरसों  में उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है । मोदी के सामने पूरा देश है तो नीतीश के सामने बिहार । मोदी गुजरात मॉडल के बूते जब 7  रेस कोर्स का सफर तय कर सकते हैं तो नीतीश भी अपने बिहार मॉडल और सुशासन बाबू के  शराबबंदी के आसरे देश में नई  लकीर  खींचने का माद्दा तो रखते हैं  शायद यही वजह है  नीतीश  कुमार को लेकर विपक्ष के कैडर मे जोश है और अगर 11 मार्च को भाजपा आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पायी तो केंद्र में मोदी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी । ऐसे में  बिहार मॉडल के आसरे नीतीश दिल्ली जीतने की तैयारी  विपक्ष को एक छतरी तले लाकर कर सकते हैं ।   11 मार्च के बाद तीसरे   मोर्चे की सियासत को आगे बढाने  का  बेहतर समय नीतीश के पास  आ सकता  है । नीतीश  इसके मर्म को शायद समझ भी रहे हैं । ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि राजनीती  के अखाड़े में नीतीश  का 11  मार्च के बाद विपक्ष की एकजुटता  का दाव  कितना कारगर होता है और पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद  विभिन्न राज्यों के छत्रप किस तरह उनके इस कदम पर ताथैय्या  करते हैं । फिलहाल 11  मार्च का इन्तजार हर किसी को है ।

Wednesday, 1 March 2017

चुनावी शोर तले मणिपुर पर ख़ामोशी





इस समय देश की सियासत परवान चढ़ रही है । जिधर देखो उधर चुनावी चर्चा चल रही है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस दौर में तमाम न्यूज चैनलों में भी न्यूज़रूम चुनावी दंगल का शो  बनकर रह  गया है । कुछ समय से सभी चैनल पंजाब और यू पी पर जहाँ  पैनी नजर रखे हुए थे वहीँ अभी हाल यह है चुनावी चर्चा केवल और केवल उत्तर प्रदेश के चुनावों तक जाकर सिमट गयी है । राष्ट्रीय मीडिया की बात करें तो तकरीबन 90 फीसदी चर्चा पंजाब और उत्तर प्रदेश  तक है जबकि गोवा , उत्तराखंड सरीखे राज्यों को बमुश्किल 10  फ़ीसदी  प्रतिनिधित्व मिल पाया । शायद इसकी वजह इन राज्यों  का आबादी के लिहाज से छोटा  होना हो सकता है । साथ की केन्द्र  में भी इन राज्यो का वजन कम है क्योंकि यहाँ लोक सभा की बहुत कम सीटें हैं । यही हाल मणिपुर को लेकर भी है । आगामी  4  मार्च और 8  मार्च को वहां पर दो चरण में मतदान होना है लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में मणिपुर की चर्चा नहीं के बराबर है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी मणिपुर से जुड़े सरोकारों की सुध इस दौर में नहीं ले पा रहा है शायद इसलिए क्युकि पूर्वोत्त्तर की समस्याओं पर चर्चा करने की फुरसत मीडिया के पास नहीं है और वहां पर टी आर पी के मीटर भी नहीं लगे हैं जो न्यूज चैनलों को प्रतिस्पर्धा में टॉप  5 तक पहुंच सकें । 

 छोटे से पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की  मीडिया द्वारा अनदेखी कई सवालों को खड़ा करती है । राजनेताओं का मणिपुर सरीखे पूर्वोत्तर के राज्यों से कोई सरोकार नहीं है शायद इसकी वजह यह है  यहाँ से लोकसभा के  2 सांसद हैं इसलिए कांग्रेस और  भाजपा सरीखे राष्ट्रीय दल  भी मणिपुर के मसलो पर चुप्पी साधने से बाज नहीं आते । मणिपुर के जमीनी  हालातों से मीडिया अनजान है । पिछले कुछ समय से वहां पर बड़े पैमाने पर आर्थिक नाकेबंदी चल रही है लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसी लेकर कोई हलचल नहीं है । शायद ही कोई न्यूज़ चैनल ऐसा होगा जिसने  इस चुनाव में मणिपुर के सवालों और आम जनता के सरोकारों से जुडी खबरों को अपने चैनल में प्रमुखता के साथ जगह दी हो । आर्थिक नाकेबंदी की एक आध खबरें प्रिंट मीडिया के माध्यम से ही प्रकाश में आईं  ।

मणिपुर  के हालात बहुत अच्छे नहीं है । चुनावी माहौल  के बीच आज भी मणिपुर के विरुद्ध नाकेबंदी  चल रही है। इसकी शुरूआत नवम्बर में हुई थी जब राज्य  सरकार ने मणिपुर में  नए जिले बनाने की घोषणा की । मणिपुर में जाति और जमीन की खाई दिनों दिन गहराती जा रही है । राज्य में नगा और कूकी समुदाय के बीच पुराना संघर्ष है ।  दोनों समुदायों के बीच हुई हिंसा में कई लोग मारे जा चुके हैं ।  चुनाव के पास होते ही अब संघर्ष तेज हो रहा है और हर पार्टी इस जंग का इस्लेमाल अपने फायदे के लिए करना चाहती है ।  चुनावी बरस में राज्य सरकार द्वारा  मणिपुर के जिले का विभाजन  करने का कदम मणिपुर के लोगों और सरकार के गले की हड्डी बन चुका है।  मणिपुर की कुल जनसंख्या में 60  प्रतिशत लोग मैतई समुदाय से आते हैं ।  ऐसे में साफ है कि राज्य की राजनीति में मैतई समुदाय का वर्चस्व ही पहाड़ और घाटी के बीच बढ़ती दूरियों की एक बड़ी वजह इस चुनाव में  भी है।

 मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी मैतई समुदाय से आते हैं और वह इस चुनाव में मैतई समुदाय को अपने पक्ष में लामबंद कर कांग्रेस की जीत का सपना लगातार चौथी बार भी देख रहे हैं । मणिपुर में कांग्रेस  हैट्रिक लगा चुकी है ।  इबोबा सरकार  मैतई  समुदाय का खुलकर पक्ष लेते रहते हैं जिसे लेकर लोगों में भारी रोष देखा जा सकता है ।  इस चुनाव में पहाड़ और घाटी के बीच ही वोटों का विभाजन होने का अंदेशा है । ख़ास बात यह है मणिपुर में कुल 60 विधानसभा सीटों में से 40 सीटें घाटी में हैं जबकि पहाड़ पर विधानसभा की 20 सीटें हैं ।मैदानी इलाकों का प्रतिनिधित्व जायद होने के चलते पहाड़ के लोगों की सरकार के गठन में उतनी भूमिका नहीं रहती है । ऐसे में  कांग्रेस मैतई समुदाय से बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है और चुनावो से पहले खुलकर उनके पक्ष में लामबंद होती दिखती है । इस बार भी  सरकार ने  नगा बहुल वाले पहाड़ी जिलों का बंटवारा कर दो नए जिले बनाए है जिसने चुनावों से पहले घाटी और पहाड़ के बीच दरार पैदा कर दी है । इसी  कार्ड के चलते इबोबी सरकार चुनाव जीतने का सपना देख रही है । कांग्रेस के खिलाफ  सत्ता विरोधी लहर तो है लेकिन  मैतई समुदाय के पक्ष में माहौल होने के चलते  सत्तारूढ़  कांग्रेस ने सब मैनेज कर लिया है । पूर्वोत्तर में आसाम की तरह भाजपा मणिपुर में अपना वोट बैंक बनाने की जुगत में है । इसके लिए इस बार पार्टी ने पूरी ताकत लगाई है । नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस  के साथ उसका गठबंधन  इसी  का  नतीजा  है । 

  मानवाधिकार कायकर्ता इरोम शर्मिला  भी  राजनीतिक अखाड़े में कूद पड़ी हैं और चुनाव लड़ रही हैं। वह विवादित सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को रद्द किए जाने की मांग करती आ रही हैं। मणिपुर विधानसभा के लिए इरोम शर्मिला की नई नवेली पार्टी, पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस ने  सिर्फ तीन प्रत्याशी ही खड़े किये हैं । शर्मिला स्वयं थोबल विधानसभा क्षेत्र से मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के विरुद्ध लड़ रही हैं।  इरोम शर्मिला ने पार्टी तो बना ली है पर उनके पास धनबल , बाहुबल नहीं है ना ही कार्यकर्ताओं की भारी भरकम फ़ौज जो  राष्ट्रीय दलों का मुकाबला कर सके । मणिपुर की लगभग साठ फीसदी आबादी इम्फाल के इर्द-गिर्द घाटी में रहती है। शेष कुकी, नगा, ज़ोमी कबीले के लोग पहाड़ों में निवास करते हैं। घाटी में मैतेई, मणिपुरी ब्राह्मण, विष्णुप्रिय मणिपुरी के अलावा आबादी का 8.3 प्रतिशत पांगल है जिनका  राजनीति और व्यापार में दखल रहता है। मैतेई आबादी को प्रभावित करने के मकसद से इबोई सिंह ने नये सिरे से जिले बनाने की घोषणा की थी जिसके विरुद्ध नगा बहुल इलाकों में लंबे समय तक नाकेबंदी का मंजऱ था।  इबोबी सिंह  बिना चिंता के मैदान में इस बार भी  डटे  हुए हैं । भाजपा के लिए राह मुश्किल भरी इसलिए भी है  भाजपा को नागा जाति की समर्थक पार्टी के तौर पर पूर्वोत्तर में देखा जाता है । एक मुश्त वोट अगर मैतयी के पड़ते हैं  तो बाजी कांग्रेस के नाम होने में देर नहीं लगेगी इसलिए भाजपा भी यहाँ फूंक फूंक कर कदम रख रही है । 

मैतेयी और नागा जातियों की मौजूद दौर में  खाई  ने नागालैंड और मणिपुर के दोनों राज्यों के बीच भी तनाव पैदा कर दिया है।   यूनाइटेड नागा कौंसिल जैसे गुट मणिपुर से आने वाले ट्रकों और अन्य वाहनों को अपने यहां से गुजरने नहीं देते इसलिए कई  बार मणिपुर की आर्थिक  नाकाबंदी हो चुकी है।राष्ट्रीय मीडिया और  ने मणिपुर की इतनी अधिक अनदेखी की है कि अपने  चैनल में मणिपुर को नहीं के बराबर स्पेस दिया ।  केंद्र सरकार  मणिपुर में एक नवंबर से अनिश्चितकालीन आर्थिक नाकाबंदी को लेकर मूकदर्शक  बनी हुई है । इस नाकेबंदी  की वजह से मणिपुर में लोगों को खाने-पीने समेत जरूरी सामानों की किल्लत पैदा हो गई । पेट्रोल के दाम 350  रुपये लीटर बढ़ गए । रसोई गैस का सिलेंडर 2000 रुपये  तक पहुँच गया । यही नहीं नेशनल हाइवे 2  भी बंद होने से मणिपुर में गुजर बसर कर पाना मुश्किल हो गया लेकिन मीडिया मणिपुर पर खामोश रहा ।   आर्थिक नाकेबंदी का प्रभाव  इंफाल के  कई हिस्सों में देखा जा सकता था जहाँ लोग  कर्फ्यू के साये में जीवन बिता रहे थे । इन इलाकों में नागा समूहों द्वारा  ब्लास्ट भी किये गए । साथ ही  विरोध प्रदर्शन में  वाहनों में आग भी लगी । पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान हिंसा वाले इलाकों में  तमाशा देखते रहे और आंसू गैस से आगे मामला बढ़ नहीं पाया । सीएम ओकराम ईबोबी सिंह के नए जिले बनाने की घोषणा से  नागा समूह ने 1 नवंबर से वहां नाकाबंदी शुरु कर दी जिससे जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ और दिल्ली केंद्रित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मणिपुर के  बदतर हालातों की खबरों को स्पेस देना मुनासिब नहीं समझा । 

मणिपुर में जारी आर्थिक नाकेबंदी और क्षेत्रीय अखंडता को कांग्रेस  ने बड़ा मुद्दा बनाया है और दो तिहाई बहुमत इस बार भी पाने की उम्मीद लगायी है वहीं कांग्रेस ने इस नाकेबंदी के लिए भाजपा को जिम्मेदार बताया है  । ईरोम  बेशक  अखाड़े में हैं लेकिन 3  प्रत्याशियों की ताकत मणिपुर का भाग्य बदलने का माद्दा नहीं रखती है । वह भी तब जब चुनाव हाइटेक हो गया है जहाँ राष्ट्रीय दलों  के वार रूम से सब चीजें  मैनेज हो रही हैं ।   राज्य में भाजपा बीते बरस  से ही सत्ता में आने के सपने देख रही है लेकिन कांग्रेसी नेताओं  के पिटे चेहरों के बूते वह मणिपुर फतह कर जाएगी ऐसा मुश्किल दिखता  है । मणिपुर में  जिलों को विभाजित  करने का कार्ड चलकर मणिपुर में  कांग्रेस ने सत्ता विरोधी लहर को खत्म सा  कर दिया है । कांग्रेस ने जहाँ मैतयी को अपने पक्ष में कर लिया है वहीँ मैदानी इलाकों में भी उसका प्रतिनिधित्व ज्यादा होने से हाथ मजबूत दिख रहा है । पहाड़ी इलाकों में सीटें कम होने से बाजी कांग्रेस के नाम होने के आसार दिख रहे हैं क्योंकि वही सिकंदर बनेगा जिसका सिक्का 40 सीट पर मजबूत होगा । फिलहाल समीकरण कांग्रेस के पक्ष में मजबूत दिखाई दे रहे हैं लेकिन राजनीति की बिसात पर कौन प्यादा बनता है और कौन वजीर इसका फैसला 11 मार्च को चलेगा । 

Monday, 27 February 2017

जेलियांग के बाद लीजीत्सु




पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड  एक  भीषण  गंभीर राजनीतिक संकट से  बाहर निकल आया है । बीते दिनों  मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग के  नाटकीय  इस्तीफे ने इस छोटे से राज्य के राजनीतिक संकट को जहाँ बढाने का काम किया  वहीँ सत्तारूढ़ नागा पीपुल्स फ्रंट  ,एनपीए  ने शुर्होजेली लीजीत्सु को विधायक दल का नेता चुन लिया जिसके बाद सभी ने 22  फरवरी को ग्यारह मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके साथ नागालैंड में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर चल रही रस्साकसी थम गई ।

असल में निवर्तमान मुख्यमंत्री जेलियांग ने जनवरी के आखिर में नगर निकाय चुनाव  कराने का ऐलान किया था जिसमें  शहरी निकाय चुनावों के लिए महिलाओं का आरक्षण तैंतीस प्रतिशत कर दिया था। इसके बाद से वहां पर  विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था। इस विरोध प्रदर्शन ने तब हिंसक रूप ले लिया जब पुलिस से झड़प में दीमापुर में दो युवकों की मौत हो गई। इसके बाद प्रदर्शन बहुत उग्र हो गया । गुस्साई भीड़ ने कोहिमा स्थित मुख्यमंत्री आवास को  अपने कब्जे में लेने की कोशिशे तेज़  कर दी । प्रदर्शन  काफी उग्र हुए ।  कई सरकारी भवनों में जहाँ आग लगी वहीँ  राष्ट्रीय सम्पत्ति  को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया ।  प्रदर्शनकारियों ने दीमापुर और कोहिमा के बीच राजमार्ग  को घंटो बाधित कर दिया ।  राज्य के कई इलाकों में कर्फ्यू  लगा रहा जिससे जनजीवन  बुरी तरह प्रभावित हुआ ।  इसी दौरान नागालैंड ट्राइब एक्शन काउंसिल नाम से गठित संगठन ने मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और उनके कैबिनेट को इस्तीफा देने की मांग की। साथ ही कई संगठनों ने मांग की थी कि राज्य सरकार स्थानीय निकाय चुनावों को निरस्त करे, प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले पुलिस और सुरक्षाकर्मियों को निलंबित करें और जेलियांग मुख्यमंत्री पद से हट जाएं। । नगालैंड की सरकार ने नगालैंड ट्राइब्स एक्शन कमिटी  कोहिमा और ज्वाइंट कोऑर्डिनेशन कमिटी की मांग को स्वीकार करते हुए शहरी स्थानीय निकाय चुनावों की पूरी प्रक्रिया के साथ ही तैंतीस फीसदी महिला आरक्षण को निरस्त कर दिया। 

राज्य में जब हालात खराब होने लगे  तब मुख्यमंत्री जेलियांग के खिलाफ बगावती सुर उठने लगे । एनपीएफ पार्टी के कई विधायक मुख्यमंत्री के खिलाफ हो गए। ऐसे में राज्य के मौजूदा हालात पर चर्चा के लिए सत्ताधारी एनपीएफ के विधायकों ने बैठक की। इस बैठक में शामिल अधिकांश विधायक नगा गुटों के विरोध प्रदर्शनों को ठीक ढंग से संभाल पाने में असमर्थता के चलते जेलियांग को सीएम पद से हटाने की मांग पर सहमत दिखे। इसके बाद जेलियांग ने इस्तीफा दिया। जेलियांग ने एनपीएफ के विधायकों को लिखे एक पत्र में कहा कि उन्होंने आंदोलनकारी समूहों और सरकार के बीच गतिरोध तोड़ने के लिए इस्तीफा देने का फैसला किया । मुख्यमंत्री पद से टीआर जेलियांग के इस्तीफे के बाद नए मुख्यमंत्री के तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य के एकमात्र लोकसभा सदस्य नीफियू रियो का नाम चल रहा था। उनके पक्ष में आमराय बन जाने के बावजूद वे विधायक दल का नेता नहीं चुने जा सके। एक तो इसलिए कि उनके बजाय जेलियांग मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एनपीएफ के अध्यक्ष शुर्होजेली लीजीत्सु को देखना चाहते थे। रियो ही थे जिन्होंने 2015 में जेलियांग को मुख्यमंत्री पद से बेदखल करने की कोशिश की थी।एनपीएफ ने पार्टी-विरोधी गतिविधियों के आरोप में पिछले साल रियो की सदस्यता अनिश्चित काल के लिए निलंबित कर दी थी। लिहाजा, राज्य के ग्यारहवें मुख्यमंत्री के रूप में लीजीत्सु के चुने जाने का रास्ता साफ हो गया। 

 साठ सदस्यीय नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ 49 विधायक हैं, जिनमें से करीब 40  विधायक इस बैठक में शामिल हुए थे और वह अधिकांश विधायकों ने नगालैंड के एक मात्र सांसद नेफियू रियो को विधायक दल का नेता चुना था। लेकिन एनपीएफ ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पिछले साल रेयो की सदस्यता अनिश्चितकालीन के लिए निलंबित कर दी थी। दिलचस्प यह है  नागालैंड के 60   विधायकों वाली विधानसभा में कोई भी नेता विपक्ष में नहीं है। इसके अलावा किसी भी पार्टी ने शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं के आरक्षण के विरोध में चल रहे आंदोलन के खिलाफ खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं की। यही नहीं, राज्य की सारी विधायिका ने ‘नगालैंड ट्राइब्स एक्शन कमेटी’ और ‘जाइंट कोआर्डिनेशन कमेटी’ के आगे घुटने टेक दिए।साथ राज्य सरकार ने दोनों नागा गुटों के उग्र प्रदर्शन के आगे अपने घुटने  टेक दिए। नागालैंड में  विपक्ष नाममात्र का  है।  साठ सदस्यीय विधानसभा में सभी  एनपीएफ के ही विधायक हैं। एनपीएफ के 49  विधायकों के अलावा चार भाजपा के और सात निर्दलीय हैं। लेकिन विपक्ष में बैठनाकिसी को पसंद नहीं था लिहाजा सभी  विधायक सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक अलायंस आॅफ नगालैंड (डीएएन) में शामिल हैं। 

अब लीजीत्सु के सामने यह चुनौती होगी वह महिला सशक्तीकरण के लिए निकाय चुनावों में महिलाओं का आरक्षण लागू कर पाएंगे। क्या वह नागा गुटों के विरोध प्रदर्शनों से निपट पाएंगे ? क्या वह भी अपने  पूर्ववर्ती सी एम की तरह बेबस नजर आएंगे ?  ऐसे मुश्किल दौर में  लीजीत्सु के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय संगठनों के विरोध से निपटने और शांति कायम करने की होगी ? बड़ा सवाल यह है क्या वह नई  लकीर नागालैंड में खींच पाएंगे ?  क्या वे स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण के प्रावधान को लागू करा पाएंगे? लीजीत्सु  ऐसे वक्त मुख्यमंत्री पद का दायित्व लेने जा रहे हैं जब राज्य एक उथल-पुथल से गुजरा है और उसका तनाव अब भी जारी  है। लीजीत्सु के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय संगठनों के विरोध से निपटने और शांति कायम करने की है। देखना होगा इसमें वो कितना सफल हो पाते हैं ? 

Thursday, 23 February 2017

उत्तराखंड : जंग के बाद अब कुर्सी का जोड़ तोड़





उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से निपट गया है । इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा । वह भी इस मायने में क्युकि राष्ट्रपति शासन के बाद कांग्रेस से निकाले गए कई नेता भाजपा में जहाँ शामिल हुए वहीँ वोट के इस मौसम में कांग्रेस में भी कमोवेश भाजपा सरीखे हालात रहे । कांग्रेस को भी कई सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ा वहीँ भाजपा में भी बरसो से काम करने वाले कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए बागियों को गले लगाया गया । उत्तराखंड के चुनावी मिजाज की टोह लेने पर इस बार मतदाता के भीतर एक अलग तरह की ख़ामोशी नजर आयी । जल , जमीन , जंगल के मुद्दे  हाशिये पर जहाँ नजर आये वहीँ पलायन को लेकर दोनों राष्ट्रीय दलों की चुप्पी ने कई सवालों को खड़ा किया ।  बढ़ती बेरोजगारी पर किसी ने चिंता नहीं जताई । वहीँ  फ्री डेटा और मोबाइल लैपटॉप तक चुनावी मेनीफेस्टो सिमट कर रह गया ।

उत्तराखंड में परिणाम चाहे जैसे भी आएं लेकिन एक बात तो साफ़ है यहाँ पर मुख्य मुकाबला  भाजपा और कांग्रेस में ही है । राज्य गठन के बाद से कमोवेश हर चुनाव में दोनों  राजनीतिक दल बारी बारी से राज करते आये हैं । कांग्रेस ने इस बार जहाँ मुख्यमंत्री हरीश रावत के चेहरे को आगे किया वहीँ गुटबाजी से उलझ रही भाजपा पी एम मोदी के भरोसे मैदान में उतरी । पहाड़ों में सर्द  मौसम के बावजूद इस बार रिकॉर्ड 70 फीसदी मतदान हुआ जो अपने में एक रिकॉर्ड है । मतदाता पहली बार बूथों पर उत्साह के साथ नजर आये ।  बंपर वोटिंग को भाजपा और कांग्रेस  अपने अपने पक्ष में बता रही हैं। भाजपा सत्ता में  बदलाव की आस लगाए बैठी है  तो कांग्रेस को उम्मीद है हरदा अगले  पांच बरस  अपने नाम कर जायेंगे । इस चुनाव की सबसे बड़ी चिंता दोनों पार्टियों के बागी प्रत्याशियों ने बढ़ाई  हुई है । पिछले चुनावों में भाजपा की तरफ से खंडूरी चुनाव हार गए थे । वह मुख्यमंत्री का बड़ा चेहरा रहे थे  । वहीँ कांग्रेस की बात करें तो उसने भी मैदान नहीं छोड़ा । भाजपा 19  तो कांग्रेस 20  रही थी । यही कारण  था उन चुनावों में सत्ता की चाबी भी बागियों के पास रही । इस चुनावो में भी  पहाड़ी इलाकों  के साथ मैदानी इलाकों में बसपा का हाथी अगर चढ़ाई करता है और कुछ सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशी अच्छा वोट पा लेते हैं तो इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के होश फाख्ता हो सकते हैं ।

उत्तराखण्ड में हुए रिकॉर्ड मतदान के बारे में अलग अलग तरह के कयास लगने शुरू हो गए हैं ।   भाजपा की मानें तो उत्तराखंड में प्रधानमंत्री मोदी का जादू अभी भी कम नहीं हुआ  है । साथ ही हरीश रावत के खिलाफ  एंटी इंकेबेंसी  इस बार रंग लायी है  वहीँ  दूसरी तरफ कांग्रेस मान रही है नोटबंदी और बढ़ती महंगाई और मोदी सरकार के प्रति निराशा  के चलते बड़ी संख्या में लोग  मतदान केंद्रों तक पहुंचे हैं । पिछले कुछ समय से देश के मिजाज को अगर हम परखें तो एक ख़ास बात यह पायी गयी है रिकॉर्ड मतदान  अब सत्ता विरोधी  साबित नहीं हुआ है । बिहार , बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी रिकॉर्ड मतदान को बदलाव का संकेत माना गया था। इसके बावजूद नतीजे एकदम उलट आए और इन सभी राज्यो में पार्टी की वापसी हुई । उत्तराखंड में भाजपा ने इस चुनाव में अपने स्टार प्रचारकों की भारी भीड़ उतारी वहीँ प्रधानमंत्री मोदी को पिथौरागढ़ जैसे सीमान्त जनपद की रैली में उतारा ।  वहीँ  टिकटों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार में  कांग्रेस  भाजपा की तुलना में पिछड़ती रही। यहाँ कांग्रेस केवल हरीश रावत के मैजिक के आगे निर्भर रही ।प्रधान मंत्री मोदी ने  राज्य में हुई ताबड़तोड़ रैलियों में पहाड़ के पानी से लेकर पहाड़  की जवानी तक के मुद्दों  को हवा दी । पलायन पर चिंता जताने के साथ ही उन्होंने  टूरिज्म को बढ़ावा देने की बात कही । साथ ही अपनी रैलियों में सेना का जिक्र जरूर किया । उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर लोग सेना में हैं लिहाजा मोदी सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर वन रैंक वन  पेंशन  जैसे मुद्दे  उठाने से पीछे नहीं रहे । उन्होंने रावत सरकार के भ्रष्टाचार  को लेकर सवाल दागे और सत्ता परिवर्तन की तरफ इशारा किया ।  मोदी की रैलियों में जबरदस्त भीड़ नजर आयी । श्रीनगर और पिथौरागढ़ जैसे जिलों में दूर दूर से उनको सुनने  लोग आये । अब उनके भाषण का क्या असर हुआ यह तो 11 मार्च को आने वाले नतीजों के बाद ही पता चल पायेगा वहीँ कांग्रेस मुख्यमंत्री हरीश रावत पर पूरी तरह से निर्भर  रही। चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में  पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हरिद्वार जनपद में रोड शो किया। रावत पर उनके विरोधी गढ़वाल और कुमाऊं में भेद करने का आरोप लगाते रहे हैं  लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान  कुमाऊं और गढ़वाल के सुदूर क्षेत्रों में वह अकेले चुनाव प्रचार करने पहुंचे  साथ ही इस बार उन्होंने कुमाऊ और गढ़वाल दो सीटों से चुनाव लड़ा । इसके पीछे रणनीति दोनों इलाकों में कांग्रेस की ताकत को मजबूत करने की रही । बड़े पैमाने पर लोग कांग्रेस छोड़  गए जिससे पार्टी में रावत की कार्यशैली  को लेकर सवाल भी उठते  रहे । विपरीत और विषम हालातों में  रावत अगर उत्तराखंड में वापसी कर जाते हैं  तो पार्टी में उनका कद बहुत बढ़ जाएगा साथ ही  कांग्रेस आलाकमान के सामने वह और अधिक मजबूत होंगे। पार्टी के अंदर उनके विरोधियों को मजबूरन शांत होना पड़ेगा।

उत्तराखंड में  रिकॉर्ड मतदान होने के बावजूद यह साफ नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी।  दिल्ली और बिहार में तमाम राजनीतिक पंडितों के अनुमान ध्वस्त हो गए । बिहार में भी 2015  में   ज्यादा मतदान हुआ था ।  यहाँ राजनीतिक पंडित लालू के साथ नीतीश के महागठबंधन को नुकसान होने की बात कर रहे थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालू , नीतीश और कांग्रेस महागठबंधन को पूर्ण बहुमत से कहीं ज्यादा सीटें मिलीं।  बंगाल और तमिलनाडु में भी राजनीतिक पंडितों से मतदाताओं का मिजाज  समझने में चूक हुई।  तमिलनाडु में रिकॉर्ड मतदान के बावजूद पुनः जयललिता की सरकार बनी। वहां रिकॉर्ड मतदान का कारण सत्ता विरोधी लहर नहीं थी। प्रदेश के मतदाताओं ने जिस तरह का उत्साह दिखाया है इससे राजनीतिक दलों की नींद उडी हुई है । फिर बिहार , बंगाल , तमिलनाडु , दिल्ली की तर्ज पर अगर इसे देखे तो हवा का रुख सत्ता के साथ भी हो सकता है । वैसे उत्तराखंड में बारी बरी से भाजपा और कांग्रेस की सरकार बनती रही है । तीसरी ताकत के रूप में उत्तराखंड क्रांति दल जरूर है लेकिन पिछले 16 बरस में आपसी टूट से उसे नुकसान  झेलने को मजबूर होना पड़ा है । राज्य के मैदानी इलाकों में बसपा का कई जगह प्रभाव अभी भी कायम है । ऐसे में अगर कोई बड़ा उलट फेर होता है और खुदा ना खास्ता बागी  जीत ना पाएं लेकिन भाजपा और कांग्रेस का खेल खराब तो कर ही सकते हैं ।

उत्तराखंड गठन  के बाद हुए पहले आम चुनाव में 54  फीसदी मतदान हुआ । तब कांग्रेस की सरकार बनी जिसके मुखिया  नारायण  दत्त  तिवारी थे  । 2007  में मतदान का आंकड़ा 59  फीसदी पर पहुंच गया तब भाजपा ने वापसी की जिसकी कमान बी सी खंडूरी के हाथ रही ।  2012  के बरस में  मतदान का प्रतिशत 65 फीसदी पर कर  गया  जो इस बार 70  पहुंच गया है। ध्यान देने वाली बात यह है उत्तराखण्ड में हर चुनाव के बाद निजाम भी बदले हैं ।   इस लिहाज से कुछ कुछ सत्ता परिवर्तन और एंटी इंकम्बेन्सी के आसार भी दिख रहे हैं  । फिलहाल नजरें 11 मार्च की तरफ हैं जहाँ यह निर्धारित होगा क्या मोदी का विजय रथ रावत रोकते हैं या 2014  के लोक सभा चुनावों की तर्ज पर  मोदी उत्तराखंड में अपने मैजिक के आसरे रावत की लुटिया डुबोकर कांग्रेस मुक्त उत्तराखंड कर पाते हैं  ?