धराली उत्तरकाशी ज़िले का एक बेहद खूबसूरत क़स्बा है जो गंगोत्री की ओर बढ़ते हुए चारधामों में से एक हर्षिल घाटी का अहम हिस्सा भी है।यहाँ से गंगोत्री तकरीबन 20 किलोमीटर दूर है। हिमालयी क्षेत्रों में बसे छोटे-छोटे धराली जैसे गाँव कभी अपनी नैसर्गिक प्राकृतिक सुंदरता और शांति के लिए जाने जाते थे लेकिन हाल के वर्षों में सरकारों की अनियंत्रित विकास की अंधी दौड़ ने इन सरीखे कई क्षेत्रों को आपदा के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। देवभूमि उत्तराखंड के कई गाँवों में आज प्रकृति के साथ गंभीर छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप यहाँ पर आपदाएँ बार-बार दस्तक दे रही हैं। प्राकृतिक आपदा का सीधा सम्बन्ध प्रकृति की छेड़छाड़ से जुड़ा है और प्रकृति के साथ खिलवाड़ जिस पैमाने पर होता रहेगा उसका ताण्डव हिमालय पर उसी स्तर पर दिखेगा। धराली में खीर गंगा में यह पहली बार नहीं हुआ कि उसका जलस्तर बढ़ने के कारण आसपास के क्षेत्र को नुकसान हुआ है। इससे पूर्व की आपदाओं में वहां पर जानमाल का नुकसान नहीं हुआ लेकिन उसके बाद भी वहां पर ना ही स्थानीय लोग चेते और ना ही शासन प्रशासन की ओर से वहां पर सुरक्षा के कोई पुख्ता इंतजाम किए गए।1948 में धराली से कुछ किलोमीटर नीचे कनोडिया गाड़ ने भी अपना विकराल रूप दिखाया था। उस समय डबराणी में गंगा का प्रभाव तक रुक गया था जिससे फिर भारी तबाही हुई। इसी तरह 1978 में धराली से नीचे उत्तरकाशी की तरफ़ आते हुए 35 किलोमीटर दूर डबराणी में एक बाँध टूट गया था जिससे भागीरथी में बाढ़ आ गई थी और कई गाँव बह गए। 1835 में भी खीर गंगा में सबसे भीषण बाढ़ आई थी। तब नदी ने सारे धराली क़स्बे को पाट दिया था। बाढ़ से यहाँ भारी मात्रा में मलबा जमा हो गया था। बीते कई बरस में भी खीर गंगा में पानी का तेज़ बहाव आने, बादल फटने, भूस्खलन की घटनाएँ हुई की अनेक घटनाएँ हुई हैं लेकिन इसमें कोई बड़ी जनहानि नहीं हुई। 2017-18 में खीर गंगा का जलस्तर बढ़ने के कारण वहां पर होटल दुकानों और कई घरों में मलबा घुस गया था। उस समय कुछ नुकसान नहीं हुआ हालाँकि 2023 में खीर गंगा के बढ़ते जलस्तर के कारण वहां पर कई दिनों तक गंगोत्री हाईवे भी बंद रहा था साथ ही दुकानों और होटल को भी नुकसान हुआ था।
एक दौर था जब हिमालय के ऊँचाई वाले इन इलाक़ों में काफी बर्फ़ गिरती थी। तब यहाँ के ग्लेशियर में पानी का जमाव होता था लेकिन अब बर्फ़ कम गिरती है और बारिश भी कम होती है और ग्लेशियर लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। इसकी वजह है जलवायु परिवर्तन और इसका असर पूरे पहाड़ी इलाके के हर जिले में महसूस किया जा सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के साइड इफेक्ट अब हिमालय से लगे इलाकों में भी महसूस किये जा सकते हैं। ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। अनियोजित विकास के कारण आज पर्वतीय इलाकों में संकट के बादल मंडरा रहे है। इन संवेदनशील इलाकों में प्राकृतिक घटनाओं की आशंका पहले भी जताई जा चुकी है पर इसे लेकर चौकन्ना न रहने की गलती जब तक होती रहेगी हादसे होते रहेंगे। प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए बेहतर प्रबंधन को बढ़ाने के साथ-साथ प्रकृति के इशारों को समझना भी बहुत जरूरी है। वह चेतावनियां सच साबित हो रही हैं जो कई दशकों से पर्यावरण वैज्ञानिक देते आ रहे थे कि धरती का लगातार बढ़ रहा तापमान शांत पड़े ग्लेशियरों को परेशान कर रहा है। ग्लेशियरों का पिघलना या टूटना मानवता व पूरे वातावरण के लिए खतरनाक है। दुर्भाग्य है कि प्राकृतिक संसाधनों की बड़ी लूट के कारण आज उत्तराखंड कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है। अगर अभी भी इस हादसे से हमने सबक नहीं लिया तो किसी दिन तबाही बड़े पैमाने पर होगी।
धराली में हाल ही में आई आपदा ने स्थानीय समुदाय और पर्यावरण को गहरा नुकसान पहुँचाया है। गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे इस क्षेत्र में अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप ने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। भारी मशीनरी के उपयोग, जंगलों की कटाई और अनियोजित सड़क निर्माण ने भूस्खलन और मिट्टी के कटाव को बढ़ावा दिया है जिसके परिणामस्वरूप यह आपदा सामने आई। धराली और आसपास के क्षेत्रों में सड़क निर्माण, बाँध परियोजनाएँ और होम स्टे पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए होटल निर्माण जैसे कार्य बिना पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के किए गए जिसका परिणाम अब जमीन पर दिखाई देने लगे हैं । पहाड़ों की संवेदनशील भूगर्भीय संरचना को नजरअंदाज करते हुए यहाँ पर भारी मशीनरी का उपयोग किया गया जिससे भूस्खलन का खतरा हाल के कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ा है। विकास की बड़ी परियोजनाओं के नाम पर पूरे उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा जा रहा है जिससे मिट्टी की स्थिरता कम हुई है और आपदा की घटनाएँ भी तेजी से बढ़ी हैं। धराली जैसे क्षेत्र आज जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक असुरक्षित हो गए हैं। धराली की इस बार की आपदा में और आसपास के क्षेत्रों में कई लोगों ने अपनी जान गँवाई है और कई परिवार बेघर हो गए हैं । स्थानीय लोगों की आजीविका जो मुख्य रूप से कृषि और पर्यटन पर निर्भर थी इस बार की आपदा ने बुरी तरह प्रभावित कर डाली है। धराली का बाजार जो पर्यटन की अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा था, बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पहाड़ी इलाकों में नदियों और नालों के किनारे फ्लड प्लेन जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी तरह के अतिक्रमण पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि ऐसे क्षेत्र भूस्खलन जैसी घटनाओं के लिए अत्यंत असुरक्षित होते हैं। धराली आपदा हमें यह सिखाती है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाना कितना आवश्यक है।
यह वही उत्तराखण्ड है जिसने 80 के दशक में ज्ञानसू का भूकम्प, भीषण अतिवृष्टि, बाढ़ का कहर देखा तो वहीं 90 के दशक में उत्तरकाशी और चमोली के भूकम्प के झटके भी महसूस किये है। कैलाश मानसरोवर यात्रा के पथ में मालपा नामक जगह पर भूस्खलन से भारी तबाही का मंजर भी इसने देखा है। 2003 मे उत्तरकाशी में वरूणावत के भारी भूस्खलन के अलावा 2012 में उत्तरकाशी में ही असीगंगा व भागीरथी के तट पर बादल फटने के कहर के अलावा सुमगढ़ बागेश्वर में बादल के कहर में कई परिवारों को जमींदोज होते देखा है, जहां जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ और जानमाल को व्यापक नुकसान हुआ। वहीं 2013 में केदारनाथ का भीषण हादसा, 2021 की रैणी (चमोली) हिमस्खलन त्रासदी और 2023 के जोशीमठ भू-धंसाव जैसी घटनाएं इस गहराते संकट की स्पष्ट चेतावनियाँ हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिक संतुलन गंभीर रूप से बाधित हो चुका है लेकिन हमारी याददाश्त कम रहती है। हम पुरानी घटनाओं को जल्द भूलना जानते हैं और उससे सबक भी नहीं लेना चाहते।
उत्तराखंड में अवैध माईनिंग लगातार जारी है। वृक्षों की चोरी-छिपे कटाई भी चल रही है। ऑल वेदर रोड के नाम पर करोड़ों वृक्ष काटे जा रहे हैं। पहाड़ों को खोद खोदकर टनल बिछाई जा रही है। तीर्थाटन के नाम पर अत्यधिक निर्माण, पर्वतीय ढलानों की अंधाधुंध कटाई, जलविद्युत परियोजनाओं हेतु सुरंगों व बांधों का जाल, सड़क विस्तार की प्रक्रिया में वनों की व्यापक कटाई तथा पर्यावरणीय नियमन की उपेक्षा ने पारिस्थितिकीय तंत्र को अत्यंत असंतुलित किया है।विशेषकर चारधाम यात्रा मार्ग पर व्यापक निर्माण गतिविधियों के चलते अनेक क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाओं में तीव्र वृद्धि हुई है। बीते कुछ बरस में यहाँ अतिवृष्टि, बादल फटना, भूस्खलन,वनाग्नि जैसी आपदाएँ न केवल जन-धन की व्यापक क्षति का कारण बनी हैं, बल्कि राज्य की सामाजिक संरचना, आर्थिक स्थायित्व और पारिस्थितिक तंत्र को भी गहरे स्तर पर प्रभावित कर रही हैं।गढ़वाल के इलाकों में रेल की सुविधा पहुंचाने के नाम पर लगातार पर्यावरण के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। वृक्षों की लगातार हो रही कटाई से हिमालय के पशु- पक्षी भी बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। अब प्रवासी पक्षियों और हिमालय के पशुओं की आमद पर भी इसका काफी हद तक प्रभाव दिखाई देने लगा है। पहाड़ों में बढ़ रहे निर्माण कार्यों से वनों का क्षेत्रफल कम हो गया है। समय पर बरसात नहीं हो रही, कहीं सूखा पड़ रहा है तो कहीं बाढ़ आ रही है। बाढ़ आने का मुख्य कारण भी वृक्षों की लगातार हो रही कटाई है। कभी पहाड़ों में जंगल भी बाढ़ के आगे दीवार बन जाते थे। बांधों के निर्माण के समय वृक्षों की कटाई बड़े स्तर पर हुई है। कट रहे वृक्ष, बढ़ रहा प्रदूषण प्राकृतिक आपदाओं का कारण बन रहा है। अभी भी वक्त है सरकारें संभल जाएँ। अन्धाधुन्ध विकास और कारपरेट लूट के चलते उत्तराखण्ड में बीते एक दशक से ज्यादा समय से प्रकृति से भारी छेड़छाड़ शुरू हुई है। धार्मिक पर्यटन के नाम पर यहां जहां मुनाफे का बड़ा कारोबार ढाबों, रिजार्ट के जरिए हुआ है वहीं वनों की अन्धाधुंध कटाई से भी पहाड़ की परिस्थितिकी संकट में है। पहाड़ में जल,जमीन,जंगल का सवाल आज भी जस का तस है। नदियों के किनारे कब्जों की आड़ में जहां बड़ा अतिक्रमण हुआ है वही इसी की आड़ में बड़े-बड़े रिजार्ट भी खुले है। इन निर्माण कार्यों पर किसी तरह की रोक लगाने की जहमत किसी में नही है क्योंकि राजनेताओं, माफियाओं और कारपरेट के काकटेल ने पहाड़ को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसमें राजनेताओं की भी सीधी मिलीभगत है क्योंकि न केवल अपने चहेतों को उन्होंने जमीनें यहां दिलवाई है बल्कि बड़ी परियोजना लगाने के नाम पर विकास के चमचमाते सपने के बीच रोजगार का झांसा भी पहाड के ग्रामीणों को दिया गया है। यही नहीं पावर वाली कम्पनियों से प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर मोटा माल अपनी जेबों में भरा है।
राज्य गठन के बाद की सरकारों ने अपने करीबियों को न केवल नदियों में खनन के पट्टे दिये हैं बल्कि ठेकेदारों को भी पहाड़ों में निर्माण कार्य में मुख्य मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया है। पर्यटन के सैर सपाटे के बीच पहाड़ में ट्रैवल ऐजेन्टों की सुविधा के लिए जगह- जगह पहाड़ काटकर मानकों को ताक में रखते हुए सड़कें काटी हैं। एक तरह पहाड़ में आज जहां बेतरतीब ढंग से गाडि़यां दौड़ रही वहीँ ऐसे इलाकों में जहां जल प्रचुर मात्रा में है वहां बांध बनाने और सुरंग निकालने का खेल शुरू हुआ है। अलग राज्य का गठन पहाड़ के पिछड़ेपन के कारण हुआ था लेकिन आज हालत यह है चट्टाने दरकने से गांव के गांव खाली हो रहे है। अब गाँव में बुजुर्गो की पीड़ी ही दिख रही है। हाइड्रो परियोजनाओं के नाम पर पहाड़ की जमीनों को खुर्द -बुर्द किया जा रहा है। टिहरी इसका नायाब नमूना है जहां विकास की चमचमाहट दिखाई गई लेकिन टिहरी के डूबने की कथा स्थिति की भयावहता को उजागर करती है। प्राकृतिक सम्पदा की लूट में उत्तराखण्ड की कोई सरकार अछूती नहीं है। विकास के नाम पर सरकार की नीयत साफ नहीं है। हर किसी का उद्देश्य इस दौर में मुनाफा कमाना और अपनी झोली भरना हो चला है और कारपरेट के आसरे राज्य में निवेश सम्मेलनों के माध्यम सेफलक-फावड़े बिछाए जा रहे हैं। वर्तमान में प्रदेश के भीतर 200 से अधिक हाइड्रो प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं और सैकड़ों योजनाएं प्रस्तावित है जिनमें से गढ़वाल के मुख्य इलाकों में निर्माणधीन है जो भागीरथी अलकनंदा और मंदाकनी में बनाई जानी हैं जहां पहाड़ों को चीरकर काटकर विस्फोट कर सुरंग बनाई जाएंगी जो भविष्य के लिए कतई सुखद संकेत नहीं है।
उत्तराखण्ड में पिछले दो दशक में सड़कों का निर्माण और विस्तार तेजी से बढ़ा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को भी हद तक नजरअंदाज किया गया है। विस्फोटक के इस्तेमाल, वनों की कटाई, भूस्खलन के जोखिम पर कुछ खास ध्यान न देना और जल निकासी संरचना का अभाव सहित कई सुरक्षा नियमों की अनदेखी भी किसी बड़ी आपदा को न्यौता दे रही है। पर्यटन और ऊर्जा की दृष्टि से उत्तराखण्ड एक उपजाऊ प्रदेश है जिसके लिए तीव्र विस्तार जारी है। आपदा प्रबंधन के आधारभूत नियमों की अनदेखी भी यहां घटनाओं को सहज उपलब्धता देता है। पर्यावरण और सामाजिक जीवन का ताना-बाना भी यहाँ पर उथल-पुथल में है। कुछ बरस पूर्व रेणी गांव में हुआ हादसा अभी तक जेहन में बना है जहाँ सुरंग में फंसे लोगों की जिन्दगी की उम्मीद भी खत्म हो गई।.इस घटना के मामले में पूर्व में ऐसा कोई संकेत नहीं था। यहां हिमखण्ड टूटने के चलते धौलीगंगा में सैलाब आ गया और तपोवन की बिजली परियोजना पर कहर बन कर टूटा और यह तबाही नदियों के सहारे आगे बढ़ गयी।
पर्यटन इस राज्य की सबसे बड़ी रीढ़ है जो राजस्व प्राप्ति का अहम साधन है। हमें पर्यटकों को बुनियादी सुविधाऐं देनी चाहिए। पर्यटकों को भी इस बात पर विचार करना होगा इस तरह के खूबसूरत स्थलों पर हर दिन भारी भीड़ नहीं पहुंचे। बड़ी आबादी का बोझ पहाड़ सहने की स्थिति में नहीं हैं। चार धाम की यात्रा में भारी भीड़ और अव्यवस्थाएं हर साल देखने को मिलती है। उत्तराखंड आने वाले पर्यटकों की संख्या भी पिछले 25 सालों में तेजी से बढ़ी है। राज्य पर्यटन विभाग के मुताबिक पिछले साल 2001 में 1 करोड़ पर्यटक राज्य में पहुंचे वहीँ अब यह संख्या 5 करोड़ से अधिक पहुँच चुकी है। जाहिर है कि ऐसे में किसी नई कार्ययोजना की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ समय से विकास के नाम पर यहाँ नवनिर्माण का जो खेला और वाहनों का रेला लगा है वह समझ से परे है। मिसाल एक तौर पर बदरीनाथ में मास्टर प्लान के नाम पर अलकनंदा के दोनों तरफ घाट तोड़ दिए गए हैं और आने वाले दिनों में अलकनंदा के जलस्तर को किसी दिन बढ़ाएंगे और बड़ी आपदा की तरफ हम बढ़ेंगे।जलवायु परिवर्तन, अनियोजित विकास, पारिस्थितिक असंतुलन और प्रशासनिक अक्षमता ने इस देवभूमि राज्य को संकटग्रस्त क्षेत्र में बदल दिया है जिसकी कीमत विनाश के नाम पर एक दिन यहाँ के लोगों को ही चुकानी पड़ेगी।
हमें पहाड़ी यात्रा मार्ग पर आपदा रोकने के लिए और उसके मुकाबले के लिए एक बेहतर तंत्र अब विकसित करना होगा। बेशक विकास जरूरी है लेकिन पर्यावरण के साथ विकास में भी एक संतुलन बनाकर लकीर खींचने की जरूरत है। बेहतर होगा पहाड़ी इलाकों में प्रकृति के अन्धाधन्ध दोहन पर रोक लगने के साथ ही यहां के अवैध कब्जों और निर्माण पर भी ब्रेक लगे। बड़े सुरंग आधारित बांधों के बजाय छोटे बांधों पर जोर दिया जा सकता है। बिल्डरों और राजनेताओं का नेक्सस टूटना चाहिए। जो भी हो उत्तराखण्ड की धराली की आपदा ने इस बार यह बड़ा सबक दिया है कि नियोजित विकास के साथ पारिस्थितिकीय संतुलन बनाने की जरूरत है। अगर अब भी हम नहीं चेते तो भविष्य में धराली जैसे अनेक हादसे उत्तराखंड में होते रहेंगे।
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