Monday 29 August 2011

१० जनपथ का पॉवर हाउस : अहमद पटेल

संसदीय राजनीती के मायने भले ही इस दौर में बदल गए हो और उसमे सत्ता का केन्द्रीयकरण देखकर अब उसे विकेंद्रीकृत किये जाने की बात की जा रही हो लेकिन देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस में परिवारवाद साथ ही सत्ता के केन्द्रीकरण का दौर नही थम रहा है .....दरअसल आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस में सत्ता का मतलब एक परिवार के बीच सत्ता का केन्द्रीकरण रहा है....फिर चाहे वो दौर पंडित जवाहरलाल नेहरु का हो या इंदिरा गाँधी या फिर राजीव गाँधी का ... राजीव गाँधी के दौर के खत्म होने के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब कांग्रेस पार्टी की सत्ता लडखडाती नजर आई..... उस समय पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान सीता राम केसरी के हाथो में थी..... यही वह दौर था जिस समय कांग्रेस पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजरी..... यही वह दौर था जब भाजपा ने पहली बार गठबंधन सरकार का युग शुरू किया और अपने बूते केन्द्र की सत्ता पायी थी....


उस दौर में किसी ने शायद कल्पना नही की थी कि एक दिन फिर यही कांग्रेस पार्टी भाजपा को सत्ता से बेदखल कर केन्द्र में सरकार बना पाने में सफल हो जाएगी.... यही नही वामपंथियों की बैसाखियों के आसरे अपने पहले कार्यकाल में टिकी रहने वाली कांग्रेस अन्य पार्टियों से जोड़ तोड़ कर सत्ता पर काबिज हो जाएगी और "मनमोहन" शतरंज की बिसात पर सभी को पछाड़कर दुबारा "किंग" बन जायेंगे ऐसी कल्पना भी शायद किसी ने नही की होगी ......


दरअसल इस समूचे दौर में कांग्रेस पार्टी की परिभाषा के मायने बदल चुके है ....उसमे अब परिवारवाद की थोड़ी महक है और कही ना कहीं भरोसेमंद "ट्रबल शूटरो" का भी समन्वय.....इसी के आसरे उसने यू पी ऐ १ से यू पी ऐ २ की छलांग लगाई है ....सोनिया गाँधी ने जब से हिचकोले खाती कांग्रेस की नैय्या पार लगाने की कमान खुद संभाली है तब से सही मायनों में कांग्रेस की सत्ता का संचालन १० जनपथ से हो रहा है ..... यहाँ पर सोनिया के भरोसेमंद कांग्रेस की कमान को ना केवल संभाले हुए है बल्कि पी ऍम ओ तक को इनके आगे नतमस्तक होना पड़ता है .....


इस दौर में कांग्रेस की सियासत १० जनपथ से तय हो रही है जहा पर कांग्रेस के सिपहसलार समूची व्यवस्था को इस तरह संभाल रहे है कि उनके हर निर्णय पर सोनिया की सहमती जरुरी बन जाती है.... दस जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय अहमद पटेल के जिम्मे है....जिनके निर्देशों पर इस समय पूरी पार्टी चल रही है....."अहमद भाई" के नाम से मशहूर इस शख्स के हर निर्णय के पीछे सोनिया गाँधी की सहमती रहती है.... सोनिया के "फ्री हैण्ड " मिलने के चलते कम से कम कांग्रेस में तो आज कोई भी अहमद पटेल को नजरअंदाज नही कर सकता है...


कांग्रेस में अहमद पटेल की हैसियत देखिये बिना उनकी हरी झंडी के बिना कांग्रेस में पत्ता तक नही हिला करता ....कांग्रेस में "अहमद भाई" की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के किसी भी छोटे या बड़े नेता या कार्यकर्ता को सोनिया से मिलने के लिए सीधे अहमद पटेल से अनुमति लेनी पड़ती है.....अहमद की इसी रसूख के आगे पार्टी के कई कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस करते है लेकिन सोनिया मैडम के आगे कोई भी अपनी जुबान खोलने को तैयार नही होता है ....मेरे राज्य से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस नेता के एक बेहद करीबी व्यक्ति ने मुझे बीते दिनों बताया कि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्री अहमद पटेल से अनुमति लेकर सोनिया से मिलते है ....


अहमद भाई को समझने के लिए हमें ७० के दशक की ओर रुख करना होगा.....यही वह दौर था जब अहमद गुजरात की गलियों में अपनी पहचान बना रहे थे.....उस दौर में अहमद पटेल "बाबू भाई" के नाम से जाने जाते थे और १९७७ से १९८२ तक उन्होंने गुजरात यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली .....७७ के ही दौर में वो भरूच कोपरेटिव बैंक के निदेशक भी रहे.....


इसी समय उनकी निकटता राजीव के पिता फिरोज गाँधी से भी बढ़ गई क्युकि राजीव के पिता फिरोज का सम्बन्ध अहमद पटेल के गृह नगर से पुराना था..... इसी भरूच से अहमद पटेल तीन बार लोक सभा भी पहुचे ... १९८४ में अहमद पटेल ने कांग्रेस में बड़ी पारी खेली और वह "जोइंट सेकेटरी" तक पहुच गए लेकिन पार्टी ने उस दौर में उन्हें सीधे राजीव गाँधी का संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया था ......


इसके बाद कांग्रेस का गुजरात में जनाधार बढाने के लिए पटेल को १९८६ में गुजरात भी भेजा गया .... गुजरात में पटेल को करीब से जाने वाले बताते है पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देते है... शायद तभी अहमद पटेल ने राजनीती में बचपन से ही पैर जमा लिए थे......पटेल के टीचर ऍम एच सैयद ने उन्हें ८ वी क्लास का मोनिटर बना दिया था.....यही नही जोड़ तोड़ की कला में पटेल कितने माहिर थे इसकी मिसाल उनके टीचर यह कहते हुए देते है कि अहमद पटेल ने उस दौर में उनको उस विद्यालय का प्रिंसिपल बना दिया था.....


शायद बहुत कम लोगो को ये मालूम है कि गुजरात के पीरमण में अहमद पटेल का जीवन क्रिकेट खेलने में भी बीता था उस दौर में पीरमण की क्रिकेट टीम की कमान खुद वो सँभालते थे .....टीम में उनकी गिनती एक अच्छे आल राउनडर के तौर पर होती थी.....अहमद पटेल की इन्ही विशेषताओ के कारण शायद उन्हें उस पार्टी में एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई जो देश की सबसे बड़ी पार्टी है .....यहाँ अहमद पटेल सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार है .....


अहमद की इसी ताकत का लोहा आज उनके विपक्षी भी मानते है.....यकीन जान लीजिये पार्टी को हाल के समय में बुरे दौर से उबारकर सत्ता में लाने में अहमद पटेल की भूमिका को किसी तरह से नजर अंदाज नही किया जा सकता....हाँ ये अलग बात है भरूच में कांग्रेस लगातार ४ लोक सभा चुनाव हारती जा रही है फिर भी हर गुजरात में होने वाले हर छोटे बड़े चुनाव में टिकटों कर बटवारा अहमद पटेल की सहमती से होता आया है जो यह बतलाने के लिए काफी है कि आज पार्टी में उनका सिक्का कितनी मजबूती के साथ जमा हुआ है ....


अहमद पटेल की ताकत की एक मिसाल २००४ में देखने को मिली जब पहली बार कांग्रेस यू पी ऐ १ में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी .... इस कार्यकाल में सोनिया के "यसबॉस " मनमोहन बने ओर वह अपनी पसंद के मंत्री को विदेश मंत्रालय सौपना चाहते थे लेकिन दस जनपद गाँधी पीड़ी के तीसरे सेवक कुवर नटवर सिंह को यह जिम्मा देना चाहता था लेकिन मनमोहन नटवर को भाव देने के कतई मूड में नही थे.....


हुआ भी यू ही.... जहाँ इस नियुक्ति में मनमोहन सिंह की एक ना चली वही नटवर के हाथ विदेश मंत्रालय आ गया ....मनमोहन का झुकाव शुरू से उस समय अमेरिका की ओर कुछ ज्यादा ही था.... लेकिन अपने कुंवर साहब ईरान और ईराक के पक्षधर दिखाई दिए.... कुंवर साहब अमेरिका की चरण वंदना पसंद नही करते थे और परमाणु करार करने के बजाए ईरान के साथ अफगानिस्तान , पकिस्तान के रास्ते भारत गैस पाइप लाइन लाना चाहते थे ... इस योजना में कुंवर साहब को गाँधी परिवार के पुराने सिपाही मणिशंकर अय्यर का समर्थन था ......वही मणिशंकर जो आज कांग्रेस पार्टी को सर्कस कहने और उसके कार्यकर्ताओ को जोकर कहने से परहेज नही करते ......


कुंवर , मणिशंकर मनमोहन को १० जनपथ का दास मानते थे.....लेकिन समय ने करवट ली और "वोल्कर" के चलते नटवर ना केवल विदेश मंत्री का पद गवा बैठे बल्कि पार्टी से भी बड़े बेआबरू होकर निकल गए..... लेकिन इसके बाद भी मनमोहन अपनी पसंद के आदमी को विदेश मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन १० जनपथ के आगे उनकी एक ना चली ....और प्रणव मुखर्जी को विदेश मंत्री की जिम्मेदारी मिली......प्रणव की नियुक्ति से परमाणु करार तो संपन्न हो गया लेकिन देश की विदेश नीति वैसे नही चल पाई जैसा मनमोहन चाहते थे.....लेकिन २००९ में जब अपने दम पर मनमोहन ने अपने को "मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया तो दस जनपद के आगे उनकी चलने लगी.....


इसी के चलते मनमोहन ने अपनी दूसरी पारी में एस ऍम कृष्णा, शशि थरूर , कपिल सिब्बल को अपने हिसाब से केबिनेट पद की कमान सौपी......आई पी एल में थरूर के फसने के बाद जब १० जनपथ ने उनसे इस्तीफ़ा माँगा तब अकेले मनमोहन उनका बीच बचाव करते नजर आये......इस समय १० जनपथ की और से प्रधानमंत्री मनमोहन को जबरदस्त घुड़की पिलाई गई थी .....तब १० जनपथ की ओर से मनमोहन को साफ़ संदेश देते हुए कहा गया था आपको ओर आपके मंत्रियो को १० जनपथ के दायरे में रखकर काम करना होगा ..... यही नही अहमद पटेल ने तो उस समय शशि थरूर को लताड़ते हुए यहाँ तक कह डाला था वे यह ना भूले वह किसकी कृपा से यू पी ऐ में मंत्री बने है......


दरअसल यह पूरा वाकया दस जनपथ में अहमद पटेल की ताकत का अहसास कराने के लिए काफी है....दस जनपथ शुरुवात से नही चाहता कि मनमोहन को हर निर्णय लेने के लिए "फ्री हेंड" दिया जाए....अगर ऐसा हो गया तो मनमोहन अपनी कोर्पोरेट की बिसात पर सरकार चलाएंगे....ऐसी सूरत में आने वाले दिनों में कांग्रेस पार्टी क भावी "युवराज " के सर सेहरा बाधने में दिक्कतें पेश आ सकती है .....इसलिए कांग्रेस के सामने यह दौर ऐसा है जब उसके हर मंत्री की स्वामीभक्ति मनमोहन के बजाए १० जनपथ में सोनिया के सबसे विश्वासपात्र अहमद पटेल पर आ टिकी है...


एक दौर ऐसा भी था जब अहमद पटेल की पार्टी में उतनी पूछ परख नही थी......लेकिन जोड़ तोड़ की कला में बचपन से माहिर रहे अहमद पटेल ने समय बीतने के साथ गाँधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा बढ़ा ली और सोनिया के करीबियों में शामिल हो गए.....राजनीतिक प्रेक्षक बताते है कि पार्टी में अहमद पटेल के इस दखल को पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता पसंद तक नही करते लेकिन सोनिया के आगे इस पर कोई अपनी चुप्पी नही तोड़ता.... बताया जाता है अहमद पटेल की आंध्र के पूर्व दिवंगत सी ऍम राजशेखर रेड्डी से कम बनती थी..... दोनों के बीच ३६ का आकडा जगजाहिर था ...कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियो में वह अकेले ऐसे थे जो अहमद पटेल के ज्यादा दखल का खुलकर विरोध करते थे......अब राजशेखर इस दुनिया में नही रहे इसका असर यह हुआ है अहमद पटेल ने पूरी पार्टी "हाईजेक" कर ली है.... यही वजह है उन्होंने दिवंगत राजशेखर के बेटे जगन मोहन के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला बनाकर उन्होंने इसमें सोनिया की सहमती ली है और अब मामले की सी बी आई जांच कराने में जुटे है .... आखिर बड़ा सवाल यह है इतने सालो से आन्ध्र की राजनीती में राजशेखर का जब वर्चस्व था तब कांग्रेस पार्टी को यह ध्यान क्यों नही आया कि रेड्डी के पास इतनी ज्यादा अकूत धन सम्पदा कैसे आई.....? कही कर नही यह कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहा है......


कुलमिलाकर आज कांग्रेस में अहमद पटेल होने के मायने गंभीर हो चले है ....किसको मंत्री बनाना है ... किस नेता को अपने पाले में लाना है ... जोड़ तोड़ कैसे होगा ? यह सब अहमद पटेल की आज सबसे बड़ी ताकत बन गई है .....अहमद की इसी काबिलियत के आगे जहाँ कांग्रेस हाईकमान नतमस्तक होता है वही बेचारे मनमोहन अपने मन की बेबसी के गीत गाते नजर आते है..... फिर अगर आज के दौर में कांग्रेस के कार्यकर्ता अगर यह सवाल पूछते है कि २४ अकबर रोड नाम मात्र का दफ्तर बनकर रह गया है तो जेहन में उमड़ घुमड़ कर कई सवाल पैदा होते है ..... कही न कही इसी के चलते पार्टी को आने वाले दिनों में मुश्किलों का सामना ना करना पड़ जाए....वैसे भी इस समय कांग्रेस के सितारे इस समय गर्दिश में है......

Thursday 25 August 2011

तुष्टीकरण की शिकार रही है तस्लीमा............






तस्लीमा नसरीन...... एक जाना पहचाना नाम है.... आज खास तौर पर इनका जिक्र ब्लॉग में कर रहा हू क्युकि आज तस्लीमा का जन्म दिन है .......शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो इनके नाम से परिचित नहीं होगा......


नसरीन का जन्म २५ अगस्त १९६२ को एक मुस्लिम परिवार में हुआ था....प्रसिद्द लेखिका नसरीन ने अपने जीवन की शुरुवात चिकित्सा के पेशे से की......१९८४ में चिकित्सा की पारी पूरी करने के बाद उन्होंने ८ वर्ष तक बंगलादेश के अस्पताल में काम किया .... सामाजिक गतिविधियों से जुड़े होने के बाद भी उन्होंने अपने को साहित्यिक गतिविधियों से दूर नहीं किया...... मात्र १५ वर्ष की आयु में कविता लिखकर अपनी लेखनकला की ओर सभी का ध्यान खींचा.....


तस्लीमा की पहली पुस्तक १९८६ में प्रकाशित हुई.....१९८९ में वह अपनी दूसरी पुस्तक को प्रकाशित करवा पाने में सफल रही.... इसके बाद तस्लीमा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा .......इस दूसरी पुस्तक को लिखने के बाद उनको दैनिक, साप्ताहिक समाचार पत्रों के संपादको की ओर से नियमित कॉलम लिखने के आमंत्रण आने लगे.... इस अवधि में "सैंट ज्योति" पाक्षिक पत्रिका का संपादन भी उनके द्वारा किया गया...तस्लीमा हमेशा बंगाली भाषा में लिखती रही है.....


नसरीन को धर्म, संस्कृति, परम्परा की आलोचना करने में कोई भय नहीं रहता ... ..... इसी कारन उनकी ६ मुख्य पुस्तके प्रतिबंधित श्रेणी में आती है जो क्रमश "लज्जा" (१९९३), अमर मेबले( १९९९), उताल हवा(२००२), को(२००३), द्विखंडितो( २००३), सी सब अंधकार (२००४) शामिल है......तस्लीमा की पुस्तकों पर उनके गृह देश बंगलादेश में भी विरोध के स्वर मुखरित होते रहे है.... जहाँ शेख हसीना ने इन पुस्तकों को अश्लील करार दिया ... वही भारत की पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने मुस्लिम कौम की भर्त्सना करने के चलते इन पुस्तकों पर प्रतिबन्ध लगाया..... १९९२ में तस्लीमा बंगलादेश का प्रतिष्टित साहित्यिक अवार्ड "आनंदा " पाने में सफल रही॥


निडर होकर धर्म के विरोध में लिखने के कारन "सोल्जर ऑफ़ इस्लामी ओर्गनाइजेशन " ने इनके खिलाफ मौत का फ़तवा जारी कर दिया.... जिसके बाद से कभी उन्होंने जनता के सामने आना पसंद नहीं किया........वहां की सरकार ने उनके खिलाफ उग्र प्रदर्शनों से बचाव हेतु उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया और देश से निर्वासित होने का फरमान जारी कर दिया .......२००४ में उनके खिलाफ विरोध जताने के एक मुद्दे के तौर पर यह कहा गया अगर किसी ने उनका मुह काला कर दिया तो उसको अवार्ड दिया जायेगा...


बंगलादेश के धार्मिक नेता सैयद नूर रहमान तो तस्लीमा के लेखन से इतना आहत हुए उन्होंने इनको आतंकवादी संगठन जीबी का जासूस तक करार दे डाला......२००५ में अमेरिका पर लिखी गई एक कविता पर फिर से उन्हें मुस्लिम समाज पर आपत्तिजनक टिप्पणिया करने के चलते खासी फजीहतें झेलनी पड़ी.......मार्च २००५ में उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम संगठनो ने इनका सर कलम करने के लिये ६ लाख के इनाम की घोषणा की....


इसके बाद ९ अगस्त २००७ को हैदराबाद प्रेस क्लब में उनके तेलगु संस्करण शोध के विमोचन के मौके पर "मुतेह्दा मजलिस ऐ अमल" के १०० लोगो ने ३ विधान सभा सदस्यों के साथ इन पर हमला बोल दिया.......इस घटना पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा हम इस्लाम के खिलाफ लिखने ओर बोलने वाले का विरोध करते रहेंगे.... सितम्बर २००७ में तस्लीमा पर कुछ कट्टरपंथियों ने हमला बोल दिया ...


भारत में इसी दौरान "आल इंडिया माइनोरिटी " फोरम ने इनके भारत रहने पर सवाल उठाये और इन्हें भारत से निकालने की मांग की.... स्थिति को बिगड़ता हुआ देख पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वामपंथी सरकार ने इनकी हिफाजत के लिये पुलिस नियुक्त की......परन्तु स्थिति नहीं संभल पायी......२१ नवम्बर २००७ को इन्हें जयपुर ले जाया गया और रातो रात दिल्ली लाया गया.....


३० नवम्बर २००७ को कट्टरपंथियों के विरोध को शांत करने के लिये तस्लीमा अपनी विवादित पुस्तक "द्विखंडितो" से ३ पन्ने हटाने को तैयार हो गई....इसके बाद तस्लीमा को उम्मीद थी तमाम विवाद उनका पीछा छोड़ देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.... ९ जनवरी २००७ को फ्रांस सरकार ने उन्हें" सियोमन दी वियोवर" सम्मान महिला अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिये दिया॥


कुछ साल पहले तक भारत सरकार ने उन्हें जयपुर में एक गुप्त स्थान में रखा जहाँ पर उन्हें किसी से मिलने की अनुमति नहीं दी गई......भले ही नसरीन को भारत छोड़े हुए लम्बा समय हो गया हो लेकिन आज भी वह कोलकाता को अपना घर मानती है.....तसलीमा तो भारत से चली गई लेकिन उनके जाने के बाद भारत की धर्म निरपेक्ष छवि को करार तमाचा लगा है .....


हमारे साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है हम इतिहास की घटनाओ से सबक नहीं सीखते .... "सैटेनिक वर्सेज" जिस दौर में रुश्दी ने लिखा तो पूरे इस्लाम जगत में हलचल मच गई ऐसे समय में ब्रिटेन ने रुश्दी को व्यापक सुरक्षा मुहैया करवाई लेकिन एक हम है जो अतिथि देवो भवः का दंभ भरते है ओर किसी शरणार्थी को ठीक से सुरक्षा भी नहीं दे सकते...


पश्चिम बंगाल में साहित्य से जुड़े कई विद्वानों ने तस्लीमा का बचाव करते हुए हाल के कुछ वर्षो में कहा कि उनको राज्य में रहने की अनुमति दी जानी चाहिए .... हिंदी की चर्चित और प्रतिष्ठित साहित्यकार महाश्वेता देवी ने तो तस्लीमा की वकालत करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार से कुछ साल पहले कहा था तस्लीमा कोलकाता को अपना घर मानती रही है लिहाजा उनको राज्य में रहने की अनुमति मिलनी चाहिए ... लेकिन तत्कालीन वामपंथी सरकार ने उनकी मांग को ठुकरा दिया ... यही नही यू पी ऐ सरकार ने भी अपनी वोट बैंक की राजनीती के चलते तस्लीमा को भारत में रहने की इजाजत ही नही दी...एकतरफ हम दलाई लामा को अपने देश में रहने की अनुमति लम्बे समय से दिए हुए है लेकिन आज तक हम तस्लीमा जैसी लेखिकाओ को भारत में रहने की इजाजत नही दे पाते..... कही न कही यह हमारी धर्म निरपेक्ष छवि के ऊपर करार तमाचा है....

Friday 19 August 2011

किन्नरों का कजलिया...........



भोपाल अपनी गंगा जमुना तहजीब और झीलों की खूबसूरती के लिए जाना जाता है .....कला संस्कृति के गढ़ के रूप में भोपाल का कोई सानी नही है.... साथ ही यहाँ की कई परम्पराए लोगो को सीधे उनकी संस्कृति से जोड़ने का काम करती है.... वैसे भी लोक संस्कृति का सीधा सम्बन्ध मानव जीवन से जुड़ा है....

भोपाल में राखी के त्यौहार के बाद किन्नरों का "कजलिया" भी इस बात का बखूबी अहसास कराता है......हर साल राखी के बाद होने वाले किन्नरों के इस आयोजन पर पूरे शहरवासियो की नजरे लगी रहती है.....इस आयोजन की लोकप्रियता का अहसास मुझे तब हुआ जब इस बार किन्नरों को देखने के लिए भोपाल में रहने वाले लोगो का पूरा हुजूम सड़को पर निकल आया....

कजलिया को मनाने की परम्परा भोपाल में नवाबी दौर से चली आ रही है....इस बारे में किन्नरों से जब मैंने बात की तो उन्होंने बताया अच्छी बारिश को लेकर यह आयोजन भोपाल में हर साल होता है जिसमे निकाले जाने वाले जुलूस में सभी किन्नर बढ़ चढ़कर अपनी भागीदारी करते है....माना जाता है एक बार भयंकर अकाल पड़ने पर भोपाल के नवाब को किन्नरों की शरण में जाना पड़ा था...बताया जाता है किन्नरों द्वारा छेड़े गए राग मल्हार के फलस्वरूप इन्द्र देव खासे प्रसन्न हो गए और शहर में मूसलाधार बारिश हो गई....उसके बाद से इस आयोजन की परम्परा चल निकली ..... इठलाते हुए जब ये किन्नर जुलूस में शामिल होने सडको पर निकलते है तो मानो पूरा शहर उन्हें देखने सड़को पर उमड़ आता है .... सड़के जाम तक हो जाती है लेकिन ना तो शहरवासी परेशान होते है ना ही किन्नर....इस दौरान लोग सड़को पर निकले किन्नरों को छेड़ते भी है परन्तु बुरा मानने के बजाय किन्नर अपना नया राग मल्हार छेड़ देते है.....

भोपाल में किन्नरों के जुलूस के दौरान किन्नरों का मानवीय चेहरा भी मुझे देखने को मिला ........ समझ से अलग थलग रहने वाले इस वर्ग ने इंसानियत की जो मिसाल पेश की है वह सराहनीय होने के साथ ही अनुकरणीय है .....भोपाल में किन्नरों के कजलिया के दौरान कुछ बच्चो को साथ देखकर मै चौंक गया ... बढती जिज्ञासा को शांत करने के लिए किन्नरों के बीच बैठा .... दरअसल किन्नर समाज का अंग होते हुए भी समाज से कटे रहते है.... इस कारण इस समाज के प्रति जिज्ञासा औरभय साथ साथ रहता है....जिसके चलते इस समाज की गतिविधियों का सही से ज्ञान लोगो को नही हो पाता.... इन किन्नरों ने कई मासूम लडकियों को भी गोद ले रखा है....जो अनाथ बच्चो को पढ़ाने लिखाने से लेकर उन्हें खान पान भी उपलब्ध करा रहे है.... राजधानी भोपाल के मंगलवारे और इतवारे में रहने वाले कुछ किन्नरों की ये पहल निश्चित ही समाज के लिए अनुकरणीय है... काश समाज की मुख्य धारा से जुड़े लोग भी अगर इस दिशा में ध्यान दे तो कई लोगो की जिन्दगी रोशन हो सकती है ....

"कजलिया " के दौरान निकलने वाला किन्नरों का जुलूस मंगलवारे से शुरू होता है और यह शहर के मुख्य मार्गो से होता हुआ गुफा मंदिर तक पहुचता है....पहले इस मंदिर के पास की पहाड़ी पर एक तालाब था ॥ दुधिया तालाब नामक इस तालाब का अस्तित्व वक्त के साथ खत्म हो गया...परन्तु किन्नरों की ये परम्पराए आज भी जारी है .... शायद ये हमारे देश में ही संभव है जहाँ किन्नर उत्साहपूर्वक आज भी कजलिया मनाते , अनाथ बच्चो को गोद लेते है और बढ़ चढ़कर अपनी भागीदारी इस आयोजन में करते है........

Thursday 11 August 2011

देवीधुरा का बग्वाल परमाणु युग में पाषाण युद्ध का चमत्कार ......




उत्तराखंड अपनी मनमोहक प्राकृतिक सुषमा और नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए देश विदेश में खासा जाना जाता है साथ ही इस देवभूमि की अनेक परम्पराए यहाँ की धर्म ,संस्कृति से जुडी हुई है......ऐसी ही अनूठी परम्परा को अपने में संजोये देवीधुरा मेला है जिसे देश विदेश में पाषाण युद्ध "बग्वाल" के नाम से जाना जाता है....... प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के पावन पर्व पर लगने वाले इस मेले में एक दूसरे को पत्थर मारने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है ....


कुमाऊ अंचल के जनपदों नैनीताल,अल्मोड़ा, उधम सिंह नगर को चम्पावत का देवीधुरा क़स्बा एक दूसरे से जोड़ता है.....कहा जाता है कि देवीधुरा पूर्णागिरी माता का एक पीठ है जहाँ पर चंपा और कालिका को प्राचीन काल में प्रतिष्टित किया गया था ...


यहाँ का सर्वाधिक महान आश्चर्य यह है कि देवीधुरा में माता बाराही का तेज इतना है कि आज तक कोई प्राणी इन्हें खुली आँखों से नही देख पाया.... जिसने भी ऐसा दुस्साहस किया वह अँधा हो गया....बग्वाल की पृष्ठभूमि चार राजपूती ख़ामो के पुश्तेनी खेल से जुडी हुई है जिसमे गहरवाल , वल्किया, लमगडिया , चम्याल मुख्य है.....श्रावण शुक्ल के दिन सभी गाववासी एकत्रित होते है और एक दूसरे को निमंत्रण भेजकर बग्वाल में भाग लेते है.....


रक्षाबंधन के समय सभी खामे एक दूसरे को निमंत्रण देती है और बग्वाल में भागीदार बनती जाती है ....बग्वाल के समय वल्किया और लमगडिया खाम एक छोर पश्चिम से प्रवेश करती है तो चम्याल और गहरवाल पूर्वी छोर से रणभूमि में आते है .....मंदिर के पुजारी द्वारा आशीर्वाद मिलने के बाद सभी एक स्थान पर इकट्टा होते है ...आम तौर पर गहरवाल खाम सबसे अंत में आती है जिस पर गहरवाल खाम का व्यक्ति पत्थर फैक कर प्रहार करता है..... गहरवाल के पत्थर फैकने के साथ ही "बग्वाली कौतिक" शुरू हो जाता है.....


इस पत्थरो के युद्ध में भाग लेने वाली चारो खामे वैसे तो आपस में मित्र होती है लेकिन पत्थरो के युद्ध के समय वह सारे रिश्ते नाते भूल कर एक दूजे पर पूरी ताकत के साथ वार करते है......चार दलों के द्वारा लाठियों और फर्रो को सटाकर एक सुरक्षा कवच बना लिया जाता है जो घायल की सुरक्षा करने का काम करता है......बग्वाल के दौरान पत्थरो की वर्षा द्वारा शरीर के विभिन्न अंग लहुलुहान हो जाते है लेकिन रक्त की बूंदे गिरने के बाद भी कोई चीत्कार नही सुनाई देती है.....

मुख्य पुजारी एक व्यक्ति के शरीर के बराबर रक्त गिरने के बाद बग्वाल को रोकने का आदेश दे देता है......तकरीबन बीस से पच्चीस मिनट तक चलने वाले इस पाषाण युद्ध की समाप्ति के बाद बग्वाल खेलने वाली खामे एक दूसरे के गले मिलती है... इस दौरान पत्थरो से घायल हुए लोगो को गंभीर चोट नही आती...ऐसा माना जाता है कुछ वर्ष पूर्व तक लोग बग्वाल खेले जाने वाले मैदान की बिच्छु घास अपने शरीर में लगा लिया करते थे जिससे वह कुछ समय बाद खुद ही ठीक हो जाया करते थे ....आज बिच्छु घास तो नही लगाई जाती है लेकिन पत्थरो के घाव अपने आप बाराही माता की कृपा से स्वतः ठीक हो जाते है.....


उत्तराखंड के देवीधुरा का" बग्वाल" मेला आधुनिक परमाणु युग में भी पाषाण युद्ध की परंपरा को संजोये हुए है.....यह मेला आपसी सदभाव की जीती जागती मिसाल है.....यहाँ खेले जाने वाले बग्वाल को देखने दूर दूर से लोग पहुचते है और एक अलग छाप लेकर जाते है.... तीर्थाटन के मद्देनजर ऐसे स्थान राज्य के आर्थिक विकास में खासे उपयोगी है ... यह अलग बात है सरकारी उपेक्षा के चलते देवीधुरा के विकास का कोई खाका अलग राज्य बनने के बाद भी नही बन सका है जिसके चलते उत्तराखंड में सांस्कृतिक परम्पराए दम तोड़ रही है ....वैश्वीकरण के इस दौर में यदि आज "बग्वाल" सरीखी हमारी सांस्कृतिक परम्पराए जीवित है तो इसका श्रेयः निसंदेह इन मान्यताओ का वैज्ञानिक स्वरूप है........