सुमित गुलाटी चेन्नई में मर्सिडीज कंपनी में सीए के पद पर कार्यरत
हैं लेकिन पिछले एक हफ्ते से उनका लखनऊ और नैनीताल में अपने परिवार से कोई संपर्क
नहीं हो पा रहा जिसकी वजह चेन्नई में हुई भीषण बरसात है जिसने सुमित को अपने नाते रिश्तेदारों
से दूर कर दिया | कभी पल पल अपने परिजनों की खबर
लेने वाले सुमित को आज हालातों ने इतना मजबूर कर दिया है कि वह अब अपने मोबाइल से
किसी से बात नहीं कर पा रहा और ना ही उनके परिजन सुमित से संपर्क कर पा रहे हैं |
सुमित के अजीज दोस्त पुरुषोत्तम से जब चेन्नई के हालातों के
बारे में बात की तो पता चला सुमित पिछले कुछ समय से चेन्नई की भीषण बाढ़ में फंसे
हुए थे | यह जानकारी उन्हें उनके मोबाइल में व्हाट्सएप के माध्यम से मिली जिसमे
उन्होने एक हफ्ते पहले चेन्नई के हालातों को बयां करते हुए खुद के फंसे होने का
जिक्र किया था | उनकी पत्नी 9 महीने से प्रेग्नेंट
भी थी लिहाजा मूसलाधार बरसात से बचने का कोई रास्ता नहीं मिला | बड़ी मुश्किल से टिन के डब्बों से बनी डोगी से उन्होंने जान बचाई | यह मेसेज सुमित ने पिछले हफ्ते भेजा था जो चेन्नई के हालातों को बखूबी
बयान करता है | सेंट जोजेफ कालेज नैनीताल की 1997
की यादें ताजा करते हुए आज भी पुरुषोत्तम भावुक हो उठते हैं | यहाँ दोनों एक साथ जरूर पढ़े हैं लेकिन आज चेन्नई के बदलते हालातों
पर पुरुषोत्तम सुमित से बात करने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे और कुछ कह पाने की
स्थिति में भी नहीं हैं | सुमित तो एक बानगी
है ना जाने सुमित जैसे कई ऐसे लोग और उनके नाते रिश्तेदार हैं जो चेन्नई की बाढ़
में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं |
तमिलनाडु के कई जिले इस समय भारी बारिश से परेशान है । चेन्नई पानी
में पूरी तरह डूब चुकी है। शहरी प्रबंधन
की सारी पोल एक बरसात ने झटके में खोल दी है। इस बरसात ने बीते 100 बरसों के
रिकॉर्ड को जहाँ तोड़ डाला है वहीँ यह भी बताया है प्रकृति की मार के आगे इन्सान
कितना बेबस है | सरकारें मुआवजे और पुनर्वास की व्यवस्था में लगी है तो वहीँ चारों तरफ
पानी पानी होने से राहत और बचाव कार्यों में गति नहीं आ पा रही है वही मुश्किल हालातों में आपदा प्रबंधन भी सही
तरीके से नहीं हो पा रहा | सड़कें पानी से लबालब
भरी पड़ी हैं तो चेन्नई एयरपोर्ट का भी पानी से बुरा हाल है | बिजली नहीं है तो लोग पीने के पानी से परेशान हैं | मोबाइल टावरों में पानी भर गया है जिससे लोग अपने नाते रिश्तेदारों से
सीधे कट गए हैं | एटीएम काम नहीं कर रहे जिससे
लोगों के पास पैसों की कमी हो चली है तो वहीँ राशन खाने पीने के भी लाले पड़ गए हैं | हजारों लोगों का आशियाना छिन चुका है और उनका जीवन पटरी पर आना अभी थोडा
मुश्किल लगता है क्युकि इस आपदा से वह अभी भी नहीं उबर पाए हैं |
कभी चकाचौध से सरोबार रहा चेन्नई भीषण बरसात की मार से मानो ठहर-सा
गया है। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और दुकानें बाढ़ की वजह से बंद पड़े हैं तो वडापलानी, वलासरावक्कम और नंदमवक्कम जैसे इलाके उफनती झीलों में तब्दील हो गए हैं।
आईआईटी मद्रास और ओल्ड आईटी कॉरिडोर, कैलाश मंदिर के पास की सड़कें गड्ढे जैसी हो गई हैं। अंदाजा नहीं लग पा
रहा है सडकों में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क | एयरपोर्ट तो मानो बंदरगाह बन चुका जहाँ जहाज और गाड़ियाँ भी डूब गई हैं |
टी सी एस , मर्सीडीज , हुंडई और फोर्ड सरीखी दर्जनों नामी गिरामी कंपनियों ने पहली बार अपने सारे
संस्थान बंद कर डाले हैं और उनकी कोशिश किसी तरह तमिलनाडु के विभिन्न जिलों में
फंसे अपने कर्मचारियों को निकालना बन चुकी है | द
हिंदू सरीखा प्रतिष्ठित अखबार भी नहीं छप पा रहा | 137
बरस के इतिहास में पहला मौका है कि कुदरती बरसात ने प्रेस पर भी मानो आपातकाल लगा
दिया है |
जिस चेन्नई की रफ़्तार महानगरों में सबसे तेज
रही और जिस शहर की रईसी मुंबई, कोलकाता और दिल्ली सरीखे
शहर को भी पीछे छोड़ देती थी जिसकी अर्थव्यवस्था हर दिन गोते लगाने के साथ ही कुलाचे
मारती थी, आज वह दो जून की रोटी और बूंद बूंद पानी के लिए
तरस रही है और लोग आसमान की तरफ ताक रहे हैं किसी तरह बरसात रुक जाए ताकि उन्हें खाने की रसद मिल सके | अपने
लोगों के बीच फंसे लोगों का रो रोकर बुरा हाल है | जिधर दूर
दूर तक नजर जाते है वहां पानी पानी ही नजर आता है | बस राहत
और बचाव कार्यों में कोई नजर आ रहा है तो वह सेना और एन डी आर ऍफ़ की टीमें जो अपना
सब कुछ दाव पर लगाकर किसी तरह लोगों की मदद करने में बढ़ चढ़कर आगे आई है | सेना के जज्बे को सलाम जो तन मन से राहत और बचाव कार्यों में डटी हुई है | कश्मीर से लेकर उत्तराखंड हर जगह सेना
ने राहत कार्यों में जैसी संजीदगी दिखाई वैसी मिसालें देखने को नहीं मिलती लेकिन
सियासत के शोर तले सेना की खबरें मुख्यधारा के मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बन पाती
यह भी देश में किसी त्रासदी से कम नहीं है |
प्रशासन और सरकारें इस समूचे दौर में राहत पहुंचाने में पूरी तरह
नाकाम हैं | आपदा
सरीखे संवेदनशील मसले पर भी सियासत हमारे सियासतदानों के मुह पर तमाचा है |
इस बार भी प्रशासन ने बाढ़ से
निपटने की कोई तैयारी नहीं की | यह तब है जबकि मौसम विभाग का पूर्वानुमान था कि अक्तूबर में ही राज्य सरकार
को कहा गया था कि इस बार मानसून में बाढ़ का खतरा हो सकता है इसके बाद भी सरकारों
का न जाग पाना कई सवालों को खड़ा करता है |
असल में प्राकृतिक आपदाओं के आगे हम हर बार बेबस हो जाते हैं और
इससे निपटने की हमारे पास कोई कारगर तैयारिया नहीं होती है | हमें यह भी मानना पड़ेगा विकास की चकाचौध तले
हमने महानगरों में पिछले कई बरसों से प्रकृति का जिस गलत तरीके से विदोहन किया है
आज हम उसी की मार झेलने पर मजबूर हैं जो हमें विनाश की तरफ ले जा रहा है | उत्तराखंड से लेकर कश्मीर और चेन्नई से लेकर मुंबई हर जगह कमोवेश एक जैसे
हालत हैं जो पहली बार सरकार के विकास के नवउदारवादी माडल पर सवाल खड़े कर रहे हैं
जिसमे प्रकृति से जुड़े मुद्दों की अनदेखी हो रही है और हर जगह को औने पौने दामों
पर खुर्द बुर्द करने का खुला खेल चल रहा है और कंक्रीट का जंगल बनाने की तैयारियां
हो रही है |
चेन्नई की इस भीषण बाढ़ ने कई सवालों को खड़ा किया है | अंग्रेजों के दौर में जो नगर सांस्कृतिक आर्थिक
विरासत के केंद्र बना आज वह अपने हाल पर बेबस है तो इसका कारण तेजी से हुआ विकास है
जहाँ नदियों के बीच ऊँचे ऊँचे भवन बिल्डर और सरकारों के नेक्सस ने खोल डाले लेकिन
पानी के निकास के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए । अंग्रेजों के समय जो प्राकृतिक
निकास के रास्ते थे वह आज अंधाधुंध निर्माण की वजह से बंद हो गए | नेता-अफसर-बिल्डर के काकटेल ने मिलकर शहरी इलाकों की किसी जमीन को नहीं
छोड़ा | हालत ऐसे हो गए कि नदियों के बहाव को रोककर उन पर
रिजॉर्ट और होटल खोलने का खुला खेल हर सरकार के दौर में हर राज्य में बीते कुछ
बरसों से चला है | विकास की अन्धाधुंध दौड़ में अपने
स्वार्थ के लिए रियल स्टेट का धंधा तो मानो ऐसा बन गया जहाँ करोड़ों के वारे न्यारे
हर महीने किये जाने लगे जिसमे सरकारों की भी जेबें गर्म रही और बिल्डरों को आनन
फानन में एनओसी देने का खुला खेल क्रोनी कैपिटलिज्म के इस दौर में बेख़ौफ़ चला लेकिन
उचित प्रबंधन के चलते हम उस समय बेबस हो गए जब आपदाएं आई |
चेन्नई में हालत कितने खराब हो चले हैं इसकी बानगी देखनी है तो आप
समझ सकते हैं जहाँ बरसों पहले शहर में सैकड़ों छोटे-बड़े तालाब हुए करते थे आज
उनका अता पता नहीं है | अब
बारिश का पानी निकालने के इंतजाम तक नहीं हैं | आज
हालत ऐसे हैं बेतरतीब विकास में इनका नामोनिशान मिट गया है | अंग्रेजों के समय पेरियार नदी में जब बाँध बनाया गया था तो 25 किलोमीटर
लम्बी एक नहर भी निकाली गई थी ताकि ड्रेनेज सिस्टम मजबूत हो सके और आपदा का
मुकाबला किया जा सके लेकिन आज हालत ऐसे हैं यह नहर 7 किलोमीटर शेष रह गई है |
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक चेन्नई में
साढ़े छह सौ कुदरती ताल नष्ट हो चुके हैं और उनकी जगह सॉफ्टवेयर कंपनियों से लेकर
मालों की बेतरतीब इमारतों ने ले डाली है | चेन्नई में
नवउदारवादी नीतियों तले प्रकृति के मानकों की कैसे धज्जियाँ उडाई गई हैं यह इस बात
से समझा जा सकता है महानगर का ‘फीनिक्स’ आलिशान माल एक झील की बलि चढ़ा कर
बनाया गया है जिसकी चकाचौध तले आर्थिक विकास और स्मार्ट सिटी का मर्सिया पढ़ा जा
रहा है | चेन्नई का बस टरमिनल बसाने के नाम पर कोयबेडू इलाके
की निचली जमीन का इस्तेमाल किया गया जो खुद डूब गया है और तो और एक्सप्रेस वे का
फर्राटा देते यह नहीं देखा गया कि बेतरतीब निर्माण में पानी के निकास की क्या
व्यवस्था होगी ?
बेतरतीब निर्माण की आंधी में किसे पता था लाखों लोग थिलईगईनागर,पुझविथक्कम ,वेलाचेरी
झील को ही अपना आशियाना बना लेंगे जो भविष्य में उनके
लिए उजड़ने का टीला बन जायेगा | इंजीनियरिंग कालेज से
लेकर माल , सरकारी दफ्तरों से लेकर सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ ,
कल कारखानों से लेकर मालों सब जगह झीलों
को कुर्बान कर दिया गया और प्राकृतिक संसाधनों का जमकर विदोहन किया गया
| याराना पूँजी का यह खुला खेल आज देश के हर शहर में
सरकारों को भरोसे में लेकर खेला जा रहा है जहाँ तमाम पर्यावरणीय मानकों को ताक पर
रखते हुए विकास की चकाचौध तले देश में खुशहाली लाने के शिगूफे छोड़े जा रहे हैं
लेकिन यह सब हमारे लिए आने वाले दिनों में बड़ी विभीषिका का कारण बन सकता है |
यकीनन तमिलनाडु की इस आपदा ने पहली बार कई सवालों को झटके में खड़ा
किया है | माना आपदाओं को रोका नहीं जा सकता लेकिन उसके असर को तो कम किया ही जा
सकता है | पिछले कुछ समय से दशकों से मौसम में तरह तरह के बदलाव हमें देखने को मिल रहे हैं और इसी
जलवायु परिवर्तन के असर का परिणाम हमें पूरी दुनिया में देखने को मिल रहा है जहाँ
वह रीटा, कैटरीना , नरगिस की मार झेल
रही है तो कहीं हुदहुद सरीखे चक्रवाती तूफानों और भीषण बरसात ने शहर की रफ़्तार थाम
दी है | तमिलनाडु के कई शहरों में बेमौसम बरसात से हुई
भीषण तबाही बताती है कि हमारा शहरी नियोजन कुदरत के बदलते मिजाज के सामने कितना
बेबस है | पूरी दुनिया अभी जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रही
है और पेरिस की छतरी तले दुनिया को एकजुट करने की तैयारी भी हो रही है लेकिन
बेतरतीब निर्माण के माडल पर नकेल कसने के लिए कोई कारगर तैयार नहीं है साथ ही
विकास के वैकल्पिक माडल की बातें भी दूर की गोटी हो चली है जहाँ पर्यावरण को ताक
में रखकर विकास का माडल विनाश का कारण बन रहा है | इसमें दो
राय नहीं कि चेन्नई की मौजूदा मूसलाधार बरसात भी ग्लोबल वार्निंग की देन है। लेकिन
यह स्थिति बढ़ रहे पर्यावरणीय संकट और शहरी अनियोजन की तरफ भी इशारा करती है। तीन
बरस पहले उत्तराखंड का जल प्रलय हो या कश्मीर की बाढ़ और आंध्र में आया
हुदहुद चक्रवात यह सभी उसी के उदाहरण हैं और चेन्नई में भारी बारिश का दौर
यह सब हमारे लिए एक सबक है |
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर
चेन्नई में जलाशयों और झीलों को न पाटा गया होता तो स्थिति इस हद तक न बिगड़ती।
जाहिर है, चेन्नई
की मौजूदा बरबादी के पीछे बिल्डरों, राजनीतिकों और
नौकरशाहों की लाबी का भी हाथ है। जो बातें उत्तराखंड और कश्मीर के सैलाब का अनकहा
सच है यही बातें आज तमिलनाडु के हालातों पर भी फिट बैठ रही हैं | जिस तरह माफियाओं और बिल्डरों के नेक्सस ने मिलकर नदियों के किनारे तक को
नहीं छोड़ा उनका खूब दोहन किया , तालाबों और झीलों को पाट कर
आलिशान कोठिया और ईमारत बनाई उससे सरकार की नीतियां भी कुछ बरस से कठघरे में आ रही
हैं क्युकि बिना उनकी रजामंदी और पैसों के भारी खेल के चलते यह सहमति नहीं मिली
होंगी ऐसे में सरकारों की नीयत पर भी सवाल उठते हैं जहाँ वह विकास विनाश की कीमत
पर करना चाहती है |
मौजूदा दौर में विकास की अवधारणा शहरीकरण पर टिकी है और आने वाले
दस बरसों में देश की आधी आबादी शहरों में रहने लगेगी तो उसकी जरूरतें बढेंगी
लिहाजा रियल स्टेट का धंधा कुलाचे मारेगा जमीनों के दाम आसमान छुएंगे और पर्यावरण
की इसी तरह अनदेखी होती रही तो चेन्नई क्या उत्तराखंड और कश्मीर सरीखी आपदाओं की
पुनरावृति होनी तय है | अगर
अभी भी हम नहीं चेते तो ऐसे हादसे बार बार होते रहेगे जिनमे हजारों लोग काल के गाल
में समाते रहेगे और सरकारें मुआवजे बांटकर अपने हित साधते रहेगी | अब समय आ गया है जब सरकारों को समझना होगा वह किस तरह का विकास चाहते हैं ?
ऐसा विकास जहाँ प्रकृति का जमकर दोहन किया जाए या फिर ऐसा जहाँ
पर्यावरण की भी फिक्र करते हुए विकास की बयार बहाई जाए ? इस
मसले पर अब कोई नई लकीर हमें खींचनी ही होगी क्युकि मानव सभ्यता प्रकृति पर ही
टिकी हुई है अगर प्राकृतिक संसाधनों का यूँ ही विदोहन होता रहा तो मानव के सामने
खुद बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा | चेन्नई की बाढ़ इस दिशा में छिपा
एक बड़ा सन्देश है पता नहीं कारपरेट घरानों की प्रीत की लत पर लुट जाने वाली हमारी
सरकारें इन संकेतों को डिकोड कर पाती भी हैं या नहीं ?