Monday 24 October 2011

ठाकरे की सेना में बेगाने मनोहर ...........




महाराष्ट्र की राजनीती को अगर करीब से समझने का कभी मौका आपको मिला होगा तो कांग्रेस के बाद शिवसेना का गढ़ यहाँ की राजनीती एक दौर में हुआ करती थी....इसे राम लहर में सवार होने की धुन कहे या सियासी बिसात के आसरे "आमची मुम्बई" के नारे देकर वोट लेने का नायाबफ़ॉर्मूला ....शिवसेना ने उस दौर में लोगो के बीच जाकर अपनी पैठ को जिस तरीके से मजबूत किया इसने कांग्रेस के सामने पहली बार चुनौती पेश की और महाराष्ट्र की राजनीती में सीधे दखल देकर भाजपा के साथ पहली बार गठबंधन सरकार बनाकर कांग्रेसियों के होश फाख्ता कर दिए थे.......



मराठी मानुष के जिस मुद्दे के आसरे शिव सेना ने उस दौर में बिसात बिछाई थी बहुत कम लोग शायद ये बातें जानते है उस दौर में बाला साहब ठाकरे के साथ मिलकर मनोहर जोशी ने शिवसेना का राज्य में मजबूत आधार तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ..... परन्तु आज वही मनोहर जोशी पार्टी में हाशिये में है...... मनोहर जोशी ने अपने समय में ना केवल महाराष्ट्र की राजनीती में अपना एक ऊँचा मुकाम बनाया बल्कि शिवसेना का वोट बैंक बढाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.......पार्टी की भलाई के लिये उन्होंने कभी किसी पद की चाह नहीं रखी ... हाँ, ये अलग बात है पार्टी ने उन्हें जो भी काम सौपा उसे उन्होंने वफादारी के साथ पूरा किया......



२ दिसम्बर १९३७ को महाराष्ट्र के एक मध्यम वर्गीय ब्रह्मण परिवार में जन्मे जोशी के राजनीतिक कैरियर की शुरुवात आपातकाल के दौर में हुई॥ उस दौर में मुंबई के मेयर की कमान उनके हाथो में रही......१९९० में शिवसेना के टिकट पर उन्होंने पहली बार विधान सभा का चुनाव जीता ...९० के दशक में ही भाजपा के साथ मिलकर जब शिव सेना ने राज्य में पहली बार गठबंधन सरकार बनाई तो मनोहर गजानन जोशी को राज्य के १५ वे मुख्यमंत्री की कमान मिली......इसी दौर में छगन भुजबल ने शिव सेना को अलविदा कहा था और यही से जोशी का नया सफ़र शुरू हो गया ......



1999 में बाला साहब ठाकरे ने उन्हें मध्य मुंबई से चुनाव लड़ाया जहाँ से वह भारी मतों से विजयी हुए ....... इसके बाद उन्होंने शिव सेना के कद को राष्ट्रीय राजनीती में बढाया......यही वह दौर था जब जोशी को लोक सभा अध्यक्ष के पद पर बैठाया गया ..... उस दौर की यादें आज भी जेहन में बनी है ...... मनोहर के इस कार्यकाल ने लोकसभा के इतिहास में एक नयी इबादत लिख दी...... अपनी समझ बूझ से उन्होंने जिस अंदाज में लोक सभा चलायी उसकी आज भी सभी पार्टियों के नेता तारीफ किया करते थे ......



२००४ में मनोहर को पार्टी ने केंद्र में भारी ओद्योगिक मंत्री की जिम्मेदारी से नवाजा जिसे उन्होंने बड़ी शालीनता के साथ निभाया ....... लेकिन इसके बाद मनोहर के सितारे गर्दिश में चले गए... २००४ में मनोहर को कांग्रेस के एकनाथ गायकवाड के हाथो मुह की खानी पड़ी ..... इसके बाद पार्टी ने २००६ में उनको राज्य सभा में बेक डोर से संसद में इंट्री दिलवा दी.....



बाला साहब ठाकरे के राजनीती से रिटायरमेंट के बाद मनोहर जोशी का राजनीतिक सिंहासन डोलने लगा...... आज हालत ये है मनोहर अपनी पार्टी में बेगाने हो चले है... पार्टी में उनकी कोई पूछ परख नहीं हो रही है...... दरअसल जब तक शिव सेना की कमान बाला साहब ठाकरे के हाथो में थी तब तक शिवसेना में मनोहर जोशी के चर्चे जोर शोर के साथ हुआ करते थे.....



शिवसेना के कई कार्यकर्ता जो इस समय मनोहर के समर्थक है वो बताते है उस दौर में अगर कोई काम निकालना होता था तो कार्यकर्ता सीधे मनोहर को रिपोर्ट करते थे ... मनोहर को रिपोर्ट करने का सीधा मतलब उस दौर में ये होता था आपका काम किसी भी तरह हो जायेगा ... राज्य की राजनीती से केंद्र की राजनीती में पटके जाने के बाद भी उन्होंने जिस शालीनता के साथ केन्द्रीय मंत्री का दायित्व निभाया उसने सभी को उनका कायल कर दिया ...



आज हालत एक दम अलग हो गए है......शिवसेना की राजनीती पहले "मातोश्री" से तय हुआ करती थी..... बाला साहब ठाकरे के वीटो के कारन कोई उनके द्वारा लिये गए फैसले को चुनोती नहीं दे सकता था... आज आलम ये है शिव सेना दो गुटों में बट चुकी है॥ एक मनसे है जिसकी कमान राज ठाकरे के हाथो में है जो कभी शिवसेना के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रमुख हुआ करते थे.....बाला साहब की शिव सेना की कमान उद्धव ठाकरे के हाथो में है जो पार्टी को अपने इशारो पर चला रहे है॥ ऐसे विषम हालातो में कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस कर रहा है...



बाला साहब के समय में पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों पर मनोहर की राय को कभी अनदेखा नहीं किया जाता था लेकिन आज मनोहर को उद्धव भाव तक देना पसंद नहीं करते॥ पार्टी में उन्होंने अपना नियंत्रण इस कदर स्थापित कर लिया है वह महत्वपूर्ण फैसलों पर अपनी मित्र मंडली से सलाह लेना ज्यादा पसंद करते है.....ऐसे में मनोहर जोशी के भावी भविष्य को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चाये अभी से शुरू होने लगी है..... विषम हालातो के मद्देनजर अभी मनोहर कोई बड़ा फैसला लेने से परहेज कर रहे है...... लेकिन समय आने पर मनोहर अपने पत्ते जरुर खोल सकते है ....



वैसे बताते चले शिव सेना से इतर उनकी अन्य दलों के नेताओ से भी काफी मधुर संबध रहे है ... राकपा में शरद पवार, विलास राव देशमुख ओर प्रफुल्ल पटेल जैसे नेता भी उनके बेहद करीबियों में शामिल है.... इसके मद्देनजर अगर वह शिव सेना से इतर किसी अन्य पार्टी में जाने की सोचे तो उनके पास सभी जगहों से बेहतर विकल्प मौजूद है......




वैसे भी २४ साल मराठी अस्मिता के आसरे वोटर को लुभाने की कला में माहिर इस "ब्राह्मण कार्ड " को कोई भी पार्टी आगे करने से नहीं डरेगी........ वैसे भी राजनीती संभावनाओ का खेल है ..... जो भी हो फिलहाल शिव सेना में मनोहर के सितारे बुलंदियों पर नहीं है .....लेकिन भावी राजनीती का रास्ता जोशी को अब खुद तय करना है..... अगर अपनी पार्टी में उनकी पूछ परख कम हो रही हैतो इसका असर उनकी भावी राजनीती में पड़ना तय है.....



महाराष्ट्र के पिछले विधान सभा में भी देखने में आया था उद्धव ने उनको वो सम्मान नहीं दिया जो सम्मान बाला साहब ठाकरे दिया करते थे.....ऐसे में वो उद्धव से दूरी बनाये रखे थे लेकिन ये दूरिया कब तक बनी रहेगी यह अब बड़ा सवाल बन गया है.... दूरियों को पाटना भी जरुरी है ... आमतौर पर बेहद शांत, शालीन , ईमानदार रहने वाले मनोहर जोशी को अब आगे का रास्ता खुद तय करना है..... वैसे यकीन जानिये फिलहाल महाराष्ट्र में शिवसेना में उनकी राह में कई कटीले शूल है जिनसे पार पाने की एक बड़ी चुनोती इस समय जोशी के पास है.........देखना होगा २४ साल पार्टी की उम्मीदों पर खरा उतरे जोशी इस बार की परीक्षा में कैसा प्रदर्शन करते है?

Tuesday 18 October 2011

मैं फिल्म निर्देशक कम थियेटर निर्देशक ज्यादा हूँ.....


"गाँधी माई फादर " जैसी फिल्म बनाकर फिरोज अब्बास खान ने खुद को बालीवुड में फिल्म निर्देशक के तौर पर स्थापित किया है... वैसे बताते चले फिरोज साहब की गिनती थियेटर मंझे खिलाडियों में होती है.... जिन्होंने "सालगिरह" , "तुम्हारी अमृता", "विक्रेता रामलाल और गाँधी विरुद्ध " जैसे नाटको का कुशल निर्देशन किया ... २००७ में उनके द्वारा बनाई गई फिल्म "गाँधी माईफादर " ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमे "दर्शन जरीवाला " ने गाँधी किरदार के रोल के लिए खासी लोकप्रियता बटोरी..... यही नही इस मूवी ने विशेष जूरी को "बेस्ट स्क्रीन प्ले एशिया प्रशांत पुरस्कार" समेत कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते जिससे फिरोज को काफी लोकप्रियता मिली.... फिरोज आज भी अपने को थियेटर निर्देशक मानते है... बीते दिनों मेरी और मेरे साथी ललित की उनसे मुलाकात के मुख्य अंश ----


गाँधी माई फादर आखिरकार आपने बना ही ली.....गाँधी जैसे विराट व्यक्कित्व के किरदार को तीन घंटो के कैनवास पर उकेरना कितना मुश्किल काम था .....? साथ ही आपसे जानना चाहेंगे किस विचार ने इस किरदार के बारे में मूवी बनाने की प्रेरणा आपको दी...?
लम्बे अरसे से थियेटर से जुड़ा रहा....अभी भी पूरी तन्मयता के साथ काम कर रहा हू ..... थियेटर करते वक्त मेरे मन में फिल्म बनाने को लेकर उत्सुकता पैदा हुई....कई लोगो ने उस समय कहा आपको ऐसी फिल्म बनानी चाहिए जो थियेटर से एक दम अलग हटकर हो.... तभी मैंने तय कर लिया था मुझे अलग हटकर फिल्म बनानी है... फिर गाँधी जी जैसे विराट व्यक्तित्व पर फिल्म बनाने का आईडिया यही से जेनेरेट हुआ.....इसके लिए मैंने गाँधी जी पर नए तरीके से रिसर्च की और नयी सोच को लेकर लोगो के बीच गया.......

गाँधी माई फादर आपकी मूवी मैंने देखी ... बापू के हर एस्पेक्ट को छूने की कोशिश आपने की है....गाँधी जी पर रिसर्च के दौरान आपको क्या क्या दिक्कते आई?
फिल्म बनाने का आईडिया आने के बाद जेहन में कई तरह के सवाल उभरे ...मन में ख्याल आया इतने बड़े व्यक्तित्व के हर पहलू को उजागर करने की कोशिश के दौरान किसी भी तरह की गलती ना होने पाये ....गाँधी जी की कहानी को लेकर जो काम किया है उसमे सबसे जरुरी था जिस व्यक्तित्व को हम महात्मा कह रहे है आखिर क्यों कह रहे है ? मुझे एक पल लगा एक ऐसा आदमी जिसके पीछे सारा देश खड़ा है सारा समाज खड़ा है वही महात्मा है .... इस पर रिसर्च के लिए मैं कई बार दक्षिण अफ्रीका गया .... वहां पर गाँधी जी ने काफी लम्बा समय बिताया था.....वहां कई इतिहासकारों ने मुझसे बात की जिससे गाँधी जी को गहराई से समझ पाया .....

"गाँधी माई फादर "के लिए आपने किन किन श्रोतो और सन्दर्भ का सहारा लिया जिससे आपको गाँधी जी पर फिल्म बनाने में सरलता हुई ?
मेरा सबसे बड़ा श्रोत चंडी लाल दलाल थे जो महात्मा गाँधी जी के लेखाकार थे....उनकी किताबो ने फिल्म निर्माण में मेरी मदद की ....इसके अलावा लीलम बंसाली, हेमंत कुलकर्णी की किताबो ने भी मुझे नयी राह दिखलाई....महाराष्ट्र के इतिहासकार अजीज फडके से भी समय समय पर मेरी मुलाकात होती रही... रोबर्ट सेन की बायोग्राफी ने भी मुझे काफी लाभ पहुचाया.....

उदारीकरण
के बाद मल्टीप्लेक्स का युग आया है ....तकनीकी विकास के साथ इस दौर में फिल्म बनाने की तकनीक भी बदली है....इस समय लोगो की डिमांड भी फिल्म को लेकर अलग तरह की है...ऐसे में आप दर्शको से क्या अपेक्षा रखते है?

दर्शको से आज के दौर में मैं क्या अपेक्षा करू ? कौन सी फिल्म अच्छी है कौन सी फिल्म बुरी है यह तय करना तो दर्शको का काम है देखिये कहा भी जाता है "लाइफ ब्लो डा बेल्ट बेल्ट इस ब्लो" यह तो आपको तय करना है जो आज के दौर में संभव नही हो रहा है ....गाँधी माई फादर की बात करू तो इसे बनाने में पांच साल तो मेरे रिसर्च में ही चले गए ....


आज का दौर अब्बास साहब एक अलग तरह का दौर है.... अजब गजब कहानियो की फिल्मे हुआ करती है .... साथ ही कम बजट और कम समय में फिल्मे पूरी भी हो जा रही है ?

हाँ , आपकी बात सही है... आज सभी को फिल्म निर्माण की जल्दी है....पुराना दौर एक अलग तरह का दौर होता था... संगीत , गीत के साथ कहानी भी उस दौर में अलग प्रभाव छोडती थी.... लेकिन आज रिसर्च नाम की कोई चीज ही नही बची है सिनेमा में .... मैंने गाँधी माई फादर बनाने में पांच साल तो रिसर्च में ही बिता दिए... दूसरा कोई निर्देशक होता तो पांच साल में पचास फिल्मे बना देता .....


पिछले दिनों हमारे समाज में " डेल्ही बेली" जैसी फिल्मे आई ... क्या आप उसे फिल्म मानते है? उसमे अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ ?

देखिये मेरा मानना है थोडा बहुत तो चल जाता है लेकिन डेल्ही बेली ने तो हद ही कर दी.... ज्यादा अशिष्ट भाषा की फिल्मो को आप परिवार क साथ बैठकर नही देख सकते.... दूसरा आज के लोगो में फिल्म देखने का नजरिया भी बिलकुल बदल गया है.... जिसके चलते निर्देशक भी ये तय करने लगे है आपको क्या चाहिए?


आप थियेटर के मंझे खिलाडी है.... "गाँधी माई फादर " बना ली तो क्या हुआ ? मैं तो आज भी आपको थियेटर के कलाकार के रूप में देखता हू.....थियेटर की वर्तमान सूरते हाल पर आपका क्या कहना है ?

मैंने तो आपको पहले ही कह दिया मैं फिल्म निर्देशक कम थियेटर निर्देशक ज्यादा हू.... बालीवुड में आज कई थियेटर के कलाकार काम कर रहे है.....मुझे नही लगता आज भी कोई अच्छी कलाकारी में उनसे ज्यादा निपुण है......थियेटर के साथ खास बात यह है इसमें दर्शक आपके प्ले को तुरंत फीडबैक दे देता है जबकि फिल्म में ऐसा नही है......


हबीब तनवीर साहब को आज आप कैसे याद करते है? आखिरी दिनों में क्या आपकी उनसे कोई मुलाकात हुई ?

तनवीर साहब से मेरे बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहे है.....आखिरी बार जब वह नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा आये तो उन्हें पता चला मेरा प्ले है... उन्होंने उसको देखा उसमे मैंने रामलाल की भूमिका निभाई ....तनवीर जी ने नाटक के बाद खुद मुझे शाबासी दी थी..... मै समझता हू उनके जैसा अब तक ना तो कोई थियेटरकार था ना कभी होगा ......

Monday 10 October 2011

आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनता नक्सलवाद ........





"हमारे बाप दादा ने जिस समय हमारा घर बनाया था उस समय घर पर सब कुछ ठीक ठाक था ... संयुक्त परिवार की परंपरा थी ... सांझ ढलने के बाद सभी लोग एक छत के नीचे बैठते थे और सुबह होते ही अपने खेत खलिहान की तरफ निकल पड़ते थे ॥ अब हमारे पास रोजी रोटी का साधन नहीं है... जल ,जमीन,जंगल हमसे छीने जा रहे है और दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है ... हमारी वन सम्पदा कारपोरेटघराने लूट रहे है और "मनमोहनी इकोनोमिक्स " के इस दौर में अमीरों और गरीबो की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है..."




६८ साल के रामकिशन नक्सल प्रभावित महाराष्ट्र के गडचिरोली सरीखे अति संवेदनशील इलाके से आते है जिनकी कई एकड़ जमीने उदारीकरण के दौर के आने के बाद कारपोरेटी बिसात के चलते हाथ से चली गई ... पिछले दिनों रामकिशन ने ट्रेन में जब अपनी आप बीती सुनाईतो मुझे भारत के विकास की असली परिभाषा मालूम हुई.... "शाईनिंग इंडिया" के नाम पर विश्व विकास मंच पर भारत की बुलंद आर्थिक विकास का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओ को शायद उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारो एकड़ जमीने इस देश में कॉरपोरेट घरानों के द्वारा या तो छिनी गई है या यह सभी छीनने की तैयारी में है...दरअसल इस दौर में विकास एक खास तबके के लोगो के पाले में गया है वही दूसरा तबका दिन पर दिन गरीब होता जा रहा है जिसके विस्थापन की दिशा में कारवाही तो दूर सरकारे चिंतन तक नहीं कर पाई है .....



फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है.... जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनोती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कोर्पोरेट " का हित साध रहे है.........प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताते है तो समझना यह भी जरुरी हो जाता है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" करता खेल खेलना चाहती है?




कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से १९६७ में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई .... सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था ......उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी.... इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला ..........केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है.....




नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है.... बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है......नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है.... चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है .....और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है ......इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित करते है ......



नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है....जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ॥ इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया... यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए है .....




आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है .....देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में मओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे .."ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी...तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है॥ चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात है....




आज तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में है.... वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है .... सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है ....सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है....सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ॥"




कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है.... यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर " मनमोहनी इकोनोमिक्स " ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है....जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है ॥ मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है .... मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खायी को और चौड़ा कर रहा है ....



सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस कारन समाज में बदती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है ..."सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है...हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है... अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और आराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है....अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है.... केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है...



असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है ....हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है.... राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है.... पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दुसरे राज्य में चले जा रहे है ...ऐसे में राज्य सरकारे एक दुसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है... इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए है...



गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे है ॥ इसे अमली जामा पहनाने में कितना समय लगेगा कुछ कहा नहीं जा सकता.....? केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है ....भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए है...साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है....कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता.... इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है....




नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है.... चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है.... सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है ... इस दिशा में सरकारों को अभी से विचार करना होगा तभी बात बनेगी.... अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है....



कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है... बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है... विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है... नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके है....नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है... पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है ....वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है ....ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारन है ....




एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है.... कई परियोजनाए इनके दखल के चलते लंबित पड़ी हुई है.... नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "चतरा " और छत्तीसगढ़ करता "बस्तर" ओर "दंतेवाडा " जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता.... यह काफी चिंताजनक है...



नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता ॥ वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसरगया है .... साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है.... अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे... आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए है... ऊपर की कहानी केवल रामकिशन की नहीं , कहानी घर घर के रामकिशन की बन चुकी है........

Sunday 2 October 2011

भारतीय राजनीती में गहरा रहा है परिवारवाद ............




हमारे देश की राजनीती में परिवारवाद तेजी से गहराता जा रहा है.....जिस तेजी से परिवारवाद यहाँ पैर पसार रहा है उसके हिसाब से वह दिन दूर नहीं जब देश में कोई भी ऐसा नेता मिलना मुश्किल हो जायेगा जिसका कोई करीबी रिश्तेदार राजनीती में नहीं हो ..... राजनीतिक परिवारों के लिये भारतीय राजनीती से ज्यादा उर्वरक जमीन पूरे विश्व में कही नहीं है.....आज का समय ऐसा हो गया है राजनीती का कारोबार सभी को पसंद आने लगा है ॥ तभी सभी अपने नाते रिश्तेदारों को राजनीती में लाने लगे है....ऐसे हालातो में वो लोग" साइड लाइन" होने लगे है जिन्होंने किसी दौर में पार्टी के लिये पूरे मनोयोग से काम किया था...



आज के समय में नेताओ का पुत्र होने लाभ का सौदा है .... अगर आप किसी नेता के पुत्र है तो सारा प्रशासनिक अमला आपके साथ रहेगा ........यहाँ तक की मीडिया भी आपकी ही चरण वंदना करेगा ....अगर खुशकिस्मती से आप अपने रिश्तेदारों की वजह से टिकट पा गए तो समझ लीजिये आपको कुछ करने की जरुरत नही है ..... चूँकि आपके रिश्तेदार किसी पार्टी से जुड़े है इसलिए उनके साथ कार्यकर्ताओ की जो फ़ौज खड़ी है वो खुद आपके साथ चली आएगी...... इन सब बातो के मद्देनजर वो कार्यकर्ता अपने को ठगा महसूस करता है जिसने अपना पूरा जीवन पार्टी की सेवा में लगा दिया...



धीरे धीरे भारतीय राजनीती अब इसी दिशा में आगे बढ़ रही है ..... राजनीती में गहराते जा रहे इस वंशवाद को अगर नहीं रोका गया तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे लोकतंत्र का जनाजा ये परिवारवाद निकाल देगा .......भारतीय राजनीती आज जिस मुकाम पर है अगर उस पर नजर डाले तो हम पाएंगे आज राष्ट्रीय दल से लेकर प्रादेशिक दल भी इसे अपने आगोश में ले चुके है..... कांग्रेस पर राजनीतिक परिवारवादी के बीजो को रोपने का आरोप शुरू से लगता रहा है लेकिन आज आलम यह है कल तक परिवारवाद को कोसने वाले नेता भी आज अपने बच्चो को परिवारवाद के गर्त में धकेलते जा रहे है..... देश की विपक्षी पार्टी भाजपा में भी आज यही हाल है ... उसके अधिकांश नेता आज परिवारवाद की वकालत कर रहे है....."हमाम में सभी नंगे है" कमोवेश यही हालात देश के अन्य राजनीतिक दलों में भी है........


भारतीय राजनीती में इस वंशवाद को बढाने में हमारा भी एक बढ़ा योगदान है.....संसदीय लोकतंत्र में सत्ता की चाबी वैसे तो जनता के हाथ रहती है लेकिन हमारी सोच भी परिवारवाद के इर्द गिर्द ही घुमा करती है .... वह सम्बन्धित व्यक्ति के नाते रिश्तेदार को देखकर वोट दिया करती है....जबकि सच्चाई ये है , चुनाव में राजनीतिक परिवारवाद से कदम बढ़ने वाले अधिकाश लोगो के पास देश दुनिया और आम आदमी की समस्याओ से कोई वास्ता ओर सरोकार नहीं होता ......वो तो शुक्र है ये लोग अपने पारिवारिक बैक ग्राउंड के चलते राजनीती में अपनी साख जमा लेते है ...... ऐसे लोगो ने भारतीय राजनीती को पुश्तैनी व्यवसाय बना दिया है .......जहाँ पर उनकी नजरे केवल मुनाफे पर आ टिकी है.....इसी के चलते आज वे किसी भी आम आदमी को आगे बढ़ता हुआ नहीं देखना चाहते......


वंशवाद अगर इसी तरह से अगर आगे बढ़ता रहा तो आम आदमी का राजनीती में प्रवेश करने का सपना सपना बनकर रह जायेगा ........परिवारवाद को बढाने वाले कुछ लोगो ने राजनीती को अपनी बपोती बना कर रख दिया है......यही लोग है जिनके चलते आज "जन लोकपाल " बिल पारित नहीं हो पा रहा है.... अन्ना सरीखे लोगो ने आज इन्ही की बादशाहत को खुली चुनोती दे दी है ......जिसके चलते खुद को सत्ता का मठाधीश समझने वाले इन नेताओ को आज उनका सिंहासन खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है.........

तेरा जाना दिल के अरमानो का लुट जाना........


तेरा जाना दिल के अरमानो का लुट जाना" .....विदर्भ की जनता पर आज हिंदी फिल्म का यह पुराना गाना सौ फीसदी सच साबित हो रहा है.... अपने किसी जन नेता के खोने का गम किसी को कैसा सताता है यह इस गाने से बखूबी साबित हो जाता है... बीते दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बाबू साहब उर्फ बसंत राव साठे की मौत की खबर से पूरे विदर्भ वासी शोकमग्न है... साठे का गुडगाव में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया .... ८६ वर्षीय साठे इंदिरा , राजीव, नरसिंह राव की तीनो सरकार में वरिष्ठ मंत्री और अन्य पदों पर रहे थे ......उनके निधन से महाराष्ट्र के विदर्भ ने एक बड़े जन नेता को खो दिया .......... साठे से जुडी कुछ बातें ......... ........





विदर्भ के कट्टर समर्थक ---- सार्वजनिक जीवन में रहते हुए २००३ में साठे ने अपने सहयोगी एन के पी साल्वे के संघ कांग्रेस का त्याग किया था ... यह कदम उन्होंने स्वतन्त्र विदर्भ की मांग के समर्थन में उठाया था .....



मिलिटरी स्कूल में शिक्षा --- साठे ने अपनी आरंभिक पदाई नासिक के भोंसले मिलिटरी स्कूल से की .... नागपुर विश्व विद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र राजनीतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री ली ... साथ ही उन्होंने अपनी वकालत भी की.....



बाक्सिंग चैम्पियन---- विचारो से गाँधीवादी , आत्मा से समाजवादी पड़ी के दरमियान खेलो में भी आगे रहे.... मौरिस स्कूल से वह बाक्सिंग चैम्पियन भी रहे....समाजवादी से कांग्रेसी ---- साठे मशहूर वक्ता होने के साथ ही सामाजिक जीवन से समाजवादी नजर आये... १९४८ में उन्होंने लोहियावाद से प्रेरित होकर समाजवादी पार्टी में प्रवेश लिया ... १९६४ में अशोक मेहता से प्रेरित होकर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में राजनीती को करियर के रूप में चुना......



अकोला से सांसद -----साठे ने अपना पहला लोक सभा चुनाव १९७२ में अकोला से लड़ा था .... १९७० में वह य़ू एन ओ में भारतीय प्रतिनिधित्व भी कर चुके थे.....इंदिरा के साथी---- आपातकाल और उसके बाद विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने इंदिरा गाँधी का साथ दिया.... १९७७ में इसके फलस्वरूप उनको कांग्रेस संसदीय दल का उपनेता बनने का मौका मिला...... १९७९ तक वह पार्टी के प्रवक्ता भी रहे......



कलर टी वी योगदान --- १९८० में साठे कांग्रेस सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री बनाये गए.....इस दौर में उन्होंने भारत में टी वी के युग की शुरुवात की.....हम लोग, बुनियाद जैसे सेरियालो की नीव डालने और १९८३ के एशियन गेम को टी वी में दिखाकर उन्होंने सबसे सामने खुद का लोहा मनवाया था.....



८० में वर्धा से निर्वाचित---- १९७२ में अकोला संसदीय इलाके से चुनाव जीतने के बाद साठे १९८० में महात्मा गाँधी की कर्म स्थली वर्धा से चुनाव जीतकर केंद्र में मंत्री बने ....... ७२ में योजना आयोग के सलाहकार नियुक्त हुए .... ८० से ९० तक लगतार वर्धा का प्रतिनिधित्व भी किया... इस दरमियान वह इस्पात, रसायन, उर्वरक कोयला मंत्री भी रहे ....... विदर्भ में उद्योग को गति भी सही मायनों में साठे ने ही दी......



लेखक भी रहे--- बसंतराव लेखन से भी जुड़े रहे.... २००५ में अपना ८१ वा जन्म दिन मनाते समय उन्होंने अपनी आत्मकथा " मेमोरीज ऑफ़ ऐ रेशेंलिस्ट " लिखी...उन्होंने नए भारत नयी चुनौतिया , भारत में आर्थिक लोकतंत्र समेत तकरीबन आठ किताबे लिखी......इन आठो किताबो में उनकी काले धन पर लिखी गई एक किताब खासी महत्वपूर्ण है....



उतारा था यूनियन जेक----- बसंतराव में बचपन से देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी.... १९४२ में नागपुर की जिला अदालत की ईमारत पर चदकर उन्होंने अंग्रेजी शासन के प्रतीक यूनियन जेक को नीचे उतारकर तिरंगा फहराया था....



विदर्भ से नाता गहरा --- उनका विदर्भ से गहरा नाता था ॥ दिल्ली की राजनीती में रमे रहने के बाद भी वह समय निकालकर वर्धा आते थे ... यहाँ आकर काम करवाया करते थे.... जिस दिन उनकी मौत करता समाचार लोगो ने सुना तो आखें नम हो गई....




लोग कह रहे थे अगर वो ९१ में वर्धा से नहीं हारते तो शायद नर सिंह राव की जगह प्रधानमंत्री होते.....राजीव की हत्या के बाद वह लगातार हाशिये में चले गए... ९१ की हार के बाद पार्टी ने उन्हें १९९६ में दुबारा वर्धा से टिकट दिया लेकिन वह अपनी सीट नहीं बचा पाए....इसके बाद से उन्होंने कभी इस संसदीय इलाके में कदम नहीं रखा .....उनकी मौत के बाद भी आज विदर्भ में उनके प्रशंसको की कमी नहीं है... शायद यही कारन है आज भी लोग उनकी गिनती इस इलाके में "विकास पुरुष"के रूप में करते है.........