Sunday 11 February 2024

राष्ट्रवादी चिंतक दीनदयाल

 

                                           

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री,  समाजशास्त्री,लेखक, पत्रकार, संपादक थे। भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी एक दौर में रहे। ब्रिटिश शासन के दौरान इन्होंने भारत द्वारा पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का विरोध किया। उन्होनें लोकतंत्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार किया लेकिन पश्चिमी कुलीनतंत्र, शोषण और पूंजीवादी मानने से साफ़ इंकार कर दिया। पंडित जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन जनता की सेवा में लगा दिया।  भारतीय पत्रकारिता ने सदैव राष्ट्रवाद को पल्लवित करने का निर्वहन किया है। पत्रकारिता में राष्ट्रवादी स्वर को गति देने वाले पत्रकारों में पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम आदर के साथ  लिया जाता है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916, नगला चन्द्रभान, मथुरा, उत्तर प्रदेश में एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा मां का नाम रामप्यारी था। उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। दीनदयाल ने कम उम्र में ही अनेक उतार-चढ़ाव देखा, परंतु अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े। उन्होंने सीकर से हाईस्कूल की परीक्षा पास की जन्म से बुद्धिमान और उज्ज्वल प्रतिभा के धनी दीनदयाल को स्कूल और कालेज में अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। दीनदयाल इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के लिए 1935 में पिलानी चले गए। 1937 में इण्टरमीडिएट बोर्ड के परीक्षा में बैठे और न केवल समस्त बोर्ड में सर्वप्रथम रहे वरन सब विषयों में विशेष योग्यता के अंक प्राप्त किए। बिडला कॉलेज का यह प्रथम छात्र था, जिसने इतने सम्मानजनक अंको से परीक्षा पास की थी। सीकर महाराजा के समान ही घनश्याम दास बिड़ला ने एक स्वर्ण पदक, 10रू मासिक छात्रवृत्ति तथा पुस्तकों आदि के खर्च के लिए 250रू प्रदान किए। सन 1939 में सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। एम.ए. अंग्रेजी साहित्य में करने के लिए सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में प्रवेश लिया। इसके पश्चात उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की लेकिन आम जनता की सेवा की खातिर उन्होंने इसका परित्याग कर दिया। 

 दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता में भी अग्रणी भूमिका रही है। अपने राष्ट्रवाद के विचारों को जनमानस तक प्रेषित करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को माध्यम बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक होती है, यह दीनदयाल जी ने बखूबी समझा था। एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के विचार को पुनःव्याख्यायित करते हुए अंत्योदय की बात की। दीनदयाल जी ने राष्ट्रहित व चिंतन के विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। 

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल पत्रकार और बेहतर संचारक थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभ लेखन, पुस्तक लेखन उनकी रुचि का विषय था। उन्होंने लिखने के साथ-साथ बोलकर भी एक प्रभावी संचारक की भूमिका का निर्वहन किया है। पंडित  दीनदयाल उपाध्याय ने लोक कल्याण को ही पत्रकारिता का प्रमुख आधार माना। दीनदयाल के पास समाचारों का न्यायवादी एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण था। उनके लेखों, उपन्यासों व नियमित कॉलमों में निष्पक्ष आलोचना, उचित शब्दों का प्रयोग और सत्यपरक खबरों को ही मानवता के अनुकूल मिलता है।  राष्ट्र भक्ति को पल्लवित करने की भावना को साकार स्वरूप देने का श्रेय उंनकी पत्रकारिता को भी जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को साहित्य से एक अलग ही लगाव था शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय अपनी तमाम ज़िन्दगी साहित्य से जुड़े रहे। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। साहित्य से लगाव इतना की उन्होंने केवल एक बैठक में ही 'चंद्रगुप्त' नाटक लिख डाला था। भारत विभाजन के दौर में भयानक रक्तपात हुआ। देश, भारत को एक राष्ट्र मानने तथा भारत को द्विराष्ट्र मानने वाले में बंट गया। इसी हिंसाचार ने महात्मा गांधी को भी लील लिया। उनकी जघन्य हत्या हुई। देश के विभाजन की विभीषिका ने दीनदयाल जी को बहुत आहत किया। उन्होनें इस पर प्रखरतापूर्वक अपना पक्ष रखा। पंडित दीनदयाल के अनुसार अखण्ड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के  भारतीय दृष्टिकोण का परिचायक  है जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है। अतः हमारे लिए अखण्ड भारत राजनैतिक नारा नहीं है, बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार है।  

अखंड भारत की अवधारणा से संबंधित ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का विश्लेषणार्थ उपाध्याय ने अखण्ड भारत क्यों? नाम की पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने प्राचीन भारत साहित्य के संदर्भित करते हुए भारत में युगों से चली आयी उस सांस्कृतिक एवं राजनैतिक परम्परा का उल्लेख किया है जो भौगोलिक भारत को एक एकात्म राष्ट्र के रूप में विकसित करने में समर्थ हुई थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्पष्ट मत था कि भारत माता को खण्डित किये बिना भी भारत की आजादी प्राप्त की जा सकती थी और भारत माता को परम वैभव तक पहुँचाने में हम अधिक तीव्रगति से सफल हो सकते थे किंतु पंडित नेहरू और जिन्ना के सत्ता  के लालच  और अंग्रेजों  की चाल में आ जाने से भारतवासियों का यह सपना पूर्ण नहीं हुआ और खण्डित भारत को आजादी मिली। दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार व्यक्तिवाद अधर्म है। राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनमें एक कुशल शिक्षाविद, अर्थचिंतक, संगठनकर्ता, राजनीतिज्ञ, लेखक व पत्रकार सहित अनेक गुण थे। यह बात अलग है कि उन्हें लोग एकात्म मानववाद के प्रणेता के रूप और एक संगठन के कुशल सेवी के रूप में ज्यादा जाना जाता है। 

उनमें लेखन और संपादन का अद्भुत कौशल विद्यमान था। उनकी गणना उस दौर के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी जाती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व में पत्रकारिता का आदर्शवाद समाहित था। आजादी के समय में अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को आजादी दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण और जनजागरण के लिए समर्पित किया। दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में एक संपादक के सभी पत्रकारीय गुण  दिखाई पड़ते थे। दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि पत्रकारिता एक मिशनरी संकल्प है जिसे पूरी लगन एवं तल्लीनता से करनी चाहिए। समाजहित की पत्रकारिता में व्यावसायिक पत्रकार का कोई स्थान नहीं होता है।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने व्यस्त राजनीतिक जीवन से अनेक वर्षों तक आरगेनाइजर, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य में ‘‘पॉलिटिकल डायरी’’ नामक स्तम्भ के अंतर्गत तत्कालीन राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम पर गम्भीर विवेचनात्मक टिप्पणियां लिखते रहे।  दीनदयाल जी की टिप्पणी सामयिक और बहुत पते की होती थी।

 सन 1947 में पंडित  दीनदयाल ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। दीनदयाल ने ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘स्वदेश’ के माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा एकात्म मानववाद का विकल्प एवं अंत्योदय का विचार उस कालखंड में दिया गया जब देश में समाजवाद, साम्यवाद जैसी आयातित विचारधाराओं का बोलबाला था। भारत में भारतीयता को पुनर्जीवित करने वाली विचारधारा की बजाय समाजवाद एवं साम्यवाद जैसी आयातित विचारधाराओं का बोलबाला होना भारतीयता के लिए अनुकूल नहीं था। पंडित जी ने भारत की समस्या को भारत के सन्दर्भों में समझकर उसका भारतीयता के अनुकूल समाधान देने की दिशा में एक युगानुकुल प्रयास किया। दीनदयाल जी ने अपने चिन्तन में आम मानव से जुड़ी जिन चिंताओं और समाधानों को समझाने का प्रयास आज से दशकों पहले किया था।  सही मायनों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने  पत्रकारिता को भी इसी दृष्टि से एक नई दिशा दी। वे स्वयं कभी संपादक या औपचारिक संवादाता नहीं रहे। उन्होंने संपादकों और संवाददाताओं का सुखद सानिध्य प्राप्त किया। तभी संपादक व पत्रकार उन्हें सहज ही अपना मित्र एवं मार्गदर्शक मानते थे। पत्रकार के नाते पंडित जी का योगदान अनुकरणीय था।  दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी व्यवसाय नहीं थी । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए किया।  ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलंबन किया हो। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि पत्रकारिता करते समय राष्ट्र हित को सर्वोपरि मानना चाहिए।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और स्वदेश के माध्यम से पत्रकारिता के क्षेत्र में जो मूल्य और मानदंड स्थापित किया उसकी दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती। दीनदयाल उपाध्याय का पत्रकारीय चिंतन राष्ट्रवादी और भारतीय जीवन मूल्यों की विचारधारा से जुड़ता है। पत्रकारिता के आधार पर उन्होंने  राष्ट्र को समझने तथा भारतीय अस्मिता को लोगों तक पहुंचाने का गंभीर प्रयास किया है।

Thursday 25 January 2024

भारत और भारतीयता में रची बसी थी राजमाता




उनका आत्मविश्वास, साहस और कौशल विलक्षण था। भारतीय राजनीती में योगदान अप्रीतम था। वह ममतामयी थी। अपना जीवन उन्होनें ग्वालियर रियासत और मध्यप्रदेश की प्रगति और विकास के लिए झोंक दिया था। उनका जीवन पूरी तरह से जन सेवा के लिए समर्पित था। वह निडर थी। हमेशा लोगों के बीच रहकर काम करने में उन्हें आनंद आता था । एक तरफ उनमें सादगी, सरलता, संवेदनशीलता की त्रिवेणी बसती थी, वहीँआमजन  के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले  रहते थे। देश के मानस पटल पर कभी यदि कुशल नेतृत्व कला दिखाने वाली भारत की महिलाओं की सूची बनेगी तो उसके केन्द्र में सबसे पहले ग्वालियर की राजमाता का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। जब भी भाजपा और जनसंघ के स्वर्णिम इतिहास का जिक्र होगा उसमें ग्वालियर पर राज करने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम सबसे ऊपर जरूर आएगा। राजमाता के नाम से जानी जाने वाली विजयराजे सिंधिया भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक थी।

राजमाता अपने विचारों सिद्धांतों के प्रति हमेशा अडिग रहने वाली थी। भारतीयता में रची बसी वो ऐसी विदुषी जननायिका थी जिन्होंनें महलों की विलासिता और वैभव को छोड़कर हमेशा जनता से जुड़कर न केवल उनकी समस्याओं को उठाया बल्कि संघर्ष करने से कभी नहीं घबराई। इसके लिए सड़क पर उतरकर राजमाता होने के मायने समय -समय पर सबको  बताये और राजमाता से लोकमाता बन गई। उन्होनें जीवन पर्यन्त आम इंसान की जिंदगी को शिद्दत के साथ जिया और अपनी जनसेवा की ललक से आम जनता के दिलों में विशेष छाप छोड़ी। राजमाता जन -जन से जुड़ी रही और उनके बीच रहकर महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही। राजमाता के व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था ,जो हर किसी को हमेशा राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करता था। पद और सत्ता की लालसा हर किसी को आज आकर्षित करती है लेकिन राजमाता इन सबसे हमेशा दूर रही। 

राजमाता विजय राजे सिंधिया का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जिले में राणा परिवार में ठाकुर महेंद्र सिंह और चूड़ा देवेश्वरी देवी के घर हुआ था। विजया राजे सिंधिया के पिता श्री महेंद्र सिंह ठाकुर और विंदेश्वरी देवी माँ थी। विजयाराजे सिंधिया का पहला नाम रेखा दिव्येश्वरी था।  विजया राजे सिंधिया ने अपना जीवन ग्वालियर और मध्य प्रदेश की प्रगति और विकास के लिए समर्पित कर दिया था । अपनी प्रखर क्षमता से उन्होनें भारतीय राजनीती को वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफलता पाई । सही मायने में वे ऐसी  विदुषी महिला थी जिन्होंने भारतबोध को जिया  और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए कारगर प्रयास हमेशा किए। वे सही मायने में एक राजमाता से ज्यादा समाजसेवा में रची बसी महिला थी जिनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुई थी । ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का मंत्र उनके जीवन का आदर्श था और भारत के आमजन में आज भी उनका नाम आदर और सम्मान से लिया जाता है ।

राजमाता का लालन - पालन उनकी दादी ने किया और अपना बचपन एक आम महिला की तरह बिताया। युवावस्था में उन्होंने बनारस के वसंत कॉलेज और लखनऊ के थोबर्न कॉलेज में अध्ययन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जहां उन्होंने आज़ादी की नई अलख जगाई । आत्मविश्वास से लबरेज होकर उन्होनें समाज के सामने एक अलग छाप छोड़ी। इसी अलहदा पहचान ने ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया का ध्यान आकर्षित किया। जीवाजी राव ने पहली मुलाकात में ही राजमाता से विवाह का फैसला किया जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार किया। विजयाराजे सिंधिया का विवाह 21 फरवरी 1941 को ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से हुआ था। 1950 के दशक में ग्वालियर हिंदू महासभा का गढ़ था । कांग्रेस पार्टी इस परिदृश्य से खुश नहीं थी और अफवाहें फैल रही थी कि यह पार्टी महाराजा के लिए समस्याएं खड़ी करेगी। जीवाजी राव मुंबई में अपने निजी काम में व्यस्त थे, इसलिए राजमाता ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने का फैसला किया और उन्हें समझा दिया कि महाराज कांग्रेस - विरोधी नहीं थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका संदेह तभी दूर होगा जब जीवाजी राव कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। जब राजमाता ने नेहरू को समझाया कि जीवाजी राव का राजनीति में प्रवेश करने का इरादा नहीं है , तो प्रधानमंत्री ने राजमाता को महाराज के स्थान पर खड़े होने के लिए कहा। अगर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी होते  तो राजमाता चुनाव लड़ने के लिए राजी हो जातीं और ग्वालियर से जीत जाती लेकिन जीवाजी राव की रक्षा के लिए की गई यह राजनीतिक संधि लंबे समय तक नहीं चली।

1967 के चुनावों से पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा के साथ मतभेदों के बाद राजमाता सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ की ओर से विधानसभा के लिए चुनाव लड़े और एक स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव। वे दोनों चुनाव जीते और औपचारिक रूप से जनसंघ में शामिल होने के बाद विधान सभा के सदस्य बनने का फैसला किया। गोविंद नारायण सिंह को जब मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब राजमाता पर पहली बार लोगों का ध्यान गया। मध्यप्रदेश की विधान सभा रोचक मोड़ उस समय आया जब 36 सदस्यों ने अपना समर्थन वापस ले लिया और गोविन्द नारायण सिंह की सरकार को गिरा दिया। उस दौर को याद करें तो पहली बार मध्य प्रदेश पहली बार ‘कांग्रेस - मुक्त ’ हो गया जिसमें परदे के पीछे राजमाता की बिछाई बिसात ने काम किया। संयुक्त विधानमंडल नाम की एक संधि सरकार का गठन उस दौर में किया गया था जिसकी अध्यक्षता खुद राजमाता ने की।

मध्यप्रदेश में उस दौर में कांग्रेस की सरकार थी और द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री थे। एक दिन एक मीटिंग में मिश्र ने राजमाता को इंतजार करा दिया। उस समय हुए एक छात्र आंदोलन के कारण विजयाराजे और सीएम के बीच मनमुटाव चल रहा था। इस इंतजार ने उस मनमुटाव में आग में घी की तरह काम किया और राजमाता इसे अपना अपमान मान बैठी। वहां से जब राजमाता लौटी तो उन्होंने कांग्रेस सरकार के गिराने का संकल्प कर लिया। विजयाराजे कांग्रेस छोड़ जनसंघ से जा मिली और मिश्रा सरकार को गिराने की तैयारियों में जुट गईं। राजमाता ने इसके लिए कांग्रेस विधायकों को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया। देर रात तक विधायकों को तोड़ने की रणनीति गोविंद नारायण सिंह के साथ बनाई। जब विधायकों की संख्या 36 हो गई तो राजमाता ने उन्हें दो गोपनीय स्थानों पर रखा। अगले रोज इन विधायकों को राजमाता की बस में बैठाकर ग्वालियर ले जाया गया। यहां विधायकों को विजयाराजे ने बसों में बैठाकर दिल्ली भेज दिया गया। इस तरह राजमाता के आशीर्वाद से गोविंद नारायण को सीएम की कुर्सी मिल गई। राजमाता ने यहां विधायकों की मुलाकात मोरारजी देसाई और यशवंतराव चव्हाण से करवाई। विधायकों को जब वापस भोपाल लाया गया तो फिर विजयाराजे ने अपनी निजी सुरक्षा में ही इन्हें वापस लेकर आई। विधायकों के आने के बाद डीपी मिश्रा को इस्तीफा देना पड़ गया। अपनी मजबूत किलेबंदी से जिस दिन उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस सरकार को पलट दिया और गठबंधन सरकार बनाई । पहली बार मप्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी। 'संयुक्त विधायक दल' नाम के गठबंधन ने सरकार बनाई जिसमें राजमाता सर्वोच्च नेता बनीं और सिंह मुख्यमंत्री। हालांकि यह प्रयोग डेढ़ साल चल सका और फिर राजमाता व सिंह के बीच मतभेद हो गए और तत्कालीन मुख्यमंत्री मिश्र की कांग्रेस सरकार गिराने वाले सिंह फिर कांग्रेस में चले गए। उसी समय भारतीय राजनीतिक के फलक पर राजमाता सूर्य की भांति चमकी और जनता की सेवा के लिए राजमाता जनसंघ में शामिल हुई।

जनसंघ में एक प्रभावशाली और सबसे लोकप्रिय नेताओं में से राजमाता एक थी। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी की लहर का सामना किया और ग्वालियर क्षेत्र में तीन सीटें जीती। एक बार अटल जी और आडवाणी जी ने उनसे जनसंघ के अध्यक्ष बनने का आग्रह किया था लेकिन उन्होंने एक कार्यकर्ता के रूप में ख़ुशी ख़ुशी जनसंघ की सेवा करना स्वीकार किया। राजमाता ने अपना वर्तमान राष्ट्र के भविष्य के लिए समर्पित कर दिया था। राजमाता पद और प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीती थीं, न ही उन्होंने राजनीति की थी लेकिन जब उसने भगवान की पूजा की तो उनके मंदिर में भारत माता की बड़ी तस्वीर भी थी जो माटी के प्रति उनके अनुराग को दिखाता है। उनकी उनकी सेवाओं को सारे देश ने देखा और उसके स्पंदन को बखूबी महसूस किया। उनकी राष्ट्र के प्रति सेवा की जिजीविषा ने ही उन्हें राजमाता से लोकमाता बनाया और समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत किया।

भारतीय जनसंघ से भाजपा तक उनकी यात्रा में अनेक उतार - चढ़ाव आए लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांत और विचारधारा के प्रति जो समर्पण रहा उसे कभी नहीं छोड़ा। अटल जी और आडवाणी 1972 में उनके सामने आए।  एक बार जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के लिए दोनों ने उनके साथ लम्बी मंत्रणा भी की। राजमाता ने कहा कि मुझे एक दिन का समय चाहिए। राजमाता जब दतिया के प्रमुख पीतांबरा माता के शक्तिपीठ गई , तो गुरुजी के साथ चर्चा की और अटल और आडवाणी जी से कहा कि वह एक कार्यकर्ता के रूप में भारतीय जनसंघ की सेवा करना जारी रखेंगी। पदों के प्रति उनमें कभी कोई आकर्षण नहीं था। वह इसे ठुकारने में भी देरी नहीं लगती थी और खुलकर सबके सामने अपनी बात मजबूती एक साथ रखती थी।

अटल, आडवाणी और कुशाभाऊ ठाकरे जी जैसे राजनीती के पुरोधाओं के सानिध्य को पाकर वह अभिभूत हुई और भारतीय जनसंघ को पल्लवित करने में अपनी जी-जान लगाई। भारतीय जनसंघ से भाजपा तक की उनकी यात्रा में उतार - चढ़ाव थे लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांतों और विचारधारा के प्रति समर्पण कभी नहीं छोड़ा। वह कई दशकों तक जनसंघ की सदस्य रहीं। जनसंघ के नेता के कारण राजमाता सिंधिया ने पूरे देश का लम्बा दौरा किया और पार्टी के लिए खुलकर प्रचार किया। भाजपा के लिए वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने में राजमाता सिंधिया ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कराया तो उन्होंने राजमाता को अपने पास बुलाया और उनसे 20 सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने को कहा था। उस समय राजमाता ने अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए इंदिरा के इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मैं जनसंघ की विचारधारा को नहीं छोड़ सकती। उन्होंने यह तक कह दिया कि मैं जेल जाना पसंद करूंगी लेकिन आपातकाल जैसे काले कानून का कभी समर्थन नहीं करूंगी। विचारधारा के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता शायद ही आज के दौर में किसी नेता में देखने को मिले। राजमाता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री  इंदिरा गाँधी  के सामने झुकने के बजाए जेल जाना पसंद किया और अपनी विचारधारा से नहीं डिगी।

जिस तरह इंदिरा गाँधी  के पिता ने जीवाजी को संकट से बचाने के नाम पर विजय राजे को कांग्रेस से जोड़ा था, उसी तरह इंदिरा गाँधी ने विजय राजे के बेटे माधवराव सिंधिया को अपनी मां की भलाई का वादा करके जनसंघ छोड़ने के लिए मजबूर किया। माधवराव ने कांग्रेस के समर्थन में गुना के निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जनता पार्टी की लहर के बावजूद जीत गए। 1980 में वे औपचारिक रूप से कांग्रेस के सदस्य बने और तीसरी बार गुना से चुनाव जीते। 1984 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में , उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ग्वालियर से लड़ाई लड़ी। राजमाता ने अनिच्छा से अपने बेटे की मदद की। हालांकि उन्होंने केवल अटल बिहारी के लिए अपना चुनाव प्रचार किया। अभियान के दौरान उन्होंने कहा था कि उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सिंधिया परिवार की गरिमा बनी रहे। हालांकि उन्होंने वाजपेयी के लिए कहा लेकिन जनता समझ गई कि यह माधवराव को जीतने के लिए कहा गया था। क्षेत्र में राजमाता की लोकप्रियता समान रही। 1980 में जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने राजमाता से आग्रह किया कि वे रायबरेली से जनता पार्टी की ओर से इंदिरा गांधी से लोकसभा चुनाव लड़ें। राजमाता ने कहा कि पार्टी को फैसला करना चाहिए। राजमाता खुद रायबरेली गईं और इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा। वे पीछे नहीं हटी । बेशक उस दौर में वह चुनाव हार गई लेकिन उन्होंने संगठन के निर्णय का पालन कर राजनीति में अपना आदर्श स्थापित किया । राजमाता  भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर संसद भी पहुंची जिसके बाद 1991, 1996 और 1998 में भी वह इस सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचती रही। उन्होंने 1999 में चुनाव नहीं लड़ा। 25 जनवरी 2001 में उनकी मृत्यु हो गई।

राजमाता ने भाजपा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके साथ ही उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष से बनाया गया। जब पार्टी ने राम जन्मभूमि आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई तब राजमाता ने भी इसको बखूबी आगे बढ़ाते रही। 6 दिसंबर 1992 में बाबरी विध्वंस के दौरान राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी विवादित स्थल के नजदीक मंच पर वरिष्ठ नेताओं के साथ मौजूद थी। इस दौरान उन्होंने वहां मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए भाषण भी दिया था। अन्य हिंदू नेताओं के साथ राजमाता ने भी कारसेवकों का मंदिर आंदोलन में नेतृत्व किया था। 1988 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यपरिषद में राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहली बार राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव लेकर आईं थी। केंद्र में जब जनता पार्टी की सरकार बनी। उस समय तत्कालीन नेताओं को कई सरकारी पद दिए गए थे लेकिन राजमाता ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में राजमाता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद में शामिल हो गईं। भारतीय राजनीति में सिंधिया राजघराने की बात जब भी होती है तो इस राजघराने के बेटा - बेटियों की चर्चा खूब होती है। विजया राजे सिंधिया के बेटे माधवराव सिंधिया पहले जनसंघ में रहे। बाद में वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बने। उन्होंने केंद्रीय मंत्री के रूप में भी देश की सेवा की। माधवराव सिंधिया के बेटे और विजयाराजे सिंधिया के पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया वर्तमान में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। विजयाराजे सिंधिया की दो बेटी वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भाजपा की वरिष्ठ नेता हैं। वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री रह चुकी हैं जबकि यशोधरा राजे सिंधिया पूर्व सांसद के साथ मध्यप्रदेश की सरकार में  पूर्व खेल मंत्री भी रह चुकी हैं। कम समय में अपनी जनसेवा से यशोधरा राजे ने भी मध्य प्रदेश की राजनीती में बड़ा मुकाम हासिल किया है। 

राजमाता ने भारतीय राजनीति में एक ऐसी सशक्त महिला के तौर पर पहचान बनाई जिसमें जनता के लिए हमेशा कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। उसकी दूसरी मिसाल आज तक भारतीय राजनीती में देखने को नहीं मिलती। हमेशा जनता से सीधा जुड़ाव, संवाद और राष्ट्रहित के प्रति सेवा करने की उनकी भावना ने उन्हें  सही मायनों में लोकमाता बना दिया। अपनी सरलता, सहजता और संवेदनशीलता से उन्होनें सबका दिल जीत लिया। राजघराने से ताल्लुक रखने के बाद भी जनता के हर दर्द में सहभागी बनने की उनकी सेवा भावना का हर कोई मुरीद हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी भी उनकी विलक्षण प्रतिभा के कायल रहे हैं। कई बार सार्वजनिक मंचों से वे बता चुके  हैं कैसे  पार्टी के साधारण से साधारण कार्यकर्ता का ध्यान राजमाता  एक मां की तरह रखती थी।  

Tuesday 14 November 2023

दीपोत्सव पर समाज को नई राह दिखलाएं




हिन्दू परंपरा में त्यौहार से आशय  उत्सव और हर्षोल्लास से लिया जाता है। अपने देश की बात  की जाए  तो यहाँ मनाये जाने वाले त्योहारों में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं। यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहार कमोवेश परिस्थिति के अनुसार अपने रंग , रूप और आकार में भिन्न हो सकते हैं लेकिन इनका अभिप्राय आनंद की प्राप्ति ही होता है। बेशक अलग -अलग धर्मों में त्यौहार मनाने के विधि विधान भिन्न हो सकते हैं लेकिन सभी का मूल मकसद बड़ी आस्था और विश्वास  का संरक्षण होता है । सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा जुडी हुई है  जिनमें से सभी का सम्बन्ध आस्था और विश्वास से है। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है इन त्योहारों की  पौराणिक कथाएँ भी प्रतीकात्मक होती हैं। कार्तिक मॉस की अमावस के दिन दीपावली  का त्यौहार मनाया जाता है । दीपावली का त्यौहार महज त्यौहार ही नहीं है, इसके साथ कई पौराणिक गाथाएं  भी  जुडी हुई हैं ।
 
दीपावली की  शुरुआत  आमतौर पर कार्तिक मॉस की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होती है जिसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देव धन्वन्तरी की पूजा अर्चना का विधान है । धन्वन्तरि जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथों  में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूँकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है।  लोकमान्यताओं  के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन वस्तु खरीदने से उसमें कई गुना   वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनियाँ के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

 धनतेरस के दिन चाँदी खरीदने की भी प्रथा है जिसके सम्भव न हो पाने पर लोग चाँदी के बने बर्तन खरीदते हैं। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में सन्तोष रूपी धन का वास होता है। सन्तोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है वही आज के समय में लोगों को नहीं है । जिसके पास सन्तोष है वह स्वस्थ है, सुखी है, और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं। उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। इसी दिन भगवान  को प्रसन्न रखने के लिए नए नए बर्तन , आभूषण खरीदने का चलन  लम्बे समय से चला आ रहा  है। यह अलग बात है मौजूदा दौर में  बाजार अपने हिसाब से सब कुछ तय कर रहा है और पूरा देश चकाचौंध के साये में जी रहा है जहां अमीर के लिए दीवाली ख़ुशी का प्रतीक है वहीँ गरीब आज भी दीपावली उस उत्साह और चकाचौंध के साये में जी कर नहीं मना पा रहा है जैसी उसे अपेक्षा है।  आज  समाज में अमीर और गरीब की खाई दिनों दिन गहराती ही जा रही है।
 
 धनतेरस के दूसरे दिन नरक चौदस मनाई जाती है जसी छोटी दीपावली भी कहते हैं। कहा जाता है कि जब वासुदेव  श्रीकृष्ण ने नरकासुर राक्षस के प्राण हरे थे, तो उसके बाद उन्होंने तेल और उबटन से स्नान किया था और यहीं  से उबटन लगाने की परंपरा शुरू हुई।  ऐसा माना जाता है इस दिन कृष्ण ने नरकासुर रक्षक का वध कर उसके कारागार से तकरीबन 16000 कन्याओं को मुक्त किया था।माना जाता है कि नरक चतुर्दशी के दिन ऐसा करने से नरक से मुक्ति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस वजह से इस दिन महिलाएं खासतौर से उबटन से स्नान करती हैं। स्वर्ग के साथ उन्हें सौभाग्य का भी वरदान मिलता है।  

इस दिन किसी पुराने दिए में  सरसों के तेल में पांच  अन्न के दाने डालकर घर में जलाकर रखा जाता है जो दीपक यम दीपक कहलाता है। तीसरे दिन अमावस की रात दीपावली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन गणेश जी और लक्ष्मी की स्तुति की जाती है । दीवाली के बाद अन्नकूट मनाया जाता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। 

पौराणिक मान्यता है कृष्ण ने नंदबाबा और यशोदा और ब्रजवासियों को इन्द्रदेव की पूजा करते देखा ताकि इन्द्रदेव ब्रज पर मेहरबान हो जाये तो उन्होंने ब्रज के वासियों को समझाया कि जल हमको गोवर्धन पर्वत से मिलता है जिससे प्रभावित होकर सबने गोबर्धन को पूजना शुरू कर दिए। यह बात जब इंद्र को पता चली तो वह आग बबूला हो गए और उन्होंने ब्रज को बरसात से डूबा देने की ठानी  जिसके बाद भारी वर्षा का दौर बृज में देखने को मिला।  सभी  रहजन वासुदेव श्रीकृष्ण के पास गए और तब कान्हा ने तर्जनी पर गोवर्धन  पर्वत उठा लिया। पूरे सात दिन तक  भारी वर्षा हुई पर ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे । सुदर्शन चक्र ने उस दौर में बड़ा काम किया और वर्षा के जल को सुखा दिया। बाद में इंद्र ने कान्हा से माफ़ी मांगी और तब सुरभि गाय ने कान्हा का दुग्धाभिषेक किया जिस मौके पर 56 भोग का आयोजन नगर में किया गया । तब से गोबर्धन पर्वत और अन्नकूट की परंपरा चली आ रही है ।
 
 शुक्ल द्वितीया को भाई दूज मनायी जाती है।  कहा जाता है यम और यमुना सूर्य के दो बच्चे थे और एक बार यमुना ने अपने भाई को अपने साथ भोजन करने के लिए घर पर आमंत्रित किया था लेकिन यम ने अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण पहले तो इनकार कर दिया, लेकिन कुछ देर के बाद उसने महसूस किया कि उसे जाना चाहिए क्योंकि उसकी बहन ने उसे बहुत प्यार से आमंत्रित किया है। अंत में, वह उसके पास गया और यमुना ने उसका स्वागत किया और उसके माथे पर तिलक भी लगाया। यम वास्तव में उसके आतिथ्य से बेहद खुश हुआ और उसे एक इच्छा माँगने के लिए कहा। तब यमुना ने कहा कि जो इस दिन अपनी बहन से मिलने जाएगा, उसे मृत्यु का भय नहीं रहेगा। उनके भाई ने खुशी से ‘तथास्तु’ कहा और यही कारण है कि हम भाई दूज का त्यौहार मनाते हैं। मान्यता है यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज आस पास भी नहीं फटकते। 
 
ऐसा  भी माना जाता है कि भगवान सूर्य के दो बच्चे यम और यमुना थे और दोनों जुड़वाँ थे लेकिन जल्द ही उनकी माँ देवी संग्या ने उन्हें अपने पिता की तरह ज्ञान प्राप्त करने के लिए छोड़ दिया। उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी परछाई छोड़ रखी थी जिसका नाम उन्होंने छाया रखा। छाया ने भी एक बेटे को जन्म दिया था जिसका नाम शनि था लेकिन उसके पिता उसे पसंद नहीं करते थे। परिणामस्वरूप, छाया ने दोनों जुड़वा बच्चों को अपने घर से दूर फेंक दिया। दोनों जुदा हो गए और धीरे-धीरे काफी समय बीतने के बाद एक रोज यमुना ने अपने भाई को मिलने के लिए बुलाया, क्योंकि वह वास्तव में पिछले काफी समय से यम से मिलना चाहती थी। जब यम, यानी मृत्यु के देवता, उनसे मिलने पहुंचे तब उन्होंने उनका खुशी से स्वागत किया। वह अपने आतिथ्य से वास्तव में काफी खुश हुए; यमुना ने उनके माथे पर तिलक लगाया और उनके लिए स्वादिष्ट भोजन भी पकाया। यम ने खुशी महसूस की और अपनी बहन यमुना से पूछा कि क्या वह कुछ चाहती है? तब यमुना ने उस दिन को आशीर्वाद देना चाहा ताकि सभी बहनें अपने भाइयों के साथ समय बिता सकें और इस दिन जो बहनें अपने भाई के माथे पर तिलक लगाएंगी, मृत्यु के देवता उन्हें परेशान नहीं करेंगे। यम इस पर सहमत हुए और कहा ठीक है परिणामस्वरूप हर वर्ष इस दिन बहनें अपने भाइयों के साथ इस अवसर को मनाती हैं ।
 
दीपावली में दीयों को जलाने की परंपरा उस समय से चली आ रही है जब रावण  की लंका पर विजय होने के बाद राम अयोध्या लौटे थे। राम के आगमन की ख़ुशी इस पर्व में देखी जा सकती है । जिस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या लौटे थे उस रात कार्तिक मॉस की अमावस थी और चाँद बिलकुल दिखाई नहीं देता था। तब नगरवासियों में अयोध्या को दीयों की रौशनी से नहला दिया । तब से यह त्यौहार धूमधाम से  मनाया जा रहा है । 

ऐसा माना जाता है दीपावली की रात यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हस परिहास करते और आतिशबाजी से लेकर पकवानों की जो धूम इस त्यौहार में दिखती है वह सब यक्षों  की ही दी हुई है  वहीँ कृष्ण भक्तों की मान्यता है इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राक्षस नरकासुर का वध किया था । इस वध के बाद लोगों ने ख़ुशी में घर में दिए जलाए। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान नारायण  विष्णु ने अपने  नरसिंह रूप को  धारण कर  हिरण्यकश्यप का वध किया था और समुद्र मंथन के पश्चात प्रभु धन्वन्तरी और धन की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई जिसके बाद से उनको खुश करने के लिए यह सब त्यौहार  के रूप में मनाया जाता है। वहीँ  जैन मतावलंबी मानते हैं कि जैन धरम के 24 वे तीर्थंकर महावीर का निर्वाण दिवस भी दिवाली को हुआ था। 

बौद्ध मतावलंबी का कहना है बुद्ध के स्वागत में तकरीबन 2500 वर्ष पहले लाखों  अनुयायियों ने दिए जलाकर दीपावली को मनाया। दीपोत्सव सिक्खों के लिए भी महत्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण  मंदिर का शिलान्यास हुआ था और दीपावली के दिन ही सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को कारागार से रिहा किया गया था। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद  ने 1833 में दिवाली के दिन ही प्राण त्यागे थे । इसलिए  उनके लिए भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है ।
 
भारत के सभी  राज्यों में दीपावली धूमधाम के साथ मनाई जाती है। परंपरा के अनुरूप इसे मनाने के तौर तरीके अलग अलग बेशक हो सकते हैं लेकिन आस्था की झलक सभी राज्यों में दिखाई देती है। गुजरात में नमक को लक्ष्मी का प्रतीक मानते हुए जहाँ इसे बेचना शुभ माना जाता है वहीँ राजस्थान में दीपावली के दिन रेशम के गद्दे बिछाकर अतिथियों के स्वागत की परंपरा देखने को मिलती है। हिमाचल में आदिवासी इस दिन यक्ष पूजन करते हैं तो उत्तराखंड में थारु आदिवाई अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली  मनाते  हैं। बंगाल में दीपावली  को काली  पूजा के रूप में मनाया जाता है।  देश के साथ ही विदेशों में भी दीपावली की धूम देखने को मिलती है। ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक में यह में दीपावली धूम के साथ मनाया जाता है।  विदशों में भी धन की देवी के कई रूप देखने को मिलते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्रकट का दिन माना जाता है।
 
भारतीय परंपरा उल्लू को लक्ष्मी का वाहन मानती है लेकिन महालक्ष्मी स्रोत में गरुण अथर्ववेद में हाथी को लक्ष्मी का वाहन बताया गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू ही बताया गया है लेकिन प्राचीन यूनान में धन की अधिष्ठात्री देवी के तौर पर पूजी जाने वाली हेरा का वाहन मोर है। 

भारत के अलावा विदेशों में भी लक्ष्मी पूजन के प्रमाण मिलते हैं। कम्बोडिया में शेषनाग पर आराम कर रही विष्णु जी के पैर दबाती एक महिला की मूरत के प्रमाण बताते हैं यह हमारी देवी लक्ष्मी ही  है।  प्राचीन यूनान के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की आकृति देखी जा सकती है। रोम में चांदी  की थाली में लक्ष्मी की आकृति होने के प्रमाण इतिहासकारों ने दिए हैं। पडोसी देश श्रीलंका में भी पुरातत्वविदों  को खनन और खुदाई में कई भारतीय देवी देवताओं की कई मूर्तियां  मिली हैं जिनमे लक्ष्मी भी शामिल है । इसके अलावा थाईलैंड ,जावा , सुमात्रा, मारीशस , गुयाना , अफ्रीका ,जापान, अफ्रीका जैसे देशों में भी इस धन की देवी की पूजा की जाती है। यूनान में आइरीन, रोम में फ़ोर्चूना , ग्रीक में दमित्री को धन की देवी एक रूप में पूजा जाता है तो  यूरोप में भी एथेना ,मिनर्वा और एलोरा का महत्व है।  
 
 समय बदलने के साथ ही बाजारवाद के दौर के आने के बाद आज बेशक इसे मनाने के तौर तरीके भी बदले हैं लेकिन आस्था और भरोसा ही है जो कई दशकों तक परंपरा के नाम पर लोगों को एक त्यौहार के रूप में देश से लेकर विदेश तक के प्रवासियों को एक सूत्र में बाँधा है।

 बाजारवाद के इस दौर में  घरों में मिटटी के दीयों की जगह आज चीनी उत्पादों और लाइट ने ले ली है लेकिन यह त्यौहार उल्लास का प्रतीक तभी बन पायेगा जब हम उस कुम्हार के बारे में भी सोचें  जिसकी रोजी रोटी मिट्टी के उन दीयों  से चलती है जिसकी ताकत चीन के सस्ते दीयों ने  आज छीन ली है।  हम पुराना वैभव लौटाते हुए यह तय करें कि कुछ दिए उस कुम्हार के नाम  इस दीपावली  में खरीदें जिससे उसकी भी आजीविका चले और उसके घर में भी खुशहाली आ सके।
 
इस त्यौहार में भले ही महानगरों में आज  चकाचौंध का माहौल है और हर दिन अरबों के वारे न्यारे किये जा रहे हैं लेकिन सरहदों में दुर्गम परिस्थिति में काम करने वाले जवानों के नाम भी हम एक दिया जलाये जो दिन रात सरहदों की निगरानी करने में मशगूल हैं  और अभी भी दीपावली अपने परिवार से दूर रहकर मना  रहे हैं । इस दीपावली पर हम यह संकल्प भी करें तो बेहतर रहेगा यदि इस बार की दीपावली हम पौराणिक स्वरुप में मनाते हुए स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करें। पटाखों के शोर से अपने  को दूर करते हुए पर्यावरण का ध्यान रखें और कुम्हार के दीयों से  अपना घर रोशन ना करें बल्कि समाज को भी नहीं राह दिखाए  तो तब कुछ बात बनेगी। 

Wednesday 25 October 2023

स्पिन के जादूगर की अंतिम 'फ्लाइट '


 





उनकी स्पिन  में गजब का जादू था।  जब वो मैदान पर उतरते  और कलाई से गेंद  की दिशा  को मोड़  देते थे तो दुनिया के बल्लेबाजों का मान मर्दन कर देते थे।  उनके सामने बैटिंग करने पर खिलाडियों  के पहले ही  पसीने छूट जाया करते थे। उनकी गेंद  की फ्लाइट को देखकर दुनिया के अच्छे बल्लेबाज भी चकमा खा जाते थे।  अगर कहा जाए उनकी  गिनती बाएं हाथ के दुनिया के  महानतम स्पिनर के रूप में की जाती थी तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।  सही मायनों में अगर कहा जाए तो  इरापल्ली प्रसन्ना, बीएस चंद्रशेखर और एस. वेंकटराघवन की तिकड़ी के साथ उन्हें भारतीय स्पिन गेंदबाज़ी में नई क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है।

 पचास के दशक में हमारे पास वीनू मांकड और सुभाष गुप्ते जैसे विश्वस्तरीय स्पिनर थे लेकिन  सत्तर और अस्सी  के दशक में भारत की स्पिन को दुनिया के पटल पर अगर किसी ने नई पहचान दिलाई तो उसमें बिशन सिंह बेदी ही  थे।  जिस दौर में बेदी ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया उस  समय  दुनिया भर में तेज़ गेंदबाज़ों का जलवा हुआ करता  था। होल्डिंग, रॉबर्ट्स, गार्नर, मार्शल, क्लार्क , लिली , टॉमसन सरीखे रफ़्तार के लम्बे  तेज गेदबाजों के सामने  सही से भी बैटिंग भी  नहीं की जा सकती थी । उस दौर में बिशन सिंह बेदी ने अपनी कलाई के जादू के आसरे दुनिया के पटल पर खास पहचान बनाई। बिशन सिंह बेदी ने भारत के खिलाफ  67 टेस्ट मैच खेले और 28.71 के शानदार औसत से 266 विकेट हासिल किए। इस दौरान वो भारत की ओर से सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज भी रहे। उनके पास  लूप और स्पिन के साथ-साथ क्रीज पर बल्लेबाजों को मात देने के लिए खुद के पिटारे में  बेहतर आर्म स्पीड रिलीज पॉइंट्स में फ़्लाइट  भी मौजूद थी ।
 
 भारतीय क्रिकेट में स्पिन को नई  दिशा देने में  बिशन सिंह बेदी के योगदान को कभी भुलाया ही नहीं जा सकता।  अपनी फिरकी से उन्होनें  दुनिया भर के बल्लेबाज़ों को अपने कौशल से बाँधा,  साथ ही घरेलू क्रिकेट दिल्ली की ओर से  खेलते हुए  अपने  दो रणजी ट्रॉफ़ी  खुद  के नेतृत्व में  जीते।  यही नहीं 370  के प्रथम श्रेणी के मैचों  में रिकॉर्ड 1560 विकेट हासिल कर वह एक समय सबसे ज़्यादा विकेट लेने वाले खिलाड़ी  भी बने। वह भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट में 200 विकेट लेने वाले पहले गेंदबाज थे।  बिशन सिंह बेदी भारतीय टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में पहले बाएं हाथ के स्पिनर बने थे जिन्होंने 266 विकेट लेने का कारनामा महज  67 मैच में  कर दिखाया जो  एक  बड़ी उपलब्धि उस दौर में थी जब क्रिकेट में आज के दौर के जैसे संसाधन नहीं हुआ करते थे ।अपने खेल के जरिये उन्होंने दुनिया की विभिन्न टीमों को  खेल के सही मायने  सिखाये । 
 
बिशन सिंह बेदी की अलहदा शख़्सियत उन्हें महान खिलाडियों की ऐसी श्रेणी में रखती है जो खेल भावना से खेल खेला करते थे।  एक बार  1976 के सबीना पार्क में टेस्ट मैच चल रहा था जब वेस्ट इंडियन कप्तान क्लाइव लॉयड ने  ऑस्ट्रेलिया के लिली-टॉमसन से त्रस्त होकर तेज़ गेंदबाज़ी को अपना हथियार बनाया और भारतीय बल्लेबाज़ों को मैदान पर अपने निशाने पर लिया तो  तो बिशन सिंह बेदी ने विरोध में पारी घोषित कर दी। उनका स्पष्ट कहना था कि ऐसा खेल उन्हें मंज़ूर नहीं है जिसमें इस तरह की आक्रामकता हो। उस टेस्ट को अब भी इस विरोध के लिए याद किया जाता है।  इस घटना ने सिखाया बेदी अपने उसूलों पर चलने वाले एक बेहतर इंसान थे और बेख़ौफ़ बोलने में माहिर थे ।  
 
 बिशन सिंह का जन्म 25 सितंबर 1946 को अमृतसर पंजाब में हुआ था।  बेदी ने भारत के लिए 1966 में टेस्ट डेब्यू किया और वह अगले 13 साल तक टीम इंडिया के लिए सबसे बड़े मैच विनर साबित हुए। गेंदबाजी के अलावा बिशन सिंह बेदी के अंदर बेहतरीन नेतृत्व  की काबिलियत भी थी ।  बिशन सिंह बेदी को 1976 में टीम इंडिया का कप्तान नियुक्त किया गया और उन्होंने 1978 तक टीम इंडिया की कमान संभाली।  बिशन सिंह बेदी ने 22 टेस्ट मैचों में टीम इंडिया की कप्तानी की।  बिशन सिंह बेदी को ऐसे कप्तान के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने टीम के अंदर लड़ने की क्षमता पैदा की और अनुशासन को लेकर नए बैंच मार्क स्थापित किए। बिशन सिंह बेदी को भारतीय टीम की कप्तानी करने का भी मौका मिला था। उन्हें 1976 में यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी। बेदी को महान क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी की जगह कप्तान बनाया गया था। बतौर कप्तान उन्हें पहली जीत वेस्टइंडीज के खिलाफ पोर्ट ऑफ स्पेन में 1976 के दौरे पर मिली थी।  कप्तान के तौर पर बिशन सिंह बेदी ने 1976 में उस समय की सबसे मजबूत टीम वेस्टइंडीज को उसी की धरती पर जाकर टेस्ट सीरीज में मात दी। इसके बाद इंग्लैंड के खिलाफ घरेलू मैदान पर टेस्ट सीरीज में 3-1, ऑस्ट्रेलिया दौरे पर टेस्ट सीरीज में 3-2 और पाकिस्तान दौरे पर टेस्ट सीरीज 2-0 से मिली हार के बाद उन्हें कप्तानी से हटा दिया गया था। उनके बाद सुनील गावस्कर कप्तान बने ।
 
भारत के लिए 67 टेस्ट मैच में उन्होंने 266 विकेट लिए। उन्होंने 15 बार पारी में पांच विकेट लेने का कारनामा किया और एक बार मैच में 10 विकेट भी लिए। वहीं, 10 वनडे मैच में उन्होंने सात विकेट झटके।बेदी ने भारत के लिए कुल 77 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले थे। इस दौरान उन्होंने 273 विकेट झटके । बेदी को भारतीय टेस्ट इतिहास के पुरोधा बेहतरीन स्पिनरों में आज भी गिना जाता है।  बेदी ने भारत के लिए 1966 से 1979 तक टेस्ट क्रिकेट खेला था। बेदी ने 1969–70 में कोलकाता टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एक पारी में 98 रन देकर सात विकेट लिए थे। यह एक पारी में उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा। वहीं, मैच की बात करें तो 1977–78 में पर्थ के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 194 रन देकर कुल 10 विकेट झटके थे। उन्होंने टेस्ट में इकलौता अर्धशतक 1976 में कानपुर टेस्ट में न्यूजीलैंड के खिलाफ लगाया था।बिशन सिंह बेदी भारतीय क्रिकेट इतिहास के इकलौते ऐसे स्पिनर  रहे , जिन्होंने अपने पूरे प्रथम श्रेणी क्रिकेट  में 1560 विकेट लिए। बेदी ने दो उपविजेता रहने के अलावा, 1978-79 और 1979-80 में दिल्ली को प्रतिष्ठित रणजी ट्रॉफी खिताब भी दिलाया। इंग्लैंड में काउंटी क्रिकेट में नॉर्थम्पटनशायर के लिए भी उनका कार्यकाल सफल रहा। 1972 और 1977 के बीच क्लब के लिए 102 मैचों में, बेदी ने 20.89 के औसत के साथ 434 विकेट हासिल किए, जो इंग्लिश काउंटी क्रिकेट सर्किट में किसी भारतीय द्वारा सबसे अधिक है।  बिशन सिंह बेदी के नाम 60 ओवरों के वनडे फॉर्मेट में सबसे किफायती स्पेल डालने का विश्व रिकॉर्ड है। बेदी ने ईस्ट अफ्रीका के खिलाफ 1975 में 12 ओवर के अपने स्पेल में सिर्फ 6 दिए थे। इस दौरान उन्होंने 8 मेडन ओवर निकाले जबकि एक विकेट भी लिय था।
 
क्रिकेट को अलविदा कहने के बाद भी बिशन सिंह बेदी का जुड़ाव इस खेल के लिए खत्म नहीं हुआ। लंबे समय तक बिशन सिंह बेदी ने खुद को इस खेल के साथ जोड़े रखा।  अपने खेल करियर के बाद, बेदी ने युवा क्रिकेटरों को कोचिंग देना शुरू कर दिया, जिसमें मनिंदर सिंह और मुरली कार्तिक  उनकी नर्सरी से निकले खिलाड़ी थे जिन्होंने भारत के झंडे दुनिया में अपनी गाइडबाजी से गाढ़े।  उन्होंने घरेलू क्रिकेट में पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर टीमों को भी कोचिंग दी, जिसमें पंजाब ने 1992-93 में रणजी ट्रॉफी जीती।  नब्बे के दशक में वो कुछ समय के लिए  भारतीय टीम के मैनेजर भी नियुक्त किये गए । वह खेल से जुड़े सभी मामलों पर एक मुखर, निडर और निडर आवाज थे । बेदी ने क्रिकेट की दुनिया में बतौर कमेंटेटर भी पहचान बनाई।  कोच के तौर पर भी बिशन सिंह बेदी लंबे समय तक क्रिकेट के साथ जुड़े रहे । इतना ही नहीं भारत को स्पिन डिपार्टमेंट में मजबूत बनाए रखने के लिए बिशन सिंह बेदी ने नए खिलाड़ियों को ट्रेनिंग दी और भारतीय क्रिकेट के लिए अंतिम समय तक अहम योगदान देते रहे। बतौर भारत के कप्तान, कोच ,चयनकर्ता  के तौर पर उनके भारतीय क्रिकेट के प्रति  योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। उन्हें 1969 में अर्जुन पुरस्कार, 1970 में पद्म श्री और 2004 में सी.के. नायडू लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
 
क्रिकेट के  क्षेत्र में बिशन पाजी  नाम बहुत बड़ा है।  उनकी खेल की हर बारीकी पर तेज नजर रहती थी और  खिलाडियों को भी आगे बढ़ने को प्रेरित करती थीं। उनके निधन से भारतीय क्रिकेट जगत में  एक ऐसा शून्य भर गया  है, जिसे भर पाना कठिन होगा । उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी क्रिकेट की सेवा  के लिए लगा दी और अंतिम सांस तक  इसी खेल के लिए जिए।  उनका  व्यक्तित्व  क्रिकेट के प्रति एक अलग प्रकार चेतना से भरा हुआ था।  क्रिकेट की  गहरी समझ उनमें साफ दिखती थी।  क्रिकेट पर बोलते  हुए वो एक संत जैसा ज्ञान देते थे जो  गहराई के साथ हर किसी खिलाड़ी के जीवन में उतर जाता था।  मेरे जैसे पत्रकारों के लिए  वे हमेशा क्रिकेट में महान हीरो की तरह रहे हैं जिन्होंने खेल को न केवल जिया बल्कि अपनी विशेषताओं से  खुद को हर जगह साबित किया । उनके साथ  चाय पर चर्चा करते हुए  बैठना, चर्चा करना हमेशा अच्छा लगता था । वे मुझे  खेल पर लिखने के लिए हमेशा  नए विचार देते थे।  अंतिम बार कोरोना से पहले मैं उनके साथ दिल्ली के एयरपोर्ट स्थित  लेमन ट्री होटल  में एक कार्यक्रम के दौरान साथ बैठा था जहाँ उनके साथ  क्रिकेट पर लम्बी चर्चा हुई।  उस कार्यक्रम के दौरान भी उन्होनें  मिलने-जुलने से उन्होंने परहेज नहीं किया और मुलाक़ात में गर्मजोशी दिखाते हुए  अपने हाथों से मुझे चाय पिलाई ।उनकी उस मुलाक़ात से क्रिकेट के पुराने दौर और नए दौर के बदलावों की आहट को मैंने करीब से महसूस किया। 


उन्होंने अपने दौर के टेस्ट मैचों और आज के आईपीएल की चमक की तुलना खुलकर करते हुए कहा इंडियन प्रीमियर लीग मुनाफे का धंधा है। मुनाफा मनोरंजन से जुटाया जाता है, तो फिल्म अभिनेताओं ,अभिनेत्रियों और  कारोबारियों को इसमें  लिया गया । क्रिकेट का तत्व कहीं हल्का पड़  गया लेकिन सेलेब्रिटियों के चेहरे काम आएंगे। अमेरिका के एनबीए व बेसबॉल की व्यावसायिक लोकप्रियता से काफी प्रभावित होकर  पूंजी बटोरने के सारे तत्व वहां से लिए। मल्टीप्लेक्स आपकी जेब कब खाली कर देते हैं? और कैसे कर देते हैं? आप सोचते ही रह जाते हैं लेकिन आईपीएल क्रिकेट का  मुनाफा कमाने का समीकरण ही ऐसा है। इतना सीधा सपाट और खरा खरा  बोलने वाले खिलाड़ी  मैंने आज तक नहीं देखे।  
 
कोरोना के बाद जब भी यदा-कदा  उनसे बात हुई तो वे अस्वस्थ ही रहे  और इस दौरान उन्हें एक घुटने की सर्जरी से भी  गुजरना पड़ा जिसके बाद लोगों से मिलना जुलना कम हो गया फिर भी उन्होनें जल्द मिलने का भरोसा जगाया । पाजी  का पूरा जीवन क्रिकेट की एक  पाठशाला से कम नहीं था ऐसा उनके साथ मिलने और क्रिकेट के विभिन्न प्रसंगों पर चर्चा करते हुए मुझे लगा। उनसे मिलने की मेरी कसक अधूरी ही रह गई । शायद अब ऐसे दुनिया के  महान स्पिनर से मैं कभी नहीं मिल पाऊँगा। उनके  निधन के बाद  भारतीय क्रिकेट जगत में एक ऐसी रिक्तता उभर गयी है जिसकी भरपाई कर पाना इतना आसान नहीं है। उनके साथ बिताए समय ने  मेरे क्रिकेट के प्रति ज्ञान को समृद्ध किया लेकिन अब उनकी यादें ही हमारा संबल हैं।
 

Sunday 27 August 2023

मुख्यमंत्री शिवराज का 'गहना' बन रही है 'लाड़ली बहना योजना'





मध्यप्रदेश में इस वर्ष के अंत में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्रदेश की शिवराज सरकार ने लाड़ली बहना योजना के रूप में एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक चला है जिसका जमीन पर असर अभी से दिखाई देने लगा है। इस योजना को लेकर शहरों से लेकर गाँव में प्रदेश की महिलाओं में बेहद उत्साह नजर आ रहा है। यही कारण है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ओर से बहनों के लिए लाई गई लाड़ली बहना योजना को आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एक बड़ा गेम चेंजर माना जा रहा है। राज्य की आधी आबादी को साधने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ये मास्टर स्ट्रोक विपक्षी कांग्रेस की चुनावी जीत की संभावनाओं पर पलीता लगा सकता है।


इस योजना के तहत प्रदेश की शिवराज सरकार बहनों को हर महीने की 10 तारीख को 1000 रु की धनराशि प्रदान कर रही है जो लाड़ली बहनों के बैंक खातों में सीधे ट्रांसफर की जा रही है। विधानसभा चुनाव से पहले लाई गई लाड़ली बहना योजना के लागू होने से बहनें काफी उत्साहित हैं। चुनावी साल में शिवराज सरकार के लिए ये योजना कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आये दिन विकास पर्व के प्रदेश भर में हो रहे कार्यक्रमों में इस योजना की जबरदस्त ढंग से ब्रांडिंग करने में जुटे हैं। शिवराज की हर दिन प्रदेश भर में हो रही  सभाओं में  उमड़ रही महिलाओं की भीड़ इस बात की गवाही दे रही है कि  ये योजना उन्हें खूब भा रही है।  महिलाओं में इस योजना के प्रति अलग तरह का उत्साह प्रदेश के हर कोने में महसूस किया जा रहा है।   मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का मानना है कि लाड़ली बहना योजना महिलाओं की जिंदगी बदलने का बड़ा अभियान है। इस  अभियान  के लागू होने के बाद उन्हें प्रदेश भर से बहनों का अपार समर्थन भी मिल रहा है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में बहनों की जिंदगी बदलने के महाअभियान में दिन रात एक किये हुए हैं । प्रदेश की बहनों को अब अपनी छोटी-मोटी जरूरतें पूर्ण करने के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ रहा है। सही मायनों में इस योजना के माध्यम से मध्य प्रदेश में महिला सशक्तिकरण के एक नए युग का सूत्रपात हुआ है। प्रतिमाह 10 तारीख को गरीब और मध्यम वर्ग की महिलाओं के खाते में एक-एक हजार रुपए हस्तांतरित होने के बाद उनके चेहरों पर मुस्कराहट दिखाई दे रही है। लाड़ली बहनें इस बात से भी खुश नजर आ रही हैं, आने वाले समय में इस राशि को सरकार प्रति महीने 3,000 रुपए कर देगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के प्रति महिलाओं का भरोसा बढ़ा है।  

मुख्यमंत्री शिवराज ने अपनी तमाम योजनाओं के माध्यम से महिलाओं को हर मोर्चे पर सशक्त करने का काम किया है। ‘लाडली लक्ष्मी’ से लेकर ‘कन्या विवाह’ और अब ‘लाडली बहना’ सभी ने प्रदेश में एक नई  सामाजिक क्रांति लाने का काम किया है। महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करने के लिए शिवराज सरकार ने कई योजनाएं शुरू की जिसने महिलाओं को सशक्त करने की दिशा में अपने कदम आगे बढ़ाने का काम भी किया है। एक दौर था जब  मध्यप्रदेश में पहले पुरुषों और महिलाओं के अनुपात में काफी अंतर था। 1000 बेटों पर 912 बेटियां जन्म लेती थीं। लोग बेटियों को बड़ा बोझ मानते थे। उस समय मुख्यमंत्री शिवराज ने अपनी लाडली लक्ष्मी योजना के माध्यम से महिलाओं को बड़ा संबल देने का काम किया जिसका असर ये हुआ कि मध्यप्रदेश में बेटी अब बोझ नहीं रही। अब वह प्रदेश के लिए वरदान साबित हो रही है। आज मध्य प्रदेश में लिंगानुपात बढ़कर प्रति 1,000 पुरुषों पर 978 महिलाएं हो गया है। ‘लाडली लक्ष्मी’ के बाद ‘कन्यादान योजना’ शुरू हुई जिसका भी प्रदेश में शहरों से लेकर गाँवों तक जबरदस्त असर दिखा। स्थानीय निकाय के चुनावों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था के साथ ही पुलिस भर्ती में उनके लिए 30 प्रतिशत आरक्षण और शिक्षक भर्ती में 50 प्रतिशत आरक्षण, आजीविका मिशन से प्रदेश की आधी आबादी के हितों का संरक्षण हुआ है। ‘आजीविका मिशन'  बहनों की गरीबी दूर करने की दिशा में सशक्त माध्यम बनकर कार्य कर रहा है। आजीविका मिशन से बहनों में एक नई चेतना आयी  है। आज प्रदेश की लाखों महिलाएं इस मिशन के माध्यम से स्वरोजगार अपनाकर परिवार चला रही हैं।  इससे न केवल उनका आत्मविश्वास  बढ़ रहा है बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ रही है। जो  महिलाएं  आजीविका मिशन से नहीं जुड़ी हैं, उन्हें भी शिवराज सरकार द्वारा  जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।  मुख्यमंत्री शिवराज प्रदेश में आजीविका मिशन की बहनों की आय कम से कम 10 हजार रूपए महीना करना चाहते हैं जिससे वे लखपति क्लब में शामिल हो सकें। सही मायनों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी योजनाओं के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का काम किया है जिसकी पूरे देश में सराहना हो रही है। 

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में पांच करोड़ 40 लाख वोटर हैं जिनमें महिलाओं की संख्या दो करोड़ 60 लाख से अधिक है। राज्य में लाडली बहना योजना की पात्र महिलाओं की संख्या एक करोड़ 25 लाख से अधिक है। राज्य सरकार ने पहले इस योजना को 23 वर्ष से 60 वर्ष तक की महिलाओं के लिए लागू किया लेकिन बाद में अधिक बहनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए पात्रता शर्तों में ढील दी। अब ऐसी बहनें जिनकी आयु 21 से 23 वर्ष की है और जिनके पास ट्रैक्टर भी है, उन सभी को लाडली बहना योजना से जोड़ा गया है और अब उन्हें भी योजना का लाभ मिल रहा है ।  आज मध्यप्रदेश में प्रत्येक गांव और वार्ड में महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के साथ ही महिलाओं की हितग्राही मूलक योजनाओं के प्रभावी लाभ के लिए लाड़ली बहना सेना का भी  गठन किया गया है। लाड़ली बहना सेना से जोड़कर बहनों को संगठित किया जा रहा है। यह सेना बहनों को शासन की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलाने में मदद करेगी साथ ही बहनों पर होने वाले अन्याय को रोकने में भी कारगर बनेगी।

शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना के जवाब में कांग्रेस ने सत्ता में आने पर नारी सम्मान योजना की गारंटी दी है जिसकी हवा शिवराज 'मामा 'ने हर महिला के खाते में प्रतिमाह 10 तारीख को एक हजार रुपये देकर निकाल दी है। इसकी काट कांग्रेस नारी सम्मान योजना के रूप में देख रही है जिसमें वो प्रतिमाह महिलाओं को 1500 रु देने की बात कर रही है। कांग्रेस और चुनावी गारंटियों पर यकीन करना मुश्किल इसलिए भी हो रहा है क्योंकि अपने बीते 15 माह के कार्यकाल में उसने शिवराज सरकार की तमाम योजनाओं को बंद कर दिया। 2018 में कांग्रेस के द्वारा जोर शोर के साथ कृषि ऋण माफी, बेरोजगारी भत्ता और गैस सिलेंडर पर 100 रुपये की छूट की घोषणा की गई थी लेकिन 15 महीनों में एक भी वादा पूरा नहीं किया। इस लिहाज से कांग्रेस की गारंटियों पर अब भाजपा भारी पड़ती दिखाई दे रही है। मुख्यमंत्री शिवराज की सभाओं में हर जिले में उन्हें सुनने आ  रही महिलाओं की बड़ी भीड़ इस बात की गवाह बन रही है मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना को बहनों ने दिल से स्वीकारा है।

मुख्यमंत्री शिवराज ने कहा है कि वे लाड़ली बहनों की आँखों में आँसू नहीं आने देंगे । सबके चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर ही चैन से बैठेंगे। लाड़ली बहना योजना की शुरूआत 1000 रूपये से की है लेकिन धीरे-धीरे इसे बढ़ाकर 3000 रूपये किया जायेगा। खास बात ये है  जनता के दिलों में आम आदमी के सीएम के रूप में बसने वाले मुख्यमंत्री शिवराज की बनाई गई योजनाओं पर तुरंत अमल शुरू होता है और उसका प्रभाव हर क्षेत्र में महसूस किया जाता है। यह बात साधारण नहीं है मुख्यमंत्री शिवराज  सिंह चौहान की बनाई कई महिला केंद्रित योजनाओं ने उन्हें प्रदेश का मामा कई दशकों से बनाया हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  27 अगस्त को बहनों से रक्षाबंधन से पहले फिर संवाद करेंगे। जबसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी सभाओं में इस बात की घोषणा की है कि इस बार रक्षाबंधन के अवसर पर प्रदेश भर की सवा करोड़ से ज्यादा लाडली बहनों को बड़ा तोहफा मिलने वाला है उसके बाद से ही  लाड़ली बहनों में उपहार को लेकर  विशेष उत्साह देखा जा  रहा है।  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 27 अगस्त से लाडली बहनों के खाते में हर महीने 1250 रुपये डालने की घोषणा  के साथ  अक्टूबर से इसे बढ़ाकर प्रतिमाह 1500 रु करने की घोषणा कर  पूर्व सीएम  कमलनाथ  और कांग्रेस की गारंटियों की हवा निकाल सकते हैं।  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस बार रक्षाबंधन पर अपनी लाखों  बहनों को बड़ा तोहफा देंगे  इस बात  से महिलाएं  उत्साहित नजर आ रही हैं। 


मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने चुनावी साल में कई  घोषणाएं करने में जुटे हुए हैं  लेकिन सबसे बड़ी गेमचेंजर  योजना लाडली बहना मानी जा रही है।  लाडली बहनों के सहारे सरकार एंटी इनकम्बैंसी फैक्टर को चित करती दिखाई दे रही हैं। यही वजह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार महिलाओं से संवाद कर उन्हें एक के बाद एक तोहफे दे रहे हैं। महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करने के लिए वो कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं । उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए स्व-सहायता समूह से जोड़ने का प्रयास भी कर रहे हैं। 27 अगस्त का  दिन भोपाल में ऐतिहासिक होने जा रहा है।  सीएम शिवराज सिहं चौहान 27 अगस्त को जम्बूरी मैदान भोपाल में अपनी सवा करोड़ लाडली बहनों के साथ रक्षाबंधन का त्योहार मनाएंगे। लाड़ली  बहनें अपने भैय्या सीएम शिवराज सिंह चौहान को राखी बांधेंगी। इस कार्यक्रम में प्रदेशभर से लाखों की संख्या में लाड़ली बहना पहुंचने का सिलसिला शुरू गया है।  महिला बाल विकास विभाग इस संबंध  में तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगा हुआ है।  

मुख्यमंत्री  शिवराज  ने कहा  है कि हम मध्यप्रदेश में महिला सशक्तिकरण का इतिहास बनाएंगे। लाड़ली बहना योजना के क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकार ने 15 हजार करोड़ रुपए का प्रबंध किया है। सरकार का प्रयास यह है कि विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से बहनों की मासिक आमदनी 10000 रुपए तक हो जाए। महिलाओं और बेटियों के सशक्तिकरण के लिए मुख्यमंत्री शिवराज ने अपने स्तर पर अनेक प्रयास किये हैं जिसका प्रभाव धरातल पर हर जगह नजर आता है। लाड़ली बहना योजना के माध्यम से मुख्यमंत्री शिवराज महिलाओं को ये भरोसा दिलाने में कामयाब हुए हैं वे अपनी अंतिम सांस तक बेटियों , महिलाओं , बहनों के सम्मान के लिए काम करते रहेंगे।

Friday 4 August 2023

वो नटखट,मधुर, चितचोर सभी का किशोर

   

                           



प्राचीन परंपरा, संस्कृति और स्मृतियों को समेटे मध्यप्रदेश का खंडवा शहर मायानगरी किशोर कुमार की  खूबसूरत स्मृतियों से भी जुड़ा है। उनका जन्म खंडवा, मध्यप्रदेश में 4 अगस्त 1929 को हुआ था। उनका वास्तविक नाम आभास कुमार गांगुली था। उनके पिता कुंजलाल गांगुली, एक वकील थे और उनकी माँ, गौरी देवी, एक गृहिणी थीं। किशोर कुमार के चार भाई अशोक कुमार, अनूप कुमार, कुणाल कुमार और रतन कुमार थे। अशोक कुमार भाइयों में सबसे बड़े थे और भारतीय फिल्म उद्योग के एक प्रसिद्ध अभिनेता भी थे। किशोर कुमार ने भारतीय सिनेमा उस स्वर्णिम दौर में संघर्ष शुरु किया था जब उनके भाई अशोक कुमार एक सफल सितारे के रूप में स्थापित हो चुके थे। उस दौर को याद करें तो  सिनेमा में दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, बलराज साहनी, गुरुदत्त और रहमान जैसे कलाकारों के साथ ही पार्श्वगायन में मोहम्मद रफी, मुकेश, तलत महमूद और मन्ना डे जैसे दिग्गज गायकों का ही  बोलबाला था।

किशोर कुमार की शुरुआत एक अभिनेता के रूप में फ़िल्म शिकारी (1946) से हुई। इस फ़िल्म में उनके बड़े भाई अशोक कुमार ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। उन्हें पहली बार गाने का मौका 1948 में बनी फ़िल्म जिद्दी में मिला  जिसमें उन्होंने देव आनन्द के लिए खूबसूरत  गाना गाया। किशोर कुमार के एल सहगल के विशिष्ट प्रशंसक थे इसलिए उन्होंने यह गीत उन की शैली में ही गाया। जिद्दी की सफलता के बावजूद उन्हें न तो पहचान मिली और न कोई खास काम मिला। उन्होंने 1951 में फणी मजूमदार द्वारा निर्मित फ़िल्म 'आन्दोलन' में हीरो के रूप में काम किया मगर फ़िल्म फ़्लॉप हो गई। 1954 में उन्होंने बिमल राय की 'नौकरी' में एक बेरोज़गार युवक की संवेदनशील भूमिका निभाकर अपनी प्रभावकारी अभिनय प्रतिभा से भी परिचित किया। इसके बाद 1955 में बनी "बाप रे बाप", 1956 में "नई दिल्ली", 1957 में "मि. मेरी" और "आशा" और 1958 में बनी "चलती का नाम गाड़ी" जिसमें किशोर कुमार ने अपने दोनों भाईयों अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ काम किया। यह भी मजेदार बात है कि किशोर कुमार की शुरुआत की कई फ़िल्मों में मोहम्मद रफ़ी ने किशोर कुमार के लिए अपनी आवाज दी थी। मोहम्मद रफ़ी ने फ़िल्म ‘रागिनी’ तथा ‘शरारत’ में किशोर कुमार को अपनी आवाज उधार दी तो मेहनताना लिया सिर्फ एक रुपया। काम के लिए किशोर कुमार सबसे पहले एस डी बर्मन के पास गए थे, जिन्होंने पहले भी उन्हें 1950 में बनी फ़िल्म "प्यार" में गाने का मौका दिया था। एस डी बर्मन ने उन्हें फिर "बहार" फ़िल्म में एक गाना गाने का मौका दिया और  गाना बहुत हिट हुआ।

शुरू में किशोर कुमार को एस डी बर्मन और अन्य संगीतकारों ने अधिक गंभीरता से नहीं लिया और उनसे हल्के स्तर के गीत गवाए गए लेकिन किशोर कुमार ने 1957 में बनी फ़िल्म "फंटूस" में दुखी मन मेरे गीत अपनी ऐसी धाक जमाई कि जाने माने संगीतकारों को किशोर कुमार की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ा। इसके बाद एस डी बर्मन ने किशोर कुमार को अपने संगीत निर्देशन में कई गीत गाने का मौका दिया। आर डी बर्मन के संगीत निर्देशन में किशोर कुमार ने 'मुनीम जी', 'टैक्सी ड्राइवर', 'फंटूश', 'नौ दो ग्यारह', 'पेइंग गेस्ट', 'गाईड', 'ज्वेल थीफ़', 'प्रेमपुजारी', 'तेरे मेरे सपने' जैसी फ़िल्मों में अपनी जादुई आवाज से फ़िल्मी संगीत के दीवानों को अपना दीवाना बना लिया। 

किशोर कुमार ने वर्ष 1940 से वर्ष 1980 के बीच के अपने करियर के दौरान करीब 500  से अधिक गाने गाए।  हिन्दी के साथ ही किशोर कुमार ने तमिल, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी, मलयालम और उड़िया फ़िल्मों के लिए भी गीत गाए। किशोर कुमार को उनकी गायकी के लिए आठ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिले। पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार 1969 में अराधना फ़िल्म के गीत रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना के लिए दिया गया था। किशोर कुमार की विशेषता यह थी कि उन्होंने देव आनंद से लेकर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन के लिए अपनी आवाज दी और इन सभी अभिनेताओं पर उनकी आवाज ऐसी रची बसी मानो किशोर खुद उनके अंदर मौजूद हों। 1975 में आपातकाल के दौरान दिल्ली में एक सांस्कृतिक आयोजन में उन्हें गाने का न्यौता मिला। किशोर कुमार ने पारिश्रमिक मांगा तो आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनके गायन को प्रतिबंधित कर दिया गया। आपातकाल हटने के बाद पांच जनवरी 1977 को उनका पहला गाना बजा दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना।

 किशोर के गाये गाने संगीत प्रेमियों को झूमने के लिए मजबूर कर देते हैं।   किशोर कुमार ने 81 फ़िल्मों में अभिनय किया और 18 फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। फ़िल्म 'पड़ोसन' में उन्होंने जिस मस्त मौला आदमी के किरदार को निभाया वही किरदार वे जिंदगी भर अपनी असली जिंदगी में निभाते रहे। किशोर कुमार ने एक गायक के रूप में अपना करियर शुरू किया और जल्द ही भारतीय फिल्म उद्योग में सबसे लोकप्रिय गायकों में एक अलहदा पहचान बनाने में सफल हुए। उनकी मधुर आवाज़  ने उन्हें घर -घर नई  पहचान देने का काम किया। गायन  के अलावा किशोर कुमार ने  अपनी खुद की कई फिल्मों के लिए संगीत भी तैयार किया। उनकी कुछ उल्लेखनीय जीत में फिल्म “चलती का नाम गाड़ी” (1959) से “एक लड़की भीगी भागी सी”, फिल्म “आराधना” (1970) से “रूप तेरा मस्ताना” और फिल्म “सफर” (1971) से “जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर ” शामिल हैं।

किशोर कुमार को कला और संगीत के क्षेत्र  में उनके योगदान के लिए 1983 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक पद्म श्री से सम्मानित किया गया ।  यही नहीं 8 बार  फिल्मफेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया । सही मायनों में किशोर कुमार भारतीय फिल्म उद्योग में एक बेहद सफल गायक और अभिनेता थे। उनकी विशिष्ट आवाज़ और शैली ने उन्हें शिखर पर पहुंचाया। किशोर कुमार ने “हाफ टिकट”, “पड़ोसन”, “चलती का नाम गाड़ी” और “गोल माल” सहित कई लोकप्रिय फिल्मों में अभिनय और निर्देशन भी किया। अपने अभिनय और गायन कौशल के अलावा, किशोर कुमार ने अपनी खुद की कई फिल्मों के लिए संगीत भी तैयार किया और अपने काम में एक अनूठा और रचनात्मक स्पर्श लाने की क्षमता के लिए जाने जाते थे। भारतीय फिल्म उद्योग में उनके योगदान ने उन्हें एक स्थायी और प्रभावशाली व्यक्ति बना दिया है और उन्हें अभी भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे बड़ी प्रतिभाओं में से एक के रूप में याद किया जाता है।

 किशोर कुमार को खंडवा से बेपनाह प्यार था। वो मुंबई से लौटकर वापस खंडवा बसना चाहते थे लेकिन नियति को कुछ और मजबूर था। किशोर कुमार खंडवे वाला छोरा तो उस समय हिट हो गया था । 58 साल की आयु में किशोर कुमार का निधन 13 अक्टूबर 1987 को  में दिल का दौरा पड़ने से हो गया था। किशोर कुमार भारतीय फिल्म उद्योग में एक अत्यधिक सफल और प्रभावशाली व्यक्ति थे जो पार्श्व गायक के रूप में अपनी अनूठी आवाज और शैली के साथ-साथ अपने अभिनय और निर्देशन कौशल के लिए जाने जाते थे। किशोर कुमार भारतीय सिनेमा में एक सदाबहार गायक के तौर पर आज भी याद किये जाते हैं।  फिल्म उद्योग में उनके योगदान को आज भी दिल से सराहा जाता है।  


Sunday 30 July 2023

'टाइगर स्टेट ' का ताज फिर से मध्यप्रदेश के नाम

 



देश के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश में पहली बार बाघों की संख्या 785 पहुंच गई है। राष्ट्रीय स्तर पर पिछली बार की गणना में मप्र में बाघों की आबादी महज 526 थी लेकिन अखिल भारतीय बाघ गणना जनगणना 2022 के अनुसार इस बार देश के मध्यप्रदेश में  बाघों की संख्या में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है।  सबसे ज्यादा बाघों के साथ मध्य प्रदेश देश में  इस बार बहुत आगे निकल गया है।  मध्यप्रदेश में साल 2020 के बाद 259 बाघ बढ़े हैं, जबकि दूसरे और तीसरे नंबर पर कर्नाटक (563) और उत्तराखंड (560) है। जारी आंकड़ों के अनुसार देश में सबसे ज्यादा 785 बाघ मध्य प्रदेश में हैं।

अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस 29 जुलाई मध्यप्रदेश के लिये इस बार खास दिन बन गया। यह दिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाघों की जातियों की घटती संख्या, उनके अस्तित्व और संरक्षण संबंधी चुनौतियों के प्रति जन-जागृति के लिए मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष विश्व बाघ दिवस 29 जुलाई को मनाए जाने का निर्णय वर्ष 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग बाघ सम्मेलन में किया गया था। इस सम्मेलन में बाघ की आबादी वाले देशों ने वादा किया था कि बहुत जल्द वे बाघों की आबादी दोगुनी कर देंगे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मध्यप्रदेश ने बहुत  तेजी से काम किया और प्रबंधन में निरंतरता दिखाते हुए पूरे देश में वन्यजीवों के संरक्षण और संवर्धन में अपनी  महत्वपूर्ण उपस्थिति  करने में सफलता पाई है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेंगलुरु में बाघों की गणना के आंकड़े जारी किए थे। प्रधानमंत्री द्वारा जारी रिपोर्ट में देशभर में 3167 बाघ बताए गए थे, लेकिन तब राज्यवार आंकड़े जारी नहीं हुए थे। उत्तराखंड के रामनगर स्थित जिम कार्बेट नेशनल पार्क में बाघों के राज्यवार आंकड़े जारी किए गए जिसमें मध्य प्रदेश को फिर टाइगर स्टेट का ताज हासिल हुआ है। बाघों के राज्यवार आंकड़े प्रत्येक चार वर्ष में जारी किए जाते हैं। एनटीसीए द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में 3682 बाघ मौजूद हैं जिन राज्यों को टाइगर स्टेट का दर्जा मिला है, उनमें मध्य प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, महाराष्ट्र,​​तमिलनाडू टॉप-5 में शामिल हैं। इनके अलावा जिन राज्यों में बाघों की आबादी मौजूद हैं उनमें आसाम, केरला, यूपी शामिल हैं। पश्चिम बंगाल, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, ओडिशा सहित कुल 18 राज्य शामिल हैं। जबकि मिजोरम, नागालैंड में बाघों की संख्या शून्य हो गई है। नॉर्थ-वेस्ट बंगाल में यह संख्या महज 2 पर सिमट गई है।

बाघ एक शक्तिशाली जन्तु के रूप में एक खास पहचान के लिए जाना जाता है। इसकी दहाड़ अब मध्य प्रदेश के टाइगर रिजर्व के बाहर  भी  सुनाई देती है।  मध्य प्रदेश न सिर्फ बाघों की संख्या के मामले में आगे रहा है, बल्कि सर्वाधिक बाघ भी मध्यप्रदेश में ही तेजी से बढ़ रहे हैं।  राजधानी  भोपाल  के आसपास के शहरी इलाकों में  भी 20  से अधिक  बाघों की आवाजाही अब  देखी  जा सकती है। बाघों  को राजधानी भोपाल की आबोहवा इस कदर रास आ रही है आने वाले दिनों में इनकी टेरिटरी तेजी से बढ़ने की  संभावनाओं  से इंकार नहीं किया जा सकता।  वर्ष 2006  तक मध्यप्रदेश में  केवल 300 बाघ थे, तो वहीं 2022 में यह आंकड़ा 785 तक पहुंच गया।  वन्य जीवों के संरक्षण के मामले में मध्यप्रदेश की यह अब तक की सबसे बड़ी छलांग है।

  मध्यप्रदेश की बात करें तो यहां देश में सर्वाधिक छह टाइगर रिजर्व सतपुड़ा, पन्ना, पेंच, कान्हा, बांधवगढ़ और संजय दुबरी टाइगर रिजर्व हैं। पांच नेशनल पार्क और 10 सेंचुरी भी हैं। दमोह जिले के नौरादेही अभयारण्य को छठवां टाइगर रिजर्व बनाया गया है। प्रदेश का पहला टाइगर रिजर्व 1973 में कान्हा टाइगर बना। इनमें सबसे बड़ा सतपुड़ा टाइगर रिजर्व और सबसे छोटा पेंच टाइगर रिजर्व है। अभयारण्य के रूप में पचमढ़ी, पनपथा, बोरी, पेंच-मोगली, गंगऊ, संजय- दुबरी, बगदरा, सैलाना, गांधी सागर, करेरा, नौरादेही, राष्ट्रीय चम्बल, केन, नरसिहगढ़, रातापानी, सिंघोरी, सिवनी, सरदारपुर, रालामण्डल, केन घड़ियाल, सोन चिड़िया अभयारण्य घाटीगाँव, सोन घड़ियाल अभयारण्य, ओरछा और वीरांगना दुर्गावती अभयारण्य के नाम शामिल हैं। 

यह सुखद  है कि  अब प्रदेश के भीतर  बाघों  की संख्या टाइगर रिजर्व की सीमाओं के बाहर भी तेजी से  बढ़ रही  है और बाघों की हलचल शहरी इलाकों  की इंसानी आबादी के बीच भी महसूस की जा रही  है।  सतना  से लेकर सीधी , शहडोल  से अमरकंटक ,डिंडौरी के लेकर मंडला  तक  में भी बाघों का कुनबा नई चहलकदमी कर रहा है। 

मध्यप्रदेश ने टाइगर राज्य का दर्जा हासिल करने के साथ ही राष्ट्रीय उद्यानों और संरक्षित क्षेत्रों के प्रभावी प्रबंधन में भी देश में सबसे आगे है। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को यूनेस्को की विश्व धरोहर की संभावित सूची में शामिल किया गया है। भारत सरकार द्वारा जारी टाइगर रिज़र्व के प्रबंधन की प्रभावशीलता मूल्यांकन रिपोर्ट में भी  पेंच टाइगर रिजर्व ने देश में नया मुकाम हासिल किया  है। बांधवगढ़, कान्हा, संजय और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन  वाला टाइगर रिजर्व माना गया है। इन राष्ट्रीय उद्यानों में  कुशल  प्रबंधन  और अनेक नवाचारी  तौर तरीकों को अपनाया गया है।  जहाँ एक तरफ हाल के वर्षों में प्रदेश सरकार ने  ईको विकास समितियों को प्रभावी ढंग से पुनर्जीवित किया है वहीँ वाटरहोल बनाने और घास के मैदानों के रखरखाव और वन्य-जीव निवास स्थानों को रहने लायक बनाने के अनेक  कार्यक्रम समय समय पर भी  चलाये हैं जिसका जमीनी असर अब दिखाई दे रहा है। इस बार  बांधवगढ  टाइगर रिजर्व ने बाघों की आबादी बढ़ाने में पूरी  दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। यह भारत के  बाघ  संरक्षण के इतिहास में एक अनूठा उदाहरण है जिसकी  दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती । 

सतपुड़ा बाघ रिजर्व में सतपुड़ा नेशनल पार्क, पचमढ़ी और बोरी अभ्यारण्य से  कई गाँव को सफलतापूर्वक दूसरे स्थान पर बसाया गया है। यहाँ सोलर पंप और सोलर लैंप का प्रभावी उपयोग किया जा रहा है। वन्य जीव संरक्षण में अत्याधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल करने की पहल करते हुए पन्ना टाइगर रिजर्व में  “ड्रोन स्क्वाड” का संचालन किया जाता  है। इससे वन्य जीवों की खोज, उनके बचाव, जंगल की आग का स्त्रोत पता लगाने और उसके प्रभाव की तत्काल जानकारी जुटाने, संभावित मानव-पशु संघर्ष के खतरे को टालने और वन्य जीव संरक्षण संबंधी कानूनों का पालन करने में मदद मिल रही है।

प्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ाने में  प्रदेश के  सभी  राष्ट्रीय  उद्यानों  के कुशल  प्रबंधन की मुख्य भूमिका है। जहाँ एक तरफ राज्य सरकार ने भी हाल के वर्षों में  गाँवों का विस्थापन कर एक बड़े भू-भाग को जैविक दबाव से मुक्त कराया  है वहीँ  संरक्षित क्षेत्रों से गाँवों के विस्थापन के फलस्वरूप वन्य-प्राणियों के  क्षेत्र का  बड़ा विस्तार हुआ है। आज ये बड़े हर्ष की बात है  कान्हा, पेंच और कूनो पालपुर के कोर क्षेत्र से सभी गाँव को विस्थापित किया जा चुका है। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व का बड़ा क्षेत्र भी आज जैविक दबाव से मुक्त हो चुका है। विस्थापन के बाद घास विशेषज्ञों की मदद लेकर स्थानीय प्रजातियों के घास के मैदान विकसित किये गए हैं, जिससे वन्य-प्राणियों  को नए- नए  आशियाने  मिल रहे हैं।  पूरे देश में मध्यप्रदेश के टाइगर रिजर्व  सबसे बेहतर श्रेणियों में शामिल  हैं। वर्ष 2022 की मूल्यांकन रिपोर्ट  कोआधार बनाएं तो  मध्यप्रदेश के दो टाइगर रिजर्व कान्हा और सतपुड़ा उत्कृष्ट श्रेणी एवं  पेंच, बांधवगढ़, पन्ना टाइगर रिजर्व को बहुत अच्छी श्रेणी और संजय टाइगर रिजर्व को अच्छी श्रेणी में रखा गया है। 

मध्यप्रदेश के विश्व धरोहर स्थल खजुराहो में इस वर्ष फरवरी माह में जी-20 शिखर सम्मेलन में आए 20 देश के डेलीगेट्स ने पन्ना टाइगर रिजर्व में भ्रमण कर यहाँ बाघ संरक्षण के प्रयासों और प्रबंधन की सराहना की। विदेशी धरती से आये  इन डेलीगेट्स के बीच मध्यप्रदेश को सराहना मिलने से ह्रदय प्रदेश का कद ऊँचा हुआ है।   

जनता से सीधा जुड़ाव रखने वाले मुख्यमंत्री  शिवराज सिंह चौहान के कुशल नेतृत्व , संवेदनशील पहल के परिणामस्वरूप आज मध्यप्रदेश में वन्य जीवों के आशियाने तेजी से बढ़ रहे हैं। प्रदेश में वन्य जीवों के संरक्षण और संवर्धन के लिए हर स्तर पर निरंतर प्रयास  किये जा रहे हैं। विश्व वन्य-प्राणी निधि एवं ग्लोबल टाईगर फोरम द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार विश्व में आधे से ज्यादा बाघ भारत में हैं । ख़ास बात ये है कि  मध्यप्रदेश के कॉरिडोर से ही उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के बाघ रिजर्व आपस में जुड़े हुए हैं।  प्रदेश में हाल के दिनों में 15  ऐसे वन क्षेत्रों में बाघों की सघन उपस्थिति देखी गई , जहाँ पहले कभी बाघ नहीं दिखे। इस लिहाज से देखें तो कहा जा सकता है देश का हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश आज देश में बाघों के अस्तित्व के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। 

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विश्व बाघ दिवस पर फिर से  टाइगर स्टेट बनने को लेकर  कहा कि मध्यप्रदेश के 'टाइगर स्टेट' होने पर  उन्हें गर्व है।  बाघों के संरक्षण को बढ़ावा देने के साथ ही उनके प्राकृतिक आवासों की रक्षा के लिये हम और श्रेष्ठतम कार्य करें, ताकि टाइगर स्टेट का गौरव आगे भी हमारे पास रहे।  मुख्यमंत्री  शिवराज सिंह चौहान ने  प्रदेश की जनता को वन एवं वन्यप्राणियों के संरक्षण में उनके सहयोग के लिए हृदय से धन्यवाद दिया  है।  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  के प्रयासों से मध्यप्रदेश आज न केवल टाइगर स्टेट बना है बल्कि तेंदुआ , घड़ियाल और गिद्धों की संख्या में भी अव्वल प्रदेश बन चुका  है।  मध्यप्रदेश को प्रकृति ने  हरित प्रदेश के रूप में मुक्त हस्त से संवारा है। मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने  वन्य प्राणी संरक्षण की दिशा में  अनेक  पहल करते हुए इसे समृद्ध प्रदेश बनाने में  कोई कसर नहीं छोड़ी है जिसके  नतीजे आज टाइगर स्टेट के रूप में सबके सामने हैं।