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Saturday, 27 March 2021
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Saturday, 13 February 2021
प्रेम दिवस का बाजार
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पिछले कुछ समय से ग्लोबलाइज्ड समाज में प्यार भी ग्लोबल ट्रेंड का हो गया है । आज जहाँ इजहार और इकरार करने के तौर तरीके बदल गए हैं वहीँ इंटरनेट के इस दौर में प्यार भी बाजारू हो चला है । पहली बार शहरी चकाचौंध से इतर प्यार का यह उत्सव एक बड़ा बाजार को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। हर जगह वैलेंटाइन की संस्कृति पसरती जा रही है । आज युवा भी इसकी गिरफ्त में पूरी तरह से नजर आते है तभी तो शहरों से लेकर कस्बो तक वैलेंटाइन का जलवा देखते ही बनता है। आलम यह है ये बड़ा उत्सव बन चुका है जो भारतीयों में तेजी से अपनी पकड़ बना रहा है।
वैलेंटाइन के चकाचौंध पर अगर दृष्टि डाले तो इस सम्बन्ध में कई किस्से प्रचलित हैं । रोमन कैथोलिक चर्च की माने तो यह "वैलेंटाइन "अथवा "वलेंतिनस" नाम के तीन लोगों को मान्यता देता है जिसमें से दो के सम्बन्ध वैलेंटाइन डे से जोड़े जाते है लेकिन बताया जाता है इन दो में से भी संत " वैलेंटाइन " खास चर्चा में रहे । कहा जाता है संत वैलेंटाइन प्राचीन रोम में एक धर्म गुरू थे। उन दिनों वहाँ पर क्लाउडियस दो का शासन था। उसका मानना था अविवाहित युवक बेहतर सैनिक हो सकते है क्युकि युद्ध के मैदान में उन्हें अपनी पत्नी या बच्चों की चिंता नही सताती । अपनी इस मान्यता के कारण उसने तत्कालीन रोम में युवको के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया।
किन्दवंतियो की मानें तो संत वैलेंटाइन के क्लाउडियस के इस फेसले का विरोध करने का फैसला किया। बताया जाता है वैलेंटाइन ने इस दौरान कई युवक युवतियों का प्रेम विवाह करा दिया । यह बात जब राजा को पता चली तो उसने संत वैलेंटाइन को 14 फरवरी को फासी की सजा दे दी । कहा जाता है संत के इस त्याग के कारण हर साल 14 फरवरी को उनकी याद में युवा "वैलेंटाइन डे" मनाते है । 1260 में संकलित की गई 'ऑरिया ऑफ जैकोबस डी वॉराजिन' नामक पुस्तक में भी सेंट वेलेंटाइन का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस के अनुसार विवाह करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है। उसने फरमान जारी किया कि उसका कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया। उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों और अधिकारियों ने विवाह किए।
कैथोलिक चर्च की एक अन्य मान्यता के अनुसार एक दूसरे संत वैलेंटाइन की मौत प्राचीन रोम में ईसाईयों पर हो रहे अत्याचारों से उन्हें बचाने के दरमियान हो गई । यहाँ इस पर नई मान्यता यह है ईसाईयों के प्रेम का प्रतीक माने जाने वाले इस संत की याद में ही वैलेंटाइन डे मनाया जाता है । एक अन्य किंदवंती के अनुसार वैलेंटाइन नाम के एक शख्स ने अपनी मौत से पहले अपनी प्रेमिका को पहला वैलेंटाइन संदेश भेजा जो एक प्रेम पत्र था । उसकी प्रेमिका उसी जेल के जेलर की पुत्री थी जहाँ उसको बंद किया गया था। उस वेलेंन टाइन नाम के शख्स ने प्रेम पत्र लिखा " फ्रॉम यूअर वेलेंनटाइन "। आज भी यह वैलेंटाइन पर लिखे जाने वाले हर पत्र के नीचे लिखा रहता है। क्लॉडियस ने 14 फरवरी को संत वेलेंटाइन को फांसी पर चढ़वा दिया। तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस मनाया जाता है। कहा जाता है कि सेंट वेलेंटाइन ने अपनी मृत्यु के समय जेलर की नेत्रहीन बेटी जैकोबस को नेत्रदान किया व जेकोबस को एक पत्र लिखा, जिसमें अंत में उन्होंने लिखा था 'तुम्हारा वेलेंटाइन'। 14 फरवरी के बहाने जिसे बाद में इस संत के नाम पूरे विश्व में निःस्वार्थ प्रेम से मनाया जाने लगा ।
यही नही वैलेंटाइन के बारे में कुछ अन्य बातें भी है । इसके अनुसार तर्क यह दिए जाते है प्राचीन रोम के प्रसिद्ध पर्व "ल्युपरकेलिया " के ईसाईकरण की याद में मनाया जाता है । यह पर्व रोमन साम्राज्य के संस्थापक रोम्योलुयास और रीमस की याद में मनाया जाता है । इस आयोजन पर रोमन धर्मगुरु उस गुफा में एकत्रित होते थे जहाँ एक मादा भेडिये ने रोम्योलुयास और रीमस को पाला था इस भेडिये को ल्युपा कहते थे और इसी के नाम पर उस त्यौहार का नाम ल्युपर केलिया पड़ गया । इस अवसर पर वहां बड़ा आयोजन होता था । लोग अपने घरो की सफाई करते थे साथ ही अच्छी फसल की कामना के लिए बकरी की बलि देते थे । कहा जाता है प्राचीन समय में यह परम्परा खासी लोक प्रिय हो गई।
एक अन्य किंदवंती यह कहती है 14 फरवरी को फ्रांस में चिडियों के प्रजनन की शुरूवात मानी जाती थी जिस कारण खुशी में यह त्यौहार वहा प्रेम पर्व के रूप में मनाया जाने लगा । प्रेम के तार रोम से भी सीधे जुड़े नजर आते हैं । वहाँ पर क्यूपिड को प्रेम की देवी के रूप में पूजा जाने लगा जबकि यूनान में इसको इरोश के नाम से जाना जाता था। प्राचीन वैलेंटाइन संदेश के बारे में भी लोगो में एकरूपता नजर नही आती । कुछ ने माना है यह इंग्लैंड के राजा ड्यूक ने लिखा जो आज भी वहां के म्यूजियम में रखा हुआ है।
आज युवाओं में वैलेंटाइन की खुमारी सर चढ़कर बोल रही है। इस दिन के लिए सभी पलके बिछाये बैठे रहते हैं । भईया प्रेम का इजहार जो करना है ? वैलेन्टाइन प्रेमी इसको प्यार का इजहार करने का दिन बताते है । यूँ तो प्यार करना कोई गुनाह नही है लेकिन जब प्यार किया ही है तो इजहार करने मे देर नही होनी चाहिए लेकिन अभी का समय ऐसा है जहाँ युवक युवतिया प्यार की सही परिभाषा नही जान पाये है । वह इस बात को नही समझ पा रहे है प्यार को आप एक दिन के लिए नही बाध सकते ।वह तो प्यार को हंसी मजाक का खेल समझ रहे हैं। आज का प्यार मैगी के नूडल जैसा बाजारू बन गया है जो दो मिनट चलता है । सच्चे प्रेमी के लिए तो पूरा साल प्रेम का प्रतीक बना रहता है लेकिन आज के बाजार ने प्यार की परिभाषा बदल दी है । इसका प्रभाव यह है 1 4 फरवरी को प्रेम दिवस का रूप दे दिया गया है जिसके चलते संसार भर के कपल प्यार का इजहार करने को उत्सुक रहते हैं । जहां चीन में यह दिन 'नाइट्स ऑफ सेवेन्स' प्यार करने वालों के लिए खास होता है, वहीं जापान व कोरिया में इस पर्व को 'वाइट डे' का नाम से जाना जाता है। इतना ही नहीं, इन देशों में इस दिन से पूरे एक महीने तक लोग अपने प्यार का इजहार करते हैं ।
आज 14 फरवरी का कितना महत्त्व बढ गया है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है इस अवसर पर बाजारों में खासी रौनक छा जाती है। गिफ्ट सेंटर में उमड़ने वाला सैलाब , चहल पहल इस बात को बताने के लिए काफी है यह किस प्रकार आम आदमी के दिलो में एक बड़े पर्व की भांति अपनी पहचान बनने में कामयाब हुआ है । इस अवसर पर प्रेमी होटलों , रेस्तारा में देखे जा सकते हैं ।
यूं तो हमारी संस्कृति में प्रेम को परमात्मा का दूसरा रूप बताया गया है अतः प्रेम करना गुनाह और प्रेम का विरोधी होना सही नही होगा लेकिन वैलेंटाइन के नाम पर जिस तरह का पश्चिमीपरस्त विस्तार हो रहा है वह सही नहीं है । वैसे भी यह प्रेम की स्टाइल भारतीय जीवन मूल्यों से किसी तरह मेल नही खाती । आज का वैलेंटाइन डे भारतीय काव्य शास्र में बताये गए मदनोत्सव का पश्चिमी संस्करण प्रतीत होता है लेकिन बड़ा सवाल जेहन में हमारे यह आ रहा है क्या आप प्रेम जैसे चीज को एक दिन के लिए बाध सकते है? शायद नहीं। एक समय ऐसा था जब राधा कृष्ण , मीरा वाला प्रेम हुआ करता था जो आज के वैलेंटाइन प्रेमियों का जैसा नहीं होता था । आज लोग प्यार के चक्कर में बर्बाद हो रहे है। हीर रांझा, लैला मजनू रोमियो जूलियट के प्रसंगों का हवाला देने वाले हमारे आज के प्रेमी यह भूल जाते है मीरा वाला प्रेम सच्ची आत्मा से सम्बन्ध रखता था । आज तो प्यार बाहरी आकर्षण की चीज बनती जा रही है । प्यार को गिफ्ट और पॉकेट में तोला जाने लगा है । वैलेंटाइन के प्रेम में फसने वाले कुछ युवा सफल तो कुछ असफल साबित होते है । जो असफल हो गए तो समझ लो बरबाद हो गए क्युकि यह प्रेम रुपी "बग" बड़ा खतरनाक है । एक बार अगर इसकी जकड में आप आ गए तो यह फिर भविष्य में भी पीछा नही छोडेगा । असफल लोगो के तबाह होने के कारण यह वैलेंटाइन डे घातक बन जाता है।
वैलेंटाइन के नाम पर आज हमारे समाज में जिस तरह की उद्दंडता हो रही है वह चिंतनीय ही है । संपन्न तबके साथ आज का मध्यम वर्ग और अब निम्न तबका भी इसके मकड़ जाल में फसकर अपना पैसा और समय दोनों ख़राब करते जा रहे है । आज वैलेंटाइन की स्टाइल बदल गई है । गुलाब गिफ्ट दिए ,पार्टी में थिरके बिना काम नही चलता । यह मनाने के लिए आपकी जेब गर्म होनी चाहिए । यह भी कोई बात हुई क्या जहाँ प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए जेब की बोली लगानी पड़ती हो ?
आज के समय में वैलेंटाइन प्रेमियों की तादात बढ रही है। साल दर साल। इस बार भी प्रेम का सेंसेक्स पहले से ही कुलाचे मार रहा है । वैलेंटाइन ने एक बड़े उत्सव का रूप ले लिया है। मॉल , गिफ्ट, आर्चीस , डिस्को थेक, मैक डोनल्स पार्टी का आज इससे चोली दामन का साथ बन गया है । अगर आप में यह सब कर सकने की सामर्थ्य नही है तो आपका प्रेमी नाराज । बस फिर प्रेम का द एंड समझे । प्यार का स्टाइल समय बदलने के साथ बदल रहा है। वैलेंटाइन प्रेमी भी हर साल बदलते ही जा रहे है। आज प्यार की परिभाषा बदल गई है। वैलेंटाइन का चस्का हमारे युवाओ में तो सर चढ़कर बोल रहा है लेकिन उनका प्रेम आज आत्मिक नही होकर छणिक बन गया है। उनका प्यार पैसों में तोला जाने लगा है। आज की युवा पीड़ी को न तो प्रेम की गहराई का अहसास है न ही वह सच्चे प्रेम को परिभाषित कर सकती है । उनके लिए प्यार मौज मस्ती और सैर सपाटे का खेल बन गया है जहाँ बाजार में प्यार नीलाम हो गया है और पूरे विश्व में इस दिन प्यार के नाम पर मुनाफे का बड़ा कारोबार किया जा रहा है ।
Wednesday, 2 December 2020
अहमद पटेल होने के मायने
“मेरे लिए यकीन कर पाना मुश्किल है कि अहमद पटेल नहीं रहे। चार दशकों तक वह गुजरात और राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अभिन्न हिस्सा थे। राजनीति में उनका प्रवेश इंदिरा गांधी की प्रेरणा से हुआ और राजीव गांधी ने उन्हें बड़ी भूमिका सौंपी। मैं खुद जबसे कांग्रेस अध्यक्ष बनी, एक भरोसेमंद साथी के तौर पर वह हमेशा मेरे साथ खड़े रहे। वह ऐसे इंसान थे जिनसे मैं कभी भी सलाह ले सकती थी। किसी भी स्थिति में उन पर भरोसा कर सकती थी। वह हमेशा पार्टी के हित की बात करते। उन्हें समस्याओं को हल करने वाला, संकटमोचक कहा जाता था। वह वास्तव में ऐसे ही थे बल्कि इससे भी कहीं अधिक अहम। वह आत्मविश्वास से भरी शख्सियत थे और उनकी सलाह हमारे लिए नीति -निर्देशक की तरह होती थीं। इन्हीं कारणों से उनका असमय जाना हमारे लिए अपार दुख का विषय है। मैं उन्हें "अहमद" कहकर पुकारती थी। बड़े दयालु इंसान थे। दबाव के क्षणों में भी एकदम शांत चित्त और संयत रहते। कांग्रेस अध्यक्ष और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की चेयरपर्सन के तौर पर मेरी भूमिकाओं में वह मेरी ताकत बने रहे। किसी भी जरूरी समय पर उन तक पहुंच पाने का भरोसा न केवल आम कांग्रेस कार्यकर्ताओं बल्कि दूसरी पार्टी के नेताओं को भी था। उनकी दोस्ती और प्रभाव का दायरा बेहद व्यापक था और मैं निजी तौर पर जानती हूं कि कैसे दूसरे दलों के नेता उन पर यकीन करते थे, उनके साथ रिश्तों क कितनी अहमियत देते थे। अहमद बुनियादी तौर पर एक सांगठनिक व्यक्ति थे। कांग्रेस के सत्ता में रहने के दौरान भी उनकी रुचि संगठन में ही रही। सरकारी दफ्तर, पद-ओहदा, प्रचार में उनकी कोई रुचि नहीं थी और न ही उन्होंनें सार्वजनिक पहचान या प्रशंसा की कभी अपेक्षा की। लोगों की नजरों, सुर्खियों से दूर चुपचाप लेकिन बड़ी कुशलता के साथ अपना काम करते रहते। शायद काम करने के उनके तरीके ने उनकी अहमियत और उनके प्रभाव को और बढ़ा दिया था। राजनीति से जुड़े लोग आमतौर पर चाहते हैं कि लोग उन्हें देखें, सुनें। लेकिन अहमद उन चंद विरले लोगों में थे जो पृष्ठभूमि में रहते हुए किसी और को श्रेय लेते देखना पसंद करते। बड़े आस्थावान और पूरी तरह राजनीतिक गतिविधियों में रहने के बाद भी विशुद्ध रूप से एक पारिवारिक व्यक्ति थे। फिर भी पार्टी और उसके हितों के लिए पूरी तरह समर्पित। अपनी पहुंच का कभी कोई फायदा नहीं उठाया।
संवैधानिक मूल्यों और देश की धर्मनिरपेक्ष विरासत में उनका अटूट विश्वास था। अहमद हमें छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन उनकी यादें हमारे साथ हैं। जब भी कांग्रेस का 1980 से बाद का इतिहास लिखा जाएगा, उनका नाम ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जो पार्टी की तमाम उपलब्धियों के केंद्र में रहा। हममें से हर को कभी न कभी जाना है लेकिन समय ने अहमद को बड़ी क्रूरता के साथ ऐसे समय छीन लिया जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।कांग्रेस को उनकी जरूरत थी। भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन को उनकी जरूरत थी। हमें उनकी जरूरत थी।”
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अहमद पटेल को दी गयी भावुक श्रद्धांजलि स्पष्ट रूप से पार्टी में उनके महत्व को भी दर्शाती है। पटेल की एक अनोखी क्षमता थी कि वह पार्टी नेताओं के बीच सामंजस्य और एकता बनाए रखने में सक्षम थे। निजी हितों के बजाय पटेल पार्टी हित को सबसे ऊपर रखते थे शायद यही वजह रही इस दौर में पार्टी का हर छोटा कार्यकर्ता सीधे उनसे ही मिला करता था । एक तरह से वह कॉंग्रेस पार्टी के सबसे बड़े संकटमोचक थे।
संसदीय राजनीती के मायने भले ही इस दौर में बदल गए हो और उसमे सत्ता का केन्द्रीयकरण देखकर अब उसे विकेंद्रीकृत किये जाने की बात की जा रही हो लेकिन देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस में परिवारवाद साथ ही सत्ता के केन्द्रीकरण का दौर नहीं थमा है। दरअसल आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस में सत्ता का मतलब एक परिवार के बीच सत्ता का केन्द्रीकरण रहा है फिर चाहे वो दौर पंडित जवाहरलाल नेहरु का हो या इंदिरा गाँधी या फिर राजीव गाँधी , सोनिया गांधी का । राजीव गाँधी के दौर के खत्म होने के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब कांग्रेस पार्टी की सत्ता लडखडाती नजर आई। उस समय पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान सीता राम केसरी के हाथो में थी। यही वह दौर था जिस समय कांग्रेस पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजरी। यही वह दौर था जब भाजपा ने पहली बार गठबंधन सरकार का युग शुरू किया और अपने बूते केन्द्र की सत्ता पायी थी। इस दौर में किसी ने शायद कल्पना नही की थी कि एक दिन फिर यही कांग्रेस पार्टी भाजपा को सत्ता से बेदखल कर केन्द्र में सरकार बना पाने में सफल हो जाएगी। यही नही वामपंथियों की बैसाखियों के आसरे अपने पहले कार्यकाल में टिकी रहने वाली कांग्रेस अन्य पार्टियों से जोड़ तोड़ कर सत्ता पर काबिज हो जाएगी और "मनमोहन" शतरंज की बिसात पर सभी को पछाड़कर दुबारा "किंग" बन जायेंगे ऐसी कल्पना भी शायद किसी ने नही की होगी । दरअसल उस समूचे दौर में कांग्रेस पार्टी की परिभाषा के मायने बदल चुके थे ।उसमे परिवारवाद की थोड़ी महक तो देखी गई ही साथ ही कही ना कहीं भरोसेमंद "ट्रबल शूटरो" का भी समन्वय भी देखा गया जिसमें अहमद पटेल एक महत्वपूर्ण कड़ी हुआ करते थे । वह सीनियर और जूनियर नेताओं के बीच की दीवार थे जिसे भेद पानया किसी के लिए आसान नहीं था ।
अहमद पटेल परदे के पीछे से काँग्रेस में बिसात बिछाया करते थे । अहमद के भरोसे काँग्रेस ने यू पी ऐ 1 से यू पी ए 2 की छलांग लगाई । सही मायनों में अगर कहा जाए तो सोनिया गाँधी ने जब से हिचकोले खाती कांग्रेस की नैय्या पार लगाने की कमान खुद संभाली तब से कांग्रेस की सत्ता का संचालन 10 जनपथ से हो रहा है । यहाँ पर सोनिया के सबसे भरोसेमंद पटेल कांग्रेस की कमान को ना केवल संभाले हुए थे जिनके आगे पूरी काँग्रेस नतमस्तक हुआ करती थी । इस दौर में भी कांग्रेस की सियासत 10 जनपथ से तय हो रही थी जहां पर अहमद भाई जैसे कांग्रेस के सिपहसलार समूची व्यवस्था को इस तरह संभाल रहे थे कि उनके हर निर्णय पर सोनिया की छाप जरुरी बन जाती थी । सही मायनों में अगर कहा जाए तो 10 जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय अहमद पटेल के जिम्मे थी जिनके निर्देशों पर इस समय पूरी पार्टी चल रही थी । "अहमद भाई" के नाम से मशहूर इस शख्स के हर निर्णय के पीछे सोनिया गाँधी की सहमती रहती थी। सोनिया के "फ्री हैण्ड " मिलने के चलते कम से कम कांग्रेस में तो कोई भी अहमद पटेल को नजरअंदाज नही कर सकता था ।
कांग्रेस में अहमद पटेल की हैसियत इसी से समझी जा सकती थी ,बिना उनकी हरी झंडी के कांग्रेस में पत्ता तक नही हिला करता था। कांग्रेस में "अहमद भाई" की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के किसी भी छोटे या बड़े नेता या कार्यकर्ता को सोनिया से मिलने के लिए सीधे अहमद पटेल से अनुमति लेनी पड़ती थी । अहमद की इसी रसूख के आगे पार्टी के कई कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस करते थे लेकिन सोनिया मैडम के आगे कोई भी अपनी जुबान खोलने को तैयार नही होता था । उसी अपनी फरियाद सुनाने के लिए अहमद पटेल का सहारा लेना पड़ता था । मनमोहन सरकार मे शामिल एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने एक बार मुझे बताया था कि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्री अहमद पटेल से अनुमति लेकर सोनिया से मिलते हैं ।
अहमद भाई को समझने के लिए हमें 70 के दशक की ओर रुख करना होगा। यही वह दौर था जब अहमद गुजरात की गलियों में अपनी पहचान बना रहे थे। उस दौर में अहमद पटेल "बाबू भाई" के नाम से जाने जाते थे और 1977 से 1982 तक उन्होंने गुजरात यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली । 77 के ही दौर में वो भरूच कोपरेटिव बैंक के निदेशक भी रहे। इसी समय उनकी निकटता राजीव के पिता फिरोज गाँधी से भी बढ़ गई क्युकि राजीव के पिता फिरोज का सम्बन्ध अहमद पटेल के गृह नगर से पुराना था। इसी भरूच से अहमद पटेल तीन बार लोक सभा भी पहुंचे । 1984 में अहमद पटेल ने कांग्रेस में बड़ी पारी खेली और वह "जोइंट सेकेटरी" तक पहुँच गए लेकिन पार्टी ने उस दौर में उन्हें सीधे राजीव गाँधी का संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया था और उस दौर में इनकी खूब चलने लगी । इसके बाद कांग्रेस का गुजरात में जनाधार बढाने के लिए पटेल को 1986 में गुजरात भी भेजा गया । गुजरात में पटेल को करीब से जाने वाले बताते है पूत के पाँव पालने में ही दिखायी देते हैं शायद तभी अहमद पटेल ने राजनीती में बचपन से ही पैर जमा लिए थे। पटेल के टीचर ऍम एच सैयद ने उन्हें 8 वी क्लास का मोनिटर बना दिया था। यही नहीं जोड़ तोड़ की कला में पटेल कितने माहिर थे इसकी मिसाल उनके टीचर यह कहते हुए देते है कि अहमद पटेल ने उस दौर में उनको उस विद्यालय का प्रिंसिपल बना दिया था।शायद बहुत कम लोगों को ये मालूम है कि गुजरात के पीरामन में अहमद पटेल का जीवन क्रिकेट खेलने में भी बीता था उस दौर में पीरामन की क्रिकेट टीम की कमान खुद वो सँभालते थे । टीम में उनकी गिनती एक अच्छे आल राउंडर के तौर पर होती थी। अहमद पटेल की इन्हीं विशेषताओं के कारण शायद उन्हें उस पार्टी में एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई जो देश की सबसे बड़ी और आजादी के आंदोलन की पार्टी है जहां अहमद पटेल सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार थे ।अहमद पटेल के संबंध सभी पार्टियों के साथ बेहद आत्मीय थे । उनके कौशल और रणनीति का का लोहा आज उनके विपक्षी भी मानते थे ।यकीन जान लें काँग्रेस पार्टी को बुरे दौर से उबारकर सत्ता में लाने में अहमद पटेल की भूमिका को किसी तरह से नजर अंदाज नही किया जा सकता । हाँ ये अलग बात है भरूच में कांग्रेस लगातार लोक सभा चुनाव हारती जा रही है और वर्तमान में ढलान पर है लेकिन फिर भी हर छोटे बड़े चुनाव में टिकटों कर बटवारा काँग्रेस में अहमद पटेल की सहमति से होता आया जो यह बतलाने के लिए काफी है कि पार्टी में उनका सिक्का कितनी मजबूती के साथ जमा हुआ था । राहुल गांधी की नापसंद के बावजूद वह सोनिया के अहम सलाहकार यूं ही नहीं थे ।
अहमद पटेल की ताकत की एक मिसाल 2004 में देखने को मिली जब पहली बार कांग्रेस यू पी ए 1 में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी । इस कार्यकाल में सोनिया के "यसबॉस " मनमोहन बने ओर वह अपनी पसंद के मंत्री को विदेश मंत्रालय सौपना चाहते थे लेकिन दस जनपद गाँधी पीड़ी के तीसरे सेवक नटवर सिंह को यह जिम्मा देना चाहता था लेकिन मनमोहन नटवर को भाव देने के कतई मूड में नही थे। हुआ भी यूं ही। जहाँ इस नियुक्ति में मनमोहन सिंह की एक ना चली वही नटवर के हाथ विदेश मंत्रालय आ गया ।मनमोहन का झुकाव शुरू से उस समय अमेरिका की ओर कुछ ज्यादा ही था लेकिन अपने कुंवर साहब ईरान और ईराक के पक्षधर दिखाई दिए। कुंवर साहब अमेरिका की चरण वंदना पसंद नही करते थे और परमाणु करार करने के बजाए ईरान के साथ अफगानिस्तान , पाकिस्तान के रास्ते भारत गैस पाइप लाइन लाना चाहते थे । इस योजना में कुंवर साहब को गाँधी परिवार के पुराने सिपाही मणिशंकर अय्यर का समर्थन था ।वही मणिशंकर जो आज कांग्रेस पार्टी को सर्कस कहने और उसके कार्यकर्ताओ को जोकर कहने से परहेज नही किया करते ।
कुंवर , मणिशंकर मनमोहन को 10 जनपथ का दास मानते थे लेकिन समय ने करवट ली और "वोल्कर" के चलते नटवर ना केवल विदेश मंत्री का पद गवा बैठे बल्कि पार्टी से भी बड़े बेआबरू होकर निकल गए लेकिन इसके बाद भी मनमोहन अपनी पसंद के आदमी को विदेश मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन 10 जनपथ के आगे उनकी एक ना चली और प्रणव मुखर्जी को विदेश मंत्री की जिम्मेदारी मिली ।प्रणव की नियुक्ति से परमाणु करार तो संपन्न हो गया लेकिन देश की विदेश नीति वैसे नही चल पाई जैसा मनमोहन चाहते थे लेकिन 2009 में जब अपने दम पर मनमोहन ने अपने को "मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया तो दस जनपद के आगे उनकी चलने लगी। इसी के चलते मनमोहन ने अपनी दूसरी पारी में एस ऍम कृष्णा, शशि थरूर , कपिल सिब्बल को अपने हिसाब से कैबिनेट मंत्री की कमान सौपी। आई पी एल विवाद थरूर के फँसने के बाद जब 10 जनपथ ने उनसे इस्तीफ़ा माँगा तब अकेले मनमोहन उनका बीच बचाव करते नजर आये। उस दौर में 10 जनपथ की तरफ से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन को जबरदस्त घुड़की पिलाई गई थी । तब 10 जनपथ की ओर से मनमोहन को साफ़ संदेश देते हुए कहा गया था आपको ओर आपके मंत्रियो को 10 जनपथ के दायरे में रखकर काम करना होगा । यही नहीं अहमद पटेल ने तो उस समय शशि थरूर को लताड़ते हुए यहाँ तक कह डाला था वे यह ना भूले वह किसकी कृपा से यू पी ए सरकार में मंत्री बने हैं।
दरअसल यह पूरा वाकया दस जनपथ में अहमद पटेल की ताकत का अहसास कराने के लिए काफी है। दस जनपथ शुरुवात से नहीं चाहता था कि मनमोहन को हर निर्णय लेने के लिए "फ्री हेंड" दिया जाए। अगर ऐसा हो गया तो मनमोहन अपनी कोर्पोरेट की बिसात पर सरकार चलाएंगे यह दर सभी को सताने लगा । गाहे बगाहे कहा जाने लगा ऐसी सूरत में आने वाले दिनों में कांग्रेस पार्टी के भावी "युवराज " के सर सेहरा बाधने में दिक्कतें पेश आ सकती थी इसलिए कांग्रेस के सामने वो दौर ऐसा था जब उसके हर मंत्री की स्वामीभक्ति मनमोहन के बजाए 10 जनपथ में सोनिया के सबसे विश्वासपात्र अहमद पटेल पर आ टिकी थी ।एक दौर ऐसा भी था जब अहमद पटेल की पार्टी में उतनी पूछ परख नही थी लेकिन जोड़ तोड़ की कला में बचपन से माहिर रहे अहमद पटेल ने समय बीतने के साथ गाँधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा बढ़ा ली और सोनिया के करीबियों में शामिल हो गए।राजनीतिक प्रेक्षक बताते है कि पार्टी में अहमद पटेल के इस दखल को पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता पसंद तक नही करते थे लेकिन सोनिया के आगे इस पर कोई अपनी चुप्पी नही तोड़ता था ।
कुल मिलाकर कांग्रेस में अहमद पटेल होने के मायने गंभीर थे । राज्य सरकारों में किसको मंत्री बनाना है ? किस नेता को अपने पाले में लाना है ? जोड़ तोड़ कैसे होगा ? यह सब अहमद पटेल की आज सबसे बड़ी ताकत बन गई थी । अहमद की इसी काबिलियत के आगे जहाँ कांग्रेस हाईकमान नतमस्तक होता था वही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन अपने मन की बेबसी के गीत गाते नजर आते थे । मनमोहन के अंतिम मंत्रिमंडल विस्तार मे भी चली तो सिर्फ दस जनपथ की जहां अहमद पटेल के निर्देशों पर शीशराम ओला को न केवल मंत्रिमंडल मे लिया गया बल्कि गिरजा व्यास को राजस्थान मे गहलोत की काट के तौर पर आगे किया गया । यू पी ए के इस विस्तार मे राहुल की यंग ब्रिगेड से कोई चेहरा सामने नहीं आया । चली तो सिर्फ और सिर्फ अहमद पटेल की जिसमें दस जनपथ के हर निर्णय में वह आगे रहे और अपने मनमुताबिक फैसले लेते रहे । यही नहीं पूर्व में यू पी ए दो के मंत्रियो अश्विनी कुमार और पवन बंसल के इस्तीफे मे भी अहमद पटेल ने ही दस जनपद में अहम रोल निभाया था । मनमोहन तो शुरू से दोनों के बीच बचाव मे सामने आए थे लेकिन दस जनपथ में अहमद का का भरोसा ये दोनों मंत्री नहीं जीत पाये जिसके चलते उनकी कुर्सी कुर्बान हो गयी । यहाँ भी अहमद पटेल का सिक्का चला जब वह दोनों मंत्रियो से मिले और इस्तीफे पर अड़ गए तब कहीं जाकर दोनों की कुर्सी छिनी ।
दस जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय भी अहमद पटेल के जिम्मे थी लेकिन पिछली बार अहमद पटेल गुजरात में बुरी तरह से घिर गए। राजनीती के चाणक्य अमित शाह की राज्य सभा की बिसात में अहमद पटेल जिस तरह उलझे उसने कई सवालों को पहली बार खड़ा किया । गुजरात में कांग्रेस के कुल छह विधायक इस्तीफ़ा दे चुके थे तो शंकर सिंह वाघेला चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस को गुड़ बाय कर जिस अंदाज में हर दिन अपने रंग दिखा रहे थे। कांग्रेस ने अपने विधायकों को बेशक कर्नाटक भेज दिया लेकिन कई विधायको की निष्ठा जिस तरह वाघेला के साथ थी उससे इस बात के आसार लग रहे थे कि राज्य सभा चुनाव में अगर क्रॉस वोटिंग हुई तो पटेल की हार तय हो जाएगी । अहमद पटेल सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार थे इसलिए उस दौर में कहा भी जाने लगा गुजरात में हार का सीधा मतलब दस जनपद में पटेल के रुतबे का काम हो जाना होगा और यह हार सोनिया तक को परेशान कर सकती है । अहमद पटेल के लिए अगर क्रॉस वोटिंग हो जाती तो उनकी राज्यसभा में इंट्री बंद हो जाती जिसका सीधा मतलब दस जनपद की हार होगी और कांग्रेस मुक्त भारत की दिशा में अब यह सीधी चोट होगी । नोटा का विकल्प उस चुनाव में बने रहने से पार्टी को अपने विधायकों से धोखा मिलने की आशंका सता रही थी । कांग्रेस अपना वोट सुरक्षित रखने के लिए पार्टी के 44 विधायकों को गुजरात से हटा कर बैंगलुरू ले गई, लेकिन उसकी परेशानी कम होती नहीं दिख रही थी । नोटा खत्म करने की उसकी मांग खारिज हो चुकी थी । सुप्रीमकोर्ट में झटका खाने के बाद पार्टी आशंकित थी कि विधायकों को टूटने से भले ही वह बचा ले, लेकिन वोट में नोटा का उपयोग कर कुछ विधायक उसका खेल बिगाड़ सकते हैं। कांग्रेस की आशंका निर्मूल नहीं थी ।
दरअसल, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यसभा चुनाव में पार्टी का व्हिप लागू नहीं होता। पार्टी संगठन स्तर पर भले ही अनुशासनात्मक कार्रवाई बाद में करती रहे, लेकिन वोट के पार्टी लाइन से बंधे नहीं होने से विधायक कहीं भी वोट डालने को स्वतंत्र रहते हैं। राष्ट्रपति चुनाव के वक्त कांग्रेस यह देख चुकी थी । गुजरात में ही उसके 10 से ज्यादा विधायक एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के पक्ष में क्रास वोटिंग कर चुके थे । तत्कालीन विधानसभा की सदस्य संख्या के आधार पर राज्यसभा के एक उम्मीदवार को न्यूनतम 44 वोटों की जरूरत थी । बैंगलुरू ले जाए गए कांग्रेस विधायकों की संख्या 44 थी । उसे दो विधायक एनसीपी और एक जदयू से भी समर्थन का आश्वासन था लेकिन इन 47 में से चार-पांच ने भी नोटा दबा दिया तो अहमद पटेल का संसद के उच्च सदन में जाना संभव नहीं हो सकेगा ऐसा गाहे बगाहे कहा जाने लगा । दरअसल गुजरात में कांग्रेस के कुल 57 विधायक थे, लेकिन अब 6 विधायकों के पाले बदलने की वजह से संख्या घटकर 51 रह गई थी । अहमद पटेल को राज्यसभा में जीत के लिए 47 विधायकों का वोट चाहिए थे लेकिन हकीकत यही है कि वाघेला के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी की हालत पतली थी । उसके 6 विधायक कांग्रेस छोड़ चुके थे और कई और विधायक भाजपा के पाले में अंतिम समय तक जा सकते हैं ऐसा अंदेशा बना था । बीजेपी के चाणक्य अमित शाह उस दौर में ऐसी कोशिश में जुटे थे कि गुजरात कांग्रेस के कम से कम 22 विधायक उसका साथ छोड़ दें । ऐसा करने से गुजरात विधानसभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या 57 से घटकर 35 हो जाती साथ ही कांग्रेस के 22 विधायकों के इस्तीफे से विधानसभा की सदस्य संख्या 182 से घटकर 160 हो जाती । ऐसी सूरत में राज्यसभा में एक सीट की जीत के लिए 40 विधायकों के वोट की जरूरत पड़ती । अगर ऐसा हो गया होता तो बीजेपी के तीनों राज्यसभा उम्मीदवार- अमित शाह, स्मृति ईरानी और कांग्रेस से बीजेपी में आये बलवंत सिंह राजपूत की जीत पक्की हो जाती क्योंकि वहां पर बीजेपी के कुल 121 विधायक थे । उसके तीनों उम्मीदवारों के लिए जरूरी 120 वोट आराम से मिल जाते । सोनिया के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल गुजरात चुनावों से ठीक पहले अपनी पार्टी के अंदर बड़ी जंग लड़ रहे थे । अगर राज्यसभा चुनाव में पटेल की हार होती तो यह हार दिसम्बर में गुजरात चुनाव से पहले कार्यकर्ताओं के मनोबल को गिराने का काम करती क्युकि पिछले कई चुनावों से अहमद पटेल के भरोसे कांग्रेस ने गुजरात छोड़ा हुआ था जहाँ टिकटों के चयन में उनकी तूती बोला करती थी । लेकिन अहमद पटेल ने अपने रणनीतिक कौशल से गुजरात में राज्यसभा की सीट अपने नाम कर ली । इसी तरह से राजस्थान में भी जब काँग्रेस में संकट के बादल छाये थे तब अशोक गहलोत और सचिन पायलट को समझाने बुझाने का जिम्मा अहमद पटेल को ही सौंपा और राजस्थान में काँग्रेस टूटने से बच गई । छत्तीसगढ़ बघेल को कमान सौंपने के लिए सोनिया गाँधी को उन्होंने ही राजी किया । इसी तरह से मध्य प्रदेश में कमलनाथ को कमान देने का उनका निजी फैसला था जिसका सम्मान सिंधिया और उनके समर्थकों को करना पड़ा । महाराष्ट्र में शिवसेना को कांग्रेस और राकपा के साथ लाकर महाअघाड़ी बनाने के पीछे ढाल अहमद पटेल ही थे ।
अहमद पटेल इतनी जल्दी दुनिया से रुखसत हो जाएंगे इसका भान कार्यकर्ताओं तक को नहीं था । सोनिया तक उनकी फरियाद पहुँचाने का माध्यम भी अहमद भाई ही थे । काँग्रेस के सितारे अभी लंबे समय से गर्दिश में हैं ऐसे समय में अहमद पटेल की जरूरत काँग्रेस को सबसे अधिक थी । अहमद पटेल के जाने के बाद काँग्रेस में अब युवा नेताओं के दिन बदल सकते हैं । उम्मीद है पार्टी में अब सीनियर और जूनियर नेताओं के बीच की लड़ाई खत्म हो जाएगी और राहुल गांधी का दबदबा बढ़ सकता है । ऐसे हालातों में कांग्रेस में अब सभी सीनियर नेता किनारे किए जा सकते हैं । फिर आज के दौर में कांग्रेस के कार्यकर्ता अगर यह सवाल पूछते है कि 24 अकबर रोड नाम मात्र का दफ्तर बनकर रह गया है तो जेहन में उमड़ घुमड़ कर कई सवाल पैदा होते हैं क्युकि राहुल गांधी के पार्टी में रहने के बाद भी स्थितिया कमोवेश वैसी ही हैं जैसी पहले हुआ करती थी । कार्यकर्ता आज भी उपेक्षित है। टिकटों को लेकर जोड़ तोड़ और गुटबाजी काँग्रेस मे आज भी चरम पर है । कोई नया विजन नहीं है । मोदी के मुकाबिल पार्टी में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो मॉस लीडर का ताज ले सके। राहुल के लाख अनुनय विनय के बाद भी कांग्रेस के नेताओं का कार्यकर्ताओं से सीधा कोई संवाद स्थापित नहीं हुआ है। पार्टी को हर चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ रहा है उसके बाद भी वह आत्ममंथन को तैयार नहीं है । संगठन में अभी भी ऐसे नेता कुंडली मार कर बैठे हैं जिनकी स्वामीभक्ति गाँधी परिवार के प्रति है लेकिन भीड़ खींचने वाले नेताओं के तौर पर वह कई पीछे हैं और इस दौर मे भी दस जनपथ की गणेश परिक्रमा करने का पुराना कांग्रेसी दौर नहीं थमा है । ऐसे में अब क्या उम्मीद करें देश की सबसे पुरानी पार्टी बिना अहमद पटेल के कांग्रेस दस जनपथ की कालकोठरी से खुद को बाहर निकाल पाएगी ? कहना मुश्किल है इस बार दस जनपद में अहमद पटेल नहीं हैं ।
Friday, 18 September 2020
देश में बदलाव की बयार नरेंद्र मोदी
‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विकास’ के आदर्श वाक्य से प्रेरित होकर नमो ने शासन व्यवस्था में एक ऐसे बदलाव की शुरुआत की जिसके केंद्र में आम आदमी रहा। उन्होंने अब तक की विकास यात्रा में समावेशी, विकासोन्मुख और भ्रष्टाचार-मुक्त शासन का नेतृत्व किया है। प्रधानमंत्री ने अंत्योदय के उद्देश्य को साकार करने और समाज के अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति तक सरकार की योजनाओं और पहल का लाभ मिले यह सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने स्पीड और स्केल पर काम किया है। तमाम अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने भी इस बात को माना कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत रिकॉर्ड गति से गरीबी को खत्म कर रहा है। इसका श्रेय केंद्र सरकार द्वारा गरीबों के हित को ध्यान में रखते हुए लिए गए विभिन्न फैसलों को जाता है। आज भारत दुनिया के सबसे बड़े स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम आयुष्मान भारत का नेतृत्व कर रहा है। 50 करोड़ से अधिक भारतीयों को कवर करते हुए आयुष्मान भारत गरीब और नव-मध्यम वर्ग को उच्च गुणवत्ता और सस्ती स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित कर रहा है। दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित स्वास्थ्य पत्रिकाओं में से एक लांसेट ने आयुष्मान भारत की सराहना करते हुए कहा है कि यह योजना भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े असंतोष को दूर कर रही है। पत्रिका ने सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज को प्राथमिकता देने के लिए पीएम मोदी के प्रयासों की भी सराहना की।
देश की वित्तीय धारा से दूर गरीबों को वित्तीय धारा में लाने के लिए प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री जन धन योजना शुरू की, जिसका उद्देश्य प्रत्येक भारतीय का बैंक खाते खोलना रहा । अब तक 35 करोड़ से अधिक जन धन खाते खोले जा चुके हैं। इन खातों ने न केवल गरीबों को बैंक से जोड़ा, बल्कि सशक्तीकरण के अन्य रास्ते भी खोले हैं। जन-धन से एक कदम आगे बढ़ते हुए पी एम मोदी ने समाज के सबसे कमजोर वर्गों को बीमा और पेंशन कवर देकर जन सुरक्षा पर जोर दिया। जन धन- आधार- मोबाइल ने बिचौलियों को समाप्त कर दिया है और प्रौद्योगिकी के माध्यम से पारदर्शिता और गति सुनिश्चित की है। असंगठित क्षेत्र से जुड़े 42 करोड़ से अधिक लोगों के पास अब प्रधानमंत्री श्रम योगी मान धन योजना के तहत पेंशन कवरेज मिली है। 2019 के चुनाव परिणामों के बाद पहली कैबिनेट बैठक में ही व्यापारियों के लिए समान पेंशन योजना की घोषणा की गई है। 2016 में गरीबों को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना शुरू की गई । यह योजना 7 करोड़ से अधिक लाभार्थियों को धुआं मुक्त रसोई प्रदान करने में एक बड़ा कदम साबित हुई है। इसकी अधिकांश लाभार्थी महिलाएं हैं। आजादी के बाद से 70 वर्षों के बाद भी 18,000 गाँव बिना जहां बिजली नहीं थी वहां बिजली पहुंचाई गई है।मोदी का मानना है कि कोई भी भारतीय बेघर नहीं होना चाहिए और इस विजन को साकार करने के लिए 2014 से 2019 के बीच 1.25 करोड़ से अधिक घर बनाए गए है। 2022 तक प्रधानमंत्री के ‘हाउसिंग फॉर ऑल’ के सपने को पूरा करने के लिए घर के निर्माण की गति में तेजी आई है। कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जो श्री नरेंद्र मोदी के बहुत करीब है।मोदी का पूरा फोकस किसानों की आय दुगनी 2022 तक करने को लेकर है | 2019 के अंतरिम बजट के दौरान सरकार ने किसानों के लिए पीएम किसान सम्मान निधि के रूप में एक मौद्रिक प्रोत्साहन योजना की घोषणा की। 24 फरवरी 2019 को योजना के शुरू होने के बाद लगभग 3 सप्ताह में नियमित रूप से किश्तों का भुगतान किया गया है। पीएम मोदी के दूसरे कार्यकाल की पहली कैबिनेट बैठक के दौरान इस योजना में 5 एकड़ की सीमा को हटाते हुए सभी किसानों को पीएम किसान का लाभ देने का फैसला किया गया। इसके साथ ही भारत सरकार प्रति वर्ष लगभग 87,000 करोड़ रुपये किसान कल्याण के लिए समर्पित करेगी।पीएम मोदी ने सॉयल हेल्थ कार्ड, बेहतर बाजारों के लिए ई-नाम और सिंचाई पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने जैसी किसान कल्याण की दिशा में विभिन्न पहल शुरू की। 30 मई 2019 को प्रधानमंत्री ने जल संसाधनों से संबंधित सभी पहलुओं की देखरेख करने के लिए एक नया जल शक्ति मंत्रालय बनाकर एक बड़ा वादा पूरा किया।
2 अक्टूबर 2014 को महात्मा गांधी की जयंती पर प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश में स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ शुरू किया। इस जन आंदोलन का बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक प्रभाव पड़ा है। 2014 में स्वच्छता कवरेज 38% थी जो आज बढ़कर शत फीसदी हो गई है। कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया गया है। स्वच्छ गंगा के लिए पर्याप्त उपाय किए गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वच्छ भारत मिशन की सराहना की और कहा कि इससे 3 लाख लोगों की जान बच सकती है।पीएम मोदी का मानना है कि परिवहन परिवर्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण साधन है। इसीलिए भारत सरकार हाई-वे, रेलवे, आई-वे और वॉटर-वे के रूप में अगली पीढ़ी के बुनियादी ढाँचे को बनाने के लिए काम कर रही है। उड़ान योजना ने उड्डयन क्षेत्र को लोगों के अधिक अनुकूल बनाया है और कनेक्टिविटी को बढ़ावा दिया है। देश के कई छोटे शहर अभी इससे और जुड़ने हैं |'पीएम मोदी ने भारत को अंतरराष्ट्रीय विनिर्माण पॉवर हाऊस में बदलने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ की शानदार पहल शुरू की। इस प्रयास से परिवर्तनकारी परिणाम सामने आए हैं। मोदी की अगुवाई में भारत ने ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ में महत्वपूर्ण प्रगति की है । 2017 में संसद के एक ऐतिहासिक सत्र के दौरान भारत सरकार ने जीएसटी लागू किया, जिसने ‘वन नेशन, वन टैक्स’ के सपने को साकार किया।मोदी के दौर में भारत के समृद्ध इतिहास और संस्कृति पर विशेष ध्यान दिया गया। भारत में दुनिया का सबसे बड़ा स्टैच्यू ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ बनाया गया जो सरदार पटेल को एक सच्ची श्रद्धांजलि है। इस स्टैच्यू को एक विशेष जन आंदोलन के माध्यम से बनाया गया था, जिसमें भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के किसानों के औज़ार और मिट्टी का इस्तेमाल किया गया था, जो ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना को दर्शाता है।
प्रधानमंत्री को पर्यावरण से जुड़े मुद्दों से गहरा लगाव है। उन्होंने हमेशा माना है कि हमें एक साफ और हरा ग्रह बनाने के लिए काम करना चाहिए। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने जलवायु परिवर्तन के अभिनव समाधान तैयार करने के लिए अलग जलवायु परिवर्तन विभाग बनाया। इस भावना को पेरिस में 2015 के COP21 शिखर सम्मेलन में भी देखा गया था जहां पीएम मोदी ने पर्यावरण से जुड़े मुद्दों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जलवायु परिवर्तन से एक कदम आगे बढ़कर पीएम मोदी ने जलवायु न्याय के बारे में बात की । 2018 में अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के शुभारंभ के लिए कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारत आए थे। यह गठबंधन एक बेहतर ग्रह के लिए सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने का एक अभिनव प्रयास है। यही नहीं पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनके प्रयासों को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी को संयुक्त राष्ट्र के ‘चैंपियंस ऑफ अर्थ अवार्ड’ से सम्मानित किया गया। इसमें कोई दो राय नहीं जलवायु परिवर्तन ने हमारे ग्रह को प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त कर दिया है | इस तथ्य के प्रति पूरी तरह से संवेदनशील होते हुए पीएम मोदी ने प्रौद्योगिकी की शक्ति और मानव संसाधनों की ताकत के उचित इस्तेमाल के रूप में आपदा के लिए एक नया विजन साझा किया है । मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 26 जनवरी 2001 को विनाशकारी भूकंप से तबाह हुए गुजरात को बदल दिया। इसी तरह उन्होंने गुजरात में बाढ़ और सूखे से निपटने के लिए नई प्रणालियों की शुरुआत की जिनकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई।प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से मोदी ने नागरिकों के लिए न्याय को हमेशा प्राथमिकता दी है। गुजरात में लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए उन्होंने शाम की अदालतों की शुरुआत की। केंद्र में उन्होंने प्रो-एक्टिव गवर्नेंस एंड टाइमली इम्प्लीमेंटेशन शुरू किया जो विकास में देरी कर रहे लंबित परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करने के लिए एक कदम है।
पीएम मोदी की विदेश नीति की पहल ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की वास्तविक क्षमता और भूमिका को महसूस किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने सार्क देशों के सभी प्रमुखों की उपस्थिति में अपना पहला कार्यकाल शुरू किया और दूसरे की शुरुआत में बिम्सटेक नेताओं को आमंत्रित किया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनके संबोधन की दुनिया भर में सराहना हुई। पीएम मोदी 17 साल की लंबी अवधि के बाद नेपाल, 28 साल के बाद ऑस्ट्रेलिया, 31 साल के बाद फिजी और 34 साल के बाद सेशेल्स और यूएई के द्विपक्षीय दौरे पर जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। पदभार संभालने के बाद से श्री मोदी ने यू एन , ब्रिक्स , सार्क , जी 20 , जी 7 समिट में भाग लिया जहाँ विभिन्न वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर भारत के विचारों को व्यापक रूप से सराहा गया और दुनिया ने मोदी के नेतृत्व की भूरी भूरी प्रशंसा की हुई है । प्रधानमंत्री को सऊदी अरब के सर्वोच्च नागरिक सम्मान किंग अब्दुलअजीज सैश से सम्मानित किया गया। मोदी ,को रूस के शीर्ष सम्मान द ऑर्डर ऑफ सेंट एंड्रयू द एपोस्टले सम्मान, फिलिस्तीन के ग्रैंड कॉलर ऑफ द स्टेट ऑफ फिलिस्तीन सम्मान, अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्ला खान अवॉर्ड, यूएई के जायेद मेडल ’ और मालदीव के निशान इज्जुद्दीन सम्मान समेत कई अवार्डों से नवाजा जा चुका है। 2018 में प्रधानमंत्री मोदी को शांति और विकास में उनके योगदान के लिए प्रतिष्ठित सियोल शांति पुरस्कार दिया गया। यही नहीं अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ मनाने के नरेंद्र मोदी के आग्रह को संयुक्त राष्ट्र में अच्छी प्रतिक्रिया मिली। पहले दुनिया भर में कुल 177 राष्ट्रों ने एक साथ मिलकर 21 जून को संयुक्त राष्ट्र में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में घोषित करने का प्रस्ताव पारित किया।
नरेंद्र मोदी का जन्म 17 सितंबर 1950 को गुजरात के एक छोटे से शहर में हुआ था। वह एक ऐसे गरीब परिवार से आते हैं जिसनें अपने जीवन में कई कष्टों को झेला है इसी के चलते वह हमेशा समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों की उन्नति के लिए दिन रात पूरी ऊर्जा से काम करते नजर आते हैं । जीवन की शुरुआती कठिनाइयों ने न केवल कड़ी मेहनत के मूल्य को सिखाया बल्कि उन्हें आम लोगों के कष्टों से भी अवगत कराया। आम जन की गरीबी ने उन्हें बहुत कम उम्र में ही लोगों और राष्ट्र की सेवा में डूबने के लिए प्रेरित किया। अपने प्रारंभिक वर्षों में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ काम किया, जो राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित एक राष्ट्रवादी संगठन है और बाद में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के संगठन में काम करने के लिए खुद को राजनीति में पूरी तरह समर्पित किया।मोदी अक्सर खुद कहा भी करते हैं तन समर्पित , मन समर्पित और जीवन समर्पित ।
नरेंद्र मोदी सवा सौ करोड़ देशवासियों के नेता हैं और आमजन की समस्याओं को हल करने और उनके जीवन स्तर में सुधार करने के लिए समर्पित हैं। लोगों के बीच रहने, जवानों के साथ खुशियाँ साझा करने और आम जनता के दुखों को दूर करने से ज्यादा कुछ भी उनके लिए संतोषजनक नहीं है। जमीनी स्तर पर तो उनका लोगों के साथ एक मजबूत व्यक्तिगत जुड़ाव तो है ही साथ ही साथ सोशल मीडिया पर भी उनकी मजबूत उपस्थिति है शायद यही वजह है उन्हें भारत के सबसे ज्या टेक्नोसेवी नेता के रूप में भी जाना जाता है। मोदी लोगों तक पहुँचने और उनके जीवन में बदलाव लाने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। 2014 से लोककल्याण मार्ग में शुरू हुआ मोदी का सफर अब काफी बढ़ चुका है और दुनिया को नई दिशा दे चुका है । पारदर्शी सरकार देना , विश्व में भारत की साख मजबूत करना और गरीबों का हिमायती होना मोदी सरकार की पहले दिन से प्राथमिकता रही है | जनधन के खाते खोलकर , मनरेगा चालू रखकर , मुद्रा योजना , उज्जवला योजना , स्किल इंडिया , स्टार्ट अप इंडिया,आयुष्मान भारत सरीखी योजनाओं के केंद्र में गरीब गोरबा जनता रही वहीँ लाल फीताशाही की इस सरकार ने झटके में हवा निकाल दी । मोदी सरकार ने हजार से अधिक बेकार कानूनों को न केवल समाप्त किया बल्कि ई टेंडर और ई गवर्नेंस को अपनी प्राथमिकता में रखा जिससे बहुत हद तक काम आसान हो गया अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने नोटबंदी जैसे साहसिक फैसले न केवल लिए बल्कि सर्जिकल स्ट्राइक कर यह दिखा दिया आज का भारत बहुत बदला हुआ है इसे कम समझने की हिमाकत नहीं करें । अब यह दुश्मन के घर में घुसकर उसे मारेगा ही नहीं बल्कि आतंक को आतंक की भाषा में जवाब दिया जायेगा । यही नहीं मोदी ने जीएसटी लागू करवाने में सफलता पाई ।
इसमें कोई संदेह नहीं आज मोदी एक बड़े ग्लोबल लीडर के तौर पर स्थापित हो चुके हैं जिनको पूरी दुनिया सलाम कर रही है। अपने अब तक के पीएम के कार्यकाल में विदेशों के तूफानी टी 20 दौरे कर मोदी ने खुद को काम के मामले में अपने मंत्रियो से भीं कहीं आगे कर दिया है। आज भी काम के मामले में मोदी का कोई जवाब नहीं । वह आज भी बेरोकटोक 18 से 20 घंटे काम करते हैं। मोदी के भीतर काम करने का एक अलग तरह का जूनून है । विदेश नीति पर मोदी सरकार का प्रदर्शन बेहतरीन रहा है। हाल के बरसों में मोदी ने अपनी कूटनीति के आसरे जापान , मलेशिया, म्यांमार , कंबोडिया , ब्राजील , फिलिपीन्स इंडोनेशिया , मारीशस , न्यूजीलैंड ,ऑस्ट्रेलिया , शेशेल्स , कनाडा , अफ्रीका, सऊदी अरब , इजराइल, रूस आदि देशों के साथ हमारे रिश्तों में नई मजबूती आई है। भारत सरीखा विकासशील देश आज मोदी की अगुवाई में एक बड़ी ताकत की कतार के रूप में खड़ा है। मोदी की हर विदेश यात्रा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब सुर्खियाँ बटोरती रही है और प्रवासी चढ़कर उनके कार्यक्रमों में भागीदार बनते हैं । मोदी विदशों में जहाँ जहाँ जाते हैं वहां प्रवासी भारतीयों से मिलना नहीं भूलते। उनके संबोधन में प्रवासी जिस उत्साह के साथ जुटते हैं उसकी मिसालें दुनिया में देखने को नहीं मिलती जहाँ ऐसा खूबसूरत इस्तकबाल किसी प्रधान मंत्री का हुआ हो । मोदी जनता की नब्ज पकड़ने वाले अब तक के बेहतरीन जननेता रहे हैं । मोदी की लोकप्रियता देश ही नहीं सात समुंदर पार विदेशों में अभी भी बरकरार है और उनसे लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं । सच में मोदी भारत के प्रधान सेवक की बड़ी भूमिका में हैं । तभी लोगों का विश्वास और जनसमर्थन आज भी उनके साथ बना हुआ है और लोग आज भी यह कहने से नहीं चूकते मोदी है तो सब कुछ मुमकिन है । ऐसे यशस्वी जननेता को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं और बधाई।
Sunday, 13 September 2020
राजनीति के शिखर पुरुष थे प्रणब मुखर्जी
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जीवन की जंग हार गए। 10 अगस्त को तबियत नासाज होने पर सेना के रिसर्च ऐंड रेफरल (आरआर) अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उसी दिन जांच में वे कोरोना पॉजिटिव भी पाए गए। पूर्व राष्ट्रपति ने अपने संपर्क में आए सभी लोगों को टेस्ट करने को कहा और खुद एक ट्वीट कर सबको अपने पाॅजिटिव होने की जानकारी दी। उनके मस्तिष्क में क्लॉट हटाने की सर्जरी के बाद वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखा गया। सर्जरी के बाद भी उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ और विशेषज्ञ डॉक्टरों की टीम उनके स्वास्थ्य की लगातार निगरानी करती रही, लेकिन अंत में प्रणव दा जीवन की जंग हार गए।
प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसम्बर 1935 को पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में मिराती गाँव में हुआ था।उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ ही कानून की डिग्री भी हासिल की थी। प्रणब मुखर्जी राजनीति में आने से पूर्व पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ विभाग, कलकत्ता में लोवर डिविजन क्लर्क यानी कनिष्ठ लिपिक हुआ करते थे। 1963 में उन्होंने इस नौकरी को छोड़ 24 दक्षिण परगना जिले के एक कॉलेज में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक की नौकरी की। उन्होने एक स्थानीय बंगला समाचार पत्र ‘देशहर डाक’ मे संवाददाता के पद पर काम भी किया। इसी दौरान 1969 में बंगाल की मिदनापुर लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ तो पहली बार कांग्रेस के टिकट पर प्रणब की सीधे राज्यसभा मे दस्तक हो गई। जवाहरलाल नेहरू के अत्यंत करीबी रहे वीके कृष्ण मेनन ने इस चुनाव को बतौर निर्दलीय प्रत्याशी लड़ा और भारी मतों से कांग्रेस के प्रत्याशी को पराजित कर दिया । प्रणब मुखर्जी ने इस चुनाव में कृष्ण मेनन के लिए काम किया था। यहीं से उनके राजनीतिक सितारे सातवें आसमान पर जा पहुंचे । कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत कर चुकी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुखर्जी के भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान उन्हें ना केवल कांग्रेस में शामिल कराया, बल्कि उसी वर्ष राज्यसभा का सदस्य भी बना दिया। प्रणब मुखर्जी ने इसके बाद कभी भी राजनीति में पलट कर नहीं देखा। वे इंदिरा गांधी के अत्यंत विश्वस्त सलाहकारों मे शामिल हो गए।
राजनीति में प्रणब का कैरियर शानदार रहा और अपनी सूझ बूझ से उन्होने खास छाप छोड़ी। 1973 में उन्हें इंदिरा मंत्रिमंडल में बतौर उप रक्षामंत्री शामिल भी किया गया । प्रणब दा इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी के बाद 1982 में वित्त मंत्री भी बनाए गए। उन पर ये आरोप भी एक दौर में लगे कि इंदिरा गांधी के बाद वो ख़ुद सत्ता संभालना चाहते थे लेकिन इन आरोपों को उन्होंने अपनी किताब ‘दी टर्ब्युलंट इयर्स’ में खारिज किया। 1980-1985 के दौरान प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में उन्होंने केन्द्रीय मंत्रीमंडल की बैठकों की अध्यक्षता भी की । उनके इस पद पर रहते हुए ही मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया था। इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के तुरंत बाद जब नए उत्तराधिकारी की चर्चा कांग्रेस भीतर शुरू हुई तो प्रणब मुखर्जी ने अपना दावा पेश किया शायद यही उनकी राजनीतिक भूल साबित हुई जिसके चलते उन्हें राजीव गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस के भीतर पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया जिसकी कीमत 1986 में उन्होने काँग्रेस छोड़ने पर मजबूर हो चुकानी पड़ी। वे काँग्रेस की ठसक को चुनौती देते नजर आए। तब छह सालों के लिए उन्हें कांग्रेस से निलंबित भी कर दिया तब उन्होने एक नई पार्टी ‘राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी’ बना ली। हालाँकि तीन साल के अंदर ही इसका कांग्रेस में विलय हो गया। फिर वह वापस कांग्रेस में ही लौटे और नरसिम्हा राव सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर अपनी सेवा दी ।
प्रणब दा का जाना भारतीय राजनीतिक के एक युग का अवसान है। सौम्य स्वभाव, सजग दृष्टि, अध्ययनशील चिंतक, प्रखर किन्तु विनम्र बौद्धिकता के साथ साथ वो भारतीय की उस परम्परा के वाहक थे जिसमें राजनीति से ऊपर उठकर लोग एक दूसरे का सम्मान भी किया करते थे। अटल जी के बाद शायद इस कड़ी के आखिरी स्तम्भ थे। आज की राजनैतिक दशा में अब वो सारी बातें अकल्पनीय हैं। विनम्र श्रद्धांजलि प्रणब दा के करियर ने फिर से लंबी उड़ान भरी नब्बे के दशक में जब राजीव गांधी की हत्या के बाद पी. वी नरसिम्हा राव ने उन्हें योजना आयोग का डिप्टी चेयरमैन बनाया गया । राव के कार्यकाल में ही उन्होंने पहली बार विदेश मंत्री का पदभार भी ग्रहण किया और नई लकीर खींची ।
2004 में जब लोकसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके थे तो सोनिया गाँधी के नेतृत्व में यूपीए द्वारा बहुमत हासिल कर लिया गया था। सोनिया गाँधी को भारत की अगली प्रधानमंत्री के तौर पर काँग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी स्वीकार कर लिया गया था लेकिन राजनीति ने उस दौर में बेहद दिलचस्प यू टर्न लिया और सोनिया गाँधी का विदेशी मूल का होना ही उन्हें भारी पड़ गया जिसके बाद इस मुद्दे पर राजनीति खूब हुई और इन सब के बीच सोनिया गांधी ने अपना नाम पीएम बनने की दौड़ से बाहर कर लिया और यहीं से कांग्रेस के भीतर शुरू हुई नए प्रधानमंत्री की तलाश जिनमें अर्जुन सिंह मनमोहन सिंह के साथ प्रणब मुखर्जी का भी नाम शामिल था । अर्जुन सिंह का दावा बढ़ती सेहत के मद्देनजर कमज़ोर था तो वहीं मनमोहन सिंह सोनिया के यस मैन बने और प्रणब मुख़र्जी पर भारी पड़े क्योंकि प्रणब दा ठीक से हिंदी नहीं बोल पाते थे। बाद में प्रणब दा ने खुद इस बात को स्वीकारा था वह पी एम नहीं बन पाये क्युकि वह हिन्दी ठीक से नहीं बोल पाते थे हालाँकि कहा यह भी जाता है कि उनकी कठपुतली न बनने की आदत ने ही उनके और पीएम पद के बीच रोड़ा अटकाया था। इस कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इन्दिरा से निकटता के चलते वह सोनिया गांधी के करीब आए और यूपीए सरकार के दस बरसों में वे ना केवल वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालय के मंत्री रहे, बल्कि यू पी ए के सबसे भरोसेमंद सलाहकार और ट्रबल शूटर बनकर भी उभरे । काँग्रेस के साथ यू पी ए पर जब भी संकट आया तब तब प्रणव मुखर्जी ही आगे आए जिनकी सर्वस्वीकार्यता सभी दलों मे थी। अनुभवों का अनंत भंडार रखनेवाले प्रणब दा पर कभी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। किसी घोटाले में भी उनका नाम कभी नहीं आया। हरित क्रांति लानेवाले सी. सुब्रमण्यम के सान्निध्य और साहचर्य में सरकारी कामकाज सीखने वाले प्रणब दा बहुत मेहनती थे। सुबह से लेकर देर रात तक खटते करते थे। कोई काम कल पर नहीं छोड़ते थे। कदाचित इन्हीं गुणों के कारण वे राजनीति में चार दशकों से भी लंबी सफल पारी खेल सके थे।
राष्ट्रपति बनने से पहले वित्त मंत्रालय और आर्थिक मंत्रालयों में उनके नेतृत्व और कामकाज का लोहा राजनीति के हर व्यक्ति ने माना। कांग्रेस नेतृत्व की तीन पीढ़ियों के साथ काम करने वाले गिने चुने नेताओं में रहे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी लंबे समय के लिए देश की आर्थिक नीतियों को बनाने में महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में हमेशा याद किए जाएँगे । उनके नेत़त्व में ही भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम किस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया था वह भी उस दौर मे जब 2008 मे अमरीका के सब प्राइम संकट ने पूरी दुनिया को आर्थिक मंदी के दौर मे धकेला। यह सब प्रणब मुखर्जी की सूझ बूझ का कमाल था उनके वित्त मंत्रालय मे रहते भारत की अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरी और कई तरह के राहत पैकेज देकर अर्थव्यवस्था मे जान फूंकने की कोशिश उनके द्वारा की गई।
प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने का किस्सा भी राजनीति में बड़ा दिलचस्प है। प्रणब दा पहली बार सांसद बने थे तो उनसे मिलने उनकी बहन आई हुई थी। अचानक चाय पीते हुए प्रणब दा ने अपनी बहन से कहा कि वो अगले जनम में राष्ट्रपति भवन में बंधे रहने वाले घोड़े के रूप में पैदा होना चाहते हैं। इस पर उनकी बहन अन्नपूर्णा देवी ने कहा कि, ‘घोड़ा क्यों बनोगे? तुम इसी जनम में राष्ट्रपति बनोगे और वो भविष्यवाणी सही भी साबित हुई और प्रणब दा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महामहिम बने भी। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर देश के तेरहवां राष्ट्रपति की कुर्सी पर काबिज कर दिया । प्रणब मुखर्जी ऐसे दौर में राष्ट्रपति बने जब भाजपा मोदी की प्रचंड सुनामी के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हुई। इन सबके बाद भी प्रणब मुखर्जी ने अपने पूरे कार्यकाल को किसी भी तरह के विवादों से दूर रखा। उस दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कसीदे पढ़ने मे भी प्रणब मुखर्जी पीछे नहीं रहे । मोदी की असीमित ऊर्जा और काम करने की शैली की खुले आम तारीफ करने से भी वह हमेशा आगे रहे । राष्ट्रपति पद रहते हुए प्रणव का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय जाने का निर्णय ऐतिहासिक रहा। तब प्रणब मुखर्जी के नागपुर संघ कार्यालय जाने को खूब कवरेज मिली । प्रणब मुखर्जी का निर्णय कुछ को नागवार गुजरा तो कुछ लोगों ने उनकी इस पहल को सराहा भी। मोदी की इस यात्रा के पीछे संघ प्रमुख मोहन भागवत की कुशल रणनीति ने काम किया। संघ मुख्यालय में लाने में मोहन भागवत की बड़ी भूमिका रही । कांग्रेस के उनकी यात्रा को रोकने के तमाम प्रयासों के बावजूद भागवत प्रणब दा को न केवल नागपुर खींच लाए, बल्कि मंच से संघ संस्थापक केशव राव बलिराम हेडगेवार की भूरी भूरी प्रशंसा भी पूर्व राष्ट्रपति से करवा डाली। हालांकि प्रणब मुखर्जी ने संघ मुख्यालय में दिए अपने संबोधन में भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति पर अपना फोकस रखा लेकिन कांग्रेस को जो नुकसान होना था, वह होकर ही रहा।
प्रणब दा चाहे जितने बड़े पद पर रहे, यहां तक कि राष्ट्रपति बन जाने पर भी वे दुर्गापूजा में अपने गांव मिराती आना कभी नहीं भूलते थे। तीन दिनों तक पारंपरिक भद्र बंगाली पोशाक में दुर्गापूजा करते थे। राष्ट्रपति पद से अवकाश लेने के बाद प्रणब दा का अधिकतर समय लिखने-पढ़ने पर खर्च होता था। प्रणब दा संसद में दिए भाषणों के संकलन से लेकर राष्ट्रपति के रूप में अपने भाषणों के संकलन की तैयारी में स्वयं रुचि ले रहे थे। प्रणब दा की किताब ‘कांग्रेस एंड मेकिंग आफ इंडियन नेशन’ (दो खंड) में कांग्रेस के 125 वर्षों के इतिहास व उसकी बाहरी व भीतरी चुनौतियों का आख्यान है। उनकी इधर के वर्षों में आई किताबों- 'द ड्रैमेटिक डिकेड : द इंदिरा गांधी ईयर्स', ‘द टर्बुलेंट ईयर्स’, ‘द कोएलिशन इयर्स’, ‘थाट्स एंड रेफ्लेक्शन’ का जिस तरह स्वागत हुआ, उससे वे उत्साहित थे। 'द ड्रैमेटिक डिकेड : द इंदिरा गांधी ईयर्स' में इमरजेंसी, बांग्लादेश मुक्ति, जेपी आंदोलन, 1977 के चुनाव में हार, कांग्रेस में विभाजन, 1980 में सत्ता में वापसी और उसके बाद के विभिन्न घटनाक्रमों पर अलग-अलग अध्याय हैं। ‘द टर्बुलेंट ईयर्स’ में 1980 से 1996 के राजनीतिक इतिहास को उन्होंने कलमबद्ध किया था और ‘द कोएलिशन इयर्स’ में 1996 से 16 वर्षों तक के राजनीतिक घटनाक्रम को उन्होंने शब्द दिए थे। ‘थाट्स एंड रेफ्लेक्शन’ किताब में विभिन्न विषयों पर प्रणव दा के विचार संकलित थे।
प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा गांधी, पीवी नरसिंह राव, सीताराम केसरी और सोनिया गांधी के नेतृत्व में कई कठिन परिस्थितियों में अपनी बुद्धिमत्ता तथा राजनीतिक कौशल से कांग्रेस पार्टी को संकट से उबारा था। उन्होंने दशकों तक कांग्रेस के लिए थिंक टैंक के रूप में काम किया। आर्थिक तथा वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले प्रणब दा को न्यूयार्क की पत्रिका यूरो मनी ने 1984 में विश्व के सर्वश्रेष्ठ पांच वित्त मंत्रियों में एक माना था। उनके राजनीतिक चातुर्य का लोहा विरोधी भी मानते रहे हैं। इसलिए क्योंकि प्रणब दा ने अपनी राजनीति को मूल्यवान बनाए रखा था। उनके लिए राजनीति का अर्थ चुनावों में जीत, सत्ता और तंत्र की राजनीति नहीं थी। उनकी राजनीति का संबंध मूल्यों से था। वे उन चुनिंदा नेताओं में थे जो राजनीति के मूल्यों के प्रति सदा-सर्वदा सचेत रहते हैं और नाना धर्मों में आस्था रखनेवाले और दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष लोगों के साथ सदैव तनकर खड़े रहते हैं। उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए कभी सिद्धांतविहीन समझौते नहीं किए।
प्रणब को साल 1997 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का अवार्ड भी मिला । वहीं 2008 के दौरान सार्वजनिक मामलों में उनके योगदान के लिए उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाजा गया। इतना ही नहीं 26 जनवरी 2019 को उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में प्रणब दा ने कई सारी जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं और अपनी कार्यशैली से हर किसी को प्रभावित किया। भारत सरकार के लिए विदेश, रक्षा, वाणिज्य और वित्त मंत्रालय में किया गया उनका काम हमेशा याद किया जाता रहेगा । प्रणब मुखर्जी बेशक राज्यसभा के लिए 5 बार चुने गए और 2 बार लोकसभा सांसद भी रहे लेकिन इतिहास में बेहतर वित्त मंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल हमेशा याद किया जाता रहेगा । हरित क्रांति लाने वाले सी. सुब्रमण्यम के सान्निध्य और साहचर्य में सरकारी कामकाज सीखने वाले प्रणव बहुत मेहनती भी थे। सुबह से लेकर देर रात तक काम ही काम करते रहते थे। दिन भर किए कामों की डायरी लिखना भी नहीं भूलते थे, कोई काम कल पर भी नहीं छोड़ते थे। आमतौर पर आज के हमारे नेताओं की याददाश्त दुरुस्त नहीं रहती लेकिन प्रणब इसके अपवाद थे।एक बार किसी से मिल लेते थे तो उसका नाम नहीं भूलते थे और गर्मजोशी के साथ हर किसी से मिला करते थे । रायसीना हिल्स के उनके दरवाजे आम जनता के लिए हमेशा खुले रहते थे। देश में होने वाले गंभीर विमर्शों का हिस्सा प्रणव दा हुआ करते थे कदाचित इन्हीं गुणों के कारण वे राजनीति में चार दशकों से भी लंबी सफल राजनीतिक पारी खेल सके । मेरी अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि