Wednesday 31 August 2016

सियासी बिसात में तार- तार कश्मीर और कश्मीरियत







कश्मीर में हिंसा का तांडव थमने का नाम नही ले रहा | पिछले  करीब डेढ़ महीने से जन्नत  अशांत है। राज्य में आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों के बीच लगातार झड़पों का सिलसिला जारी है | जिस कारण  सरकार को डेढ़ दशक बाद कश्मीर की सड़कों पर जहाँ बी एस एफ को उतारने पर मजबूर होना पड़ा है वहीँ विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कश्मीर के हालात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत करने के साथ ही सर्वदलीय बैठक का जो दौर शुरू किया उसका अब तक का नतीजा भी सिफर ही रहा है |
 
 केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर  में शांति बहाली के लिए जहाँ  घाटी का रुख कर चुके हैं वहीँ मुख्यमंत्री महबूबा की पी एम मोदी के साथ बैठक के बाद भी कश्मीर के हालत संभाल नहीं पा रहे हैं | आलम यह है कि अलगाववादियों को महबूबा की कड़ी चेतावनी के बाद भी जन्नत में पत्थरबाजी का दौर थमा नहीं है |  बीते सोमवार को कश्मीर घाटी में कर्फ्यू हटाए जाने के ठीक दो दिन बाद हिंसा के तांडव का खुला खेल फिर से शुरू हो गया है |  सुरक्षा बलों के साथ हुई हिंसक झड़प में एक किशोर की मौत हो गई तथा 100 से अधिक व्यक्ति घायल हो गए | भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षा बलों ने पहले आंसू गैस के गोले छोड़े और पैलेट गन का इस्तेमाल किया ।  जब भीड़ नहीं हटी तो उन्हें गोली चलानी पड़ी |  बुधवार को एक किशोर की मौत के साथ ही घाटी में नौ जुलाई से शुरू हुए इस संघर्ष में मरने वालों की संख्या अब 72 हो गई है, जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल हैं |  वहीं  हिंसक संघर्ष में अब तक 11,000 से अधिक लोग घायल हुए हैं जिसमें 7,000 नागरिक और सुरक्षा बलों के 4,000 जवान शामिल हैं | 

दरअसल कश्मीर की सियासत इस समूचे दौर में  उस मुहाने पर जा टिकी है जहां भारत सरकार और घाटी  के बीच संवाद पूरी तरह टूटा हुआ है | अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा किसी भी नेता ने कश्मीर के मसले को हल करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद भी उस लीक का पता लग पाना मुश्किल दिख रहा है क्युकि वह  अलगाववादियों से बात ना करने का एलान पहले ही कर चुकी है  । असल में कश्मीर में  आए दिन सुरक्षा बलों और आम नागरिकों के बीच अक्सर झड़पें होती रहती हैं | हिज़बुल मुज़ाहिद्दीन के चरमपंथी बुरहान वानी की मौत के बाद जो कश्मीर में हालात बन रहे हैं, उससे लगता है कि  लोग आक्रोशित हैं  । 

 90 के दशक को याद करें तो उस दौर में मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी को अगवा किया गया था तब इतनी बड़ी संख्या में लोग बाहर आए थे | जिसके बाद  1993 में हज़रत बल में चरमपंथी छिपे हुए थे जिसे सेना ने घेरे में लिया तो घाटी सुलग गई | फिर 1995 में एक सूफ़ी संत की दरगाह में एक पाकिस्तानी चरमपंथी के छिपने के बाद फिर से कश्मीर जलने लगा | 2008 में अमरनाथ की ज़मीन के विवाद के वक़्त भी काफ़ी बवाल हुआ था और कई महीनों तक प्रदर्शन हुए जिसकी गूंज दिल्ली तक पहुंची | 2010 में एक कथित एनकाउंटर के बाद भी बवाल हुआ जिसमें क़रीब 130 लोग मारे गए और 2013 में अफ़जल गुरु की फांसी के बाद भी कश्मीर में बवाल हुआ जो कुछ समय बाद थम सा गया | लेकिन  ताजा मामला आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीरी युवाओं के फूटे आक्रोश का है जिसे कश्मीर के युवा किसी आइकन से कम नहीं समझते थे | बुरहान वानी का परिवार जमात विचारधारा से काफी प्रभावित था। बुरहान वानी पाकिस्तानी आतंकी संगठन  हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य था। उस पर एक तरफ जमात का मजहबी असर था तो दूसरी तरफ वह 21वीं सदी का वह युवा था जो सोशल मीडिया  का खुलकर इस्तेमाल करने वालों में से एक था । इन दोनों स्थितियों ने बुरहान को हिजबुल का कमांडर बनने में मदद की। वानी ने सोशल मीडिया का सहारा लेकर मजहब से प्रेरित अपनी राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा दिया। इसी के आसरे  वह युवाओं के बीच खासा लोकप्रिय चेहरा बन  गया। जब उसे सेना ने मार गिराया तभी से कश्मीर में हिंसा शुरू हो गई। यह हिंसा अभी भी जारी है।1996 के बाद यहां पहली बार ऐसा हुआ कि किसी चरमपंथी की मौत के बाद इतनी बड़ी संख्या में लोग कश्मीर की  सड़कों पर बाहर आए हैं | इस विरोध प्रदर्शन से कश्मीर के पर्यटन कारोबार को जहाँ करोड़ों का नुकसान हो गया है वहीँ बीते 53 दिनों से लोगों की रोजी रोटी सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है जिसकी सुध लेने की जहमत कोई राजनेता इस दौर में लेने को तैयार नहीं है |  इस दौर में जहाँ दुकानों में ताले पड़े हैं वहीँ निजी और सरकारी शिक्षण संस्थान  और कार्यालयों में पसरा सन्नाटा इस बात की गवाही दे रहा है कि कश्मीर में हालात दिन पर दिन कैसे खराब होते जा रहे हैं और सरकार कुछ कर भी नहीं पा रही है | 

बीते दिनों कश्मीर के हालात पर महबूबा और मोदी की मुलाक़ात दिल्ली में हुई थी जिसमे महबूबा ने पीएम मोदी  की तारीफों के कसीदे पढ़ते हुए कहा पी एम मोदी ने कश्मीर के लिए  सभी तरह के जरूरी कदम उठाए हैं। उन्‍होंने याद दिलाया कि पीएम मोदी जब लाहौर से लौटे तो देश को पठानकोट आतंकी हमला झेलना पड़ा।  महबूबा ने कहा कि पीडीपी-बीजेपी गठबंधन की आधारशिला वाजेपई की कश्‍मीर नीति थी।  पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेई की कश्‍मीर नीति को वहीं से आगे बढ़ाना होगा जहां पर इसे रोक दिया गया | वहीँ कांग्रेस ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुझाव दिया है कि उन्हें वार्ता की पहल करनी चाहिए। कांग्रेस की यह टिप्पणी तब आई जब पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने कश्मीर  में  प्रतिनिधिमंडल भेजने की वकालत की। 

जानकारों के मुताबिक कश्मीर में हिंसा बढ़ने की एक वजह यह रही कि दक्षिणी कश्मीर के युवा 2010 में हुई हिंसा के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस से काफी नाराज थे। उन्होंने उमर अब्दुल्ला की सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए 2014 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी को वोट दिया। लेकिन पीडीपी और भाजपा के गठबंधन से इन युवाओं ने अपने आपको ठगा हुआ महसूस किया। इसलिए ये युवा सरकार से खुलकर लड़ने लगे हैं जिसकी मिसाल कश्मीर में   दिखाई दे रही है  | बुरहान की मौत ने आग में घी डालने  का काम किया और  जन्नत को सुलगाने   का काम अलगाववादी संगठनों ने किया। उन्होंने कश्मीर  के मुसलमानों को आक्रोशित कर सड़कों पर उतारा। धीरे-धीरे घाटी  सुलगने लगी। मौजूदा दौर में भारत पाक की बातचीत लम्बे समय से बंद है | पी एम मोदी ने बहुत हद तक अपने शपथ ग्रहण समारोह से हमारे पडोसी पाक को सम्बन्ध सुधारने का हर मौका दिया लेकिन पठानकोट के हमले ने सारी उम्मीदों  पर पानी फिर दिया | दूसरा मोदी केंद्र में प्रचंड बहुमत की सरकार चला रहे हैं | पिछली सरकारों के बातचीत के दौर में अलगाववादी नेता अक्सर शामिल हुआ करते रहे हैं लेकिन ऐसा पहला मौका है जब पी डी ऍफ़ और भाजपा सरकार केंद्र राज्य में सत्तासीन होने के बाद भी अलगाववादियों के लिए बातचीत के दरवाजे बंद कर चुकी है जिससे कश्मीर का मुद्दा अधर में लटक गया है | पाक से जब भी बात होती है तो वह कश्मीर पर खुद को भी बातचीत के लिए आमंत्रित करने की बात करता रहा है लेकिन भारत का स्टैंड इस बात पर साफ़ है जब तक पाक आतंक का रास्ता नहीं छोड़ता तब तक उससे किसी तरह की कोई बात नहीं हो सकती इस कशमकस में कश्मीरियत भी उलझ कर रह गयी है   

इधर भारतीय सरकारी एजेंसियों का भी दावा है कि कश्मीर  में चल रहे हिंसक उपद्रव में पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों और एसआई का हाथ है। भीड़ में आतंकी शामिल होकर जवानों पर पेट्रोल बम फेंक रहे हैं जिससे तनाव बढ़ रहा है और इस तनाव से पाक कश्मीर का अन्तराष्ट्रीयकरण करने की दिशा में मजबूती के साथ बढ़ने की तैयारी में है |  जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी  कश्मीर में जारी अशांति के बारे में हाल ही में कहा था कि अलगाववादी पाक की शह पर कश्मीर में माहौल को खराब कर रहे हैं। महबूबा ने कहा कि मस्जिदों से लोगों को उकसाने के लिए नापाक पैगाम दिए जा रहे हैं। अलगाववादी सिर्फ अपने स्वार्थ की खातिर ही ऐसा कर रहे हैं। पाक हवाला के जरिए अलगाववादियों को धन दे रहा है जिससे वे गरीब कश्मीरी लोगों विशेषकर युवाओं को उकसा रहे हैं। असल में इस दौर की सबसे बड़ी  मुश्किल यह है कि हर दल कश्मीर के हालात को अपने नजरिये और वोट बैंक की सियासत के अनुरूप देख रहा है | इस गुणा भाग से  राजनेताओ की सियासत बेशक फीकी पड़ने के साथ चमक सकती है  लेकिन इससे समस्या का समाधान होना दूर की गोटी ही लगता है | सियासत ने वास्तव में कभी कश्मीर और कश्मीरियत को गंभीरता से महसूस किया होता तो जन्नत के हालात आज इस कदर  बेकाबू नहीं होते जहाँ 53 दिन लोगों को अपने कमरों की चहारदीवारी में बैठकर नहीं बिताने पडते और उनके सामने दो जून की रोजी रोटी का सवाल भी नहीं घुमड़ता | 

देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कश्मीरियत इंसानियत और जम्हूरियत में यकीन रखने वाले सभी लोगों को आमंत्रित कर वाजपेयी वाली लीक पर कश्मीर में चलना चाहते हैं |शायद यही वजह है एक दो दिन में कश्मीर में 26 नेताओं के प्रतिनिधिमंडल को भेजने पर गहनता से मंथन चल रहा है | खुद राजनाथ ने अब कश्मीर की कमान अपने हाथ में ली है और वह खुद कश्मीर के नेताओं के साथ बातचीत करेंगे जिसमे अलगाववादी नेताओ से भी बातचीत का नया चैनल खोलने पर विचार चल रहा है  | यानी कश्मीर जाने वाले प्रतिनिधि दल के लोगों को कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मिलने की छूट होगी। अगर ऐसा होता है तो कुछ रास्ता निकलेगा इस बात की उम्मीद तो बन ही रही है |तो मोदी सरकार के अब कश्मीर पर नरम रुख का इन्तजार हर किसी को है  | देखना होगा ऊट किस करवट कश्मीर पर बैठता है ? 

Tuesday 16 August 2016

जनता को निराश किया पीएम ने





आज से ठीक दो बरस पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने जब लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश के नाम अपना पहला संबोधन दिया था तो हर किसी ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की थी | हर कोई उनकी तारीफों के कसीदे न केवल पढ़ रहा था बल्कि उन्हें लीक से अलग हटकर चलने वाला प्रधानमंत्री भी बता रहा था | वैसे भी इससे पूर्व जितने भी प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से बोले वह कमोवेश बिजली , पानी और शिक्षा , गरीबी जैसे मुद्दों पर ही बात करते नजर आये | यही नहीं मोदी ने नई लीक पर चलने का साहस ना केवल बीते बरस दिखाया बल्कि अपने भाषण से लोगों में  लाल किले  में  उत्साह और उमंग का संचार किया |

मोदी ने ना केवल जोशीले भाषण से सभी का दिल जीतने की कोशिश की बल्कि स्वच्छ भारत , निर्मल भारत और आदर्श ग्राम योजना  और सबका साथ सबका  विकास सरीखे वायदों से राजनीती में आदर्श लकीर खींचने  की कोशिशें तेज की लेकिन  इस बार स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले में  पी एम बदले बदले से नजर आये | इसका एक कारण यह हो सकता है पिछली बार वह दिल्ली के लिए नए थे और उनकी सरकार का हनीमून पीरियड  चल रहा था लेकिन ठीक दो साल के बाद अब सिस्टम के अन्दर काम करने पर उन्हें इस बात का भान हो चला है कथनी और करनी को अमली जामा पहनना इतना आसान नहीं है और वह भी उस देश में जहाँ पर नौकरशाही का दौर हावी हो और हवाई घोषणाओं का पिटारा खुलता आ रहा हो  शायद यही वजह रही प्रधानमंत्री के भाषण में वह तेज गायब था जो पिछली दफा हमें देखने को मिला |

लाल किले से मोदी पहली बार जहाँ 75 मिनट बोले  और दूसरी बार मोदी 86 मिनट बोले वहीँ लाल किले से लगातार तीसरी बार 95 मिनट बोलकर उन्होंने खुद अपना रिकॉर्ड तोड़ डाला | आज़ादी के दौर को याद करें तो उस दौर में नेहरु ने 72 मिनट का भाषण दिया था | इस तरह से मोदी का स्वतंत्रता दिवस पर दिया गया  अब तक का यह सबसे लम्बा  भाषण रहा  |  देशवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने इस बार अपनी सरकार के कामकाज के बखान करने का कोई मौका नहीं छोड़ा संभवतया इसका कारण आने वाले समय में चार राज्यों में होने जा रहे विधान सभा चुनाव हों जहाँ आकंड़ों की बाजीगरी कर पी एम ने जनता को उलझाना मुनासिब समझा हो| 

 लाल किले से दिए गए अपने भाषण में पी एम मोदी ने स्वराज को सुराज में बदलने का संकल्प जताया और सुराज को आम आदमी के प्रति संवेदनशीलता के रूप में परिभाषित किया। अपने भाषण में मोदी सिर्फ और सिर्फ अपनी सरकार के सारे काम ही गिनाये। अस्पतालों में ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन से लेकर पासपोर्ट बनाने में तेजी तक के मसलों को उन्होंने उठाया | कारोबारी माहौल बनाने से लेकर 21 करोड़ लोगों को जनधन योजना से सीधे जोड़ने के मसले पर संवाद स्थापित किया | महंगाई को छह फीसद से नीचे रखने और सस्ते एल ई डी बल्ब दिए जाने को उन्होंने सरकार की बड़ी उपलब्धि बताया | दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने और बीपीएल परिवारों के लिए स्वास्थ्य बीमा, वन रैंक वन पेंशन, उज्ज्वला योजना, बिजली से वंचित अठारह हजार गांवों में से दस हजार गांवों का विद्युतीकरण, जीएसटी विधेयक को संसद की मंजूरी और स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन में बीस फीसद की बढ़ोतरी का जिक्र कर उन्होंने भरोसा दिलाना चाहा कि सरकार लोगों से किए वादे के अनुरूप ही आगे बढ रही है| उन्होंने कहा इस सरकार से लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं | उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाए के भुगतान और गुरु गोबिंद सिंह की तीन सौ पचासवीं जयंती का जिक्र कर उन्होंने उत्तर प्रदेश और पंजाब का दिल जीतने की कोशिश की, जहां कुछ महीनों बाद विधानसभा चुनाव होने हैं।

उन्होंने यह जताने से भी परहेज नहीं किया कि उनकी नीतियों में आदिवासी से लेकर गरीब और शोषित वंचित तबके तक शामिल हैं | गांधी और अम्बेडकर को साधकर उन्होने एक तीर से कई निशाने खेलने की कोशिश की |  पहली बार उनके भाषण में कॉरपरेट और नॉर्थ ईस्ट, टीम इंडिया शब्द गायब दिखा | मोदी ने अपने इस भाषण में  सिर्फ और सिर्फ अपनी सरकार की अब तक की उपलब्धियों का पिटारा ही खोला  |  मोदी ने पिछली बार गाँवों में शौचालय बनाने की बात की थी इस बार भी उन्होंने ढाई करोड़ शौचालय बनाने का काम पूरा होने की बात कही | मोदी के इस बार के भाषण में जहाँ कालाधन  गायब था वहीँ धरती के स्वर्ग कश्मीर के बिगड़ते हालातों और  दलित उत्पीडन की बढती घटनाओंपर कुछ नहीं कहा |   सांसद  आदर्श ग्राम  योजना  की प्रगति , स्वच्छ  भारत , पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढ़ लिए ।   ऐसे मसलों पर देश को पी एम की चुप्पी खूब खली | वह भी स्वतंत्रता दिवस का मौका जब पी एम लाल किले से देश के नाम अपना तीसरा संबोधन कर रहे थे और पिछले दोनों संबोधनों में उन्होंने इस मसले को पूरे देश के सामने उठाया था । 

इस बार पीएम ने पूरे विश्व के सामने पाक को बेनकाब कर दिया | प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान ,गिलगित  ,  पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के हाथों हो रहे मानवाधिकार हनन का मुद्दा उठा कर पाकिस्तान के प्रति सरकार के रुख में बदलाव के कड़े संकेत पहली बार लाल किले से दिए। लाल किले से यह किसी पीएम का पडोसी पर यह पहला सीधा वार रहा |  प्रधानमंत्री ने कहा जब पेशावर के एक स्कूल में आतंकी हमले में बच्चे मारे गए थे तो हमारी संसद में आंसू थे ।  भारतीय बच्चे आतंकित थे । यह हमारी मानवीयता का उदाहरण है लेकिन दूसरी तरफ देखिए जहां आतंकवाद को महिमामंडित किया जाता है ।  पाकिस्तान में बुरहान वानी का  जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह किस तरह की नीति है,जिसमें आतंकवादियों के साथ खुशी मनाई जाती है । 

वैसे प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत ईमानदारी और प्रशासनिक योग्यताओ और बेहतर कप्तान की योग्यताओं  पर शायद ही किसी को संदेह हो क्युकि मोदी एक मंझे  हुए राजनेता हैं और जनता के मूड को बखूबी पढने वाले राजनेता भी जो ऑडियंस देखकर भाषण देते हैं लेकिन लाल किले का इस बार का पूरा भाषण उन्होने न केवल बीच बीच में पर्ची देखकर  पढ़ा बल्कि वह  पानी पीकर धाराप्रवाह बोलते रहे और चुनावी बरस में महज सरकार की उपलब्धियों का ही जिक्र कर वाहवाही लेने की कोशिश की जिसने उस आम आदमी को लाल किले में निराश किया जिसके मन में मोदी ने बीते दो बरस में लाल किले की प्राचीर  से दिए अपने दो भाषणों में  नए  सपने जगाये थे । 

कुल मिलाकर स्वतंत्रता दिवस के अपने तीसरे भाषण में पी एम मोदी का पिछले बरस वाला जोश गायब दिखा | गुजराती दहाड़ भाषण से गायब ही रही शायद पी एम अपनी कैबिनेट इंडिया की फिरकी में उलझकर रह गए जिस कारण कश्मीर के हालातों , दलित उत्पीड़न की बढ़ रही घटनाओं पर  पी एम को न कुछ उगलते बन रहा था और ना ही कुछ निगलते | 

Tuesday 9 August 2016

रुपानीराज में गुजरात की चुनौतियां

                 



जिस समय भाजपा की कोर टीम अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई में यू पी चुनावों की बिसात बिछाने में लगी हुई थी ठीक उसी समय भाजपा शासित राज्यों के माडल स्टेट गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने फेसबुक पर गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश कर भाजपा आलाकमान की चूलें हिलाने का काम कर दिया |  हालाँकि आनंदी बेन के बारे में कई महीनो से कयास लग रहे थे कि वो किसी राज्य की राज्यपाल बनायी जा सकती हैं लेकिन एकाएक इस्तीफे ने भाजपा के भीतर न केवल हलचल मचा दी बल्कि विपक्षियों को भी बैठे बिठाए एक मुद्दा दे दिया |  भाजपा अपने को चाल चलन और अलग चेहरे वाली पार्टी के रूप में प्रचारित कर अक्सर संसदीय लोकतंत्र और पार्टी के संसदीय बोर्ड की दुहाई देकर अपने को पार्टी विथ डिफरेंस कहती आई है लेकिन आनंदी के फेसबुक पर लिखे इस्तीफे ने चुनावी बरस में भाजपा की चिंताओं को तो बढ़ा ही दिया   |

आनंदी  के  इस्तीफे के मजमून  को समझें  तो आगामी 21 नवम्बर को 75 बरस में प्रवेश कर रही हैं लिहाजा बढती उम्र सीमा और नई भाजपा में 75 से अधिक के नेताओं के किसी पद पर विराजमान न होने की लक्ष्मण रेखा के निर्धारित होने के चलते उन्होंने यह फैसला किया है | लेकिन असल सवाल यह है आखिर तीन महीने पहले आनंदी ने इस्तीफे की पेशकश  क्यों की ?आखिर ऐसा क्या हो गया जो उन्होंने पार्टी के फोरम पर गुजरात से जुड़े सवालों को ना उठाकर सीधे सोशल मीडिया पर ही  इस्तीफ़ा दे  डाला ? उम्र तो एक बहाना है इसकी असल वजह भाजपा का गुजरात में दिन प्रतिदिन गिरता जनाधार और अमित शाह के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा भी  रहा | 

22 मई 2014 को आनंदी की जब सी एम पद के रूप में ताजपोशी हुई तो किसी ने भी नहीं सोचा था जिस गुजरात को मोदी ने अपनी छाव तले हिन्दुत्व के तडके के साथ ब्रांड गुजरात के साथ जोड़ने की कोशिश की थी उसी गुजरात में भाजपा के दुर्दिनो की शुरुवात मोदी के 7 रेस कोर्स आने के बाद शुरू हो जाएगी | असल में आनंदी मोदी के जाने के बाद सही मायनों में गुजरात को नहीं संभाल पाई |  आनंदी के कार्यकाल का सबसे बडा  रोड़ा हार्दिक पटेल का पाटीदार आन्दोलन रहा जिसने पूरे गुजरात में भाजपा विरोध की लेकर पैदा कर दी | अगस्त 2015  में पाटीदार आन्दोलन के बाद से ही लग गया था आनंदी से गुजरात संभालना मुश्किल हो रहा है  |  उसके  बाद से ही  पटेलों में असंतोष इस कदर बढ़ गया कि  हाल में संपन्न पंचायत चुनावों और नगर निगम के चुनावों में भाजपा ढेर हो गयी | भाजपा  को  31 में से 23 जिला पंचायतो में करारी हार का सामना करना पड़ा | शहरी इलाकों में जहाँ भाजपा का वोट प्रतिशत 50 फीसदी के आस पास था वहां वह घटकर 43 फीसदी पर जा पहुंचा और विपक्षी कांग्रेस ने अपने ग्रामीण जनाधार में इजाफा कर अपना वोट प्रतिशत 47 फीसदी कर कर डाला | इसके बाद से ही दिल्ली में बैठे भाजपा आलाकमान के तोते उड़ने लगे | रही सही कसर  11 जुलाई को उना में गौ रक्षकों के द्वारा दलितों की निर्मम पिटाई दी पूरी कर दी जिसने सड़क से लेकर संसद तक विपक्षियों को बैठे बिठाए एक बड़ा मुद्दा दे दिया | ऊना काण्ड से  पूरे देश में दलितों के खिलाफ गलत सन्देश पूरे देश में चला गया और पूरे मीडिया ने इसकी व्यापक कवरेज की जिसके चलते गुजरात के फब्बारे की हवा निकल गयी | दलित मुद्दा सियासी बिसात के केंद्र में हर उस राज्य में है जहाँ आगामी समय में चुनाव होने हैं | पंजाब,यू पी और उत्तराखंड के चुनावों में यह मुद्दा हावी होने का अंदेशा बना हुआ था और गुजरात में भी इसको हवा मिलनी शुरू हो गयी थी जिसके चलते भाजपा की छवि और खुद पी एम मोदी की छवि पर ग्रहण लगने की आशंका बनी हुई थी | 

इससे आभास हो चला था कि राज्य में कानून व्यवस्था काफी लचर है और व्यवस्था को संभाल पाने में आनंदी असहज हैं | गुजरात को माडल स्टेट का दर्जा भले ही भाजपा देती रही हो लेकिन असल सच यह है मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात अमित शाह ने हाईजैक कर लिया | आनंदी के समर्थकों की मानें तो राज्य के तमाम मंत्रीगण और आला अधिकारी सीधे अमित शाह को रिपोर्ट करने लगे थे जिससे आनंदी बेन के सामने मुश्किलें खड़ी हो गयी थी और गुजरात के शासन प्रशासन में अपने दखल न होने से वह कई दिनों से खुद को असहज पा रही थी | मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात के हालत खराब हो गए जिसके चलते पार्टी को पूरे देश में बड़ी नाराजगी उठानी पड़ सकती थी इसलिए समय से पहले आनंदी ने इस्तीफे की पेशकश कर भाजपा को राहत देने का काम किया लेकिन आंनदी बेन के उत्तराधिकारी के लिए आंखरी समय तक जिस अंदाज में शह मात का खुला खेल भाजपा के मॉडल स्टेट गुजरात में मचा  उसने पहली बार भाजपा की गुटबाजी को सतह पर ला दिया । 

  गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए नितिन पटेल का नाम लगभग तय हो गया था  लेकिन आखरी समय में  अमित शाह ने बाजी पलट कर रख दी ।  हालाँकि नितिन के अलावे भूपेंद्र सिंह चूड़ासमा, वित्त मंत्री सौरभ पटेल और राज्य बीजेपी अध्यक्ष और जल संसाधन और  विधानसभा अध्यक्ष तथा आदिवासी नेता गनपत वासवा के बीच अगले मुख्यमंत्री के कई दावेदार भाजपा के  सामने आये  लेकिन मोदी और शाह की रजामंदी  रूपानी  पर जाकर टिक गई  ।  यह नई  भाजपा का असल सच है जहाँ मोदी और शाह  दोनों एक दूसरे की जरूरत बन चुके हैं । इसका प्रभाव मंत्रिमंडल विस्तार से लेकर  संगठन सभी जगह देखा जा सकता है जहाँ शाह मोदी की रजामंदी के बिना भाजपा का पत्ता भी नहीं हिलता । 

 अस्सी के दशक में कांग्रेस ने गुजरात में राज करने के लिए खाम यानि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान गठजोड़ बनाया था । इसे टक्कर देने के लिए पटेल समुदाय ने भाजपा का हाथ थामा था  तब से पटेल (लेउवा और कडवा ) भाजपा की ही  गिरफ्त में हैं और पाटीदार आंदोलन के बाद भाजपा किसी  भी तरह  गुजरात में पटेलों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती लिहाजा सारे समीकरणों को साधते हुए उसने नितिन पटेल का नाम डिप्टी सी एम के रूप में चला और मंत्रिमंडल में बड़े पैमाने में पटेल समुदाय को प्रतिनिधित्व दिया ।   वैसे भी गुजरात में अगले बरस चुनावी डुगडुगी  बज रही है लिहाजा विजय रूपानी और  नितिन पटेल  की जोड़ी को आगे कर भाजपा अपना  गढ़  गुजरात  बचाने की अंतिम कोशिश में है । विजय रूपानी को आमतौर पर संगठन का आदमी माना जाता है ।  गुजरात भाजपा में उनकी अच्छी पकड़ है ।  जैन समुदाय से आने वाले रूपानी गुजरात भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर भी काबिज हैं ।   आरएसएस  के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले रूपानी आपातकाल के दौरान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था ।  आपातकाल के दौरान इन्हें जेल भी जाना पड़ा ।  एक सामान्य पार्षद से लेकर गुजरात भाजपा में कद्दावार नेता तक का सफर तय करने वाले रूपानी राजकोट का मेयर भी रह चुके हैं । साथ ही विजय रूपानी आनंदीबेन की सरकार में ट्रांसपोर्ट, वाटर सप्लाय, लेबर व रोजगार मंत्रालय संभाल चुके हैं ।  विजय रूपानी के सांगठनिक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह  चार बार गुजरात भाजपा के महासचिव रह चुके हैं  वहीँ नितिन पटेल गुजरात सरकार में सबसे अनुभवी और वरिष्ठ मंत्री रह चुके हैं ।  वह  गुजरात सरकार के सभी विभागों के मंत्री रह चुके हैं । वह काफी सुलझे हुए नेता हैं  ।  नितिन पटेल गुजरात के मेहसण्डा जिले  ताल्लुक रखते  हैं और मेंहसण्डा पाटीदार आंदोलन का गढ़ रहा  है। भाजपा आलाकमान और  पार्टी नेतृत्व का मानना है कि नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री बनाने से पाटीदार आंदोलन ठंडा पड़ जायेगा ।  गुजरात के मौजूद हालातों के मद्देनजर एक  पटेल को दीप्ती सी एम और पटेलो को मंत्रिमंडल में भागीदारी देने से पाटीदार आंदोलन के सुर ठन्डे पड जाएंगे ।विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय भले ही चौंकाने वाला फैसला है लेकिन मोदी -शाह की जोड़ी ने पहले भी ऐसे कई फैसले लिये हैं ।  हाल के बरस में देखें तो महाराष्ट्र में एकनाथ खड़से की जगह देवेंद्र फड़नवीस को सीएम बनाया गया  वहीँ   जाटलैंड हरियाणा में  पहली बार जाट नेता को किनारे कर एक पंजाबी बिरादरी से आने वाले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया । आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में पहली बार एक गैरआदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को चुना गया । 

अगले बरस गुजरात में चुनाव है जिसमे पी एम  मोदी की प्रतिष्ठा भी दांव  पर है । मोदी के लिए गुजरात की क्या अहमियत है यह इस बात से समझी जा सकती है गुजरात में उनकी जड़ें गहरी हैं जिसके सरदार बनने के बाद ही वह पी एम की कुर्सी पर बैठ पाए । ऐसे में रूपानी के सामने अब बहुत विकट  चुनौती गुजरात के सरोवर में भाजपा का कमल खिलाना है । मोदी के दिल्ली जाने के बाद बीते दो बरस में भाजपा के गुजरात मॉडल पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं । पाटीदारों का गुस्सा जहाँ बरक़रार है वहीँ ऊना  की घटना से दलित आक्रोश अभी थमा  नहीं है । गुजरात की विकास दर भी मौजूदा  दौर में गिर चुकी है वहीँ बेरोजगारी का संकट दिनों दिन बढ़ता जा रहा है । ऐसे हालातों में रूपानी के सामने गुजरात की विकट  चुनौतियां सामने हैं जिनसे पर पाना उनके लिए आसान नहीं होगा  और गुजरात की हार जीत  के साथ उत्तर प्रदेश , पंजाब , उत्तराखंड , मणिपुर , गोवा का चुनाव  2019  में मोदी सरकार का एसिड टेस्ट करेगा  । साथ ही  गुजरात में आनंदीबेन के समर्थको को साधना भी रूपानी के लिए  आसान नहीं होगा क्योंकि जिस तर्ज पर आनंदीबेन के करीबियों को अमित शाह ने ठिकाने  लगाया है उससे   मुश्किलें बढ़नी तय हैं । बहुत सम्भव है आने वाले बरस में होने वाले चुनाव में  टिकट चयन में शाह और रूपानी की ही चलेगी ऐसी सूरत में इन विधायकों को आनंदी के करीबी होने का खामियाजा भुगतना पड़  सकता है । ऐसी परिस्थितियो में रूपानी को  फूक फूक कर कदम रखने होंगे और अपने हर फैसले में नितिन पटेल को भी साधना जरूरी होगा । नितिन पटेल का सी एम बनना पहले से तय था लेकिन आखिरी समय में बाजी अमित शाह ने पलट दी जिससे नितिन भीतर ही भीतर  खफा हैं । उनके समर्थक पटेल समुदाय के लोग इसके खिलाफ राज्य की सडकों पर प्रदर्शन तक कर चुके  हैं । हालांकि संसदीय बोर्ड  के नाम पर रूपानी को सी एम  बना दिया गया है लेकिन गुजरात भाजपा में अब भी सब ठीक नहीं है । अगर ऐसा ही रहा तो  गुजरात में आनंदीबेन के इस्तीफे के बाद  गुटबाजी भाजपा को नुकसान जरूर पहुंचाएगी। नितिन पटेल और विजय रूपानी की आपसी खींचतान में सरकार भले ही अपना कार्यकाल पूरा कर ले लेकिन  एंटी इनकंबेंसी  भाजपा का खेल बिगाड़ न दे  अगर ऐसा हुआ तो यह मोदी और शाह की जोड़ी की भी  हार होगी । अब देखना होगा नए सी एम  रूपानी इन चुनौतियों से कैसे निपटते हैं ?