Sunday, 31 August 2014

पाक को लेकर नए ट्रैक पर मोदी सरकार



 पाकिस्तान  संघर्षविराम का लगातार  उल्लंघन करते हुए जम्मू में नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करने से से बाज नहीं आ रहा है | भारत की तरफ से सचिव स्तर की वार्ता रद्द किए जाने के बाद संघर्षविराम  उल्लंघन के हर दिन नए मामले सामने आ रहे हैं   । अपनी करतूतों से पाकिस्तान ने एक बार फिर अपना घिनौना  चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया है ।  जम्मू कश्मीर से लगी नियंत्रण रेखा पर  भारी गोलाबारी कर पाकिस्तान ने  नवम्बर 2003 की  संघर्ष विराम वाली उल्लंघन की उस लीक पर चल निकला है जहाँ अपनी बर्बर कार्यवाही से वह फिर से कश्मीर को लेकर एक नई किस्सागोई करने में लग गया है क्युकि पाकिस्तान के अन्दर नवाज शरीफ सरकार के सामने जैसा संकट अभी खड़ा है उससे उनका बाहर निकलना मुश्किल दिख रहा है और कश्मीर को ढाल बनाकर पाकिस्तान एक बार फिर अपना बरसो पुराना वही राग अलाप रहा है जिसमे कश्मीर को केंद्र में लाकर हमेशा से नई परिस्थिति सामने लायी जाती रही है  ।  सीमा पार पर अपनी  बर्बर कार्यवाही से जहाँ  पाक  तमाम अन्तरराष्ट्रीय  कानूनों की धज्जियाँ  उड़ाने से बेपरवाह नजर आता है वहीँ कश्मीर को केंद्र में रखकर वह भारत से बातचीत का राग दोहराता रहा है लेकिन बीते दिनों मोदी ने जिस तरीके से विदेश सचिवो की बातचीत को बंद करने का फैसला किया और लाहौर और शिमला के ट्रेक पर अपनी नमो एक्सप्रेस बढ़ाई उसने पहली बार इन सवालों को भी खड़ा किया है क्या मोदी पहली बार नेहरु की नीतियों के आगे बेबस ना होते हुए खुद अपनी बनाई नीतियों तले पूरी दुनिया के सामने पाकिस्तान के असल चेहरे को बेनकाब करने में जुट गए हैं ?

नियंत्रण रेखा तथा अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान द्वारा संघर्षविराम का उल्लघन जारी रखने को  को गंभीर और उकसाने वाला करार देते हुए भारत ने कहा कि यह द्विपक्षीय संबंधों के लिए बहुत अनुकूल नहीं हैं। रक्षामंत्री अरुण जेटली के इस बयान से ठीक पहले  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भावी वार्ता के लिए   कहा था किसी भी सार्थक द्विपक्षीय वार्ता के लिए आवश्यक रूप से एक ऐसा माहौल जरूरी है जो आतंकवाद एवं हिंसा से मुक्त हो |   नियंत्रण रेखा तथा अंतरराष्ट्रीय सीमा दोनों स्तरों पर घुसपैठ संघर्षविराम उल्लंघन गंभीर है और इन घटनाओं से ऐसा माहौल पैदा हो रहा है जो दोनो देशों के बीच संबंधों के लिए बहुत सहायक नहीं रहने वाला | पाकिस्तान द्वारा अगस्त में 24 बार संघर्षविराम उल्लंघन किया गया। इस दौरान दो ग्रामीण मारे गये और चार बीएसएफ जवानों सहित 17 अन्य घायल हो गये जिसकी तस्दीक बी एस ऍफ़ ने   यह कहते हुई  की पाकिस्तानी बलों द्वारा पिछले 45 दिनों से की जा रही यह  गोलाबारी 1971 युद्ध के बाद से संभवत: सबसे भीषण  है । सीमा पार हो रही इस कार्यवाही ने हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है अब पकिस्तान के साथ  किस मुह से हम दोस्ती का हाथ बढ़ाये ? पकिस्तान के साथ दोस्ती का आधार क्या हो वह भी तब जब वह लगातार भारत की पीठ पर छुरा भौंकते  हुए लगातार विश्वासघात ही करता जा रहा है । पाक की दुस्साहसिक कारवाई की जहाँ पूरे देश में निंदा हुई  है वहीँ आम आदमी अब भारतीय नीति नियंताओ से सीधे सवाल पूछ रहा है कि अब समय आ गया है जब पकिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लिए जाएँ तो यह वाजिब सवाल ही  है ।  यही नहीं विपक्ष भी अगर इस बार सरकार  के द्वारा  की  जाने वाली हर कार्यवाही के समर्थन में कदमताल कर रही हैं तो यह सही भी है क्युकि  लगातार होते हमलो  से हमारा  धैर्य अब जवाब दे रहा है । सीमा पार उल्लंघन के जरिये पाक की कोशिश  भारत में उन्माद फैलाने की ही रही है । 
असल में  कारगिल के दौर में भी पकिस्तान ने भारत के साथ गलत सलूक किया था  ।  हमारे प्रधानमंत्री वाजपेयी रिश्तो  में गर्मजोशी लाने लाहौर बस से गए लेकिन  नवाज  शरीफ  को अँधेरे में रखकर मिया मुशर्रफ  कारगिल की पटकथा तैयार करने में लगे रहे । इस काम में उनको पाक की सेना का पूरा सहयोग मिला था । इस बार की कहानी भी पिछले बार से जुदा नहीं है । ताहिर उल कादरी और इमरान की रेड जोन  में फैंकी गयी गुगली ने पहली बार मिया नवाज के संकट को जहाँ बढाया हुआ है वहीँ इसके चलते पहली बार आई एस आई पाकिस्तान के आंतरिक और बाह्य मामलो में अपना सिक्का मजबूत कर रही है | पाकिस्तान में यह सच शायद ही छुपा है कि आई एस आई के बिना पाकिस्तान में पत्ता भी नहीं खड़कता और सेना  भारत के साथ रिश्तो को सुधारने के बजाए बिगाड़ना ही चाहती है । यह उनके द्वारा दिए गए हाल के बयानों में भी  साफ़ झलका है । अभी कुछ दिनों पूर्व उन्होंने भारत को चेताते हुए कहा था समय आने पर भारत को माकूल जवाब दिया जायेगा । इसकी परिणति  अगस्त में 24 बार संघर्षविराम उल्लंघन के दौरान दो ग्रामीण के मारे जाने और चार बीएसएफ जवानों सहित 17  अन्य जवानो के घायल होने के रूप में  हमारे सामने है |


पाक के सियासी संकट पर नजर रख रहे अंतर्राष्ट्रीय जानकारों का मानना है इस कार्यवाही में सेना का पाक के सैनिको को  पूरा समर्थन मिल रहा है ।  पाक में सरकार तो नाम मात्र की है वहां पर चलती सेना की ही है और बिना सेना के वहां पर पत्ता भी नहीं हिला हिलता  । कट्टरपंथियों की बड़ी जमात वहां ऐसी है जो भारत के साथ सम्बन्ध सुधरते नहीं देखना चाहती है ।  ऐसी सूरत में अगर हम बार बार उससे दोस्ती का राग  छेड़ते है  तो यह हजम नहीं होता क्युकि  छलावे के सिवा यह कुछ भी नहीं है । ऐसे में मोदी सरकार द्वारा पाक से बातचीत बंद करने के फैसले को सही ठहराया जाना जायज है और मोदी ने हुर्रियत नेतो को भाव न देकर कश्मीर को लेकर एक नई लकीर अपने सौ दिनों के कार्यकाल में खींचने की कोशिश की |  दुखद पहलू यह है पाक जहाँ  नियंत्रण रेखा पर हो रही घुसपैठ और  कार्यवाही में अपना हाथ होने से  साफ़ इनकार कर रहा है वहीँ भारत सरकार  कह रही है वह हमारे सब्र का इम्तिहान नहीं ले तो यह पहेली किसी के गले नहीं उतर रही । आखिर कब तक हम पाक के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहेगे  और बातचीत से मेल मिलाप बढ़ायेंगे जबकि हर मोर्चे पर वह हमको धोखा ही धोखा देता आया है । इस घटना के बाद हमारे नीतिनियंताओ को यह सोचना पड़ेगा  अविश्वास की खाई  में दोनों मुल्को की दोस्ती में दरार पडनी  तय है । अतः अब समय आ गया है जब हम पाक के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ डालें । हमें अपने उच्चायुक्त को पाक से वापस बुला लेना  चाहिए ताकि पाक के चेहरे को पूरी दुनिया में बेनकाब किया जा  सके ।


 मुंबई  में 26/11 के हमलो में भी पाक की संलिप्तता पूरी दुनिया के सामने ना केवल उजागर हुई थी बल्कि पकडे गए आतंकी कसाब ने  यह खुलासा  भी किया हमलो की साजिश पाकिस्तान में रची गई जिसका मास्टर माइंड हाफिज मोहम्मद  सईद  था । हमने मुंबई हमलो के पर्याप्त सबूत पाक को सौंपे भी लेकिन आज तक वह इनके दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाया है । आतंक का सबसे बड़ा मास्टर माईंड हाफिज पाकिस्तान में खुला घूम रहा है और  भारत  के खिलाफ लोगो को जेहाद छेड़ने के लए उकसा भी रहा है लेकिन आज तक हम पाक को हाफिज के मसले पर ढील ही देते रहे हैं  यही कारण  है वहां की सरकार  उसे पकड़ने में नाकामयाब रही है ।  2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हमले के बाद उसके जमात उद  दावा ने  कश्मीर के ट्रेंनिग कैम्पों में घुसकर युवको को  जेहाद के लिए प्रेरित किया । अमेरिका द्वारा उसके संगठन  को प्रतिबंधित  घोषित  करने  और उस पर करोडो डालर के इनाम रखे जाने के बाद भी पाकिस्तान  सरकार  ने उसे कुछ दिन लाहौर की जेल में पकड़कर रखा और जमानत पर रिहा कर दिया । आज  पाकिस्तान  उसे   पाक में होने को सिरे से नकारता रहा है जबकि असलियत यह है पुंछ  में हाफिज की संलिप्तता कई बार  उजागर भी  हुई है । पाकिस्तान के कब्जे वाले पी ओ  के में हाफिज का जबरदस्त प्रभाव है जो अभी  पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के साथ भारत में घुसपैठ बढाने की कार्ययोजना को तैयार कर रहा है ।  भारतीय गृह मंत्रालय भी अब सीमा पार हो रही गोलाबारी को लेकर चिंतित ही नहीं चौकन्ना हो गया है शायद यही वजह है शिंजो और मोदी की डिनर डिप्लोमेसी से ठीक पहले जापान के पत्रकारों से बात में मोदी ने अपनी विदेश नीति को लेकर पहली बार नई लकीर यह कहते हुए खींची कि घुसपैठ और गोलाबारी के बीच दोनों देशो के बीच बातचीत नहीं हो सकती साथ ही उन्होंने किसी तीसरे पक्ष के साथ मध्यस्थता से भी साफ़ इनकार कर दिया जिसको मोदी की बड़ी कूटनीति माना जा सकता है | । अब ऐसे हालातो में पाक हमसे  बेहतर सम्बन्ध कैसे बना सकता है  ? 


 26 / 11 के हमलो के बाद भारत ने  जहाँ कहा था जब तक 26 /11 के दोषियों पर पाक  कार्यवाही नहीं करेगा तब तक हम उससे कोई बात  नहीं  करेंगे लेकिन आज तक उसके द्वारा दोषियों पर कोई कार्यवाही ना किये जाने के बाद भी हम 200 बिलियन व्यापार , वीजा  नियमो में ढील , क्रिकेट और विदेश सचिवो  के आसरे अगर इस दौर में निकटता बढाने कि सोच  रहे हैं तो यह हमारी लुंज पुंज विदेश नीति वाले रवैये को उजागर करता है । बीते बरस  भारत दौरे पर आये रहमान मालिक से जब 26 /11 के बारे में हमने पूछा तो उन्होंने कहा इवाइडेंस और आरोपों में भेद होता है । अगर भारत सबूत पेश करता है तो पाक 26/11 के दोषियों को सजा देगा । लेकिन यह कैसा सफ़ेद झूठ  है । भारत तो पहले  ही पाक को सभी सबूत पेश कर  चुका  है लेकिन पाक उस पर कोई कार्यवाही  क्यों नहीं करता ?  अब तो  हर घटना में अपना  हाथ होने से इनकार करना पाक का शगल ही बन गया है । लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर युद्ध विराम तो नाम मात्र का है इसके बावजूद भी उस पूरे इलाके में सैनिको के बीच अकसर तनाव देखा जा सकता है और फायरिंग की घटनाएं आये  दिन होती रहती हैं । भारतीय सेना में घुसपैठ की कार्यवाहियां अब पाक की सेना  ही कर  रही है  क्युकि  पाक  का पूरा ध्यान अपने अंदरूनी झगडो  और तालिबान में लगा रहा है । उसे लगता है अगर ऐसा ही जारी रहा तो आने वाले दिनों में कश्मीर उसके हाथ से निकल जायेगा । अतः ऐसे हालातो में वह अब लश्कर और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनो को पी ओ  के  में भारत के खिलाफ एक  बड़ी जंग लड़ने के लिए उकसा रहा  है जिसमे कई कट्टरपंथी संगठन उसे मदद कर रहे हैं । पाक की राजनीती का असल सच किसी से छुपा नहीं है । वहां पर सेना कट्टरपंथियों का हाथ की कठपुतली ही  रही है । नवाज  सरकार तो नाम मात्र की लोकत्रांत्रिक है  असल नियंत्रण तो सेना का हर जगह है ।  पाक इस बार यह महसूस कर रहा है अगर समय रहते उसने भारत के खिलाफ अपनी जंग शुरू नहीं की तो कश्मीर का मुद्दा ठंडा पड  जायेगा । अतः वह भारतीय सेना को अपने निशाने पर लेकर कट्टरपंथियों की पुरानी  लीक पर चल निकला है । आने वाले दिनों में अफगानिस्तान से अमरीकी सेनाओ की वापसी  तय मानी जा रही है ।  ऐसे में भारत को चौकन्ना रहने की जरुरत है  क्युकि  अमेरिकी  सैनिको की वापसी के बाद पाक में कई कट्टरपंथी सेना के जरिये भारत में घुसपैठ तेज कर सकते हैं । कश्मीर का राग पाक का पुराना राग है जो दोस्ती के रिश्तो में सबसे बड़ी दीवार है । ऐसे दौर में हमें पाक पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । 


मारी सेना को ज्यादा से ज्यादा अधिकार सीमा से सटे इलाको में मिलने चाहिए | सीमा पार खराब हालातो के चलते  अब भारत को पाक के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए । उसे किसी तरह की ढील नहीं मिलनी चाहिए । पकिस्तान हमारे धैर्य  की परीक्षा ना ले अब ऐसे बयान देकर काम नहीं चलने वाला क्युकि  सीमा पार की गोलाबारी की घटनाओ ने  हमारे  सैनिकॊ  के मनोबल को   गिराने का काम किया है । पाक के साथ भारत को अब किसी तरह की नरमी नहीं बरतनी चाहिए और कूटनीति के जरिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर उसके खिलाफ माहौल बनाना  चाहिए  साथ ही अमेरिका सरीखे मुल्को से बात कर यह बताना  चाहिए  आतंक के असल सरगना पकिस्तान में  पल रहे हैं और आतंकवाद के नाम पर दी जाने वाली हर मदद का इस्तेमाल पाक दहशतगर्दी फैलाने में कर रहा है । इस समय पाक को  तकरीबन 3 अरब से ज्यादा की सालाना  इमदाद अमेरिका के आसरे मिल रही है जिससे पाक की माली हालत कुछ सुधरी है अन्यथा वहां की अर्थव्यवस्था तो पटरी से उतर चुकी है । आर्थिक विकास  दर  जहाँ लगातार घट रही है वहीँ आतंक के माहौल के चलते कोई नया निवेश नहीं हो पा रहा है । घरेलू गैस से लेकर तेल की बड़ी कीमतों ने संकट बढाया  है तो वहीँ ताहिर उल कादरी और इमरान ने नवाज के नाक में दम कर रखा है | नवाज इस्तीफ़ा देंगे या नहीं यह दूर की गोटी है लेकिन फिलहाल पाक कि सेना ने मोर्चा संभाल लिया है | नवाज और सेना में इस बात को लेकर चर्चा हुई है प्रधानमंत्री नवाज इस्तीफ़ा ना दें और सारे अधिकार सेना को दे दिए जाएँ |   अगर पाक को विदेशो से मिलने वाली मदद इस दौर में बंद हो जाए तो उसका दीवाला निकल जायेगा । ऐसी सूरत में कट्टरपंथियों के हौंसले भी पस्त हो जायेंगे । तब भारत  पी ओ के में चल रहे आतंकी शिविरों को अपना निशाना बना सकता है ।  माकूल कार्यवाही के लिए यही समय बेहतर होगा ।  अब समय आ गया है जब पाक के खिलाफ भारत बातचीत के विकल्पों से इतर कोई बड़ी कार्यवाही की रणनीति  अख्तियार करे क्युकि एक के बाद एक झूठ  बोलकर पाक हमें धोखा दे रहा है और कश्मीर के मसले के अन्तरराष्ट्रीयकरण  के पक्ष में खड़ा है । 


आज तक हमने पाक के हर हमले का जवाब बयानबाजी से ही दिया है । भारत सरकार धैर्य , संयम  की दुहाई देकर हर बार लोगो के सामने सम्बन्ध सुधारने की बात दोहराती रहती है ।  इसी नरम रुख से पाक का दुस्साहस इस कदर बढ  गया है  वह हमारे जवानो के शव धड से अलग कर अंतरराष्ट्रीय नियमो का उल्लंघन करता है और कश्मीर पर मध्यस्थता का पुराना राग छेड़ता  रहता है ।यह दौर नमो सरकार के लिए भी  असली परीक्षा का है  क्युकि  उसी की नीतियां अब पाक के साथ भारत के भविष्य को ने केवल तय कर सकती है बल्कि अंतरराष्ट्रीय  मोर्चे पर यह मामला उसकी कूटनीति के आसरे दुनिया तक पहुच सकती  है । | प्रचंड जनादेश हासिल कर मोदी इस बार गदगद हैं | वह पूरी दुनिया घूमकर भारत के अनुकूल नीतियों को बनाने में लगे हैं | उनकी विदेश नीति  पर इस बार पूरी दुनिया की नजर  है | वह भूटान से लेकर नेपाल और म्यामार से लेकर जापान को अपने आसरे न केवल साध रहे हैं बल्कि पहली बार नेहरु से लेकर इंदिरा की नीतियों से इतर नई राह अपने  विदेश दौरों  में डिनर   डिप्लोमसी से खोल रहे हैं | ऐसे में पाकिस्तान को लेकर उनके इस नए  कदम सीमा पार गोलाबारी और बातचीत साथ साथ नहीं चल सकती, का पूरी दुनिया में स्वागत हो रहा है|  | अब देखना होगा भारत  सरकार कश्मीर  को लेकर अपना क्या रुख आने वाले दिनों में अपनाएगी ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे ?  मोदी एक्सप्रेस के इस नए ट्रेक का इन्तजार सबको है |

Sunday, 17 August 2014

चुनावो के लिए कितना तैयार है दिल्ली ?



केन्द्र की सत्ता अपने नाम कर चुकी भाजपा की नजरें अब दिल्ली के सिंहासन को फतह करने में लगी हुई हैं लेकिन उसकी मुश्किल उसी की पार्टी के कुछ विधायको और आम आदमी पार्टी ने इस दौर में बढाई हुई है | भाजपा और आम आदमी पार्टी के कई विधायक दिल्ली में जहाँ दुबारा चुनाव कराने के मसले पर एकमत नहीं हैं वहीँ दोनों पार्टियों की असल मुश्किल दुबारा चुनाव जीतने को लेकर भी सामने खड़ी है |  हालाँकि दोनों पार्टियों के बड़े नेताओ का दावा है दिल्ली में  मौजूदा स्थिति में विधान सभा चुनाव ही एकमात्र विकल्प बचता है शायद यही वजह है जुलाई महीने में आम आदमी के संयोजक अरविंद केजरीवाल दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग से मुलाकात ने पहली बार इन सवालों को खड़ा किया है कि आम आदमी पार्टी की कोशिश अब जल्द चुनाव में कूदना बन चुकी है |  

पटपडगंज से  पार्टी के विधायक मनीष सिसोदिया की उपराज्यपाल  नजीब जंग से दिल्ली विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की अपील भी इस बात की तस्दीक कराती है जल्द चुनाव होने का लाभ आम आदमी पार्टी  हर हाल में उठाना चाहती है क्युकि उसको लगता है हरियाणा , महाराष्ट्र ,जम्मू  झारखण्ड के बजाए दिल्ली में ही फोकस कर वह अपना जनाधार न केवल बढ़ा सकती है बल्कि केन्द्र  की नमो सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर  सकती है | साथ ही आम आदमी पार्टी  अब उपराज्यपाल के सामने इस बात को कहने से भी किसी रूप में पीछे नहीं हट रही कि कोई भी पार्टी दूसरे पार्टी को समर्थन देने को तैयार नहीं है लिहाजा  जल्द से जल्द चुनाव का विकल्प ही दिल्ली के  सामने खड़ा है लेकिन भाजपा में एक तबका ऐसा है जो आम आदमी पार्टी के एक तिहाई विधायको पर डोरे डालकर उन्हें अपने पाले में कर सरकार बनाने का विकल्प पेश कर रहा है | 

बीते दिनों आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरीके से भाजपा द्वारा कॉरपरेट फंडिंग के आसरे आम आदमी पार्टी के विधायको को खरीदने के आरोप मीडिया के सामने लगाये उससे यह सवाल फिर गहरा गया कि आम आदमी और भाजपा में सरकार बनाने की कोई नई कवायद  परदे के पीछे से चल रही है | दिल्ली में पिछले कुछ महीने  से जोड़-तोड़ की राजनीति का गरमा गरम दौर हमें देखने को मिल रहा है | यहाँ कभी आम आदमी पार्टी यह आरोप लगाती है कि भाजपा सरकार बनाने के लिए कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त कर रही है तो कभी आम आदमी पार्टी विधायको के कांग्रेस के 6 विधायको से संपर्क साधने की खबरें सियासी गलियारों में कुलांचे मारती है लेकिन  फिर झटके में  कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरविन्द सिंह लवली अंदरखाने आप और कांग्रेस विधायकों के सरकार बनाने को साथ आने को सिरे से नकार देते हैं | हालाँकि कांग्रेस के सूत्र इस बात को भी कहने  से पीछे नहीं हटते अगर आप का कोई विधायक कांग्रेस में शामिल होना चाहे तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए

 वहीँ भाजपा से जुड़े कुछ सूत्र बताते हैं भाजपा के विधायक  कांग्रेस और आप के विधायको में आपसी फूट डालकर उनको तोडना चाहते हैं वहीँ भाजपा के कुछ नेता  यह भी कहते हैं  कि हम ऐसी कोई पहल नहीं करना चाहते जिससे हमारी साख पर बट्टा लगे।  दिल्ली में कांग्रेस के वर्तमान  विधायको को आगामी समय में चुनाव होने पर बड़ा नुकसान  झेलने को मजबूर होना पड सकता है | उसके  कई विधायको की हालत  दिल्ली में उनके विधान सभा  क्षेत्र में ठीक नहीं हैं शायद इसका बड़ा कारण शीला दीक्षित के कद का कोई नेता दिल्ली कांग्रेस के पास ना होना है |  वहीँ भाजपा भी चुनाव को लेकर अपने पत्ते फेंटने की स्थिति में नहीं है | उसके तुरूप के इक्के हर्षवर्धन केंद्र की नमो सरकार में मंत्री हैं और जगदीश मुखी से लेकर आरती शर्मा और विजय गोयल से लेकर विजेंदर गुप्ता आउटडेटेड हो चुके हैं और इनको आगे कर भाजपा दिल्ली में कमल खिलाने में नाकाम रह सकती है  लेकिन दूसरी तरफ भाजपा  खुलकर  दिल्ली को लेकर सामने नहीं आ रही है  क्योंकि उसे मालूम है कि दिल्ली की जनता को उसने जो भरोसा दिलाया था वह उसे पूरा नहीं कर पाई है। 

भाजपा ने जिस महंगाई को मुद्दा बनाकर चुनाव लडा उसे वह दूर नहीं कर पाई साथ ही सबसे बड़ा दल होने के बाद भी वह सरकार बनाने से पीछे हट गयी और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिलकर 49 दिनों की सरकार चलायी  जिसके  चलते  भाजपा की दिल्ली में  लोकप्रियता में  भारी गिरावट हाल के दिनों में देखने को मिली है | वहीँ केजरीवाल के हाथ भले ही मुख्यमंत्री पद की कुर्सी ना हो लेकिन समाज के मजदूर और पिछड़े तबके के साथ ही  मध्यम वर्ग  और युवाओ का एक बड़ा वोट बैंक उनके साथ आज भी जुड़ा हुआ है | दिल्ली भाजपा की असल परेशानी यहीं से शुरू होती है |  


दिल्ली में भाजपा के नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय का बीते दिनों अल्पमत सरकार भाजपा द्वारा बनाये जाने का विकल्प भी दिल्ली में नई संभावनाओ का द्वार खोल रहा है लेकिन प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ,  भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जोड़ तोड़ की सरकार इस सूरत में बनाये जाने के पक्ष में नहीं है क्युकि आने वाले दिनों में हरियाणा , महाराष्ट्र , झारखंड , जम्मू सरीखे कई राज्यों में  चुनाव होने हैं और दिल्ली में जोड़ तोड़ की  भाजपा सरकार अगर बनी तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है साथ में नरेन्द्र मोदी की भ्रष्टाचार को लेकर जीरो  टोलरेंस की छवि पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ने के आसार हैं हालाँकि अतीत में यूपी, झारखण्ड सरीखे राज्यों में भाजपा जोड़ तोड़ की सरकार बना चुकी है जिसका भारी नुकसान उसे झेलना पड़ा था अब इस बार जब केंद्र में वह नमो की अगुवाई में प्रचंड बहुमत लेकर सत्तासीन हुई है तो उसके सामने जनता की भारी अपेक्षाओ को पूरा करने का भारी दवाब है शायद यही वजह है वह कई  राज्यों के चुनावी  बरस में जोड़ तोड़ की सरकार बनाये जाने के सख्त खिलाफ दिख रही है | 

भाजपा के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का 11 , अशोका रोड में हाल के दिनों में दिया गया संबोधन भी मायने रखता है जब उन्होंने कार्यकर्ताओ से अब विभिन्न राज्यों में पार्टी को सत्ता में जोर शोर से लाने का आह्वान किया | इधर  दिल्ली में नजीब जंग ने मौजूदा माहौल को भांपते हुए  सभी पार्टियों से बात करने के बाद दिल्ली की फिजा का कोहरा साफ़ होने का कार्ड खेल दिया है |  हालाँकि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व इस बात को भी समझ रहा है अभी जल्द चुनाव भाजपा के पक्ष में नहीं हैं क्युकि केन्द्र की भाजपा सरकार बमुश्किल अभी 60 दिन ही पूरे कर पायी है जो कि उसका हनीमून पीरियड ही है और प्रधानमंत्री मोदी भी खुद इस बात को दोहरा चुके हैं कांग्रेस सरकार के साठ बरसों की तुलना लोग उनके 60 दिनों के कार्यकाल से ना करें | लिहाजा इस बात की उम्मीद बंध रही है दिल्ली में भाजपा किसी भी तरह राष्ट्रपति शासन की अवधि आने वाले 6 महीने और बढाने में अपना पूरा जोर लगा दे और फिर फरवरी मार्च में दिल्ली में चुनावो के दंगल में नमो सरकार की उपलब्धियों के आसरे  कूदा जाये | तब तक केंद्र की नमो सरकार के पास उपलब्धियों का खजाना न केवल होगा बल्कि रोजमर्रा की महंगाई और क्रूड आयल के दाम भी अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में गिर चुके होंगे |  


दिल्ली में हाल के दिनों में  बिजली पानी  से लेकर पेट्रोल और सीएनजी के दामो में उतार चदाव देखने को मिला है |  दूसरी ओर अपने को चाय बेचने वाले का बेटा कह लोगों को कॉर्पोरेट के आसरे चमचमाते कायकल्प होने के सपने दिखाने वाले नरेंद्र मोदी से चुनाव निपटने के बाद  जनता की अपेक्षाएं इस कदर बड़ी हुई है आने वाले  पांच बरस में उनके पूरे होने पर सभी की नजरें लगी हुई हैं |  वैसे उनके 60 दिन के कार्यकाल  में आम आदमी ही सबसे ज्यादा  निराश हुआ है और महंगाई की सबसे अधिक मार इसी तबके ने झेली है |  

जिस नरेंद्र मोदी सरकार ने कांग्रेस मुक्त भारत का सपना लोक सभा चुनावो के चुनाव प्रचार के दौरान दिखाया था  वह  सरकार भी अब  कांग्रेस के पग चिन्हों पर चलती दिखाई दे रही है | बीमा और ऍफ़ डी आई सरीखे मसलो पर कभी कांग्रेस को घेरने वाली भाजपा आज सत्ता में आने के बाद अब इन सबको लागू करने का मन अपने बजट में बना चुकी है तो स्थितियों को बखूबी समझा जा सकता है | महंगाई  लगातार बढ़ रही  हैं लेकिन सरकार इसके लिए जमाखोरों को दोषी ठहरा रही है | कभी विपक्ष में रहने पर  भाजपा ने सत्ता में आने पर 30 फीसदी  की सब्सिडी और बिजली पर  700 करोड़ की सब्सिडी देने का वादा किया था जिससे उन्होंने आज पल्ला झाड लिया है |  

अगर चुनाव हुआ तो  दिल्ली की यह पब्लिक हर वादे का  जवाब  भाजपा से मांगेगी और अगर नमो सरकार की घोषणाएं दिल्ली में कोरी लफ्फाजी में ही आने वाले दिनों में रहती हैं तो दिल्ली भाजपा की मुश्किलें आने वाले चुनाव में बढ़नी तय हैं | साथ ही किसी चेहरे को आगे ना करने की बड़ी कीमत उसे आने वाले समय में उठाने को मजबूर होना पड सकता है | 

से में सवाल घूम फिर कर प्रधान मंत्री मोदी पर ही जाता है जिनको आगे कर वह दिल्ली का ताज अपने नाम कर सकती है लेकिन मोदी को भी इस बात को समझना जरुरी होगा कि लोक सभा चुनाव और विधान सभा के चुनावों में जनता का मूड अलग अलग होता है जिसके ट्रेंड को हम हाल के कुछ वर्षो से देश में बखूबी देख भी रहे हैं | अतः कहानी घूम फिरके विकास पर ही केन्द्रित होकर  जाती है जिसको प्रधान मंत्री मोदी भी बखूबी समझते हैं और वह खुद गुजरात में अपने माडल के आसरे भाजपा को दशको से सत्ता में लाते भी रहे हैं | ऐसा विकास का माडल उनको जल्द  दिल्ली के लिए भी प्रस्तुत करना होगा |  वैसे  देश को अभी  उनसे बड़ी आशाएं हैं |    

इस समय दिल्ली में अगर चुनाव हुए तो आम आदमी पार्टी पूरे फायदे में नजर आएगी | पार्टी का मनोबल अभी यहाँ काफी  ऊंचा है  जिसे वह भुनाना  भी चाहती है। जंतर मंतर पर बीते दिनों ई रिक्शा चालको और ऑटो चालको  को फिर साधकर केजरीवाल ने  जिस अंदाज में अपना शक्ति प्रदर्शन किया है उसने इस बात को तो बता ही दिया है देश में केजरीवाल का जादू भले ही ना चला हो लेकिन दिल्ली में आज भी केजरीवाल सब पर भारी पड रहे हैं  और शायद  इसकी  सबसे बड़ी वजह दिल्ली में उनके साथ जुडा मजबूत  जमीनी संगठन है |  

दिल्ली की गद्दी छोड़कर  लोक सभा चुनावो में जल्द कूदने को अपनी भारी भूल बता चुके केजरीवाल इस बात को समझ रहे हैं आम आदमी के वोटर के साथ वह  अपनी इस  भावनात्मक अपील के साथ  जुड़ना चाहते हैं वहीँ  जनता भी  केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद छोड़ने को  अभी भूली नहीं है। महंगाई पर भाजपा की विफलता , बिजली पानी की बड़ी कीमतों से दिल्ली में अगर कोई सबसे ज्यादा लाभ लेने की  स्थिति में आज  है तो वह आम आदमी पार्टी ही  है | 

कांग्रेस के पास शीला दीक्षित का विकल्प नहीं है वहीँ भाजपा  में हर्षवर्धन के कद काठी का कोई चेहरा नहीं है जो भाजपा को अच्छी सीटें दिल्ली में दिला सके | किरन बेदी का नाम भाजपा में इस समय सी एम के रूप में सियासी गलियारों में चल जरुर रहा है लेकिन पार्टी के दिल्ली के कई नेता यह नहीं चाहते  किरन बेदी की पार्टी में इंट्री  करवाकर सीधे  मुख्यमंत्री के सिंहासन पर उनको बैठा दिया जाए | 

वैसे भाजपा में अमित शाह और मोदी की जुगलबंदी अब न केवल अपने अनुरूप बिसात दिल्ली में  बिछाएगी बल्कि अब पहली बार पोटली और ब्रीफकेस के जरिये भाजपा में राजनीती करने वाले के दिन भी लद गए हैं |  इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता आने वाले समय में दिल्ली में भाजपा उसी को टिकट देगी जो मोदी और शाह की  सियासी  बिसात में फिट बैठेगा | बहरहाल भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी  तीनों दलों की दिल्ली के दंगल में  त्रिकोणीय लड़ाई के बीच यह कह पाना बड़ा मुश्किल है कि आने वाले विधान सभा चुनावो में कोई भी दल  अपने दम पर अकेले सरकार बना लेगा | फिलहाल तो चुनावी डुगडुगी बजने का इन्तजार ही हमें करना पड़ेगा |


Tuesday, 12 August 2014

हरीश रावत की आंधी में पस्त हो गयी उत्तराखंड भाजपा




 उत्तराखंड में  विधानसभा उपचुनाव के ठीक  बाद पंचायत चुनावो में  चली मुख्यमंत्री हरीश रावत की सुनामी  ने यह जतला दिया है कि राज्य में अब मोदी की हवा इस कदर निकल चुकी है कि लोगो का नमो  से  धीरे धीरे मोहभंग हो चला है | लोक सभा चुनाव  के बाद अब  इससे हरीश रावत फैक्टर उत्तराखंड में निश्चित ही मजबूत हो गया है वहीँ  नमो की लहर औंधे मुह गिर चुकी है शायद इसी वजह  से भाजपा को धारचूला, सोमेश्वर और डोईवाला  में करारी हार का सामना करने को मजबूर होना पड़ा  है | इस जीत का सीधा प्रभाव कांग्रेस के मनोबल को बढाने के साथ ही आने वाले समय में हरियाणा  , महाराष्ट्र और झारखंड, जम्मू  के विधान सभा चुनावो और कई राज्यों में विधान सभा उपचुनाव में पड़ने के आसार हैं | 


 मोदी लहर  में उत्तराखण्ड की पांचों लोकसभा सीटें बीजेपी के खाते में जहाँ गई थी वहीँ  भाजपा में  डॉ निशंक और भगत सिंह कोश्यारी सरीखे लोग अपने को बड़ा तीस मार खान समझने लगे थे लेकिन  विधानसभा उपचुनाव के ठीक बाद हुए पंचायत चुनाव के परिणामो  के बाद उत्तराखण्ड भाजपा को सांप सूंघ  गया है शायद यही वजह है  भाजपा के नवनियुक्त राष्ट्रीय  अध्यक्ष  अमित शाह के निशाने पर पहली बार उत्तराखंड भाजपा का ऐसा चेहरा सामने आया है जो  बाबा रामदेव के साथ अपनी गलबहियो के जरिये मोदी मंत्रिमंडल में उत्तराखंड से शामिल होने का हर दाव अंतिम समय  तक  खेलने से बाज नहीं आया लेकिन उस  शख्स के  अतीत को देखते हुए मोदी टस से मस नहीं हुए और किसी एक सांसद पर सहमति न बनने की सूरत में उन्होंने उत्तराखंड से किसी को केंद्रीय  मंत्रिमडल में शामिल नहीं किया  |

गौरतलब है निशंक पर एनआरएचएम, सिटजुरिया से लेकर कुम्भ में  करोडो के वारे न्यारे करने के संगीन आरोप लगे हैं लेकिन इसके बाद भी निशंक अपने प्रबंधन से इस बार  हरिद्वार से  लोक सभा चुनाव जीत गए वहीँ उत्तराखंड से कैबिनेट मंत्री के तौर पर बी सी खंडूरी की सबसे मजबूत दावेदारी मानी जा रही थी लेकिन सत्तर के  खांचे में वह खुद कोश्यारी के साथ फिट नहीं बैठे जिसके चलते उनकी दावेदारी भी अंत समय में धरी की धरी रह गयी |  उत्तराखंड में भाजपा की यह गुटबाजी कोई नई नहीं है | तीनो पूर्व मुख्यमत्री  कोश्यारी ,खंडूरी और निशंक ने पहले तो राज्य में आपसी प्रतिद्वंदिता सी एम की कुर्सी पाने को लेकर की  बाद में इसी गुटबाजी का भारी नुकसान  भाजपा को उठाने पर उस समय मजबूर होना पड़ा जब राज्य के बीते विधान सभा चुनाव में पार्टी कांग्रेस से दो सीटें पीछे रही थी |  भाजपा की इस दुखती रग का पूरा फायदा इस बार हरीश रावत ने उठाया  और  उत्तराखंड में सरकार को मजबूत बनने में  सफलता पायी  | इसी बिसात पर   हरीश रावत ने एम्स से अपनी रणनीतियो को इस कदर अंजाम दिया कि भाजपा के बड़े बड़े सूरमा धराशायी हो गए |  


कोश्यारी , निशंक , खंडूरी की गुटबाजी ने इस बार पंचायत चुनावो और उपचुनाव में भाजपा का जायका ही  खराब करवा दिया और पहली बार अमित शाह को 24, अशोका रोड में परिणाम आने के बाद डॉ निशंक को कड़ी लताड़ लगाने को मजबूर होना पड़ा |   उत्तराखंड के उपचुनाव में  दो सीटें डोईवाला और सोमेश्वर ऐसी थी  जो भाजपा विधायकों के सांसद बनने  से रिक्त  हुई थीं। इन दोनों सीटों के खोने से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इतने नाराज हैं कि उत्तराखंड के भाजपा अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत को दस मिनट की तगड़ी लताड़ अमित शाह से सुनने को मिली है जिसके बाद उन्हें तत्काल देहरादून वापस लौटने को मजबूर होना पड़ा | 


अब अमित शाह से अगली बार तीरथ रावत जब मिलेंगे तो वह  हर बूथ का रिपोर्ट कार्ड ले जाना नहीं भूलेंगे जहाँ अभी तीन सीटो पर उपचुनाव हुए हैं | वैसे मोदी लहर में पांच सीटें उत्तराखंड में अपने नाम करने से भाजपा इतना गदगद थी कि पंचायत चुनावो और उपचुनावों  और पंचायत चुनावो को उसने हलके में लेना शुरू कर दिया था | उत्तराखंड में लोक सभा चुनावो के बाद कहा तो यहाँ तक जा रहा था सतपाल महाराज हरीश रावत सरकार को लोक सभा चुनावो के बाद गिरवा देंगे जिससे कांग्रेस पर संकट के बादल मडरा जायेंगे लेकिन खांटी कांग्रेसी हरीश ने उत्तराखंड के जननेता के तौर पर उपचुनाव  में  अपने को बखूबी साबित कर दिखाया है | 


 हरीश के  मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद से विजय  बहुगुणा इतना नाराज हो चले थे कि कैबिनेट मंत्री हरक  सिंह रावत को आगे कर वह दस जनपथ में अपनी नाखुशी को अहमद पटेल  , अम्बिका सोनी , जनार्दन द्विवेदी और सोनिया  गाँधी के सामने जाहिर कर चुके थे लेकिन हरीश रावत ने अपने प्रबंधन और कौशल से ना  केवल उपचुनाव में  बल्कि पंचायत चुनावो में भी कांग्रेस को जीत दिलवाकर अब अपनी राहें उत्तराखंड में मजबूत कर ली हैं |

हरीश की मृदु भाषिता , सादा जीवन , कार्यकर्ताओ से सीधा संवाद और जमीनी नेता के तौर पर पहचान न केवल उनको उत्तराखंड के अन्य नेताओ से अलग करती है बल्कि यही पहचान सब पर भारी पड़ती है | सत्तर के दशक से शुरू हुई हरीश रावत  की राजनीतिक यात्रा आज जिस पड़ाव पर है उसमे कई उतार चदाव हमें देखने को मिलते हैं | ब्लाक प्रमुख , प्रदेश यूथ कांग्रेस महासचिव के तौर पर शुरू  हुई उनकी राजनीतिक  यात्रा आज सी एम पद के पड़ाव पर है लेकिन रावत की राजनीतिक महत्वाकांशा के पर अगर किसी ने कतरे तो वह अविभाजित उत्तर प्रदेश एके मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे जिनका हरीश रावत के साथ शुरू से छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर रहा और समय समय पर इसी प्रतिद्वंदिता की मार हरीश को अपने राजनीतिक जीवन में झेलने को मजबूर होना पड़ा | 

 हरीश रावत को एन डी तिवारी घोर ब्राह्मण विरोधी नेता के तौर पर साबित करने से कभी पीछे नहीं हटे | पहाड़ के राजनीतिक मिजाज को देखें तो यहाँ वोटो का ध्रुवीकरण ब्राह्मण बनाम ठाकुर मतों के आधार पर होता आया है और हरीश रावत भी अपने राजनीतिक जीवन में इससे नहीं बच सके यह अलग बात है अब हरीश रावत सभी को विकास के आसरे साधने की कोशिश कर रहे हैं और अब उत्तराखंड भी बदल रहा है शायद यही वजह है अब लोग जातिवादी राजनीती से इतर पहली बार विकास के आधार पर वोट कर रहे हैं |  उत्तराखंड बनने के बाद हरीश रावत का मुख्य मंत्री पद पर दावा सबसे मजबूत था लेकिन नारायण कवच ने उनकी राह पर स्पीड ब्रेकर लगाये वही बाद में विधायको के ना चाहते हुए 2012  में विजय बहुगुणा को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया  तब भी हरीश रावत ही प्रबल दावेदार थे | 

उस दौर को याद करें तो जेहन में 9 तीन मूर्ति लेन आता है जब रावत के समर्थको ने आलाकमान के इस फैसले को कड़ी चुनौती दी थी बाद में आलाकमान ने हरीश रावत को कैबिनेट मंत्री बनाने का फैसला लिया जिसके बाद मामला थोडा ठंडा पड़ा लेकिन इससे बहुगुणा की मुश्किलें कम नहीं हुई | केदारनाथ के बीते बरस के हादसे ने विजय बहुगुणा का विकेट गिरा दिया लेकिन बहुगुणा ने  जिस अंदाज में उत्तराखंड में पारी खेली और आपदा के दौर में अपने को प्रभावित इलाको से दूर कर लय वैसी मिसाल हमें कहीं देखने को नहीं मिलती | अपने कार्यकाल में बहुगुणा के बेटे साकेत उत्तराखंड के सबसे बड़े  सुपर पावर सेण्टर के रूप में काम करने लगे  जिसके चलते लोग परेशान  हो गए | इसी दौर में करोडो के वारे न्यारे भी हुई और साकेत और विजय बहुगुणा की सम्पत्ति  में भी  सेंसेक्स की तरह उछाल आ गया | विजय बहुगुणा कार्यकर्ताओ को मिलने का समय नहीं दे सके लेकिन कॉर्पोरेट घरानों को अपने पक्ष में कर उत्तराखंड में सरकार चलाते रहे |

 तीनो सीटें  उत्तराखंड उपचुनाव में अपने नाम कर चुकी कांग्रेस अब इस जीत के बाद मजबूत हुई है राज्य में उसके विधायको की संख्या 35 हो गयी है | इसी के साथ ही अब वह पीडीएफ की गठबंधन की बैसाखियों पर भी नहीं टिकी है | बहुत संभव है आने वाले दिनों में हरीश अब अपने कैबिनेट मे बड़ा फेरबदल कर निर्दलीय और बसपा , यू के डी का प्रतिनिधित्व कम कर दें जिससे कांग्रेस के ज्यादा विधायक कैबिनेट में जगह पाने में कामयाब हो जाएँ |
     
 इस हार के बाद उत्तराखंड भाजपा के प्रदेश कार्यालय में माहौल  बदला बदला सा नजर आ रहा है | उपचुनावों के परिणाम जिस दिन आये उस दिन डोईवाला से भगत सिंह  कोश्यारी के हनुमान   त्रिवेन्द्र सिंह रावत के समर्थको ने हार का ठीकरा सांसद  डॉ निशंक पर फोड़ा है जिनके समर्थको ने भीतर घात कर त्रिवेन्द्र रावत को हरवा दिया | वैसे निशंक उत्तराखंड में इस  तरह के आरोप कोई पहली बार नहीं झेल रहे हैं | निशंक के भीतरघात का शिकार पूर्व में ईमानदार मुख्यमंत्री रहे सांसद बी सी खंडूरी भी हो चुके हैं जहा निशंक के समर्थको ने मिलकर खंडूरी को विधान सभा का चुनाव हरवाने में अपनी सारी ताकत लगा दी थी जिसके बाद  जनरल खंडूरी की हार ने प्रदेश की जनता को चौका दिया था  |दरअसल निशंक इस बात को नहीं पचा सके 2012 के विधान सभा चुनावो से ठीक तीन महीने पहले उनको हटाकर खंडूरी को राज्य की कमान दी गयी |  

खंडूरी अपने दम पर भाजपा के जहाज को तीस सीटो के पार  कांग्रेस की दहलीज पर पंहुचा  गए लेकिन उनकी कोटद्वार  से हार के चलते सी एम नहीं बन सके |   इसके बाद पार्टी आलाकमान ने तीनो पूर्व मुख्यमंत्री की गुटबाजी से पार पाने के लिए इस  बरस का लोक सभा चुनाव लडाया जिसमे मोदी लहर चली और भाजपा भी राज्य की सारी सीटें जीतने में कामयाब हो गयी | अब तीनो उपचुनाव में सूपड़ा साफ़ होने और सिर्फ गढ़वाल में मात्र दो  पंचायतो में भाजपा के आने से अब उत्तराखंड भाजपा के बुरे दिन आने तय हैं | अमित शाह की तगड़ी लताड़ दिल्ली में सुनकर आये एक संगठन मंत्री की माने तो अब भविष्य में भाजपा के किसी सांसद की मोदी मंत्रिमंडल में दावेदारी की संभावनाएं समाप्त ही हो गयी हैं |


उपचुनावों और पंचायत चुनाव में जीत का सेहरा अगर किसी पर बंधता है तो वह बेशक मुख्यमंत्री हरीश रावत ही हैं जिन्होंने एम्स में एडमिट होने के बाद भी अपनी रणनीति और कौशल से कांग्रेस की राज्य में पताका फहरायी | लोकसभा चुनावो से  पहले कांग्रेस ने प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन कर सांसद हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन   रावत को विधायक न होने के कारण उन्हें विधानसभा  का सदस्य 31 जुलाई तक बनना  जरूरी था। डोईवाला से  निशंक और सोमेश्वर से अजय टम्टा  के सांसद चुने जाने के कारण दोनों सीटें खाली हो गई । उत्तराखंड में सुगबुगाहट शुरू से यह थी  कि मुख्यमंत्री डोईवाला से उपचुनाव लड़ेंगे लेकिन  डोईवाला में लोक सभा चुनावो में भाजपा को मिली बाईस हजार वोटो की लीड ने हरीश की चिंता को बढ़ा दिया जिसके बाद उन्होंने धारचूला विधान सभा ने ताबड़तोड़ घोषणाएं करनी शुरू कर दी |  धारचूला के विधायक हरीश धामी ने अपने राजनीतिक गुरु हरीश रावत को गुरु दक्षिणा में धारचूला सीट दे दी  | हरीश धामी ने धारचूला सीट से इस्तीफ़ा दिया जिसके बाद हरीश रावत ने  वहां से चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। मुख्यमंत्री के इस निर्णय को  विपक्षी भाजपा ने बखूबी लपकने में देरी नहीं लगाई और उसी का परिणाम सबके सामने आया जहाँ कांग्रेस ने उपचुनाव के साथ ही पंचायत चुनावो में भी भाजपा का सूपड़ा साफ़ करवा दिया | 

उत्तराखंड में जिला पंचायत अध्यक्ष और उपाध्यक्षों के लिए चुनाव में भी कांग्रेस ने भारी जीत दर्ज की है| राज्य के 12 जनपदों में हुए 12 जिला पंचायत अध्यक्ष और उपाध्यक्षों के चुनाव में कांग्रेस समर्थित प्रत्याशियों  ने जीत हासिल की | यही नहीं आठ महिलाओं में सात जिला पंचायत अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष पद भी कांग्रेस की झोली में गया | अल्मोड़ा जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर पार्वती देवी और उपाध्यक्ष पद पर शिवेन्द्र सिंह, बागेश्वर से हरीश चंद्र सिंह और उपाध्यक्ष पर देवेन्द्र सिंह परिहार, चंपावत से अध्यक्ष पद पर खुशहाल सिंह और उपाध्यक्ष पर देवकी देवी, नैनीताल,पिथौरागढ जिले से प्रकाश जोशी व वीरेन्द्र सिंह, उधमसिंह नगर से ईश्वरी प्रसाद गंगवार व संदीप चीमा,देहरादून से चमन सिह व डबल सिह,पौड़ी से दीप्ती रावत व सुमन कोटनाला,चमोली से मुन्नी देवी व लखपत सिह बुटोला,टिहरी से सोना देवी व श्याम सिंह,उत्तरकाशी से जसोदा राणा व प्रकाश चन्द्र और  रूद्रप्रयाग से लक्ष्मी राणा व लखपत सिह विजयी घोषित किये गये है | प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के नेतृत्व में उत्तराखण्ड राज्य के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में कांग्रेस पार्टी को मिली भारी सफलता ने कांग्रेस के प्रति जनता के विश्वास को  फिर से मजबूत कर दिया है | पार्टी में इन परिणामों को लेकर भारी उत्साह का माहौल बना दिया है वहीँ भाजपा यह नहीं समझ पा रही है दो महीने में ऐसा क्या हो गया जो भाजपा की लहर फींकी पड गई |

डोईवाला  और सोमेश्वर सीट पर उपचुनाव  से भाजपा को काफी उम्मीदें थीं।  डोईवाला में भाजपा के तीनों पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार में उतरे  लेकिन आपसी गुटबाजी के कारण पार्टी को यहां पराजय का सामना करना पड़ा। दरअसल, डोईवाला सीट को लेकर तीनों पूर्व मुख्यमंत्री अपने-अपने लोगों को टिकट दिलाने के लिए लाबिंग करने में लगे थे  | पार्टी आलाकमान ने डोईवाला से दो बार विधायक रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को टिकट दिया जिन्होंने अमित शाह के के साथ यू पी में सह राज्य प्रभारी के तौर पर काम किया । लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत अपनी पार्टी को यह सीट दिलाने में नाकाम रहे। सोमेश्वर सीट भी भाजपा से कांग्रेस ने  इस उपचुनाव में छीनी । सोमेश्वर से पहले पार्टी ने रेखा आर्या को टिकट देने का वादा किया था लेकिन अपना टिकट भाजपा से कटता देख रेखा आर्या को कांग्रेस में शामिल करवाकर हरीश रावत ने अपना मास्टर स्ट्रोक  खेल दिया और टिकट चयन में भाजपा को पछाड़कर कांग्रेस को चुनाव प्रचार में  कहीं आगे  खड़ा कर दिया |

एम्स में एडमिट  होने के बावजूद वह चुनाव प्रचार में नहीं जा सके लेकिन संगठन के अपने बरसो की पकड़ को उन्होंने पंचायत चुनावो में साबित कर दिखाया जब अपने भरोसेमंद साथियो और कैबिनेट मंत्रियो को लोक सभा चुनाव के ठीक बाद पंचायत चुनाव का मोर्चा संभालने में उन्होंने लगा दिया जिसका प्रतिफल आज उनके सामने दिख रहा है |  कांग्रेस की उत्तराखंड में इस जीत से उन कार्यकताओ में नई उर्जा का संचार निश्चित ही होगा जहाँ आने वाले दिनों में विधान सभा चुनाव और उपचुनाव होने हैं |  

इस जीत के बाद हरीश रावत का कद  कांग्रेस  शासित राज्यों के  मुख्यमंत्री के तौर पर बडा है साथ ही उन्होंने आलाकमान को भी यह बता दिया है वह अगर  विजय बहुगुणा को पहले राज्य में  सी एम नहीं बनाता तो शायद उत्तराखंड में लोक सभा चुनावो की सभी सीटें कांग्रेस के नाम हो जाती | वैसे हरीश रावत ने फरवरी में राज्य की कमान संभाली इस लिहाज से लोक सभा चुनावो में जाने में उनको कम समय लगा लेकिन अनिल कपूर के  ‘नायक’  फिल्म के अभिनय की तर्ज पर उत्तराखंड में हरीश रावत  ने टी ट्वेंटी अंदाज में न केवल लोगो से सीधा संवाद कायम किया बल्कि अपने ताबड़तोड़ विकास कार्यो से लोगो का दिल जीतने में कोई कसर नहीं दिखाई |  वहीँ  पार्टी के भीतर  उनके विरोधी गुट यशपाल आर्य और विजय बहुगुणा ,हरक सिंह रावत और पी डी ऍफ़ को साधकर हरीश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने से बाज नहीं आये लेकिन  राजनीती के माहिर खिलाडी हरीश रावत कमजोर नहीं पड़े | उन्होंने अपने अंदाज में विरोधियो को धूल चटाई और अपनी पार्टी की गुटबाजी पर लगाम लगाई | 


इस दौर में उन्होंने अपने करीबी किशोर उपाध्याय को न केवल प्रदेश अध्यक्ष बनवाया बल्कि सभी विधायको को लाल बत्ती का लालीपाप देकर अपनी सरकार की चाल हाईवे पर बढाई |   आम चुनाव में 5-0 से  हार के बाद से ही विरोधी गुटों का दबाव   मुख्यमंत्री हरीश रावत  पर बढ़ रहा था |    कहा तो यहाँ तक जा रहा था  आम चुनाव के बाद जिस अंदाज में मोदी लहर चली है उससे हरीश रावत सरकार पर भी अस्थिरता के बादल मडरा रहे हैं लेकिन  हरीश रावत ने अपनी राजनीतिक कौशल से  विरोधियो की बोलती बंद कर दी |

हाल के इन नतीजो का  असर गठबंधन सरकार पर पड़ने की अब  पूरी सम्भावना है | अब मुख्यमंत्री हरीश रावत पीडीएफ की घुड़कियो से बेपरवाह होकर काम भी कर सकेंगे |  70  सीटों वाली  उत्तराखंड विधानसभा में कांग्रेस के 35 विधायक हो गए हैं |    7 विधायकों वाले पीडीएफ के पांच विधायक वर्तमान सरकार में मंत्री हैं। अब कांग्रेस  हरीश लहर में सत्ता के  करीब पहुंच गई है |  बहुमत के लिए उसे महज  एक विधायक का समर्थन  चाहिए|   बहुत संभव है आने वाले दिनों में   हरीश रावत   मंत्रिमंडल में बड़ा फेरबदल करें जिसमे वह ज्यादा  से ज्यादा कांग्रेस के विधायको  को जगह देने का प्रयास करेंगे  |  
बहरहाल,  जो भी हो  उपचुनाव और पंचायत चुनाव में   जीत के बाद हरीश रावत उत्तराखंड में मजबूत स्थिति में नजर आ रहे हैं | अब उनके सामने अपने शासन में की गयी घोषणाओ को अपने बचे कार्यकाल में उतारने की  कठिन चुनौती सामने खड़ी है | साथ ही उत्तराखंड के आम आदमी तक विकास की किरण पहुचाने का प्रयास भी उनके द्वारा होना चाहिए तभी बात बनेगी | असल चुनौती तो बेलगाम नौकर शाही पर लगाम लगाने  और उसे पटरी पर लाने की है जिसका सिक्का उत्तराखंड के राजनीतिक गलियारों में आज भी बढ़ चदकर चलता है | देखना होगा  जमीनी हकीकत को  समझने वाले जननेता हरीश रावत आने वाले दिनों में किस तरह की कार्यशैली आने वाले दिनों में उतारते हैं ?  इंतज़ार सबको है |    


Monday, 4 August 2014

जातीय राजनीती के दलदल में बिहार





राजनीती में कोई दोस्त और दुश्मन नहीं होता | राजनीति हार और जीत की संभावनाओ का खेल है | बिहार में विधान सभा उपचुनावों के लिए 10 सीटो पर जदयू, राजद और कांग्रेस की बिसात कमोवेश हर वोटर को यही अहसास बखूबी करवा रही है | उपचुनावों के साथ ही अब  उनके  इस कदम से तीनो  राजनीतिक दल आगामी विधान सभा का चुनाव भी भाजपा के खिलाफ लड़ेंगे इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता | तो क्या माना जाए बिहार एक बार फिर जातीय गठजोड़ की राजनीति में इस कदर उलझता जा रहा है कि वोटर के मन में राजनेताओ के चाल, चलन और चरित्र को लेकर  फिर से नए सवाल खड़े हो रहे हैं और पहली बार विचारधारा से इतर नेताओ की  राजनीतिक सौदेबाजी  ने उसके सामने एक पशोपेश की स्थिति पैदा कर दी है  जिसके चलते वह  अपने वोट को लेकर आशंकित हो चला है    |


दरअसल बिहार की राजनीती  फिर जातीय आंकड़ो में इस कदर उलझती ही जा रही है कि मौजूदा दौर में हर दल के सामने अपने वजूद को बचाने के लिए अपने  जातीय वोट बैंक को साधना जरुरी हो गया है |  आगामी उपचुनावों के लिए भी तीन दलों का साथ आना इसी लिहाज से महत्वपूर्ण ही कहा जा सकता है  | बिहार की राजनीती में एक दौर में लम्बे समय तक सवर्णों का राज रहा लेकिन नब्बे के दशक के आते आते परिस्थियाँ मंडल कमंडल ने इस कदर बदल डाली कि बिहार की राजनीती भी जातीय गठजोड़ में उलझ कर रह गयी | कर्पूरी ठाकुर के आते ही बिहार में दलितों को लेकर नई तरह की परिभाषा विकास के आसरे गढने की कोशिशे तेज होती गयी  तो वहीँ नब्बे के दशक के आते ही लालू और नीतीश  कुमार सरीखे  नेता पिछड़े वर्गों के हिमायती बनकर उभरे |

इसी दौर में लालू प्रसाद की बिहार की राजनीती  में तूती इस कदर बोली कि उन्हें गरीब गोरबा जनता और पिछड़ी दलित जातियों का मसीहा कहा जाने लगा | इसकी महक को लालू ने अपने कार्यकाल में बखूबी महसूस भी किया और अपने शासन में दलित ,पिछड़ी जातियों और मुसलमानों को साधकर अपनी सियासी  बिसात को ठसक के साथ  इस कदर मजबूत कर लिया कि बिहार की सियासत में लालू ने अपने ‘माई’ समीकरण से अपना कद काफी ऊँचा कर लिया | लालू ने अपने  कार्यकाल में माई  समीकरणों से नई  इबारत गढ़ने की कोशिश की वहीँ उनके राज में तमाम घोटालो , कानून व्यवस्था की लचर स्थिति और माफियाओ के वर्चस्व ने  लोगो का लालू से मोहभंग कराने में देर नहीं लगाई  जिसके चलते लोगो ने जंगल राज से मुक्ति की कामना एक दौर में की | सवर्णों में लालू के प्रति  साफ़ नाराजगी उस दौर में देखी जा सकती थी | ऐसे दौर में  गरीबो के नए मसीहा के रूप में नीतीश कुमार का शासन शुरू होता है

नीतीश के आने के बाद बिहार में काफी कुछ पटरी पर आ गया | लगातार दूसरी बार भाजपा के साथ सरकार बनाकर 2010 में उन्होंने यह साबित  भी कर दिया बिहार अब जातीय  राजनीती के चंगुल से बाहर आ रहा है और लोग विकास के आधार पर मतदान कर रहे  हैं जिसके चलते भाजपा और जद यू गठबंधन ने बिहार की  राजनीती में लगातार दूसरी बार वापसी की | नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीती में अपनी जडें भाजपा के साथ मिलकर मजबूत कर ली लेकिन सोलहवी लोक सभा चुनाव से ठीक पहले  भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को  प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार  बनाये जाने के बाद  जद यू की भाजपा से दूरियां  बढ़ गयी और यही बाद में  बड़ी दुश्मनी  में जाकर तब्दील हो गयी | इससे पहले गठबंधन के दौर में नीतीश कुमार ने मोदी को चुनाव प्रचार और बिहार में रैलियां करने से रोक दिया था |  दरअसल नीतीश कुमार मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार  बनाये जाने के सख्त  खिलाफ थे | इस मसले पर शरद यादव भी नीतीश कुमार के सुर में सुर मिला रहे थे |  उन्होंने 2002 में गोधरा दंगे का मुद्दा  उछालकर एनडीए से अलग होने का एलान कर दिया |सोलहवी लोक सभा से ठीक पहले नीतीश कुमार की नरेन्द्र मोदी के साथ बढ़ी दूरियों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया बिहार में अपना वजूद बचाने के लिए दोस्त के दुश्मन बनने में देरी नहीं लगेगी और हुआ भी ऐसा ही | नमो की अगुवाई में भाजपा की पूर्ण बहुमत से केंद्र में प्रचंड जीत ने यह साबित कर दिया आने वाले समय में उसके खिलाफ विरोधियो की एक बड़ी गोलबंदी शुरू हो सकती है जिसकी शुरुवात बिहार से ही वहां होने जा रहे  आगामी  उपचुनाव से होने जा रही है | कभी भाजपा की गोद में बैठने वाले नीतीश  कुमार अब नरेन्द्र मोदी  से दो दो हाथ करने को इस कदर बेताब हैं कि उनकी गैर  कांग्रेसवाद की राजनीती अब कहीं पीछे जा चुकी है |वह लालू और कांग्रेस को साधकर अपनी पार्टी जद यू  का वजूद बचाने में जुट गए हैं

आने  वाले  बिहार के विधान सभा  उपचुनावों की दस सीटो पर नीतीश ,लालू और कांग्रेस की तिकड़ी भाजपा को नेस्तनाबूद करने की पुरजोर कोशिश करने में जुट गयी है | जदयू  और राजद जहाँ चार सीटो पर अपने प्रत्याशी उतार रही  है वहीँ सूपड़ा साफ़ कर चुकी कांग्रेस सांप्रदायिक शक्तियों के मुकाबले के लिए दो सीट मिलने के बाद भी अगर फूली नहीं समा रही है तो इस सियासत की मजबूरियों को बखूबी समझा जा सकता है |  | इस उपचुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू नीतीश कुमार  और लालू  प्रसाद का एक मंच पर सामने आना है |   बिहार में हाल के लोक सभा चुनाव में  भाजपा ने आशातीत सफलता पायी जिसके बाद सारे विपक्षी दल उसके खिलाफ लामबंद दिखाई दे रहे हैं | हाल में जिस तरीके से भाजपा का वोट प्रतिशत और सीटें राज्य में बढ़ी हैं उसने हर किसी के सामने मुश्किलों  का पहाड़ ही  खड़ा कर दिया है जिसके बाद हर राजनीतिक दल की कोशिश भाजपा के जनाधार में सेंध लगाना बन चुकी है जिसकी शुरुवात अब बिहार से होने जा रही है |

राजनीती की सबसे दिलचस्प तस्वीर बिहार में लालू और नीतीश के साथ आने बन  रही है और विपक्षी दल होने का तमगा तक खो चुकी कांग्रेस भी अब उनके साथ कदमताल कर रही  है |  उसकी मजबूरी भी भाजपा को सांप्रदायिक साबित करना बन गयी है |  कर्पूरी ठाकुर और जे पी की छाँव तले  राजनीती का ककहरा  सीखने वाले लालू प्रसाद  और नीतीश कुमार  कभी एक दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते थे लेकिन भाजपा में नरेन्द्र मोदी जिस तरह  का  प्रचंड जनादेश लेकर आये उससे इन दोनों राजनेताओ की घिग्गी  इस कदर बंध गयी कि दोनों की मजबूरी अब अपनी पार्टी का भविष्य बचाना बन गयी जिसके बाद दोनों ने साथ आने का फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा | लालू के समय में बिहार में जंगल राज रहा जिसके खात्मे के लिए नीतीश कुमार आगे आये और भाजपा के साथ मिलकर उन्होंने एक दौर में लालू के पतन की पटकथा  बिहार वासियों  को लालू के जंगल राज से मुक्ति  दिलवाकर ली |हाल के समय में चारा घोटाले में बड़ी सजा पाने के बाद जहाँ यह कयास लगाये जा रहे थे लालू बिहार में अपनी चमक खो चुके हैं वहीँ अब नीतीश कुमार  और कांग्रेस के उनके साथ आने से यह साबित हो गया है लालू की बिहार में प्रासंगिकता पहले भी थी,  अभी भी है और शायद भविष्य में भी रहे |  वहीँ वक्त का पहिया भी नीतीश कुमार  के शासन में ऐसा घूमा कि अपने शासन  में हुए विकास कार्यो से उन्होंने  लालू प्रसाद  से इतर अपनी एक अलग तरह की पहचान लगातार दो कार्यकाल मिलने के बाद बनाई  जिस कारण उन्हें ‘सुशासन बाबू’  के रूप में जाना जाने लगा | यह दौर बिहार के अन्दर ऐसा रहा जब लालू ने भी नीतीश से आर पार लड़ने का मन बना लिया और एक दूसरे पर टिप्पणी, कोसने का का शायद ही कोई मौका उन्होंने चूका | इन सबके बाद भी अगर दोनों अपनी पार्टी के वजूद को बचाने के लिए साथ आये हैं तो इसके पीछे उनकी मजबूरियों को समझा जा सकता है

लोक सभा चुनावो में बिहार में भाजपा को अपने बूते मिली जबरदस्त सफलता और वोट प्रतिशत ने पहली बार इन दोनों जमीनी नेताओ की सियासी जमीन पर ही इस कदर सेंधमारी कर दी  जिससे उबरने के लिए इनका साथ आना मजबूरी ही बन गया था |लोक सभा चुनाव में बिहार की 40 सीटो में से 31 सीटो पर झंडा न केवल भाजपा ने  गाड़ा बल्कि अपने वोट में 39 प्रतिशत का इजाफा भी कर लिया वहीँ राजद  20, जद यू 16 और कांग्रेस 8  प्रतिशत में ही सिमट कर रह गयी जिसके बाद बिहार की राजनीती में ऐसी खलबली मच गयी कि हर दल की  मजबूरी भाजपा को रोकना बन गयी | भाजपा के वोट प्रतिशत के मुकाबले इन तीन राजनीतिक दलों  का वोट प्रतिशत अगर मिलाकर देखें तो लोक सभा चुनावो में तीनो का वोट भाजपा से पांच प्रतिशत ज्यादा  बैठता है शायद यही वजह और मजबूरी है जो इन्होने उपचुनाव में भाजपा को हराने  के लिए अपना पूरा जोर लगवा दिया है | नीतीश  की पार्टी जद यू  के भीतर उनके इस  फैसले पर भीतर ही भीतर आक्रोश साफ़ देखा जा सकता है | यहाँ तक की शरद यादव सरीखे खांटी और जमीनी  नेता जो गैर कांग्रेसवाद  की राजनीती दशको से करते आये हैं इस चुनाव में फिर से कांग्रेस के साथ आ गए हैं जिससे उनके समर्थको में भी भारी  नाराजगी  झलक  रही  है | यह नाराजगी उस समय भी देखने  को मिली थी जब बिहार में भाजपा और जद यू का कई बरस पुराना गठबन्धन  टूट गया था | लेकिन हार जीत का फैसला जनता जनार्दन की अदालत  के पास रहता है इसलिए बिहार उपचुनाव में भी ऊंट किस करवट बैठेगा यह सब तय करना अब  जनता का काम है

जहाँ तक लोक सभा चुनावों की बात थी तो देश में एंटी कांग्रेस लहर को मोदी ने बखूबी कैश किया जिसके चलते पूरे देश में भाजपा की सीटो और वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ लेकिन लोक सभा चुनावो और विधान सभा चुनावो में जमीन आसमान का अंतर होता है | यह हाल के उत्तराखंड के तीन उपचुनावों से भी समझा जा सकता है जहाँ दो महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा 5-0 से आगे रही थी वहीँ हाल में विधान सभा उपचुनाव  की तीन सीटो धारचूला, सोमेश्वर और डोईवाला में कांग्रेस ने तीनो सीटो पर भाजपा को करारी मौत दे दी | ऐसे में लोक सभा चुनावों के मुकाबले भाजपा के सामने भी विधान सभा उपचुनावों के लिए डगर आसान नही लग रही |विधान सभा उपचुनावों में भी भाजपा अच्छा कर जाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है क्युकि महंगाई , डीजल पेट्रोल के बढे दाम , बढ़ा रेल किराया मोदी की मुश्किलों को बढाने का काम कर रहा है |  वहीँ बिहार की  राजनीती में एक  बार फिर जातीय गणित  न केवल जातीय समीकरणों को उलझा रहा है बल्कि  कुर्सी पाने के लिए नेताओ द्वारा किसी भी पाले में जाने से वोटर की ख़ामोशी भी बहुत कुछ कहानी बयां कर रही है |


लोक सभा चुनावो में भाजपा को आशातीत  सफलता अगर मिली थी तो इसकी बड़ी वजह मोदी का मैनेजमेंट था और बिहार में कांग्रेस , जद यू  और राजद के अलग अलग लड़ने का लाभ भाजपा ले गयी साथ में  राम विलास पासवान के चुनावो से ठीक पहले भाजपा के साथ आने से दलितों के वोट भाजपा के पाले में  आ गए थे | लेकिन अब परिस्थितियां अलग हैं | लोक सभा में पार्टी की करारी हार के बाद नीतीश ने मूड भांपकर जीतन राम माझी के कंधे पर सवार होकर अपनी सरकार बचाने के लिए हर सियासी तिकड़म का सहारा लिया है जिसमे कांग्रेस  से लेकर लालू प्रसाद तक को साथ लेकर अपना दांव बिहार में खेला है | इधर भाजपा में  मोदी की दीवानगी कार्यकर्ताओ से लेकर स्वयंसेवको तक में जरुर  है लेकिन अच्छे दिनों के वादे  के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार अल्प समय में ऐसा कुछ नहीं कर पायी है जिससे मतदाताओ का दिल जीता जा सके | ऐसे  में चुनावी डगर बहुत मुश्किल दिख  रही है |  फिर आज के समय का वोटर यह समझ रहा है किसको कब कहाँ वोट करना है | ऐसे में बदले माहौल में बिहार उपचुनाव में भाजपा कैसा प्रदर्शन करती है यह देखने लायक होगा


वैसे अमित शाह और मोदी की जोड़ी की असल परीक्षा अब शुरू होने जा रही है | बिहार में माझी सरकार के कार्यकाल के बाद विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं जिसमे सुशील  कुमार मोदी , रवि शंकर प्रसाद, शत्रुघ्न सिन्हा , शाहनवाज हुसैन , राजीव प्रताप रूडी , राधा मोहन सिंह मंगल पांडे , सी पी ठाकुर सरीखे नेताओ की भारी भरकम फ़ौज सी एम इन वेटिंग की कतार में खडी है और इन सबके  बीच किसी एक नेता को प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ना मुश्किल हो चला है जब पार्टी की बिहार इकाई की बेंच स्ट्रेंथ बेहद  मजबूत नजर आ रही है |  देखना होगा आने वाले दिनों में बिहार की यह जातीय राजनीती किस करवट बैठती है ?