तमाम खट्टे मीठे अनुभवों के बीच
वर्ष 2012 की विदाई के साथ ही हम 2013 की चौखट में प्रवेश कर रहे हैं । नए
साल को लेकर लोगो के बीच एक अलग तरह का उत्साह देखने को मिलता है लेकिन
दिल्ली में घटी गैंगरेप की घटना और फिर सिंगापुर में दामिनी की मौत की घटना
के बाद देश में कई लोगो ने नए साल के कार्यक्रम टाल दिए वहीँ कई जगह
"थर्टी फर्स्ट "का जश्न धूमधाम से मनाये जाने की खबरों ने बता दिया महानगरो
में भले ही लोगो ने अपने को नए साल के जश्न से दूर रखा लेकिन कस्बो के
साथ शहरों में नए साल को उत्साह के साथ मनाने के चलन में कोई कमी नहीं आई
जबकि जंतर मंतर पर ठिठुरती ठण्ड के बावजूद कई लोग पूरी रात जागे रहे और सरकारी तंत्र की हीलाहवाली को लेकर सवाल उठाते रहे ।
कई जगहों में थर्टी फर्स्ट के जश्न में किसी तरह की कमी
नहीं देखी गई। पिछले कुछ वर्षो से हमने अपने को पूरी तरह पाश्चात्य
संस्कृति के रंग में इस तरह रंग लिया है कि अब हमारी नई पीड़ी अपने
सांस्कृतिक जीवन मूल्यों से लगातार कटती ही जा रही है । हमारी भारतीय
संस्कृति में पंचांग के अनुसार नया साल नवसंवत्सर वर्ष प्रतिपदा से मनाया
जाता है लेकिन अब समय बीतने के साथ ही यह परम्परा कहीं पीछे छूटती जा रही
है ।नववर्ष का उत्सव अब किसी पर्व से कम नही है ।थर्टी फर्स्ट का बुखार
अब हमारी युवा पीड़ी को भी लग चुका है । होटल, रेस्तराओ से लेकर सडको और
घरो तक में नए साल की गुनगुनाहट में लोग अब गीत गाते हैं । डी जे की थाप
पर थिरककर जश्न के साथ नए साल का पर्व मनाते हैं । यह कैसी अपसंस्कृति है
जब लोग शराब के साथ जश्न मनाते हैं और मछली और बकरों की बलि देकर नववर्ष का
आगाज करते हैं ?
हमारे आधुनिक समाज में भी अब इन सब चीजो का असर पड़ने लगा
है ।ऐसे उत्सव की आड़ में जहाँ समाज में आपराधिक घटनाओ का ग्राफ बढ़ रहा है
वहीँ महिलाओ के साथ छेड़छाड़ की घटनाये भी तेजी के साथ बढ़ी हैं जो यह
बताता है आज हमारे समाज मानसिकता किस कदर बदल गई है । वह पूरी तरह
पाश्चात्य संस्कृति के मोहपाश में जकड से गए हैं । फिल्मे समाज का आइना
कही जाती हैं लेकिन हमारे देश में आज जिस तरह से हिंसा , सेक्स को अश्लील
रूप में फिल्मो में पेश किया जा रहा है उसी रूपहले परदे की घटनाओ को लोग
अपने जीवन में उतारने की कोशिशो में उतारने की चाहत में लगे हैं जिससे समाज
में आपराधिक प्रवृति बढ रही है । इसके साथ ही पुलिस पर राजनीतिक दबाव
ज्यादा है जिसके चलते अपराधी आसानी से छूट जा रहे हैं । कानून का खौफ भी उन
पर नहीं है शायद इसी के चलते समाज में आज अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं ।
नव वर्ष को एक उत्सव का रूप देने में मीडिया की भूमिका भी
किसी से छिपी नहीं है । उसने लोगो के सोचने से लेकर तौर तरीको तक में
बदलाव ला दिया है । शायद इसी के चलते नववर्ष का उत्सव एक बड़ा बाजार बन गया
है जिसमे हर कोई गोता लगाते हुए देखा जा सकता है । बाजार इतना हावी हो चला
है कि इस नववर्ष को हर कोई उत्सव की तरह मनाने से परहेज इस दौर में नहीं
कर रहा है लेकिन दुर्भाग्य है जब लुटियंस की दिल्ली में गैंगरेप की घटना
को लेकर आक्रोश जंतर मंतर पर साफ दिखाई दे रहा था उसके बाद भी हमारे देश
में कई जगहों पर नववर्ष के जश्न में कोई कमी देखने को नहीं मिली जो हमारी
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को असल में उजागर कर रहा था ।
रविवार को जब टेलीविजन स्क्रीन पर इंडिया गेट और विजय पथ पर गैंगरेप के
विरोध में आक्रोशित युवाओ की लाइव तस्वीरें आ रही थी ठीक उसी समय सचिन रमेश तेंदुलकर के
वन डे क्रिकेट से सन्यास की खबरें टिकर पर ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में चलने
लगी । दिल्ली में हो रहे भारी विरोध प्रदर्शन के बीच क्रिकेट के भगवान की
सन्यास की खबरें कहीं दबकर रह गई और उसने कई सवालों को पहली बार खड़ा कर दिया ।
क्या अपने अब तक के क्रिकेट करियर में सचिन पहली बार चयनकर्ताओ की आलोचना
का शिकार बने ? आखिर एकाएक सचिन ने वन डे क्रिकेट को गुड बाय क्यों बोल
दिया ? सचिन ने इतनी बड़ी घोषणा पाकिस्तान की सीरीज से ठीक पहले क्यों कर
दी वह भी तब जब रणजी मैच में शतक बनाकर सचिन ने सबको मास्टर ब्लास्टर होने
के मायने बता दिए थे । वह महान खिलाडियों की तरह मैदान में सन्यास लेने का
फैसला क्यों नहीं कर पाए वह भी तब जब भारत के चिर प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की
टीम सीरीज खेलने भारत दौरे पर थी । क्या गांगुली, द्रविड़, वी वी एस की तर्ज
पर "फेबुलस फोर " का यह मुख्य पिलर बी सी सी आई की अंदरूनी राजनीती का
शिकार तो नहीं हुआ जिसने पहली बार उसको क्रिकेट की पिच पर हिट विकेट कर
दिया ? ये सवाल ऐसे हैं जो विदेशी खिलाडियों से लेकर सचिन के चाहने वाले
हर प्रशंसक को इन दिनों परेशान कर रहे हैं ।
22 साल 91 दिन ... 463 मैच ..18426 रन ... 86.23 का स्ट्राइक रेट
.... इन बरसों में कई बल्लेबाज टीम में आये और कई गए । कई गेदबाज टीम में
अपनी जगह बनाने में सफल हुए तो कई कुछ मैच खेलने के बाद न जाने कहाँ
गुमनामी के अंधेरो में खो गए। इस दौरान खेल भी बदला समय ने ऊँची करवट
ली लेकिन
एक चीज जो नहीं बदली वह थी सचिन रमेश तेंदुलकर के तीन फीट लम्बे भारी
बल्ले की धमक जिसकी आग ने मानो विपक्षी टीम का मान मर्दन करा दिया । सचिन
का बल्ला अपनी आग उगलता रहा और क्रिकेट की किताब में एक -एक रन दर्ज होकर
इतिहास बनता गया । शायद इसी वजह से भारतीय क्रिकेट का यह सितारा इतिहास में
कोहिनूर बन गया और क्रिकेट का भगवान कहा जाने लगा लेकिन क्रिकेट के
भगवान की वन डे पारी का ऐसा खामोश अंत इस तरह बेबस ढंग से होगा इसकी
कल्पना शायद ही किसी ने की होगी ।
जिस समय बी सी सी आई के चयनकर्ता पाकिस्तान के साथ हाल में खेली जाने वाली
सीरीज के लिए खिलाडियों का चयन कर रहे थे ठीक उसी समय क्रिकेट का यह
भगवन वन डे क्रिकेट को अलविदा कहने की तैयारियों में जुटा हुआ था । बीते
रविवार को जब पूरे देश की नजरें दिल्ली में गैंगरेप के विरोध में युवाओ के
आक्रोश की तरफ थी तब सचिन ने बी सी सी आई के जरिए जारी किये गए एक प्रेस
नोट में वन डे फोर्मेट से सन्यास का फैसला लेकर सभी को चौंका दिया । दिन
ढलते ढलते यह खबर सभी की जुबान पर छा गई । सचिन के वन डे से सन्यास पर
विपक्षी टीम के गेंदबाजो ने भले ही राहत की सांस ली हो लेकिन इस खबर ने
उनके करोडो प्रशंसकों को मायूस ही किया । सचिन ने अपना अंतिम वन डे मैच
मार्च 2012 में ढाका में खेला था जिसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में ही
ज्यादा रमे रहे लेकिन पिछले कुछ समय से उनके प्रदर्शन पर न केवल पूर्व
भारतीय कप्तानो की एक बड़ी जमात सवाल उठा रही थी वरन उनको टीम से बाहर करने
का ताना बाना बुन रही थी जिसमे चयनकर्ताओ के आसरे उन पर मजबूरन सन्यास का
दबाव बनाया जा रहा था और शायद यही कारण था सचिन ने किसी के दबाव के आगे न
झुकते हुए अपने अंतर्मन की आवाज को सुना और खुद को एकाएक वन डे से दूर करने
का फैसला कर लिया । जबकि यह सच शायद ही किसी से छुपा है सचिन का प्रदर्शन
पिछले कुछ समय से टेस्ट क्रिकेट में खराब चल रहा था । इस दौरान वह अपनी कई
पारियों में 'क्लीन बोल्ड' हो गए थे । उनकी तकनीक को लेकर पहली बार इस
दौर में सवाल उठने लगे जिसके बाद चयनकर्ताओ ने सचिन को नसीहत दे डाली अब नए
खिलाडियों को मौका देने की मांग जोर पकड़ रही है लिहाजा वह खुद से सोचकर
यह तय करें कि आगे उन्हें क्या करना है ? इसी के तहत "फेबुलस फोर " की जमात
में शामिल रहे गांगुली ,राहुल द्रविड़, लक्ष्मण से जबरन सन्यास दिलवाया
गया और सचिन भी चयनकर्ताओ की इस गुगली के फेर में आ गए ।
अपने अब तक के करियर में सचिन ने रिकार्डो का जो पहाड़ मैदान में खड़ा किया
है उसे शायद ही आने वाले दिनों में कोई छू पाए । सचिन के नाम वन डे , टेस्ट
मैचो में सबसे अधिक मैच , सबसे अधिक रन , शतक, अर्धशतक बनाने का रिकॉर्ड
जहाँ दर्ज है वहीँ सबसे अधिक मैन आफ द मैच से लेकर मैन आफ द सीरीज जीतने
तक के रिकॉर्ड दर्ज हैं । तभी सर डॉन ब्रेडमैन ने एक दौर में सचिन में अपना
अक्स देखा था और शेन वार्न सरीखे कलाई के जादूगर
की रातो की नीद को उड़ा डाला था । सचिन के नाम अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में
100 शतको का रिकॉर्ड दर्ज है । इसी साल मार्च में सचिन ने अपना आखरी शतक
बांग्लादेश के खिलाफ ठोंका था । सचिन ने 463 वन डे मैचो की 452 परियो में
44.83 की औसत से 18426 रन बनाये तो वहीं वन डे में 49 शतक बनाकर अपनी
बल्लेबाजी का लोहा पूरी दुनिया के सामने मनवाया । फ़रवरी 2010 में दक्षिण
अफ्रीका के खिलाफ वन डे में दोहरा शतक लगाने वाले पहले खिलाडी बनने के साथ ही
गेदबाजी में अपना कमाल 154 विकेट लेकर दिखाया । साझेदारी बनाने से लेकर
साझेदारी तोड़ने तक में सचिन का कोई सानी नहीं था । दो बार उन्होंने वन डे
मैचो में एक साथ 5 विकेट झटकने के साथ ही सर्वाधिक 62 बार मैन आफ द मैच से
लेकर 15 बार मैन आफ द सीरीज का रिकॉर्ड अपने नाम किया । वाल्श से लेकर
डोनाल्ड , अकरम से लेकर वकार , शोएब अख्तर से लेकर ब्रेट ली और फिर शेन
वार्न से लेकर मुरलीधरन सबकी गेदबाजी से सामने सचिन ऐसे चट्टान की भांति
डटे रहते थे जिनका विकेट हर किसी के लिए अहम हो जाता था । 15 नवम्बर
1989
को पाकिस्तान के विरुद्ध महज 16 साल की उम्र में घुंघराले बाल वाले इस
युवा खिलाडी ने जब अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया था को किसी ने
अंदाजा नहीं लगाया था कि भविष्य में यह खिलाडी क्रिकेट के देवता के
देवता के रूप में पूजा जायेगा लेकिन सचिन ने अपनी प्रतिभा 1988 में ही दिखा
दी जब अपने बाल सखा विनोद काम्बली के साथ 664 रन की रिकॉर्ड साझेदारी कर
इतिहास रच डाला था । पाकिस्तान के दौरे में अब्दुल कादिर की गुगली पर
उपर से छक्का जड़कर उन्होंने अपने इरादे जता दिए थे । यही नहीं उस दौर को
अगर याद करें तो सियालकोट के टेस्ट में एक बाउंसर सचिन की नाक में जाकर लग
गया । नाक से खून बह रहा था लेकिन इन सबके बीच सचिन मैदान से बाहर नहीं गए
और डटकर गैदबाजो का सामना किया ।
1990 में इंग्लैंड का ओल्ड
ट्रेफर्ड सचिन का पहले शतक का गवाह बना जब उन्होंने विदेशी धरती से अपनी
अलग पहचान बनाने में सफलता पायी । इसके बाद सिडनी और पर्थ की खतरनाक समझी
जाने वाली पिचों पर सचिन ने अपनी शतकीय पारियों से प्रशंसको का दिल जीत
लिया । इसके बाद तो उनके नाम के साथ हर दिन नए रिकॉर्ड जुड़ते गए । आज सचिन
की इन उपलब्धियों के पहाड़ पर कोई खिलाडी दूर दूर तक उनके पास तक नहीं
फटकता । सचिन में एक खास तरह की विशेषता भी है जो उनको अन्य खिलाडियों से
महान बनाती है । उनका क्रिकेट के प्रति जज्बा देखते ही बनता है और पूरे
करियर के दौरान उन्होंने इसे जिया । शालीन और शांतप्रिय होने के अलावे
धैर्य और अनुशासन उनमे ऐसा गुण था कि विषम परिस्थितियों में में सचिन अपना
रास्ता खुद से तय करते थे । कभी शून्य पर भी आउट हो जाते तो आलोचकों को
करारा जवाब अपने खेल से ही देते । टीम इंडिया में एक मार्गदर्शक के तौर पर
उन्होंने युवाओ को एक नया प्लेटफार्म दिया जहाँ उनसे सलाह मांगने वालो में
खुद धोनी , युवराज , भज्जी सरीखे खिलाडी शामिल रहते थे । प्रत्येक खिलाडी
उनसे कुछ नया सीखने की कोशिश में रहता । यह हमारे लिए फक्र की बात है सचिन
को हमने उनके शुरुवाती दौर से खेलते हुए देखा है । आने वाले भावी पीढियों
को हम सचिन की गौरव गाथा बड़े गर्व के साथ सुना पाएंगे ।
सचिन के
लिए वर्ल्ड कप एक सपना था और धोनी की अगुवाई वाली टीम का हिस्सा बनने पर
उन्हें काफी नाज है । इसकी झलक वन डे सन्यास के समय उनके द्वारा दिए
बयानों में साफ झलकी जहाँ उन्होंने टीम के वर्ल्ड कप जीतने पर ख़ुशी जताई और
अगले वर्ल्ड कप के लिए अभी से एकजुट हो जाने की बात कही । सचिन जैसे
कोहिनूर अब भारत को शायद ही मिलें क्युकि सचिन जैसे समर्पण की बात आज के
खिलाडियों में नदारद है । क्रिकेट आज एक मंडी में तब्दील हो चुका है जहाँ
खिलाडियों की करोडो में बोलियाँ लग रही हैं । सारी व्यवस्था मुनाफे पर जा
टिकी है जहाँ खेल का पेशेवराना पुराना अंदाज गायब है जो अस्सी और नब्बे के
दशक में देखने को मिलता था । आज के युवा खिलाडियों की एक बड़ी जमात
ट्वेंटी ट्वेंटी के जरिये अपनी प्रतिभा को दिखा रही है जबकि वन डे और
टेस्ट क्रिकेट से उनका मोहभंग हो गया है । यही नहीं इसमें उनका प्रदर्शन भी
फीका ही रहा करता है । ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है सचिन,
गांगुली, राहुल , वी वी एस वाली लीक पर कौन आज के दौर में चलेगा वह भी उस
दौर में जब ट्वेंटी ट्वेंटी टेस्ट से लेकर वन डे को लगातार निगल रहा है ।
बहरहाल
सचिन ने वन डे से सन्यास के बाद अभी टेस्ट मैच खेलने की बात कही है । यह
उनके करोडो चहेते प्रशंसको के लिए राहत की खबर है लेकिन उनके वन डे से
अचानक लिए गए सन्यास पर सस्पेन्स अब भी बना है । आगे
भी शायद यह बना रहे क्युकि मैदान से अन्दर और बाहर सचिन जिस शानदार
टाइमिंग से खेलकर कई लोगो को आईना दिखाते थे वैसी टाइमिंग उनके सन्यास में
देखने को नहीं मिली । जाहिर है सचिन पहली बार चयनकर्ताओ के निशाने पर
सीधे तौर पर आये और आखिरकार दबाव झेलने की वजह से उन्होंने वन डे से अचानक
सन्यास की घोषणा कर सभी को चौंका ही दिया ।
रिटेल में एफडीआई के विरोध
में विपक्ष की ओर से लाया गया प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में गिरने के
बाद यूपीए सरकार इन दिनों बमबम है । सरकार एफडीआई के मोर्चे
पर एक बड़ी जंग जीतने के रूप में इसे प्रचारित करने में लगी हुई है और इसे
ऐतिहासिक लकीर के तौर पर पेश करने में लगी है लेकिन असल तस्वीर ऐसी नहीं
है । यूपीए इस जीत के लिए सपा और बसपा सरीखे दलों के समर्थन पर इतरा जरुर
सकती है जिसने विपरीत परिस्थितियों में संकट की इस घडी में सरकार को
उबारने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे एफडीआई की राह आसान हो गई ।
सपा , बसपा के बूते जहाँ लोक सभा में यूपीए
का संख्या बल सरकार के पक्ष में गया वहीँ राज्य सभा में बसपा ने वोटिंग कर
यू पी ए को आर्थिक मोर्चे पर लादे जा रहे अब तक के सबसे बड़े संकट से उबारा
। एफडीआई के आसरे अब मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर
पूरा देश नाचेगा और इसी के आसरे 2014 की बिसात बिछाने में कांग्रेस लग गई
है । मौजूदा दौर में एफडीआई
पर सपा और बसपा के रुख से कई सवाल पहली बार उठने लगे हैं ।मसलन उत्तर
प्रदेश सरीखे बड़े राज्य में दोनों धुर विरोधी दलों की यह कैसी राजनीती है
जो एक ओर सड़क से संसद तक एफडीआई
के विरोध में आर पार की लड़ाई लड़ते हैं लेकिन जब संसद में मतदान की बारी आती
है तो वह या तो वाकआउट कर लेते हैं या सदन के संख्या बल के आधार पर अपनी
चालें चलते इस दौर में नजर आते हैं । यही नहीं मत विभाजन होने की सूरत में
एक ओर वह जहाँ सरकार के साथ भागीदारी वोटिंग के जरिये करते हैं वहीँ
दूसरी तरफ लोक सभा से वाकआउट कर सरकार को संकट से उबारते हैं ।
राजनीती का मिजाज ही कुछ ऐसा है । यहाँ समीकरण बनते
और बिगड़ते ही रहते है लेकिन मौजूदा दौर में जैसी मोल भाव की राजनीती
प्रादेशिक दलों द्वारा केंद्र में की जा रही है उसे आप और हम स्वस्थ
राजनीती नहीं कह सकते । पुराने पन्ने टटोलें तो ज्यादा समय नहीं बीता जब
सपा से लेकर बसपा और द्रमुक से लेकर एनसीपी एफडीआई
के विरोध में बढ़ चढ़कर अपनी भागीदारी करने में लगे हुए थे । यही नहीं कुछ
माह पूर्व हुए भारत बंद के दौरान जहाँ सपा, बसपा और द्रमुक भी विपक्ष के
साथ खड़े नजर आये लेकिन जब संसद पर बहस और मतदान की बारी आई तो या तो
उन्होंने उससे किनारा कर लिया या अपनी प्राथमिकता और एजेंडा ही बदल डाला
। कल तक जो समाजवादी कोलगेट पर कांग्रेस को सड़क से संसद में घेर रहे थे
आज वह एफडीआई पर सरकार के साथ सुर में सुर मिला रहे हैं ।
संसद में मुलायम सिंह का राग को देखिये ।
अपने को खांटी समाजवादी समझते हैं । किसानो का सबसे बड़ा हितैषी बताते
हैं और उत्तर प्रदेश में एफडीआई ना लाने
की बात दोहराते फिरते हैं । देश हित में हमारे छोटे व्यापारियों के लिए
इसे नुकसानदेहक बताने से भी पीछे नहीं रहते लेकिन वोटिंग के दरमियान
वाकआउट कर अपना दोहरा चरित्र जनता के सामने उजागर कर देते हैं । यही हाल
माया बहन जी का भी है । एक तरफ वह कुछ माह पूर्व एफडीआई के विरोध में महारैली की हुंकार भारती हैं वहीँ संसद में यू पी ए के साथ कदमताल करती नजर आती हैं ।
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चाएं जोरो पर हैं इस बार
भी माया, मुलायम ने संसद में अपने रुख के मद्देनजर एक तीर से कई निशाने
साधे हैं । इसके एवज में जहाँ मुलायम को उत्तर प्रदेश के विकास के लिए
करोडो का मोटा पॅकेज मिलने जा रहा है वहीँ माया बहनजी ने इस बहाने
प्रमोशन में एस टी,एससी आरक्षण का पुराना राग छेड़ दिया है । दोनों दल
अब आगामी लोक सभा चुनावो को देखते हुए इसी के आसरे अपनी बिसात बिछा रहे
हैं । बसपा और सपा का वोट बैंक भले ही जो हो लेकिन अपने अपने सियासी
फायदे नुकसान के अनुरूप कांग्रेस के साथ खड़ा होना इन दोनों की मजबूरी इस
समय बनी हुई है क्युकि जल्द चुनाव होने पर जहाँ मायावती घाटे में रहने
वाली हैं वही असल फायदा तो सही मायनों में ऐसी सूरत में मुलायम को ही
मिलेगा । लेकिन मुलायम की मजबूरी भी कांग्रेस के साथ जाने की इस रूप में बन
चुकी है अगर भविष्य में नेता जी को प्रधान मंत्री की कुर्सी पानी है तो
कांग्रेस के साथ सम्बन्ध खराब करना उनके लिए सही नहीं है ।
एफडीआई पर संसद में चर्चा से पहले इन दोनों दलों का साफ़ स्टैंड था । उन्होंने साफ़ तौर पर यह कहा था यह हमारे भारतीय किसानो
और व्यापारियों को निगल लेगा लेकिन संसद में अपनी भूमिका को उसने पूरे देश
के सामने उजागर कर दिया । कांग्रेस ने इस दफा भी सी बी आई के डंडे से इनको
डराया जिसकी परिणति एफडीआई को लागू कराने के लिए मिली हरी झंडी के रूप में हुई । एफडीआई
पर अब यू पी ए की मंशा साफ़ है । उसकी माने तो 10 लाख की आबादी वाली जगहों
पर विदेशी कंपनिया अपने स्टोर खोल सकेंगी वही अब यह राज्य सरकारों के रुख
पर निर्भर होगा क्या वह अपने अपने राज्य में इसे खोलने के लिए सहमति देंगी
या नहीं ? वह चाहें तो इसे लागू करे ना चाहें तो मत करें । ऐसे माहौल में
बसपा और सपा के रंग ढंग देखने लायक आने वाले दिनों में होने वाले हैं
क्युकि संसद में इन दोनों दलों ने बीते दिनों जिस तरीके से कांग्रेस के साथ
जाने की जिद पकड़ी उससे आम वोटर में सही सन्देश नहीं जा पाया है । अब देखना
होगा अपने बड़े वोट बैंक को यह दल कैसे समझा पाते हैं ।
बसपा और सपा भाजपा की सांप्रदायिक राजनीती का
हवाला देते हुए अक्सर सरकार को घेरने के मसले पर सदन में विपक्ष के साथ खड़े
नहीं दिखते लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए संसद में इसे लेकर 18 दलों की
राय पहली बार पूरे देश के सामने बहस में सामने आई । इस लिहाज से देखें तो
यह की भाजपा की निजी समस्या नहीं है । कांग्रेस के एफडीआई
लागू कराने के फैसले पर जहाँ उसके सहयोगी साथ खड़े इस दौर में नहीं दिखते
वहीँ वाम और तृणमूल भी इस पर कांग्रेस के साथ कदमताल करते नहीं दिखे । तो
क्या माना जाये वह भी सांप्रदायिक हो गए ।
सपा और बसपा की यह पहेली किसी
के गले नहीं उतर सकती कि बीते दिनों सदन के पटल पर सांप्रदायिक ताकतों की
करारी हार हुई है । रिटेल के मोर्चे पर अपने रणनीतिकारो के आसरे भले ही
कांग्रेस ने मैदान मार लिया हो लेकिन इसने उसकी साख पर भी सवाल उठाये हैं।
वैसे भी लगातार लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों से उसकी साख मिटटी में मिली
हुई है अब जब लोक सभा चुनावो के होने में 18 माह से भी कम का समय बचा हुआ
है तो आर्थिक मोर्चे पर आर्थिक सुधारों को हवा देने के लिए उसने पहली बार
माया मुलायम के जरिये देश में एक नई लकीर खींच दी है जहाँ मनमोहनी
इकोनोमिक्स अपने चकाचौध तले मध्यम वर्ग में अपनी पकड़ मजबूत आगामी चुनावो
के जरिये बनाएगा वहीँ विदेशी निवेशको का दिल जीतने की कोशिश शुरू होगी ।
वैसे भी 2 जी की आंच के बाद से कारपोरेट डरा और सहमा हुआ है । नया निवेश
जहाँ इस दौर में नहीं हो पा रहा है वहीँ पहली बार कई परियोजनाओ के लिए
एनओंसी मिलने की राह मुश्किल हो चली है । ऐसे में अब ऍफ़ डी आई के जरिये
भले ही कांग्रेस की मुस्कान लौट आई हो लेकिन उसकी राज्य सरकारों के अलावे
अन्य राज्य जहाँ उसकी सरकार नहीं है शायद ही कोई इसे वहां लागू करा पाए ।
कांग्रेस के दस जनपथ के चाटुकार मुख्यमंत्री जहाँ इसे पूरी तरह अपने
राज्यों में लागू करने के हिमायती दिख रहे हैं वहीँ अन्य पार्टियों में इसे
लेकर अभी तक कोई सहमति नहीं है । मसलन राकपा , तृणमूल, सपा सरीखे दल तो
कतई अपने अपने अपने राज्यों में इसे नहीं ला रहे हैं क्युकि चुनावी वर्ष
में कोई भी चाल सोच समझकर चलने की उनकी भी मजबूरी है । ऐसे में अगर यू पी ए
सोच रही है इसके आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी उसका
कायाकल्प हो जायेगा तो यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा ।
यकीन
जान लीजिये मौजूदा दौर में विदेशी कंपनियों की माली हालत खस्ता है । पूरी
दुनिया में अभी भी मन्दी के बादल पूरी तरह नहीं छटें हैं । उदारीकरण के
इस दौर में आम आदमी को चकाधौंच दिखाने वाली वालमार्ट सरीखी कंपनियों का एक
मात्र मकसद मुनाफा कमाना है । कोई भी विदेशी कंपनी यहाँ घाटे का व्यवसाय
करने नहीं आएगी । ऐसे में यह तर्क किसी के गले शायद ही उतरे कि इससे
भारतीयों का भला होने जा रहा है । यह हमारे किसानो और व्यापारियों के पेट
पर लात मारने के सिवाय कुछ नहीं करेंगी ।
वैसे भी वर्तमान में वास्तविकता
यह है चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में जीडीपी अनुमान के मुताबिक़ 5.3 पर फिसल
चूका है । ऐसे में लाख टके का सवाल यह है एफडीआई के आने से भारतीय
बाजार कैसे गुलजार हो जायेगा ? वालमार्ट के आने का मतलब जान लीजिये धीरे
धीरे पूरा बाजार ये हाईजैक कर लेंगी और रेहड़ी पटरी पर लगाने वालो की कमर
टूट जाएगी । हमारे किराना स्टोर तबाह हो जायेंगे और पूरा देश हौले हौले
विदेशी कंपनियों की थाप पर थिरकेगा ।
ऍफ़ डी आई के
मसले पर कांग्रेस के साथ खड़े होकर माया और मुलायम ने जिस तरीके का रुख
दिखाया है उससे इनकी साख भी प्रभावित हुई है ।आम आदमी के नाम पर ये दोनों
दल जनविरोधी फैसलों पर जिस तरीके से अपना समर्थन परदे के पीछे से दे रहे
है उससे जनता में इन दोनों दलों के प्रति नाराजगी का भाव है जो आने वाले
चुनावो में असर दिखा सकता है । मुलायम ने जहाँ इस एफडीआई पर कांग्रेस के
साथ खड़े होकर उत्तर प्रदेश के लिए करोडो का पॅकेज जुटाया है वहीँ मायावती
ने मुंबई में अम्बेडकर स्मारक की जमीन दलित वोट बैंक के लिए पा ली है
।यही नहीं अब वह दलितों को अपने साथ लाने की फिराक में जुट गई हैं क्युकि
अब संसद में रिजर्वेशन में एस टी ,एस सी आरक्षण को लेकर उन्होंने कांग्रेस
को अपना अल्टीमेटम दे दिया है ।
बसपा इसके बहाने से जहाँ अपना दलित वोट
फिर से मजबूत करेगी वहीँ सपा उसके साथ खड़ी नहीं हो सकती क्युकि इस साल
उत्तर प्रदेश के चुनावो में इसके विरोध के चलते ही नेता जी की
पार्टी सिंहासन पर काबिज हो पाई । ऐसे में आने वाले दिनों में संसद पर सभी
की नजरें टिकी रहने वाली है और आने वाले दिनों में सियासी नफा
नुकसान देखकर ही चुनावी चौसर मजबूत या कमजोर होगी । ऐसे में हर दल अपने
फायदे के लिए संसदीय राजनीती में अपनी बिसात बिछाने में लगा हुआ है । बसपा
और सपा भी अगर इसी के जरिये अपने वोट बैंक को मजबूत कर रहे हैं ।इस पूरे
वाकये में दोनों दलों की सच्चाई से भी पहली बार पर्दा उठ रहा है वहीँ
उनकी साख भी सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है । ऐसा नहीं है जनता इस ट्रेलर
को नहीं देख रही है । ये पब्लिक है सब जानती है पब्लिक है । तो इन्तजार
कीजिए आने वाले समय में होने वाले चुनावो का जब यही पब्लिक हर दल के मोल
भाव वाले नुकसान को अपने वोट के आसरे आईना दिखाएगी ।
जिस
समय भाजपा अपने चुनावी प्रबंधको को साथ लेकर गुजरात के रण में पार्टी की
संभावनाओ को लेकर मंथन करने में जुटी हुई थी उसी समय कर्नाटक के हावेरी में
भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रहे येदियुरप्पा अपनी नई पार्टी कर्नाटक
जनता पार्टी गठित करने में अपने समर्थको के साथ डटे थे और दक्षिण में कमल
के मुरझाने की पटकथा लिख रहे थे । यूँ तो येदियुरप्पा ने भाजपा की प्राथमिक
सदस्यता से इस्तीफ़ा 30 नवम्बर को ही दे दिया था लेकिन बीते 9 दिसम्बर को
उन्होंने अपनी खुद की पार्टी ' कर्नाटक जनता पार्टी ' को राज्य के सियासी
अखाड़े में उतारकर पहली बार आरएसएस और भाजपा की ठेंगा दिखाते हुए भाजपा को
येदियुरप्पा होने के मायने बता दिए । इस साल 30 नवंबर को भाजपा में अपने 40
साल पूरे कर चुके येदियुरप्पा के जाने से कर्नाटक में भाजपा की सियासी
जमीन दरकने के पूरे आसार अभी से नजर आने लगे हैं । शायद यही कारण है भाजपा
अपने दक्षिण के दुर्ग को लेकर पहली बार चिन्तित नजर आ रही है और
येदियुरप्पा के साथ निकटता बढाने वाले लोगो को एक एक करके ठिकाने लगा रही
है । इसकी बानगी येदियुरप्पा की पार्टी गठित होने से ठीक एक दिन पहले
देखने को मिली जब प्रदेश के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार ने सहकारिता मंत्री
बीजे पुट्टास्वामी को बर्खास्त कर दिया जिनकी गिनती येदियुरप्पा के सबसे
करीबियों में की जाती है । इसके अलावे तुमकुर से लोक सभा सांसद जी एस
बासवराज को भी पुट्टास्वामी की तर्ज पर पार्टी विरोधी गतिविधियो के आरोप
में कारण बताओ नोटिस जारी करने के साथ ही पार्टी से बर्खास्त कर दिया ।
भाजपा में येदियुरप्पा अपने को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद से
लगातार अपने को असहज महसूस कर रहे थे और समय समय पर संगठन को पार्टी छोड़ने
की घुड़की देते रहते थे ।सदानंद गौड़ा के राज्य के मुख्यमंत्री पद से
इस्तीफे के बाद पार्टी ने येदियुरप्पा के कहने पर राज्य के विधान सभा
अध्यक्ष जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमोट किया लेकिन
येदियुरप्पा की दाल उनके साथ भी नहीं गल पाई क्युकि सत्ता सुख भोगते
भोगते येदियुरप्पा की पार्टी में ठसक लगातार बढती ही गई और आये दिन वह
आलाकमान के सामने अपनी मांगे मनवाने के लिए अपना शक्ति प्रदर्शन करते रहते
थे । यही वजह थी उन्हें पार्टी में मुख्यमंत्री पद से इतर कोई पद नहीं
चाहिए था । औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण भारत में मुग़ल
साम्राज्य की स्थापना का रास्ता तैयार किया था इसी तर्ज पर कर्नाटक में
कमल खिलाने में येदियुरप्पा की भूमिका किसी से छिपी नहीं थी लिहाजा पार्टी
ने येदियुरप्पा को मनाने की लाख कोशिशे की लेकिन मोहन भागवत से लेकर सुरेश
सोनी और अरुण जेटली से लेकर वेंकैया नायडू सबका प्रबंधन डेमेज कंट्रोल के
लिए काम नहीं आ सका ।
पार्टी की
प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दिए जाने से पूर्व येदियुरप्पा का दावा था कई
सांसद, विधायक, मंत्री और पार्षद उनकी नई पार्टी में आने को तैयार हैं
लेकिन भाजपा आलाकमान द्वारा अब येदियुरप्पा के समर्थन में उतरे एक मंत्री
और एक सांसद के खिलाफ सख्त तेवर अपनाने के बाद अब राज्य में भाजपा से
जुडा कोई व्यक्ति खुलकर येदियुरप्पा के साथ जाने से कतरा रहा है । पार्टी
आलाकमान अब उन लोगो से भी पूछताछ कर रहा है जिन्होंने बीते दिनों
येदियुरप्पा की हावेरी में हुई विशाल रैली में शिरकत की ।येदियुरप्पा
पार्टी छोड़ते समय बहुत भावुक नजर आये और उन्होंने भाजपा को भी बहुत बुरा
भला जरुर कहा लेकिन अभी तक उन्होंने कर्नाटक की शेट्टार सरकार को गिराए
जाने की अपनी मंशा का इजहार खुले तौर पर नहीं किया है शायद इसका बड़ा कारण
उनका लिंगायत संप्रदाय से होना है जिसका प्रतिनिधित्व खुद राज्य के
मुख्यमंत्री शेट्टार करते हैं । कर्नाटक की पूरी राजनीती वोक्कलिक्का और
लिंगायत के इर्द गिर्द ही घूमती है जिसमे लिंगायत की बड़ी महत्वपूर्ण
भूमिका है । जहाँ पिछले विधान सभा चुनावो में इसी लिंगायत समूह के व्यापक
समर्थन के बूते येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हुआ था
वहीँ येदियुरप्पा द्वारा शेट्टार को नया मुख्यमंत्री बनाया गया था तो वह भी
उनकी बिरादरी से ही ताल्लुक रखते थे ।लिहाजा संकेत साफ़ है येदियुरप्पा
अभी शेट्टार सरकार को अपने समर्थको के बूते गिराने का खतरा मोल नहीं लेना
चाहते क्युकि आने वाले कर्नाटक के विधान सभा चुनाव में यही लिंगायत वोट एक
बार फिर हार जीत के समीकरणों को प्रभावित करेंगे और अगर आज येदियुरप्पा
समर्थक शेट्टार सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेते हैं तो यकीन जान
लीजिए लिंगायत आने वाले चुनावो में येदियुरप्पा के साथ अपनी पुरानी
हमदर्दी नहीं दिखा पाएंगे लिहाजा येदियुरप्पा ने कर्नाटक में अपनी रीजनल
फ़ोर्स के आसरे भाजपा का खेल खराब करने का मन बना लिया । राज्य की तकरीबन 7
करोड़ की आबादी में लिंगायतो की तादात 17 फीसदी है तो वहीँ वोक्कलिक्का 15
फीसदी हैं जिन पर येदियुरप्पा की सबसे मजबूत पकड़ है । गौर करने लायक बात
यह होगी कर्नाटक के आने वाले विधान सभा चुनावो में इन दोनों समुदायों का
कितना समर्थन भाजपा छोड़ने के बाद येदियुरप्पा अपने लिए जुटा पाते हैं ।
हालाँकि कुछ समय पूर्व येदियुरप्पा की कांग्रेस में शामिल होने की
अटकले भी मीडिया में खूब चली क्युकि भाजपा से नाराज येदियुरप्पा ने कई
मौको पर जहाँ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनकी पार्टी के विषय में
तारीफों के पुल बांधे वहीँ सोनिया की येदियुरप्पा के गुरु से हुई मुलाकात
के राजनीतिक गलियारों में कई सियासी अर्थ निकाले जाने लगे थे लेकिन
येदियुरप्पा अपने संगठन के बूते कर्नाटक की सियासत में अपना खुद का मुकाम
बनाना चाहते थे जो भाजपा और कांग्रेस से इतर एक अलग दल के रूप में ही उन्हें नजर आया ।
राजनीती संभावनाओ का खेल है । यहाँ किसी भी पल कुछ भी संभव हो सकता है ।
इसी सियासत के अखाड़े में बगावत की भी पुरानी अदावत रही हैं । कर्नाटक की
राजनीती में येदियुरप्पा का एक बड़ा नाम है उनका साथ भाजपा को न मिलने से
आने वाले विधान सभा और लोक सभा चुनावो में भाजपा की सत्ता में वापसी की राह
जरुर मुश्किल हो सकती है । पार्टी छोड़ते समय येदियुरप्पा की आंखो से
आंसू जरुर छलके लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आया कि उनकी कुर्सी भ्रष्टाचार
के आरोपों के चलते चली गई । इसके बाद उत्तराखंड में घोटालो की गंगा बहाने
के आरोप ने निशंक की भी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से विदाई कराई थी ।
रेड्डी बंधुओ को लाभ पहुचाने के आरोप में लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े
की एक रिपोर्ट ने कर्नाटक में खनन के कारपोरेट गठजोड़ को न केवल सामने ला
दिया बल्कि इसमें सीधे तौर पर येदियुरप्पा के साथ रेड्डी बंधुओ को कठघरे
में खड़ा किया । इसी के साथ येदियुरप्पा की भावी राजनीती पर ग्रहण लग गया ।
अपने दामन
को पाक साफ़ बताने वाले येदियुरप्पा शायद यह भूल गए राजनीती जज्बातों से
नहीं चलती । वह पार्टी के वफादार सिपाही जरुर थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं
था पार्टी उन्हें करोडो के वारे न्यारे करने की खुली छूट देती ।
बहरहाल यह कोई पहला मौका नहीं है जब सियासत के अखाड़े में किसी जनाधार वाले
नेता ने पार्टी को गुडबाय बोला है । भाजपा में इससे पहले कल्याण सिंह ने
एक दौर में भाजपा छोड़ी । 2010 में राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई लेकिन
कुछ कर नहीं पाए । मौलाना मुलायम नेताजी का भी दामन थामा लेकिन भाजपा
छोड़ने के बाद उनका राजनीतिक करियर समाप्त हो गया । मध्य प्रदेश की पूर्व
मुख्यमंत्री उमा भारती को ही लीजिए । राष्ट्रीय जनशक्ति पार्टी बनाई
लेकिन कुछ खास करिश्मा वह भी नहीं कर पाई और मजबूर होकर इस साल यू पी के
चुनावो से ठीक पहले उनकी दुबारा भाजपा में वापसी हुई । दिल्ली में भाजपा
की सियासी जमीन तैयार करने वाले मदन लाल खुराना को ही देख लें एक दौर
में उनका भी पार्टी से मोहभंग हो गया था लेकिन अपने खुद के दम पर वह सियासत
में कुछ खास करिश्मा नहीं कर पाए । गुजरात में केशुभाई पटेल को ही देख
लें मोदी का बाल बाका तक नहीं कर पाए ।अभी गुजरात के अखाड़े में अपनी अलग
पार्टी बनाकर मोदी के विरुद्ध वह कदम ताल जरुर कर रहे हैं लेकिन असल ताकत
20 दिसम्बर को पता चलेगी जब गुजरात के विधान सभा चुनावो के परिणाम सामने
आयेंगे । देखना होगा कितनी सीटो पर उनकी नई पार्टी जमानत जब्त होने से
बचा पाती है । शंकर सिंह बाघेला को ही देखें भाजपा छोड़ने के बाद कांग्रेस
में जाकर कुछ ख़ास करिश्मा नहीं कर पाए ।2006 में अर्जुन मुंडा ने भी भाजपा
को अलविदा कहा था लेकिन आज तक वह झारखण्ड में अपने बूते कोई बड़ा आधार अपने
लिए तैयार नहीं कर सके हैं ।येदियुरप्पा के भविष्य के साथ अगर हम इन सबको
जोडें तो एक बात साफ़ है जिन लोगो ने भी पार्टी से किनारे जाकर बगावत का
झंडा थामा वह सफल नहीं हो पाए और लोगो के बीच उनकी साख और विश्वसनीयता को
लेकर पहली बार सवाल उठे । यही नहीं दूसरी पार्टियों में जाने के बाद भी
उन्हें वो सम्मान नहीं मिल पाया जो उनकी मूल पार्टी में मिला करता था ।
मसलन अगर कांग्रेस के पन्ने टटोलें तो राजगोपालाचारी से लेकर जगजीवन राम ,
चौधरी चरण सिंह से लेकर कामराज , मोरार जी देसाई से लेकर नारायण दत्त
तिवारी, अर्जुन सिंह से लेकर नटवर सिंह तक सभी ने एक दौर में पार्टी छोड़ी
लेकिन अपना अलग मुकाम नहीं बना सके । इन सबके बीच क्या येदियुरप्पा
कर्नाटक में कमल को आने वाले समय में मुरझा पायेंगे यह एक बड़ा सवाल जरुर
है जो जेहन में आता जरुर है लेकिन अतीत के अनुभव बताते हैं अपने बूते आगे
की डगर मुश्किल है लेकिन येदियुरप्पा की गिनती कर्नाटक में एक बड़े नेता के
तौर पर है जिसने " नमस्ते प्रजा वत्सले मातृभूमे " से लेकर इमरजेंसी
के दौर और संगठानिक छमताओ से लेकर दक्षिण में भाजपा के सत्तासीन होने के
मिजाज को बहुत निकटता से बीते 40 बरस में महसूस किया है । यही नहीं
येदियुरप्पा ने सरकार से लेकर संगठन हर स्तर पर लोहा अपने बूते मनवाया
है । जहाँ 2004 में तत्कालीन कांग्रेसी सीं एम धरम सिंह की सरकार से
समर्थन वापस लेने के लिए जनता दल सेकुलर को उन्होंने ही राजी किया
वहीँ जेडीएस के आसरे कर्नाटक की राजनीती में गठबंधन की बिसात बिछाई । यही
नहीं उस दौर को अगर याद करें तो जब कुमारस्वामी बारी बारी से सरकार चलाने
के गठबंधन के फैसले से मुकर गए तो येदियुरप्पा ही वह शख्स भाजपा में थे
जिन्होंने अकेले चुनाव में कूदने का मन बनाया और 2008 में पहली बार भाजपा
को अपने दम पर जिताया । लेकिन सी एम बनने के बाद से येदियुरप्पा लगातार
विवादों में घिरे रहे । उस दौर में सरकारी जमीन अपने रिश्तेदारों को
डिनोटिफाई करवाने के आरोपों से उनकी जहाँ खूब भद्द पिटी वहीँ अपनी बेहद
करीबी मंत्री शोभा करंदलाजे को एक बिल्डर से करोडो की घूस दिलवाने के
आरोपों के साथ ही उन पर अपने एनजीओ के लिए खनन माफिया से भारी भरकम
रिश्वत लेने के आरोप भी लगे । इसके बाद लोकायुक्त संतोष हेगड़े की एक
रिपोर्ट ने 30 जुलाई 2011 को उनकी मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छीन ली ।
उसके बाद कर्नाटक में भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों के हाथ राज्य में कमान आ
चुकी है जिनमे सदानंद गौड़ा , जगदीश शेट्टार शामिल हैं लेकिन अभी भी
येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से इतर कोई पद किसी कीमत पर मंजूर नहीं है
शायद इसी वजह से वह आने वाले विधान सभा चुनावो में कर्नाटक के रण में अपना
भाग्य आजमाने उतरने वाले हैं । वैसे अभी भले ही येदियुरप्पा का दावा है
कई विधायक उनकी पार्टी के साथ खड़े हैं । अगर यह लोग राज्य की भाजपा सरकार
से समर्थन वापस ले लेते हैं तो वहाँ सरकार गिर जाएगी लेकिन येदियुरप्पा
के अब तक के तेवर यह बता रहे हैं वह कर्नाटक की भाजपा सरकार को अस्थिर
करने के मूड में फिलहाल नहीं दिखाई दे रहे हैं । मायने साफ़ हैं अकेले ही
चलना है और अकेले की 2013 की विधान सभा की बिसात को अपने बूते ही बिछाना
है । कर्नाटक में भाजपा का संगठानिक ढाँचा जहाँ कमजोर है वही राज्य में
रीजनल पार्टियों में बंगारप्पा और रामकृष्ण हेगड़े की पार्टियों का नाम
जेहन में उभरता है लेकिन यह दोनों दल अभी तक कर्नाटक में कुछ खास करिश्मा नहीं
कर पाए हैं । ऐसे में लाख टके का सवाल यह है क्या येदियुरप्पा अपने बूते
राज्य में सियासी जमीन तलाश कर पाएंगे या कर्नाटक का यह करिश्माई नेता
भी अतीत के अनुभवों की तर्ज पर राजनीती के गुमनाम अंधेरो में खो जायेगा ?
फिलहाल कुछ कहा पाना मुश्किल है क्युकि यह सब अभी भविष्य के गर्भ में है ।