हिन्दू परंपरा में त्यौहार से आशय उत्सव और हर्षोल्लास से लिया जाता है । अपने देश की बात की जाए तो यहाँ मनाये जाने वाले त्योहारों में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं । यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहार कमोवेश परिस्थिति के अनुसार अपने रंग , रूप और आकार में भिन्न हो सकते हैं लेकिन इनका अभिप्राय आनंद की प्राप्ति ही होता है । अलग अलग धर्मों में त्यौहार मनाने के विधि विधान भिन्न हो सकते हैं लेकिन सभी का मूल मकसद बड़ी आस्था और विश्वास का संरक्षण होता है । सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा जुडी हुई है जिनमे से सभी का सम्बन्ध आस्था और विश्वास से है । यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है इन त्योहारों की पौराणिक कथाएँ भी प्रतीकात्मक होती हैं । कार्तिक मॉस की अमावस के दिन दीवाली का त्यौहार मनाया जाता है । दीवाली का त्यौहार महज त्यौहार ही नहीं है इसके साथ कई पौराणिक गाथाए भी जुडी हुई हैं ।
दीवाली की शुरुवात आमतौर पर कार्तिक मॉस की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होती है जिसे धनतेरस कहा जाता है । इस दिन आरोग्य के देव धन्वन्तरी की पूजा अर्चना का विधान है । इसी दिन भगवान को प्रसन्न रखने के लिए नए नए बर्तन , आभूषण खरीदने का चलन है । यह अलग बात है मौजूदा दौर में बाजार अपने हिसाब से सब कुछ तय कर रहा है और पूरा देश चकाचौंध के साये में जी रहा है जहां अमीर के लिए दीवाली ख़ुशी का प्रतीक है वहीँ गरीब आज भी दीवाली उस उत्साह और चकाचौध के साये में जी कर नहीं मना पा रहा है जैसी उसे अपेक्षा है क्युकि समाज में अमीर और गरीब की खाई दिनों दिन गहराती ही जा रही है ।
धनतेरस के दूसरे दिन नरक चौदस मनाई जाती है जसी छोटी दीवाली भी कहते हैं । इस दिन किसी पुराने दिए में सरसों के तेल में पांच अन्न के दाने डालकर घर में जलाकर रखा जाता है जो दीपक यम दीपक कहलाता है । ऐसा माना जाता है इस दिन कृष्ण ने नरकासुर रक्षक का वध कर उसके कारागार से तकरीबन 16000 कन्याओं को मुक्त किया था । तीसरे दिन अमावस की रात दीवाली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाया जाता है । इस दिन गणेश जी और लक्ष्मी की स्तुति की जाती है । दीवाली के बाद अन्नकूट मनाया जाता है । लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं । पौराणिक मान्यता है कृष्ण ने नंदबाबा और यशोदा और ब्रजवासियों को इन्द्रदेव की पूजा करते देखा ताकि इन्द्रदेव ब्रज पर मेहरबान हो जाये तो उन्होंने ब्रज के वासियों को समझाया कि जल हमको गोवर्धन पर्वत से मिलता है जिससे प्रभावित होकर सबने गोबर्धन को पूजना शुरू कर दिया । यह बात जब इंद्र को पता चली तो वह आग बबूला हो गए और उन्होंने ब्रज को बरसात से डूबा देने की ठानी जिसके बाद भारी वर्षा का दौर बृज में देखने को मिला । सभी रहजन कृष्ण के पास गए और तब कान्हा ने तर्जनी पर गोबर्धन पर्वत उठा लिया । पूरे सात दिन तक भारी वर्षा हुई पर ब्रजवासी गोबर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे । सुदर्शन चक्र ने उस दौर में बड़ा काम किया और वर्षा के जल को सुखा दिया । बाद में इंद्र ने कान्हा से माफ़ी मांगी और तब सुरभि गाय ने कान्हा का दुग्धाभिषेक किया जिस मौके पर 56 भोग का आयोजन नगर में किया गया । तब से गोबर्धन पर्वत और अन्नकूट की परंपरा चली आ रही है ।
शुक्ल द्वितीया को भाई दूज मनायी जाती है । मान्यता है यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज आस पास भी नहीं फटकते । दीवाली में दिए जलाने की परंपरा उस समय से चली आ रही है जब रावन की लंका पर विजय होने के बाद राम अयोध्या लौटे थे । राम के आगमन की ख़ुशी इस पर्व में देखी जा सकती है । जिस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या लौटे थे उस रात कार्तिक मॉस की अमावस थी और चाँद बिलकुल दिखाई नहीं देता था । तब नगरवासियों में अयोध्या को दीयों की रौशनी से नहला दिया । तब से यह त्यौहार धूमधाम से मनाया जा रहा है । ऐसा माना जाता है दीवाली की रात यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हस परिहास करते और आतिशबाजी से लेकर पकवानों की जो धूम इस त्यौहार में दिखती है वह सब यक्षो की ही दी हुई है । वहीँ कृष्ण भक्तों की मान्यता है इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राक्षस नरकासुर का वध किया था । इस वध के बाद लोगों ने ख़ुशी में घर में दिए जलाए । एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान् विष्णु ने नरसिंह रूप धारण कर हिरनकश्यप का वध किया था और समुद्र मंथन के पश्चात प्रभु धन्वन्तरी और धन की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई जिसके बाद से उनको खुश करने के लिए यह सब त्योहार के रूप में मनाया जाता है । वहीँ जैन मतावलंबी मानते हैं कि जैन धरम के 24 वे तीर्थंकर महावीर का निर्वाण दिवस भी दिवाली को हुआ था । बौद्ध मतावलंबी का कहना है बुद्ध के स्वागत में तकरीबन 2500 वर्ष पहले लाखो अनुयायियों ने दिए जलाकर दीवाली को मनाया । दीपोत्सव सिक्खों के लिए भी महत्वपूर्ण है । ऐसा माना जाता है इसी दिन अमृतसर में स्वरण मंदिर का शिलान्यास हुआ था और दीवाली के दिन ही सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को कारागार से रिहा किया गया था । आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने 1833 में दिवाली के दिन ही प्राण त्यागे थे । इस लिए उनके लिए भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है ।
भारत के सभी राज्यों में दीपावली धूम धाम के साथ मनाई जाती है । परंपरा के अनुरूप इसे मनाने के तौर तरीके अलग अलग बेशक हो सकते हैं लेकिन आस्था की झलक सभी राज्यों में दिखाई देती है । गुजरात में नमक को लक्ष्मी का प्रतीक मानते हुए जहाँ इसे बेचना शुभ माना जाता है वहीँ राजस्थान में दीवाली के दिन रेशम के गद्दे बिछाकर अतिथियों के स्वागत की परंपरा देखने को मिलती है । हिमाचल में आदिवासी इस दिन यक्ष पूजन करते हैं तो उत्तराखंड में थारु आदिवाई अपने मृत पूर्वजों के साथ दीवाली मनाते हैं । बंगाल में दीवाली को काली पूजा के रूप में मनाया जाता है । देश के साथ ही विदेशों में भी दीवाली की धूम देखने को मिलती है । ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक में यह में दीवाली धूम के साथ मनाया जाता है । विदशों में भी धन की देवी के कई रूप देखने को मिलते हैं । धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्रकट का दिन माना जाता है । भारतीय परंपरा उल्लू को लक्ष्मी का वाहन मानती है लेकिन महालक्ष्मी स्रोत में गरुण अथर्ववेद में हाथी को लक्ष्मी का वाहन बताया गया है । प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू ही बताया गया है लेकिन प्राचीन यूनान में धन की अधिष्ठात्री देवी के तौर पर पूजी जाने वाली हेरा का वाहन मोर है । भारत के अलावा विदेशों में भी लक्ष्मी पूजन के प्रमाण मिलते हैं । कम्बोडिया में शेषनाग पर आराम कर रही विष्णु जी के पैर दबाती एक महिला की मूरत के प्रमाण बताते हैं यह लक्ष्मी है । प्राचीन यूनान के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की आकृति देखी जा सकती है । रोम में चांदी की थाली में लक्ष्मी की आकृति होने के प्रमाण इतिहासकारों ने दिए हैं । श्रीलंका में भी पुरातत्व विदों को खनन और खुदाई में कई भारतीय देवी देवताओं की मूर्तिया मिली हैं जिनमे लक्ष्मी भी शामिल है । इसके अलावा थाईलैंड , जावा , सुमात्रा , मारीशस , गुयाना , अफ्रीका , जापान , अफ्रीका जैसे देशों में भी इस धन की देवी की पूजा की जाती है । यूनान में आइरीन , रोम में फ़ोर्चूना , ग्रीक में दमित्री को धन की देवी एक रूप में पूजा जाता है तो यूरोप में भी एथेना मिनर्वा औरऔर एलोरा का महत्व है ।
समय बदलने के साथ ही बाजारवाद के दौर के आने के बाद आज बेशक इसे मनाने के तौर तरीके भी बदले हैं लेकिन आस्था और भरोसा ही है जो कई दशकों तक परंपरा के नाम पर लोगों को एक त्यौहार के रूप में देश से लेकर विदेश तक के प्रवासियों को एक सूत्र में बाँधा है । बाजारवाद के इस दौर में घरों में मिटटी के दीयों की जगह आज चीनी उत्पादों और लाइट ने ले ली है लेकिन यह त्यौहार उल्लास का प्रतीक तभी बन पायेगा जब हम उस कुम्हार के बारे में भी सोचें जिसकी रोजी रोटी मिटटी के उस दिए से चलती है जिसकी ताकत चीन के सस्ते दीयों ने आज छीन ली है । हम पुराना वैभव लौटाते हुए यह तय करें कि कुछ दिए उस कुम्हार के नाम इस दीवाली में खरीदें जिससे उसकी भी आजीविका चले और उसके घर में भी खुशहाली आ सके । इस त्यौहार में भले ही महानगरों में आज चकाचौंध का माहौल है और हर दिन अरबों के वारे न्यारे किये जा रहे हैं लेकिन सरहदों में दुर्गम परिस्थिति में काम करने वाले जवानों के नाम भी हम एक दिया जलाये जो दिन रात सरहदों की निगरानी करने में मशगूल हैं और अभी भी दीपावली अपने परिवार से दूर रहकर मना रहे हैं । इस दीवाली पर हम यह संकल्प भी करें तो बेहतर रहेगा यदि इस बार की दीवाली हम पौराणिक स्वरुप में मनाते हुए स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करें । पटाखों के शोर से अपने को दूर करते हुए पर्यावरण का ध्यान रखें और कुम्हार के दीयों से अपना घर रोशन ना करें बल्कि समाज को भी नहीं राह दिखाए तो तब कुछ बात बनेगी