अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई, 1725 को अहमदनगर, महाराष्ट्र के गाँव छौंदी में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। एक साधारण से किसान परिवार में जन्मीं अहिल्याबाई होलकर छोटी उम्र से ही अपनी संस्कृति पर गर्व करती थी, साथ ही प्रजा में रह रहे आमजनों की पीड़ा की अनुभूति भी करती थी। इनके पिता मनकोजी राव शिन्दे शिवभक्त थे। पिता के संस्कार बालिका अहिल्या पर भी पड़े। उनके पिता मानकोजी शिंदे खुद धनगर समाज से थे, जो गांव के पाटिल की भूमिका निभाते थे। अहिल्याबाई का जीवन भी बहुत साधारण तरीके से गुजर रहा था लेकिन एकाएक किस्मत ने पलटी खाई और वह 18वीं सदी में मालवा प्रांत की रानी बन गईं। अहिल्याबाई होल्कर ने मालवा प्रांत की महारानी बनकर राजमाता के रूप में बड़ी लकीर खींची।
युवा अहिल्यादेवी का चरित्र और सरलता ने मल्हार राव होल्कर को भी प्रभावित किया। वे पेशवा बाजीराव की सेना में एक कमांडर के तौर पर काम करते थे। उन्हें अहिल्या इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने उनकी शादी अपने बेटे खांडे राव से करवा दी। इस तरह अहिल्या बाई एक दुल्हन के तौर पर मराठा समुदाय के होल्कर राजघराने में पहुंची। उनके पति की मौत 1754 में कुंभेर की लड़ाई में हो गई थी। ऐसे में अहिल्यादेवी पर जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने अपने ससुर के कहने पर न केवल सैन्य मामलों में बल्कि प्रशासनिक मामलों में भी रुचि दिखाई और प्रभावी तरीके से उन्हें अंजाम दिया। शादी के बाद उनका एक पुत्र और एक पुत्री हुई। वहीं कुछ सालों बाद ही अहिल्याबाई के पति का देहांत हो गया। इसके कुछ समय बाद ही 1766 में उनके ससुर मल्हारराव होल्कर की भी मृत्यु हो गई। जिसके बाद उन्होंने सत्ता को संभालने का भार अपने ऊपर ले लिया। शासन संभालने के कुछ दिनों बाद ही साल 1767 में उनके जवान पुत्र मालेराव की भी मृत्यु हो गई। पति, पुत्र , पुत्री , पुत्रवधू और पिता समान ससुर को खोने के बाद भी उन्होंने जिस तरह साहस और धैर्य से अपने कर्तव्यों का निर्वाहन किया से काम किया, वो सराहनीय है। इस संकटकाल में एक तपस्विनी की तरह से श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया और परिवार पर भीषण वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्यपथ पर हमेशा डटी रहीं। अहिल्याबाई एक विनम्र एवं उदार वीरांगना थी जिनके अंदर गरीबों और असहाय व्यक्ति के लिए दया और परोपकार की भावना भरी हुई थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। मल्हारराव के निधन के बाद उन्होंने पेशवाओं की गद्दी से आग्रह किया कि उन्हें क्षेत्र की प्रशासनिक बागडोर सौंपी जाए। मंजूरी मिलने के बाद 1766 में रानी अहिल्यादेवी मालवा की शासक बन गईं। उन्होंने तुकोजी होल्कर को सैन्य कमांडर बनाया। उन्हें उनकी राजसी सेना का पूरा सहयोग मिला। अहिल्याबाई ने कई युद्ध का कुशल नेतृत्व भी किया। वे एक साहसी योद्धा के साथ ही एक कुशल तीरंदाज भी थी जो हाथी की पीठ पर चढ़कर लड़ती थी। हमेशा आक्रमण करने को तत्पर भील और गोंड्स से उन्होंने कई बरसों तक अपने राज्य को सुरक्षित भी रखा।पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने इन्दौर के दीवान गंगाधर यशवन्त चन्द्रचूड़ से मिलकर अचानक हमला बोल दिया। रानी ने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक मार्मिक पत्र लिखा। रानी ने लिखा कि यदि युद्ध में आप जीतते हैं, तो एक विधवा को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी। और यदि हार गये, तो आपके मुख पर सदा को कालिख पुत जाएगी। मैं मृत्यु या युद्ध से नहीं डरती। मुझे राज्य का लोभ नहीं है, फिर भी मैं अन्तिम क्षण तक युद्ध करूंगी।इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गया। इसमें जहां एक ओर रानी अहल्याबाई ने उस पर कूटनीतिक चोट की थी, वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्पशक्ति का परिचय भी दिया था। रानी ने देशभक्ति का परिचय देते हुए उन्हें अंगे्रजों के षड्यन्त्र से भी सावधान किया था। अतः उसका मस्तक रानी के प्रति श्रद्धा से झुक गया और वह बिना युद्ध किये ही पीछे हट गया।रानी के जीवन का लक्ष्य राज्यभोग नहीं था। वे प्रजा को अपनी सन्तान समझती थीं। वे घोड़े पर सवार होकर स्वयं जनता से मिलती थीं। उन्होंने जीवन का प्रत्येक क्षण राज्य और धर्म के उत्थान में लगाया। एक बार गलती करने पर उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र को भी हाथी के पैरों से कुचलने का आदेश दे दिया था; पर फिर जनता के अनुरोध पर उसे कोड़े मार कर ही छोड़ दिया।
अहिल्याबाई हमेशा अपनी प्रजा और गरीबों की भलाई के बारे में सोचती रहती थी। उन्होंने समाज में विधवा महिलाओं की स्थिति, महिलाओं की शिक्षा पर बेहतरीन काम किया किया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह अहिल्याबाई ने अपनी नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वो काफी प्रशंसनीय है। आज भी अपने कार्यों और शासन के लिए अहिल्याबाई को लोग याद करते हैं । रानी अहिल्याबाई अपनी राजधानी महेश्वर भी ले गईं जहाँ पर उन्होंने 18वीं सदी का बेहतरीन और आलीशान अहिल्या महल बनवाया। पवित्र नर्मदा नदी के किनारे बनाए गए इस महल की नक्काशी हर किसी को प्रभावित करती थी। उस दौर में महेश्वर साहित्य, मूर्तिकला, संगीत और कला के क्षेत्र में एक गढ़ बन चुका था। मराठी कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंडी और संस्कृत विद्वान खुलासी राम उनके कालखंड के महान व्यक्तित्व थे।
अहिल्याबाई हर दिन वह अपनी प्रजा से बात करती थी। उनकी समस्याएं सुनती थी। 1767-1795 के कालखंड में रानी अहिल्याबाई ने ऐसे कई काम किए कि लोग आज भी उनका नाम बड़े गर्व के साथ लेते हैं। वो एक ऐसी रानी थीं जिन्होंने सत्ता का लोभ नहीं बल्कि समृद्धि को चुना। वो एक ऐसी महिला थीं जो 1700 की सदी में भी पढ़-लिखकर आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाती थीं। अपने साम्राज्य को उन्होंने समृद्ध बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने राजकोष का धन बड़े पैमाने पर कई किले, विश्राम गृह, कुएं और सड़कें बनवाने पर खर्च किया। वह लोगों क बीच जाना पसंद करती थी और मंदिरों को दान भी देती थी । एक महिला होने के नाते उन्होंने विधवा महिलाओं को अपने पति की संपत्ति को हासिल करने और बेटे को गोद लेने में भी मदद की। इंदौर को एक छोटे-से गांव से समृद्ध और सजीव शहर बनाने में उनकी भूमिका को नहीं नकारा जा सकता। उन्होनें हिमालय से लेकर दक्षिण भारत के कोने-कोने तक मंदिरों के निर्माण में बड़ा धन खर्च किया साथ ही काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारका, बद्रीनारायण, रामेश्वर और जगन्नाथ पुरी के ख्यात मंदिरों में उन्होंने अनेक काम करवाए जो आज भी बड़ी शान के साथ याद किये जाते हैं । धर्मपरायण होने के कारण रानी ने अपने राज्य के साथ-साथ देश के अन्य तीर्थों में भी मंदिर, कुएं, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि बनवाईं। एक तरफ काशी का वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर 1780 में उन्होंने ही बनवाया वहीँ त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थयात्रियों के लिए विश्रामगृह बनवाया। अयोध्या और नासिक में भगवान राम के मंदिर का निर्माण हो या उज्जयिनी में चिंतामणि गणपति मंदिर का निर्माण यह सब अहिल्याबाई के कार्यों की आज भी जीती जागती मिसाल हैं। सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर का पुनर्निर्माण भी उन्हीं की बड़ी देन है जिसे 1024 में गजनी ने आक्रमण कर लूट लिया था।
13 अगस्त, 1795 ई0 को 70 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ। उनका जीवन धैर्य, साहस, सेवा, त्याग और कर्तव्यपालन का प्रेरक उदाहरण है।उनके राज्य में कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों का भरपूर विकास हुआ। सही मायनों में अहिल्याबाई व्यक्तित्व की धनी हैं, जिनका जीवन मानवता की सेवा और मानवीय मूल्यों के संरक्षण को समर्पित रहा है ।
किसी भी तरह की मुश्किल में उन्होनें कभी धैर्य नहीं खोया और जनसेवा और लोककल्याण के काम करना उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य रहा। मानवीय मूल्य आधारित संकल्पना को धरातल में उतारना ही उनका हर समय उद्देश्य रहता था। अहिल्याबाई होल्कर ने अपने जीवन और कार्यों से अनेक प्रेरणादायी शिक्षाएं समाज को प्रदान की हैं जिनसे समाज के हर व्यक्ति को प्रेरणा लेने की जरूरत है।