Wednesday 2 December 2020

अहमद पटेल होने के मायने





 “मेरे लिए यकीन कर पाना मुश्किल है कि अहमद पटेल नहीं रहे। चार दशकों तक वह गुजरात और राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अभिन्न हिस्सा थे। राजनीति में उनका प्रवेश इंदिरा गांधी की प्रेरणा से हुआ और राजीव गांधी ने उन्हें बड़ी भूमिका सौंपी। मैं खुद जबसे कांग्रेस अध्यक्ष बनी, एक भरोसेमंद साथी के तौर पर वह हमेशा मेरे साथ खड़े रहे। वह ऐसे इंसान थे जिनसे मैं कभी भी सलाह ले सकती थी। किसी भी स्थिति में उन पर भरोसा कर सकती थी। वह हमेशा पार्टी के हित की बात करते। उन्हें समस्याओं को हल करने वाला, संकटमोचक कहा जाता था। वह वास्तव में ऐसे ही थे बल्कि इससे भी कहीं अधिक अहम। वह आत्मविश्वास से भरी शख्सियत थे और उनकी सलाह हमारे लिए नीति -निर्देशक की तरह होती थीं। इन्हीं कारणों से उनका असमय जाना हमारे लिए अपार दुख का विषय है। मैं उन्हें "अहमद" कहकर पुकारती थी। बड़े दयालु इंसान थे। दबाव के क्षणों में भी एकदम शांत चित्त और संयत रहते। कांग्रेस अध्यक्ष और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की चेयरपर्सन के तौर पर मेरी भूमिकाओं में वह मेरी ताकत बने रहे। किसी भी जरूरी समय पर उन तक पहुंच पाने का भरोसा न केवल आम कांग्रेस कार्यकर्ताओं बल्कि दूसरी पार्टी के नेताओं को भी था। उनकी दोस्ती और प्रभाव का दायरा बेहद व्यापक था और मैं निजी तौर पर जानती हूं कि कैसे दूसरे दलों के नेता उन पर यकीन करते थे, उनके साथ रिश्तों क कितनी अहमियत देते थे। अहमद बुनियादी तौर पर एक सांगठनिक व्यक्ति थे। कांग्रेस के सत्ता में रहने के दौरान भी उनकी रुचि संगठन में ही रही। सरकारी दफ्तर, पद-ओहदा, प्रचार में उनकी कोई रुचि नहीं थी और न ही उन्होंनें सार्वजनिक पहचान या प्रशंसा की कभी अपेक्षा की। लोगों की नजरों, सुर्खियों से दूर चुपचाप लेकिन बड़ी कुशलता के साथ अपना काम करते रहते। शायद काम करने के उनके तरीके ने उनकी अहमियत और उनके प्रभाव को और बढ़ा दिया था। राजनीति से जुड़े लोग आमतौर पर चाहते हैं कि लोग उन्हें देखें, सुनें। लेकिन अहमद उन चंद विरले लोगों में थे जो पृष्ठभूमि में रहते हुए किसी और को श्रेय लेते देखना पसंद करते। बड़े आस्थावान और पूरी तरह राजनीतिक गतिविधियों में रहने के बाद भी विशुद्ध रूप से एक पारिवारिक व्यक्ति थे। फिर भी पार्टी और उसके हितों के लिए पूरी तरह समर्पित। अपनी पहुंच का कभी कोई फायदा नहीं उठाया।


संवैधानिक मूल्यों और देश की धर्मनिरपेक्ष विरासत में उनका अटूट विश्वास था। अहमद हमें छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन उनकी यादें हमारे साथ हैं। जब भी कांग्रेस का 1980 से बाद का इतिहास लिखा जाएगा, उनका नाम ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जो पार्टी की तमाम उपलब्धियों के केंद्र में रहा। हममें से हर को कभी न कभी जाना है लेकिन समय ने अहमद को बड़ी क्रूरता के साथ ऐसे समय छीन लिया जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।कांग्रेस को उनकी जरूरत थी। भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन को उनकी जरूरत थी। हमें उनकी जरूरत थी।”


 कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अहमद पटेल को दी गयी भावुक श्रद्धांजलि  स्‍पष्‍ट रूप से पार्टी  में उनके महत्‍व को भी दर्शाती है। पटेल की एक अनोखी क्षमता थी कि वह पार्टी नेताओं के बीच सामंजस्‍य और एकता बनाए रखने में सक्षम थे। निजी हितों के बजाय पटेल पार्टी हित को सबसे ऊपर रखते थे शायद यही वजह रही इस दौर में पार्टी का हर छोटा कार्यकर्ता सीधे उनसे ही मिला करता था । एक तरह से वह कॉंग्रेस पार्टी के सबसे बड़े संकटमोचक थे। 

संसदीय राजनीती के मायने भले ही इस दौर में बदल गए हो और उसमे सत्ता का केन्द्रीयकरण देखकर अब उसे विकेंद्रीकृत किये जाने की बात की जा रही हो लेकिन देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस में परिवारवाद साथ ही सत्ता के केन्द्रीकरण का दौर नहीं थमा है। दरअसल आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस में सत्ता का मतलब एक परिवार के बीच सत्ता का केन्द्रीकरण रहा है फिर चाहे वो दौर पंडित जवाहरलाल नेहरु का हो या इंदिरा गाँधी या फिर राजीव गाँधी , सोनिया गांधी का । राजीव गाँधी के दौर के खत्म होने के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब कांग्रेस पार्टी की सत्ता लडखडाती नजर आई। उस समय पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान सीता राम केसरी के हाथो में थी। यही वह दौर था जिस समय कांग्रेस पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजरी। यही वह दौर था जब भाजपा ने पहली बार गठबंधन सरकार का युग शुरू किया और अपने बूते केन्द्र की सत्ता पायी थी। इस दौर में किसी ने शायद कल्पना नही की थी कि एक दिन फिर यही कांग्रेस पार्टी भाजपा को सत्ता से बेदखल कर केन्द्र में सरकार बना पाने में सफल हो जाएगी। यही नही वामपंथियों की बैसाखियों के आसरे अपने पहले कार्यकाल में टिकी रहने वाली कांग्रेस अन्य पार्टियों से जोड़ तोड़ कर सत्ता पर काबिज हो जाएगी और "मनमोहन" शतरंज की बिसात पर सभी को पछाड़कर दुबारा "किंग" बन जायेंगे ऐसी कल्पना भी शायद किसी ने नही की होगी । दरअसल उस समूचे दौर में कांग्रेस पार्टी की परिभाषा के मायने बदल चुके थे ।उसमे  परिवारवाद की थोड़ी महक तो देखी गई ही साथ ही कही ना कहीं भरोसेमंद "ट्रबल शूटरो" का भी समन्वय भी देखा गया जिसमें अहमद पटेल एक महत्वपूर्ण कड़ी हुआ करते थे । वह सीनियर और जूनियर नेताओं के बीच की दीवार थे जिसे भेद पानया किसी के लिए आसान नहीं था ।

अहमद पटेल परदे के पीछे से काँग्रेस में बिसात बिछाया करते थे । अहमद के भरोसे  काँग्रेस ने यू पी ऐ 1 से यू पी ए  2 की छलांग लगाई । सही मायनों में अगर कहा जाए तो सोनिया गाँधी ने जब से हिचकोले खाती कांग्रेस की नैय्या पार लगाने की कमान खुद संभाली  तब से  कांग्रेस की सत्ता का संचालन 10 जनपथ से हो रहा है । यहाँ पर सोनिया के सबसे  भरोसेमंद  पटेल कांग्रेस की कमान को ना केवल संभाले हुए थे जिनके आगे पूरी काँग्रेस नतमस्तक हुआ करती थी । इस दौर में भी  कांग्रेस की सियासत 10 जनपथ से तय हो रही थी जहां पर  अहमद भाई जैसे कांग्रेस के सिपहसलार समूची व्यवस्था को इस तरह  संभाल रहे थे  कि उनके हर निर्णय पर सोनिया की छाप जरुरी बन जाती थी । सही मायनों में अगर कहा जाए तो 10 जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय अहमद पटेल के जिम्मे थी जिनके निर्देशों पर इस समय पूरी पार्टी चल रही थी । "अहमद भाई" के नाम से मशहूर इस शख्स के हर निर्णय के पीछे सोनिया गाँधी की सहमती रहती थी। सोनिया के "फ्री हैण्ड " मिलने के चलते कम से कम कांग्रेस में तो कोई भी अहमद पटेल को नजरअंदाज नही कर सकता था ।

कांग्रेस में अहमद पटेल की हैसियत इसी से समझी जा सकती थी ,बिना उनकी हरी झंडी के  कांग्रेस में पत्ता तक नही हिला करता था। कांग्रेस में "अहमद भाई" की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के किसी भी छोटे या बड़े नेता या कार्यकर्ता को सोनिया से मिलने के लिए सीधे अहमद पटेल से अनुमति लेनी पड़ती थी । अहमद की इसी रसूख के आगे पार्टी के कई कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस करते थे लेकिन सोनिया मैडम के आगे कोई भी अपनी जुबान खोलने को तैयार नही होता था । उसी अपनी फरियाद सुनाने के लिए अहमद पटेल का सहारा लेना पड़ता था । मनमोहन सरकार मे शामिल एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने एक बार मुझे बताया था कि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्री अहमद पटेल से अनुमति लेकर सोनिया से मिलते हैं ।

अहमद भाई को समझने के लिए हमें 70 के दशक की ओर रुख करना होगा। यही वह दौर था जब अहमद गुजरात की गलियों में अपनी पहचान बना रहे थे। उस दौर में अहमद पटेल "बाबू भाई" के नाम से जाने जाते थे और 1977  से 1982 तक उन्होंने गुजरात यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली । 77 के ही दौर में वो भरूच कोपरेटिव बैंक के निदेशक भी रहे। इसी समय उनकी निकटता राजीव के पिता फिरोज गाँधी से भी बढ़ गई क्युकि राजीव के पिता फिरोज का सम्बन्ध अहमद पटेल के गृह नगर से पुराना था। इसी भरूच से अहमद पटेल तीन बार लोक सभा भी पहुंचे । 1984  में अहमद पटेल ने कांग्रेस में बड़ी पारी खेली और वह "जोइंट सेकेटरी" तक पहुँच गए लेकिन पार्टी ने उस दौर में उन्हें सीधे राजीव गाँधी का संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया था और उस दौर में इनकी खूब चलने लगी । इसके बाद कांग्रेस का गुजरात में जनाधार बढाने के लिए पटेल को 1986  में गुजरात भी भेजा गया । गुजरात में पटेल को करीब से जाने वाले बताते है पूत के पाँव पालने में ही दिखायी देते हैं शायद तभी अहमद पटेल ने राजनीती में बचपन से ही पैर जमा लिए थे। पटेल के टीचर ऍम एच सैयद ने उन्हें 8 वी क्लास का मोनिटर बना दिया था। यही नहीं  जोड़ तोड़ की कला में पटेल कितने माहिर थे इसकी मिसाल उनके टीचर यह कहते हुए देते है कि अहमद पटेल ने उस दौर में उनको उस विद्यालय का प्रिंसिपल बना दिया था।शायद बहुत कम लोगों को ये मालूम है कि गुजरात के पीरामन  में अहमद पटेल का जीवन क्रिकेट खेलने में भी बीता था उस दौर में  पीरामन की क्रिकेट टीम की कमान खुद वो सँभालते थे । टीम में उनकी गिनती एक अच्छे आल राउंडर के तौर पर होती थी। अहमद पटेल की इन्हीं  विशेषताओं के कारण शायद उन्हें उस पार्टी में एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई जो देश की सबसे बड़ी और आजादी के आंदोलन की पार्टी है जहां अहमद पटेल सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार थे ।अहमद पटेल के संबंध सभी पार्टियों के साथ बेहद आत्मीय थे । उनके कौशल और रणनीति का का लोहा आज  उनके विपक्षी भी मानते थे ।यकीन जान लें काँग्रेस पार्टी को बुरे दौर से उबारकर सत्ता में लाने में अहमद पटेल की भूमिका को किसी तरह से नजर अंदाज नही किया जा सकता । हाँ ये अलग बात है भरूच में कांग्रेस लगातार  लोक सभा चुनाव हारती जा रही है और वर्तमान में ढलान पर है लेकिन  फिर भी हर छोटे बड़े चुनाव में टिकटों कर बटवारा काँग्रेस में अहमद पटेल की सहमति से होता आया  जो यह बतलाने के लिए काफी है कि पार्टी में उनका सिक्का कितनी मजबूती के साथ जमा हुआ था । राहुल गांधी की नापसंद के बावजूद वह सोनिया के अहम सलाहकार यूं ही नहीं थे । 

अहमद पटेल की ताकत की एक मिसाल 2004  में देखने को मिली जब पहली बार कांग्रेस यू पी ए 1  में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी । इस कार्यकाल में सोनिया के "यसबॉस " मनमोहन बने ओर वह अपनी पसंद के मंत्री को विदेश मंत्रालय सौपना चाहते थे लेकिन दस जनपद गाँधी पीड़ी के तीसरे सेवक नटवर सिंह को यह जिम्मा देना चाहता था लेकिन मनमोहन नटवर को भाव देने के कतई मूड में नही थे। हुआ भी यूं ही। जहाँ इस नियुक्ति में मनमोहन सिंह की एक ना चली वही नटवर के हाथ विदेश मंत्रालय आ गया ।मनमोहन का झुकाव शुरू से उस समय अमेरिका की ओर कुछ ज्यादा ही था लेकिन अपने कुंवर साहब ईरान और ईराक के पक्षधर दिखाई दिए। कुंवर साहब अमेरिका की चरण वंदना पसंद नही करते थे और परमाणु करार करने के बजाए ईरान के साथ अफगानिस्तान , पाकिस्तान के रास्ते भारत गैस पाइप लाइन लाना चाहते थे । इस योजना में कुंवर साहब को गाँधी परिवार के पुराने सिपाही मणिशंकर अय्यर का समर्थन था ।वही मणिशंकर जो आज कांग्रेस पार्टी को सर्कस कहने और उसके कार्यकर्ताओ को जोकर कहने से परहेज नही किया करते । 

कुंवर , मणिशंकर मनमोहन को 10 जनपथ का दास मानते थे लेकिन समय ने करवट ली और "वोल्कर" के चलते नटवर ना केवल विदेश मंत्री का पद गवा बैठे बल्कि पार्टी से भी बड़े बेआबरू होकर निकल गए लेकिन इसके बाद भी मनमोहन अपनी पसंद के आदमी को विदेश मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन 10 जनपथ के आगे उनकी एक ना चली और प्रणव मुखर्जी को विदेश मंत्री की जिम्मेदारी मिली ।प्रणव की नियुक्ति से परमाणु करार तो संपन्न हो गया लेकिन देश की विदेश नीति वैसे नही चल पाई जैसा मनमोहन चाहते थे लेकिन 2009 में जब अपने दम पर मनमोहन ने अपने को "मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया तो दस जनपद के आगे उनकी चलने लगी। इसी के चलते मनमोहन ने अपनी दूसरी पारी में एस ऍम कृष्णा, शशि थरूर , कपिल सिब्बल को अपने हिसाब से कैबिनेट मंत्री की कमान सौपी। आई पी एल विवाद  थरूर के फँसने के बाद जब 10 जनपथ ने उनसे इस्तीफ़ा माँगा तब अकेले मनमोहन उनका बीच बचाव करते नजर आये। उस दौर में 10 जनपथ की तरफ  से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन को जबरदस्त घुड़की पिलाई गई थी । तब 10  जनपथ की ओर से मनमोहन को साफ़ संदेश देते हुए कहा गया था आपको ओर आपके मंत्रियो को 10  जनपथ के दायरे में रखकर काम करना होगा । यही नहीं  अहमद पटेल ने तो उस समय शशि थरूर को लताड़ते हुए यहाँ तक कह डाला था वे यह ना भूले वह किसकी कृपा से यू पी ए सरकार  में मंत्री बने हैं।

दरअसल यह पूरा वाकया दस जनपथ में अहमद पटेल की ताकत का अहसास कराने के लिए काफी है। दस जनपथ शुरुवात से नहीं  चाहता था  कि मनमोहन को हर निर्णय लेने के लिए "फ्री हेंड" दिया जाए। अगर ऐसा हो गया तो मनमोहन अपनी कोर्पोरेट की बिसात पर सरकार चलाएंगे यह दर सभी को सताने लगा । गाहे बगाहे कहा जाने लगा ऐसी सूरत में आने वाले दिनों में कांग्रेस पार्टी के  भावी "युवराज " के सर सेहरा बाधने में दिक्कतें पेश आ सकती थी इसलिए कांग्रेस के सामने वो दौर ऐसा था जब उसके हर मंत्री की स्वामीभक्ति मनमोहन के बजाए 10 जनपथ में सोनिया के सबसे विश्वासपात्र अहमद पटेल पर आ टिकी थी ।एक दौर ऐसा भी था जब अहमद पटेल की पार्टी में उतनी पूछ परख नही थी लेकिन जोड़ तोड़ की कला में बचपन से माहिर रहे अहमद पटेल ने समय बीतने के साथ गाँधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा बढ़ा ली और सोनिया के करीबियों में शामिल हो गए।राजनीतिक प्रेक्षक बताते है कि पार्टी में अहमद पटेल के इस दखल को पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता पसंद तक नही करते थे लेकिन सोनिया के आगे इस पर कोई अपनी चुप्पी नही तोड़ता था ।


कुल मिलाकर कांग्रेस में अहमद पटेल होने के मायने गंभीर थे । राज्य सरकारों में किसको मंत्री बनाना है ?  किस नेता को अपने पाले में लाना है ? जोड़ तोड़ कैसे होगा ? यह सब अहमद पटेल की आज सबसे बड़ी ताकत बन गई थी । अहमद की इसी काबिलियत के आगे जहाँ कांग्रेस हाईकमान नतमस्तक होता था  वही पूर्व प्रधानमंत्री  मनमोहन अपने मन की बेबसी के गीत गाते नजर आते थे । मनमोहन के अंतिम  मंत्रिमंडल विस्तार मे भी चली  तो सिर्फ दस जनपथ की जहां अहमद पटेल के निर्देशों पर शीशराम ओला को न केवल मंत्रिमंडल मे लिया गया बल्कि गिरजा व्यास को राजस्थान मे गहलोत की काट के तौर पर आगे किया गया ।  यू पी ए  के इस विस्तार मे राहुल की यंग ब्रिगेड से कोई चेहरा सामने नहीं आया ।  चली तो सिर्फ और सिर्फ अहमद पटेल की जिसमें  दस जनपथ के हर निर्णय में वह आगे रहे और अपने मनमुताबिक फैसले लेते रहे ।  यही नहीं पूर्व में  यू पी ए  दो  के  मंत्रियो अश्विनी कुमार और पवन बंसल के  इस्तीफे मे भी अहमद पटेल ने ही दस जनपद में  अहम रोल निभाया था ।   मनमोहन तो शुरू से दोनों के बीच बचाव मे सामने आए थे लेकिन दस जनपथ में अहमद का का भरोसा ये दोनों मंत्री नहीं जीत पाये जिसके चलते उनकी कुर्सी कुर्बान हो गयी ।  यहाँ भी अहमद पटेल का सिक्का चला जब वह दोनों मंत्रियो से मिले और इस्तीफे पर अड़ गए तब कहीं जाकर दोनों की कुर्सी छिनी । 

दस जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय भी अहमद पटेल के जिम्मे थी लेकिन पिछली बार अहमद पटेल गुजरात में बुरी तरह से घिर गए। राजनीती के चाणक्य अमित शाह की राज्य सभा की  बिसात में अहमद पटेल जिस तरह उलझे उसने कई सवालों को पहली बार खड़ा किया ।  गुजरात में कांग्रेस के कुल छह विधायक इस्तीफ़ा दे चुके थे तो शंकर सिंह वाघेला चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस को गुड़ बाय कर जिस अंदाज में हर दिन अपने रंग दिखा रहे थे। कांग्रेस ने अपने विधायकों को बेशक कर्नाटक  भेज दिया  लेकिन  कई विधायको की निष्ठा जिस तरह वाघेला के साथ थी उससे इस बात के आसार लग रहे थे कि राज्य सभा चुनाव में अगर क्रॉस वोटिंग हुई तो पटेल की हार तय हो जाएगी । अहमद पटेल सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार थे इसलिए उस दौर में कहा भी जाने लगा  गुजरात में हार का सीधा मतलब दस जनपद में पटेल के रुतबे का काम हो जाना होगा और यह हार सोनिया तक को परेशान कर सकती है ।   अहमद पटेल के लिए अगर क्रॉस वोटिंग हो जाती  तो उनकी राज्यसभा  में इंट्री  बंद हो जाती   जिसका सीधा मतलब दस जनपद की हार होगी और कांग्रेस मुक्त भारत की दिशा में  अब यह  सीधी चोट होगी ।  नोटा का विकल्प  उस चुनाव में बने रहने से पार्टी को अपने विधायकों से धोखा मिलने की आशंका सता रही थी । कांग्रेस अपना वोट सुरक्षित रखने के लिए पार्टी के 44 विधायकों को गुजरात से हटा कर बैंगलुरू ले गई, लेकिन उसकी परेशानी कम होती नहीं दिख रही थी । नोटा खत्म करने की उसकी मांग खारिज हो चुकी थी । सुप्रीमकोर्ट में झटका खाने के बाद पार्टी आशंकित थी  कि विधायकों को टूटने से भले ही वह बचा ले, लेकिन वोट में नोटा का उपयोग कर कुछ विधायक उसका खेल बिगाड़ सकते हैं। कांग्रेस की आशंका निर्मूल नहीं थी ।

 दरअसल, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यसभा चुनाव में पार्टी का व्हिप लागू नहीं होता। पार्टी संगठन स्तर पर भले ही अनुशासनात्मक कार्रवाई बाद में करती रहे, लेकिन वोट के पार्टी लाइन से बंधे नहीं होने से विधायक कहीं भी वोट डालने को स्वतंत्र रहते  हैं। राष्ट्रपति चुनाव के वक्त कांग्रेस यह देख चुकी थी । गुजरात में ही उसके 10 से ज्यादा विधायक एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के पक्ष में क्रास वोटिंग कर चुके थे । तत्कालीन  विधानसभा की सदस्य संख्या के आधार पर राज्यसभा के एक उम्मीदवार को न्यूनतम 44 वोटों की जरूरत थी । बैंगलुरू ले जाए गए कांग्रेस विधायकों की संख्या 44 थी । उसे दो विधायक एनसीपी और एक जदयू से भी समर्थन का आश्वासन था लेकिन इन 47 में से चार-पांच ने भी नोटा दबा दिया तो अहमद पटेल का संसद के उच्च सदन में जाना संभव नहीं हो  सकेगा ऐसा गाहे बगाहे कहा जाने लगा । दरअसल गुजरात में कांग्रेस के कुल 57 विधायक थे, लेकिन अब 6 विधायकों के पाले बदलने की वजह से संख्या घटकर 51 रह गई थी  ।  अहमद पटेल को राज्यसभा में जीत के लिए 47 विधायकों का वोट चाहिए थे  लेकिन हकीकत यही है कि वाघेला के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी की हालत पतली थी ।   उसके 6 विधायक कांग्रेस छोड़ चुके थे और कई और विधायक भाजपा के पाले में अंतिम समय तक जा सकते हैं ऐसा अंदेशा बना था ।  बीजेपी के चाणक्य अमित शाह उस दौर में ऐसी कोशिश में जुटे थे कि गुजरात कांग्रेस के कम से कम 22 विधायक उसका साथ छोड़ दें ।   ऐसा करने से गुजरात विधानसभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या 57 से घटकर 35 हो जाती  साथ ही कांग्रेस के 22 विधायकों के इस्तीफे से विधानसभा की सदस्य संख्या 182 से घटकर 160 हो जाती ।  ऐसी सूरत में  राज्यसभा में एक सीट की जीत के लिए 40 विधायकों के वोट की जरूरत पड़ती ।  अगर  ऐसा हो गया  होता तो बीजेपी के तीनों राज्यसभा उम्मीदवार- अमित शाह, स्मृति ईरानी और कांग्रेस से बीजेपी में आये बलवंत सिंह राजपूत की जीत पक्की  हो जाती  क्योंकि वहां पर बीजेपी के कुल 121 विधायक थे । उसके तीनों उम्मीदवारों के लिए जरूरी 120 वोट आराम से मिल जाते । सोनिया के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल गुजरात चुनावों से ठीक पहले अपनी पार्टी के अंदर बड़ी जंग लड़ रहे थे । अगर राज्यसभा चुनाव में पटेल की हार होती  तो यह हार दिसम्बर में गुजरात चुनाव से पहले कार्यकर्ताओं के मनोबल को गिराने का काम करती क्युकि पिछले कई चुनावों से अहमद पटेल के भरोसे  कांग्रेस ने गुजरात छोड़ा हुआ था जहाँ टिकटों के चयन में उनकी तूती बोला करती थी ।  लेकिन अहमद पटेल ने अपने रणनीतिक कौशल से गुजरात में राज्यसभा की सीट अपने नाम कर ली । इसी तरह से राजस्थान में भी जब काँग्रेस में संकट के बादल छाये थे तब अशोक गहलोत और सचिन पायलट को समझाने बुझाने का जिम्मा अहमद पटेल को ही सौंपा और राजस्थान में काँग्रेस टूटने से बच गई । छत्तीसगढ़  बघेल को कमान सौंपने  के लिए सोनिया   गाँधी को उन्होंने ही   राजी किया । इसी तरह से  मध्य प्रदेश में  कमलनाथ को कमान  देने  का उनका निजी फैसला था जिसका सम्मान सिंधिया और उनके समर्थकों को करना पड़ा  । महाराष्ट्र  में शिवसेना को कांग्रेस और राकपा के साथ लाकर महाअघाड़ी बनाने के पीछे ढाल अहमद पटेल ही थे । 

अहमद पटेल  इतनी जल्दी दुनिया से रुखसत हो जाएंगे इसका भान कार्यकर्ताओं तक को नहीं था ।  सोनिया तक उनकी फरियाद पहुँचाने का माध्यम भी अहमद भाई ही थे । काँग्रेस के सितारे अभी लंबे समय से गर्दिश में हैं ऐसे समय में अहमद पटेल की जरूरत काँग्रेस को सबसे अधिक थी । अहमद पटेल के जाने के बाद काँग्रेस में अब युवा नेताओं के दिन बदल सकते हैं । उम्मीद है पार्टी में अब सीनियर और जूनियर नेताओं के बीच की लड़ाई खत्म हो जाएगी और राहुल गांधी का दबदबा बढ़ सकता है । ऐसे हालातों में कांग्रेस  में अब सभी सीनियर नेता किनारे किए जा सकते हैं ।  फिर आज के दौर में कांग्रेस के कार्यकर्ता अगर यह सवाल पूछते है कि 24  अकबर रोड नाम मात्र का दफ्तर बनकर रह गया है तो जेहन में उमड़ घुमड़ कर कई सवाल पैदा होते हैं  क्युकि राहुल गांधी के पार्टी में रहने के बाद भी स्थितिया कमोवेश वैसी ही हैं जैसी पहले हुआ करती थी ।  कार्यकर्ता आज भी उपेक्षित है।  टिकटों को लेकर जोड़ तोड़ और गुटबाजी काँग्रेस मे आज भी चरम पर है । कोई नया विजन नहीं है । मोदी के मुकाबिल पार्टी में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो मॉस लीडर का ताज  ले सके।  राहुल के  लाख अनुनय विनय के  बाद भी कांग्रेस के नेताओं का  कार्यकर्ताओं से सीधा कोई संवाद स्थापित नहीं हुआ है। पार्टी को  हर चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ रहा है उसके बाद भी वह आत्ममंथन को तैयार नहीं है । संगठन में अभी भी ऐसे नेता कुंडली मार कर बैठे हैं जिनकी स्वामीभक्ति गाँधी परिवार के प्रति  है लेकिन  भीड़ खींचने वाले नेताओं के तौर पर वह कई पीछे हैं  और इस दौर मे भी दस जनपथ  की गणेश परिक्रमा करने का पुराना कांग्रेसी दौर नहीं थमा है ।  ऐसे में  अब क्या उम्मीद करें देश की सबसे पुरानी पार्टी  बिना अहमद पटेल के   कांग्रेस दस जनपथ की कालकोठरी से खुद को बाहर निकाल पाएगी ? कहना मुश्किल है  इस बार दस जनपद में अहमद पटेल नहीं हैं ।