राजस्थान के मलैही इलाके से ताल्लुख रखने वाले कल्याण बताते हैं केदारनाथ में हादसे वाले दिन जिस भवन में वह ठहरे थे सुबह होते ही उस भवन में दूसरी मंजिल तक पानी आ गया। जैसे-तैसे जान बचाकर वह तीसरी मंजिल की तरफ भागे लेकिन सैलाब इतना तेज था कि भागने पर पत्नी का हाथ छूट गया और देखते-देखते वह भी उफनती हुई धाराओं में समा गई। साथ में मौजूद उनके दल के दो सदस्य भी पानी की धारा के साथ बह गये। पानी का बहाव इतना तेज था कि पास खड़े तीन-चार खच्चर भी नदी के वेग से नहीं बच पाये।
सूरत गुजरात से आये भीम केदार के द्वार पर मोक्ष की कामना लिये अपने पत्नी के साथ आये थे लेकिन प्रकृति के तांडव ने उनको भी नहीं छोड़ा। भयावह मंजर देखकर दिल का दौरा पड़ गया और पत्नी को मंदाकिनी की विशाल धाराओं ने अपने आगोश में ले लिया। राजस्थान के राधेश्याम ने तो इस सैलाब में अपने पूरे परिवार को ही खो दिया। उनकी आंखों से अभी भी आंसू आ रहे हैं वह सुध-बुध खो चुके हैं। अपनों के खोने के गम को उनकी सिसकती आंखें बता रही है। महाराष्ट्र के गोंदिया से आई साक्षी तो अपने दो साले के बच्चे को गोद में लेकर देवभूमि आई थी लेकिन उत्तरकाशी की एक पहाड़ी पर पूरी दो रातें उन्होंने घने अंधेरे में टार्च की रोशनी में बिताई जहां गन्दा पानी पिलाकर उन्होंने बच्चे की जान किसी तरह बचाई।
रूद्रप्रयाग में खच्चरों का व्यापार करने वाले व्यापारी राकेश तो अपने साथी को अपने साथ लेकर 16 जून को केदार के दर पर पहुंचे थे। रात को बरसात शुरू हुई। 17 जून की सुबह तकरीबन 6 बजकर 55 मिनट पर गांधी सरोवर से पानी का ऐसा सैलाब आया कि उसके साथी और खच्चर मन्दाकिनी की कई फुट ऊंची धाराओं में बह गये। भारी अफरातफरी के बीच किसी तरह उन्होंने मंदिर के दरवाजे की आड़ ली और अन्दर प्रवेश किया। राकेश बताते हैं बारिश के कारण उस रात किसी ने महामृत्युंजय का जाप किया तो किसी ने आरतियां और भजन गाकर छ्त्र पकड़कर रात काटी लेकिन प्रकृति की तांडव लीला के आगे किसी की एक नहीं चली। वह लोग खुशकिस्मत थे जो तेजी से मंदिर के भीतर चले गये और उन्हीं में से एक राकेश भी थे।
केदारघाटी में भीषण तबाही का मंजर देखने के बाद हर किसी की रूह कांप रही है। चारधाम की यात्रा करने वाले यात्री डरे और सहमे हुए नजर आते हैं क्योंकि पहली बार उन्होंने मौत को इतने करीब से देखा। किसी की आंखों में अपने के खोने का गम साफ झलक रहा है तो कोई जंगल में फंसने के बाद सकुशल एयरपोर्ट पहुंचने के लिए सेना का शुक्रिया अदा कर रहा है। कोई देवभूमि के वाशिन्दों की दिलेरी पर गर्व कर रहा है जिन्होंने अपने मकानों में उन्हें सिर छुपाने का आशियाना दिया तो कोई अपने सहयात्रियों की मदद का मुरीद हो गया है जिनकी वजह से उन्हें इस भीषण आपदा में नया जीवन मिल गया। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो देवभूमि में इस बार हुई लूटपाट को हमेशा याद रखेंगे । जैसे-जैसे उत्तराखण्ड में आपदा राहत के कार्यों में तेजी आ रही है वैसे-वैसे उत्तराखण्ड में बीते दिनों हुई इस तबाही की ऐसी अनगिनत कहानियां सामने आ रही है।
प्रकृति के इस तांडव का कहर सबसे ज्यादा चमोली, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ के सीमान्त इलाकों में पड़ा है। उत्तराकाशी के भटवाड़ी, झाला , पुरोला ,भरसाई सरीखे सैकड़ो गाँव आपदा की जद में हैं वहीँ रुद्रप्रयाग के पोला , घनसाली , सिल्ली , विजय नगर , चंद्रापूरी , देवल गाँव जैसे पचास से ज्यादा गाँव प्रभावित हैं । चमोली जिले में पांडुकेश्वर, ,गोपेश्वर थराली , गोविन्दघाट सरीखे कई साठ से सत्तर गाँव इस आपदा के गर्त में समा गए हैं । यहाँ की सारी सड़कों का नामोनिशान मिट गया है। खेत खलिहान सब कुछ पानी के सैलाब में बन गए हैं । कोई मवेशी भी अब नहीं बचे हैं । कई लोगो ने अपने परिवार को खोया है तो कई महिलाये विधवा हो गई हैं । ये वही महिलाए हैं जिन्होंने कभी राज्य आन्दोलन में ना केवल सरकार से सीधी लड़ाई लड़ी बल्कि चिपको आन्दोलन के जरिये गढवाल का नाम पूरे विश्व के पटल पर उकेरा था । आज इन गावो का संपर्क कट चुका है और सबसे बड़ा संकट यह है आने वाले दिनों में यह अपना घर परिवार कैसे पलेंगी ?
पुल टूटने से राशन मिलना मुश्किल हो गया है। संचार बहुत दूर की गोटी हो चली है और तो और सारे मकान और होटल पानी के वेग में बह गये हैं। लोगों के तीन मंजिले भवन ताश के पत्तों की तरह ऐसे ढह रहे है मानो किसी फिल्म का ट्रेलर चल रहा है। चार धाम की तीन महीने की यात्रा से इनकी पूरी साल भर की जो आजीविका चलती थी अब उस पर ग्रहण लग गया है क्युकि अब फिर से यह यात्रा शुरू करने में कम से कम चार से पांच साल का समय लग सकता है ऐसे में उनकी जिन्दगी कैसे चलेगी यह सवाल अहम है क्युकि उसकी सुध लेने वाला अब कोई नहीं बचा है । केदारघाटी की इस आपदा में सबका ध्यान गढ़वाल की तरफ गया है। कुमाऊ मंडल के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के तल्ला जोहार, मल्ला जोहार, गोरीछाल, मदकोट, सोबला, पांगला, दारमाघाटी भी इस आपदा से बुरी तरह प्रभावित हुई है। यहां रहने वाले कई लोगों की जिन्दगी जहां उजड़ गई है तो वहीं मकान नदी में बह गये हैं। दुकानों का सामान नदी की उफनती धाराओं में बह गया है। मवेशियों के साथ वाहन भी ऐसे बहे हैं, मानों कागज की कोई नाव पानी में तैर रही है। यहां पर मौसम की आंख मिचौली के बीच कई हजार जिन्दगियां अब भी दांव पर लगी है।
उत्तराखण्ड की नहीं पूरे देश का यह ऐसा भीषण संकट है जहां सेना के कठिन प्रयासों के बाद हजारों लोग मौत के मुंह से निकलकर बाहर आये है तो वहीं भीषण बरसात ने उनके अपनों के नामोनिशान को कहीं का नहीं छोड़ा है। हजारों लाशें भागीरथी, अलकनन्दा, गंगा, मन्दाकिनी, काली, गोरी नदियों में बह गई है जिनका मिलना मुश्किल हो चुका है। जो मिल भी रही है वह क्षत-विक्षत है जिन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। केदारनाथ के बाहर पड़े लाशों के ढेर को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है मलबा मंदिर से कई फुट ऊपर तक बहा है। स्थिति की भयावहता को इस बात से समझा जा सकता है जिन्दगियों को बचाने के लिए सेना ने प्रशासन और सरकार के साथ मिलकर अपनी पूरी ताकत यहां झोंक दी है। केदारनाथ कभी शिवभक्तों की भारी भीड़ से गुलजार था लेकिन अब यहां खड़े होने पर ऐसा लग रहा है मानो यह कोई भुतहा-खंडहर बन चुका है। चारों ओर मलबा ही मलबा और शवों का ढेर हैं जो मलबे के कई फीट अंदर तक नजर आता है। कुदरत की इस तांडवलीला को केदारघाटी का रामबाड़ा, गौरीकुंड और सोनप्रयाग बता रहा है जहां कभी लोग अठखेलियां खेला करते थे लेकिन आज यह पूरी तरह उजड़ गया है। यहाँ का लक्ष्मी नारायण मंदिर, दुर्गा मंदिर पानी में बह चुका है जिसके अवशेष मिलने भी बहुत दूर हैं । केदारपुरी का शिवशक्ति पूजा प्रतिष्ठान गायब है । काली कमली , अन्नपूर्णा लौज जमींदोज हो गए हैं । पास का बाजार अब नहीं दिखता जहाँ हर वक्त चहल पहल देखने को मिलती थी । इस सैलाब ने अगस्तमुनि, गौरीकुंड में भी भारी तबाही मचा दी है जहां पुराने मकानों और पुलों का नामोनिशान नहीं है। लोग सेना की मदद से रस्सी के सहारे चढ़कर अपनी मंजिल तक किसी तरह पहुंच रहे हैं। मार्ग में जगह-जगह पत्थर गिर रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों पहाड़ मनुष्य को विनाश का पाठ पढ़ा रहे है क्योंकि विकास के चमचमाते सपने दिखाकर यहां के पहाड़ों को बेतरतीब ढंग से पिछले कई दशक में काटा गया है। गोविन्दघाट में हर तरफ पानी ही पानी दिख रहा है। सैकड़ों वाहन अब तक अलकनन्दा के वेग में बह चुके है। सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में बलुवाकोट से आगे की सड़क का नामोनिशान नहीं है तो मदकोट में सैकड़ों परिवारों के घर ढह चुके हैं। धारचूला में काली नदी में एनएचपीसी की आवासीय कालौनी जलमग्न है।
यह वही उत्तराखण्ड है जिसने 80 के दशक में ज्ञानसू का भूकम्प, भीषण अतिवृष्टि, बाढ़ का कहर देखा तो वहीं 90 के दशक में उत्तरकाशी और चमोली के भूकम्प के झटके भी महसूस किये है। कैलाश मानसरोवर यात्रा के पथ में मालपा नामक जगह पर भूस्खलन से भारी तबाही का मंजर भी इसने देखा है। 2003 मे उत्तरकाशी में वरूणावत के भारी भूस्खलन के अलावा 2012 में उत्तरकाशी में ही असीगंगा व भागीरथी के तट पर बादल फटने के कहर के अलावा सुमगढ़ बागेश्वर में बादल के कहर में कई परिवारों को जमींदोज होते देखा है, जहां जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ और जान माल को व्यापक नुकसान हुआ। वहीं बीते बरस अगस्त में ऊखीमठ में बादल फटने का कहर भी यह प्रदेश देख चुका है। लेकिन हमारी याददाश्त कम रहती है। हम पुरानी घटनाओं को जल्द भूलना जानते हैं और उससे सबक भी नहीं लेना चाहते। आज प्रदेश के सामने खड़ा हुआ यह सबसे बड़ा संकट है जहां सरकारी मशीनरी के पसीने छूट गये हैं। केदारघाटी की इस घटना को भी विजय बहुगुणा की सरकार सही से टैकल नहीं कर पाई। इसकी बड़ी वजह प्रदेश की बेलगाम नौकरशाही है जिसे पहले दिन इतनी बड़ी विभीषिका का आभास तक नहीं हुआ। शायद इसी वजह से मुख्यमंत्री पहले दिन नौकरशाहों के सुर में सुर मिलाते देखे गये। दूसरे दिन भयावहता की तस्वीर उन्होंने केन्द्र को भेजी अपनी रिपोर्ट मे पेश की जिसके बाद प्रदेश की कार्यप्रणाली ने काम करना शुरू किया और विपक्षी दलों के नेताओं के हवाई दौरों को लेकर सक्रियता और होड़ देखने को मिली जहां सभी ने हवाई सैर का जमकर लुप्त उठाया। बेहतर होता अगर उस समय पूरा तंत्र लोगों को बचाने मे हेलीकाप्टर लगाता। अन्धाधुन्ध विकास और कारपरेट लूट के चलते उत्तराखण्ड में बीते एक दशक से ज्यादा समय से प्रकृति से भारी छेड़छाड़ शुरू हुई है। धार्मिक पर्यटन के नाम पर यहां जहां मुनाफे का बड़ा कारोबार ढाबों, रिजार्ट के जरिए हुआ है वहीं वनों की अन्धाधुंध कटाई से भी पहाड़ की परिस्थितिकी संकट में है। पहाड़ में जल,जमीन,जंगल का सवाल आज भी जस का तस है। नदियों के किनारे कब्जों की आड़ में जहां बड़ा अतिक्रमण हुआ है वही इसी की आड़ में बड़े-बड़े रिजार्ट भी खुले है। इन निर्माण कार्यों पर किसी तरह की रोक लगाने की जहमत किसी में नही है क्योंकि राजनेताओं, माफियाओं और कारपरेट के काकटेल ने पहाड़ को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसमें राजनेताओं की भी सीधी मिलीभगत है क्योकि न केवल अपने चहेतों को उन्होंने जमीनें यहां दिलवाई है बल्कि बड़ी परियोजना लगाने के नाम पर विकास के चमचमाते सपने के बीच रोजगार का झांसा भी पहाड के ग्रामीणों को दिया गया है। यही नहीं पावर वाली कम्पनियों से प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर मोटा माल अपनी जेबों में भरा है । राज्य गठन के बाद भाजपा, कांग्रेस की सरकारों ने अपने करीबियों को न केवल नदियों में खनन के पट्टे दिये हैं बल्कि ठेकेदारों को भी पहाड़ों में निर्माण कार्य में मुख्य मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया है। पर्यटन के सैर सपाटे के बीच पहाड़ में ट्रैवल ऐजेन्टों की सुविधा के लिए जगह जगह पहाड़ काटकर सड़के काटी गई है जहां बेतरतीब ढंग से गाडि़यां दौड़ रही है। साथ ही ऐसे इलाकों में जहां जल प्रचुर मात्रा में है वहां बांध बनाने का चलन सुरंग निकालकर शुरू हुआ है। अलग राज्य का गठन पहाड़ के पिछड़ेपन के कारण हुआ था लेकिन आज हालत यह है चट्टाने दरकने से गांव के गांव खाली हो रहे है । अब गाँव में बुजुर्गो की पीड़ी ही दिख रही है । जलविघुत परियोजना के नाम पर पहाड़ की जमीनों को खुर्द बुर्द किया जा रहा है। टिहरी इसका नायाब नमूना है जहां विकास की चमचमाहट दिखाई गई लेकिन टिहरी के डूबने की कथा स्थिति की भयावहता को उजागर करती है। प्राकृतिक सम्पदा की लूट में उत्तराखण्ड की कोई सरकार अछूती नहीं है। विकास के नाम पर सरकार की नीयत साफ नहीं है। हर किसी का उद्देश्य इस दौर में मुनाफा कमाना हो चला है और कारपरेट के आसरे फलक-फावड़े बिछाए जा रहे हैं। वर्तमान में प्रदेश के भीतर 200 से अधिक जलविघुत परियोजना चल रही है। तकरीबन 550 योजनाएं प्रस्तावित है जिनमें से गढ़वाल के मुख्य इलाकों में 70 परियोजनाएं निर्माणधीन है जो ,भागीरथी अलकनंदा और मंदाकनी में बनाई जानी हैं जहां पहाड़ों को चीरकर काटकर विस्फोट कर सुरंग बनाई जाएंगी जो भविष्य के लिए कतई सुखद संकेत नहीं है। इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहेंगे ऊर्जा प्रदेश होने के बाद भी उत्तराखण्ड के उन गांवों को बिजली नहीं मिलती जहां यह जलविघुत परियोजनाएं चल रही है। सारी बिजली तो दिल्ली ,हरियाणा , राजस्थान और मध्य प्रदेश सरीखे कई राज्यों को जा रही है ।
पिछले कुछ समय से उत्तराखंड में पर्यावरणीय मानको को ताक पर रखकर जिस तरह विकास के नाम पर अंधेरगर्दी यहां मची है उसी का परिणाम केदारघाटी का हाल का यह हादसा है। यह प्रकृति की आपदा से ज्यादा हमारे स्वयं के द्वारा निर्मित आपदा है। कालिदास की तर्ज पर जिस पेड़ पर हम बैठे है उसी को काटने में लगे हुए है। वन सम्पदा के साथ यही खिलवाड़ अब उत्तराखंड में विनाश को दावत दे रहा है। जंगलों को काटकर रिजार्ट बनाये जा रहे हैं तो वहीँ खनन माफियाओं के आगे उत्तराखण्ड का प्रशासन भी पूरी तरह बतमस्तक है।
उत्तराखण्ड का इलाका दुर्गम है। आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील इस राज्य में अब एक कारगर तन्त्र आपदा के मुकाबले के लिए काम करना चाहिए। हम आपदा पर नियंत्रण कर सकते है। चारधाम यात्रा से पूर्व मौसम विभाग ने भारी बारिश की चेतावनी राज्य सरकार को दी गई थी लेकिन राज्य सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को अंधेरे में रखा। उत्तराखंड मे मौसम के पूर्वानुमान के लिए केन्द्र सरकार ने मौसम रडार स्थापित करने के लिए जमीन दिये जानें की मांग 2004 में की थी लेकिन अभी तक राज्य सरकार जमीन ही नहीं दिला पाई है। सरकार की असंवेदनशीलता का एक और नमूना यह है कि राज्य में 2010 से 233 गांवों को विस्थापित पुनर्वास हेतु चुना गया था जिसकी संख्या आज बढ़कर 550 हो चली है। सरकार अब तक गढ़वाल के एक गांव का ही विस्थापन कर पाई हैजबकि इस दौर में सरकारें अपने प्रभाव व रसूख के इस्तेमाल से अब तक भूमाफिया, कारपरेट, अपने करीबियों , नाते रिश्तेदारों और नेताओं को कई सौ हेक्टेयर जमीने दे चुकी है।
प्राकृतिक संसाधनों की बड़ी लूट के कारण आज उत्तराखंड कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है। अगर अभी भी इस हादसे से हमने सबक नहीं लिया तो तबाही बड़े पैमाने पर होगी। हिमालय में अब मौसम बदल रहा है। पहाड़ों का दोहन किया जा रहा है। ग्लोबल वार्मिग का सीधा प्रभाव यहां भी महसूस किया जा सकता है। ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। अनियोजित विकास के कारण आज पर्वतीय इलाकों में संकट के बादल मडरा रहे है। राज्य बनने के बाद यहां बाहरी व्यक्तियों के जमीन होने से आबादी का घनत्व लगातार बढ रहा है जिससे बिल्डरों की पौ बारह हो गई है। भाजपा में जनरल खंडूरी के कार्यकाल में माफिया और नेता खौफ खाते थे और उनके शासन में बाहरी व्यक्तियों के जमीन खरीदने पर रोक लग गई थी लेकिन विजय बहुगुणा के आने के बाद एक बार फिर बिल्डरों के हौंसले बुलन्द है। वह पूरे पहाड़ को नोचकर खाना चाह रहे है जिससे सरकार की भी मिलीभगत है।
उत्तराखण्ड देश का एक ऐसा प्रदेश है जहा 2007 में पहली बार आपदा प्रबन्धन का एक मंत्रालय खोला गया था लेकिन मजेदार बात यह है उसकी एक भी बैठक आज तक नहीं बुलाई गई। आपदा प्रबन्धन के नाम पर तबसे बड़े-बड़े सेमिनार कर धन की व्यापक बंदरबाट ही की गई जिसमें राजनेताओं से लेकर नौकरशाही ने अपने हाथ साफ किये। यही नहीं नौकरशाहों के साथ हमारे नेताओ ने विदेश की बड़ी सैर कर अब तक आपदा प्रबंधन से ज्यादा अपना खुद का प्रबंधन मोटे माल को कमाकर किया है । बेहतर होता अगर इसी पैसो का इस्तेमाल डाप्लर रडार सिस्टम लगाने से लेकर सैटेलाईट फ़ोन खरीदने में किया जाता । आज इस छोटे प्रदेश का हर नेता विदेश घूमना पसंद कर रहा है । जिस जनता ने उसे चुनाव जिताकर विधायक बनाया है उससे उसको कुछ लेना देना नहीं है शायद यही वजह है चार धाम यात्रा में जान बहुत सस्ती है । वहीँ आपदा प्रबन्धन विभाग को उत्तराखण्ड में ऐसी दुधारू गाय माना जाता है जहां सबकी नजर प्रभावितों को मदद करने के बजाय अपना हित साधने और कमीशनखोरी में लगी रहती है। निचले स्तर से ऊपर स्तर तक भ्रष्टाचार का ऐसा घुन लगा है जो उत्तराखण्ड को खाये जा रहा है। भूविज्ञानी तो पहले ही यहां घनी आबादी वाले इलाकों में निर्माण के मानक बदलने की मांग कर चुके है लेकिन सरकारें ऐसा कहां सुनती हैं? भारत निर्माण के हक के नाम पहाड़ के मासूम ग्रामीणों को विकास व रोजगार के सपने दिखाए जा रहे हैं। वह भी पर्यावरणीय मानकों को ताक पर रखकर शायद तभी केदारघाटी मे जलप्रलय जैसी घटनाएं हो रही हैं। यह तो एक शुरुवात भर है । विकास की अंधी दौड़ में सरकारें किस तरह फर्राटा भर रही है इसका बेहतर नमूना गोमुख से होकर उत्तरकाशी तक 100 किमी फैला इलाका पेश करता है जिसे केन्द्र सरकार ने ईको सेंसटिव जोन बीते दिनों घोषित किया लेकिन प्रदेश की सरकार , मुख्यमंत्री और पांचों सांसदों को साथ होकर इसे खारिज करने की मांग प्रधानमंत्री से मिलकर कर चुके हैं। मजेदार बात यह है वर्तमान मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के सुर मे सुर मिलाते कदमताल कर रहे है। अब टिहरी की तर्ज पर लवासा बसाने की बात बहुगुणा द्वारा हो रही है साथ ही पाला मनेरी,लोहारी नागपाल, विष्णुप्रयाग, तपोवन के चमचमाते सपने दिखाकर उर्जा प्रदेश का सपना ग्रामीणों को दिखाया जा रहा है लेकिन शायद लोग भूल रहे हैं पहाड़ों के बेतरतीब कटाव के कारण उत्तराखण्ड आपदा के एक बड़े सुनामी के ढेर में बैठा है। नदियों के इस अविरल प्रवाह को रोकने का एक बड़ा खामियाजा हमें आने वाले दिनों में भुगतना पड़ सकता है।
यह सच है पर्यटन इस राज्य की सबसे बड़ी रीढ़ है जो राजस्व प्राप्ति का अहम साधन है। हमें पर्यटकों को बुनियादी सुविधाऐं देनी चाहिए। चार धाम की यात्रा में भारी भीड़ और अव्यवस्थाएं हर साल देखने को मिलती है। हमें यात्रा मार्ग पर आपदा रोकने के लिए और उसके मुकाबले के लिए एक तंत्र विकसित करना होगा। बेशक विकास जरूरी है लेकिन पर्यावरण के साथ विकास में भी एक संतुलन बनाकर लकीर खींचने की जरूरत है। बेहतर होगा पहाड़ी इलाकों में दोहन पर रोक लगने के साथ ही यहां के अवैध कब्जों और निर्माण पर भी ब्रेक लगे। बड़े सुरंग आधारित बांधों के बजाय छोटे बांधों पर जोर दिया जा सकता है । जो भी हो उत्तराखण्ड की इस आपदा ने यह बड़ा सबक दिया है कि नियोजित विकास के साथ पारिस्थितिकीय संतुलन बनाने की जरूरत है। अगर अब भी हम नहीं चेते तो केदारघाटी जैसे हादसे होते रहेंगे। आर्थिक पैकेज इमदाद की गुहार पेश की जाती रहेगी जिसमें राजनीति होती रहेगी। कुछ समय ‘पीपली लाइव‘ के नत्था की तरह यह खबर सुर्खियां बटोरेगी और हर बार की तरह कुछ समय बाद लोग यह सब भूल जायेंगे। वैसे भी हमारी मैमोरी शॉट टर्म है ।