Monday 30 November 2015

ऊँचाइयों पर शिवराज का परचम





उमा भारती और बाबूलाल गौर के बाद भाजपा की डगमगाती नैय्या को सही मायनों में अगर किसी ने मध्य प्रदेश में पार लगाया है तो बेशक वो शिवराज सिंह चौहान ही हैं । सूबे में सबसे ज्यादा समय तक गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का तो कीर्तिमान उन्होंने बना ही लिया है और अब मुख्यमंत्री के रूप में 10 बरस पूरे कर लेने के बाद प्रदेश में शिवराज का नायकत्व उन्हें सफल मुख्यमंत्री की कतार में लाकर खड़ा कर रहा है | विषम परिस्थितियों में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले शिवराज सिंह चौहान ने जिस अंदाज में मध्य प्रदेश को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर निकालने में सफलता पाई है वह उनके दूरदर्शी नेतृत्व की मिसाल है | पिछले कुछ समय से  शिवराज ने भाजपा के अंदरुनी उठापटक को शांत करने के साथ-साथ विकास की नई लकीर भी खिंची जिसकी परिणति चुनाव दर चुनाव जोरदार बहुमत के साथ भाजपा की सत्ता वापसी के रूप में हुई | 

विकास को मॉडल बना कर दिग्विजय सिंह ने यहाँ 10 वर्षों तक राज किया लेकिन वह विकास को लोगों तक पहुंचाने में सफल नहीं रहे जिस कारण उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। एक कद्दावर नेता होते हुए कांग्रेस को जहाँ वह फिर से सत्ता में वापस नहीं ला सके वहीँ भाजपा ने  भी उमा भारती से लेकर बाबूलाल गौर तक को प्रदेश की सत्ता सौपकर कई प्रयोग किये लेकिन इन दोनों के सी एम पद से हटने के बाद पूरी भाजपा को एकजुट कर पाना मुश्किल था | ऐसे समय में शिवराज ने सत्ता और संगठन के साथ बेहतर तालमेल कायम कर मध्य प्रदेश में चुनाव दर चुनाव जीतकर भाजपा की उम्मीदों को नए पंख लगा दिए | प्रदेश में पिछले कुछ समय से  भाजपा का मतलब शिवराज चौहान अगर रहा है तो इसका बड़ा कारण उनका  बेहतर संगठनकर्ता होने के साथ ही जनता के सरोकारों की राजनीति करने वाला नेता होना रहा |

शिवराज की राजनीती लोगों को आपस में जोड़ने की रही है और उनकी जीत का मूल मंत्र विकास और निर्विवाद रूप से साफ़ छवि  रही  है और उनके शासन का विकास मध्य प्रदेश में धरातल में दिखलाई भी देता है | शिवराज ने  लोगो  के बीच अगर बेहतर मुख्यमंत्री की छवि बनाई है तो इसका कारण राजनीती के प्रति उनका समर्पण और जनता के सरोकारों से खुद को जोड़ने वाला नेता रहा है |   हालांकि विपक्षी शिवराज पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगा चुके हैं लेकिन इससे शिवराज की विश्वसनीयता पर कोई असर नहीं पड़ा है क्युकि भ्रष्टाचार से जुड़े हर मामले में  उन्होंने खुलकर अपना पक्ष रखा है | यही नहीं व्यापम के जिस घोटाले पर जब विपक्ष ने उन पर आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया तब भी वह ईमानदारी से मीडिया के सामने अपना पक्ष रखने से पीछे नहीं रहे और जांच कमेटी बनाकर मिसाल कायम की |  

शिवराज चौहान का जन्म पांच मार्च, 1951  को एक किसान परिवार में हुआ। भोपाल के बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर किया। कॉलेज जीवन से ही चौहान की दिलचस्पी राजनीति में थी। वे 1975  में मॉडल सेकेंडरी स्कूल छात्रसंद्घ के नेता रहे। 1975  में आपातकाल लगा जिसके विरोध में शिवराज आगे आये और 1976-77 में भोपाल जेल में बंद भी रहे। इसके बाद 1977  में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संद्घ से जुड़े। इसके बाद भाजपा के साथ इनका सफर चल पड़ा। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय जनता युवा मोर्चा के विभिन्न पदों पर काम किया। चौहान पहली बार 1990  में बुधनी विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। 1991  से लगातार  पांच बार विदिशा लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। सांसद रहते उन्होंने कई महत्वपूर्ण समितियों में काम भी किया।

विरोधियों को चुप्पी के साथ दरकिनार करने और अनर्गल बयानबाजी से बचनेवाले चौहान को 2005  में मध्यप्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया था। उस समय संगठन में भारी उथल-पुथल के साथ गुटबाजी चल रही थी। उमा भारती के जाने के बाद प्रदेश भाजपा काफी कमजोर हो गई थी। ऐसे समय में इन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया। 13 वीं विधानसभा चुनाव में अच्छे परिणाम हासिल करने की  बड़ी चुनौती  तल्कालीन समय में उनके सामने थी जिस पर चौहान खरे उतरे और भाजपा को जीत दिलाई। फिर से सीएम भी बने और बेहतरीन काम भी कर रहे हैं।

 1962 से लेकर अब तक सिर्फ कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और भाजपा नेता शिवराज चौहान ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने 10 वर्ष समय तक लगातार शासन किया है । मध्यप्रदेश की जनता के लिए अभिशाप ही रहा कि जो भी शासन में रहा मूल समस्याओं पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और वे आपसी खींचतान में लगे रहे लेकिन शिवराज ने न केवल मामा बन महिलाओं के दिलों में राज किया बल्कि जन जन तक अपनी पैठ विकास कार्यों से बनाई |  मध्य प्रदेश में शिवराज का परचम जिन उंचाईयों को छू रहा है  उससे  कांग्रेस की मुश्किलें दिनों दिन बढती ही जा रही है और सशक्त  और यशस्वी मुख्यमंत्री की छवि बनाकर झटके में शिवराज ने  मध्य प्रदेश की राजनीति में  दिग्गी राजा  के कद को एकदम से कम कर दिया है । कभी दिग्गी राजा के नाम से लोगों के बीच पहचाने जानेवाले कांग्रेसी नेता शिवराज की काट के लिए  आज अपने  किसी नेता पर भरोसा नहीं कर पा रहे वहीँ कांग्रेस की असल मुश्किल गुटबाजी ने बढाई हुई है | आज भी अरुण यादव के दौर में वही परिस्थितियों  से कांग्रेस जूझ रही है जो परिस्थितियां  सुरेश पचौरी के दौर में थी तो समझा जा सकता है कांग्रेस की मुश्किलें किस कदर प्रदेश में बढती ही जा रही हैं और ऐसे हालातों में कांग्रेस की मध्य प्रदेश में वापसी मुश्किल दिखाई दे रही है |  राज्य में कांग्रेस के नकारे जाने का सबसे बड़ा कारण दिग्गी राजा का विकास माडल रहा जिसमे मध्य प्रदेश की गिनती बीमारू राज्यों के तौर पर होती रही और धरातल पर विकास कहीं नहीं दिखाई दिया जिस कारण वोटरों ने कांग्रेस को नकार दिया और न जाने कब तक यह सिलसिला चलता रहेगा  ? भाजपा  के निशाने पर शुरू से दिग्गी राजा  रहे  और भाजपा ने 2003  में उमा भारती के नेतृत्व में राज्य में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। 

 शिवराज ने  मध्यप्रदेश को स्थायी सरकार न केवल दी बल्कि अपनी दूरगामी योजनाओ के आसरे लोगों के दिलो में नई आस कायम की । शिवराजसिंह चौहान  खुद किसान परिवार से रहे हैं लिहाजा  किसानों और आम आदमी के  सरोकारों  के प्रति वह काफी संवेदनशील रहे हैं । अपने दस बरस के कार्यकाल में उन्होंने कई योजनाओं को न केवल धरातल पर उतारने में सफलता पाई  बल्कि अन्य राज्यों को कन्याधन और लाडली लक्ष्मी सरीखी योजना लागू करवाने के लिए मजबूर किया ।  यही नहीं प्रदेश में कई औद्योगिक ईकाईयों की स्थापना कर यह साबित भी कर दिखाया अगर आप एक निश्चित विजन के साथ आगे बढ़े तो राज्य को विकास के पथ पर आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता |  मुख्यमंत्री पंचायत के नाम से आरंभ की गई योजना ने शिवराजसिंह के बारे में यह धारणा पुख्ता कर दी कि वह आम आदमी के मुख्यमंत्री है। यही नहीं विभिन्न प्रदेशो की सरकारें जहाँ महिलाओं को आरक्षण देने की हवाई बयानबाजी करने से बाज नहीं आई वहीँ  शिवराजसिंह चौहान ने सत्ता में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण  देकर अपनी कथनी और करनी को साकार किया । मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने समावेशी विकास का खाका खींचकर यह भी साबित किया कि उनकी नीतियों के केंद्र में आम आदमी है शायद यही वजह है शिवराज को आम इंसान ने दुलार दिया । 

इन दस बरसों में  शिवराज ने न केवल जनता के बीच घर घर जाकर लोगों की समस्याओं को सुना बल्कि किसानो की समस्याओं का समाधान करने की दिशा में कोई कसर नहीं छोडी ।  पेटलावाद हादसे और रतनगढ़ हादसे की विषम परिस्थितियों में भी शिवराज ने धैर्य नहीं छोड़ा और लोगों के बीच जाकर दुःख में सहभागी बने । 

दस बरस के अपने कार्यकाल में चुनाव दर चुनाव में विजय पताका फहराने वाले शिवराजसिंह चौहान ने सत्ता में कभी अपनी ठसक हावी नहीं होने दी । हंसी ठिठोली के साथ वह सत्ता और संगठन में अपनी कदमताल करते रहे और  विनम्र बनकर जनता जनार्दन को सबसे बड़ी ताकत बताते रहे ।  सत्ता को सेवा का माध्यम और खुद को पार्टी का अदना सा सेवक मानने वाले शिवराजसिंह लगातार ने दस वर्ष का कार्यकाल पूरा कर प्रदेश में पहला गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री  होने का रिकार्ड  कायम कर लिया है और अब उनकी नजरें जन जन तक अपनी विकास यात्रा को पहुचाने की तरफ लगी हुई हैं क्युकि लोकतंत्र में जनता से बढ़कर कुछ नहीं है खुद शिव का दर्शन भी यह कहता है लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है। महत्वपूर्ण यह है कि हार से सबक लेकर हमें यह देखना चाहिए कि जनता में यदि कोई विपरीत भाव पैदा हुआ है तो उसे कैसे दूर किया जाए?     

दस बरस पूरा कर लेने के  बाद का  भावी सफर अब शिवराज चौहान के लिए आसान नहीं है। आने वाले समय में अगर एंटी इनकम्बेंसी के बीच उन्हें भाजपा का विजयरथ जारी रखना है तो अपने विकास मॉडल को जन जन तक पहुचाना पड़ेगा । केंद्र में भाजपा की सरकार होने के साथ अब शिवराज के सामने वैसी मुश्किलें भी नहीं हैं जैसी यू पी ए के दौर में थी | मध्यप्रदेश से मोदी सरकार में समुचित प्रतिनिधित्व होने के चलते अब सांसदों की भी यह नैतिक  जिम्मेदारी है कि वह प्रदेश के विकास के लिए एकजुट हों और प्रदेश सरकार के साथ बेहतर तालमेल कायम रखे | देश का मिजाज बदल रहा है और राज्यों के चुनाव और केंद्र के चुनाव में अब विकास सबसे बड़ी प्राथमिकता है लिहाजा शिवराज को भी समझना होगा वह विकास का मूल मंत्र आम लोगों तक कैसे पहुंचाएं इसकी चिंता जरूर सीएम को होनी चाहिए जिससे आने वाले विधानसभा चुनावों में भी भाजपा अपना विजयरथ जारी रख सके | विकास को प्राथमिकता में रख कर यदि उन्होंने अंतिम व्यक्ति के लिए फैसला नहीं लिया तो भाजपा को भी कांग्रेस की कार्बन कापी बनने  में देरी  नहीं लगेगी | लोगों की निगाहें अब न केवल  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तरफ लगी हैं बल्कि पार्टी आलाकमान की नज़रों में भी शिवराज भाजपा शासित राज्यों के सफल मुख्यमंत्री बन गए हैं और दस बरस के कार्यकाल में मध्य प्रदेश में शिवराज मामा का परचम नई बुलंदियों को छू रहा है|    

शिवराज को लेकर समय समय पर ऐसी चर्चाएं भी उठती रही हैं कि उनकी केन्द्र में वापसी तय है और मोदी के मंत्रिमंडल में उन्हें शामिल किया जा सकता है लेकिन फिलहाल तो ऎसी संभावनाएं दूर दूर तक नहीं हैं कि वह मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री पद छोड़कर किसी अन्य पद को पाना चाहेंगे | यूँ भी पार्टी आलाकमान का फैसला सर माथे पर होता है लेकिन शिवराज निष्कंटक होकर फिलहाल अपनी सारी उर्जा मध्य प्रदेश के विकास को नई गति देने में लगाना चाहते है इससे अच्छी बात प्रदेश के लिए कुछ नहीं हो सकती |

Friday 27 November 2015

उत्तराखंड में भाजपा के लिए फिर से जरूरी बनने लगे खण्डूड़ी




बिहार की सत्ता गंवाने के बाद भाजपा बैकफुट पर है | बिहार की हार का असर अब उन राज्यों में देखने को मिल सकता है जहाँ आने वाले दिनों में चुनाव होने वाले हैं | बिहार चुनावों में शाह और मोदी की जोड़ी ने जिस अंदाज में स्थानीय नेतृत्व को नजरअंदाज कर बाहरी लोगों पर अपना भरोसा जताया उसका खामियाजा भाजपा को बिहार में उठाना पड़ा जिसकी टीस पार्टी को लम्बे समय तक सताती रहेगी | खासतौर से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को जिन्हें मीडिया के एक बड़े वर्ग ने आधुनिक राजनीति का चाणक्य करार दिया था |

बिहार की करारी हार के बाद अमित शाह पर पार्टी के बुजुर्ग नेताओं ने जिस अंदाज में हमले किये हैं उससे पहली बार संघ को मध्यस्थता के लिए सामने आना पड़ा जिसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा में बुजुर्ग नेताओं ने शाह से सुलह के बाद अपना मुह बंद रखने में भलाई समझी है लेकिन बिहार की करारी हार ने भाजपा में अमित शाह सरीखे चुनावी प्रबंधकों के चुनावी प्रबंधन पर पहली बार न केवल सवाल उठाये हैं बल्कि यह भी बतलाया है आने वाले दिनों में राज्यों के विधान सभा चुनावों में अगर भाजपा ने स्थानीय नेताओं के बजाए पी एम का मुखौटा ही आगे किया तो भाजपा की मुश्किलें बढ़नी तय हैं | बिहार की करारी हार के संकेतों को डिकोड करें तो अब भाजपा उन राज्यों में संभल कर चल रही है जहाँ पर चुनाव आने वाले वर्षो में होने जा रहे हैं | यू पी और उत्तराखंड सरीखे राज्यों में अब शायद भाजपा स्थानीय नेताओं को प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर मंथन करने में जुटी हुई है |

 यू पी के साथ साथ उत्तराखंड में विधानसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू होते ही भाजपा की मुश्किलें बढती ही जा रही हैं | बात उत्तराखंड की करें तो 2017 के उत्तराखंड चुनावों की बिसात के केन्द्र में जिस तरह हरीश रावत आ गए हैं तो उनके मुकाबले के लिए भाजपा में वर्चस्व की जंग चल रही है | नेतृत्व के गंभीर संकट से जूझ रही उत्तराखंड भाजपा में इस समय पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को 2017  की चुनाव समिति की कमान सौपकर भावी मुख्यमंत्री के तौर पर फिर से मैदान में उतार सकती है | 2012  के चुनावों से ठीक पहले निशंक को हटाकर जिस अंदाज में भाजपा आलाकमान ने विधान सभा चुनावों से ठीक पहले खण्डूड़ी को सी एम के रूप में प्रोजेक्ट किया था उसका लाभ भाजपा को इस रूप में मिला कि उत्तराखंड में खण्डूड़ी ने भाजपा के डूबते जहाज को तो बचा लिया लेकिन जहाज का कैप्टेन जनरल कोटद्वार में पार्टी के भीतरघात के चलते खुद चुनाव हार गया और शायद यही वजह रही 2012 के चुनावों में भाजपा कांग्रेस से महज एक सीट पीछे रही जिसके बाद खण्डूड़ी की हार ने निर्दलियों के साथ कांग्रेस के मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा की ताजपोशी का रास्ता साफ़ किया था |  

उत्तराखंड में  खांटी कांग्रेसी हरीश रावत के कद के आगे सिवाए खण्डूड़ी के उत्तराखंड भाजपा का कोई चेहरा सामने नहीं टिकता शायद यही वजह है वर्तमान भाजपा प्रदेश अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत के विकल्प पर भी इन दिनों भाजपा में भारी असमंजस मौजूद है और अभी तक सस्पेंस कायम है | इन्द्रप्रस्थ  और बिहार की जंग बुरी तरह हारने के बाद भाजपा ऐसे कद्दावर नेता को उत्तराखंड का सेनापति बनाना चाहती है जो कांग्रेसी दिग्गज नेता हरीश रावत को कड़ी टक्कर दे सके | स्थानीय नेताओं की उपेक्षा और बुजुर्ग नेताओं को दरकिनार करने जैसे विवादों से जूझ रहा पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उत्तराखंड को लेकर मौजूदा अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत के विकल्प को लेकर असमंजस में है
मुख्यमंत्री हरीश रावत ने फरवरी 2014 में अपनी ताजपोशी के बाद से जिस तरह टी ट्वेंटी अंदाज में पूरे उत्तराखंड में बैटिंग की है उससे भाजपा की दिलों की धडकनें बढ़ी हुई हैं | चुनावी मॉड में होने के कारण उनके द्वारा ताबड़तोड़ घोषणाएं की जा रही हैं | भले ही यह सभी घोषणाएं पूरी ना हो पाएं लेकिन राज्य में हरीश रावत ने विजय बहुगुणा के सी एम पद से हटने के बाद कांग्रेस को मजबूत स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है |  खण्डूड़ी , कोश्यारी  और निशंक के केंद्र में जाने के बाद से राज्य में  दूसरी पंक्ति में भाजपा का बड़ा जनाधार वाला कोई ऐसा नेता नहीं बचा है जिसके करिश्मे के बूते भाजपा की वैतरणी पार हो सके लिहाजा भाजपा आलाकमान भी अब 11 अशोका रोड में इस बात को लेकर मंथन करने में जुटा है कि भाजपा की इस त्रिमूर्ति का साथ लिए बिना 2017 में भाजपा का बेडा पार लगना नामुमकिन है लिहाजा वह भी फूंक फूक कर कदम रख रही है |

 पहाड़ों में अभी सर्द मौसम चल रहा है और यहाँ के मिजाज को देखते हुए इस बात की संभावना प्रबल हैं कि अगले बरस अक्तूबर नवम्बर में चुनावी डुगडुगी बज जाए | ऐसे माहौल में बिहार गंवाने के बाद भाजपा उत्तराखंड में खण्डूड़ी के करिश्मे को मैजिक बनाने की संभावनाओं पर मंथन करने में लगी हुई है | हरियाणा , महाराष्ट्र और झारखंड से इतर उत्तराखंड में किसी चेहरे को प्रोजेक्ट न करने की अपनी रणनीति को उसे सिरे से  बदलने को मजबूर होना पड़ सकता है |

जानकार भी मानते हैं कि उत्तराखंड की मुख्य लड़ाई हिमाचल सरीखी ही रही है और यहाँ की राजनीती भी भाजपा और कांग्रेस के इर्द गिर्द ही घूमती रही है लिहाजा किसी को प्रोजेक्ट करने से मुकाबला रोचक हो सकता है | उत्तराखंड में बारी बारी से हर 5 बरस में यह दोनों राष्ट्रीय दल अपनी सरकार बनाने के लिए सामने आते रहे हैं | भाजपा में खण्डूड़ी 75 पार कर चुके हैं लिहाजा वह मोदी की टीम के खांचे में फिट नहीं बैठते मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल होने की उनकी संभावनाएं उत्तराखंड से सबसे प्रबल थी लेकिन उनकी उम्र बड़ी बाधक बन गई थी लेकिन भाजपा आलाकमान देर सबेर अब इस बात को समझ रहा है कि उत्तराखंड के चुनावी समर में खण्डूड़ी उसका तुरूप का इक्का एक बार फिर से साबित हो सकते हैं लिहाजा कई पार्टी के बड़े नेता उनके नेतृत्व में रावत सरकार के खिलाफ न केवल बड़ी  जंग लड़ने का मन बना रहे हैं बल्कि चुनावी चेहरे के रूप में एक्शन मोड में जनरल खण्डूड़ी को लाने का मन बना रहे हैं |

खण्डूड़ी के साथ सबसे बड़ी बात उनकी साफगोई है | उनकी पूरे राज्य में मजबूत पकड़ रही है | साथ ही संघ का आशीर्वाद अब भी उनके साथ है | भाजपा में अटल आडवाणी और डॉ जोशी युग भले ही ढलान पर हो लेकिन मार्गदर्शक मंडल के आडवाणी और डॉ जोशी की गुड बुक में आज भी खण्डूड़ी का नाम लिया जाता है जिसका कारण राजनीति में उनका समर्पण और ईमानदारी रही है जिसके तहत अतीत में वाजपेयी सरकार में खण्डूड़ी स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के आसरे पूरे देश में नई लकीर खींच दी और यू पी ए सरकार ने भी इस बात को माना केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री के तौर पर खण्डूड़ी के कार्यकाल में सडकों का बड़ा जाल न केवल बिछा बल्कि प्रतिदिन कई किलोमीटर सड़क ने कुलांचे मारे जिसके आस पास वर्तमान मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्री तक भी नहीं फटक सकते

उत्तराखंड के नैनीताल से भाजपा सांसद कोश्यारी की भी संघ पर मजबूत पकड़ रही है लेकिन कम प्रशासनिक पकड़ के चलते भाजपा उन्हें  आगामी चुनाव  में पूरी तरह आगे करने का रिस्क मोल नहीं लेना चाहती | वैसे पार्टी को इन दोनों नेताओं की कार्यशैली पर किसी तरह का कोई संदेह भी नहीं है | ईमानदारी के मामले में दोनों पाक साफ़ हैं | जहाँ खंडूरी की गिनती वाजपेयी सरकार के सबसे ईमानदार मंत्रियों के रूप में न केवल होती रही बल्कि उत्तराखंड में अपने दूसरे टर्म में खण्डूड़ी ने जिस अंदाज में सरकार चलाई उसकी मिसाल आज तक देखने को नहीं मिलती उस दौर को याद करें तो ना केवल नौकरशाही उनसे खौफ खाती थी बल्कि माफियाओं और बिल्डरों के नेक्सस को तोड़ने में उन्होंने  पहली  बार सफलता पाई | यह अलग बात थी भाजपा के कुछ नेताओं की जेबे उस दौर में गरम नहीं हो सकी जिसके चलते खंडूरी ने बेदाग़ सरकार चलाने में सफलता पाई |

 वहीँ  भगत सिंह कोश्यारी की भी पूरे राज्य में जबरदस्त पकड़ रही है और संघ के साथ ही राजनाथ सिंह का उन पर ख़ासा वरदहस्त  रहा है जिसका इजहार खुद राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड की एक सभा में किया था जब  उन्होने बड़े मंच से खुद कहा था उत्तराखंड में उन्हें कोश्यारी के जैसी कर्मठता और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति देखने को नहीं मिलती क्युकि उन पर किसी तरह का कोई दाग नहीं है | उनकी संगठानिक छमताओं पर हर किसी को यकीन है जिसकी मिसाल 2007  के विधान सभा चुनावों में देखने को मिली जहाँ उन्होंने कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी की सरकार से प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर  लोहा लिया और अपनी सधी चाल से भाजपा की सत्ता में वापसी का रास्ता तैयार किया था | यह अलग बात है भाजपा में जब मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो विधायकों का बड़ा समर्थन कोश्यारी के साथ होने के बाद भी जनरल खण्डूड़ी  की ताजपोशी कर दी गई |

 अब भाजपा में इस बात को लेकर मंथन चल रहा है कि कोश्यारी और खंडूरी को साधकर उत्तराखंड में हरीश सरकार को चुनौती दी जाए | उत्तराखंड में नए भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद की बिसात जिस तरह  उलझती ही जा रही है और दावेदारों की भारी भरकम फ़ौज हर दिन दिल्ली दरबार में हाजरी लगा  रही है उसके मद्देनजर शायद भाजपा आलाकमान अब खुद अपना फैसला आने वाले दिनों में सुनाये जिसके तहत कोश्यारी को प्रदेश अध्यक्ष और खण्डूड़ी को चुनाव समिति की कमान सौंप दी जाए और निशंक और सतपाल महाराज को मोदी मंत्रिमंडल विस्तार में जगह मिल जाए  | निशंक तो बाबा रामदेव के साथ गलबहियां कर मोदी मंत्रिमंडल में मई 2014 से ही दावेदारी करने में लगे हुए हैं लेकिन सतपाल महाराज के भाजपा में आने के बाद उन्हें भी भाजपा नजरअंदाज नहीं कर सकती | मोदी निशंक को मंत्रिमंडल विस्तार में जगह देने में कामयाब अगर नहीं हो पाते हैं तो फिर कोश्यारी को केंद्र में बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है | ऐसे में बहुत संभव है निशंक को पार्टी संगठन में राष्ट्रीय महासचिव का ओहदा दिया जा सकता है |

 पिछले दिनों  भाजपा के एक गुप्त सर्वे में भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर मंथन हुआ है जिसमे यह बात  खुलकर सामने आई है अगर मजबूत विकल्प पर भाजपा ने विचार नहीं किया तो हरीश रावत 2017 में कांग्रेस की उत्तराखंड में दुबारा वापसी करने में सक्षम हैं | इस गोपनीय सर्वे और फीड  ने संघ मुख्यालय नागपुर से लेकर 11 अशोका रोड तक हलचल मचाने का काम शुरू कर दिया है | अब इसी को ध्यान में रखकर भाजपा में एक बार फिर खण्डूड़ी जरूरी बन गए हैं | पार्टी के अंदरूनी सर्वे में भी यह खुलासा हुआ है खण्डूड़ी को प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने में भाजपा हरीश के मुकाबले में सक्षम है | वैसे जनता की नजर में खण्डूड़ी आज भी सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं और पिछले चुनाव में कोटद्वार में हार के बाद से आम जनता के मन में उन्हें लेकर सहानुभूति की लहर अब भी बरकरार है शायद यही वजह है भाजपा आलाकमान अब इसी सहानुभूति की लेकर को एक बार फिर पार्टी के पक्ष में कैश करने की योजना बना रहा है | यही नहीं भाजपा संगठन प्रभारियों और केन्द्रीय कमेटी के फीड में भी खण्डूड़ी का नाम ऐसे चेहरे के रूप में सामने आ रहा है जो चुनावी बरस में अप्रत्याशित तौर पर भाजपा का बेडा पार कर सकते हैं और खुद पी एम मोदी खण्डूड़ी के भरोसे समर में कूदने का मन बना रहे हैं |

 उत्तराखंड की बात करें तो यहाँ पर मोदी लहर फींकी पड़ चुकी है | अगर लहर रहती तो भाजपा उत्तराखंड के डोईवाला ,धारचूला, सोमेश्वर  सरीखे उपचुनाव ना केवल जीतती बल्कि पंचायत चुनावों में भी बढ़त बनाने में सक्षम रहती लेकिन उत्तराखंड में हरीश रावत ने अपनी संगठानिक छमताओं के आसरे  कांग्रेस को हर चुनाव में भाजपा के मुकाबले ना केवल आगे किया है बल्कि कांग्रेस में बगावाती सुरों को भी नरम किया है | वैसे विजय बहुगुणा के दौर में कांग्रेस में हर दिन विधायक बगावती तेवर अपनाया करते थे जिससे सरकार और संगठन की कई मौकों पर किरकिरी होती रहती थी लेकिन अपनी ताजपोशी के बाद हरदा का सिक्का ना केवल उत्तराखंड में मजबूत हो रहा है बल्कि दस जनपथ में भी वह अपनी मजबूत पैठ बनाते जा रहे हैं | अम्बिका सोनी से लेकर अहमद पटेल और राहुल गाँधी से लेकर सोनिया गांधी हर कोई इस दौर में हरीश सरकार के कामकाज से संतुष्ट बताये जा रहे हैं | सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी तो उत्तराखंड में हरीश रावत के कामकाज की तारीफ़ करने का कोई मौका नहीं छोड़ते | लिहाजा कांग्रेस अगले चुनावों में हरीश रावत को फ्रीहैंड देने के मूड में है यानी कांग्रेस में टिकटों के  चयन से लेकर प्रचार प्रसार का पूरा जिम्मा हरीश रावत के इर्द गिर्द ही सिमटेगा और वही नेता ज्यादा टिकट पाने में कामयाब रहेगा जिसकी निकटता हरीश रावत के साथ होगी लिहाजा भाजपा में भी खंडूरी और कोश्यारी की जोड़ी को आगे कर मिशन 2017 की बिसात बिछाई जा रही है जिसमे कोश्यारी को संगठन की कमान देने के साथ ही परदे के पीछे से चुनाव समिति की कमान खण्डूड़ी के जिम्मे देने के साथ ही चुनावी चौसर बिछाये जाने की संभावनाओं पर  गहनता से मंथन चल रहा है | भाजपा के उत्तराखंड प्रभारी श्याम जाजू के स्थान पर केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद को लाने की संभावनाओं से भी आने वाले दिनों में इनकार नहीं किया जा सकता | रवि शंकर प्रसाद 2007 के चुनावों में भी उत्तराखंड भाजपा के प्रभारी रह चुके हैं लिहाजा पार्टी उनके अनुभव का लाभ भी लेना चाह रही है |   

    बिहार चुनावो के परिणाम के बाद भाजपा प्रधानमन्त्री और  बाहरी नेताओ के भरोसे उत्तराखंड को नहीं छोड़ना चाहती | चुनावों में बहुत कम समय बचा है लिहाजा भाजपा किसी भी तरह टिकटों के चयन और बिसात बिछाने में पीछे नहीं रहना चाहती | भाजपा में बड़ा खेमा ऐसा है जो हरीश रावत की सधी हुई चालों से इस समय परेशान है | हरीश रावत जनता के बीच जाकर जिस तरह पहाड़ों से लेकर मैदान तक में लोगों के बीच अपनी योजनाओं को लागू कर रहे हैं उसके देर सबेर परिणाम कांग्रेस के हक़ में मिलने तय हैं | ऐसे में भाजपा किसी लो प्रोफाइल नेता तो अगर हरीश रावत के मुकाबिल खड़ा करती है तो पार्टी बमुश्किल दहाई वाला आंकड़ा छू पाएगी ऐसे में पार्टी अपने दो सर्वाधिक अनुभवी मुख्यमंत्री  खंडूरी और कोश्यारी को सामने रख हरीश सरकार के खिलाफ माइलेज लेना चाहती है |

चुनावी बरस होने के चलते हरीश रावत जहाँ राज्य में युवाओं के लिए आने वाले दिनों में नौकरियों का बड़ा पिटारा खोलने जा रहे हैं वहीं उनके द्वारा देहरादून में शुरू की गई इंदिरा अम्मा योजना अब पूरे प्रदेश में लागू कर दी गई है जिसके शुरुवाती परिणाम कांग्रेस के हक़ में जाते दिख रहे है | यही नहीं पर्वतीय इलाकों में पलायन रोकने की दिशा में स्थानीय उत्पाद को बढ़ावा देने के आलावे  कई योजनाये अपने पिटारे में पेश की गई है जिससे पहाड़ और मैदान में भेद समाप्त हो रहा है और पहली बार खांटी कांग्रेसी मुख्यमंत्री हरीश रावत उत्तराखंड के जनसरोकारों से न केवल जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि पलायन को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं | वह पहाडी जनभावनाओं के अनुरूप आने वाले दिनों में गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का बड़ा दाव चुनावों से ठीक पहले खेलने की कोशिशों में जुटे हैं ताकि 2017 में पहाड़ों में कांग्रेस मजबूत हो सके | यही नहीं  2013 की केदारनाथ आपदा के बाद जिस अंदाज में दिन रात काम कर रावत ने केदारनाथ का पुनर्निर्माण किया है वह काबिलेतारीफ है और पहली बार आपदा से केदारनाथ धाम उबरा है | यही वजह है इस बरस केदारनाथ की यात्रा पर पिछले बरस के मुकाबले भक्तों की भीड़ बहुत अधिक रही | खुद केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती रावत सरकार के द्वारा केदारघाटी में किये गए पुनर्निर्माण कार्यों से संतुष्ट हैं

 भाजपा की असल परेशानी उत्तराखंड में यहीं से शुरू होती है | राज्य में कांग्रेस सरकार को घेरने के कई मौके आये लेकिन  भाजपा हर बार चूक गई इसका बड़ा कारण खण्डूड़ी, कोश्यारी और निशंक का सांसद बन जाना रहा लिहाजा कोई नेता हरीश सरकार के खिलाफ बयानबाजी के अलावे मोर्चा नहीं खोल सका | विजय बहुगुणा के सी एम रहते जहां भाजपा आगामी चुनावों में अपनी जीत निश्चित मानकर चल रही थी वहीँ बदले हालातों में कमान हरीश रावत के आने के बाद उसे अब अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर होना पड़ रहा है | ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को घेरने के कई मौके आये  | आबकारी नीति से लेकर खनन, माफियाओं के बड़े नेटवर्क की सक्रियता से लेकर जमीनों को खुर्द बुर्द करने का खुला खेल रावत सरकार के कार्यकाल में ना केवल चला है बल्कि हर विभागों में अरबों के वारे न्यारे हुए हैं लेकिन भाजपा राज्य में मित्र विपक्ष की छवि ही बना पाई है | हरीश रावत को वह उनके सचिव शाहिद के स्टिंग के जरिये घेरने में भी पूरी तरह विफल जहाँ रही वहीँ इस दौर में आपदा और खनन सरीखे बड़े मुद्दों में सिवाए बयानबाजी और प्रेस कांफ्रेंस के भाजपा हरीश रावत सरकार के कोई आन्दोलन भी खड़ा नहीं कर सकी है |  हरीश सरकार की ऍफ़ एल 2 नीति भी विवादों से भरी रही है और बीते दिनों पूर्व गृह मंत्री चिदंबरम जिस अंदाज में सरकार के खिलाफ पैरवी करने नैनीताल हाईकोर्ट चले आये उसने  मुख्यमंत्री और कांग्रेस की घिग्घी बाधने का काम किया है लेकिन भाजपा इस पर भी कांग्रेस को घेरने में पूरी तरह विफाल रही है | यही नहीं हाल ही में गैरसैण में सम्पन्न विधानसभा सत्र में भी सत्र ना चलने देने के पीछे भाजपा ने हरीश रावत को जिम्मेदार माना है | नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट ने हाल ही में यह बयान भी दिया था कि मुख्यमंत्री रावत का व्यवहार सत्र के दौरान छात्र संघ अध्यक्ष जैसा रहा |

गैरसैंण में विधानसभा के सत्र के दौरान भट्ट का यह बयान भी किसी के गले नहीं उतर रहा कि कांग्रेस सरकार सदन में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश के बाद से ही विपक्ष के सदस्यों के सब्र का बांध गैरसैंण विधानसभा में टूटा था । तीन नवंबर को गैरसैंण में सदन में गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने पर विपक्ष ने सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की  थी इसके लिए विपक्ष बाकायदा काम रोको प्रस्ताव लेकर आया था। इस प्रस्ताव को विधानसभा अध्यक्ष ने स्वीकार नहीं किया था। इससे गुस्साए विपक्ष ने सदन में जमकर हंगामा किया था।  विपक्ष बाकायदा काम रोको प्रस्ताव लेकर आया था। इस प्रस्ताव को विधानसभा अध्यक्ष ने स्वीकार नहीं किया था। इससे गुस्साए विपक्ष ने सदन में जमकर हंगामा किया था | नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत हाथ में माइक लेकर मेजों पर चढ़ गए थे। विपक्ष का आरोप था कि सरकार के इशारे पर सदन में असामाजिक तत्त्व घुस गए जिसके चलते सदन नहीं चल पाया राजभवन ने खुद अब विधानसभा से गैरसैण सत्र की जो फुटेज मगाई है उसमे यह साफ़ है कि गैरसैण सत्र मे कोई भी बाहरी व्यक्ति सदन के भीतर नहीं घुसा इससे भाजपा में अजय भट्ट की लीडरशिप पर सवाल ही नहीं पूरी भाजपा  कठघरे में खडी नजर आ रही है | प्रदेश अध्यक्ष तीरथ रावत का कार्यकाल भी निराशाजनक रहा है | उनके नेतृत्व में प्रदेश में भाजपा की धार कुंद हुई है | यही कारण है चुनावी बरस में  आलकमान खण्डूड़ी और कोश्यारी को लेकर फिर से अपने पत्ते फेंटने लगा है और भाजपा को भी लगता है अगर कोश्यारी और खंडूरी फिर से साथ आते हैं तो राज्य में भाजपा की सरकार बन सकती है|   ऐसे बदलते हालात में  खण्डूड़ी ही एक मात्र ऐसा चेहरा हैं जो पार्टी के नायक बनकर हरीश रावत सरकार को संकट में डाल सकते हैं |

 संभवतया खण्डूड़ी के चेहरा बनाये जाने के बाद कांग्रेस को भी अपनी रणनीति बदलने को मजबूर होना पड़ जाए क्युकि खण्डूड़ी सरकार की पाक साफ़ छवि रही है और दूसरे टर्म में जनता से जुड़े  कई बड़े निर्णय लिये गये थे। खण्डूड़ी की ईमानदार छवि ने जहाँ  मजबूत लोकायुक्त की सौगात अन्ना की तर्ज पर  पूरे राज्य को दी वहीँ उनके शासन में लूट खसौट पर रोक लगी | माफियाओं  और बिल्डरों  की लाबी उनसे जहाँ खौफ खाने लगी वहीँ राज्य की बेलगाम नौकरशाही पहली बार पटरी पर भी आई यही नहीं ट्रांसफर के जिस उद्योग ने पिछली सरकारों के सामने बड़े कुलाचे मारे वह  स्थानांतरण कानून की शक्ल ले पाया जिससे नेताओं की लूट खसोट पर भी रोक लगी | सरकारी नौकरियों में साक्षात्कार की व्यवस्था खत्म करने से लेकर भ्रष्टाचार उन्मूलन विभाग की स्थापना और राज्य की बेशकीमती जमीनों को बाहरी व्यक्तियों को देने पर रोक से लेकर गरीबों को सस्ता राशन देने की योजनाओं के आसरे उन्होंने उत्तराखंड में नई  लकीर खींचने का काम किया | उत्तराखण्ड में अन्ना टीम के मुताबिक लोकायुक्त बिल को सदन में पारित करा मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी ने प्रदेश में लोगों के बीच अलग छवि बनाने के साथ ही यह बताने में कोई कसर नहीं छोडी भ्रष्ट सियासत में जनता के हितों को प्राथमिकता देना उनका पहला कर्तव्य है ।उत्तराखण्ड में मुख्यमंत्री की दूसरी पारी भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस अंदाज में उन्होंने खेली इससे उनकी छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले एक योद्धा के रूप में आम जनता में बनी | खण्डूड़ी ने अपने दूसरे टर्म में ताबड़तोड़ फैसले लिए। उन्होंने अन्ना टीम के साथ विचार- विमर्श कर एक सशक्त लोकपाल कानून बना डाला। राज्य में 'ट्रांसफर उद्योग' पर रोक लगाने की नीयत से एक ऐसा कानून तैयार किया जिससे सरकारी कर्मचारियों को भारी राहत मिली | लोकपाल कानून बनाने से खण्डूड़ी की छवि में जबरदस्त सुधार हुआ। भाजपा ने 2012 में खण्डूड़ी पर दांव लगाया   लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं के भीतरघात ने उन्हें हरा दिया | भाजपा अगर 2017 में  सत्ता में वापसी चाहती है तो  अब खण्डूड़ी पर बड़ा जुआ उसे खेलना ही होगा |  

शायद यही वजह है आज भी केंद्रीय नेतृत्व की नजर में भाजपा के भीतर बीसी खण्डूड़ी 75 पार होने के बाद भी उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार के रूप में उभर रहे हैं और पार्टी के भीतर  खण्डूड़ी के हाथ चुनाव समिति की कमान देने को लेकर सियासी सरगोशियाँ तेज हैं | जो लकीर अपने राज्य में पाक साफ़ ईमानदार सरकार के नाम पर खण्डूड़ी ने अपने कार्यकाल में खींची  उससे उनकी सरकार ने जनता के दिलो में अलग छाप छोडी  वह निश्चित ही आने वाले चुनावों में भाजपा को संजीवनी देने का तो काम तो करेगी ही | यह अलग बात है कांग्रेस ने खण्डूड़ी की खींची लकीर को मिटाने की कोशिश की है |


पहले दौर के पायलट सर्वे और फीड के बाद भाजपा बम बम है | भाजपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो राज्य में विधानसभावार उम्मीदवारों और सिटिंग एम एल ए को लेकर पार्टी अब एक फाइनल सर्वे करने जा रही है जिसके सम्पन्न होने के बाद  टिकटों को लेकर रायशुमारी की जाएगी | इस सर्वे में पार्टी किसी चेहरे पर दाव खेलने के बारे में जनता की सीढ़ी नब्ज टटोलने की भी कोशिश करेगी  | वैसे अब तक राज्य गठन के बाद हुए हर एजेंसी के सर्वे में खण्डूड़ी ही भाजपा में सब पर भारी पड़े हैं और आज भी लोकप्रियता के मामले में वह उत्तराखंड के सभी मुख्यमंत्रियों पर भारी पड़ते हैं खुद सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेता भी इस बात को मानते हैं हरीश रावत के मुकाबले के लिए अगर भाजपा में खण्डूड़ी सामने लाये जाते हैं तो उत्तराखंड में मुकाबला कांटे का रहेगा क्युकि उनकी लोकप्रियता हरीश रावत की तरह पूरे राज्य में है | ऐसे में देखना दिलचस्प होगा क्या आने वाले दिनों में भाजपा उत्तराखंड में खण्डूड़ी को सीधे प्रोजेक्ट कर हरीश रावत सरकार के खिलाफ अपना ब्रह्मास्त्र छोडती है या चुनाव समिति की कमान सौपकर उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर आगे रखती है

Monday 16 November 2015

आतंक के साये में फ्रांस




फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुए आतंकवादी हमले ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है | ज्यादा समय नहीं बीता जब साल की शुरुवात में ही एक विवादित कार्टून प्रकाशित करने की सजा के तौर पर हमलावरों ने फ्रांस की राजधानी पेरिस में एक दर्जन से अधिक लोगों की हत्या कर दी थी | उस हमले का सिलसिला तीन दिनों तक पेरिस के विभिन्न हिस्सों में चलता रहा लेकिन इस बार का हमला पूरी तरह सुनियोजित रहा और इसकी तुलना अगर भारत के मुंबई 26/11 और अमरीका के 9/11 से की जा रही है तो इसकी ख़ास वजहें हैं | असल में जिस रणनीति के साथ आतंकियों ने इसे अंजाम दिया और हमले के जो तौर तरीके अपनाए वह ट्वीन टावर, मुंबई सरीखे ही रहे जहाँ आतंकियों ने भीड़ भाड़ वाले स्थानों को अपना निशाना बनाया | धमाके कितने भीषण रहे होंगे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आतंकी हमलों के बाद स्टेट डी फ्रांस स्टेडियम में भारी अफरातफरी मच गई | फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद  भी इसी स्टेडियम में बैठकर फ़्रांस और जर्मनी के बीच खेले जा रहे फुटबाल मैच का आनंद ले रहे थे | शुक्र रहा सुरक्षाकर्मियों  का जिन्होंने हमले के बाद उन्हें सकुशल बाहर निकालने में सफलता पाई लेकिन असल निशाना तो बैताक्ला थियेटर था जहाँ पर 1500 से ज्यादा लोगों की भारी भीड़ अमरीकी रॉक बैंड की थाप पर ना केवल थिरक रही थी बल्कि सुगम संध्या का आनंद लेने पहुंची थी लेकिन किसे पता था घंटे भर बीतने के बाद चीख , पुकार और फायरिंग के बीच वहां पर खून का खुला खेल शुरू हो जाएगा और लोगों को सुरक्षित भागने के लिए जमीन के ऊपर पड़ी लाशो से गुजारना पड़ेगा |  यही नहीं आतंकियों ने पेरिस में बर्बरतापूर्वक निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाई  और जोर जोर से अल्ला हो अकबर के नारे लागाने के साथ ही भागते मासूमों पर बारूद भी फेंका | आतंकियों के हौंसले किस कदर बुलंद थे यह इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने सड़क से लेकर स्टेडियम , कैफे से लेकर कंसर्ट हाल तक को अपना निशाना एक सुनियोजित रणनीति के तहत बनाया |

 पेरिस को निशाना बनाकर आतंकियों ने अपने खतरनाक मंसूबे पूरी दुनिया के सामने जाहिर कर दिए हैं | पेरिस हमले की जिम्मेदारी खतरनाक संगठन आई एस आई एस ने ली है और अब पूरे यूरोप के सामने संकट के बादल मडरा गए हैं | फ्रांस में हुए इन भीषण धमाकों ने दूसरे विश्वयुद्ध की यादें ताजा कर दी हैं जहाँ पूरा देश आपातकाल के साये में जी रहा है | आम आदमी अभी भी  दहशत के साये में जी रहा है तो पुलिस भी सघन तलाशी अभियान चलाये हुए है जहाँ उसकी पकड़ में कुछ लोग आये हैं वहीँ 8 आतंकी  मौके पर ही ढेर हो चुके हैं | इस घटना के बाद देश की सीमाएं पूरी तरह सील हैं तो पूरे देश में कर्फ्यू सीखी स्थितियां चरम पर पहुँच चुकी हैं |

हालंकि इस हमले के तुरंत बाद फ्रांस सरकार हरकत में आ गई और उसके राष्ट्रपति ओलांद ने आई एस आई एस को सबक सिखाने के लिए सीरिया के रक्का में हवाई ताबड़तोड़ कार्यवाहियों को अंजाम दिया  लेकिन  हमले से एक बात साफ़ हो गई है आई एस आई एस की चुनौतियों से पार पाना दुनिया के लिए अभी  कोई आसान काम नहीं है क्युकि आज वह अपने साथ बड़े लडाकाओं की भारी भरकम फ़ौज न केवल खड़ी कर चुका है बल्कि अपने साथ अत्याधुनिक हथियारों का बड़ा जखीरा भी रखे हुए है | ख़ास बात यह है कि आई एस आई एस  की ताकत को बढाने में कई देश न केवल उसे फंडिंग कर रहे हैं बल्कि  युवाओं को इस्लाम के नाम पर उकसाया जा रहा है | आतंक के इस रास्ते पर चलने वाले युवाओं को  मिलने वाली मुहमांगी रकम भी उन्हें आतंकवाद की राह पकड़ने को मजबूर कर रही है | पेरिस के इन हमलों के पीछे ऐसे युवाओं की भूमिका सामने आ रही है जिनकी उम्र 30 बरस से कम है जो यह बताने के लिए काफी है आई एस आई एस पूरी दुनिया से ऐसे युवाओं को अपने साथ जोड़ने की कोशिशों में सफल रहा है  | फ्रांस की ही बात की जाए तो उसकी गिनती हाल के वर्षो में ऐसे देश के रूप में होने लगी है जहाँ के युवा  आई एस में शामिल होने के लिए सीरिया को अपना आशियाना बनाये हुए हैं और कट्टरता का नकाब ओढे हुए हैं | ऐसे युवा आई एस के साथ मिलकर पूरी दुनिया में खूनी खेल खेलने के लिए तैयार बैठे दिखाई देते हैं |

फ्रांस की सरकार  सीरिया की असद सरकार के खिलाफ है और आई एस आई एस को नेस्तनाबूद करने के प्रयासों में अमरीका की गोद में बैठकर आतंकियों के खिलाफ खेल रही है |  पिछले कुछ समय से फ़्रांस जेहादी आतंकवाद के खिलाफ जिस तरीके से एकजुट होकर मोर्चा खोले हुए है  शायद इसी बदले की भावना से आतंकवादियों ने पेरिस को निशाना बनाया |  अमरीका के नेतृत्व में कई यूरोपीय देश की सेनायें इस समय इन आतंकवादियों के खिलाफ मिलजुलकर लड़ रही हैं लेकिन अभी तक आई एस आई एस के  साम्राज्य को तहस नहस नहीं किया जा सका है जो एक बड़ी चिंता का विषय इस समय बना हुआ है |  आई एस आई एस ने पेरिस में सुनियोजित तरीके से  हमलों को अंजाम दिया और समय भी ऐसा चुना जब शहर में भीड़ भाड अधिक रहती है | आतंकियों के हमलों से फ्रांस के नागरिक सहमे नजर आते हैं |  इन हमलों में सवा सौ से अधिक लोग अपनी जान गवा चुके हैं वहीँ ढाई सौ से अधिक लोग घायल हुए हैं |

फ्रांस के लिए यह बरस सबसे बुरा साबित हुआ है | नए साल की शुरुआत जहाँ फ्रांस की मशहूर व्यंग्य पत्रिका चार्ली एब्दो के कार्यालय से हुई जिसमें दो बंदूकधारियों ने  पत्रिका के संपादक स्टीफन सहित 12 लोगों की हत्या कर दी थी वहीँ शहर के  विभिन्न हमलों में कुछ लोग भी मारे गए थे लेकिन वो हमला हाल के हमलों जैसा भीषण नहीं था | अभी के हालत आम इंसान के मन में एक अजीब सा डर पैदा कर देते हैं | आतंकियों की कोशिश पेरिस में व्यापक नुकसान करने की थी और एक आतंकी की पहचान जिस तरह फ़्रांसीसी नागरिक के रूप में हुई है उसने पहली बार झटके में कई सवालों को खड़ा किया है और यह सोचने पर मजबूर किया है किया आतंकी स्लीपर सेल के आसारे खुनी खेल खेलने का ताना बाना बुनने में लगे हुए हैं जहाँ स्थानीय लोगों को कट्टरपंथी बनाने में आमादा हैं |  

एक आतंकी  के पास से मिले सीरयाई पासपोर्ट से यह सवाल भी खड़ा  हुआ है कि पेरिस हमले के आतंकियों  के तार सधे सीधे सीरया से जुड़ते चले जा रहे हैं जहाँ उन्हें आई एस आई एस ने न केवल ट्रेनिंग दी बल्कि कट्टरपंथी बनने को मजबूर कर दिया | फ्रांस की सेना जिस तरह सरिया और ईराक में अमरीकी सरकार के साथ मिलकर कदमताल कर रही है उससे  यह सवाल पेचीदा हो चला है कहीं आतंकवादियों ने यह सब जानकर फ़्रांस को अपना निशाना तो नहीं बनाया हुआ है | असल में इसका सबसे बड़ा कारण यही है | साथ ही फ्रांस में यूरोपियन देशों की सबसे अधिक मुस्लिम आबादी रहती है और यूरोप के इस गेटवे तक आसानी से पहुंचा जा सकता है शायद इसी को ध्यान में रखते हुए आतंकवादियों ने पेरिस को चुना जिससे पूरे यूरोप को धमकाया जा सके | इस आतंकी हमले का सीधा प्रभाव अब शायद शरणार्थियों के संकट को बढ़ाएगा | 

फ्रांस यूरोप के उन देशो में शामिल है जिन्होंने सीरिया के संकट के चलते कई शरणार्थियों को शरण देने पर रजामंदी जताई थी लेकिन संभवतया इस संकट के बाद अब मुस्लिमों को शरण देने में अपने कदम फ्रांस  की सरकार को शायद पीछे खींचने पड़े क्युकि शरणार्थियों के वेश मे आई एस अपने लडाके फ़्रांस भेजे जो कुछ समय बीतने के बाद इसी तरह का आतंक का खूनी खेल दुबारा शुरू कर दें क्युकि अब आतंक का नया चेहरा आई एस बन रहा है जहाँ वह स्लीपर सेल के मदद से बड़ी कार्यवाहियों को अंजाम देने में लगा हुआ है | 

चार्ली एब्दों पर हमले के बाद आई एस ने फ्रांस के खिलाफ फिर से बड़े हमलों की चेतावनियाँ  भी जारी की थी लेकिन फ़्रांस की सरकार ने इसे हल्के में लिया जिसका परिणाम सबके सामने है | पूरी मानवता आज पेरिस के हमलों से शर्मसार हुई है | 

पेरिस हमलों की पूरी दुनिया ने एकसुर में निंदा की है और तुर्की के अन्तालिया में जी 20 देशों के सम्मेलन में भी पेरिस हमलों की छाया साफ देखी गई | वहां पर सभी देशों ने कड़े शब्दों में इन हमलों की ना केवल निंदा की बल्कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को मिल जुलकर लड़ने का एलान किया है लेकिन मात्र एलान भर से कुछ नहीं होना है क्युकि आतंकवाद से लड़ने की नीति किसी भी देश के पास नहीं है | आज सभी देशों को चाहिए वह एकजुट होकर आतंक के खिलाफ बड़ी लड़ाई लडने के लिए खुद से तैयारी करें | अमरीका की बात करें तो जी 20 में ओबामा ने भी खुलकर आई एस आई एस के खिलाफ कार्यवाही की बातें दोहराई हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पूरी दुनिया आज अमरीका की गलत नीतियों का परिणाम भोग रही है | ईराक से लेकर अफगानिस्तान और सीरिया से लेकर अरब देशों में काम कर रही सरकारों को अपदस्त करने का खुला खेल जो अमरीकी सरकारों के दौर में चला है उसके परिणाम पेरिस सरीखे हमलों के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं जहाँ बेगुनाह नागरिक मारे जा रहे हैं | 

कभी मास्को पर हमला हो जाता है तो कभी विमान शर्म अल शेख से उड़ान भरने के कुछ पलों बाद दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है | कभी चार्ली हेब्दो के दफ्तर को निशाना बनाया जाता है तो कभी कंसर्ट हाल में एकत्रित मासूमों पर लोग बंधक बनाकर मारे जा रहे हैं | एक लम्बे अरसे से अक्सर बड़े बड़े मंचो से सभी देश आतंकवादी ताकतों के खिलाफ एकजुट होने की बातें करते नहीं थकते लेकिन उसके बाद इन बैठकों का नतीजा ढाक के तीन पात सरीखा ही रहता है | 

आतंक का कोई रंग और मजहब नहीं होता लेकिन राजनीति और मुल्कों के टकराव के रास्तों के रंग ने आतंक के चेहरे को स्याह बना डाला है | हिंसा का खूनी खेल खेलने वाले कुछ आतंकी संगठन  कुछ देशों के लिए जहाँ आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं वहीँ कुछ देश परोक्ष रूप से ऐसे खतरनाक आतंकी संगठनो को मदद भी दे रहे हैं जिससे आतंकवादियों के खिलाफ लड़ने की उनकी नीयत पर भारी सवाल भी खड़े होते हैं | गुड तालिबान बेड तालिबान , गुड पाकिस्तान  बेड पाकिस्तान  अब ऐसे नारों से काम नहीं चलेगा | भारत की ही बात करें तो पहले पूरी दुनिया हमारे देश की आतंकी घटनाओं पर ध्यान नहीं देती थी लेकिन अमरीका , फ्रांस के हमलों ने विकसित दशों के सोचने के तौर तरीकों में बदलाव हाल के वर्षो में तो जरूर ला दिया है शायद तभी जी 20 में प्रधानमन्त्री मोदी को यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि यह समय आतंकवाद को परिभाषित करने का है जिसमे आतंकवाद के जन्म दाताओं  कि सही पहचान जरूरी है और फिर उनके साथ कार्यवाही करने का मानक एक होना चाहिए | 

आतंकवादियों के खिलाफ दोहरे मापदंड उठाने की नीतियों का प्रतिफल आज पूरी दुनिया पेरिस सरीखे हमलो के रूप में देख रही है | अब समय आ गया है जब पूरी दुनिया को आतंक के इस दानव के खिलाफ कोई बड़ी कार्यवाही एक साथ करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए | 

आई एस आई एस के खिलाफ अब बड़ी कार्यवाही का समय निश्चित ही आ गया है इसके लिए जरूरी है  कोई रास्ता अमरीका और रूस से निकले क्युकि आई एस से लड़ने के मसले पर दोनों के दोहरे मापदंड साफ़ दिख रहे हैं | जहाँ रूस ने आई एस आई एस के ठिकानों पर जबाबी कार्यवाही कर यह साबित किया है कि वह अल बगदादी के साम्राज्य का खात्मा कर ही चैन से बैठेगा वहीँ अमरीका दोमुही बातें कर अपना विरोध पहले से ही जता चुका है | 

अब ऐसे हालातों में आतंकवाद के मसले पर नई लकीर कैसे खिंच पायेगी यह सवाल दिनों दिन गहराता ही जा रहा है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल पेरिस के फिर से अपने पैरों में खड़े होने का भी है क्युकि इस भीषण आतंकवादी हमले ने पेरिस शहर की सांसें ही थाम कर रख दी | धमाकों की आवाजों से जहाँ पूरा शहर काँप उठा वहीँ नेशनल स्टेडियम में बैठे दर्शक अभी तक धमाकों से सहमे हैं और वो भीषण मंजर याद कर रोने लगते हैं तो समझा जा सकता है फ़्रांस के दिल में यह किस तरह की भीषण चोट रही | 

10 महीने पहले जब चार्ली के दफ्तर पर हमला हुआ था तो  लाखों लोगों ने पत्रिका के पक्ष में और आतंकवाद के विरुद्ध एकजुटता का प्रदर्शन किया था | नागरिकों ने अपनी तख्तियों पर मैं चार्ली हूं का नारा लिख रखा था |  यह एकता मार्च एक तरह से फ्रीडम ऑफ स्पीच के पक्ष में भी था लेकिन देखना होगा क्या फ़्रांस की जनता इन भीषण हमलों के दोषियों के खिलाफ  एकजुटता का प्रदर्शन चार्ली सरीखे मार्च को निकालकर कर पाती है या नहीं क्युकि आतंक के विरुद्ध आंधी को पेरिस शहर से ही गति दी जा सकती है और फिर पूरा यूरोप फ़्रांस की छतरी तले आकर पूरी दुनिया को एकजुटता का पाठ निश्चित ही पढा सकता है | वैसे भी इन हमलों के तुरंत बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति ओलांद ने कहा भी है फ्रांस आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता से खड़ा रहेगा और इस संकल्प का समर्थन पूरी दुनिया करेगी | उम्मीद की जानी चाहिए इस बार कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा |

आतंकवाद आज वैश्विक समुदाय के सामने बडी समस्या का रुप ले चुका है जिससे निपटना किसी चुनौती से कम नहीं है |  निःसंदेह कुछ देश आतंक के नए चेहरों को खाद पानी अपनी सरजमीं पर दे रहे हैं लेकिन आज ऐसे दलों को दुनिया से अलग करने की जरूरत है |  साझा प्रयास करने की नई पहल संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व  में ही अब शुरू हो सकती है | जी 20 देशों का एक मंच से आतंक के खिलाफ निपटने का ऐलान सराहनीय है |  इसी तरह अन्य देशों को आतंक के खिलाफ बड़ी लकीर अब खींचनी ही होगी  | इस्लाम के नाम पर जहाँ लोगों को गुमराह  किया जा रहा है वहीँ कट्टरपंथी ताकतें अब युवाओं को आतंक का नया ककहरा सिखाने में लगी हुई हैं | 

आज आई एस  के रूप में आतंक का नया चेहरा  हम सबके सामने है जहाँ  बडी संख्या में युवा ऐसे संगठनो की की तरफ पूरी दुनिया से उन्मुख हो रहे हैं जिनका मकसद  बेगुनाहों को मारना और किसी ख़ास विचारधारा के लिए काम करना बन गया है | ऐसी ताकतों के खिलाफ पूरी दुनिया की एकजुटता नई लकीर खींच सकती है | देखना होगा आपसी गिले शिकवे भुलाते हुए क्या सभी देश आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक जंग अब  पेरिस हमलों के बाद लड़ पाते हैं या नहीं ?

  

Tuesday 3 November 2015

हरि अनंत हरि कथा अनंता

        


कस होलो उत्तराखंड का होली राजधानी
राग –बागी यो आज करला आपुणी मनमानी
यो बातौक खुली –खुलास गैरसैण करुलो
हम लड़ते रैया भुली हम लड़ते रैया भुली

उत्तराखंड के प्रख्यात जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ भले ही आज हमारे बीच नहीं हों लेकिन गैरसैण रैली के ऊपर के उनकी कविता की ये पंक्तियाँ उत्तराखंड के मौजूदा हालत पर फिट बैठ रही है | पाश ने भी कहा था सपनों का मर जाना सबसे ज्यादा कष्टदायी है और उत्तराखंड के चश्मे से अगर चीजों को देखा जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा 15 बरस में अलग राज्य का सपना उत्तराखंड से टूटता दिखाई दे रहा है |  लम्बे जनसंघर्ष के बाद पृथक उत्तराँचल राज्य जब अस्तित्व में आया तो माना जा रहा था कि पहाड़ की उपेक्षित जनता को अपने जायज और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए सडकों पर उतरने की जरूरत नहीं पड़ेगी लेकिन आज 15 बरस बीतने के बाद भी यह सब कोरी कल्पना साबित हुई है | 

पहाड़ की जनता के सामने राज्य गठन से पहले जैसी परिस्थितियां थी कमोवेश वैसी परिस्थितियां आज भी खड़ी  हैं | आये दिन जिस राज्य में बेरोजगार , सामाजिक कार्यकर्ता  और सरकारी कर्मचारी आन्दोलन की राह पकड रहे हों , अपराधों के ग्राफ ने नया रिकॉर्ड कायम कर दिया हो,  आमदनी की तुलना में बेकाबू होते वित्तीय प्रबंधन ने जिस राज्य के आर्थिक प्रबंधन की पोल खोल दी हो उस राज्य का भविष्य कम से कम हमें आशाजनक तो कतई  नहीं दिखाई देता | उत्तराखंड के राजनेताओं का सरोकार जहाँ इस दौर में जनता से टूट चुका है वहीँ पलायन की पीड़ा से पहाड़ी इलाके कराह रहे है लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नेता आज बचा नहीं है लिहाजा विकास चंद जिलों तक सिमट गया है और चमचमाते विकास दर के आकडे और प्रतिव्यक्ति आय 1 लाख 18 हजार रुपये होने पर  मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और नौकरशाह तक गदगद हैं | सत्ता की लूट खसोट में उन्हें पहाड़ की वह पीड़ा नहीं दिखाई देती जहाँ लोग बुनियादी स्वास्थ्य,पेयजल और बिजली सरीखी न्यूनतम जरुरत के लिए परेशान हैं और भीषण बेरोजगारी का दंश युवा झेल रहे हैं |

                          
राज्य में बढती असमानता इस बात से समझी जा सकती है कि राज्य में अमीर दिन प्रतिदिन अमीर होते जा रहे हैं लेकिन बड़ा तबका दिन पर दिन गरीब जिसके सामने न्यूनतम जरुरत को पूरा कर पाने का भीषण संकट सामने खड़ा है |  जिस राज्य में शिक्षा से लेकर सड़क , बिजली से लेकर पानी और स्वास्थ्य से लेकर रोजगार को लेकर आन्दोलन का दौर चल रहा हो और लोग बुनियादी समस्याओं के लिए परेशान दिखाई देते हैं वहां चमचमाती विकास दर के आंकड़े पेश कर सरकारें केवल अपने मुह मिया मिट्ठू  बन सकती हैं आम आदमी को बेवकूफ नहीं बना सकती  |  किसी भी राज्य के विकास में शिक्षा की सबसे बड़ी भूमिका होती है लेकिन उत्तराखंड की बात करें तो यहाँ शिक्षा की हालत दयनीय बनी हुई है | राज्य में कई महाविद्यालय जहाँ टिन शेड के भरोसे चल रहे हैं तो कहीं पढ़ाने के लिए प्रोफेसरों तक का अकाल पड़ा है | आंकड़े बताते हैं बीते 15 बरस में तकरीबन 1800 से ज्यादा विद्यालय जहा बंदी के कगार पर खड़े हैं वहीँ 1117 स्कूल ऐसे हैं जहाँ साफ़ पेयजल तक नहीं है | यही नहीं 546 विद्यालयों में शौचालय तक नहीं है | खुद राज्य के सी एम के विधानसभा इलाके में कई स्कूलों में बैठने तक की जगह नहीं है | यह तस्वीर भयावह हालातों को पेश करती है |  

गढ़वाल में उच्च शिक्षा के लिए हेमवती नंदन बहुगुणा सरीखे केन्द्रीय विश्वविद्यालय और कुछ निजी विश्वविद्यालय  बेशक जरूर हैं  लेकिन कुमाऊँ के सबसे पहले डी एस बी नैनीताल और अल्मोड़ा सरीखे मुख्य कैम्पसों में  छात्र छात्राओं के बैठने के लिए स्मार्ट क्लास रूम , अत्याधुनिक पुस्तकों से सजी डिजिटल लाइब्रेरी तो दूर पानी के लिए प्यूरीफायर तक के इंतजाम न हों वहां उच्च शिक्षा के हालात भयावह तस्वीर पेश करते हैं  और प्राथमिक शिक्षा का नजारा ऐसा है कि नौनिहाल जर्जर भवन में जहाँ पढने को मजबूर हैं वहीँ  बच्चों की पढाई लिखाई से ज्यादा चिंता राज्य के अध्यापकों  के लिए टाइम पास करना बन चुकी हो तो वहां के नौनिहालों का क्या भविष्य बनेगा इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैंशिक्षा विभाग के आला अधिकारी आये दिन वेतन रोकने और रिजल्ट खराब आने पर कठोर कार्यवाही करने की धमकी देते रहते हैं लेकिन अध्यापकों का कोई बाल बांका तक नहीं कर पाता है और खुद मंत्री जी नौकरशाही के आगे बेबस हो जाते हैं तो शासन कैसा चल रहा होगा खुद समझा जा सकता है | 

  
 जिस राज्य को वेंटिलेटर पर संविदा अध्यापकों , संविदा डॉक्टरों ,संविदा प्रोफेसरों , संविदा कर्मचारियों के आसरे रखा गया हो वहां विकास की अलख जगाने का मतलब कोरी लफ्फाजी ही लगता है | राज्य गठन में जिस युवा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी वह आज हाशिये पर है और दर दर ठोकरें खाने को मजबूर है और दिल्ली से लेकर मुंबई तक ठोकरें खा रहा है और नौकरी के अभाव  में वह अपराध की दुनिया में अपने कदम बढ़ा रहा है । सरकारी नौकरियों का राज्य में अकाल हो गया है | नई भर्तियाँ अगर निकल भी रही हैं तो दस सीटों के लिए हजारों की तादात में लोगों का रेला निकल रहा है | डेढ़ दशक में उत्तराखंड के लाखों बेरोजगारियों की टोली में से महज 31145 लोगों को सरकारी नौकरी मिल सकी है |  

यही स्थिति स्वास्थ्य की भी है | सरकार की लाख कोशिशों और वेतन बढाने के बाद भी कोई भी डॉक्टर पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं दिखाई देता |  साफ़ है उत्तराखंड का पूरा  सिस्टम  इस दौर में फेल हो चला है जहाँ अपने आकाओंदरबारियों , और चेले चपोटों के वेतन बढाने के लिए तो सरकार का पास पैसे की कमी नहीं है लेकिन बुनियादी  इन्फ्रास्ट्रेक्चर के लिए सरकार के मुखिया हाथ में कटोरी लिए केंद्र की तरफ बार बार ताकते रहते हैं | अब ऐसे राज्य के स्वर्णिम भविष्य की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? 

             




महीने भर पहले नैनीताल में सेलिंग रिंगाटा प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जहाँ प्रदेश के मुख्यमंत्री ने राज्यपाल के साथ  शिरकत की | वहां सी एम साहब से आयोजकों को उम्मीद थी कि वह सरकार के खजाने से कुछ रकम आयोजकों को देंगे जिससे इस तरह की स्पर्धाओं को भविष्य में बल मिलेगा लेकिन यहाँ तो हमारे सीएम रावत खुद आयोजकों के सामने कटोरा फैला दिए और कहने लगे आप हमें मदद कीजिये जिससे हम इस प्रकार के खेलों के आयोजन के लिए बुनियादी इन्फ्रास्ट्रेक्चर डेवलप कर सकें | 

अब मुख्यमंत्री को भला यह कौन समझाए कि इन्फ्रास्ट्रेक्चर डेवलप करने का काम सरकार का होता है ना कि जनता का | इस बात से समझा जा सकता है कि वर्तमान में रावत सरकार किस तरह हवाबाजी और आये दिन उद्घाटनों में अपना वक्त बर्बाद करने पर तुली हुई है और इससे पहाड़ की जनता का कुछ भी भला नहीं होने जा रहा | हाँ इतना जरूर है हर दिन नई नई घोषणा से मुख्यमंत्री घोषणावीर जरूर हो गए हैं और आये दिन उनके इश्तेहार देश के ऐसे ऐसे पत्र पत्रिकाओं आमुख पेज पर देखे जा सकते हैं जिनका राज्य में कोई नामलेवा तक नहीं है | यह सवाल हमारे मन को पीड़ा पहुंचाता है जो मुख्यमंत्री केंद्रीय मंत्री रहते पहाड़ के विकास की पीड़ा की बातें 9 , तीन मूर्ति लेनदिल्ली  में करते नजर आते थे आज वह भी बेलगाम नौकरशाही के चंगुल में इस कदर घिर चुके हैं कि अफसर अधिकारी उनकी एक नहीं सुनते और पहाड़ की पीड़ा उन्हें नजर नहीं आती | 

हाल के वर्षो में पहाड़ में पलायन की समस्या गंभीर रूप धारण करती जा रही है लेकिन सरकार के पास इन इलाकों को आबाद करने के लिए कोई नीतियां नहीं है | महज ‘हिटो पहाड़ रे’, ‘मेरा गाँव मेरा धन’ योजना के ‘इश्तेहार’ हर दिन पूरे देश के अखबारों में लुटवाकर आप गाँवों को आबाद नहीं कर सकते | आज पहाड़ में खेती घाटे का सौदा बन चुकी है | कोई छोटा मोटा फल का व्यापार भी नहीं करना चाहता | बागवानी तक करना पहाड़  में आज घाटे का सौदा बन गई है |  खेती का रकबा पहाड़ में लगातार सिकुड़ रहा है | पहाड़ों की तकरीबन 70000 हेक्टेयर से अधिक जमीन कम हो चुकी है | सरकार जरुर राज्य के जी डी पी विकास दर के बैंड बजाकर अपने को प्रसन्न मुद्रा में ला जरूर सकती है लेकिन गाँव के लागों के पास न्यूनतम जरुरत का संकट बना हुआ है |  

आखिर क्यों नहीं पहाड़ में कोई छोटी औद्योगिक  इकाई  लगी ? आखिर क्यों पहाड़ से पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा ? आखिर क्यों कोई यूनिवर्सिटी पहाड़ के बच्चों  के लिए नहीं खुल पा रही है ?  आखिर क्यों गाँवों को आबाद करने का कोई माडल पहाड़  में साकार नहीं हो पा रहा ? इसकी सबसे बड़ी वजह नीतियों का देहरादून से संचालित होना और राजनेताओं का अपने आकाओं का एजेंट बना रहना है | 

असल में उत्तराखंड की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ  पर सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं हो पाया | पहले नीतियां लखनऊ में बनती थी आज देहरादून से नीती नियंता अपना शासन चलाते हैं और छोटा राज्य होने के कारण कमीशनबाजी और लूटखसोट में मिलजुलकर सभी नेताओं के साथ हाथ साफ़ करने में लगे रहते हैं | इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे  यहाँ सत्ता में जो भी दल भागीदार रहा उसका मुख्यमंत्री ठसक के साथ केवल अपनी सरकार ही बचाता रहा | नीतियों के बनने से लेकर उसके इम्प्लिटेशन में मुखिया की ही भागीदारी यत्र , तत्र  और सर्वत्र  देखी जा सकती है | उत्तराखंड का आम आदमी आज भी विकास की आस में अपनी देली पर बैठा हुआ है |

इन 15 बरस में भले ही हरिद्वार में गंगा में कितना पानी बह चुका हो लेकिन उत्तराखंड से ना तो पहाड़ों से लोगों का पलायन रुका और ना ही लूट खसोट | अविभाजित यू पी का आकार बड़ा था और तब हमारे यहाँ के नेता वहां पर अपनी अदद पहचान के लिए तरसा करते थे लेकिन अलग उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद छोटे छोटे विधान सभा इलाके और इकाइयाँ होने से हर किसी के पास लूट करने के कई रास्ते खुल गए जहाँ मंत्री से लेकर माफिया , नौकरशाहों से लेकर ठेकेदारों के काकटेल ने लूट की गंगा में सहभागिता दिखाने में देरी नहीं लगाई और शायद यही वजह रही उत्तराखंड में इन 15 बरसों में ऐसी लूट खसोट मची कि जिसकी मिसाल हमें देखने को नहीं मिलती | 

इन 15 बरसों में उत्तराखंड के हर विधायक और नेताओं की संपत्ति में भारी उछाल देखने को मिला है | पहले जिस नेता के पास स्कूटर तक नहीं होता था आज वह कई भवनों का मालिक है और करोड़ों  में खेल रहा है | कहानी यहीं नहीं थमती | राज्य के कई  नेता  रियल स्टेट से लेकर शिक्षा और शराब , खनन के ठेकों में परोक्ष रूप से अपनी भागीदारी कर मोटा माल कमा रहे हैं | राज्य के कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने उत्तराखंड बनने के बाद से निजी इंजीनियरिंगमेडिकलपैरामेडिकलबी एड कालेजों , रिसोर्ट, होटलों को  खोलकर अपने आर्थिक विकास की नई गाथा लिखी है | कई नेता जो यह सब समय रहते नहीं कर पाए वह इस आर्थिक निर्माण में शेयरों के आसरे डुबकी लगा रहे हैं | यानी जनता की न्यूनतम जरूरत से ज्यादा जिस राज्य में नेताओं को अपने आर्थिक विकास की चिंता हो वहां अंतिम कोने तक विकास पहुचने की बातें कम से कम हमें तो इन हालातों में बेमानी ही लगती हैं |  

ईमानदारी का तमगा लिए हमारे मुख्यमंत्री हरीश रावत भले ही अपनी सरकार को साफ़ सुधरी बताने से पीछे नहीं दिखाई देते हों लेकिन यह सच किसी से शायद ही छिपा है कि वह अब तक की वह उत्तराखंड की सबसे भ्रष्ट सरकार चला रहे हैं जहाँ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य , पेयजल से लेकर आपदा हर विभाग में खुली लूट चल रही है जहाँ अधिकारीमंत्री और संतरी तीनों की मिलीभगत और पूरी मशीनरी बहती गंगा में हाथ साफ़ करने में लगी है |      

एक बड़े जनांदोलन से निकला उत्तराखंड बीते 15 बरस में कई सियासी घटनाओं का गवाह रहा है | वर्ष 2000 में मानसून सत्र में लोकसभा ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन को मंजूरी दी जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को यह अलग राज्य अस्तित्व में आया चूँकि  अविभाजित अंतरिम सरकार में 30 में से 24 विधायक भाजपा के थे लिहाजा भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जहाँ बाहरी  नित्यानंद स्वामी की सी एम के रूप में ताजपोशी हुई | स्थायी राजधानी के मसले पर इस सरकार की सबसे भारी भूल की कीमत प्रदेशवासी अभी तक चुका रहे है और आज हालत यह है कि राज्य की स्थाई राजधानी का विवाद जस का तस बना हुआ है | पूर्व मुख्यमंत्री स्वामी ने स्थायी राजधानी के चयन के लिए जिस वीरेन्द्र दीक्षित आयोग का गठन किया था हमारी राजनीतिक जमात ने उसका कार्यकाल दर्जनों बार बढ़ाया और आज तक देहरादून का मामला लटका हुआ है | 

मौजूदा रावत  सरकार गैरसैण को जनभावना से जोड़कर वहां पर न केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी का सब्जबाग प्रदेशवासियों को दिखाने में लगी हुई है बल्कि वहां पर विधानसभा भवन के निर्माणकार्यों  को अंजाम देने में लगी हुई है | गैरसैण में दो तीन दिन के सत्र के नाम पर हर बरस घंटों में करोड़ों की जनता की कमाई स्वाहा कर दी जाती है | गैरसैण में राजधानी बसाने का स्वांग करने वाले उत्तराखंड के सभी विधायकों की असलियत यह है इन्होने आज अपने सभी परिवारों को हल्द्वानी और देहरादून सरीखे सुविधाजनक शहरों में जहाँ बसा दिया है वहीँ उत्तराखंड की सत्ता का चरित्र ऐसा है कि हमारे माननीय पहाड़ों की तरफ फटकना ही नहीं चाहते और ये सभी लोग विधानसभा इलाकों से लगातार दूर भाग रहे हैं | जनता के सरोकार कहीं पीछे छूट रहे हैं | गैरसैण पर ध्यान खींचने के लिए और कैमरों में बाईट देने के लिए आज हर कांग्रेसी और भाजपाई लालायित है जबकि असलियत यह है यह सभी नेता ऐसे हैं जो पहाड़ों को छोड़कर दून और हल्द्वानी में अपनी अपनी आलिशान ‘कोठियां’ और ‘विला’ बना चुके हैं | हमाम में सभी नंगे हैं | अब ऐसे नेताओं से पहाड़ों में विकास की उम्मीद करना हमें तो बेमानी लगता है |
  
नित्यानंद स्वामी के दौर में नौकरशाहों ने हमारे नए नवेले ऐसे नेताओं की घिग्गी बाँध दी जिनकी उत्तर प्रदेश में कोई पूछ परख भी नहीं होती थी | नौकरशाही ने इसी दौर से उत्तराखंड में अपने पैर मजबूती के साथ जमाने शुरू कर दिए जिससे यहाँ के नेता असहज हो गए शुरुवात के महीनों में तो भाजपा बाहरी और भीतरी इसी की उधेड़बुन में उलझ कर रह गई जिससे विकास कार्य सीधे प्रभावित हुए और स्वामी तो घुमक्कड़ी और ताबड़तोड़ घोषणाओं के महावीर निकल गए जिससे उनकी पार्टी में खूब किरकिरी हुई | मजबूर होकर भाजपा को  राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों से ठीक चार महीने पहले वरिष्ठ नेता भगत सिंह कोश्यारी को आगे करना पड़ा जो स्वामी की सरकार में उर्जा मंत्री भी थे | 

कोश्यारी का करिश्मा फीका पड़ गया और राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी | कांग्रेस में भी मुख्यमंत्री  बनाने की बारी आई तो उसके प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत मुख्यमंत्री के स्वाभाविक दावेदार थे लेकिन आलाकमान ने यू पी के चार बार मुख्यमंत्री रहे एन डी तिवारी को उत्तराखंड की पहली निर्वाचित सरकार का मुखिया बनाया | तिवारी ने बुनियादी  आधारभूत संरचना के लिए केंद्र से मदद की गुहार लगाई और राज्य में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश को बढावा दिया | उनके कार्यकाल में जहाँ सिडकुल की स्थापना हुई वहीँ पहली बार औद्योगिक इकाईयों ने उधमसिंहनगर और हरिद्वार सरीखे शहरों की तरफ रुख किया और राज्य की जनता के लिए नौकरियों के पिटारे खोले |


तिवारी के कार्यकाल में सड़क , पर्यटन , शिक्षा , स्वास्थ्य , आई टीऊर्जा  सेक्टर में बूम आने के दावे जोर शोर से किये गए और उन्हें विकास पुरुष के नाम से नवाजा जाने लगा लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह था  तिवारी जी ने राज्य में दिल खोल के सरकारी  खजाना लुटाया और अपने पांच बरस के कार्यकाल में 16 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में राज्य के कदम डुबोने में देरी नहीं लगाई | ऊपर से दरोगा भरती , पटवारी भरती , लालबत्ती जैसे विवादों और  घोटालों ने उनकी सरकार की मिटटी पलीत कर दी जिसकी बड़ी कीमत उनकी सरकार को 2007 के चुनावों में चुकानी पड़ी जब भाजपा की उत्तराखंड में पूर्ण बहुमत से वापसी हुई लेकिन यहाँ पर भी मुख्यमंत्री पद को लेकर आर पार की लड़ाई जारी रही | विधायक बड़े पैमाने पर कोश्यारी की रहनुमाई कर रहे थे लेकिन आलाकमान ने जनरल खंडूरी को आगे किया | खंडूरी के आते ही नौकरशाही खौफ खाने लगी |

 खंडूरी ने नौकरशाहों , माफियाओं और खुद अपनी पार्टी के उन नेताओं के नाक में दम कर दिया जो लूट खसोट की कमीशनबाजी से अपनी समानांतर सरकार उत्तराखंड में चलाते आये थे | पहली बार ऐसा लगा उत्तराखंड में कोई ईमानदार मुख्यमंत्री आया है जिसके मन में राज्य के प्रति कुछ करने की तमन्ना है | जिन नारायण दत्त  तिवारी ने अपनों को खुश करने के लिए 350 से ज्यादा लालबत्ती देने की जो परंपरा विरासत में उत्तराखंड को दी ,पहली बार उन परम्पराओं से इतर जनरल खंडूरी ने अपनी अलग पहचान बनाई और राज्य में भ्रष्टाचार की गंगा में रोक लगायी जिसके चलते माफियाओं , नौकरशाहों और खुद अपनी पार्टी के नेताओं की आँखों में खंडूरी खटकने लगे जिसके चलते एक षड़यंत्र के चलते भाजपा के नेताओं निशंक और कोश्यारी ने उनको मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से  न केवल हटाया बल्कि भाजपा का राज्य में जहाज डुबो दिया  जिसके बाद नई उम्मीद और नए युवा नेतृत्व के तहत डॉ निशंक को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया |


निशंक भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर उस तिकड़म का सहारा लेने से पीछे नहीं रहे जो रास्ता एन डी तिवारी ने पकड़ाउसी के पगचिन्हों पर चलते हुए निशंक ने न केवल अपने तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी को  पार्टी फंड में रिकार्ड धन देकर खुश किया बल्कि  अपनों को लालबत्ती की सवारी कराने में देरी नहीं लगाई | यही नहीं अपनी मीडिया मैनेजरी से डॉ निशंक ने हर मामले में  मीडिया को भी मैनेज करने में देरी नहीं लगाई लेकिन निशंक की यह मैनेजरी अधिक दिनों तक नहीं चल पाई |

 बिजलीजमीन के  प्रोजेक्टों में धांधलीकुम्भ  , सिट्जुरिया में घोटाले से निशंक हिट विकेट हो गए और कोश्यारी और जनरल खंडूरी की जुगलबंदी ने उत्तराखंड में फिर से 2012 के चुनावों से पहले जनरल खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया | अपने तीन माह के कार्यकाल में खंडूरी ने जो निर्णय लिए उसकी मिसाल भारतीय राजनीति में देखते को नहीं मिलती यही वजह रही अपनी ईमानदारी के आसरे खंडूरी उस चुनाव में भाजपा का मुख्य चेहरा बने और कांटे की टक्कर के बीच वह भाजपा के जहाज को 31 सीटों तक पार ले गए | 

यह अलग बात है वह पार्टी के भीतरघात के चलते खुद कोटद्वार से चुनाव हार गए जिसके बाद सूबे में कांग्रेस ने पी डी ऍफ़ की मदद से सरकार बनाई और विजय बहुगुणा को काफी विरोध के बाद मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन केदारनाथ की 2013 की आपदा ने भी खुद उनका विकेट लेने में देरी नहीं की जिसके बाद हरीश रावत की ताजपोशी कांग्रेस ने की | 

हरीश के आने के बाद उम्मीद थी कि सब कुछ कांग्रेस में सामान्य हो जायेगा लेकिन यहाँ भी मंत्री पद को लेकर और लालबत्ती को लेकर अंदरूनी खींचतान जारी है | छोटा राज्य होने के कारण  पार्टी  में झगड़े और व्यक्तिगत स्वार्थ इतने अधिक हैं कि अँधा बांटे रेवेड़ी वाली बात उत्तराखंड में  हर सरकार में लागू है | जिसको खुश नहीं कर सको वहीँ आँखें तरेर देता है जिससे उत्तराखंड का विकास दूर की कौड़ी लगता है | 9 महीने से एक कैबिनेट की सीट भरने के लिए मारामारी चल रही है आलाकमान से मिलने के लिए प्रदेश के कांग्रेस विधायक हर समय लालायित दिखाई देते हैं | यही नहीं ‘लैटर बम’ भी परवान पर है  | विकास कार्यों से इतर संगठन- सरकार की ‘तोता- मैना’ में ही वक्त जाया हो रहा है | 

उत्तराखंड में पार्टी के हर नेता का करीबी अपनों के लिए लालबत्ती न केवल मांगता है बल्कि अपने इलाके की हर विकास योजनाओं में कमीशनबाजी चाहता है जिसके चलते उत्तराखंड का विकास किसी दिवास्वप्न से कम तो नहीं लगता |  राज्य के एक आईएएस कैडर के अधिकारी ने ऑफ द रिकॉर्ड बीते दिनों खुद बताया उत्तराखंड की हालत किस तरह डगमग है यह इस बात से समझा जा सकता है कि अब सडकों के गड्ढे भी वर्ल्ड बैंक के पैसे से भरे जा रहे हैं तो आर्थिक विकास दर के झटके बखूबी महसूस किये जा सकते हैं |






हमारे मौजूदा मुख्यमंत्री ‘हरदा’ भी तिवारी जी के पग चिन्हों पर चलते हुए न केवल अपनी कुर्सी किसी तरह बचाने की दुआ कर रहे हैं बल्कि मंत्री , नौकरशाहों और ठेकेदारों के साथ मिलकर समावेशी विकास का वह माडल खींच रहे हैं जिससे उनकी गाडी भी किसी तरह 2017 तक चल जाए शायद यही वजह है वह भी लालबत्ती बांटकर अपने करीबियों की वाहवाही बटोरने में लगे हैं । यही नहीं विज्ञापनों के इश्तेहारों और मीडिया को साधकर वह अपना गुणगान अपने पूर्ववर्ती तिवारी जी ,बहुगुणा की तर्ज पर करने में लगे हैं जिससे राज्य में विकास केन्द्रीकृत होकर रह गया है | यह निश्चित रूप से राज्य के विकास के लिए दुखद त्रासदी  है | 

अब हरदा आम आदमी पर तरह तरह के करों का बोझ लादने पर तुले हुए हैं जिससे किसी तरह राज्य की गाडी पटरी पर आ सके | वैसे भी 2017 अब ज्यादा दूर नहीं है लिहाजा मुख्यमंत्री भी फूंक फूंक कर कदम बढाने में लगे हुए हैं | मौजूदा  हरीश सरकार ने आम आदमी को भारी कर्ज के बोझ तले ले जाने का काम किया है | वर्तमान दौर में सरकार की माली हालत बहुत खराब हो चली है | नई नौकरियां जहाँ हाल के वर्षो में सरकार पैदा नहीं कर सकी है वहीँ सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए  बार बार कर्ज लेने में लगी है | इससे बड़ी विडम्बना किसी राज्य के लिए क्या हो सकती है 15 बरस बाद भी जो राज्य अपने पैरों में खड़ा नहीं हो सका हो और हर समय केंद्र के विशेष राज्य के दर्जे की दिशा में ताकता ही नजर आता हो |

इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के बाद सरकार करीब 1700 करोड़ का कर्ज उठा चुकी है और जून माह में 750 करोड़ का कर्ज वह पहले ही उठा चुकी है लिहाजा  राज्य में गंभीर वित्तीय असंतुलन पैदा हो गया है |  सरकार का वेतन और पेंशन मद पर बढ़ने वाला कर्ज दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है | एक अनुमान के अनुसार आने वाले समय में उत्तराखंड पर 50000 करोड़ का कर्ज पहुँचने का अनुमान लगाया जा रहा है अगर राज्य इस आंकड़े को पार कर लेता है तो यह नवोदित राज्य के लिए एक नया कीर्तिमान होगा जहाँ भ्रष्टाचार की गंगा में कदम कर्ज में डूबते ही चले जा रहे हैं लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को हवाई घोषणा करने में कोई एतराज नहीं है |

 केंद्र सरकार आये दिन सरकार को गैर योजना मद में कटौती की हिदायत देती रहती है लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं होता बावजूद इसके वह एडीबी और विश्व बैंक सरीखी एजेंसियों से हर बरस करोड़ों के कर्ज को लेने में पीछे नहीं  है | पुरानी देनदारी भी साल दर साल बढती ही जा रही है ऐसे माहौल में राज्य में विकास की योजनायें खुद ब खुद दम तोड़ने के मुहाने पर खड़ी हैं |

  
राज्य गठन की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि इसे कोई सशक्त नेतृत्व नहीं मिल पाया | जनरल खंडूरी ने अपनी अलग पहचान जरूर बनाई लेकिन कड़े फैसले खुद भाजपा के अपने नेताओं को रास नहीं आये जिसके चलते निशंक और कोश्यारी की जोड़ी ने उन्हें ठिकाने लगाने में देरी नहीं लगाई | अनुभव के मामले में तिवारी जी सबसे तजुर्बेकार थे लेकिन उन्होंने भी अपनों के लिए दिल खोल के खजाना खोलने में देरी नहीं लगाई जिससे राज्य पर कर्ज दिनों दिन बढ़ता ही चला गया | डॉ निशंक तो तिवारी की कार्बन कॉपी वाली पहचान बनाने में कामयाब रहे | उनके चेलों ने भी सरकारी खजाने पर करोड़ों की चपत प्रतिदिन लगाई साथ ही भ्रष्टाचार में निशंक का ट्रेक रिकॉर्ड और स्ट्राइक रेट उत्तराखंड की पिच पर सबसे ज्यादा रहा |

विजय बहुगुणा भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए तिवारी के नक्शेकदम पर चले जिससे राजकोष पर भारी व्यय पड़ा और राज्य में आर्थिक हालात चिंताजनक बन गए और फिर मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत भी अपनी कुर्सी बचाने और  सबको खुश करने के फेर में राज्य की माली हालत बदतर करते जा रहे हैं | रावत सरकार के संरक्षण में तो उत्तराखंड में माफियाओं का एक बड़ा नेटवर्क सक्रिय है जो मंत्रियो से लेकर नौकरशाहों को साधकर राज्य से मोटा माल बटोरने में लगा हुआ है | यह सब खुला खेल तो मुख्यमंत्री की नाक के नीचे खेला जा रहा है लेकिन मीडिया इस पर चूं तक नहीं कर रहा क्युकि सी एम की मीडिया मैनेजरी ने सब कुछ मैनेज कर रखा है | खनन में लाखों के वारे न्यारे  हर दिन इस सरकार के कार्यकाल में हो रहे हैं लेकिन लोगों के सरोकारों की बात करने वाले सभी मीडिया समूह इस समय खामोश हैं |

 हरदा की चिंता भले ही किसी तरह अपनी सरकार को 2017 तक खींचने की हो लेकिन इससे उत्तराखंड का कुछ भी भला नहीं होने जा रहा है | अपनों को लाभ पहुचाने से इतर राज्य के भविष्य के बारे में सोचने की उन्हें भी फुर्सत नहीं है | चार्वाक दर्शन की तरह हमारे पहाड़ी मुख्यमंत्री ‘हरदा’ का भी उत्तराखंड में दर्शन खाओ पीयो और मौज करो बन चुका है लिहाजा आने वाले वर्षों में राज्य के सामने अपने बूते संसाधन जुटाना मुश्किल है ही साथ में कर्मचारियों को वेतन ही समय से मिल जाए यही गनीमत होगी | वैसे भी सातवें वेतन आयोग की दस्तक शुरू हो चुकी है और इन सबके बीच अगले बरस इसकी सिफारिशे राज्य सरकार को मुश्किल में डाल सकती हैं क्युकि इससे कई हजार करोड़ रुपये का भार राजकोष पर पड़ेगा | 

ऐसे डगमग हालातों में उत्तराखंड की हालत कैसी होगी इसकी कल्पना करने मात्र से ही हम सिहिर उठते हैं क्युकि उत्तराखंड के कदम कर्ज में डूबते ही जा रहे हैं और हमारे सी एम हरदा हर दिन नई नई घोषणाएं ही करते जा रहे हैं | घोषणाओं के मामले में हरदा ने अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों तक को पीछे छोड़ दिया है | आंकडे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि हरदा ने अपने 17 महीने से ज्यादा के कार्यकाल में 2000 से भी अधिक घोषणाएं की हैं जिनका पूरा होना बहुत दूर की गोटी है | आंकड़े बताते हैं खुद शिक्षा के मसले पर डेढ़ दशक में राज्य में तकरीबन 120 बड़ी घोषणाएं की गई हैं जिनमे से आज तक महज 15 ही पूरी हो पाई हैं |

उत्तराखंड का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही कहेंगे जिन राजनेताओं के मन में उत्तराखंड को लेकर किसी तरह की कोई पीड़ा नहीं थी उनके नुमाइंदे मंत्री संतरी और रागदरबारी बन शासन कर रहे है जिनके मन में आम जनता के प्रति कोई पीड़ा नहीं हो ,पलायन की पीड़ा जिनसे नहीं देखी जा रही हो उनसे आप विकास की उम्मीद किस तरह से कर सकते हैं ? सत्ता पर चाहे भाजपा रही हो या कांग्रेस सरकारी खजाने को दोनों ने भारी चपत ही लगाई है | बुनियादी समस्याएं आज भी 15 बरस के बाद लोगों को नसीब नहीं हो पाई हैं | 

हाँ हरिद्वार , देहरादून और उधमसिंहनगर में औद्योगिक ईकाइयां लगने को विकास का बड़ा पैमाना इस समूचे दौर में मान लिया गया और विशेष राज्य के दर्जे के नाम पर कई औद्योगिक इकाइयों को इंडस्ट्री लगाने के लिए करों में भारी छूट भी दी गई लेकिन कॉरपरेट घराने उत्तराखंड में मौज करते रहे और उत्तराखंड के नौजवान के सामने बेरोजगारी विकराल रूप धारण करती रही लेकिन हमारी सरकारी उर्जा प्रदेश , हर्बल स्टेटआई स्टेट,आयुष प्रदेश के कागजी दावे ही करने में मशगूल रही | जमीन पर इस मसले पर ढेला भर काम नहीं हुआ और अरबों रुपये विज्ञापनों के नाम पर स्वाहा कर दिए गए | यही हाल पर्यटन और फिल्म नीति का भी रहा | हवाई बयानबाजी खूब जोर शोर से की गई लेकिन धरातल पर कुछ भी काम नहीं हुआ | बस सरकारी खजाने की लूट खसोट जारी रही | 

औद्योगिक ईकाइयों के नाम पर बेशकीमती जमीनें कौड़ियों के भाव भू माफियाओं और बिल्डरों को नीलाम कर दी गई  और आपदा प्रबंधन विभाग तो इस राज्य में कई बरस से ऐसी दुधारू गाय बन गया जिसे हर दल के नेताओं ने दुहने में कोई कोर कसर नहीं छोडी जिसकी बड़ी बंदरबांट हर जिले में बीते 15 बरस में हुई है और तो और शराब से लेकर खनन तक को साधकर यहाँ हर सरकारों ने अपना याराना दिखाया है यानी सत्ता में जो भी आया अपनों पर करम गैरों पर सितम इन 15 बरस में खूब किया जिसके चलते राज्य की सेहद बद से बदतर हो गई है | उत्तराखंड की राजनीतिक जमात का चरित्र ही पहाड़  विरोधी रहा है | यह नेता पहाड़ के साथ झूठ और फरेब की राजनीती करते रहे हैं और आज भी यही इतिहास हरदा के कार्यकाल में दोहराया जा रहा है | राज्य के विकास के बजाए सरकार का ध्यान उसके अपनों की सेहत सुधारने और अपने करीबियों को ठेके और कमीशन दिलवाना बन गया  है | 

बार बार उत्तराखंड के विकास के लिए हिमाचल माडल की बात कही जाती है और यशवंत सिंह परमार सरीखे नेता की चर्चा यहाँ भी होती रही है लेकिन इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ पर परमार सरीखा नेतृत्व तो दूर लीक से अलग हटकर सोचने वाला कोई दूरदर्शी नेतृत्व ही नहीं उभर पाया है | जो नेतृत्व उभरा भी उसे पार्टी के नेताओ ने हटाने के लिए अपनी पूरी उर्जा लगा दी |  

अब इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ पर ऐसा नेतृत्व है जिसकी केंद्र सरकार तक में पूछ परख तक नहीं है और अपने संसाधनों के बूते राज्य में नई लकीर खीचने का माद्दा भी किसी राजनेता में बचा नहीं है जिसके चलते इस नवोदित राज्य में अलग राज्य की अवधारणा अब दम तोडती नजर आती है | क्षेत्रीय ताकतों की बात करनी बेमानी है क्युकि वह भी अपने निजी स्वार्थो के चलते सत्ता के तलवे चाटते रहे | राज्य में राष्ट्रीय दलों को पटखनी दे सकने वाली क्षेत्रीय शक्ति की जरूरत हमेशा महसूस की गई। इसके लिए अनुकूल स्थितियां भी पैदा हुईं लेकिन नेताओं की अक्षमता स्वार्थ लोलुपता और अदूरदर्शिता के चलते क्षेत्रीय विकल्प के जो मौके उभरे थे वे भी हाथ से चले गए | 

अब तक यहां शासन में रहे भाजपा और कांग्रेस जैसे दल विकास के मोर्चे पर बुरी तरह फेल रहे हैं। भ्रष्टाचार और घोटालों के दर्जनों किस्से मंत्रियों और नौकरशाहों के दामन पर चिपके रहे। आज भी बाहुबल और धनबल पूरी तरह पहाड़ पर हावी है। राज्य में होने वाली नियुक्तियों  और राज्य में लगने वाले उद्योगों में पहाड़ियों को दरकिनार किया जा रहा है।  यहां के मुख्यमंत्रियों की भूमिका अपने पार्टी हाईकमान की कृपा पर टिकी है । बेचारा मुख्यमंत्री समय-समय पर अपने आकाओं के पार्टी फंड में मोटी रकम न केवल दे रहा है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के बेशकीमती  उपहार भी अपने आकाओं के नाम करने  में पीछे नहीं  है । उत्तराखंड का दर्शन हाल के वर्षो में कुछ इस तरह का बन चुका है  ‘तुम भी खाओ और हम भी खाते हैं ’

जिन उद्देश्यों के लिए उत्तर प्रदेश से अलग राज्य  बनाया गया था गया वह सपना धूल धूसरित हो रहा है और उत्तराखंड  ने उन सभी बुराइयों को आत्मसात कर लिया है जो बुराइयाँ उत्तर प्रदेश में पाई जाती थी । 

लूट खसोट के मामले में तो इसने अपने पडोसी राज्य तक को पीछे छोड़ दिया है जहाँ आलम यह है एक चिकित्सक के ट्रान्सफर के रेट 25 से 35 लाख तक जा पहुचे हैं जिसमे स्वास्थ्य मंत्री से लेकर सभी आला अधिकारियों के शेयर फिक्स हो चले हैं | यह तो एक विभाग की कहानी है ।  सी एम की नाक के नीचे ऐसा खुला खेल तो उत्तराखंड के हर विभाग में खेला जा रहा है लेकिन त्रासदी देखिए उत्तराखण्ड में परिवर्तनकारी क्षेत्रीय शक्तियों की सबसे अधिक जरूरत  यहाँ के लोगों को इस समय है  लेकिन आपसी खींचतान और चुनावी संसाधनों के अभाव के चलते कोई नेतृत्व सामने नहीं उभर पा रहा है | अन्य राज्यों में जहाँ क्षेत्रीय ताकतें दिनों दिन मजबूती के साथ अपने कदम बढ़ा रही हैं वहीँ उत्तराखंड में क्षेत्रीय शक्तियां  सत्ता की चरण वंदना में अपना वक्त जाया करने में लगी हुई हैं|  


उत्तराखंड में चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की स्थानीय ताकतों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थो को हमेशा ज्यादा तरजीह दी जिसके चलते विकल्प की छटपटाहट आज भी उत्तराखंड में करीब से महसूस की जा रही है शायद यही वजह है यहाँ की जनता अब भाजपा और कांग्रेस से अपने को छला हुआ पा रही है और  दबी जुबान से  यह कहने से परहेज नहीं कर रही है इससे अच्छा तो उत्तर प्रदेश ही था तो समझा जा सकता है उत्तराखंड की राजनीतिक जमात ने किस तरह यहाँ की जनता को बीते 15 बरस में दिन में भी तारे दिखाने से परहेज नहीं किया है जिसके चलते अब लोग महज 15 बरस में ही उत्तराखंड राज्य के अलग अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं और तस्वीर का सबसे बुरा पहलू हमें गाँवों में नजर आता है जहाँ 3600 से अधिक गाँव वीरान होने के कगार पर खड़े हैं | अगर समय रहते हमारी राजनीतिक जमात ने आने वाले एक दो वर्षों के भीतर इस पलायन को रोकने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाये तो अलग पहाड़ राज्य की वास्तविक अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगना तय है |  

उत्तराखंड के मौजूदा हालातों और राजनेताओं के चाल , चलन और चेहरे को देखते हुए हमें इन गावों के  फिर से आबाद होने की उम्मीदें बेमानी लगती हैं क्युकि उत्तराखंड में विकास के बजाए मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने और बचाने का सियासी ड्रामा राज्य गठन के बाद से ही खेला जा रहा है शायद यही वजह है बीते 15 बरस में यह राज्य 8 मुख्यमंत्रियों का शासन देख चुका है और इन सबके के बीच क्या पता 2017 आते आते क्या पता यहाँ पर 9 वें मुख्यमंत्री का सियासी ड्रामा देखने को न मिल जाए ?