सियासत में बहुत कम ऐसे चेहरे हुए हैं जो अपनी सादगी , सौम्यता , सरलता और जीवंतता के लिए जाने जाते हैं। उत्तराखंड की राजनीति में बची सिंह रावत 'बचदा' उन खास शख़्सियतों में शुमार थे , जो हर मिलने जुलने वाले कार्यकर्ता और आम जन की फरियाद शिद्दत से सुनते थे। बचदा' से हर बार मिलकर एक अलग तरह का अनुभव होता था। नए- नए विषयों पर संवाद करना , अपने इलाके के विकास की हमेशा चिंता करना और जरूरतमंदों की हर संभव मदद करने के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। पत्रकारों से संवाद के मामले में भी वह बिना लाग- लपेट कभी पीछे नहीं रहते थे। कई बार चाय की चुस्की के बीच ही हमारी खबर भी बन जाया करती थी। 'बचदा' का यही खास अंदाज हम सबके मन को भी बहुत भाता था और उनको राज्य का आम नेता बनाता था । आज के दौर में 'बचदा' होना आसान नहीं है। वे खुद बने और अनेकों को बनाया । हमें एक बात समझने की जरूरत है 'बचदा' किसी की कृपा से नहीं बनते हैं । उसके लिए जनता के दिलों में पैठ बनानी पड़ती है । 'बचदा' ने हर भाजपा के कार्यकर्ता को यह पाठ पढ़ाया है कि आपकी परिस्थितियाँ आपको बड़ा बनने से नहीं रोक सकती अगर आपके भीतर हौंसला है और आप जनता की नब्ज पकड़ना जानते हैं तो राजनीति में आप नया मुकाम बनाने में कामयाब जरूर होंगे। उत्तराखंड की राजनीति में हम सबके दुलारे राजनेता 'बचदा एक ऐसे नायक के रूप में सामने आते हैं जिसने पहाड़ की खुरदुरी जमीन से जनसंघ से अपना सफर शुरू किया। जनता पार्टी से होते हुए वो भाजपा में गए और उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड में अपनी राजनीति से नई लकीर खींची। चार बार सांसद होना, केन्द्रीय मंत्री और एक बार उत्तराखंड का प्रदेश अध्यक्ष होना किसी राजनेता के लिए इतना आसान नहीं है। वह भी तब जब सामने आपका प्रतिद्वंदी हरीश रावत सरीखा जमीन से जुड़ा नेता हो ।
बची सिंह रावत 'बचदा' ने 18 अप्रैल 2021 को अंतिम सांस ली। उन्हें
फेफड़ों में संक्रमण होने के कारण हल्द्वानी से एयर एम्बुलेंस द्वारा एम्स ऋषिकेश में भर्ती कराया गया। रविवार
रात से ही उनकी हालत अचानक और बिगड़ गई और रात 8:45 बजे उनका निधन हो गया। जब उन्हें एम्स
ऋषिकेश लाया
गया था तो उनकी कोविड-19 रिपोर्ट निगेटिव थी लेकिन दोबारा कोरोना की जांच की गई, जिसमें वे संक्रमित पाए गए थे। उनके
निधन की खबर सुनते ही मेरा मन उनके साथ हुई पुरानी यादों में खो गया ।
एक रोचक किस्सा 'बचदा' के नाम से जुड़ा हुआ है। बहुत कम लोगों को
ये बात मालूम है उनका असली नाम आनंद सिंह रावत था जो कि बाद में बदलकर बची सिंह रावत 'बचदा' हो गया। बची सिंह रावत 'बचदा' के साथ कई बार इंटरव्यू करने का मुझे मौका मिला।
मैंने पहली बार उनका इंटरव्यू तब लिया जब वह रक्षा राज्य मंत्री अटल जी की सरकार
में बनाए गए। तब मैंने हँसते हुए एक बार उनसे अपने इस दिलचस्प नाम का किस्सा पूछा
तो मुस्कुराकर उन्होनें जवाब दिया उनका असली नाम आनंद सिंह रावत था। जब वह पैदा
हुए तो बहुत बीमार हो गए थे तो उस समय उनके बचने की उम्मीद काफी कम थी। तब
ज्योतिषी के कहने पर ही उनके पिता ने उनका नाम बची सिंह रावत रखा। बची सिंह रावत
नाम रखने बाद से तो मानो चमत्कार सा हो गया । उनकी खराब तबीयत ठीक हो गयी। तब से
ही वह परिवार में बची सिंह रावत 'बचदा' के नाम से ही जाने जाने लगे। बची सिंह
रावत 'बचदा' की खासियत यही थी उन्होनें बहुत कम समय में अपनी प्रतिभा और योग्यता
के दम पर विधायक , सांसद और प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर देश
में नाम कमाया। राजनीतिक आडंबरों , छल
प्रपंच से हमेशा दूर रहने वाले बची सिंह
रावत 'बचदा' की छवि हमारे पहाड़ में एक धीर
- गंभीर किस्म के नेता की रही।
'बचदा' सियासत में सौम्यता , गंभीरता
और जिम्मेदाराना व्यवहार के लिए जाने जाते थे जिन्हें जनता अल्मोड़ा पिथौरागढ़
संसदीय सीट की जनता का दुलार प्यार हमेशा
मिलता रहा । बची सिंह रावत 'बचदा' ने अपनी राजनीति में विनम्रता की पूंजी
को आजीवन बटोरा। बच्चे , बूढ़े, जवान , बहनें , माताएँ सब उनके कायल थे। वह सब जगह सुलभ हो जाया करते थे। यही
खास अंदाज और मिलनसारिता का भाव जनता को
उनके करीब लाया। उनसे
मिलने का हमेशा एक अलग सा अहसास होता था और जो एक बार मिल लेता था
वह उनका मुरीद हो जाता था। मीडिया के साथ भी वह खूब गलबहियाँ किया करते थे। मुझे
याद है एक बार पिथौरागढ़ में एक पत्रकार वार्ता में किसी पत्रकार ने उनसे रक्षा
तकनीक पर रक्षा अनुसंधान केंद्र पंडा में एक सवाल पूछ लिया था तब मुखातिब होते
होते उन्होनें रक्षा मंत्रालय की कई बातें सार्वजनिक ढंग से कह डाली जिसके बाद
उन्हें रक्षा से हटाकर विज्ञान
प्रौद्योगिकी मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया। इस बात
से साबित होता है 'बचदा' कितने सहज , सरल और
ईमानदार थे । दिल में
कुछ भी नहीं रखते थे। बातें
बिना लाग -लपेट के कहने से नहीं हिचकते थे। 'बचदा' एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। यह बात
बहुत कम लोगों मालूम है वकील होने के साथ ही वह पहाड़ के ग्रामीणों के विकास के लिए
काम करने वली ग्रामोत्थान समिति से भी जुड़े थे।
'बचदा' का जन्म एक अगस्त 1949 को अल्मोड़ा जिले के रानीखेत तहसील क्षेत्र के
अंतर्गत पाली गांव में हुआ था । उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अल्मोड़ा में
प्राप्त की जिसके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विषय में उन्होंने परास्नातक
किया । 'बचदा' 1969 में जनसंघ से जुड़े थे । 1977 में
जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ तो वे भी उसका अंग बन गए । इसके बाद 1980 में
जनता पार्टी टूटी और भाजपा का गठन हुआ तब 'बचदा' की भाजपा में सक्रियता बढ्ने लगी ।
अविभाजित उत्तर प्रदेश में उन्होंने वर्ष 1991 और 1993 में रानीखेत विधानसभा
क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया । उत्तर प्रदेश की तत्कालीन
कल्याण सिंह की सरकार में वे राजस्व
राज्य मंत्री भी रहे । 1996 से 2004 तक अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय क्षेत्र से सांसद
निर्वाचित हुए । इस दौरान उन्होंने तीन बार काँग्रेस के दिग्गज हरीश रावत और एक
बार उनकी पत्नी रेणुका रावत को करारी
चुनावी शिकस्त दी । वह दौर ऐसा दौर
था जब कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत के खिलाफ भाजपा को एक ऐसे चेहरे की तलाश
थी, जो उन्हें टक्कर देने के साथ काम से
पहचान बनाये। तब रानीखेत के विधायक व उत्तर प्रदेश में राजस्व उप मंत्री रहे बची
सिंह रावत 'बचदा' को भाजपा ने अल्मोड़ा संसदीय
क्षेत्र से उतार दिया । अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र के चप्पे -चप्पे से वाकिफ और हर व्यक्ति के लिए आम जन के लिए दिन रात सुलभ 'बचदा' ने बतौर सांसद दूरस्थ क्षेत्रों तक विकास की किरण पहुंचाई ।
उन्होंने गांव -गांव दौरे कर ऐसी लोकप्रियता हासिल की कि अल्मोड़ा संसदीय इलाके के लोगों
के दिल में मानो बस से गए। अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र की जनता की सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले
'बचदा' ने बतौर सांसद सीमांत क्षेत्रों तक विकास की किरण पहुंचाई ।
उन्होंने गांव गांव दौरे कर लोकप्रियता हासिल की। 'बचदा' की बिसात इस इलाके में ऐसी मजबूत बिछी उनके किले का दरकना मुश्किल सा
दिखने लगा। इसके बाद हरीश रावत की राजनीति पर ग्रहण लगने की बातें कही जाने लगी।
तब हरीश रावत को अल्मोड़ा संसदीय सीट के आरक्षित होने के चलते हरिद्वार
लोकसभा सीट की तरफ रुख करना पड़ा।
'बचदा' अटल सरकार में रक्षा राज्य मंत्री और बाद में विज्ञान प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री भी बने। 'बचदा' पर जब लिखने बैठ रहा हूँ तो उनसे से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा मुझे याद आ रहा है। 9 नवंबर 2000 को जब अलग उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया तो उनको नित्यानन्द स्वामी के स्थान पर सी एम बनाया जा रहा था। तब वह तत्कालीन पी एम अटल जी से मिलने गए तो अटल जी ने उनसे शपथ के लिए तैयार रहने के लिए कहा इसके लिए उन्होने बाकायदा एक ड्रेस भी सिलवा ली लेकिन उसी दिन कुछ घंटे बाद भाजपा की एक बैठक संघ के साथ हुई जिसमें अटल , आडवाणी और डॉ जोशी भी साथ बैठे और उनसे उत्तराखंड के नए सी एम भगत सिंह कोश्यारी के नाम पर सहमति ले ली और संसदीय बोर्ड के इस फैसले के आगे उन्हें नतमस्तक होना पड़ा था लेकिन इसके बाद भी बी सी खण्डूरी के पहली बार राज्य के सीएम बनने के दौर में उन्हें 2007 से 2010 तक प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का दायित्व भी सौपा गया जिसे ज़िम्मेदारी के साथ उन्होनें निभाया । अपने प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल में उनके द्वारा कई फैसले लिए गए और बी सी खण्डूरी की सरकार के साथ बेहतर तालमेल बनाने में कामयाब रहे ।
2008 में अल्मोड़ा सीट आरक्षित होने की वजह से 2009 में नैनीताल-ऊधमसिंहनगर लोकसभा सीट से भाजपा टिकट पर चुनाव लड़े लेकिन कांग्रेस के दिग्गज केसी सिंह बाबा से रिकार्ड मतों से चुनाव हारे लेकिन तब 'बचदा' अब अपनों से ही बुरी राजनीतिक मात खा गए । 'बचदा' ने कई दशकों तक उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई लेकिन 2014 में मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने के बाद से लोकसभा टिकट आवंटन में उनका नाम तक पैनल में नहीं रखा गया । इस कारण एक बार वे पार्टी नेतृत्व से बेहद खफा से हो गए। नैनीताल में एक मुलाक़ात में उन्होनें इसका जिक्र मुझसे किया था । तब उन्होनें मुझसे कहा था भाजपा से रूठने का सिर्फ यही कारण है कि मेरा नाम नैनीताल-ऊधमसिंहनगर लोकसभा सीट के लिए पैनल में नहीं रखा गया । उस दौर में प्रत्याशी चयन समिति की एक बैठक हुई थी । उसमें चुनाव समिति ने तीन नाम तय किए थे जिनमें भगत सिंह कोश्यारी , बची सिंह रावत और बलराज पासी का नाम शामिल था । ये तीनों नाम बाकायदा रजिस्टर में दर्ज किए गए । तब कहा गया था कि इन तीनों ही नामों को चयन समिति संसदीय बोर्ड के सामने रखेगी लेकिन जब अखबार में पढ़ा कि पैनल में सिर्फ भगत सिंह कोश्यारी का नाम था तो बची सिंह रावत को यह बात बुरी तरह खल गई। इसके बाद उन्होनें पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने का फैसला किया। मैंने जब 'बचदा' से पूछा इसे आप राज्य भाजपा नेताओं का षड्यंत्र मानते हैं तो उन्होनें कहा मैं तब से भाजपा का सदस्य हूं जब 25 पैसे की सदस्यता दी जाती थी । मैं वर्ष 1969 से पार्टी की राजनीति कर रहा हूं । 25 पैसे की सदस्यता लेकर जनसंघ से जुड़ा था । वरिष्ठ की श्रेणी में होने के बावजूद भी मुझे साइड लाइन क्यों किया गया यही सोचकर आज मैं काफी परेशान हूं। तब उन्होनें यह कहा मुझे लगता है यह सब प्रदेश के नेताओं के इशारों पर हुआ है। उन्होंने यह सब एक व्यक्ति विशेष को लाभ पहुंचाने के लिए किया है । इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व के सामने यह दिखावा किया गया कि एक ही नाम इस सीट से आया है जिससे लगे सभी भाजपा नेताओं की इसमें सहमति है । इससे मैं बहुत अधिक आहत हुआ हूं । हालांकि बाद में समझा बुझाकर वह मान गए ।
'बचदा' से बात करते हुए हमेशा जो भी अनुभव हुए
हैं वे विलक्षण थे। सत्ता में रहें या नैनीताल से लोकसभा चुनाव हार गए , उन्होनें जिस अंदाज में अपनी राजनीतिक
बिसात पहाड़ों में बिछाई आज
के दौर में ऐसा कर पाना असंभव है । बची सिंह रावत की विनम्रता, सादगी और वायदा पूरा करने के गुणों के चलते लोग
उनके कायल रहे। उनकी खूबी यह थी वो
अपने मूल्यों की राजनीति किया करते थे । जिसे साथ चलना हो चले , जिसे बाहर जाना हो जाए
, वे
अपना रास्ता खुद बनाया करते थे और कई बार आलाकमान को भी ठसक के आईना दिखा दिया
करते थे। ऐसा मैंने उन्हें नैनीताल सीट के टिकट आवंटन वाले दौर में देखा था। इन
सबके बाद भी बचदा सहज , सरल व्यक्तित्व
के धनी होने के साथ ही मृदुभाषी, विनम्र और वादा पूरा करने वाले व्यक्ति
थे। आज के दौर में खोजकर भी आपको ऐसे नेता नहीं मिल सकते । यही नहीं 'बचदा' उत्तराखंड की ब्राह्मण –ठाकुर की राजनीति की संकीर्णता से हमेशा दूर रहे और समाज के हर तबके
के लिए हमेशा सुलभ रहे। 'बचदा' समाज के हर तबके के बीच इतने लोकप्रिय थे कि अपनी सौम्यता के
चलते लगातार चुनाव जीतकर अल्मोड़ा में
हैट्रिक लगाने में सफल रहे ।
बात 'बचदा' ही
चली है तो उनसे जुड़ा एक किस्सा और दिलचस्प है । 1999 के
लोकसभा चुनाव में पिथौरागढ़ के देव सिंह मैदान में भाजपा की एक रैली हुई जिसमें
भाजपा के स्टार प्रचारक और प्रमोद महाजन
मंच पर 'बचदा' के
साथ थे।
'बचदा' के
साथ उस समय वर्तमान भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता सुरेश जोशी भी उस बड़ी जनसभा में साथ
थे तब भाजपा के टेक्नोक्रेट रहे प्रमोद महाजन ने जनसभा के मंच से खुद कहा था
पिथौरागढ़ जाने से पहले मैं प्रधान मंत्री अटल जी से मिला था । मैंने
बताया 'बचदा' के लिए जनसभा करने पिथौरागढ़ जा रहा हूँ। तब अटल
जी ने ये कहा ये बच्चा ('बचदा') मेरे लिए बहुत लकी रहा है । ये
बच्चा ('('बचदा') जब पहली बार 1996 अल्मोड़ा पिथौरागढ़ संसदीय सीट
से सांसद निर्वाचित हुआ तो मेरी सरकार 13 दिन चली , बच्चा ('बचदा') जब दूसरी बार 1998 में इस संसदीय सीट से सांसद बना तो मेरी सरकार 13
महीने चली । अब
इस बार 1999 में अगर इस बच्चे ('बचदा') की अल्मोड़ा पिथौरागढ़ संसदीय सीट से हैट्रिक लगती
है तो मेरी सरकार पूरे पाँच साल चलेगी और हुआ भी ऐसा ही । तब प्रमोद
महाजन के ऐसा कहते ही पूरा देव सिंह मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। इस
वाकये से समझ सकते थे 'बचदा' सभी
के लिए कितने सरल और सुलभ थे ।
केंद्रीय राज्य मंत्री रहे 'बचदा' ने अपने कार्यकाल में अनेक स्थानों पर केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना
की। 2004 में आर्य भट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान एरीज नैनीताल को केंद्रीय दर्जा दिलाने में तत्कालीन
मुख्यमंत्री एनडी तिवारी,
तत्कालीन मानव
संसाधन मंत्री डॉ मुरली
मनोहर जोशी के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1954 में
उत्तर प्रदेश राजकीय वैधशाला की स्थापना हुई थी जिसे बाद में 'बचदा' के रहते अंतरराष्ट्रीय पहचान
मिली । केंद्र
के अधीन जाने के बाद एरीज को पर्याप्त बजट मिला जिससे नई खोजों और शोध , नवाचार में आसानी हुई । 'बचदा' के रहते एरीज में 3.6 मीटर के
टेलिस्कोप की स्थापना हो सकी जो नैनीताल के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है । केंद्रीय राज्य मंत्री के साथ बतौर
सांसद 'बचदा' ने हर साल अपनी सांसद निधि के साथ ही अपने प्रयासों से किये कामों
के अलावा संसद में उठाये गए सवालों व उनके जवाब की किताब प्रकाशित करने की एक
नवीन परंपरा शुरू की।
उस किताब को अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र के गावों और शहरों में बांटा जाता था। 'बचदा' ने अलग उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए लोकसभा में निजी विधेयक भी
पेश किया था। साथ ही अलग राज्य निर्माण का मामला अनेक बार संसद की पटल पर उठाया। 'बचदा' हर किसी से आत्मीयता के साथ मिलते थे और किसी को भी
निराश नहीं करते थे। एक
मुलाक़ात में ही वो आपका नाम याद रख लेते थे और बड़ी भीड़ में भी पहचान जाते थे और
नाम लेकर पुकारते थे शायद इसका कारण ये थे जो जमीन से जुड़े जनसंघ के नेता थे ।
आज जब वे इस दुनिया से जा चुके हैं तो मेरा यही
कहना है बहुत कठिन सियासत में 'बचदा' होना।
बहुत कठिन । आज के दौर में हम राजनेताओं को कोसते हैं लेकिन जनता की नजर
में एक काबिल नेता बन पाना बहुत मुश्किल है। मैंने कई
बार उन्हें पहली बार सांसद बनने पर भी कई बार लैंडलाइन नंबर पर
फोन किए। केन्द्रीय
मंत्री बनने के दौरान भी कई मसलों पर उनकी बाइट लेनी चाही लेकिन हमेशा वह फोन लाइन
पर हमेशा उपलब्ध रहे । कई बार उनके पीए फोन उठाते थे बात
नहीं हो पाती थी तो पीए खुद कहा करते थे अभी भाई साहब उपलब्ध नहीं हैं आप रात में या सुबह बात कीजिएगा । दिन में
बहुत व्यस्तता रहती है लेकिन
बात निश्चित ही हो जाती थी । आज के दौर में ऐसा हो पाना असंभव है । आप किसी
नेता के साथ फोन पर बात करें ऐसा सोच भी नहीं सकते । अधिकारी
ही आजकल मोबाइल फोन नहीं उठाते और बैक काल तक नहीं करते फिर नेता तो नेता हैं। आज तो
नेताजी की चरण वंदना करने वाले वाहन चालक तक में गुरूर आ जाता है पी ए तो बहुत दूर की बात है ।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है मौजूदा दौर में 'बचदा' होना आसान नहीं है। वे खुद बने और अनेकों को बनाया । एक बात समझनी होगी 'बचदा' किसी की कृपा से नहीं बनते हैं । उसके लिए जनता के दिलों में पैठ बनानी पड़ती है और कार्यकर्ता को दुत्कारना पड़ता है । वह जनसंघ के दौर के ऐसे नेता थे कभी भी उन पर सत्ता की ठसक हावी नहीं हुई। प्रदेश अध्यक्ष बने तब भी वैसे ही सहज और विनम्र रहे । उनसे मिलने के लिए कभी घंटों लाइन में नहीं लगना पड़ा । शायद यही जनसंघ के पुराने संस्कार ही थे जो बचदा को विनम्र बनाए हुए थे नहीं तो आज के दौर में तो कुर्सी के साथ नेताजी के रंग बदलते जा रहे हैं । मंत्री बनने के बाद नेताजी कार्यकर्ताओं को नहीं पूछ रहे फिर हम पत्रकार तो पत्रकार हुए। वैसे भी आज सोशल मीडिया का दौर है। हर नेता मीडिया के सामने आने से बचना चाहता है। अब तो दौर मीडिया मैनेजरी का है वही प्रेस नोट बनाकर सभी मीडिया को दे रहा है । 'बचदा' इतने शालीन नेता रहे कभी उनका नाम किसी विवाद में नहीं आया। 2014 के बाद भी वह पहले जैसे ही रहे। वह चाहते तो अपने लिए पार्टी से और भी बहुत कुछ मांग सकते थे । कभी अपने बेटे या पत्नी के लिए टिकट नहीं मांगा। ना ही राज्यपाल के पद को पाने के लिए किसी तरह की लाबिंग की । शायद अपनी ईमानदारी और सरल स्वभाव के चलते वह जन -जन में बेहद लोकप्रिय थे । मेरे साथ एक बार एक इंटरव्यू में उन्होनें खुद सांसद रहते कहा था अब मैं हमेशा सांसद या मंत्री थोड़ी रहूँगा । इंसान को किसी पद का मोह कभी नहीं होना चाहिए । सत्ता का नशा नहीं होना चाहिए । नेताओं को विनम्र होना चाहिए तभी तरक्की की सीढ़ियां चढ़ी जा सकती हैं । 'बचदा' का असमय चला जाना उत्तराखंड भाजपा के लिए एक बड़ी क्षति है। भाजपा को अभी आपके अनुभवों का लाभ और लेने की जरूरत थी । 'बचदा' , आप बहुत जल्दी चले गए । भला इतनी जल्दी भी कोई जाता है । मेरी विनम्र अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि