“जाएँगे तो लड़ते हुए जाएंगे” के जिस नारे के आसरे कांग्रेस इस दौर में आर्थिक
सुधारो की फर्राटा भरने वाली मनमोहनी इकोनोमिक्स वाली अपनी लीक पर चल रही है अब उसी की थाप पर
कांग्रेस के युवराज यानी राहुल गाँधी कांग्रेस के लिए आने वाले लोकसभा का चुनाव
रास्ता तैयार कर रहे हैं क्युकि सूरजकुंड से निकले अमृत मंथन का सन्देश साफ़ है |
राहुल को इस दौर में जहाँ कांग्रेस को खुद के लिए तैयार करना है वहीँ मनमोहन सिंह
के पास भी कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किये गए वायदों को पूरा करने की एक
बड़ी चुनौती सामने खड़ी है | लेकिन असल चुनौती तो राहुल के सामने है जिनको आगे कर
पार्टी लोकसभा चुनाव लड़ने जा रही है | सूरजकुंड में पार्टी के संवाद मंथन में यह
तय हो चुका है कि कांग्रेस को राहुल की अगुवाई में ही २०१४ का रास्ता अपने बूते ही
तय करना है क्युकि पार्टी ने इसी को ध्यान में रखकर राहुल को राष्ट्रीय चुनाव
समिति का अध्यक्ष बनाया है | पार्टी की चुनाव समन्वय समिति में राहुल के अलावे
अहमद पटेल, जनार्दन, मधुसुदन, जयराम रमेश की धमाचौकड़ी को जगह दी गई है | इसके अलावे तीन उपसमूह भी बनाए गए हैं जो चुनाव पूर्व गठबंधन, चुनावी घोषणा पत्र
से लेकर प्रचार प्रसार तक का काम देखेंगे | गौर करने लायक बात है इस पूरी उपसमिति
में भी सोनिया के सलाहकारों की छाप साफ़ देखी जा सकती है क्युकि जहाँ गठबंधन और चुनावी घोषणा पत्र वाला विभाग सोनिया के
सबसे भरोसेमंद एंटनी के पास है तो वहीँ प्रचार प्रसार का जिम्मा गाँधी परिवार के
सबसे वफादार दिग्गी राजा संभालेंगे | राहुल को आगे करने की अटकले कांग्रेस में
लम्बे समय से चल रही थी आखिरकार सूरजकुंड के बाद पार्टी द्वारा लिए गए फैसलों ने
एक बात तो साफ़ कर दी है आने वाला लोक सभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन के बजाए राहुल
गाँधी को प्रोजेक्ट करके लड़ने जा रही है और इस बार की चुनावी बिसात में राहुल
गाँधी पार्टी में अहम रोल निभाएंगे क्युकि इस चुनाव में पार्टी के टिकट आवंटन में
राहुल गाँधी की ही चलेगी और वही नेता टिकट पाने में कामयाब होगा जो राहुल गाँधी की
चुनावी बिसात के खांचे में फिट बैठेगा | ऐसा ना होने की सूरत में कई नेताओ के टिकट
कटने का अंदेशा अभी से बनने लगा है |अगले आम चुनाव में कांग्रेस का बड़ा एक चेहरा
राहुल ही होंगे |
पार्टी में एक बड़ा तबका लम्बे समय से उनको आगे करने की बात कह रहा था | खुद
मनमोहन सिंह भी उनसे मंत्रिमंडल में शामिल होने का आग्रह कर चुके थे | हाल ही में
हुए मंत्रिमंडल विस्तार के दौरान भी उम्मीदें लगाई गई राहुल को सरकार या संगठन में
एक बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है लेकिन सूरजकुंड में राहुल को बड़ी भूमिका मिलने के
बाद अब उन सारी अटकलों पर विराम लग गया है क्युकि राहुल खुद पार्टी को संभालने आगे
आये हैं | राहुल गाँधी को कांग्रेस आने वाले लोकसभा चुनाव में उस ट्रंप कार्ड के
तौर पर इस्तेमाल करना चाह रही है जो अपनी काबिलियत के बूते देश की युवाओ की एक बड़ी
आबादी के वोट का रुख कांग्रेस की ओर मोड़ सके | सूरजकुंड में सोनिया की सहमति से
लिया गया यह फैसला पार्टी कार्यकर्ताओ में नए जोश का संचार भले ही कर जाए लेकिन राहुल गाँधी की राह आने वाले दिनों में
इतनी आसान भी नहीं है | २००९ के लोक सभा
चुनावो में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की
मनरेगा आरटीआई, किसान कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओ के सर ही बंधा था | वहीँ उस दौर को
अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गाँधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख
रहा था जो भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्युकि वह नेहरु की तर्ज
पर भारत की खोज करने पहली बार निकले जहाँ वह दलितों के घर आलू पूड़ी खाने जाते थे वहीँ कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में
परमाणु करार की बहस में उजागर करते थे | लेकिन
संयोग देखिये राजनीती एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है यह कांग्रेस
को अब पता चल रहा है | अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है
साथ ही आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ के नारों की भी हवा निकली हुई है क्युकि
महंगाई चरम पर है | सरकार ने घरेलू गैस की
सब्सिडी ख़त्म कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी
ऐसे समय में ली है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो
चला है | वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई , घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के
मुद्दे से लेकर तेल की बड़ी कीमतों के साथ
ही ऍफ़डीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है | देश की अर्थव्यवस्था जहाँ इस समय सबसे मुश्किल
दौर से गुजर रही है वहीँ आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी
सबसे ज्यादा परेशान है क्युकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है | यह
सरकार अपने मनमोहनी इकोनोमिक्स द्वारा आम आदमी के बजाए कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा दिखा रही है |
ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है राहुल गाँधी को आगे करने से उसके
भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है क्युकि यूपीए २ की इस सरकार
के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई
बड़ा काम इस दौर में नहीं हुआ है | उल्टा
कांग्रेस कामनवेल्थ ,२ जी ,कोलगेट जैसे मसलो पर लगातार घिरती जा रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है | ऊपर से
रामदेव , अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदराना रहा है जिससे जनता
में उसके प्रति नाराजगी का भाव है | देश में
मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं जो गडकरी
से लेकर खुर्शीद तक को उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद तक में चुनौती दे चुके हैं | ऐसे
निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने
की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्युकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में
खोयी हुई साख वापस नहीं आ सकती | दाग तो
दाग हैं वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते | ऊपर से आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई
मायने नहीं रखते क्युकि उसके लिए दो जून
की रोजी रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन
सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है | वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर
में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है क्युकि वही सरकार के लिए चुनावो में
बिसात बिछा रहा है | ऐसे खराब माहौल में राहुल को बैटिंग करने में दिक्कतें पेश आ सकती हैं | साथ ही राहुल के सामने उनका
अतीत भी है जो वर्तमान में भी उनका पीछा शायद ही छोड़ेगा |ज्यादा समय नहीं बीता जब
२००९ में २०० से ज्यादा सीटें लोक सभा
चुनावो में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार ,उत्तर प्रदेश, पंजाब,तमिलनाडु के विधान सभा चुनावो में प्रदर्शन बेहद
निराशाजनक रहा | उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरुर लेकिन यहाँ भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से
दूर ही रही | इन जगहों पर राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी | संगठन
भी अपने बजाय राहुल का औरा लिए करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगो की भीड़ वोटो में
तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गाँधी ने भी उन इलाको का दौरा नहीं किया जहाँ कांग्रेस कमजोर नजर आई |
चुनाव निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने
की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए | ऐसे में दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी
चुनौती राहुल के सामने खड़ी है |
वैसे एक दशक से ज्यादा समय से राजनीती में राहुल
को लेकर कांग्रेसी चाटुकार मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा आशावान हैं | लेकिन हमें यह
नहीं भूलना चाहिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में राहुल का चुनावी
प्रबंधन पार्टी के काम नहीं आ सका | एमबीए, एमसीए डिग्रियों
से लैस उनकी युवा टीम ने जहाँ इन्टरनेट की
दुनिया में राहुल के लिए माहौल बनाया वहीँ
कांग्रेसी चाटुकारों की टोली ने उन्हें विवादित बयान देने और चुनावी सभा में बाहें
ही चढ़ाना सिखाया | अगर वह जनता की नब्ज पकड़ना जानते तो शायद उत्तर प्रदेश के अखाड़े
में वह उनसे कम उम्र के अखिलेश यादव से नहीं हारते | एक दशक से भारत की राजनीती
में सक्रिय राहुल गाँधी जहाँ पुराने चाटुकारों से घिरे इस दौर में नजर आते हैं
वहीँ उनकी सबसे बड़ी कमी यह है की चुनाव निपटने के बाद वह उन संसदीय इलाको और विधान सभा
के इलाको में फटकना तक पसंद नहीं करते जहाँ कांग्रेस लगातार हारती जा रही है | यही
उनकी सबसे बड़ी कमी इस दौर में बन चुकी है वहीँ अगर हम अखिलेश तो देखें तो उत्तर प्रदेश के चुनावो में वह मीडिया की नज़रों से
बिलकुल ओझल रहे लेकिन उन्हें अपने काम पर भरोसा था वह जनता से सीधा संवाद स्थापित
करने में कामयाब रहे और जनता ने सपा को इस साल मौका दिया वहीँ कांग्रेस को उसी हाल पर छोड़ दिया जहाँ वह बरसो से उत्तर
प्रदेश में खड़ी है | अखिलेश की सबसे बड़ी
खूबी यह है वह अच्छे संगठनकर्ता हैं ही साथ ही वह एक एक कार्यकर्ता का नाम तक
जानते हैं और उनसे कभी भी सीधा संवाद
आसानी से स्थापित कर लेते हैं | वहीँ राहुल गाँधी को अपने चाटुकारों से फुर्सत
मिले तब बात बने | राहुल गाँधी को अगर आने
वाले दिनों में अपने बूते कांग्रेस को
तीसरी बार सत्ता में लाना है तो संगठन की दिशा में मजबूत प्रयास करने होंगे साथ ही
कार्यकर्ताओ की भावनाओ का ध्यान रखना होगा क्युकि किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी रीड
उसका कार्यकर्ता होता है अगर वह ही हाशिये पर रहे तो पार्टी का कुछ नहीं हो सकता |
राहुल को उन कार्यकर्ताओ में नया जोश भरना होगा जिसके बूते वह जनता के बीच जाकर सरकार की नीतियों के बारे में बात कर सकें
| उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है
|
एक दशक से ज्यादा समय से
भारतीय राजनीती में सक्रियता दिखाने वाले राहुल गाँधी ने शुरुवात में कोई पद ग्रहण
नहीं किया | उन्होंने बुंदेलखंड के इलाको के साथ बिहार , उड़ीसा ,विदर्भ के इलाको
के दौरे किये और जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओ को गौर से सुना | इसी दौरान वह उड़ीसा
में पोस्को और नियमागिरी के इलाको में
जाकर वेदांता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं जिन पर पूरे देश का ध्यान
गया | यही नहीं भट्टा परसौल, मुंबई की लोकल ट्रेन से लेकर कलावती के दर्द को
उन्होंने बीते एक दशक में करीब से महसूस किया है | लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह रही
है वह इन इलाको में एक बार अपनी शक्ल
दिखाने और मीडिया में सुर्खी
बटोरने के लिए जाते जरुर हैं । बाद में खामोश हो
जाते हैं और उन इलाको को उसी हाल पर छोड़ देते हैं जिस हाल पर वह इलाका पहले
हुआ करता था तो उनके विरोधी भी सवाल उठाने लगते है |
मिसाल के तौर पर विदर्भ के इलाके को लीजिए | बीते एक दशक में साढ़े तीन लाख से
ज्यादा किसान आत्महत्याए कर चुके हैं जिसको राहुल अपनी राजनीति से उठाते है |
कलावती के दर्द को संसद के पटल पर परमाणु करार के जरिये उकेरते हैं लेकिन उसके बाद
कलावती को उसी के हाल पर छोड़ देते हैं | २००५ में अपने पति को खो चुकी कलावती का
दर्द आज भी कोई नहीं समझ सकता | न जाने लम्बा समय बीतने के बाद वह कहाँ गुमनामी के अंधेरो में खो गई | राहुल उसकी सुध
इस दौर में लेते नहीं दिखाई दिए जबकि आडवानी की रथ यात्रा के दौरान २०११ में अक्तूबर के महीने में उसकी बेटी
सविता ने ख़ुदकुशी कर ली वहीँ इसी साल २०१२
में कलावती की छोटी बेटी के पति ने खेत में कीटनाशक दवाई खाकर अपनी जीवनलीला
समाप्त कर दी | तब राहुल गाँधी की तरफ से
उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई | जबकि कलावती के जरिये संसद में परमाणु करार पर
मनमोहन सरकार ने खूब तालियाँ अपने पहले कार्यकाल में बटोरी थी जब वाम दलों की घुड़की के आगे हमारे प्रधानमंत्री
नहीं झुके | उसके बाद क्या हुआ कलावती अपने देश में बेगानी हो गयी | उत्तर प्रदेश
में थकी हुई रीता बहुगुणा जोशी के हाथ कमान दी जो अपने जीवन का एक चुनाव तक नहीं
जीत सकी | शुक्र है इस बार के चुनाव में उन्हें हार नहीं मिली | चुनावो के बाद भीतरघातियो पर कारवाही तक नहीं हुई और ना ही राहुल उत्तर प्रदेश के आस पास फटके | यही हाल बिहार
में हुआ अकेले चुनाव लड़ने का मन तो बना लिया लेकिन सगठन दुरुस्त नहीं था न कोई
चेहरा था जो नीतीश के सामने टक्कर दे सकता था इसी के चलते २०१० के विधान सभा चुनाव
में केवल ४ सीट ही हाथ लग सकी | चुनाव निपटने के बाद बिहार को भी वैसा ही छोड़ दिया
जैसा उत्तर प्रदेश है | अब ऐसे हालातो में पार्टी का प्रदर्शन कैसे सुधरेगा यह एक बड़ी पहेली बनता जा रहा है | राहुल को यह कौन समझाए वोट कोई पेड पर नहीं
उगते | उसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है और कार्यकर्ताओ को साथ लेकर
चलना पड़ता है जिसमे संगठन एक बड़ी भूमिका अदा करता है | लेकिन राहुल की सबसे बड़ी
मुश्किल यही है चुनाव के दौरान ही वह चुनाव प्रचार करने इलाको में नजर आते हैं
चुनाव निपटने के बाद उन इलाको से नदारद पाए जाते है |
यू पी ए २ में राहुल के पास
अपने को साबित करने की एक बड़ी चुनौती है जिस पर वह अभी तक खरा नहीं उतर पाए हैं |
मिसाल के तौर पर अन्ना के आन्दोलन को ही देख लीजिए उस दौरान
सोनिया गाँधी बीमार थी | राहुल को कांग्रेस के बड़े नेताओ के साथ डिसीजन मेकिंग की कमान दी गई थी लेकिन अन्ना के आन्दोलन
पर उनकी एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई | यही
नहीं जनलोकपाल जैसे अहम मसलो पर वह उनकी
पार्टी का स्टैंड सही से सामने नहीं रख पाए | वह इस पूरे दूसरे कार्यकाल में संसद
से नदारद पाए गए है | सदन में कोई बड़ा बयान उनके द्वारा जहाँ नहीं दिया गया वहीँ
किसानो की आत्महत्या, महंगाई, ऍफ़डीआई ,गैस सब्सिडी खत्म करने जैसे मसलो पर उनका कोई बयान मीडिया में नहीं आया
है जो सीधे आम आदमी से जुड़े मुद्दे हैं |
यही नहीं भ्रष्टाचार के मसले पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढे बैठे रहे | वाड्रा
डीएलएफ के गठजोड़ पर भी उनकी चुप्पी ने कई
सवालों को जन्म तो दिया ही साथ ही कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में अपनी पार्टी
के कोष से नैशनल हेराल्ड को दिए गए ९०००० करोड़ रुपये के चंदे पर भी राहुल ने खामोश
रहना मुनासिब समझा | हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसे लोगो का कद बढ़ाया
गया जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे
| लेकिन राहुल ने उस पर भी कुछ नहीं कहा | राहुल की भूमिका को लेकर सवाल उठने
लाजमी ही हैं | अब समय आ गया है जब उनको देश से और आम जनता से जुड़े मुद्दे सामने
लाने से नहीं डरना होगा तभी बात बनेगी | नहीं तो अभी के हालत कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे नजर नहीं आते |
वर्तमान में पार्टी जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में ढलान पर है
वहीँ मध्य प्रदेश , गुजरात पंजाब, हिमाचल
, उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ में उसकी हालत बहुत पतली है | औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण
में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता खोला था लेकिन यहाँ पर कांग्रेस पतली
हालत में है | सबसे ज्यादा हालत आन्ध्र में है जहाँ जगन मोहन रेड्डी आने वाले
विधान सभा चुनावो में मजबूत खिलाडी बनकर उभरेंगे इसके आसार अभी से नजर आने लगे हैं
| देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के
हालत भी कांग्रेस जैसे ही हैं | चोर चोर
मौसरे भाई जुगलबंदी दोनों पर सटीक बैठ रही है | गडकरी पर लग रहे भ्रष्टाचार के दाग भाजपा की
साख ख़राब कर रहे हैं साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की लड़ाई कमजोर नजर आने लगी
है | ऐसे में रास्ता इन दोनों दलों से इतर तीसरे मोर्चे की तरफ जा रहा है जहाँ पर
अपने अपने राज्यों के छत्रप मजबूत स्थिति में जाते दिख रहे है जिससे भाजपा और
कांग्रेस दोनों की सत्ता में आने की
सम्भावनाए धुंधली होती दिखाई दे रही है | ऐसे में राहुल को कांग्रेस के लिए
रास्ता तैयार करने में मुश्किलें पेश आ सकती हैं
वैसे असल परीक्षा तो
आने वाले दिनों में हो रहे संसद सत्र के दौरान कांग्रेस को उठानी पड़ सकती है जब
विपक्ष के भारी विरोध का सामना उसे करना पड़ेगा | ममता कांग्रेस से समर्थन वापस ले
चुकी हैं ऐसे में वह यूपीए के खिलाफ
अविश्वास प्रस्ताव लाने का मन बना रही है
| सभी दल अभी इस पर अपने पत्ते नहीं खोल रहे है | अगर कांग्रेस की मुश्किल विपक्षी
बढ़ाते हैं तो यह भी तय है आम चुनाव जल्दी हो जायेंगे | ऐसे में कांग्रेस जल्द
चुनाव का ठीकरा भाजपा के सर फोड़कर चुनावी
लाभ लेना चाहेगी | वैसे इस बात की सम्भावना अभी कम ही नजर आ रही है क्युकि
कांग्रेस के भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा कानून जैसी योजनाये अभी अधर में
लटकी है | नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे | देश में निवेश की स्थिति बहुत अच्छी नहीं
है क्युकि २ जी और घोटालो की आंच से कॉर्पोरेट सहमा हुआ है |
जाहिर है ऐसे माहौल में कांग्रेस जल्द चुनाव का जुआ नहीं खेलना चाहेगी | उसकी
कोशिश मनमोहनी इकोनोमिक्स की छाव तले आम आदमी के हित में कई कदम उठाने की होगी
जिसको वह चुनाव में लोगो के बीच जाकर भुना सके और खुद को आम आदमी का हितैषी बता
सके | ऐसे में उसका सबसे बड़ा खेवनहार वही गाँधी परिवार बना रहेगा जिसके बूते वह
लम्बे समय से भारतीय राजनीती में छाई है और यही राहुल गाँधी का औरा उसे चुनावी
मुकाबले में भाजपा के बराबर खड़ा कर सकता है क्युकि सोनिया का स्वास्थ्य सही नहीं
है | मनमोहन के आलावे कोई चेहरा पार्टी में ऐसा इस दौर में बचा नहीं है जो भीड़
खींच सके और लोगो की नब्ज पकड़ना जाने | जाहिर है रास्ता ऐसे में उसी गाँधी परिवार
पर जा टिकता है जिसके नाम पर पार्टी इतने
वर्षो से एकजुट नजर आई है और यही औरा
गाँधी परिवार की पांचवी पीड़ी में पार्टी के कार्यकर्ताओ को राहुल गाँधी के रूप में
नजर आता है जो उसमे नेहरु से लेकर इंदिरा
और राजीव तक का अक्स देखते हैं | शायद
इसके मर्म को सोनिया भी बखूबी समझ रही हैं तभी
कांग्रेस राहुल की राह वाली ढाई चाल चलती इस दौर में दिख रही है |