किसी
ने ठीक कहा है इतिहास खुद को दोहराता है । अमेरिका में आर्थिक संकट की
सुनामी थमने का नाम नहीं ले रही है । बिल क्लिंटन के दौर को याद करें तो
अट्ठाईस दिन शट डाउन के हालातो से जहाँ अमेरिकी अर्थव्यवस्था हिचकोले खा
रही थी वहीँ 2008 में सब प्राइम संकट से अमेरिका अभी संभल ही रहा था कि एक
नया संकट बीते दो हफ्तों से मड़रा रहा है । सुपर पावर अमरीका की
अर्थव्यवस्था वेंटीलेटर पर चली गई है । सीरिया में सैन्य कार्रवाई पर पीछे
हटने , संसद में ठप्प कामकाज और कर्ज का भुगतान न कर पाने की आशंका में
घिरी अमेरिका अर्थव्यवस्था को अब लकवा मार गया है। इससे न केवल अमेरिकी
अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में संकट के बादल
छा गए हैं ।
अमेरिका की घबराहट देख अब विश्व के अन्य देशों के माथे में भी चिंता की लकीर खिंचती जा रही है। दरअसल अमेरिकी संसद ने राष्ट्रीय बजट को मंजूरी न देकर देश को बड़े संकट में डाल दिया। अक्टूबर से अमेरिका में नए वित्त वर्ष की शुरुआत हो जाती है और तब सरकारी खर्चों के भुगतान के लिए संसद से ३० सितंबर तक राष्ट्रीय बजट पास कराना जरूरी होता है लेकिन इस बार अमेरिकी संसद डेमोक्रेट और विपक्ष रिपब्लिकन के बीच राष्ट्रीय बजट पर सहमति नहीं बन पाई इससे शटडाउन की आहट सुनाई देने लगी । यह तकरार राष्ट्रपति बराक के (ओबामा केयर) में किए गए सुधारों को लेकर है। रिपब्लिकन इसे किसी भी हाल में लागू नहीं होने देना चाहते हैं। अमेरिका के प्रमुख सहयोगी ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश भी वहां आए इस ठहराव से खासे परेशान हो चले हैं। वहां पर सिर्फ आपात कालीन सेवाएं चालू होने से पहली अमरीका एक बड़े संकट के गर्त में जाता दिख रहा है । अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पहली बार परेशान हैं क्युकि अभी इस संकट से बाहर निकालने के उनके हर प्रयास विफल साबित हो रहे हैं वहीँ विपक्षी रिपब्लिकन तो मानो ओबामा की हेल्थ केयर योजना पर पलीता लगाने में जुटे हुए हैं ।
नेवादा से लेकर वर्जीनिया , वाशिंगटन डी सी से लेकर कोलम्बिया सब जगह कमोवेश एक जैसा हाल है । सरकारी दफ्तरों में जहाँ छुट्टियों के चलते सन्नाटा पसरा हुआ है तो वहीँ म्यूजियम से लेकर सिनेमा हाल सब बंद होने से लोगो का मजा किरकिरा हो गया है और उनके सैर सपाटे पर भी ग्रहण लग गया है । असल संकट तो उन प्रवासियों के सामने भी खड़ा हो गया है जो रोजी रोटी की तलाश में अपने देशो से ब्रेन ड्रेन कर अमरीका तो पहुँच गए हैं लेकिन अभी के हालात उन्हें वहीँ रहने को मजबूर कर रहे हैं । दरअसल इन सबका कारण बजट को लेकर अमेरिका में आया शट डाउन संकट है ।
अमेरिका की राजनीती डेमोक्रटिक और रिपब्लिक
दलों के इर्द गिर्द ही घूमती रही है । वहां सरकारी बजट को पारित कराने
में अमरीकी संसद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । इस बार भी कर्ज सीमा
बढाने को लेकर दोनों दलों में तकरार शट डाउन संकट के रूप में पूरी
दुनिया में चर्चा का केंद्र बन गया है । बीते तीस सितम्बर को अमेरिकी संसद
को देश का बजट पास करना था लेकिन रिपब्लिक दलो के प्रतिनिधियों के भारी विरोध के चलते यह
देर रात तक पारित नहीं हो सका ।
एक अनुमान के मुताबिक शटडाउन की अनिश्चितता से हर रोज अमेरिका को करीब ३० करोड़ डॉलर का नुकसान हो रहा है। करीब ७ लाख सरकारी गैर जरूरी कर्मचारियों को बिना वेतन के घर पर बैठने के लिए बोल दिया गया है। नेशनल पार्क्स, म्यूजियम, फेडरल दफ्तरों में तालाबंदी कर दी गई है। हालांकि डाक विभाग, न्याय विभाग, एयर ट्रैफिक, राष्ट्रीय सुरक्षा, परमाणु हथियार और बिजली विभाग को इस शटडाउन से बाहर रखा गया है। अगर यह संकट जल्द नहीं सुलझता है तो इसकी आंच भारतीय अर्थव्यवस्था को भी झुलसाएगी। रिकवरी के रास्ते पर लौट रही अमेरिकी इकोनॉमी अगर फिर से मंदी की चपेट में आती है तो जिसका नतीजा आईटी कंपनियों को भुगतना पड़ सकता है। यही नहीं, अमेरिका से फंड जुटाना भारतीय कंपनियों के लिए और मुश्किल हो जाएगी।अमेरिका में शटडाउन के चलते राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपना एशिया दौरा रद्द कर दिया। इससे सहयोगी देशों की चिंता और गहरी हो गई। ओबामा ने अमेरिका में ही रह कर पहले सरकारी कामबंदी और कर्ज लेने की सीमा को न बढ़ाने की आशंका से निबटने का फैसला किया लेकिन इसका भी कोई लाभ उनको मिलता नहीं दिखाई दे रहा है ।
असल में इस संकट की सबसे बड़ी वजह ओबामा की हेल्थ केयर योजना है जिसे वह जल्द से जल्द अमली जामा पहनना चाहते हैं लेकिन रिपब्लिकन्स को यह बात कतई मंजूर नहीं है । ओबामा ने अमेरिकी नागरिको की बीमारियों के लिए बीमा करने की ठानी है जिसमे कई निजी कम्पनियाँ भी सरकार के साथ कदमताल करती हुई देखी जा सकती हैं । यह कानून पारित भी हो चुका है लेकिन सदन में रिपब्लिकनों के भारी विरोध के चलते अमेरिकी संसद से इसे हरी झंडी नहीं मिल पायी है । फिर भी ओबामा टस से मस नहीं हुए हैं और वह रिपब्लिकन के साथ बातचीत का हर रास्ता खोले हुए हैं लेकिन रिपब्लिक अपनी भावी राजनीति के मद्देनजर ओबामा को कोई लाभ देना नहीं चाहते साथ ही ऐसी किसी योजना पर कदमताल ओबामा के साथ नहीं करना चाहते जिससे डेमोक्रेटिक दल को परोक्ष लाभ मिले ।
ओबामा के सामने मुश्किल यह है यही हेल्थ केयर की योजना के आसरे वह अमेरिकी नागरिको के तारणहार बन सकते हैं । वैसे भी यह योजना उनका ड्रीम प्रोजेक्ट रही है और बीते चुनावो में इसी के जरिये ओबामा ने सत्ता की रपटीली राहो पर कांटो भरा ताज राष्ट्रपति के रूप में पहना था अतः उनके सामने अपने चुनावी वायदों को पूरा करने की भी एक मजबूरी सामने खड़ी हो गयी है शायद इसी के जरिये वह निचले स्तर के आम आदमी को अपने पक्ष में साधकर रिपब्लिकन के परम्परागत वोटर को अपने साथ साध रहे हैं बल्कि डेमोक्रेट की सियासी बिसात को मजबूत बनाने में लगे हैं । वहीँ रिपब्लिकन दल राजनीतिक लाभ हानि को ध्यान में रख इसका विरोध कर रहे हैं । वैसे भी ओबामा प्रशासन की इस योजना के खिलाफ रिपब्लिक कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं जहाँ बीते बरस उनको हार का सामना करना पड़ा था उसके बाद भी बजट पारित ना करने का उनका निर्णय राजनीती से प्रेरित नजर आ रहा है ।
सत्रह अक्टूबर के बीतने के बाद भी शट डाउन की यह पहेली
नहीं सुलझ पायी है । अब इसका सीधा असर विश्व अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है ।
इस अवधि में अमेरिका को करोडो मिलियन डालर का सीधा नुकसान हुआ है जिसकी
भरपाई जल्द कर पाना आसान नहीं दिखाई देता । अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर पड़े इस
संकट से अब यूरोपीय और एशियाई देश भी अपने को नहीं बचा पाएंगे । अमेरिका
सरकार की कर्ज सीमा खत्म हो गयी है लेकिन अभी तक इस संकट का कोई हल नहीं
निकल पाया है जिससे विश्व की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ने का अंदेशा
बना हुआ है ।
भारत की बात करें तो इस संकट की आहट भारत में भी जल्द सुनाई देगी । मौजूदा दौर में भारत की अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ा रही है । अमेरिका में जब सब प्राइम संकट आया था तब भारत की अर्थव्यवस्था सात से आठ फीसदी की विकास दर को पार कर रही थी । उस दौर में निवेश का माहौल भारत में अमेरिका के मुकाबले बहुत अच्छा था लेकिन आज यहाँ की परिस्थितियां बदली हुई हैं ।
ओद्योगिक उत्पादन का स्तर जहाँ लगातार गिर रहा है वहीँ पहली बार मनमोहनी इकोनोमिक्स का तिलिस्म टूट रहा है ।पहली बार वह अर्थ व्यवस्था कुलाचे मार रही है जिसकी बिसात पर मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का सपना देखा था क्युकि निवेशको का बाजार से भरोसा तो टूट ही रहा है वहीँ सुरसा की तरह बढ रही महँगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ डाली है । बढ़ते घोटालो ने निवेशको का अमन चैन छीन लिया है तो वहीँ रूपया भी लगातार आख मिचोली का खेल खेल रहा है । ऍफ़ डी आई के दरवाजे पूरीतरह खुले होने के बाद भी यहाँ पर निवेश नहीं आ पा रहा है तो यह पालिसी पैरालिसिस को उजागर कर रहा है । बाजार में जितनी पूंजी आ रही है वह आवारा पूंजी के रूप में ऍफ़ आई आई के रूप में सामने है जो अब यूरोपीय देशो की तरफ तेजी से दौड़ रही है । हमारेदेश में अब भी क्रूड आयल, कोयल , सोना जैसे पदार्थो का आयात नहीं घट रहा तो वहीँ पहली बार वह बड़ी तादात में अमेरिकी बाजार से अपनी जरूरतों को पूरा कर रहा है । ऐसे में अगर अमेरिका को छींक आएगी को जुकाम भारत के साथ ही पूरी दुनिया को भी होगा । जानकारों का मानना है कि अगर यह संकट जल्द नहीं सुलझा तो भारतीय इकोनॉमी भी इससे अछूती नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में आईटी और एक्सपोर्ट से जुड़ी कंपनियों के कारोबार पर बुरा असर पड़ सकता है। अब देखना यह होगा ओबामा अपने पिटारे की इस योजना से कैसे निपटते हैं ?
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