Monday 21 October 2013

बिन सचिन सब सून .....

"जीवन भर मेरा सपना था भारत के लिए क्रिकेट खेलने का. पिछले 24 वर्षों से मैं हर दिन ये सपना जी रहा था. मेरे लिए अपनी ज़िंदग़ी का एक भी दिन बिना क्रिकेट के सोचना मुश्किल है क्योंकि 11 साल की उम्र से मैं यही कर रहा हूँ. अपने देश का प्रतिनिधित्व करना और दुनिया भर में खेलना मेरे लिए बड़े गौरव की बात रही है. मैं अपनी ज़मीन पर 200वाँ टेस्ट खेलने को लेकर उत्सुक हूँ."
       सचिन रमेश तेंदुलकर  द्वारा  मीडिया  को दिए गए इस बयान का मजमून सचिन के ऐतिहसिक सफ़र की तस्दीक कराने के लिए काफी है । 24 बरस  ... 463 वन डे  मैच ..18426 रन ... 86.23 का स्ट्राइक रेट ...,  199  टेस्ट  मैच , 15837 रन . इन बरसों में कई बल्लेबाज टीम में आये और कई गए  । कई गेदबाज टीम में अपनी जगह बनाने में सफल हुए तो कई कुछ मैच  खेलने  के बाद न जाने कहाँ गुमनामी के अंधेरो में खो गए। इस दौरान खेल भी बदला समय ने ऊँची करवट   ली लेकिन एक चीज जो नहीं बदली वह थी सचिन रमेश तेंदुलकर के तीन फीट लम्बे भारी बल्ले की धमक जिसकी आग ने मानो विपक्षी टीम का मान मर्दन करा दिया । सचिन का बल्ला अपनी आग उगलता रहा और क्रिकेट की किताब में एक -एक रन दर्ज होकर इतिहास बनता गया । शायद इसी वजह से भारतीय क्रिकेट का यह सितारा इतिहास में कोहिनूर बन गया और क्रिकेट का भगवान कहा जाने लगा  लेकिन क्रिकेट के भगवान की  वन डे पारी का ऐसा खामोश अंत इस तरह बेबस ढंग से होगा इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी । बीते दिनों  अचानक सचिन ने टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कह देश के करोडो प्रशंसको को निराश कर दिया ।  

जिस समय  बी सी सी आई के चयनकर्ता नवम्बर  में वेस्ट  इंडीज के साथ नवम्बर  में   खेली जाने वाली  सीरीज  के लिए  तैयारियों को अंतिम रूप देने में जुटे थे  ठीक उसी समय क्रिकेट का यह भगवान  टेस्ट  क्रिकेट को अलविदा कहने की तैयारियों में जुटा  हुआ था । बीते  शुक्रवार को को सचिन ने बी सी सी आई के जरिए जारी किये गए एक प्रेस नोट में टेस्ट  फोर्मेट से सन्यास का फैसला लेकर सभी को चौंका दिया । 40 साल के सचिन 200वाँ टेस्ट खेलने के बाद संन्यास ले लेंगे. सचिन दिसंबर 2012 में वन डे इंटरनेशनल से संन्यास ले चुके हैं.  शाम  ढलते ढलते यह खबर सभी की जुबान पर छा  गई । सचिन के टेस्ट  से सन्यास पर विपक्षी टीम के  गेंदबाजो  ने भले ही राहत की सांस ली हो लेकिन इस खबर ने उनके करोडो प्रशंसकों को मायूस ही किया । सचिन अपना अंतिम टेस्ट  मैच  अपने घरेलू मैदान वानखेड़े में  खेलेंगे लेकिन पिछले कुछ समय से उनके प्रदर्शन पर न केवल पूर्व भारतीय कप्तानो की एक बड़ी जमात सवाल उठा रही थी वरन उनको टीम से बाहर करने का ताना  बाना बुन रही थी जिसमे चयनकर्ताओ के आसरे उन पर मजबूरन सन्यास का दबाव बनाया जा रहा था और शायद यही कारण था सचिन ने किसी के दबाव  के आगे न झुकते हुए अपने अंतर्मन की आवाज को सुना और खुद को अब टेस्ट क्रिकेट  से दूर करने का फैसला कर  लिया । जबकि यह सच  शायद ही किसी से छुपा है सचिन का प्रदर्शन पिछले कुछ समय से टेस्ट क्रिकेट में ही खराब चल रहा था । इस दौरान वह अपनी कई पारियों में 'क्लीन बोल्ड' हो गए थे ।  उनकी तकनीक को लेकर पहली बार इस दौर में सवाल उठने लगे जिसके बाद चयनकर्ताओ ने सचिन को नसीहत दे डाली अब नए खिलाडियों को मौका  देने की मांग जोर पकड़ रही है लिहाजा वह खुद से  सोचकर यह तय करें कि आगे उन्हें क्या करना है ? इसी के तहत "फेबुलस फोर " की जमात में शामिल रहे  गांगुली ,राहुल द्रविड़, लक्ष्मण से  बीते  दिनों जबरन सन्यास दिलवाया गया और सचिन भी चयनकर्ताओ की इस गुगली के फेर में आ गए  ।

अपने अब तक के करियर में सचिन ने रिकार्डो का जो पहाड़ मैदान में खड़ा किया है उसे शायद ही आने वाले दिनों में कोई छू पाए । सचिन के नाम वन डे , टेस्ट मैचो में सबसे अधिक मैच , सबसे अधिक रन , शतक, अर्धशतक बनाने का रिकॉर्ड जहाँ दर्ज  है वहीँ सबसे अधिक मैन आफ द मैच से लेकर  मैन आफ द सीरीज जीतने तक के रिकॉर्ड दर्ज हैं । तभी सर डॉन ब्रेडमैन ने एक दौर में सचिन में अपना अक्स देखा था और शेन वार्न  सरीखे कलाई के जादूगर की रातो की नीद को उड़ा डाला था । सचिन के नाम अन्तर्राष्ट्रीय  क्रिकेट में 100 शतको का रिकॉर्ड दर्ज है । इसी साल मार्च में सचिन ने अपना आखरी शतक बांग्लादेश के खिलाफ ठोंका  था । सचिन ने 463 वन डे मैचो की 452 परियो में 44.83 की औसत से 18426 रन बनाये तो वहीं वन डे में 49 शतक बनाकर अपनी बल्लेबाजी का लोहा पूरी दुनिया के सामने मनवाया । फ़रवरी 2010 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ वन डे में  दोहरा शतक लगाने  वाले पहले खिलाडी बनने के साथ ही गेदबाजी में अपना कमाल 154 विकेट लेकर दिखाया । साझेदारी बनाने से लेकर साझेदारी तोड़ने तक में सचिन का कोई सानी नहीं  था । दो बार उन्होंने वन डे मैचो में एक साथ 5 विकेट झटकने के साथ ही सर्वाधिक 62  बार मैन आफ द मैच से लेकर 15 बार मैन आफ द सीरीज का रिकॉर्ड अपने नाम किया ।  वाल्श से लेकर डोनाल्ड , अकरम से लेकर वकार , शोएब अख्तर से लेकर ब्रेट ली और फिर शेन वार्न  से लेकर  मुरलीधरन सबकी गेदबाजी से सामने सचिन ऐसे चट्टान की  भांति डटे  रहते थे  जिनका विकेट हर किसी के लिए अहम हो जाता था । 15 नवम्बर 1989 को पाकिस्तान के विरुद्ध  महज 16 साल की उम्र में घुंघराले बाल वाले इस युवा खिलाडी ने जब  अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया था को किसी ने अंदाजा नहीं लगाया था कि भविष्य में यह खिलाडी  क्रिकेट के  देवता के देवता के रूप में पूजा जायेगा लेकिन सचिन ने अपनी प्रतिभा 1988 में ही दिखा दी जब अपने बाल सखा  विनोद काम्बली के साथ  664 रन की रिकॉर्ड साझेदारी कर इतिहास रच  डाला  था । पाकिस्तान के दौरे में अब्दुल कादिर की गुगली पर उपर से छक्का जड़कर उन्होंने अपने इरादे  जता  दिए थे । यही नहीं उस दौर को अगर याद  करें तो सियालकोट के टेस्ट में एक बाउंसर सचिन की नाक में जाकर लग गया । नाक से खून बह रहा था लेकिन इन सबके बीच सचिन मैदान से बाहर नहीं गए और डटकर गैदबाजो  का सामना किया । 

1990 में इंग्लैंड का ओल्ड ट्रेफर्ड सचिन का पहले शतक का गवाह बना जब उन्होंने विदेशी धरती से अपनी अलग पहचान बनाने में सफलता पायी । इसके बाद सिडनी और पर्थ की खतरनाक समझी जाने वाली पिचों पर सचिन ने अपनी शतकीय पारियों से प्रशंसको का दिल जीत लिया । इसके बाद तो उनके नाम के साथ हर दिन नए रिकॉर्ड जुड़ते गए । आज सचिन की इन उपलब्धियों के पहाड़ पर कोई खिलाडी दूर दूर तक उनके पास  तक नहीं फटकता ।  सचिन में एक खास तरह की विशेषता भी है जो उनको अन्य  खिलाडियों से महान बनाती है । उनका क्रिकेट के प्रति जज्बा देखते ही बनता है और पूरे करियर के दौरान उन्होंने इसे जिया । शालीन और शांतप्रिय होने के अलावे धैर्य और अनुशासन उनमे ऐसा गुण था कि विषम परिस्थितियों में में सचिन अपना रास्ता खुद से तय करते थे । कभी शून्य पर भी आउट हो जाते तो आलोचकों को करारा  जवाब अपने खेल से ही देते । टीम इंडिया में एक मार्गदर्शक के तौर पर उन्होंने युवाओ को एक नया प्लेटफार्म दिया जहाँ उनसे सलाह मांगने वालो में खुद धोनी , युवराज , भज्जी सरीखे खिलाडी शामिल रहते थे । प्रत्येक खिलाडी उनसे कुछ नया सीखने की कोशिश में रहता । यह हमारे लिए फक्र की बात है सचिन को हमने उनके शुरुवाती  दौर से खेलते हुए देखा है । आने वाले भावी पीढियों  को  हम सचिन की गौरव गाथा बड़े गर्व के साथ सुना पाएंगे । 

सचिन के लिए वर्ल्ड कप एक सपना था और धोनी की अगुवाई वाली टीम का हिस्सा बनने पर उन्हें काफी नाज है । इसकी झलक  वन डे  और फिर टेस्ट  से सन्यास के समय उनके द्वारा दिए बयानों में साफ झलकी जहाँ उन्होंने टीम के वर्ल्ड कप जीतने पर  ख़ुशी जताई और अगले वर्ल्ड कप के लिए अभी से एकजुट हो जाने की बात कही । सचिन जैसे कोहिनूर अब भारत को शायद ही मिलें क्युकि  सचिन जैसे समर्पण की बात आज के खिलाडियों में नदारद है । क्रिकेट आज एक मंडी  में तब्दील हो चुका  है जहाँ खिलाडियों की करोडो में बोलियाँ लग रही हैं । सारी  व्यवस्था मुनाफे पर जा टिकी है जहाँ खेल का पेशेवराना पुराना अंदाज गायब है जो अस्सी और नब्बे के दशक में देखने को मिलता था । आज के युवा खिलाडियों की एक बड़ी जमात ट्वेंटी  ट्वेंटी के जरिये अपनी प्रतिभा को दिखा रही है जबकि वन डे और टेस्ट क्रिकेट से उनका मोहभंग हो गया है । यही नहीं इसमें उनका प्रदर्शन भी फीका ही रहा करता है । ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है सचिन, गांगुली, राहुल , वी  वी एस  वाली लीक पर कौन आज के दौर में चलेगा वह भी उस दौर में जब ट्वेंटी ट्वेंटी टेस्ट से लेकर वन डे को लगातार निगल रहा है । 

 बहरहाल सचिन ने वन डे  अब टेस्ट से सन्यास के बाद करोडो चहेते प्रशंसको  को निराश कर दिया है ।  टेस्ट से अचानक लिए गए सन्यास पर  सस्पेन्स अब भी बना है । आगे भी शायद यह बना रहे क्युकि मैदान से अन्दर और बाहर सचिन जिस शानदार  टाइमिंग से खेलकर कई लोगो को आईना दिखाते थे वैसी टाइमिंग उनके टेस्ट से  सन्यास लेते समय  देखने को नहीं मिली  । जाहिर है सचिन पहली बार चयनकर्ताओ  के निशाने पर सीधे तौर पर आये और आखिरकार दबाव  झेलने की वजह से उन्होंने टेस्ट  से अचानक सन्यास की घोषणा कर सभी को  चौंका ही  दिया और शायद स भावुक पल में उन्होंने मीडिया के सामने आना भी मुनासिब नहीं समझा लेकिन जो भी हो सचिन  ने  रिकार्डो  का जो पहाड़ अब तक खड़ा किया है शायद आने वाले दिनों में कोई इसके आस पास तक फटक पाए ।

Friday 18 October 2013

"शटडाउन " से सहमा सुपरपावर

किसी ने ठीक कहा  है इतिहास खुद को दोहराता है । अमेरिका में आर्थिक संकट की सुनामी थमने का नाम नहीं ले रही है । बिल क्लिंटन के दौर को याद करें तो अट्ठाईस दिन शट डाउन  के हालातो से जहाँ अमेरिकी अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही थी वहीँ 2008 में सब प्राइम संकट से अमेरिका अभी संभल ही रहा था कि एक नया संकट बीते दो हफ्तों से मड़रा रहा है । सुपर पावर  अमरीका की अर्थव्यवस्था वेंटीलेटर  पर चली गई है । सीरिया में सैन्य कार्रवाई पर पीछे हटने , संसद में ठप्प कामकाज और कर्ज का भुगतान न कर पाने की आशंका में घिरी  अमेरिका अर्थव्यवस्था को अब लकवा मार गया है। इससे न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में संकट के बादल छा  गए हैं । 

अमेरिका की घबराहट देख अब विश्व के अन्य  देशों  के माथे में  भी चिंता की लकीर खिंचती  जा रही है। दरअसल अमेरिकी संसद ने राष्ट्रीय बजट को मंजूरी न देकर देश को बड़े संकट में डाल दिया। अक्टूबर से अमेरिका में नए वित्त वर्ष की शुरुआत हो जाती है और तब सरकारी खर्चों के भुगतान के लिए संसद से ३० सितंबर तक राष्ट्रीय बजट पास कराना जरूरी होता है लेकिन इस बार अमेरिकी संसद  डेमोक्रेट और विपक्ष रिपब्लिकन के बीच राष्ट्रीय बजट पर सहमति नहीं बन पाई इससे  शटडाउन  की आहट  सुनाई देने लगी ।  यह तकरार  राष्ट्रपति बराक के (ओबामा केयर) में किए गए सुधारों को लेकर है। रिपब्लिकन इसे किसी भी हाल में लागू नहीं होने देना चाहते हैं। अमेरिका के प्रमुख सहयोगी ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश भी वहां आए इस  ठहराव से खासे  परेशान हो चले  हैं। वहां पर सिर्फ आपात कालीन सेवाएं चालू होने से पहली अमरीका  एक बड़े  संकट के गर्त में जाता दिख रहा है । अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पहली बार परेशान हैं क्युकि  अभी इस  संकट से बाहर निकालने के उनके हर प्रयास विफल  साबित हो  रहे हैं वहीँ विपक्षी रिपब्लिकन तो मानो  ओबामा  की हेल्थ केयर योजना  पर पलीता लगाने में  जुटे  हुए हैं ।   

              नेवादा से लेकर वर्जीनिया , वाशिंगटन  डी  सी  से लेकर कोलम्बिया  सब जगह कमोवेश एक जैसा हाल है । सरकारी दफ्तरों में जहाँ छुट्टियों  के चलते सन्नाटा पसरा हुआ है  तो वहीँ म्यूजियम से लेकर सिनेमा हाल सब बंद होने से लोगो का मजा किरकिरा हो गया है और उनके सैर सपाटे पर भी ग्रहण लग गया है । असल संकट तो उन प्रवासियों के सामने भी खड़ा हो गया है जो रोजी रोटी की तलाश में अपने देशो से ब्रेन ड्रेन कर अमरीका तो पहुँच गए हैं लेकिन अभी के हालात उन्हें वहीँ रहने को मजबूर कर रहे हैं । दरअसल इन सबका कारण बजट को लेकर अमेरिका में आया शट  डाउन  संकट है  ।
                      
  अमेरिका की  राजनीती डेमोक्रटिक और रिपब्लिक दलों के इर्द गिर्द ही घूमती रही है । वहां  सरकारी  बजट को  पारित कराने में अमरीकी संसद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । इस  बार  भी कर्ज सीमा बढाने को लेकर दोनों दलों में तकरार शट  डाउन   संकट के रूप में पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र बन गया है । बीते तीस सितम्बर को अमेरिकी संसद को देश का बजट पास  करना था लेकिन रिपब्लिक दलो के  प्रतिनिधियों के   भारी विरोध के  चलते यह देर रात तक पारित नहीं हो सका । 

एक अनुमान के मुताबिक शटडाउन की अनिश्चितता से हर रोज अमेरिका को करीब ३० करोड़ डॉलर का नुकसान हो रहा है। करीब ७ लाख सरकारी गैर जरूरी कर्मचारियों को बिना वेतन के घर पर बैठने के लिए बोल दिया गया है। नेशनल पार्क्स, म्यूजियम, फेडरल दफ्तरों में तालाबंदी कर दी गई है। हालांकि डाक विभाग, न्याय विभाग, एयर ट्रैफिक, राष्ट्रीय सुरक्षा, परमाणु हथियार और बिजली विभाग को इस शटडाउन से बाहर रखा गया है। अगर यह संकट जल्द नहीं सुलझता  है तो इसकी आंच भारतीय अर्थव्यवस्था को भी झुलसाएगी। रिकवरी के रास्ते पर लौट रही अमेरिकी इकोनॉमी अगर फिर से मंदी की चपेट में आती है तो जिसका नतीजा आईटी कंपनियों को भुगतना पड़ सकता है। यही नहीं, अमेरिका से फंड जुटाना भारतीय कंपनियों के लिए और मुश्किल हो जाएगी।अमेरिका में शटडाउन के चलते राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपना एशिया दौरा रद्द कर दिया। इससे सहयोगी देशों की चिंता और गहरी हो गई। ओबामा ने अमेरिका में ही रह कर पहले सरकारी कामबंदी और कर्ज लेने की सीमा को न बढ़ाने की आशंका से निबटने का फैसला किया लेकिन इसका भी कोई लाभ उनको मिलता नहीं दिखाई दे रहा है ।

       असल में इस संकट की सबसे बड़ी वजह ओबामा की हेल्थ केयर योजना है जिसे वह जल्द से जल्द अमली जामा पहनना चाहते हैं लेकिन रिपब्लिकन्स  को यह बात  कतई मंजूर नहीं है । ओबामा ने अमेरिकी नागरिको की बीमारियों के लिए बीमा करने की ठानी है जिसमे कई निजी कम्पनियाँ भी सरकार के साथ कदमताल करती हुई देखी  जा सकती हैं ।  यह कानून पारित भी हो चुका है लेकिन सदन में रिपब्लिकनों के भारी विरोध के चलते अमेरिकी संसद से इसे हरी झंडी नहीं मिल पायी है । फिर भी ओबामा टस से मस नहीं हुए हैं  और वह रिपब्लिकन के साथ बातचीत का हर रास्ता खोले हुए हैं लेकिन रिपब्लिक अपनी  भावी राजनीति के मद्देनजर ओबामा को कोई लाभ देना नहीं चाहते साथ ही ऐसी किसी योजना पर कदमताल ओबामा के साथ नहीं करना चाहते जिससे डेमोक्रेटिक दल को परोक्ष लाभ मिले ।

            ओबामा के सामने मुश्किल यह है यही हेल्थ केयर की योजना के आसरे  वह  अमेरिकी  नागरिको के तारणहार बन सकते हैं । वैसे भी यह योजना उनका ड्रीम प्रोजेक्ट रही है और बीते चुनावो में इसी के जरिये ओबामा ने सत्ता की रपटीली राहो पर कांटो भरा ताज राष्ट्रपति  के रूप में पहना था अतः उनके सामने अपने चुनावी वायदों को पूरा करने की भी एक मजबूरी सामने खड़ी हो गयी है शायद इसी के जरिये वह निचले स्तर  के आम आदमी को अपने पक्ष में साधकर रिपब्लिकन के परम्परागत  वोटर को अपने साथ साध रहे हैं बल्कि डेमोक्रेट  की सियासी बिसात  को मजबूत बनाने में लगे हैं । वहीँ रिपब्लिकन दल राजनीतिक लाभ हानि को ध्यान में रख इसका विरोध कर रहे हैं । वैसे भी ओबामा प्रशासन की इस योजना के खिलाफ रिपब्लिक कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं जहाँ बीते बरस उनको हार का सामना करना पड़ा था उसके बाद भी बजट पारित ना करने का उनका निर्णय राजनीती  से प्रेरित नजर आ रहा है ।
                 
सत्रह  अक्टूबर के बीतने के बाद भी शट डाउन की यह पहेली नहीं सुलझ पायी है । अब इसका सीधा असर विश्व अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है । इस अवधि में अमेरिका को करोडो मिलियन डालर का सीधा नुकसान हुआ है जिसकी भरपाई जल्द कर पाना आसान नहीं दिखाई देता । अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर पड़े इस संकट से अब यूरोपीय और एशियाई देश भी अपने को नहीं बचा पाएंगे । अमेरिका सरकार की कर्ज सीमा खत्म हो गयी है लेकिन अभी तक इस संकट का कोई हल नहीं निकल पाया है जिससे विश्व की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ने का अंदेशा बना हुआ है ।

 भारत की बात करें तो इस संकट की आहट भारत में भी जल्द सुनाई देगी । मौजूदा दौर में भारत की अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ा रही है । अमेरिका में जब सब प्राइम संकट आया था तब भारत की अर्थव्यवस्था सात से आठ फीसदी की विकास दर को पार कर रही थी । उस दौर में निवेश का माहौल भारत में अमेरिका के मुकाबले बहुत अच्छा था लेकिन आज यहाँ की परिस्थितियां बदली हुई हैं ।

ओद्योगिक उत्पादन का स्तर  जहाँ लगातार गिर रहा है वहीँ पहली बार मनमोहनी इकोनोमिक्स का तिलिस्म टूट रहा है ।पहली बार वह अर्थ व्यवस्था कुलाचे  मार रही है  जिसकी बिसात पर मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का सपना देखा था क्युकि  निवेशको का बाजार से भरोसा तो टूट ही रहा है  वहीँ सुरसा की तरह बढ  रही महँगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ डाली है । बढ़ते घोटालो ने निवेशको का अमन चैन छीन लिया है तो वहीँ   रूपया  भी लगातार आख मिचोली का खेल खेल  रहा है । ऍफ़ डी आई के दरवाजे पूरीतरह खुले होने के बाद भी यहाँ पर निवेश नहीं आ पा रहा है तो यह पालिसी पैरालिसिस को उजागर कर रहा है । बाजार में   जितनी पूंजी आ रही है वह आवारा पूंजी के रूप में ऍफ़ आई आई  के रूप में सामने  है जो अब यूरोपीय देशो की तरफ तेजी से दौड़ रही है । हमारेदेश  में अब भी क्रूड  आयल, कोयल , सोना जैसे पदार्थो का आयात नहीं घट  रहा तो वहीँ पहली बार वह  बड़ी तादात में अमेरिकी बाजार से अपनी जरूरतों को पूरा कर रहा है । ऐसे में अगर अमेरिका को छींक आएगी को जुकाम भारत के साथ ही पूरी दुनिया को भी होगा ।   जानकारों का मानना है कि अगर यह संकट जल्द नहीं सुलझा तो भारतीय इकोनॉमी भी इससे अछूती नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में आईटी और एक्सपोर्ट से जुड़ी कंपनियों के कारोबार पर बुरा असर पड़ सकता है। अब देखना यह होगा ओबामा अपने पिटारे की इस योजना से कैसे निपटते हैं  ?

यू पी बचाने में लगे भाजपा के नाथ.………….



" दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। " यह कथन भारतीय राजनीती के सम्बन्ध में परोक्ष रूप से सही मालूम पड़ता है। आज उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है। बड़े  पैमाने पर भाजपा और कांग्रेस का ब्राह्मण वोट आपस में छिटक गया है और यही वोट बसपा और सपा में बट  गया है । लेकिन आज हालत एकदम उलट हैं ।  
यह सवाल सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में  जिसको कचोट रहा है वह है  उत्तर प्रदेश  की भाजपा ।  यू पी  मे पार्टी की सेहत सही नही चल रही है.....   बीजेपी की प्रदेश  मे डगमग हालत के चलते उसका हाई कमान भी चिंतित है ।  चिंता लाजमी भी है क्युकि पांच   राज्यों के विधान सभा के चुनाव होने जा रहे है ऐसे में बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह अपने गृह प्रदेश को लेकर  अभी से हाथ पैर मारने में लग गए है। 

हाल ही मे   प्रदेश में   चुनाव प्रचार की कमान  पूरी तरह  नरेन्द्र मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह  को   सौपे जाने को विश्लेषक  एक नई  कड़ी का हिस्सा मान रहे है । . सूत्र बताते है कि संघ  पिछले विधान सभा के चुनावो से कुछ सबक लेना चाह रहा है लेकिन राजनाथ  की इस साल बिछाई  गई बिसात में संघ की एक भी नहीं चल रही ।   इसी के चलते  इस बार  चुनाव में उत्तर प्रदेश में कद्दावर नेताओ को एक एक करके चुनावो से किनारे लगाया जा रहा है ।  

राजनाथ  की बिसात  " जिताऊ " उम्मीदवारों के रास्ते जहाँ गुजरती  है वही  संघ का रास्ता उसके स्वयंसेवको  और पार्टी का झंडा लम्बे समय से उठाये नेताओ के आसरे गुजरता है  ।   दिल्ली मे पार्टी के एक नेता की माने तो इस बार अपने हाई टेक फोर्मुले के सहारे  सपा और बसपा के साथ जा मिले ब्राहमण वोट बैंक को वापस अपनी तरफ लेने की कोशिशे ना केवल  तेज कर रहे हैं बल्कि कांग्रेस के वोट बैंक पर   सेंध सपा के जरिये  लगा रहे हैं ।  उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर  में हुए सांप्रदायिक दंगो के बाद पहली बार  सपा और भाजपा को लाभ मिलता दिख रहा है । 

अगर भाजपा का इस बार का हिंदुत्व कार्ड अमित शाह के जरिये चल गया तो   भाजपा और सपा  की प्रदेश में चांदी  तय है ऐसे में बसपा और कांग्रेस के वोट बैंक में सैंध  लगनी तय है ।   पार्टी के नेताओ का मानना है कि  ब्राहमण   वोट बैंक शुरू से उसके  साथ रहा है लेकिन बीते कुछ  चुनावो मे यह माया मैडम के साथ जा मिला तो वहीँ इस बार के विधान सभा चुनावो में यह सपा के पास गया  है ।  इसको फिर से अपनी  ओर लाकर ही  उत्तर  प्रदेश  में पार्टी की ख़राब हालत सुधर सकती है शायद इसी के मद्देनजर भाजपा के नाथ  की बिसात में जहाँ वह एक छोर  पर  खुद खड़े   हैं  तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी के  कार्ड को खेलकर उसने ब्राहमण और ठाकुर  वोट के अलावे अन्य पिछड़े वोट  को अपने  पाले में लाने का नया फ़ॉर्मूला बिछाया है । 
यह बताने कि जरुरत किसी को नहीं कि राजनाथ और कलराज  मिश्र  के  समर्थक उत्तर प्रदेश में शुरू  से एक दूसरे के आमने सामने खड़े रहते थे । . पहली  बार अपनी बिसात में  राजनाथ ने नई व्यूह रचना इस प्रकार की है जिसके जरिये हिन्दू वोट बैंक को पार्टी अपने पाले में ला सके ।.  इस बार राजनाथ  ने  जहाँ  एक ओर  प्रदेश  अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी  खेमे को भी चुनावी चौसर बिछाने में साथ लिया है तो वहीँ  कल्याण सिंह ,  उमा भारती को "स्टार प्रचारक " बनाकर और पिछड़ी जातियों के एक बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाने की  गोल बंदी कर डाली है  ।

यही नहीं राजनाथ इस बार अन्य दलों से नाराज चल रहे विधायको पर भी नजर गढाए हैं । आने वाले दिनों में अगर कई विधयक भाजपा के पाले में जायें तो किसी को   कोई आश्चर्य  होना चाहिए  इतना जरुर है इन सबके  जरिये पहली बार राजनाथ  ने संघ की हिंदुत्व प्रयोगशाला के सबसे बड़े झंडाबरदार  योगी आदित्यनाथ और विनय कटियार सरीखे नेता को अगर टिकट चयन से दूर रखा है तो समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनावो में किस तरह  संघ ने अपने लाडले राजनाथ पर पूरा भरोसा जताया है ।  

इस बार  राजनाथ  ने टिकट  जीतने वाले उम्मीदवारो  पर डाव लगाने की ठानी है  और चुनावो से पहले ही  अपने इरादे जता दिए है जिससे लम्बे समय से पार्टी का झंडा उठाये हुए नेताओ की दाल  गलनी मुश्किल दिख  रही है क्युकि वही नेता टिकट  में कामयाब होगा जो अमित शाह और नरेन्द्र मोदी की चुनावी बिसात में फिट बैठेगा । वही अमित शाह को आगे कर मोदी ने उत्तर प्रदेश में अपना बड़ा दाव चलकर एक बार फिर  अपने कदम यु पी  की तरफ बड़ा दिए हैं । मोदी इस बात को बखूबी समझ रहे हैं अगर भाजपा ने आगामी लोक सभा चुनाव में दिल्ली में सरकार बनानी है तो  लिटमस टेस्ट उत्तर प्रदेश ही होगा । यहाँ अच्छा  करने  पर ही पार्टी केंद्र में सरकार  बनाने का दावा ठोक  सकती है ।       .   

कुछ महीने पहले से ही पार्टी संसदीय बोर्ड में  हिंदुत्व के मुद्दे पर चर्चा की अटकलें सुनाई दे रही थी  ।  उत्तर प्रदेश भाजपा की  हिंदुत्व प्रयोगशाला का पहला पड़ाव रहा है जहाँ राम लहर की  धुन बजाकर  भाजपा  ने कभी राज्य में अपनी सरकार बनाई थी ।  पार्टी  के नेता मानते है हिंदुत्व की आधी मे वह केन्द्र मे सत्ता मे आयी लेकिन अपने कार्यकाल मे उसने कई मुद्दों को ठंडे बस्ते मे डाल दिया जिस कारण केन्द्र में यू पी ऐ की सरकार आ गयी और बीजेपी अवसान की ओर चली गयी ......इस बार पार्टी फिर हिन्दुत्व पर वापस लौटने  का मन बना रही है |

पार्टी की चाल देखकर ऐसा लगता है कि वह अपनी हिंदुत्व की आत्मा को अलग कर नही चल सकती और मोदी उसकी इस बिसात में उत्तर प्रदेश में तारणहार बन सकते हैं । अयोध्या आन्दोलन के दौर में उत्तर प्रदेश में  की  नैय्या  इसी हिन्दू कार्ड ने पार लगाई और अब भाजपा मोदी के जरिये राजनीति के मैदान पर ध्रुवीकरण वाला वही फार्मूला चल रही है  जिसने नब्बे के दशक में भाजपा को बड़ी पार्टी के रूप में ना केवल उभारा  बल्कि हिंदुत्व की छाँव तले  उसे राष्ट्रवाद से जोड़ा ।  आज के दौर में भाजपा के पास मोदी के अलावा कोई   नहीं है जो बड़े पैमाने पर    ध्रुवीकरण कर पार्टी की सीटें बड़ा सके  और इसी को ब्रांड बनाकर भाजपा विकास के जरिये मोदिनोमिक्स की छाँव तले उत्तर प्रदेश के अखाड़े में  बड़ा सवाल यह है कि वह सबको साथ लेने के किस फोर्मुले पर चलेगी ? इतिहास गवाह है केंद्र में सत्ता  हथियाने के बाद पार्टी मे पिछडे नेताओ को उपेक्षित बीते कुछ समय  से रखा जाता रहा है.....


जब पार्टी मे यह तय हो चुका है वह आगामी चुनाव मे अपने ओल्ड एजेंडे पर चल रही है तो ऐसे मे पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश  सबसे बड़ी रन भूमि बन गया है....यही वह प्रदेश है जहाँ की सांसद  संख्या दिल्ली का ताज तय करती है ...... वैसे भी पूत के पाव पालने मे ही दिखाए देते है बीजेपी भी इसको अच्छी तरह से जानती है, तभी वह आजकल बसपा की सोशल इंजीनियरिंग का तोड़  निकालने मे जुटी है.......


बीजेपी के अन्दर के सूत्र बताते है कि ब्राह्मणों को लुभाने की मंशा  से पार्टी ने अपने पांच   ट्रंप  कार्ड फैक दिए है जो पार्टी का जहाज उत्तर प्रदेश  में  बचाने की  पूरी कोशिश  करेंगे........ पहला कार्ड राजनाथ  सिंह  का है जो  चुनाव  प्रभारी है.... वह ख़ुद  ठाकुर  है ....दूसरा कार्ड राज्य मे मौजूद पार्टी प्रेजिडेंट  लक्ष्मी कान्त वाजपेयी    का है जो खुद  ब्राह्मण हैं   तीसरा  कार्ड  जो  फेंका  गया है वह है  कलराज मिश्रा वह  उत्तर प्रदेश में ब्राहमण बिरादरी का झंडा लम्बे समय  से  उठाये  है..... अटल बिहारी की खडाऊं पहनकर लखनऊ से सांसद तो है ही साथ ही यू पी की सियासत को बखूबी समझते है   ........ चौथा कार्ड हाल ही  मे  मोदी  के रूप में के रूप में फेंका गया है जिसके जरिये पार्टी पिछडो के एक बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाने की जुगत में है .......  यही नहीं पांचवे कार्ड के रूप  में रामेश्वर चौरसिया के रूप में फेंका गया है  जो अमित शाह के साथ सहराज्य प्रभारी बनाये गए हैं ।
   
पार्टी का मानना है  राज्य मे ब्राहमणों   की बड़ी संख्या  १६ वी  लोक सभा चुनाव मे उसका गणित सुधार सकती है साथ मे हिंदुत्व का मुखोटा फिर से पहनने  से उसका खोया जनाधार  वापस आ सकता है.......वैसे भी नब्बे  के दशक  मे राम मन्दिर की लहर ने हिंदू वोट को उसकी ओर खीचा था जिसके बूते सेण्टर मे न केवल उसकी  सीटें  बढ़ी  बल्कि केंद्र  मे वाजपेयी की सरकार भी सही से चली थी ..............

राजनाथ अपनी पार्टी की केंद्र में सत्ता  में वापसी   के लिए उत्तर प्रदेश  पर टकटकी लगाये हुए है..... वह इस बात को जानते है कि  पार्टी की  उत्तर प्रदेश  में  इस बार पतली हालत होने पर उनका सपना पूरा नही हो पायेगा....


अतः पार्टी पहले इस यू पी  की चुनोती से पार पाना चाहती है....लोक सभा के लिए बीजेपी  अभी से कमर कस चुकी है ....पार्टी द्वारा पिछले  चुनाव मे अपने एजेंडे से भटकने के कारण  संघ भी इस  बार अपने को यू पी के चुनावो से दूर कर रहा है...... संघ मानता है  दलित और मुस्लिम वोट शुरू  से कांग्रेस के साथ रहा है लेकिन पिछले कुछ  चुनाव मे यह बसपा और सपा  के साथ जा मिला..... प्रदेश के ब्राहमण मतदाताओ  के  माया  के  साथ जाने से भाजपा  की हालत  सबसे ख़राब हो गयी है....

अतः राजनाथ  का रास्ता  ब्राहमणों के वोट बैंक  को बीजेपी के साथ लेने की कोशिशो  मे जुटा है...... बीजेपी बीते  चुनावो  से इस बार सबक ले रही है..... समय समय पर उत्तर प्रदेश  को लेकर मीटिंग हो रही है..हर बैठक में   उत्तर प्रदेश को लेकर गंभीर मंथन हो रहा है ....   राजनाथ  सिंह   के पास विरोधियो को राजनीती की पिच  पर मौत देने का तोड़  है........अपनी छमताओ  को वह बीते कुछ वर्षो मे कर्नाटक , बिहार, हिमांचल, उत्तराखंड , गुजरात मे साबित कर चुके है ... अब बारी उनके खुद के प्रदेश उत्तर प्रदेश की है जहाँ के वह  मुख्य मंत्री भी रह चुके है ..... यह  बड़ा प्रदेश है.... हालात  अन्य प्रदेश से अलग है..... यहाँ पर खेलने के लिए बड़ा दिल रखना पड़ता है.......  पार्टी की  उत्तर प्रदेश  में हालत सही करने का जिम्मा अब राजनाथ   और कलराज  के कंधो  मे है .....उनको अच्छा तभी कहा जा सकता है जब वह पार्टी को  प्रदेश  मे अच्छी सीट दिलाने में मदद करें.....


२००२ के  चुनाव में बीजेपी को विधान सभा मे ४०२ सीट् मे ५१ सीट ही मिल पाई..... १४६ मे उसके जमानत जब्त हो गयी इसके बाद वहां के चुनाव मे पार्टी ४ नम्बर पर आ गयी ......बसपा को ३०.४३% वोट  मिले.... समाजवादी  पार्टी को ९७ सीट हासिल हुई ... वोट  २५% रहा वही बीजेपी  का  १६% रहा ....इसके  बाद तो पार्टी का  २००७  मे ऐसा जनाजा  निकला  पार्टी की माली  हालत  खस्ता  हो गयी...... 

ऐसे मे राजनाथ के सामने  उत्तर प्रदेश की  पुरानी  खोयी हुई जमीन को बचाने की बड़ी चुनौती  है.......  देखना होगा   राजनाथ की  इस नयी बिसात में ये चारो कहाँ  फिट बैठते है?  वह भी ऐसे समय में जब  राज्य में पार्टी के पुराने  संजय जोशी, विनय कटियार, योगी  सरीखे चेहरे हाशिये  पर है.......... 
राजनाथ  पार्टी का   पुराना  चेहरा है.........  उनको कलराज मिश्र  की तरह यू पी की गहरी समझ है .... साथ में उमा और वाजपेयी  की जोड़ी उत्तर प्रदेश में भाजपा की साख को बचाने का काम कर सकती है...........इन चारो  को आगे कर भाजपा उत्तर प्रदेश में समाज के हर वर्ग में अपनी उपस्थिति सामाजिक समीकरणों के जरिये बिछा रही  है ........ ब्राहमण  से लेकर ठाकुर , राजपूत से लेकर पिछड़ी जातियों पर डोरे डालकर हर किसी को लुभाने का दाव  राजनाथ चल रहे हैं । राजनाथ की इस बार  की  बिसात में अगर कलराज ,राजनाथ उमा ,वाजपेयी की चौसर बिछी है तो वही  असंतुष्ट नेताओ से  पार पाना भी भाजपा की बड़ी मुश्किल बनती जा रही है ....क्युकि अगर इस चुनाव में योगी, कटियार , संजय जोशी सरीखे कई कद्दावर नेताओ की  एक भी नहीं चलेगी  और उनके जैसे कई कार्यकर्ता जो पार्टी का झंडा  वर्षो  से उठाये है वह भी अगर इस दौर  हाशिये  में चले जायेंगे  तो ऐसे में कीचड में कमल खिलने में  परेशानी हो सकती है...... वैसे भी पिछले दिनों बाबू सिंह कुशवाहा  के मुद्दे पर पार्टी की खासी किरकिरी हो चुकी है..... ऐसे में चुनावी डगर  मुश्किल दिख रही है..... फिर भी संघ  की गोद से  निकले राजनाथ अगर संघ से दूरी बनाकर पूरे उत्तर प्रदेश को  साधने की कोशिश कर रहे है तो उसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के डूबते जहाज को बचाने की अंतिम कोशिशो के तौर पर  ही देखा जाना चाहिए......

Tuesday 1 October 2013

" मर्केल लैण्ड" में बचत की जीत ...........

जर्मन चांसलर  एंजिला मर्केल के  नेतृत्व   वाली क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन  ने हाल के चुनावो में जीत दर्ज कर न केवल संसदीय राजनीती को अपने अंदाज में आईना दिखाया बल्कि यह भी साबित किया कि आने वाले समय में मर्केल की बादशाहत और  ठसक  को चुनौती  देने का  माद्दा  किसी में नहीं है । भले ही मर्केल की सी डी  यू  और सहयोगी  बवेरियाई क्रिश्चियन  सोशल यूनियन  पार्टी  संसद के निचले सदन में पूर्ण बहुमत से महज चार सीटें चूक गई लेकिन जो भी हो कम से कम जर्मनी  के अब तक के इतिहास में  यह बेहतरीन प्रदर्शन है  इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता ।  वह भी ऐसे  दौर में जब पूरी दुनिया मे आर्थिक सुनामी का साया मडराने का खतरा पैदा हो रहा है और यूरोपियन यूनियन समेत जर्मनी में अर्थव्यवस्था बीते कई बरस से हिचकोले खा रही है और डालर के मुकाबले यूरो लगातार नीचे  जा रहा था  । हालिया नतीजो को आधार बनाएं तो यहाँ पर दोनों दलों को  41.7 फीसदी वोट मिले हैं जिसके आधार पर निचले सदन की ३ १ सीटो पर विजय की पताका फहरी। 


                     जर्मनी का हाल का  चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा क्युकि दुसरे विश्व युद्ध के बाद 1957 में चांसलर कोंराद अडेनुवर की अगुवाई में सी डी  यू  ने देश में एक बार पूर्ण बहुमत पाया था । वहीँ एंजिला  मर्केल ने अपने करिश्मे से जर्मनी को नए नेतृत्व  में आशा और विश्वास  से अपने करिश्मे और नीतियों की छाँव  तले बाँधा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अपनी बचत योजनाओ  के आसरे ऐसा ताना बाना बुना जिसने जनता के दिलो में भरोसे की एक नई  लकीर  खींची । इन चुनावो में फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी की करारी हार हुई । इस बार यह दल पांच न फीसदी वोट  भी नहीं पा सका जिसके चलते बीते 64 बरस के इतिहास में पहली बार यह दल "बुंडेसटैग  " से बाहर हो गया ।   गौर करने लायक  बात यह है पिछली  बार इसी फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी की बदौलत क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता  की दहलीज में  पहुंची थी लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ ।  मर्केल को नए गठबंधन के तौर पर विकल्प के तौर पर नए साथी की तलाश है । ऐसे में रास्ता मौजूदा दौर में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के  ही जाता है जिसके साथ वह प्यार की पींगे बढ़ा  सकती है ।  वैसे भी इस बार उसका वोट का प्रतिशत ढाई फीसदी से आगे बढा  है । 


                      इन चुनाव के बाद मर्केल के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा होना स्वाभाविक है लेकिन विरोधियो को हर मोर्चे पर टक्कर देने और जनता के बीच अपनी अच्छी छवि को भुनाना  वह भली भांति जानती है ।  फिर भी इस नए कार्यकाल को लेकर लोगो की उनसे उम्मीदें बड़ी  हुई हैं । इस जीत के साथ ही मर्केल लैंड में एंजिला ने अपने विरोधियो और आलोचकों को करारा  जवाब दिया है क्युकि मर्केल की ताजपोशी के समय से ही कई लोग उन पर सवाल उठाते आये हैं । पुराने पन्नो को टटोलें तो केवल कानरोड़ आडेनावर और हेल्मुट कोल ने ही ऐसा इतिहास दोहराया था  जिन्होंने 1949 से  1963 और    1982 से  1998 तक जर्मनी के चांसलर की कुर्सी संभाली । यह जीत मर्केल के मार्का की जीत रही क्युकि  मर्केल ने जनता को जो आश्वासन दिए थे वह न केवल पूरे हाल के वर्षो में हुए बल्कि जर्मनी को आर्थिक संकट से बाहर निकलने में उनकी उपयोगिता को हम नहीं नकार सकते हैं । जर्मनी पर वित्तीय संकट के बादल जिस दौर में मडरा रहे थे उस दौर में कमान अपने हाथो में लेकर उन्होंने ना केवल निवेशको के  भरोसे को डिगाया बल्कि जी  - आठ  सरीखे सम्मेलनों में भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर बरकरार रखने के फौजी  उपायों पर भी एक नयी बहस यूरोपियन  यूनियन में शुरू की जहाँ आर्थिक  संकट के मर्सिया को पढने के बजाए ऊँची विकास दर बरकरार रखने पर जोर दिया जाता रहा । 

                 एंजिला मर्केल पश्चिमी जर्मनी में जरुर पैदा हुई लेकिन अपने पिता के पगचिन्हो  पर चलते हुए वह भी मार्टिन लूथर के ओजस्वी विचारो से खूब प्रभावित हैं । उनका बचपन उस दौर में बीता जब पूरी दुनिया पर शीत युद्ध का असर था । शीत युद्ध वह परिस्थिति  थी जब दो देशो के बीच युद्ध न होते हुए भी परस्पर  युद्ध की स्थिति बरकरार रहती है । उस दौर में एक गुट का नेतृत्व अमरीका   कर रहा था तो दूसरी तरफ पूरी दुनिया की निगाहें सोवियत संघ कीं उठापटक पर लगी रहती थी । ऐसे माहौल  में मर्केल पली बढी  और पूरी दुनिया की आहात को उन्होंने करीब से महसूस किया । नब्बे के दशक में जब बर्लिन की दीवार टूटी तो जर्मनी में उथल पुथल का एक नया दौर देखा गया । इसी दौर में मर्केल का अवतार होता है और वह राजनीती की रपटीली राहो पर अपनी किस्मत आमने उतर जाती हैं । महज पैतीस  बरस की उम्र में वह  क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक  पार्टी से जुड़ जाती हैं जिसकी पहचान उस समय एक पुरुष प्रधान दल के रूप में हुआ करती थी  और  पश्चिमी जर्मनी में उसकी तूती  ही बोला  करती थी ।  

नब्बे के दशक में वह सनासाद के निचले सदन बुंडेसटैग  की  सदस्य बनती हैं जिसके बाद उनकी राजनीतिक करियर को एक नई  दिशा   मिलनी शुरू होती है ।  एकीकरण के बाद  वाले दौर में  जर्मन चांसलर हेलमुट  कोल अपने मंत्रिमंडल में किसी महिला को लेना चाहते हैं तो जेहन में एंजिला मर्केल का नाम आता है और पर्यावरण मंत्री पद  पर ताजपोशी के साथ मर्केल की राजनीतिक यात्रा को नया आयाम मिलता है । फिर  2000 आते आते वह क्रिश्चियन  डेमोक्रेटिक यूनियन की कुर्सी संभालती हैं और ठीक पांच साल बाद  जर्मनी में महिला चांसलर का कांटो भरा ताज पहनती हैं । उसके बाद हाल के चुनावो में मर्केल की जीत से जर्मनी  एक  नयी लहर पर सवार हुआ है । उनकी जीत के साथ ही बाजार गुलजार हो गया है । यूरो डॉलर के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर रहा है । फिर भी  आने  वाले  दिन उनके लिए चुनौती भरे रहेंगे इससे इनकार नहीं किया जा सकता है ।   जर्मन वित्त मंत्री वोल्फगांग शोएब्ले ने भी इस बात से इनकार नहीं किया है ।  अर्थव्यवस्था पर शोध कर रही संस्थाओं का मानना है कि इस साल के अंत तक एक बार फिर राहत पैकेज पर चर्चा शुरू हो जाएगी । नई सरकार के लिए यह अहम होगा । यूरोपीय संघ के बाकी के देशों से तुलना करें तो जर्मनी के मौजूदा हालत  बेहतर हैं. अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और कर वसूली भी अब तक कभी इतनी ज्यादा नहीं देखी गयी लेकिन इसके बावजूद सरकार पर 2.1 अरब यूरो का कर्ज है।  साल दर साल सरकार जितना कमा रही है उस से ज्यादा खर्च कर रही है ।  कई राज्य  ऐसे हैं जो कर्ज तले दबे हैं. ऐसे कई शहर और नगरपालिकाएं हैं जो दिवालिया हो चुके हैं। ऐसे में मर्केल के सामने फिर नयी चुनौतिया आ  खड़ी  हुई हैं । 

भले ही आठ बरस  के बाद मर्केल प्रभावशाली महिला के रूप में पूरी दुनिया में उभरी हों  लेकिन तीसरी जीत के बाद उनके सामने जनता के विश्वास में खरा उतरने की बड़ी चुनौती   है ।  देश में हर बच्चे के पास शिक्षा के समान मौके होना चाहिए लेकिन फिलहाल जर्मनी में ऐसा नहीं है. रईस और पढ़े लिखे खानदान के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा पूरी करना बाकी बच्चों की तुलना में आसान है। ऐसे बहुत लोग हैं जो दिन भर काम करते हैं, लेकिन उन्हें इतना कम वेतन मिलता है कि वे उस से अपनी जीविका नहीं चला पाते. इन सबके मद्देनजर  इस बार  जर्मनी में हर कर्मचारी के लिए न्यूनतम वेतन का कानून एक बड़ा सवाल बन सकता है । वहीँ   देश को कुल 23 फीसदी ऊर्जा सोलर प्लांट, पवन चक्कियों और जैविक ईंधन से मिल रही है । 2015 तक इसे 35 प्रतिशत करने की योजना है लेकिन इसमें कई तरह की अडचने  हैं इनसे पार पान मर्केल के लिए आसान नहीं होगा ।   इसके अलावा ऊर्जा का यह विकल्प नागरिकों की जेब पर भी भारी पड़ रहा है। ऐसे में मर्केल क्या करेंगी यह देखने लायक होगा । सीरिया में चल रहे तनाव के मद्देनजर देश में प्रवासियों और शरणार्थियों को लेकर एक बार फिर चुनाव  के बाद  बहस शुरू हो सकती  है।  सीरिया में लाखों लोग बेघर हो गए हैं और जर्मनी से उन्हें शरण देने की उम्मीद की जा रही है।  जर्मनी ने  लोगों को पनाह देने की बात कही है लेकिन जर्मनी की  मौजूदा आबादी को देखते हुए यह संख्या काफी कम है। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है मर्केल कौन सी लीक पर  जर्मनी को  लेकर चलती हैं यह भी देखने लायक होगा ?  जो भी हो हैट्रिक  बनाने के बाद मर्केल के लिए आने वाला समय मुश्किलों भरे पहाड़ सरीखा हो चला है । देखना होगा वह अपनी " मर्केल लैण्ड " में इन सब चुनौतियों से कैसे पार पाती हैं ?