Thursday 29 December 2016

चाचा भतीजे का सियासी दंगल






समाजवादी पार्टी के कुनबे में लड़ाई की खबरे लंबे अर्से से चल रही थीं लेकिन कुछ महीनों  पहले इन खबरों पर विराम लग गया था  ।  अब एक बार फिर चाचा-भतीजे में पार्टी में  चुनाव पास आते ही  वर्चस्व को लेकर नया  दंगल  शुरू हो गया  है। शिवपाल यादव और अखिलेश दोनों के बीच की नूराकुश्ती अब इस  लड़ाई को  जहाँ सतह  पर ला  रही है वहीँ ऐसे  हालातों  में नजरें फिर से एक बार नेताजी पर लग गई हैं  । चुनावी बरस से ठीक पहले नेताजी के टिकट बंटवारे के बाद सपा में चाचा भतीजे की लड़ाई एक बार फिर सबके सामने आ गयी है । असल में अखिलेश  और शिवपाल में टिकटों को लेकर बात  बन नहीं रही है । समर्थकों में भी ठन गई  है । सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने  भारी भरकम  उम्मीदवारों की सूची जारी करके यह जाहिर कर दिया कि पार्टी संगठन में अखिलेश की नहीं अध्यक्ष शिवपाल यादव की ही चलेगी  । ऐसा करके नेताजी ने अखिलेश की उन  उम्मीदों  को ध्वस्त कर दिया है जिसके मुताबिक अखिलेश  अपने विकास कार्यो के मुल्लमे के आसरे  यू पी की सियासत में नयी लकीर खींचना चाहते थे  । यही नहीं नेताजी  ने  उम्मीदवारों  की जारी ताजा  लिस्ट में अखिलेश के समर्थकों के पर क़तर  दिए हैं जिससे  अखिलेश  के सामने असहज स्थिति फिर से उत्पन्न  हो गयी  और कल लखनऊ में  अखिलेश ने जिस तर्ज पर अपने  समर्थकों  की नई  लिस्ट जारी की उसने पहली बार  सपा  में वर्चस्व की जंग की मुनादी कर दी  है जिसके बाद तलवारें अब म्यान से बाहर आ गई  हैं । 

  पिछले कुछ महीनों पहले नेताजी ने जहाँ शिवपाल और अखिलेश में सुलह करवाई उसके बाद लगा ऐसा था सपा  में आल इज वेल  हो गया है लेकिन  शिवपाल यादव  ने अपनी सांगठनिक धमक से नए दंगल में अखिलेश यादव को हर दांव  में चित कर दिया है ।  अखिलेश ने शिवपाल के विरोधी को राज्यमंत्री का दर्जा दिया तो शिवपाल ने अखिलेश के करीबियों के टिकट छीन लिए।अखिलेश यादव ने जावेद आब्दी को सिचाईं विभाग में सलाहकार का पद दिया तो ये शिवपाल यादव के खिलाफ गया ।  जावेद आब्दी  को शिवपाल यादव ने रजत जयंती कार्यक्रम में अखिलेश यादव के पक्ष में नारेबाजी करते वक्त धक्का दिया था उसी जावेद आब्दी को अखिलेश यादव ने दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री बना दिया। समाजवादी पार्टी द्वारा डॉन आतिक अहमद  अमरमणि को विधानसभा चुनाव का टिकट दिए जाने साथ ही  मुख्तार अंसारी के भाई को भी चुनाव का टिकट दे दिया । इस फैसले से मुलायम के परिवार में ही कलह शुरू होने की संभावना दिख रही थीजो अब फिट बैठ रही है ।  अतीक अहमद की छवि एक बाहुबली की है  वहीं बाहुबली मुख्तार अंसारी के भाई सिगबतुल्ला अंसारी को शिवपाल ने टिकट थमा दिया है । यही नहीं कौमी एकता दल से सिगबतुल्ला पहले से ही विधायक है  लेकिन अखिलेश के तमाम विरोध के बावजूद  उन्हें पार्टी का टिकट न केवल थमाया गया बल्कि अखिलेश के ना चाहते हुए भी  पार्टी का विलय सपा में कर दिया गया । इधर बहिन जी 200 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट जिस तर्ज पर देनी की सोच रही हैं उसी की काट के तौर पर कौमी एकता दल  का विलय सपा  में किया गया ताकि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण ना हो सके ।  यही बात अखिलेश को नागवार गुजरी है क्युकि वह विकास की राजनीती के आसरे यू पी  के महासमर में अपने को ठोकने का ऐलान कर रहे हैं लेकिन  अब नेताजी ने  भी हाल में टिकट बंटवारे में जिस तर्ज पर यह घोषणा  की है उनके दिए गए टिकट को किसी सूरत में वापस नहीं लिया  जायेंगे तो  इसके बाद लगता ऐसा है सपा की अंदरूनी जंग अब  फिर से सतह पर आ चुकी है ।  वैसे  नेताजी ने टिकटों की घोषणा करने से पहले अखिलेश यादव से भी कोई मशविरा भी  नहीं लिया जिससे अखिलेश के समर्थको में नाराजगी साफ़ देखी  जा सकती है ।  अखिलेश  बेदाग़  छवि के लोगों को मैदान में उतारने के पक्षधर थे जिसमे उनकी एक नहीं सुनी गयी जिसके बाद सन्देश यही गया भतीजे पर चाचा भारी पड़  रहे हैं ।  

 मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर भरोसा कर  पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने उन्हें  प्रदेश की वागडोर सौंपी थी। पांच साल के अपने शासनकाल में  कुछ मुद्दों पर बेबस होते दिखाई देने वाले युवा मुख्यमंत्री ने हाल के दिनों में अपने विकास कार्यों से जैसी  छवि जनता में बनायी उससे एक बार लग ऐसा रहा था अखिलेश  सपा के लिए तुरुप का पत्ता  बन सकते हैं ।  कुछ महीनों पहले चाचा-भतीजा प्रकरण के बाद अखिलेश के प्रति जनता की सहानुभूति जिस तर्ज पर दिखी उसके बाद लग ऐसा रहा था अगर यही सहानुभूति वोट में तब्दील हुई तो सपा यू पी में फिर से सत्ता तक पहुँच सकती है । इस लड़ाई से  जनता में यह मैसेज गया है कि  अखिलेश यादव  साफगोई से काम कर रहे हैं लेकिन नेताजी के परिवार वाले उन्हें सही से काम नहीं करने दे रहे ।  शिवपाल यादव के लाख दबाव के बावजूद अखिलेश ने अपनी सच्चाई सादगी और ईमानदारी से सरकार चलायी लेकिन चुनावो से ठीक पहले जिस तरह अखिलेश के समर्थको को ठिकाने लगाने की  नई मुहिम  सपा मे शुरू हुई है उससे एक बार फिर पार्टी बंटवारे की राह पर खड़ी हुई नजर आ रही है । फिलहाल प्रदेश में समाजवादी पार्टी को लेकर ही दो गुट दिखाई दे रहे हैं। इनमें एक जुट चाचा शिवपाल यादव का है  तो दूसरा गुट मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का  जिसमें महीने पहले नेताजी की सुलह के बाद पहले पलड़ा दोनों का बराबरी का दिख रहा था और लग ऐसा रहा था सपा सभी को साथ लेकर चुनाव में अपनी चौसर बिछाएगी  लेकिन आज के हालातों में  पलड़ा चाचा का ही भारी दिख रहा है जिस पर नेताजी की भी पूरी रजामंदी है । हाल के बरस में  अखिलेश की छवि प्रदेश में न केवल साफ- सुथरी बनकर न केवल  उभरी है बल्कि एक विकासपरक सोच रखने वाले युवा तुर्क की भी बनी है। वही दूसरी तरफ  शिवपाल यादव की छवि एक ऐसे नेता के रूप में सामने आई है जो प्रदेश में बाहुबल को बढ़ावा देने में यकीन रखते हैं जिसकी तासीर हाल में जारी टिकटों में साफ़ झलकी है । अखिलेश के ना चाहते हुए भी उन्होंने अपनी पसंद को टिकटों के आवंटन में तरजीह दी है ।  विकास के मामले में प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ही बात करें तो  आज यहां  अखिलेश विकास की गंगा बहा चुके  है। प्रदेश को पहली बार  एक ऐसा युवा सोच वाला मुख्यमंत्री मिला है जिसने यू पी को  विकास के मामले में  नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है।  मेट्रो ट्रायल से लेकर  रिवर फ्रंट , क्राइम फ्री जोन से लेकर  फ्लाईओवर , जाम में फंसे रहने की किल्लत से लेकर ताजा एक्सप्रेस वे आगरा से लखनऊ तक पहुंचाने में पत्थर की लकीर बनाने में उनकी अहम भूमिका रही जिसमे सुखोई विमान उतारकर अखिलेश ने दुनिया का ध्यान उत्तर प्रदेश की ओर खींच  दिया ।  लैपटॉप से लेकर  बड़े-बड़े पार्क ,  फिल्म सिटी से लेकर  आई टी सिटी, हॉस्पिटल्स से लेकर पेंशन स्कीम के जरिये अखिलेश आम युवा तक काफी लोकप्रिय हो गए जिससे शिवपाल के समर्थक असहज हो गए । इस चुनाव में दोनों गुट  अपने अपने समर्थकों को टिकट ज्यादा बांटकर अपना शक्ति प्रदर्शन चुनाव के बाद  करना चाहते थे जिससे मुख्यमंत्री पद का दावा मजबूत हो सके लेकिन नेताजी के टिकट बंटवारे के बाद अब दोनों के बीच खाई और चौड़ी हो गयी है । 

यह पहला मौका नहीं है जब सपा में विवाद हुआ। इस वर्ष कई बार सपा में कई बार विवाद हो चुका है। जून में मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय को लेकर अखिलेश राजी नहीं थे। इसके बावजूद शिवपाल ने विलय कराया। सितम्बर में मुख्यमंत्री ने राज्य के प्रमुख शासन सचिव और शिवपाल के करीबी दीपक सिंद्घल को हटाकर राहुल भटनागर को नियुक्त किया। कुछ महीनो पहले ही अखिलेश यादव ने शिवपाल से पार्टी के अहम विभाग छीन लिए थे। इस पर मुलायम ने अखिलेश को सपा के यूपी प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया। बाद में शिवपाल के विभाग लौटाने पड़े। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने गायत्री के प्रजापति को मंत्री पद से हटा दिया जो शिवपाल के ख़ास थे । मगर मुलायम सिंह के कहने पर अखिलेश यादव को गायत्री प्रजापति को फिर से बहाल करना पड़ा। अखिलेश गायत्री को नहीं चाहते थे क्योंकि एक बी पी एल कार्ड धारक से लेकर करोड़ों का साम्राज्य बनाने की उनकी कहानी भी काम दिलचस्प नहीं थी और अखिलेश दागियों को किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहते थे । उन्होंने अपने आखरी मंत्री मण्डल विस्तार में करप्शन करने वालों पर डंडा चलाया लेकिन नेताजी से गलबहियों से अखिलेश का हर दांव उल्टा पड़  गया ।  यही नहीं सीएम अखिलेश यादव ने अमर सिंह पर निशाना साधते हुए उनके करीबी और शिवपाल यादव सहित चार मंत्रियों को अपने मंत्रीमंडल से बर्खास्त कर दिया जिसके बाद शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव के पक्ष में उतरने वाले उदयवीर सिंह को पार्टी से बाहर निकाला दिया। जब रामगोपाल यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए चिट्ठी लिखी और मुलायम सिंह के करीबी लोगों पर खुला निशाना साधा तो उन्हें भी छह साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया जिसके बाद  मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश और शिवपाल यादव को गले मिलवाने की कोशिश की लेकिन गले मिलने के फौरन बाद चाचा भतीजे के बीच मंच पर ही झड़प हो गई। फिर जैसे तैसे नेताजी सामने आये और दोनों कोसाधकार उन्होंने शीत  युद्ध पर विराम लगाया । 

नेताजी के  टिकटों के बंटवारे के बाद अब लग रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बीच समझौते की कोशिशें महज दिखावा हैं। तलवारें अंदरखाने तनी हुई हैं। चाचा शिवपाल नेताजी को साधकर अखिलेश को मात देने की हर चाल चल रहे हैं ।   सियासी बिसात पर शह और मात का खेल खेला जा रहा है और अखिलेश भी संघर्ष का रास्ता अपनाने को तैयार खड़े बैठे हैं ।  सपा की इस नयी लड़ाई में अब कार्यकर्ता फँस रहे हैं । अबकी बार लग ऐसा रहा है  कि उत्तर प्रदेश में सपा दो पार्टियों में विभाजित हो जाएगी। सूत्रों की मानें तो अखिलेश यादव ने  एक लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के गठन का पूरा मन बना लिया है  और कार्यकर्ताओं को कल  से इसके लिए तैयार रहने के  संकेत भी  दे दिए हैं ।  पहली बार अखिलेश अकेला चलो रे का राग अपनाते दिख रहे हैं  और प्रदेश के अधिकतर लोगों की दृष्टि में अखिलेश ही मौजूद हालातों में सहानुभूति की लहर में सवार होकर यू  पी की बिसात में ढाई चाल चलकर सबका खेल खराब कर सकते हैं और मजबूत युवा राजनेता के रूप में  पहले से ज्यादा निखरकर सामने आ सकते हैं ।  मौजूदा  स्थिति में सबसे असहज स्थिति नेताजी की है। वह  परिवारवाद के जाल में खुद उलझते जा रहे हैं। वह पुत्रमोह में जाएँ या भ्राता  मोह में उलझन  इस बार गहरी हो चुकी है । उन्हें एक रास्ता तो पकड़ना ही होगा ।  जो भी हो इस  प्रकरण से जनता में सपा के प्रति सन्देश  ठीक नहीं जा रहा है । वह भी तब जब यू पी में सियासी बिसात बिछनी  शुरू हो गयी है और आने वाले नए बरस में चुनाव आयोग चुनावी तिथियों की घोषणा करने वाला है । अब सबकी नजरें फिर से नेताजी की तरफ है । 


Saturday 10 December 2016



शीत युद्ध वह परिस्थिति है जब दो देशों के बीच प्रत्यक्ष युद्ध ना होते हुए भी युद्ध की परिस्थिति बनी रहती है । विश्व इतिहास के पन्नो में झाँकने पर यही परिभाषा हर इतिहास के छात्र को ना केवल पढाई जाती रही है बल्कि विश्व इतिहास की असल धुरी की लकीर इन्ही दो राष्ट्रों अमरीका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच खिंची जाती रही है लेकिन अभी जिस तर्ज परअमरीका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प और रूस के राष्ट्रपति पुतिन की निकटता बढ़ रही है उसने विश्व राजनीती में पहली बार कई सवालों को लाकर खड़ा कर दिया है ?

दरअसल पिछले दिनों  जिस तरीके से  इन दोनों विश्व के ताकतवर मुल्कों के बीच निकटता देखने को मिली है  उसके संकेतो को अगर डिकोड किया जाए तो लग ऐसा रहा है मानो शीत युद्ध की दशकों की बर्फ अब पिघलने के कगार पर आ खड़ी  हुई है ।  इन दोनों देशों के रिश्ते कई दशकों  से खराब चल रहे थे लेकिन बीते दिनों रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अमेरिका के साथ दरार पाटने और आतंकवाद से निपटने की कोशिश में सहयोग की आशा जिस तर्ज पर जताई है उससे लग रहा है कि अमेरिका और रूस की नई दोस्ती जनवरी 2017 में  अब परवान चढ़ सकती है । रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने भी सार्वजनिक रूप में इस इच्छा को जाहिर करते हुए कहा है  कि अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों देशों के बीच दूरी पाटने में  मदद करेंगे।

 वैसे दोनों देशों के रिश्ते बेहतर होने के आसार पहली बार अमरीका के इस नए ट्रम्प काल के दौरान नजर आ रहे हैं   जब ट्रंप और पुतिन ने पहली बार फोन पर बात की  । फोन पर दोनों नेताओं ने साझे खतरों , रणनीतिक, आर्थिक मामलों पर लंबी  बातचीत  की । ओबामा के  अब तक के दौर के पन्नों को टटोलें तो हालिया बरसों में दोनों देशों के रिश्तों में  गंभीर तल्खी दिखाई दी । हाल के बरसों में यह भी साफ तौर पर दिखा रूस और अमेरिका उत्तर कोरिया और ईरान जैसे मामलों पर मिलकर काम कर रहे थे लेकिन असल विवाद की जड़ सीरिया ,दक्षिण चीन सागर और यूक्रेन रहा जहाँ  पर दोनों में खुले तौर पर मतभेद पूरी दुनिया के सामने नजर आये । इस बरस भी  दोनों देशों में सीरिया के मामले पर समझौता होने के करीब था लेकिन नहीं हो सका। मौजूदा दौर में रूस अपना ध्यान पूर्वी एशिया की ओर पश्चिम से ठंडे रिश्तों की वजह से नहीं  बल्कि राष्ट्रीय हितों की वजह से कर रहा है ।  राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी इस बात को मान रहे हैं ।  समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार संघीय सदन को अपने वार्षिक संबोधन में रूस के नेता ने इस बदलाव के पीछे किसी अवसरवादी कारणों से इनकार किया है और दोहराया है कि देश की मौजूदा नीति देश के दीर्घकालिक हितों और वैश्विक झुकाव को लेकर है वहीँ अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने घोषणा की है कि मॉस्को के साथ संबंधों को सामान्य बनाना अमेरिका और रूस दोनों के हित में है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह रूस के साथ संबंधों को सामान्य बनाये जाने के विरोधी नहीं हैं। डोनल्ड ट्रंप ने  रूस के साथ संबंधों को सामान्य बनाने में ओबामा सरकार पूरी तरह विफल करार दिया वहीँ  रूस के राष्ट्रपति  पुतीन ने भी वाशिंग्टन और मॉस्को के संबंधों को सामान्य बनाये जाने का स्वागत किया जिसके बाद अमरीका और रूस नई इबारत गढ़ने की दिशा में मजबूती के साथ बढ़ते दिख रहे हैं ।

 बात अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप  की करें तो राष्ट्रपति के चुनाव में सफल होने से पहले चुनाव रैलियों में  हमेशा  रूस के साथ तनाव को कम करने और क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में द्विपक्षीय सहकारिता की अपील लोगो से करते दिखाई दिए । वह शुरुवात से ही अमेरिका और रूस के संबंधों में तनाव नहीं चाहते थे । यही नहीं  चुनावी प्रचार के दौरान  ट्रंप ओबामा को कमजोर प्रशासक कहकर पुतिन की तारीफों के कसीदे पढ़ते दिखाई देते थे ।  वहीँ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी अब अमेरिका के साथ दरार पाटने और आतंकवाद से निपटने की साझा  कोशिश में सहयोग की अपील कर रहे हैं । मास्को में उन्होंने  इस आशा को जाहिर करते हुए कह दिया है अमेरिका के नए राष्ट्रपति चुने गए डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन के साथ संबंधों को दुरूस्त करने में मदद कर सकते हैं ।

 दरअसल दोनों देशों के बीच संबंध यूक्रेन सीरिया युद्ध और कई अन्य विवादों को लेकर शीत युद्ध के बाद और ज्यादा खराब हुए थे जो दशकों तक खराब दौर में रहे । ट्रंप  के आने से  पहले रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने अमेरिका और रूस के बीच खराब होते सम्बन्ध को दुनिया के सामने माना था । इसके बाद उन्होंने जोर देकर  ओबामा की नीतियों की दुनिया के सामने मुखालफत की थी । 2013  में दोनों देशों के बीच सीरिया के रासायनिक हथियारों को नष्ट किए जाने की योजना का एक बड़ा समझौता हुआ था लेकिन सीरिया में विद्रोही सेना फ्री सीरियन आर्मी के कमांडर जनरल सलीम इदरीस ने यह समझौता ठुकरा दिया था। उनका कहना था कि उन्हें मॉस्को या दमिश्क में काम कर रहे लोगों पर भरोसा नहीं है। रूस के साथ अमेरिका के संबंध गलत दिशा में उस वक्त चले गए जब पश्चिम के देशों ने सोवियत संघ  के विद्घटन के बाद रूस को एक राष्ट्र के तौर पर सम्मान नहीं दिया। उसे सोवियत संघ  के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा गया  जो कि पश्चिमी देशों के अविश्वास की मुख्य वजह रही है। रूस  मानता है कि शीत युद्ध के बाद से उसके साथ पश्चिमी मुल्कों ने ज्यादती की ।

हालांकि पुतिन अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर संजीदा थे। 2013 में जब अमेरिका के पूर्व सीआईए एजेंट ने रूस में छिपने के लिए आवेदन किया था तब रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि रूस और अमेरिका के  संबंध किसी जासूसी कांड से अधिक महत्वपूर्ण हैं। पुतिन स्नोडेन को चेतावनी दी थी कि उनका कोई भी कार्य जो रूस और अमेरिका संबंधों को क्षति पहुंचाएगा अस्वीकार्य है। अमेरिकी की गोपनीय जानकारी लीक करने के बाद से स्नोडेन वहां अपराध के मामले में वांछित हैं  लेकिन रूस ने उन्हें शरण करने से इनकार कर दिया। स्नोडेन को आखिरकार रूस ने अस्थाई रूप से एक वर्ष के लिए शरण दे दी थी। स्नोडेन को शरण देकर रूस ने अमेरिका के साथ कूटनीतिक मतभेद का खतरा मोल लिया था ज्सिके बाद अमेरिका ने स्नोडेन को शरण दिए जाने की संभावनाओं को बेहद निराशाजनक  बताया था जिसके एक बरस बाद  अमरीका ने रूस के खिलाफ अपना रुख कड़ा करते हुए यह धमकी दी थी कि अगर वह यूक्रेन के तनाव को कम करने के लिए नए अंतरराष्ट्रीय समझौते का पालन करने में विफल रहता है तो उस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएंगे जिस पर रूस ने तीखी प्रतिक्रिया दी  जिससे दोनों के रिश्ते  काफी तल्ख हुए थे।

2014 में  ऑस्ट्रेलिया में  सम्पन्न  जी 20 देशो की बैठक में भाग लेने गए रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन बीच बैठक को छोड़कर अपने देश लौट गए जिसने अमरीका से लेकर यूरोप तक हलचल मचाने का काम किया ।  इसी दौर में  रूस ने क्रीमिया में कब्ज़ा कर लिया और इसके बाद पुतिन के निशाने पर यूक्रेन आ गया  जहाँ पर कब्ज़ा जमाने और पाँव पसारने की बड़ी रणनीति पर रूस ने काम शुरू भी कर दिया था  और  पश्चिमी देशो की एक बड़ी जमात ने रूस को सीधे अपने निशाने पर लेते हुए युक्रेन में अनावश्यक दखल ना देने की मांग के साथ ही उस पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने की घुड़की देने से भी परहेज नहीं किया जिसका असर यह हुआ पुतिन को बीच में ही यह सम्मेलन छोड़ने को मजबूर होना पड़ा ।

क्रीमिया को लेकर भी 2014 के बरस में रूस की मोर्चेबंदी शुरुवात  से ही जारी रही वहीँ जुलाई 2014  में मलेशिया के एम एच  17 विमान गिराने को लेकर भी पूरी दुनिया की निगाहें रूस पर लगी रही जिसमे उसके शामिल होने और संलिप्तता के खूब चर्चे पश्चिम के देशों में हुए ।  क्रीमिया पर टकटकी लगाये जाने से रूस पूरी दुनिया की निगाहों में भी खटका  और  पश्चिम के कई देशों ने पुतिन पर एक के बाद एक तीखा हमला करना शुरू कर दिया ।  शुरुवात  से सुपर पावर अमेरिका ने  कहा  यूक्रेन में रूस का हस्तक्षेप पूरी दुनिया के लिए खतरा है वहीँ  ब्रिटेन की यह धमकी दी कि अगर रूस ने अपने पड़ोस को अस्थिर करना नहीं छोड़ा तो उस पर नए प्रतिबंध लगाए जाएंगे।  रही-सही कसर कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने पूरी कर दी। हार्पर ने कहा कि वह उनसे हाथ नहीं  मिलाएंगे । इसके ठीक बाद अमरीका ने अपनी सधी चाल से ऑस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री को साधकर एक प्रस्ताव पास किया जिसमे रूस से मलेशियाई विमान के हादसे में मारे गए लोगो को न्याय देने से लेकर क्रीमिया को मुक्त करने से लेकर यूक्रेन के पचड़े में ना फंसने का अनुरोध किया । इसी प्रस्ताव के आने के बाद पुतिन पश्चिमी देशों के खिलाफ एकजुट हो गए । देखते ही देखते रूस के बैंकों रक्षा और ऊर्जा कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया गया।  यह कार्रवाई रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध कठोर करने के यूरोपीय संघ के फैसले के बाद की गई। यूक्रेन के बहाने अमेरिका ने जो निशाना साधा  उससे रूस को कई तरह के आर्थिक नुकसान होने के आसार बन गये  क्युकि अमरीकी दवाब में अब पश्चिमी देश  और यूरोपियन यूनियन रूस पर आक्रामक रुख अपनाना  शुरू कर दिया जिसमे अमरीका भी रूस के खिलाफ हो गया ।  वैसे यूक्रेन मसले को सुलगाने  में अमेरिका का भी बड़ा हाथ रहा  | 2009 में  नाटो विस्तार के बाद से ही एशियाई देशों में भी कई तरह की गतिविधियां बढ़ी । फिर भी कई एशियाई देशों का अमेरिका की तरफ झुकाव जारी रहा जिसके कारण रूस अब  पहले से अलग-थलग पड़ गया  जिससे उसकी  अर्थव्यवस्था को  नुकसान  भी पहुंचा ।

रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के सहयोगी व्लादीमिर ज़िरीनोवोस्की ने इस बार अमरीकी चुनावों के दौरान दावा करते हुए कहा है कि रिपब्लिकन उम्मीदवार ही एक ऐसे व्यक्ति है जो मास्को और वाशिंगटन के बीच बढ़ रहे तनाव को रोक सकते है। ज़िरीनोवोस्की का यह बयान ऐसे समय में आया  जब सीरिया और यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका के बीच स्थितियां बेहद तनावपूर्ण हो गई । साथ ही उन्होंने अमेरिका के लोगों के सामने  विकल्प रखते हुए कहा या तो वे आगामी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप को वोट देकर जिताएं या फिर परमाणु युद्ध का जोखिम उठाएं। इतना ही नहीं रॉयटर्स से बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि अगर वे ट्रंप को वोट देते हैं, तो वे इस दुनिया में शांति कायम रखने का विकल्प चुनेंगे  लेकिन अगर वे हिलरी को वोट देते हैं, तो यह युद्ध का चुनाव होगा। दुनिया में हर जगह हिरोशिमा और नागासाकी दिखाई देंगे जिसके बाद ओबामा की पार्टी ने रूस को अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में दखल ना देने की अपील भी की और उसके खिलाफ आँखें भी तरेरी ।

अब अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत से अमेरिका रूस के संबंध सुधारने में मदद मिल सकती है । व्लादिमिर पुतिन और डोनाल्ड ट्रंप दोनों नेता  एक दूसरे की तारीफों में कसीदे भी पढ़ चुके हैं लेकिन अब असल विवाद की जड़ चीन  और पाकिस्तान बन सकता है जिन पर दोनों  का रुख विपरीत है । दक्षिण चीन सागर में रूस इस बरस चीन के साथ  संयुक्त नौसैनिक अभ्यास कर चुका  है। हालांकि यह इलाका दक्षिण चीन सागर के उस विवादित क्षेत्र से दूर है लेकिन रूस का चीन के साथ कदमताल करने का फैसला ट्रम्प की दोस्ती में रोड़ा बन सकता है । अमरीका की तरह  वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई, ताइवान और फिलीपींस पूरे दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे का विरोध कर रहे  हैं। फिलीपींस  चीन को दक्षिण चीन सागर के मसले पर  अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल हेग  में घेर चुका है जिसका फैसला भी चीन  के खिलाफ आया फिर भी रूस चीन के साथ खड़ा रहा । चीन के महत्वाकांक्षी प्रॉजेक्ट 'वन बेल्ट वन रोड' से भी रूस गदगद है, क्योंकि इसका रास्ता रूस के साइबेरिया से भी गुजरेगा और उसे आर्थिक लाभ होंगे। अब ट्रम्प इस चाल की कौन सी काट निकालते हैं यह देखना होगा ? इसी तरह चीन पाक के करीब है तो रूस भी भारत अमरीका के साथ आने से पाकिस्तान में अपने लिए संभावना देख रहा है । वह  पाकिस्तान के साथ भी सैनिक अभ्यास कर चुका है और बीते दिनों अमृतसर में सम्पन्न हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में साफ़ कह चुका है अफगानिस्तान को भारत पाकिस्तान के खिलाफ आतंकवाद की लडाई में यूज कर रहा है । यानि रूस चीन और पाक को साधकर एशिया में इस दौर में  नया त्रिकोण बनाना चाहता है । उधर  पाकिस्तान ने निर्यात के लिए सामरिक महत्व के ग्वादर बंदरगाह का इस्तेमाल करने के लिए रूस के अनुरोध को मंजूरी दे दी है जबकि अमरीका के  नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प चीन और पाक के खिलाफ चुनाव पूर्व तीखे बयान दे चुके हैं । वह भारत के पी एम मोदी की तारीफों के पुल बाँध चुके हैं तो पाकिस्तान को आतंकवाद के मसले पर कठघरे में खड़ा करते नजर आये हैं । अब ऐसे में ट्रम्प और पुतिन की दोस्ती किस करवट बैठती है यह देखने लायक बात होगी ।  यह बहुत हद तक ट्रम्प की भावी विदेश नीति के रुख पर निर्भर करेगा वह अब क्या रुख अपनाते हैं । अगर दाव सही पड़ा तो अमरीका और रूस  के बीच दशकों पुरानी शीत  युद्ध की परत पिघल सकती है ।

Monday 5 December 2016

बहुत याद आएंगी 'अम्मा '





दक्षिण भारत की राजनीति में अम्मा के नाम से मशहूर  तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का सोमवार रात  निधन हो गया। वो बीते 22 सितंबर से अस्पताल में भर्ती थी । वे पूरे 73 दिनों से बीमार थीं लेकिन 13 नवंबर को उनकी सेहत में सुधार और उन्हें अस्पताल  से छुट्टी देने की खबरों के बीच  रविवार शाम अचानक उन्हें  दिल का दौरा पड़ा जिसके बाद उन्हें  सीसीयू में रखा गया था। चेन्नंई के अपोलो हॉस्पि‍टल के बाहर उनके समर्थकों की भारी  भीड़ जमा थी जो रोते-बिलखते नजर आये ।  ये पहला मौका नहीं था , जब जयललिता को लेकर दक्षिण  के लोग  इतने भावुक हुए । बीते बरस  उनकी भ्रष्टाचार मामले में  गिरफ्तारी ने भी एक तरह से तमिलनाडु की गति को थाम दिया था और उनके समर्थकों ने आत्महत्या तक  के प्रयास तक किए थे। देखा जाए तो दक्षिण भारत  उसके राजनेताओं के प्रति भावुक और बेहद संवदेनशील रहा  है। बात फिर चाहे द्रविड़ अांदोलन के ईवीरामास्वा मी पेरियार की हो, या एआईएडीएमके के एम.जी. रामचंद्रन की हो या विमान हादसे में दिवंगत हुए वाई  एस  राजशेखर रेड्डी की या  फिर तमिलनाडु के इतिहास की एक और सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता जयललिता जयराम की। जया की मौत से पूरा तमिलनाडु सडकों पर सैलाब बनकर उमड़ आया  जो यह बताता है तमिल राजनीती में जया का प्रभाव कितना व्यापक था और क्यों लोग उन्हें चाहते थे । 

कभी फिल्मों से राजनीति में दाखिल होने वाली जयललिता ने सोचा भी नहीं होगा  तमिल राजनीति में वह बड़ा मुकाम हासिल करेंगी। लेकिन तमिलनाडु की जनता ने उन्हें सिरमाथे बिठाया। जी रामचंद्रन ने जयललिता को राजनीति के गुर सिखाए। मुख्यमंत्री जयललिता के निधन से तमिलनाडू की राजनीती में जो रिक्तता आई है वह अब आसानी से भरी नहीं जा सकती क्युकि तमिलनाडु की राजनीती लम्बे समय से अम्मा और करूणानिधि के इर्द गिर्द ही घूमती रही है | जया से पहले उनके राजनीतिक गुरू एमजी  एमजीआर का दौर याद करें तो 32 बरस पहले भी उनके चर्चे गली गली में होते थे । संयोग देखिये जी रामचंद्रन भी अस्सी के दसहक में जब बीमार हुए  तो अपोलो  में ही भर्ती हुए । अन्तर सिर्फ इतना रहा जिस अपोलो ने जी रामचंद्रन को नया जीवन दिया कल  उसी अपोलो ने जया के सांसों की धड़कन रोक दी । 1969 में डीएमके पार्टी के करुणानिधि के मुख्यमंत्री बने तो भी तमिल की पूरी राजनीति अन्नाद्रमुक और द्रमुक के इर्द गिर्द ही घूमी | 90 के दशक में में करुणानिधि को पराजित करने के बाद जयललिता पहली बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी थीं। तब से अब तक वे चाहे सत्तासीन रही हों या विपक्ष में बैठी हों तमिलनाडु के राजनीतिक पटल पर अम्मा की चमक कभी फीकी नहीं पड़ी | उन्होंने एम जी आर की विरासत को ना केवल बखूबी  थामा बल्कि सिल्वर स्क्रीन  की तर्ज पर राजनीती की स्क्रीन पर धूमकेतु की तरह चमककर गरीबों को लाभ देने वाली कई योजनायें लाकर उनके दिलों में राज किया | 22 सितंबर को जया के अस्पताल जाने के दिन से ही उनकी सेहत के बारे में तमाम कयास लगते  रहे लेकिन 5 दिसम्बर की रात साढ़े 11 बजते बजते अम्मा इस दुनिया से विदा हो गई और अपने करोड़ों समर्थकों की आँखें नम कर गई | 


तमिल फिल्मों की लोकप्रिय स्टारजया का जन्म समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था|  उनकी माँ संध्या कैरियर संवारने शाही मैसूर से चेन्नई आ गईं थीं |  जया उन्हीं के रास्ते पर चली और किशोरावस्था में ही उनका रुझान फिल्मों की ओर हो गया | एक्टिंग की शुरुआत के बाद देखते ही देखते वह दक्षिण भारतीय और खासकर तमिल फिल्मों की लोकप्रिय स्टार बन गईं |  नायिका के तौर पर जयललिता का सफर ‘वेन्निरा अदाई’ (द व्हाइट ड्रेस) से शुरू हुआ । जया  ने तमिल फिल्म 'वेन्नीरादई' से डेब्यू किया था, जो श्रीधर के निर्देशन में बनी थी ।  इस फिल्म ने अच्छी कमाई की थी और इस फिल्म के जरिए ही जयललिता ने लोगों के दिलों में अपनी अदाकारी की छाप छोड़ी थी । यही छवि उन्होंने 1972 में डीएमके से अलग होने के बाद तमिलनाडु की राजनीति में भी कायम रखी । जया ने साठ के दशक में पहले तो एमजीआर की हीरोईन के रूप में और फिर उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में कभी भी एमजीआर को, अपने निर्देशकों को, अपने प्रशंसकोंको निराश नहीं किया शायद यही वजह रही पहले फिल्म स्टार के तौर पर वह लोगों के दिलों में बसी और बाद में एक सशक्त राजनेता के तौर पर तमिल राजनीती में अपनी अलहदा पहचान बनाई जहाँ उनकी मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता था |  ऐसा रोजमर्रा के कामकाज में भी दिखता था । जब वह बीमार थी तो उनकी अनुपस्थिति में पूरी कैबिनेट उनकी फोटो सामने रखकर मीटिंग करती थी तो वहीँ  पेनिसेल्लिन भी उनकी फोटो साथ रखकर कामकाज निपटाते थे । 

जयललिता के पास लगातार दो विधानसभा चुनाव जीतने का शानदार रिकॉर्ड रहा । जया ने राजनीतिक गठबंधन का इस्तेमाल अपनी ताकत बढ़ाने के लिए नहीं किया । वह अकेले ही राजनीती की राहों पर निष्कंटक होकर चली शायद यही वजह रही उनकी काम करने की शैली भी अलहदा  रही । 1952 में कुमारस्वामी राजा के बाद वह पहली सीएम बनीं जो 1996 में न सिर्फ विधानसभा चुनाव हार गईं बल्कि धरमपुरी जिले की अपनी बरगुर सीट भी नहीं बचा पाईं इसके बावजूद वह राजनीती के रण में डटी रही । 80 के दशक में राजनीती  में आने के बाद औपचारिक तौर पर उनकी शुरुआत तब हुई जब वह अन्नाद्रमुक में शामिल हुईं | 1987 में एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई और उन्होंने व्यापक राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया | रामचंद्रन ने करिश्माई छवि की अदाकारा-राजनेता को 1984 में राज्यसभा सदस्य बनाया जिनके साथ उन्होंने 28 फिल्में की । 1984 के विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रभार का तब नेतृत्व किया जब अस्वस्थता के कारण प्रचार नहीं कर सके थे। वर्ष 1987 में रामचंद्रन के निधन के बाद राजनीति में वह खुलकर सामने आईं लेकिन अन्नाद्रमुक में फूट पड़ गई. ऐतिहासिक राजाजी हॉल में एमजीआर का शव पड़ा हुआ था और द्रमुक के एक नेता ने उन्हें मंच से हटाने की कोशिश की लेकिन 21 घंटे वह एम जी आर के पार्थिव शरीर के साथ खडी रही |  बाद में अन्नाद्रमुक दल दो धड़े में बंट गया जिसे जयललिता और रामचंद्रन की पत्नी जानकी के नाम पर अन्नाद्रमुक (जे)और अन्नाद्रमुक (जा) कहा गया । एमजीआर कैबिनेट में वरिष्ठ मंत्री आरएम वीरप्पन जैसे नेताओं के खेमे की वजह से अन्नाद्रमुक की निर्विवाद प्रमुख बनने की राह में अड़चन आई और उन्हें भीषण संघर्ष का सामना करना पड़ा ।  जयललिता ने बोदिनायाकन्नूर से 1989 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और सदन में पहली महिला प्रतिपक्ष नेता बनीं। इस दौरान राजनीतिक और निजी जीवन में कुछ बदलाव आया जब जयललिता ने आरोप लगाया कि सत्तारुढ़ द्रमुक ने उनपर हमला किया और उनको परेशान किया गया। रामचंद्रन की मौत के बाद बंट चुकी अन्नाद्रमुक को उन्होंने 1990 में एकजुट कर 1991 में जबरदस्त बहुमत दिलाई ।  पांच साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों, अपने दत्तक पुत्र की शादी में जमकर दिखावा और उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं करने के चलते उन्हें 1996 में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी । इसके बाद उनके खिलाफ आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति सहित कई मामले दायर किये गए  । अदालती मामलों के बाद उन्हें दो बार पद छोड़ना पड़ा ।  

भ्रष्टाचार के मामलों में 68 वर्षीय जयललिता को दो बार पद छोड़ना पड़ा लेकिन दोनों मौके पर वह नाटकीय तौर पर वापसी करने में सफल रहीं | पहली बार 2001 में दूसरी बार 2014 में . उच्चतम न्यायालय द्वारा तांसी मामले में चुनावी अयोग्यता ठहराने से सितंबर 2001 के बाद करीब छह महीने वह पद से दूर रहीं । बेंगलुरू में एक निचली अदालत द्वारा भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषसिद्धि के बाद एक बार फिर विधायक से अयोग्य ठहराए जाने पर 29 सितंबर 2014 और 22 मई 2015 के बीच उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा । बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फैसले को खारिज कर दिया ।  दो बार उन्हें जेल जाना पड़ा। पहली बार तब जब द्रमुक सरकार ने 1996 में भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया और दूसरी बार 2014 में लेकिन जयललिता दोनों मौके पर वापसी करने में सफल रहीं। 

वह पांच बार तमिलनाडु  में मुख्यमंत्री रहीं ।  तीन दशकों बाद इतिहास रचते हुए पार्टी को लगातार जीत दिलाकर वर्ष 2016 में भी उन्होंने सत्ता कायम रखी। जयललिता की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग उन्हें अम्मा के नाम से बुलाते थे ।  2014  के लोकसभा चुनावों में जब पूरा देश मोदी लहर के खुमार में था तो अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु की 39 सीटों में से 37  सीटों पर जीत दर्ज की। इसकी वजह जयललिता की जन कल्याणकारी योजनाएं रहीं। इसने उन्हें आम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय बनाया। यह जयललिता की राजनीतिक पकड़ मजबूत करने का जरिया कहे या वोट बैंक की पॉलिशी की राज्य के कुल खर्च का 37  फीसदी सब्सिडी पर खर्च होता था । अम्मा ब्रांड के जरिए जयललिता ने लोगों की रसोई तक में अपनी पहुंच बनाई। इस ब्रांड ने बहुत हद तक गरीबों को महंगाई से छुटकारा भी दिलाने की कोशिश की। जयललिता तमिलनाडु की ऐसे नेताओं में शुमार रहीं जिसने अपने करिश्माई व्यक्तित्व से सत्ता पाई। कई बार उठापटक के बाद भी उन्होंने सत्ता हासिल की। उनकी छवि अन्नाद्रमुक के वन मैन लीडर के रूप में बरकरार रही । लेकिन अपने पहले कार्यकाल में धन और शक्ति का बेजा प्रदर्शन और विरोधियों के प्रति आक्रामक रुख ने उन्हें कद्दावर राजनीतिज्ञ भी बनाया। हालांकि तीसरे कार्यकाल जयललिता ने अपनी छवि कल्याणकारी योजनाएं चलाने वाली नेता की गढ़ी।

जयललिता की मौत के बाद अब अन्नाद्रमुक के भीतर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं | बेशक पनीरसेल्वम ने सी एम की  कमान अपने हाथ में ले ली है लेकिन अब पार्टी के भविष्य को लेकर असमंजस है | अरसे से पार्टी का बड़ा चेहरा अम्मा  ही रही है और दूसरे किसी नेता को कभी पार्टी ने आगे नहीं किया | ऐसे में सवाल पूरी पार्टी को एकजुट रखने का है | दशकों से तमिल राजनीति में जया का सिक्का मजबूती के साथ चलता रहा और अन्ना द्रमुक का मतलब अम्मा और अम्मा का मतलब अन्नाद्रमुक रहा तो इसका साफ़ कारण जया ही रही । जया ने  शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, लुभावने तोहफे बांटने और अम्मा कैंटीन सरीखी सहित कई  योजनाओं के आसरे तमिल राजनीती में नई लकीर खींच  दी । यही नहीं  गरीबों को सस्ती दरों पर लोकलुभावन उपहार भी उन्होंने अपने  कार्यकाल में दिए जिससे गरीब गोरबा जनता के सामने वह देवी मानी जाने लगी ।  जब वह अपोलो गई तो उनके लाखो समर्थक सडकों पर अपने लोकप्रिय नेता के स्वस्थ होने की कामना करने लगे ।  उत्तर से लेकर दस्क्षण , पूरब से लेकर पश्चिम उनकी सलामती की दुवाएं हर तरफ की जाने लगी जो उनके मॉस लीडर होने की उपयोगिता को साबित कर रहा था । 


जयललिता की मौत के बाद पनीरसेल्वम   मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले चुके हैं लेकिन सबको एकजुट रखने की बड़ी चुनौती अब उनके सामने है । शुरुवात से पनीरसेल्वम को उनका  विश्वासपात्र माना जाता रहा है । पूर्व में भ्रष्टाचार के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद जयललिता के पद से हटने पर पनीरसेल्वम मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उन्हें शासन प्रशासन  चलाने का अच्छा अनुभव भी है । आज भी उन्हें ही मंत्रिमंडल के सदस्यों  ने सी एम बनने का मौका दिया है । इस  दुखद घडी में सबको साथ लेकर चलना जरूरी है । अब तक पार्टी में जया की सहमति  के कोई काम नहीं होता था । ऐसे में अब उनके जाने के बाद पार्टी के सभी निर्णयों में एक राय कायम  करनी मुश्किल हो जायेगी । अन्ना द्रमुक में अब किसी एक चेहरे को संगठनकर्ता की भूमिका में सामने आना होगा । मौजूदा  हालातों में पार्टी में महासचिव की कमान जया  की खास सलाहकार शशिकला संभाल सकती हैं। 

जयललिता के दौर में सरकार और पार्टी में अगर किसी की ठसक थी तो वह शशिकला  ही रही जिन्हें जया का दाहिना हाथ माना जाता था ।  पनीरसेल्वम को भी  सी एम  की कुर्सी  दो  बार मिली तो उसमे शशिकला की रजामंदी  थी।  अब पनीरसेल्वम के सी एम बनने के बाद शायद पूरी  पार्टी को वह अपने नियंत्रण में लें । चुनाव की फंडिंग से लेकर तमिल की हर चुनावी बिसात वह अपने हिसाब से बिछाएं । हालांकि अभी पनीरसेल्वम सी  एम बनाये  गए हैं लेकिन अभी तमिलनाडु में कोई चुनाव भी नहीं है लिहाजा  पनीरसेल्वम को जया के बेहतर विकल्प के रूप में खुद को पेश करने की जरूरत है । उनका आने वाला ट्रेक रिकॉर्ड भी अन्ना द्रमुक के भावी भविष्य को तय करेगा । इस बार तमिल चुनावों के दौरान  जया ने जो चुनावी वादे जनता से करे अब उनको जमीनी हकीकत में उतारने की कठिन चुनौती पनीरसेल्वम  के सामने खड़ी है  जहाँ  से उनको एक नई लकीर तमिल राजनीति में खींचने की जरूरत होगी । उनको खुद को अब साबित करना होगा । 


तमिलनाडु की राजनीती भी जातीय दलदल में उलझी है । सभी लोगों का विश्वास  जीतने की बड़ी चुनौती अब पनीरसेल्वम  के सामने है । पनीरसेल्वम भी तेवर जाति से हैं और शशिकला भी लिहाजा आने वाले समय के मद्देनजर उनको फूंक फूंक  कर कदम रखने की जरूरत है । अगर पार्टी के भीतर कोई नेता असंतुष्ट  हो गया तो पार्टी में बिखराव का खतरा उत्पन्न हो सकता है इसलिए सभी को साधना जरूरी हो चला है ।  उधर जया  की मौत के बाद विपक्षी  द्रमुक की भी सियासी उठापठक में दिलचस्पी  बढ़ सकती है । राजनीती में कुछ भी हो सकता है । आने वाले दिनों में अगर पनीरसेल्वम सही शासन दे पाने में विफल होते हैं तो द्रमुक पनीरसेल्वम के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर अन्ना द्रमुक की ताकत के कमजोर भी कर सकती है । 

पनीरसेल्वम अगर तमिलनाडु में अच्छी सरकार दे पाते हैं तो बहुत संभव हो सकता है पनीरसेल्वम पार्टी में खुद को बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने  में सफल हो सकते हैं । उनको अब जया के यस मैन की छवि से बाहर आना पड़ेगा तभी कुछ बात बन पायेगी ।  द्रमुक के मुखिया  करूणानिधि  का स्वास्थ्य भी अभी सही नहीं है । स्टालिन को बेशक उन्होंने कमान दी है लेकिन उनकी पार्टी में भी  यह जगजाहिर ही रहा करूणानिधि के करिश्मे को दोहरा पाना मुश्किल है । पार्टी को उन्होंने फर्श से अर्श तक पहुचाया । यह अलग बात है  टू  जी के भ्रष्टाचार ने उनकी पार्टी की साख मतदाताओं के बीच गिराने का काम किया है । 2014  के लोकसभा चुनाव और इस बरस के विधान सभा चुनावों में द्रमुक की हालात पतली हो गयी । वहां से पार्टी को फिर से उठाना स्टॅलिन के सामने मुश्किल है जब उनके विरोधी भी पार्टी के भीतर बढ़ रहे हैं और हवा द्रमुक के बिलकुल विपरीत दिशा में बह रही है । ऐसे में अन्ना द्रमुक को अगर जनता का विश्वास जीतना है तो जया के अधूरे  काम पूरे करने होंगे । पनीरसेल्वम के पास अभी बहुत समय बचा है । तमिलनाडु  की राजनीती द्रमुक और अन्नाद्रमुक के आगे पीछे ही घूमती रहती है । आने वाले दिनों में भी फिलहाल यही ट्रेंड हमें देखने को मिलेगा । जहाँ तक राष्ट्रीय दलों की बात है तो कांग्रेस की तमिलनाडु में वापसी दूऱ  की गोटी है  । भाजपा दक्षिण में बिना चेहरे के जीत नहीं सकती । हालाँकि संघ का प्रभाव तमिलनाडु के कई हिस्सों में जरूर है लेकिन बिना चेहरों के राजनीती में कोई जंग नहीं जीती जाती । तमिलनाडु में बिना कप्तान के भाजपा  पसार नहीं सकती । भाजपा रजनीकांत पर डोरे डालकर अपनी जमीन मजबूर कर सकती है लेकिन वह उसकेपाले में आएंगे इसकी गारंटी नहीं है । एक दौर में रजनीकांत की जया से निकटता की खबरें आयी थी लेकिन इसे रस बीत गया है । फिर भी राजनीती में कुछ भी संभव है । बड़ा सवाल है क्या रजनीकांत का भाजपा में एक चैनल अगर नहीं खुलता है  क्या  वो जया की पार्टी में अपने लिए संभावना तलाश सकते हैं ? यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है । 

 मौजूदा  दौर ऐसा है जहाँ राष्ट्रीय राजनीती का लोकलाइजेशन हो गया है । अब हर राज्य में छत्रप अपना असर दिखा रहे हैं । विधान सभा में किसी दल की अगर सरकार बन रही है तो यह जरूरी नहीं  महानगर पालिका के चुनावों और केन्द्र के चुनाव में भी वही दल  सत्तासीन हो जाए । ऐसे में अन्नाद्रमुक को जया के अधूरे कामों को आगे बढ़ाने की जरूरत है । जयललिता  की असामयिक मौत के बाद उनके वोटरों में सहानुभूति की लहर भी अन्नाद्रमुक की भावी राह को न केवल आसान कर सकती है बल्कि उसके वोट बैंक को भी नहीं छिटकने  देगी । देखना होगा पनीरसेल्वम जयललिता के जाने के बाद पार्टी को किस तरह संभालते हैं ? फिलहाल इस बारे में कुछ कह पाना बहुत जल्दबाजी होगी । 

Sunday 27 November 2016

कास्त्रो और क्यूबा

                   


टापू सरीखे  छोटे से देश क्यूबा को शक्तिशाली पूंजीवादी अमेरिका से लोहा लेने वाला बनाने वाले  क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो इस  दुनिया से रुखसत जरूर हो गए लेकिन अपनी ठसक का अहसास पूरी दुनिया को उन्होंने करा दिया  । जैतून के रंग की वर्दी, बेतरतीब दाढ़ी और सिगार पीने के अपने अंदाज के लिए मशहूर फिदेल ने अंतिम दिनों में  स्वास्थ्य कारणों के चलते राजनीति बेशक छोड़ी लेकिन अपने देश में पैदा होने वाले असहमति के सुरों पर शिकंजा बनाए रखा और वाशिंगटन की मर्जी के विपरीत चलकर वैश्विक फलक पर अपनी अलहदा पहचान कायम की ।  तेजतर्रार व्यक्तित्व के धनी और शानदार वक्ता फिदेल कास्त्रो ने अपने शासन में अपनी हत्या की साजिशों, अमेरिका के समर्थन से की गई आक्रमण की कोशिश और कड़े अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों समेत अपने सभी शत्रुओं की तमाम कोशिशों को नाकाम कर दिया। 

13 अगस्त 1926 को जन्मे फिदेल के पिता एक समृद्ध स्पेनी प्रवासी जमींदार थे और उनकी मां क्यूबा निवासी थी। बचपन से ही कास्त्रो चीजों को बहुत जल्दी सीख जाते थे और एक बेसबॉल प्रशंसक थे। उनका अमेरिका की बड़ी लीग में खेलने का सुनहरा सपना था लेकिन खेल में भविष्य बनाने का सपना देखने वाले फिदेल ने बाद में राजनीति को अपना सपना बनाया।  फुलगेंसियो बतिस्ता की अमेरिका समर्थित सरकार के विरोध में गुरिल्ला का गठन किया। बतिस्ता ने 1952 के तख्तापलट के बाद सत्ता पर कब्जा किया था। इस विरोध में संलिप्पता के कारण युवा फिदेल को दो साल जेल में रहना पड़ा और इसके बाद वह अंतत: निर्वासन में चले गए और उन्होंने विद्रोह के बीज बोए। उन्होंने अपने समर्थकों के साथ ग्रानमा पोत से दक्षिण पूर्वी क्यूबा में कदम रखते ही 2  दिसंबर 1956 को क्रांति की शुरूआत की। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत हवाना विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए प्राप्त किया और तमाम  चुनौतियों से पार पाते हुए 25 महीनों बाद बतिस्ता को सत्ता से बेदखल किया और  एक क्रांतिकारी के रुप में उन्होंने अमेरिका के द्वारा समर्थन किए जा रहे फुल्गेंकियो बतिस्ता के तानाशाह शासन को अपने बल पर उखाड़ फेंका और  प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे ।

फिदेल ने एक समय निर्विवाद रूप से सत्ता में रहे  और  झुकाव सोवियत संघ की ओर था। अमेरिका के 11 राष्ट्रपति सत्ता में आकर चले गए लेकिन फिदेल सत्ता में बने रहे। इस दौरान अमेरिका के हर राष्ट्रपति ने 1959 की क्रांति के बाद से उनके शासन पर दशकों तक दबाव बनाने की कोशिश की। इस क्रांति ने 1989 के स्पेनी-अमेरिकी युद्ध के बाद से क्यूबा पर वाशिंगटन के प्रभुत्व के लंबे दौर का अंत कर दिया। कास्त्रो के सोवियत संघ के साथ जुड़ाव के कारण 1962 क्यूबा मिसाइल संकट के समय विश्व परमाणु युद्ध के कगार पर पहुंच गया था। मास्को ने अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य से मात्र 144 किलोमीटर दूर द्वीप पर परमाणु हथियार ले जाने वाली मिसाइल स्थापित करने की योजना बनाई थी। प्रतिद्वंद्वी महाशक्तियों के बीच तनावपूर्ण गतिरोध के बाद क्यूबाई जमीन से मिसाइल दूर रखने पर मॉस्को के सहमति जताने पर दुनिया परमाणु युद्ध के संकट से बच गई। शासनकर्ता के तौर पर उन्होंने लोगों को साथ लेकर चलने वाली भूमिका निभाई, वर्ष 1965 में वे क्यूबा के कम्युनिष्ट पार्टी के प्रथम सचिव बने और एक दलीय समाजवादी गणतंत्र बनाने में उन्होंने नेतृत्व किया । 

कास्त्रो विश्व के मंच पर ऐसे समय में कम्युनिस्ट नेता बन कर उभरे जब दुनिया शीत युद्ध के चरम पर थी। उन्होंने 1975 में अंगोला में सोवियत के बलों की मदद के लिए 15000 जवान भेजे ।  1976 में राज्य और मंत्रीपरिषद के अध्यक्ष के तौर पर भी चुने गए, इस दौरान उन्होंने क्यूबा के सशस्त्र बलों के कमांडर चीफ का पद अपने ही पास रखा, इन सबके बीच गौर करने वाली बात यह रही वे हमेशा से एक तानाशह के रुप में ही जाने जाते रहे। कास्त्रो को क्यूबा की राष्ट्रीय एसेम्बली ने 1976 में राष्ट्रपति भी  चुना। कास्त्रो ने अमेरिका की इच्छा के विपरीत काम किया और अमेरिका को कई बार नाराज, शर्मिंदा और सचेत किया। अमेरिका ने क्यूबा में विद्रोह की आस में आर्थिक प्रतिबंध लगाए लेकिन इसके बावजूद फिदेल के सत्ता में बने रहने से उसे हताशा ही हाथ लगी। क्यूबाई राष्ट्रपति ने स्वयं कई बार इस क्यूबा में आर्थिक परेशानियों के लिए प्रतिबंध को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने अपने देश के लोगों को बार बार यह याद दिलाया कि अमेरिका ने द्वीप राष्ट्र पर पहले भी हमला किया है और वह किसी भी समय ऐसा दोबारा कर सकता है। 1989 में सोवियत संघ से मदद नहीं मिल पाने के कारण अर्थव्यवस्था चरमरा जाने के बाद फिदेल ने अधिक अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को बढ़ावा दिया और कुछ आर्थिक सुधार किए।  क्रांतिकारी आइकन के तौर पर मशहूर दुनिया के सर्वाधिक चर्चित व विवादास्पद नेताओं में से एक कास्त्रो अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा उनकी हत्या के कई प्रयासों में बचने में कामयाब रहे। उनके निधन की कई खबरें बीच-बीच में आती रहीं, जो अक्सर उनके वीडियो और कभी सार्वजनिक तौर पर उनके सामने आने के बाद निराधार साबित होती रहीं। 

कास्त्रो के समर्थक उन्हें एक ऐसा शख्स बताते हैं, जिन्होंने क्यूबा को वापस यहां के लोगों के हाथों में सौंप दिया। लेकिन विरोधी उन पर लगातार विपक्ष को बर्बरतापूर्वक कुचलने का आरोप लगाते रहे।कास्त्रो ने अप्रैल में देश की कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस को अंतिम दिन संबोधित किया था। उन्होंने माना था कि उनकी उम्र बढ़ रही है, लेकिन उन्होंने कहा था कि कम्युनिस्ट अवधारणा आज भी वैध है और क्यूबा के लोग ‘विजयी होंगे। वर्ष 1992 में क्यूबाई शरणार्थियों को लेकर अमेरिका के साथ उनका एक समझौता हुआ।2008 में उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से स्वेच्छा से क्यूबा के राष्ट्रपति पद का त्याग कर दिया।  फिदेल कास्त्रो का कहना था कि वह राजनीति से कभी संन्यास नहीं लेंगे लेकिन उन्हें जुलाई 2006 में आपात स्थिति में आंतों का ऑपरेशन कराना पड़ा जिसके कारण उन्होंने सत्ता अपने भाई राउल कास्त्रो के हाथ में सौंप दी। राउल ने अपने भाई के अमेरिका विरोधी रुख के विपरीत काम करते हुए दिसंबर 2014 में संबंधों में सुधार के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हाथ मिलाने की घोषणा करके दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया।

क्यूबा के साथ अमेरिका के रंजिश भरे रिश्तों का इतिहास रहा है जिससे दुनिया वाकिफ है। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की क्यूबा यात्रा का महत्व  बढ़ गया । वैश्विक फलक पर इस यात्रा का सन्देश यह गया अमेरिका और क्यूबा दोनों देशों ने दशकों की दुश्मनी भुला कर एक दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा  रहे हैं।  ओबामा ने भी अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उन्होंने एक और ऐतिहासिक पहल अपने नाम कर ली। ओबामा की यह यात्रा इसलिए भी  ऐतिहासिक मानी गई  क्योंकि 88  बरस  बाद कोई अमेरिकी राष्ट्रपति क्यूबा पहुंचा । इससे पहले जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति कल्विन बूलीज थे, जो 1928  में क्यूबा  पहुंचे थे। अब तक अमेरिका क्यूबा को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था लेकिन ओबामा की यात्रा के बाद झटके में  क्यूबा को आतंक फैलाने वाले देशों की सूची से बाहर कर दिया गया । यही नहीं अमेरिकी पर्यटकों के क्यूबा जाने पर लगा प्रतिबंध अमिरिका ने हटा लिया । व्यवसायिक उड़ानें शुरू करने पर रजामंदी हो गई और शोध और नवोन्मेष में सहयोग करने को लेकर रजामंदी हुई । फ्लोरिडा से 90  किलोमीटर दूर क्यूबा में गूगल वाईफाई और ब्रॉडबैंड सेवाओं के विस्तार में मदद करने  सहमति बनी । इस समूचे दौर में अमेरिका के क्यूबा से बेहतर हुए रिश्ते का श्रेय पोप फ्रांसिस को भी जाता है, जिन्होंने क्यूबा के प्रधान पादरी जैम लुकास ओर्टेगा के साथ मिल कर इस मेल-मिलाप की पृष्ठभूमि तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। ओबामा हवाना गए तो ओर्टेगा से मिलना और उनका आभार जताना नहीं भूले।   इस यात्रा का प्रभाव यह रहा क्यूबा ने 54  बरस बाद सितंबर  201 5  में अमेरिका में अपना राजदूत नियुक्त किया ।  अगस्त 201 5   में अमेरिका ने क्यूबा की राजधानी हवाना में अपना दूतावास 54  बरस  बाद एक बार फिर खोला था। 

गौरतलब है अमेरिका और क्यूबा के रिश्ते 1959  में तब खराब हुए थे जब फिदेल कास्त्रो ने क्रांति के जरिए अमेरिका के पक्ष वाली सरकार का तख्ता पलट कर क्यूबा में कम्युनिस्ट शासन कायम किया था। फिदेल कास्त्रो और उनके भाई राउल कास्त्रो ने इस वर्ष फुल्गेंसियो बतिस्ता की तानाशाही के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। अमेरिका ने शुरू में नई सरकार को मान्यता दी लेकिन 1961  में अमेरिकी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किए जाने के बाद रिश्ते तोड़ दिए। उसके बाद क्यूबा समर्थन के लिए रूस की ओर चला गया तो अमेरिका ने  1962  में उसके खिलाफ व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए। 1991  में सोवियत संघ  के टूटने  के बाद से क्यूबा को खाने पीने की चीजों, तेल और उपभोक्ता मामलों के क्षेत्र में बार-बार कमियों का सामना करना पड़ा। 195 9  की क्यूबा क्रांति के बाद से अमेरिका और क्यूबा के संबंध न केवल तनाव भरे रहे  बल्कि शत्रुतापूर्ण भी हो गए ।

क्यूबा के साथ नए रिश्ते बनाने का फैसला ओबामा ने इसलिए भी किया, क्योंकि क्यूबा नीति के कारण अमेरिका की दुनिया में  किरकिरी हो रही थी। क्यूबा को अलग-थलग रखने की नीति लैतिन अमेरिका के देशों के साथ अमेरिका के रिश्तों में दरार भी पैदा कर रही थी। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र महासभा हर साल भारी बहुमत से अमेरिका की क्यूबा नीति की निंदा करती थी। अमेरिका इस छोटे से देश पर जो महज 90  किलोमीटर दूर था पर दबाव बनाए हुए था तो चीन, रूस और ब्राजील के नेता नियमित रूप से हवाना जा रहे थे और लाखों का निवेश कर रहे थे। अमेरिका क्यूबा की हाल के दिनों में नई  दोस्ती दोनों देशों की विदेश नीति में एक नए पाठ की शुरुआत रही । बराक ओबामा के कार्यकाल के अंतिम दिनों को  क्यूबा से अमेरिका के राजनयिक संबंधों की बहाली और मेल-मिलाप को उनके एक बड़े काम के तौर पर रेखांकित किया जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के क्यूबा दौरे पर फिदेल कास्त्रो ने भी  अपनी चुप्पी तोड़ी । उन्होंने ओबामा की यात्रा के विरोध में 1500  शब्दों का एक लेख लिखा जो  सरकारी अखबार ग्रानमा में छपा । फिदेल ने इस लेख में लिखा  कि 'क्यूबा को साम्राज्य' से किसी तोहफे की जरूरत नहीं है। क्यूबाई पूर्व राष्ट्रपति फिदेल ने पत्र में ओबामा की मेल-मिलाप वाली बातों को 'खुशामदी' बताया है। उन्होंने क्यूबा पर अमेरिकी कारोबारी रोक को हटाने की भी मांग की साथ ही दोहराया यह पाबंदी सिर्फ अमेरिकी संसद के जरिए ही हटाई जा सकती है ।  कास्त्रो का भारत के साथ एक अटूट रिश्ता था ।  भारत भी इसे मानता रहा और खुद फिदेल कास्त्रो भी जिंदगी भर इस रिश्ते का सम्मान करते रहे ।  इंदिरा गांधी को वह अपनी बहन मानते थे और अपनी मुलाकात में जो आत्मीयता दिखाते थे उसकी गवाह दोनों की अतीत की  कई तस्वीरें हैं ।  फिदेल भारत के शुभचिंतकों में भी  शुमार रहे। गुट निरपेक्षता  विकसित करने वाले अपने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से उनकी निकटता जगजाहिर रही ।

दरअसल फिदेल इसलिए महान नहीं थे कि उन्होंने आधी सदी तक एक देश पर राज किया। वह इसलिए महान थे कि उन्होंने दुनिया को स्वाभिमान से जीना सिखाया। उन्होंने दुनिया को क्यूबा सरीखे टापू युक्त देश के जरिए यह बताया कि कैसे एक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की जाती है। उन्होंने दुनिया को यह भी बताया कि कैसे एक छोटा सा देश दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश से अपने स्वाभिमान की सफलता और गर्व के साथ रक्षा कर सकता है और  अमरीका सरीखी साम्राज्य वादी ताकतों की नाक में दम कर सकता है ।  फिदेल ने  अमेरिका जैसे सर्वशक्तिशाली देश से आधी सदी तक लोहा लिया। फिर अमेरिका को अपनी शर्तों पर झुकने के लिए मजबूर किया और अमरीका और क्यूबा  दूसरे के करीब लाकर खड़ा कर दिया । फिदेल कास्त्रो आज  हमारे बीच न रहे हों  लेकिन साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ शान और शौकत के साथ मुकाबला करने वाले कप्तान के तौर पर इतिहास उन्हें हमेशा याद करेगा । इस कड़ी में  चे-गेवारा के साथ फिदेल का नाम भी जुड़ जायेगा जिन्होंने अपनी शर्तों पर जिंदगी को जिया और साम्राज्यवादी ताकतों के जुल्मों के खिलाफ मशाल जलाये रखी ।   

Monday 14 November 2016

जापान दौरे से 'नमो ' की लुक ईस्ट पालिसी को मिली नई धार




 
पी एम मोदी की जापान यात्रा कई मायनों में भारत के लिए कामयाब साबित हुई है । इसमें दोनों देशों के बीच तकरीबन 10 विषयो पर अहम समझौते हुए जिसमें असैन्य परमाणु करार सबसे अहम है । हालांकि भारत ने और कई देशों के साथ भी एटमी ऊर्जा करार कर रखे हैं  लेकिन जापान के साथ इस तरह का समझौते के कई मायने हैं |  जिस तरह मौजूदा दौर में भारत की उर्जा जरूरतें लगातार बढ़ रही हैं उसे देखते हुए जापान के साथ यह करार भारत के लिए फायदे का सौदा बन सकता है | हमारे देश में परमाणु बिजलीघरों के लिए परमाणु समझौते लम्बे समय से अटके पड़े हुए थे । अमरीका के साथ परमाणु करार हो जाने के बाद भी भारत अन्य देशों के साथ परमाणु क़रार को लेकर बीते कई बरस से उत्सुकता दिखा रहा था लेकिन वह पूरी होनी दूर की गोटी लग रही थी । इसका कारण परमाणु अप्रसार की वह संधि थी जिस पर भारत ने साइन नहीं किये हैं जिसके चलते कई देश उसे परमाणु तकनीक की मदद में टालमटोल रवैया अपनाने से बाज नहीं आते थे । मोदी की जापान यात्रा में वैसे तो  सुरक्षा, आतंकवाद, कौशल विकास में सहयोग, अंतरिक्ष और नागरिकों के स्तर पर संपर्क जैसे विषय भी शामिल रहे लेकिन  जापान और भारत के बीच हुआ असैन्य परमाणु करार ही नमो की इस यात्रा की सबसे खास उपलब्धि रही । जापान के साथ हुआ परमाणु करार कई मायनों में ऐतिहासिक है । जापान ने भारत की उर्जा जरूरतों में भागीदार बनने का फैसला किया है और वह भारत को परमाणु उर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित करेगा । हालाँकि उसकी तरह से सख्त हिदायत यह भी है भारत ने अगर परमाणु परीक्षण किया तो वह अपना परमाणु करार तोड़ने पर मजबूर हो जायेगा । भारत ऐसा पहला देश है जो एन पी टी पर साइन किये बगैर परमाणु समझौतों की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है | 

मौजूदा दौर में भारत की जरूरत सस्ती बिजली पैदा करना है । लगातार बढ़ रहे प्रदूषण के प्रभाव को रोकने के लिए अब कोयले के बजाय परमाणु उर्जा उसकी प्राथमिकताओं के केन्द्र में है । ऐसे में जापान के साथ बीते दिनों हुआ यह करार बहुत हद तक उर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है । जापान के पास बड़ी मात्रा में यूरेनियम सहित अन्य परमाणु सामग्री है । शांतिपूर्ण कार्यों के लिए आज परमाणु उर्जा की बड़ी जरूरत भारत को है । जापान के सहयोग से इस मामले में भारत की  जरूरतें अब पूरी हो सकती हैं । जापान किसी ऐसे देश के साथ परमाणु करार  नहीं कर सकता  जिसने एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नही किये हों इसलिए एटमी ऊर्जा  पर करार भारत के लिए मुश्किल था । तकरीबन 6 बरस से भारत जापान के बीच बातचीत चल रही थी लेकिन कई पेचीदगियों की वजह से इसको आकार नहीं मिल पाया | 1998 में पोकरण के बाद जापान ने भी तकनीकी और आर्थिक प्रतिबन्ध भारत पर भी थोप दिए थे जिसके बाद परमाणु उर्जा की भारत की जरूरतें औंधे मुह गिर गई | दुनिया के ताकतवर मुल्कों की तर्ज पर जापान ने भी भारत पर प्रतिबन्ध लगाये लेकिन आज भारत की वैश्विक साख और बड़े बाजार की जरूरत को देखते हुए जब दुनिया के सभी देश भारत के साथ खड़े हो रहे हैं तो जापान भी अपनी तकनीक के आसरे भारत के साथ कदमताल करने से पीछे नहीं रहना चाहता और परमाणु उर्जा के जरिये भारत के साथ आकर खड़ा हो गया है | 

अमेरिका के साथ हुए भारत के एटमी करार को अंतिम रूप देने में भी कई बरस लगे थे। वर्ष 2007 में इंडो यू एस न्यूक्लियर एग्रीमेंट पर मनमोहन के दौर में जहाँ साइन हुए जिसके बाद एनएसजी समूह की मंजूरी मिली और 6 बरस पहले समझौता अंतिम रूप ले सका ।  जापान के साथ हुए परमाणु करार से एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी को एक नया बल मिला है लेकिन चीन की शातिर चालबाजियां अभी भी यहाँ उसकी राह को रोकने का ही काम करेंगी और वह पाकिस्तान की तारीफों के कसीदे पड़े बिना नहीं रह सकता |  मोदी की जापान यात्रा से एशिया प्रशांत संबंधों के मजबूत होते रिश्तों को भी नया बल मिला है । हालाँकि जापान के साथ भारत के व्यापारिक रिश्ते बहुत पुराने रहे हैं लेकिन मोदी की जापान यात्रा से इन रिश्तों को नई ऊँचाई मिलेगी | जापान ने अगले पांच बरसों में तकरीबन 35 अरब डालर निवेश का मन बनाया है जिसमे 12 अरब डालर मेक इन इंडिया के तहत जापानी उद्यमियों को मदद के रूप में दिया जायेगा । मुम्बई अहमदाबाद बुलेट ट्रेन चलाने के लिए भी जापान मुस्तैदी दिखा रहा है और 2023 तक इसे अमली जामा पहनाया जा सकेगा । जापान एक साथ निर्यात बढाने को भी भारत सरकार की हरी झंडी है । पौने दो फीसदी निर्यात में अब उछाल आने की संभावनाओं से भी हम इनकार नहीं कर सकते ।  मोदी की इस जापान यात्रा के दौरान भारत और जापान ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए 10 समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिसमें आधारभूत संरचना क्षेत्र, रेलवे और अंतरिक्ष एवं कृषि में सहयोग से जुड़े समझौते भी शामिल हैं ।  रेलवे ,परिवहन सरीखे बुनियादी ढांचे के निर्माण में जापान आज हमारा साझीदार है | खगोलीय खोजों में भारत और जापान की स्पेस एजेंसी के बीच भी महत्वपूर्ण समझौता हुआ है जो मील का पत्थर साबित हो सकता है | मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसे मसलों पर भी जापान ने भारत में अपनी रूचि दिखाई है और आधारभूत ढांचे के निर्माण में भारत को मदद का पूरा भरोसा दिलाया है  और अब जापान ने ऐतिहासिक असैन्य परमाणु सहयोग करार पर हस्ताक्षर करके  परमाणु क्षेत्र में दोनों देशों बीच नई इबारत गढ़ने का काम किया है | 

 नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा से यह भी साफ हो गया है कि दोनों देशों के सम्बन्ध अब प्रगाढ़ हो गए हैं। बीते बरस दिसंबर में शिंजो अबे जहाँ भारत आये वही इस साल मोदी का जिस तरह जापान में इस्तकबाल हुआ और जिस तरह वहां के उद्योगपतियों के साथ बैठकों का नया दौर शुरू हुआ है वह भारत जापान के सबसे बेहतर रिश्तों की तरफ इशारा कर रहा है |  दरअसल भारत और जापान दोनों लोकतांत्रिक देश हैं लेकिन दोनों सामरिक मोर्चे पर अपने पड़ोसियों से जूझ रहे हैं । जापान जहाँ पूरी तरह विकसित है वहीँ भारत विकासशील देश है । जापान तकनीक के मामले में भारत से कही आगे है और भारत के ढांचागत विकास में साझीदार बन सकता है । इसकी एक बानगी मेट्रो प्रोजेक्ट में देखी जा सकती है जहाँ जापान की मदद से भारत देश भर में मेट्रो का जाल बिछा रहा है वहीँ अब मेट्रो से इतर बुलेट ट्रेन के सपने को भी पूरा करने की दिशा में मजबूती के साथ बढ़ रहा है | जापान के साथ बुलेट ट्रेन के समझौते को बीते बरस शिंजो अबे की यात्रा के दौरान मंजूरी दी गई । बुलेट ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद के बीच चलेगी और पूरे प्रोजेक्ट का खर्च 98,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है | जापान के पास फिलहाल बुलेट ट्रेन का 2,664 किलोमीटर लंबा ट्रैक है।  आधी शताब्दी पहले ही जापान में बुलेट ट्रेन चलनी शुरु हो गई थी |  1964 में पहली बार जापान में बुलेट ट्रेन चली और अब प्रधानमंत्री मोदी के बुलेट ड्रीम प्रोजेक्ट को जापान के पंख लग रहे हैं । रेलवे , परिवहन ,स्पेस की तकनीक में जापान का कोई सानी नहीं है | मिसाल के तौर पर दिल्ली में मेट्रो रेल की कनेक्टिविटी को ही हम देख लें यह सब आज जापान की ही देन है । कम लागत और कम समय में जापान ने अपने देश में जिस तरह ट्रेनों का बड़ा जाल बिछाया और बुलेट ट्रेन को भी शामिल किया उसने जापान के विकास की रफ़्तार को नयी उड़ान दी है और अब जापान भारत के साथ मिलकर यहाँ भी अमदाबाद से मुम्बई बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट में भागीदार है । 

 मोदी की जापान यात्रा की बड़ी कूटनीतिक कामयाबी से चीन आग बबूला है । चीन के धुर विरोधी जापान को गले लगाकर मोदी ने लुक ईस्ट पालिसी का जो नया पासा फेंका है वह भारत की बड़ी कूटनीतिक कामयाबी है क्युकि एन एस जी में चीन भारत का पुरजोर विरोधी रहा है। दुनिया के सभी देश जब भारत के समर्थन में खड़े हैं ऐसे में वह भारत के पडोसी पाकिस्तान को गले लगाकर बैठा है और उसका पडोसी जापान  भारत के साथ परमाणु करार कर अपने संबंधों को मजबूत करता जा रहा है । दरअसल चीन इस दोस्ती को नहीं पचा पा रहा है । उसके विदेश मंत्रालय ने मोदी  की जापान यात्रा के बारे में कड़ी आधिकारिक प्रतिक्रिया व्यक्त की है । चीन दक्षिण चीन सागर पर भारत और जापान के साथ आने को भी नहीं पचा पा रहा । इशारे इशारे में वह  भारत को यह सन्देश देने से पीछे नही है कि इस मामले से दूर रहे और जापान का मोहरा न बने। चीन को यह समझना होगा कि आज का भारत बदला हुआ है | अब उसकी दुनिया में धाक जैम रही है और वह अपने आर्थिक , सामरिक रिश्ते मजबूत करने के लिए खुद लेने के लिए स्वतन्त्र है और उसकी एक विदेश नीति दुनिया में असर दिखा रही है | भारत कोई कमजोर देश नहीं कि वह  किसी की गोद में बैठकर वह खेले | भारत की विदेश नीति  अब मोदिनोमिक्स की छाँव तले नया आकर ले रही है जहाँ दुनिया भारत की ताकत का लोहा मान रही है | चीन ने दक्षिण चीन सागर पर जिस तरह का तल्ख़ रुख अपनाया है  अंतरराष्ट्रीय पंचाट तक के फैसले को वह मानने से तैयार नहीं है  उस पर भारत और जापान का साथ आना उसकी चिंता को बढ़ा सकता है | अमरीका भी चीन को इस मसले पर घेर रहा है जहाँ जापान और भारत करीब आकर चीन का खेल खराब कर सकते हैं | चीन एशिया में अपनी दादागिरी दुनिया को दिखा रहा है | पाकिस्तान को साधकर वह  बलूचिस्तान तक बड़ा व्यापारिक कारिडोर बना रहा है | हिन्द ,प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में अपना सिक्का मजबूत करने की रणनीति को अंजाम तक पंहुचा रहा है उससे भारत, जापान का चिंतित होना स्वाभाविक है | ऐसे में वह उसको घेरने की किसी रणनीति पर तो एक छत के नीचे आयेंगे | चीन ने अपनी शातिर चाल से क्यूराइल  द्वीप पर पूरा हक जताकर जापान को अपना दुश्मन बनने पर मजबूर कर दिया है। जापान न चाहते हुए यह सब देख रहा है | चीन को जापान के सब्र का इम्तिहान नहीं लेना चाहिए वह अपनी विदेश नीति के जरिये आगे बढ़ रहा है और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के साथ दूसरे देशों के साथ अपने सम्बन्ध अपनी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सुधार रहा है तो चीन क्यों परेशान है |  

दो एशियाई ताकतों जापान और भारत का साथ आना शायद चीन की असल परेशानी की वजह दिखती है और पी एम मोदी के जापान दौरे के बाद दोनों देशों के बीच दोस्ताना सम्बन्धो को जहाँ मजबूती मिलेगी वहीँ चीन की चिंता बढ़नी तय है | भारत और जापान  दोनों ही चीन की बढ़ती आर्थिक व सैन्य ताकत तथा सतत आर्थिक विकास की साझा रणनीतिक चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए भारत और जापान का साथ आना आज की नई जरूरत बन गई  है | पीएम मोदी की एक्ट ईस्ट नीति और शिंजो आबे का उसी गर्मजोशी से दिया गया जवाब इस दिशा में व्यावहारिक कदम हैं। लुक  ईस्ट पॉलिसी पूर्व एशियाई क्षेत्र में मजबूती हासिल करने की भारत की सामरिक आर्थिक नीतियों में से एक है जिसके  तहत भारत का प्रयास है इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ सामरिक , आर्थिक संबंधों को मजबूत किया जा सके | इस नीति पर चलते हुए भारत ने बीते कुछ बरसों में श्रीलंका, सिंगापुर, थाईलैंड, ताइवान , दक्षिण कोरिया  सरीखे देशों के साथ अपने सम्बन्ध मधुर किये हैं और अब इस कड़ी में नया नाम जापान का जुड़ गया है जिससे भारत जापान सम्बन्ध और प्रगाढ़ होने की उम्मीद बंध रही है | 

Wednesday 9 November 2016

चुनौतियों के पहाड़ पर ट्रंप



किसी ने उन्हें  बड़बोला कहा तो किसी ने  उन्हें सनकी कहा । किसी ने  उन्हें महिलाओं के खिलाफ फब्तियां कसने वाला इंसान बताया तो  किसी ने उन्हें राजनीति  के मैदान का नोविस बताया । किसी ने उन्हें मुसलमानों का विरोधी बताया तो किसी ने उन्हें नस्लवादी के साथ घोर राष्ट्रवादी बताने से भी गुरेज नहीं किया लेकिन अमरीका के 45 वें राष्ट्रपति बनने से डोनाल्ड ट्रंप को कोई नहीं रोक पाया और जब यह खबर पूरी दुनिया ने सुनी तो मीडिया से लेकर तमाम  राजनीतिक पंडितों और हस्तियों  के  सारे अनुमान झटके में ध्वस्त  हो गए । अमरीकन मीडिया भी इस चुनाव में हिलेरी को जिस तरह नायक बनाकर  बैठा था उसे भी सहसा यकीन नहीं हुआ आखिर हारी हुई  बाजी ट्रंप ने कैसे जीत ली ?  

डॉनल्ड ट्रंप ने अमरीका के चुनाव में  धमाकेदार  वापसी कर सबको गलत साबित कर दिया और  इतिहास में हिलेरी की पहली महिला राष्ट्रपति बनने के अरमानों को भी उन्होंने पानी  में बहा दिया । अमरीका के आम नागरिक का मानना है चुनाव मीडिया के एक्जिट पोल में नहीं लडे जाते । अगर ऐसा होता तो हिलेरी पहले हीं राष्ट्रपति बन जाती  शायद दूसरी बार उनकी दावेदारी के आस पास ट्रंप भी नहीं फटकते  । आज वक्त का तकाजा देखिये  मोनिका लेविस्की के प्रकरण में जिस बिल क्लिंटन को अमरीका  के अख़बारों ने नायक बनाया उनकी  पत्नी हिलेरी के बहुत आगे होने का प्रोपेगेंडा  भी उसी अमरीकी मीडिया में देखने को मिला लेकिन अबकी बार वहां की मीडिया ने  जिस ट्रंप को राष्ट्रपति बनने लायक  तक नही माना आज व्हाइट हाउस के दरवाजे  उसी के  लिए  खुलने जा रहे हैं और वह अगले बरस  20 जनवरी को  शपथ ग्रहण करने जा रहे  है । 

अमरीका का इस बार का चुनाव कई मायनो में दिलचस्प रहा ।  इस चुनाव में जहाँ डेमोक्रेट पार्टी  के सामने लगातार तीसरी  बार हैट्रिक  जीत दर्ज करने की चुनौती खड़ी थी वही रिपब्लिकन ने  डेमोक्रेट्स को  हराने के लिए अपनी पूरी ताकत इस चुनाव में लगा दी  । हिलेरी क्लिंटन की अमेरिकन  पहली महिला राष्ट्रपति मिलने की मजबूत उम्मीदें ट्रंप ने एक झटके में  तोड़ दी । हिलेरी ने इस चुनाव में अपनी सारी उर्जा जहाँ  ट्रंप  घेरने  में खर्च कर दी वहीँ  ट्रंप ने अमरीका के मूल मुद्दों को राष्ट्रवाद तले  जोड़ते हुए एक सधी कैम्पेनिंग की और ओबामा की नाकाम नीतियों को कटघरे में खड़ा करके लोगों के बीच अमरीका हितों  की रक्षा करने का सीधा शिगूफा छोड़ा  | ओबामा के  हिलेरी के पक्ष में झुकाव दिखाने की अपील का भी व्यापक असर इस चुनाव में नजर नहीं आया ।   ट्रंप ने ओबामा की नीतियों पर सीधा वार करते हुए कहा कि पिछले 4  साल में ओबामा की लोकप्रियता का ग्राफ घटा है और चुनाव से पूर्व उनके  द्वारा किये गए वादे  भी पूरे नहीं हुए हैं लिहाजा अमेरिकी नीतियों के मामले में भारी अव्यवस्था देखने को मिली है जिसका परिणाम बढती बेरोजगारी के रूप में सबके सामने आया है ।  ट्रंप की  पूरी चुनावी कम्पैनिंग अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डगमगाती हालात , बेरोजगारी ,इस्लामी आतंकवाद  के इर्द गिर्द ही घूमी  |  आर्थिक नीतियों की यही दुखती रग थी जो ओबामा की सबसे बड़ी मुश्किल इस दौर में बन गयी थी  है क्युकि चार साल पहले जिन उम्मीदों के साथ अमेरिकी जनता ने उन्हें राष्ट्रपति चुना था वह उम्मीदें बिगड़ी अर्थव्यवस्था के चलते धराशाई  हो गई  | ओबामा के दौर में 200 8  से अब तक जी डी  पी महज 15 प्रतिशत बढ़त पा सका  । मंदी  का दौर खत्म  होने के बाद भी घरेलू आय में उतनी वृद्धि नहीं हो सकी जितनी होनी चाहिए थी । 

अमेरिकी आर्थिक नीतियां जहाँ इस दौर में पटरी से उतरी दिखी वहीँ संघीय खर्चो पर बीते चार बरस में पहली बार नकेल कसी हुई दिखी  जिसकी सीधी मार विकास दर पर पड़ी | नए रोजगार पैदा नहीं हो पा रहे थे और रोजगार आउटसोर्स हो रहे थे जिनके चलते अमरीकी लोगों को रोजगार के समान अवसर नहीं मिल पा रहे थे  । युवा रोजगार अमरीका की सबसे बड़ी चुनौती थी जिस पहेली का हल  ओबामा भी अपने दूसरे कार्यकाल में नहीं खोज सके ।   यही नहीं अमेरिका में बेरोजगारी के लगातार बढ रहे आंकड़ो ने भी  हाल के वर्षो में ओबामा के सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा किया |  ब्यूरो ऑफ़ लेबर स्टेटिक्स द्वारा बताये गए आंकड़े भी भयावहता की तस्वीर आँखों के सामने पेश कर रहे थे  | ऐसे में ट्रंप के सामने बड़ी चुनौती  है कि वह कैसे अमरीकी नागरिको को रोजगार दे पाते हैं ।  डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों कहा था कि गैर-अमेरिकियों की नौकरियों पर नियंत्रण करेंगे लेकिन यह कैसे साकार हो पायेगा अब यह मुश्किल चुनौती ट्रंप के सामने हो चली है । अवैध प्रवासियों का मुद्दा भी अमरीकी चुनाव में इस बार गरमाया ऐसे में ट्रंप  के जीतने के बाद अवैध प्रवासियों का क्या होगा यह भी एक बड़ा सवाल है क्योंकि अमरीकी अर्थव्यवस्था अप्रवासियों से चल रही है । ट्रंप  मानते भी हैं अवैध अप्रवासियों का अमरीका में बस जाना अपराध और आतंकवाद को बढ़ावा देता है । ऐसे में क्या इन सबको वर्क वीजा मिल पायेगा यह भी देखने लायक बात है क्योंकि इस मुद्दे ने ट्रंप  को अमरीका का नायक बनाया है ।

 अमेरिकियों का वोट पाने के लिए ट्रंप अमेरिकी युवाओं के लिए नौकरियों की बात तो की है लेकिन  क्या इसको अमली जामा जल्द पहनाया जा सकता है  ? अगर ऐसा होता है तो अमरीकियों की नौकरियां गैर-अमेरिकियों के हाथ में नहीं जायेंगी । आतंकवाद को लेकर  भी ट्रंप  की नीति देखने लायक होगी क्योंकि इस  चुनाव में इस्लामिक आतंकवाद और आई एस आई एस के आतंक को लेकर उन्होंने अमरीकियों के वोट बड़े पैमाने में पाए हैं । ऐसे में आतंक और विदेश नीति के मोर्चे पर भी ट्रंप  की नीति देखने लायक रहेगी । जहां तक हेल्थ केयर की बात है तो ट्रंप  इस स्वास्थ्य नीति को शायद खत्म कर दें क्युकि वह इसे अर्थव्यवस्था के लिए भारी बोझ मानते हैं ।  अमीरों को भी टैक्स में छूट दिए जाने की नीति का भी शायद ट्रंप अमली जाम पहनाएं क्योंकि वह खुद कारोबारी जगत से जुड़े हैं ।  ट्रंप को वैसे तो आउटसाइडर कहा गया था लेकिन उन्होंने साबित कर दिया कि  वह इनसाइडर हिलेरी  से बेहतर हैं  । 

इस चुनाव में 29 राज्यों पर ट्रंप का सिक्का मजबूती के साथ चला । स्विंग स्टेट पर भी उन्होंने अपनी मजबूत पकड़ दिखाई । न्यू जर्सी से लेकर ओहायो , फ्लोरिडा से लेकर नार्थ कैरोलीना हर जगह रिपब्लिक गढ़ नजर आया । हिलेरी क्लिंटन के साथ सबसे बड़ी दिक्कत भरोसे और क्रेडिबिलिटी  की रही । शुरुवाती बहसों में तो उन्होंने  ट्रंप पर बढ़त बना ली लेकिन अंतिम बहस से ठीक पहले  हिलेरी के ईमेल स्कैंडल ने इतना तूल पकड़ा कि डेमोक्रेट इस मसले पर बैकफुट पर आ गए  ।निजी ईमेल सर्वर के इस्तेमालसे जुड़े मामले में जांच फिलहाल शुरू करने की ऍफ़ बी आई प्रमुख की नीति ने अंतिम दौर में ट्रंप को मुकाबले में लाकर खड़ा किया और हिलेरी जाल में फँस गई । श्वेत लोगों और अल्पसंख्यकों, शहरियों और ग्रामीणों, मजदूरों और बड़ी नौकरियां करने वालों के बीच बढ़ती खाई का  ट्रंप ने  भरपूर फायदा उठाया । निजी ईमेल विवाद से लेकर अपने पारिवारिक फाउंडेशन को मिले धन के इस्तेमाल तक लगातार उनके सामने ऐसे विवाद आए जो खुद डेमोक्रैट्स को परेशान करते रहे ।

 ट्रंप  ने डेमोक्रेट के गढ़ में तो सेंध लगाई साथ ही श्वेत मतदाता का बड़ा हिस्सा ट्रंप के पक्ष में लामबंद होता दिखा जिसमे किसानों से कामकाजी वर्ग का बड़ा वोट शामिल रहा जिनकी नब्ज को ट्रंप  ने अपनी रैलियों में भी बखूबी पकड़ा और चुनाव में खूब पसीना बहाया । अमरीकी लोग अर्थव्यवस्था और अमेरिका के विदेशों में प्रदर्शन से संतुष्ट नहीं थे ।  ट्रंप ने  इनको बड़ा मुद्दा बनाया और अपनी नाव पार लगा दी ।

इस चुनाव में  ट्रंप  ने अपना एजेंडा साफ़ करते हुए कहा है रोजगार के अवसर ज्यादा बढ़ाना उनकी पहली प्राथमिकता रहेगी | | जहाँ तक हाल के वर्षो में ओबामा की विदेश नीति का सवाल है तो इस मोर्चे पर पहली बार ओबामा ने नई लीक पर चलने का साहस  दिखाया  | वह ऐसे पहले राष्ट्रपति रहे जिसने मुस्लिम राष्ट्रों का दौरा कर उनके साथ बीते दौर के गिले शिकवे भुलाकर एक नई  पारी की शुरुवात कर जताया  है कि अमरीका सभी देशो के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व कायम करने की अपनी नीति का पक्षधर रहा है | यही नहीं अपने धुर विरोधी चीन, रूस की यात्रा द्वारा ओबामा ने यह जताया है कि वह बदलते दौर  के मद्देनजर खुद को बदलने के लिए बेकरार खड़ा है | दुनिया के सभी देश बदल रहे हैं अतः उसे भी बदलना होगा नहीं तो यूरोप की तरह वह भी अर्श से फर्श पर आ सकता है |  लेकिन  ट्रंप  मुस्लिमो के खिलाफ कई भड़काऊ बयान देते रहे हैं । चीन और मेक्सिको को  वह चुनाव प्रचार  में लताड़ लगा चुके हैं वहीँ ओबामा की ईराक और अफगानिस्तान की नीति पर और पूरी  विदेश नीति को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं । 

उन्होंने बराक ओबामा के शासन की विदेश नीति पर जो सवाल उठाए और आइएसआइएस के गुप्त समर्थन तक के आरोप लगाए अब  इस मसले पर ऊँट किस करवट बैठता है यह देखना होगा ? रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने ट्रंप की जीत पर बधाई देकर एक नई शुरुवात की है । बड़ा सवाल है क्या इस जीत के बाद रूस और अमरीका का शीत युद्ध  थम जाएगा और सीरिया के संकट पर और बगदादी के खात्मे को लेकर कोई रजामंदी हो सकती है ?   ट्रंप  चीन को अमरीका के लिए बड़ा खतरा मानते रहे हैं और मेक्सिको की ड्रैग और तस्करी की दीवार को ध्वस्त करना चाहते हैं  |  

                   इस चुनाव पर पूरी दुनिया के साथ भारत की नजरें भी लगी हुई हैं | अगर ओबामा ने भारत को एशिया  में बड़ा साझीदार माना है तो वहीँ रिपब्लिकन भी इस सच को नहीं झुठला सकते क्युकि बुश के कार्यकाल में ही पहली बार भारत और अमरीका की दोस्ती वाजपेयी के दौर में ही परवान चढ़ी  थी | उस दौर में इंडो यू एस  न्यूक्लियर डील को अंजाम दिया गया था जो आज मोदिनोमिक्स  की  छाँव  तले आर्थिक सुधारो यानी  एफ डी आई तक आगे बढ़ चुकी है जहाँ पूरा  बाजार अमरीकी कंपनियों के हवाले है और भारत अमरीकी सम्बन्ध सबसे बेहतर दौर में हैं । यकीन जानिए आज के दौर में अगर अमेरीका की  सबसे बड़ी जरुरत भारत है क्युकि वह आज वह एशिया की उभरती ताकत है शायद इसी के चलते वहां के दोनों दल आज भारत को उसका एक बड़ा साझीदार मानने से गुरेज नहीं करते |चीन की घेरेबंदी के लिए भी भारत को साधना अमरीका की आज बड़ी जरूरत बन चुकी है ।  जहां तक भारत  अमरीकी संबंधों का सवाल है तो  ट्रंप  ने मोदी की तारीफों के कसीदे पड़कर भारतीय समुदाय का पुरजोर  समर्थन इस चुनाव में पाया है ।  भारतीयों ने खुलकर  ट्रंप को वोट दिया है । ट्रंप भारतीयों की नौकरी अब छीनेंगे या ऍफ़ डी  आई के रास्ते भारत के बाज़ार में  सेंधमारी कर अमरीकी अर्थव्यवस्था में कुलांचे मारेंगे यह देखने  लायक बात रहेगी । 

उनकी सबसे बड़ी कामयाबी आतंकवादियों के विरुद्ध कड़े रुख को दिखाने की  होगी  जिसमे  इस्लामिक आतंक के खिलाफ उनकी नीति  उनकी भावी प्राथमिकताओं  को तय करेगी ।  पाकिस्तान को वह आतंक का सबसे  बड़ा गढ़ बताते रहे हैं । इस मसले पर वह क्या रुख अपनाएंगे यह भी देखना होगा क्युकि अमरीका की हर बरस दी जाने वाली  इमदाद से ही पाकिस्तान का हुक्का पानी चलता रहा है और रिपब्लिकन कई बार ओबामा प्रशासन को इस मसले पर घेरते रहे हैं ।

 ट्रंप तो कई बार यह भी कह चुके हैं कि पकिस्तान के परमाणु हथियार सुरक्षित नहीं हैं । ऐसे में पाक के प्रति उनके हर रुख पर पूरी दुनिया की नजर रहेगी । बहरहाल जो भी हो यह सच है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ट्रंप की जीत राष्ट्रवाद की जीत है ।  पुरी दुनिया की नजरें अब ट्रंप पर हैं क्युकि अगले बरस व्हाइट  हॉउस उनके स्वागत के लिए बेक़रार है । 

Sunday 6 November 2016

गैस चैम्बर में तब्दील हुई दिल्ली



जिस समय पूरा देश दिवाली के  पटाखों के शोर  शराबे में मशगूल था उसकी अगली सुबह राजधानी दिल्ली धुंध की चादर से सरोबार हो उठी । दिल्ली  के सभी इलाकों में दिवाली बीतने के बाद  लोगों का घरों  से निकलना  मुश्किल हो गया  क्योंकि दिल्ली ने प्रदूषण के सभी रिकॉर्ड  तोड़ दिए  । जिधर देखो वहां धुंध की चादर दिखाई दे रही है । आँखों से पानी आ रहा है तो खांसी  ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है । लोगों को अपने काम पर जाने में दिक्कतों से दो चार होना पड़ रहा है वहीँ यह प्रदूषण  का खतरनाक स्तर  छोटे बच्चों के लिए घातक  है लिहाजा स्कूल बंद करने को मजबूर  होना पड़  रहा  है  । वैज्ञानिको का साफ़ मानना है कि  दिल्ली की आबो हवा में इतना जहर घुल गया है  कि अब यहाँ जीना मुश्किल होता जाएगा और  जहरीले प्रदूषण  की  गिरफ्त  आने वाला हर इंसान सांस , हार्ट की कई बीमारियों का शिकार हो  जायेगा । 

दिल्ली में हाल कितने बुरे हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण  मापने का जो पैमाना बनाया है पी  एम 2.5  का स्तर  प्रतिघन मीटर  10 माइक्रो ग्राम से अधिक नहीं  होना चाहिए लेकिन एम्स से लेकर धौलाकुआँ , सफदरजंग से लेकर ग्रेटर कैलाश तक में यह  355 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर (एमजीसीएम) और एम्स में  पीएम  10 का स्तर 999  एमजीसीएम रिकॉर्ड हुआ जो कहीं न कहीं हमारे लिए खतरे की घंटी है ।उत्तम नगर वेस्ट से लेकर द्वारका और पीतमपुरा से लेकर इंद्रलोक हर जगह कमोवेश एक जैसे हालात हैं । विजिबिलिटी काम है और सफ़ेद धुंध की चादर ने दिल्ली को अपने आगोश में ले लिया है । दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार राजधानी दिल्ली  में  पीएम 2.5 और पीएम 10 का स्तर खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है । कई स्थानों में पीएम 2.5 का स्तर सामान्य से नौ गुना अधिक   तो पीएम 10 का स्तर सामान्य से सात गुना अधिक 743 क्यूबिक प्रति वर्ग मीटर भी पार कर गया है   । दिल्ली  में मौजूदा दौर में  सबसे अधिक प्रदूषित इलाका आनंद विहार बन गया  है  जहां एयर क्वालिटी इंडेक्स अक्सर 500 पार कर जा रहा है । दिनों दिन दिल्ली के इलाकों में  प्रदूषण के स्तर में भी बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है । केंद्र सरकार की संस्था  सिस्टम आफ एयर क्वालिटी एंड वेदर  फोरकास्टिंग एंड रिसर्च के अनुसार दीवाली पर आतिशबाजी के बाद खतरनाक पर्टिकुलेट मैटर यानी पीएम 2.5 का स्तर 507 तक पहुंच गया, जबकि पीएम 10 का स्तर 550 तक था अगर पीएम 2.5 और पीएम 10 का स्तर 400 से ज्यादा होता है तो प्रदूषण का स्तर बेहद ही खतरनाक हो जाता है । पी एम 2.5 हवा में किसी भी प्रकार के पदार्थ को जलाने से निकलने वाले धुंए से आता हैं। वाहनों के इंजन में पेट्रोल और डीजल के जलने से धुआं निकलता हैं, और इस धुंए में विभिन्न प्रकार के प्रदूषक होते हैं, जिनमें पी एम 2.5 भी एक होता हैं। लकड़ी, गोबर के उपले, कोयला, केरोसिन तथा कचरा जलाने, फैक्टरी, सिगरेट से निकलने वाला धुंए में पी एम 2.5 की तादात अत्यधिक होती हैं। पी एम 2.5 कई प्रकार से हमारे स्वास्थ्य पर असर डालते हैं। छींक, खांसी, आंखों, नाक, गले और फेफड़ों में होने वाली जलन का कारण पी एम 2.5 भी हो सकता हैं। लंबे समय तक पी एम 2.5 की अधिकता वाली प्रदूषित हवा मे रहने से अस्थमा, फेफड़ों तथा हृदय संबंधी बीमारी होने की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती हैऔर  यही बीमारिया बाद में मौत का कारण बनती है। पी एम 2.5 से होने वाली बीमारी का खतरा बूढ़े और बच्चो में अत्यधिक होती हैं।

भारत में शहरों में रहने वालों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं। वाहनों, फैक्टरी तथा कचरा जलाने से निकलने वाला धुआँ शहरों में पी एम 2.5 का मुख्य स्रोत होता हैं। आज विश्व के 20 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में भारत के 14 शहर आते हैं। देश के ज़्यादातर शहरो मे पी एम 2.5 का स्तर सरकार द्वारा निर्धारित किए गए मानको से कहीं  अधिक  है।पी एम 2.5 हमारी आस पास की हवा में घुला एक ऐसा अदृश्य जहर हैं, जो प्रति वर्ष विश्व के लगभग 80 लाख लोगो की मौत का कारण बनता हैं। हिंदुस्तान में हर वर्ष लगभग 8 00,000 लोग सिर्फ पी एम 2.5 से होने वाली बीमारियो के कारण मारे जाते हैं। देश मे सबसे ज्यादा मौते सांस और हाई ब्लड प्रेशर के कारण होती हैं, तथा घर के अंदर खाना पकाने के लिए लकडियो, गोबर के उपले, व केरोसिन से निकलने वाले धुंए से उत्पन्न पी एम 2.5 मौत दूसरा सबसे बड़ा  कारण हैं। सिगरेट पीना और खाने मे पोषक तत्वों की कमी देश मे होने वाली मौतों का तीसरा व चौथा सबसे बढ़ा कारण हैं। पाँचवा बढ़ा कारण बाहर की हवा में उपस्थित पी एम 2.5 हैं जो गाड़ियों, फैक्टरी और कचरा जलाने से निकलने वाले धुंए से आता हैं। 

दिल्ली में वायु प्रदूषण क्यों बढ़ता जा रहा है और इसको रोकने के लिये सरकार की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं? दशकों से यह बात देखने में आ रही है कि दिल्ली की आबोहवा की फ़िक्र सरकारों और नीति नियंताओं को नहीं है । प्रदूषण को लेकर आज एक जनांदोलन की ज़रूरत है जिसकी शुरुवात आम आदमी से होनी चाहिए । दिल्ली में डीजल से चलने वाले वाहनों पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है । सार्वजनिक परिवहन यहाँ पर दूर की गोटी है । साल दर साल वाहनों की संख्या यहाँ पर बढती जा रही है । एक परिवार में अगर 5 सदस्य हैं तो सबके अपने अपने वाहन हैं जिससे वो आते जाते हैं । निजी वाहनों की संख्या यहाँ  80  लाख से भी ज्यादा हो चली है जो दिल्ली की साँसों में जहर घोल रही है । कई साल पुराने डीजल से चलने वाले वाहन  दिल्ली की फिजा में फर्राटा भर रहे हैं जो सबसे अधिक प्रदूषण का कहर बरपा रहे हैं ।  चाइना  और जापान जैसे देशों में पी एम 2. 5 अगर सामान्य स्तर को पार कर जाता है तो वहां की सरकारें जनता के स्वास्थ्य के प्रति संजीदा हो जाती हैं और कड़े फैसले लेती हैं । चीन में कार्बन उत्सर्जन का मुख्य कारक कोयला रहा इसलिए उसने साल 2017 तक कोयले के इस्तेमाल में 70 प्रतिशत तक कटौती करने का लक्ष्य रखा है और उसने बीते एक साल में ही यह निर्भरता काफी कम कर दी है। चीन में अब ऊर्जा की जरूरतों को बिजली और गैर-जीवाश्म ईंधनों से पूरा करने की कोशिश की जा रही है। चीन में  हैवी इंडस्ट्री को बंद किया जा रहा जो कोयले पर आधारित हैं। चीन ने 2020 तक कोयला मुक्त होने का लक्ष्य बनाया है । चीनी सरकार ने  जब यह देखा कि बीजिंग और उसके बाकी बड़े शहरों का दम घुटने लगा है तो उसने ऑनलाइन एयर रिपोर्टिंग की व्यवस्था शुरू की। चीन में अब 1500 साइट्स से पल्यूशन के रियल टाइम आंकड़े हर घंटे जारी किए जाते हैं। चीनी सरकार भी नियमित तौर पर शहरों की एयर क्वॉलिटी की रैंकिंग जारी करती है। साथ ही लोगों को भी समय-समय पर ये डाटा चेक करते रहने की सलाह जारी की जाती है।  2015 में  चीन में पर्यावरण प्रोटेक्शन कानून सख्ती से लागू हैं। चीन में ये कानून अब इतना कड़ा है कि प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों पर जुर्माने करने की कोई सीमा नहीं रखी गई है। कई बड़ी कंपनियों पर जुर्माना भी लगाया गया है । गैर-लाभकारी संगठन प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ जनहित मुकद्दमे दायर कर सकते हैं। स्थानीय सरकारों पर भी इन कानूनों को सख्ती से लागू कराने का दायित्व है। चीन ने 2017 तक ऐसी सभी गाड़ियों को सड़क से बाहर करने का लक्ष्य रखा है जो साल 2005 तक रजिस्टर्ड हुई हैं। जापान में भी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को मजबूत किया गया है । ये सभी देश ट्रैफिक जाम सपोरी तरह मुक्त हैं और क्लोरो फ्लूरो कार्बन का उत्सर्जन काम करने  अपना जोर लगा रहे हैं । क्या हम भारत में एक परिवार एक वाहन का फॉर्मूला नही ला सकते ?

चीन सरकार ने आने वाले 5 सालों में पेइचिंग, शंघाई और बीजिंग जैस शहरों में गाड़ियों की संख्या को निश्चित कर बड़ी कटौती करने की योजना बनाई हुई है लेकिन भारत में क्या होता है यह हम सब जानते हैं । केंद्र और राज्य सरकारें आपसी कलह में उलझी रहती हैं  और अदालती फटकार का इंतजार करती हैं ।   नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल समय-समय पर वायु प्रदूषण की हालत को लेकर बीते कई  बरसों  में चिन्ता प्रकट करता रहता है लेकिन इसके नियंत्रण को लेकर एनजीटी के आदेश को दिल्ली और देश के दूसरे राज्य टाल-मटोल रवैया अपनाते हैं जिससे प्रदूषण की समस्या का समाधान दूर की कौड़ी बनता जा रहा है ।  असल में अंधाधुंध विकास को लेकर हमने बीते कई बरसों में बहुत तेजी दिखाई है । दिल्ली में बड़े बड़े फ्लाईओवर बनाये गए हैं तो मालों का नया कल्चर देखने में आया है । फैक्ट्रिया शहरी आबादी वाले इलाकों में जहर घोलने का काम कर रही हैं । दिल्ली की सीमा में हर राज्य के भारी वाहन और ट्रक सामन ढो रहे हैं जिनसे कई गुना प्रदूषण  बढ़ रहा है ।  गुड़गाँव, फरीदाबाद, नोएडा  सरीखे शहर भी आज सुरक्षित नहीं  हैं । यहाँ पर प्रदूषण का लेवल सबसे अधिक हो चला है क्युकि बीते कई  दशको में यहाँ  विकास ने कुलांचे सबसे अधिक मारे हैं और जमीनों का अधिग्रहण सबसे अधिक यही  हुआ है और चमचमाते  विकास ने यही फर्राटा भरा है । हरियाली ख़तम हो गई  है और कंक्रीट का जंगल यही बना है ।  दिल्ली में तो रियल स्टेट का धंधा ऐसा चला है कि हर सोसायटी में ब्रोकरो  की बाढ़ आ गई और बिल्डर और राजनेताओं के नेक्सस ने ऐसी लूट मचाई कि पर्यावरण की तो मानो धज्जियाँ ही उड़ गई । चार्वाक  दर्शन की तरह महानगर भी अब  खाओ पियो और मौज करो में यकीन रख रहे हैं । रही  सही कसर उन उद्योगों ने पूरी कर दी जिनसे निकलने वाले कचरे ने आम आदमी के सामनेमानो  बीमारियों की बाढ़ लगा दी है । 

हाल के समय में दिल्ली की आबोहवा खाराब होने के पीछे कारण यही बताया यही जा रहा है कि यह सब पटाखो के शोर और हरियाणा , राजस्थान  और पंजाब जैसे राज्यों में किसानों के पराली जलाने के चलते हुआ है । दिवाली पर यह सबको पता है कि पटाखों के शोर से वायुमंडल प्रदूषित होता है तो ऐसा कुछ नहीं किया गया जिससे पटाखे कम छुडाये जा सके । साथ ही दिल्ली केपड़ोसी राज्यो को ऐसा कुछ करना था जिससे पराली के जलाने पर सख्ती लग सके । हमारी सबसे बड़ी कमी यही है जब पानी सर से ऊपर बहता है तब हम जागते हैं ।  सडकों पर वाहनों के बोझ को कम करने के लिए दिल्ली सरकार ने कुछ दिन के लिए इवन आड  स्कीम को लागू  किया लेकिन रात में दिल्ली की सीमा में घुसने वाले ट्रको के कारण दिल्ली की आबोहवा विकृत हो जाती थी । दिन में तो मामला ठीक रहता था लेकिन रात में प्रदूषण का स्तर दिन के स्तर से कई गुना ज्यादा हो जाता था इसलिए यह योजना भी उतनी कारगर नहीं रही जितना आम आदमी पार्टी ने इसे प्रचारित कर दुनिया में लोकप्रियता बटोरी । इवन आड  के बजाये  अब सरकार को सार्वजनिक परिवहन दुरुस्त करने पर जोर देना चाहिए । डीजल के वाहनों पर रोक लगनी भी जरूरी है ।साथ ही मेट्रो के फेरे  महानगरों में बढाये जाने की जरूरत है जिससे आम आदमी भी सुरक्षित सफर कर सके । 

यूरोप में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने के लिये मुफ्त सेवाएँ मुहैया कराई जा रही हैं। भारत को भी इस पर ध्यान देने की जरूरत है। हैरत की बात यह है कि  प्रदूषण को लेकर सरकारों को कोर्ट ने बीते कई बरसों से आगाह किया है लेकिन इसके बाद भी उनसे हालात नहीं सँभलते ।वायु प्रदूषण से जुडी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के सबसे अधिक 20 प्रदूषित शहरों में 13 शहर भारत के है जिनमे दिल्ली के साथ इलाहाबाद , पटना ,कानपुर , रायपुर सरीखे शहर भी शामिल है जहाँ हाल के बरसों में चमचमाती अट्टालिकाओं को विकास का अत्याधुनिक पैमाना मान लिया गया है ।  यूनिसेफ की हाल की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 30  करोड़ बच्चे यानि 7 में एक बच्चा सांस लेने की बीमारी से ग्रस्त है । अब तक पांच साल से कम उम्र  के तकरीबन 63 करोड़ बच्चो की मौत वायु प्रदूषण  से हो चुकी है जिनमे से अधिकतर मामले उत्तर भारतीयों से जुड़े पाए गये हैं । राजधानी दिल्ली में हुआ हालिया एक सर्वे यह बताता है कि दिल्ली में हर तीसरे व्यक्ति का फेफड़ा खराब हो चुका है ।  

भारत में वायु प्रदूषण आज मौत का बड़ा कारण भी बन गया है । वर्तमान स्थिति बेहद भयावह और चिंताजनक है, भारत में वायु प्रदूषण के कारण हर 23 सेकंड में एक जान जा रही है। इस दिशा में जागरूकता लाने का काम  गेल इंडिया और गुड़गांव के स्टार्टअप सोशल क्लाउड वेंचर्स ने किया है । उन्होंने 'टाइम बॉम्ब' नाम से वीडियो लांच किया है, जिसमें 2030 का नजारा दिखाया गया है कि यदि हमने अब भी स्वच्छ ईंधन का प्रयोग करना नहीं शुरू किया तो आने वाले समय में दुनिया के लिए वायु प्रदूषण एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है।  दरअसल हम जिस हवा में सांस ले रहे हैं और हमने अभी भी नहीं चेते  तो हमारा भविष्य भयावह होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी किये गए आकड़ों के मुताबिक प्रदूषण के कारण भारत में 1.4 मिलियन लोगों की असामयिक मृत्यु हो रही है। यानी हर 23 सेकंड में वायु प्रदूषण के कारण एक जान चली जाती है। जिस ईंधन का प्रयोग आज हम करते हैं, वह भी वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है। 2030 आने तक प्रदूषकों से हवा इतनी जहरीली हो जाएगी कि ऑक्सीजन किट के बिना जीवन मुश्किल होगा। फ़िलहाल प्राकृतिक गैस जैसे स्वच्छ ईंधन प्रदूषण कम करने का एकमात्र विकल्प है। जिन ईंधनों का प्रयोग आज हम करते हैं  वह वातावरण में भारी मात्रा में कार्बन डाइआॅक्साइड, सल्फर डाइआॅक्साइड, नाइट्रोजन आॅक्साइड  का उत्सर्जन करते हैं जो हवा को बुरी तरह से प्रदूषित करते हैं। हम ईंधनों के प्रयोग को बंद नहीं कर सकते क्योंकि उद्योगों का एक बड़ा हिस्सा इन पर ही चल रहा है लेकिन हम निश्चित तौर पर उनके प्रयोग को बदलकर हम जीवाश्म ईंधन  की दिशा  मजबूती के साथ बढ़  सकते हैं जो काफी  सस्ता  है और फेफड़ों के लिए भी नुकसानदेह नहीं हैं।  यदि प्रदूषण को यहीं पर नहीं रोका गया तो राजधानी दिल्ली की तरह कई शहरों का हाल  बुरा होगा । नासा की हाल में जारी तस्वीरें  दिल्ली में प्रदूषण  की पोल खोल रही है ।  

दिल्ली की हवा में जहर  कैसे कम  हो आज काम इस पर  जरूरत है । आज देश में लाखो  कारें प्रतिमाह बिक रही हैं । हर घर में वाहनों का रेला  देखा जा सकता है । सरकारों को आज  सार्वजनिक परिवहन को दुरुस्त  करने की जरूरत है । दिल्ली की बात करें तो यहाँ पर सरकार को  डीजल से चलने वाली गाड़ियों और ट्रको पर अंकुश लगाने की दिशा में बढ़ना चाहिए । उद्योगों के साथ बड़ी प्रदूषण  की वजह यही हैं ।  लोगो को अपने वाहनों के सुख के बजाय मेट्रो या फिर  सी एन  जी बसों का प्रयोग करने पर जोर देना  चाहिए । सरकारों को चाहिए राजधानी  की सडको पर वह वाहनों के भारी बोझ को कम करने की दिशा  एक्शन प्लान बनाये । अगर अनियंत्रित वाहनों की रफ़्तार  उसने थाम ली तो ट्रैफिक जाम से मुक्ति मिल जायेगी और प्रदूषण  के खिलाफ यह पहला कदम होगा जिसमे जनभागीदारी की मिसाल देखने को मिलेगी ।  अकेले कोई  सरकार  प्रदूषण पर काबू नही पा सकती  ।  इसके लिये सरकार के साथ-साथ लोगों को भी सामने आगे आना होगा । पर्यावरण को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते क्युकि मानव जीवन की बुनियाद पर्यावरण पर ही टिकी है । अगर प्रकृति की अनदेखी होती रही तो मानव सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है ।

Sunday 30 October 2016

दीवाली : प्रकाश पर्व की धूम





हिन्दू परंपरा में त्यौहार से आशय  उत्सव और  हर्षोल्लास से लिया जाता है ।  अपने देश की बात  की जाए  तो यहाँ मनाये जाने वाले त्योहारों में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं । यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहार कमोवेश परिस्थिति के अनुसार अपने रंग , रूप और आकार में भिन्न हो सकते हैं लेकिन इनका अभिप्राय आनंद की प्राप्ति ही होता है । अलग अलग धर्मों में त्यौहार मनाने के विधि विधान भिन्न हो सकते हैं लेकिन सभी का मूल मकसद बड़ी आस्था और विश्वास  का संरक्षण होता है । सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा जुडी हुई है  जिनमे से सभी का सम्बन्ध आस्था और विश्वास से है । यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है इन त्योहारों की  पौराणिक कथाएँ भी प्रतीकात्मक होती हैं । कार्तिक मॉस की अमावस के दिन दीवाली का त्यौहार मनाया जाता है । दीवाली का त्यौहार महज त्यौहार ही नहीं है इसके साथ कई पौराणिक गाथाए भी  जुडी हुई हैं  ।

दीवाली की शुरुवात आमतौर पर कार्तिक मॉस की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होती है जिसे धनतेरस कहा जाता है । इस दिन आरोग्य के देव धन्वन्तरी की पूजा अर्चना का विधान है । इसी दिन भगवान  को प्रसन्न  रखने के लिए नए नए बर्तन , आभूषण खरीदने का चलन है । यह अलग बात है मौजूदा दौर में  बाजार अपने हिसाब से सब कुछ तय कर रहा है और पूरा देश चकाचौंध के साये में जी रहा है जहां अमीर के लिए दीवाली ख़ुशी का प्रतीक है वहीँ गरीब आज भी दीवाली उस उत्साह और चकाचौध के साये में जी कर नहीं मना  पा रहा है जैसी उसे अपेक्षा है क्युकि समाज में अमीर और गरीब की खाई दिनों दिन गहराती ही जा रही है । 

 धनतेरस के दूसरे दिन नरक चौदस मनाई जाती है जसी छोटी दीवाली भी कहते हैं । इस दिन किसी पुराने दिए में  सरसों के तेल में पांच  अन्न के दाने डालकर घर में जलाकर रखा जाता है जो दीपक यम दीपक कहलाता है । ऐसा माना जाता है इस दिन कृष्ण ने नरकासुर रक्षक का वध कर उसके कारागार से तकरीबन 16000 कन्याओं को मुक्त किया था । तीसरे दिन अमावस की रात दीवाली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाया जाता है । इस दिन गणेश जी और लक्ष्मी की स्तुति की जाती है । दीवाली के बाद अन्नकूट मनाया जाता है । लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं । पौराणिक मान्यता है कृष्ण ने नंदबाबा और यशोदा और ब्रजवासियों को इन्द्रदेव की पूजा करते देखा ताकि इन्द्रदेव ब्रज पर मेहरबान हो जाये तो उन्होंने ब्रज के वासियों को समझाया कि जल हमको गोवर्धन पर्वत से मिलता है जिससे प्रभावित होकर सबने गोबर्धन को पूजना शुरू कर दिया । यह बात जब इंद्र को पता चली तो वह आग बबूला हो गए और उन्होंने ब्रज को बरसात से डूबा देने की ठानी  जिसके बाद भारी वर्षा का दौर बृज में देखने को मिला ।  सभी  रहजन कृष्ण के पास गए और तब कान्हा ने तर्जनी पर गोबर्धन पर्वत उठा लिया । पूरे सात दिन तक  भारी वर्षा हुई पर ब्रजवासी गोबर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे । सुदर्शन चक्र ने उस दौर में बड़ा काम किया और वर्षा के जल को सुखा दिया । बाद में इंद्र ने कान्हा से माफ़ी मांगी और तब सुरभि गाय ने कान्हा का दुग्धाभिषेक किया जिस मौके पर 56 भोग का आयोजन नगर में किया गया । तब से गोबर्धन पर्वत और अन्नकूट की परंपरा चली आ रही है । 


 शुक्ल द्वितीया को भाई दूज मनायी जाती है । मान्यता है यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज आस पास भी नहीं फटकते । दीवाली में दिए जलाने की परंपरा उस समय से चली आ रही है जब रावन की लंका पर विजय होने के बाद राम अयोध्या लौटे थे । राम के आगमन की ख़ुशी इस पर्व में देखी जा सकती है । जिस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या लौटे थे उस रात कार्तिक मॉस की अमावस थी और चाँद बिलकुल दिखाई नहीं देता था । तब नगरवासियों में अयोध्या को दीयों की रौशनी से नहला दिया । तब से यह त्यौहार धूमधाम से  मनाया जा रहा है । ऐसा माना जाता है दीवाली की रात यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हस परिहास करते और आतिशबाजी से लेकर पकवानों की जो धूम इस त्यौहार में दिखती है वह सब यक्षो की ही दी हुई है । वहीँ कृष्ण भक्तों की मान्यता है इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राक्षस नरकासुर का वध किया था । इस वध के बाद लोगों ने ख़ुशी में घर में दिए जलाए । एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान् विष्णु ने नरसिंह रूप धारण कर हिरनकश्यप का वध किया था और समुद्र मंथन के पश्चात प्रभु धन्वन्तरी और धन की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई जिसके बाद से उनको खुश करने के लिए यह सब त्योहार के रूप में मनाया जाता है । वहीँ  जैन मतावलंबी मानते हैं कि जैन धरम के 24 वे तीर्थंकर महावीर का निर्वाण दिवस भी दिवाली को हुआ था । बौद्ध मतावलंबी का कहना है बुद्ध के स्वागत में तकरीबन 2500 वर्ष पहले लाखो अनुयायियों ने दिए जलाकर दीवाली को मनाया । दीपोत्सव सिक्खों के लिए भी महत्वपूर्ण है । ऐसा माना जाता है इसी दिन अमृतसर में स्वरण मंदिर का शिलान्यास हुआ था और दीवाली के दिन ही सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को कारागार से रिहा किया गया था । आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद  ने 1833 में दिवाली के दिन ही प्राण त्यागे थे । इस लिए  उनके लिए भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है । 



भारत के सभी  राज्यों में दीपावली धूम धाम के साथ मनाई जाती है । परंपरा के अनुरूप इसे मनाने के तौर तरीके अलग अलग बेशक हो सकते हैं लेकिन आस्था की झलक सभी राज्यों में दिखाई देती है । गुजरात में नमक को लक्ष्मी का प्रतीक मानते हुए जहाँ इसे बेचना शुभ माना जाता है वहीँ राजस्थान में दीवाली के दिन रेशम के गद्दे बिछाकर अतिथियों के स्वागत की परंपरा देखने को मिलती है । हिमाचल में आदिवासी इस दिन यक्ष पूजन करते हैं तो उत्तराखंड में थारु आदिवाई अपने मृत पूर्वजों के साथ दीवाली मनाते  हैं । बंगाल में दीवाली को काली  पूजा के रूप में मनाया जाता है ।  देश के साथ ही विदेशों में भी दीवाली की धूम देखने को मिलती है । ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक में यह में दीवाली  धूम के साथ मनाया जाता है ।  विदशों में भी धन की देवी के कई रूप देखने को मिलते हैं । धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्रकट का दिन माना जाता है । भारतीय परंपरा उल्लू को लक्ष्मी का वाहन मानती है लेकिन महालक्ष्मी स्रोत में गरुण अथर्ववेद में हाथी को लक्ष्मी का वाहन बताया गया है  । प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू ही बताया गया है लेकिन प्राचीन यूनान में धन की अधिष्ठात्री देवी के तौर पर पूजी जाने वाली हेरा का वाहन मोर है । भारत के अलावा विदेशों में भी लक्ष्मी पूजन के प्रमाण मिलते हैं । कम्बोडिया में शेषनाग पर आराम कर रही विष्णु जी के पैर दबाती एक महिला की मूरत के प्रमाण बताते हैं यह लक्ष्मी है ।   प्राचीन यूनान के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की आकृति देखी जा सकती है । रोम में चांदी  की थाली में लक्ष्मी की आकृति होने के प्रमाण इतिहासकारों ने दिए हैं । श्रीलंका में भी पुरातत्व विदों  को खनन और खुदाई में कई भारतीय देवी देवताओं की मूर्तिया मिली हैं जिनमे लक्ष्मी भी शामिल है । इसके अलावा थाईलैंड , जावा , सुमात्रा , मारीशस , गुयाना , अफ्रीका , जापान , अफ्रीका जैसे देशों में भी इस धन की देवी की पूजा की जाती है । यूनान में आइरीन , रोम में फ़ोर्चूना , ग्रीक में दमित्री को धन की देवी एक रूप में पूजा जाता है तो  यूरोप में भी एथेना मिनर्वा औरऔर एलोरा का महत्व है ।  

   समय बदलने के साथ ही बाजारवाद के दौर के आने के बाद आज बेशक इसे मनाने के तौर तरीके भी बदले हैं लेकिन आस्था और भरोसा ही है जो कई दशकों तक परंपरा के नाम पर लोगों को एक त्यौहार के रूप में देश से लेकर विदेश तक के प्रवासियों को एक सूत्र में बाँधा है । बाजारवाद के इस दौर में  घरों में मिटटी के दीयों की जगह आज चीनी उत्पादों और लाइट ने ले ली है लेकिन यह त्यौहार उल्लास का प्रतीक तभी बन पायेगा जब हम उस कुम्हार के बारे में भी सोचें  जिसकी रोजी रोटी मिटटी के उस दिए से चलती है जिसकी ताकत चीन के सस्ते दीयों ने  आज छीन ली है ।  हम पुराना वैभव लौटाते हुए यह तय करें कि कुछ दिए उस कुम्हार के नाम  इस दीवाली में खरीदें जिससे उसकी भी आजीविका चले और उसके घर में भी खुशहाली आ सके । इस त्यौहार में भले ही महानगरों में आज  चकाचौंध का माहौल है और हर दिन अरबों के वारे न्यारे किये जा रहे हैं लेकिन सरहदों में दुर्गम परिस्थिति में काम करने वाले जवानों के नाम भी हम एक दिया जलाये जो दिन रात सरहदों की निगरानी करने में मशगूल हैं  और अभी भी दीपावली अपने परिवार से दूर रहकर मना  रहे हैं । इस दीवाली पर हम यह संकल्प भी करें तो बेहतर रहेगा यदि इस बार की दीवाली हम पौराणिक स्वरुप में मनाते हुए स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करें । पटाखों के शोर से अपने को दूर करते हुए पर्यावरण का ध्यान रखें और कुम्हार के दीयों से  अपना घर रोशन ना करें बल्कि समाज को भी नहीं राह दिखाए  तो तब कुछ बात बनेगी