Wednesday 26 June 2013

सिसकियों भरा सैलाब खण्ड - खण्ड उत्तराखण्ड



राजस्थान के मलैही  इलाके से ताल्लुख रखने वाले कल्याण बताते हैं केदारनाथ में हादसे वाले दिन जिस भवन में वह ठहरे थे सुबह होते ही उस भवन में दूसरी मंजिल तक पानी आ गया। जैसे-तैसे जान बचाकर वह तीसरी मंजिल की तरफ भागे लेकिन सैलाब इतना तेज था कि भागने पर पत्नी का हाथ छूट    गया और देखते-देखते वह भी उफनती हुई धाराओं में समा गई। साथ  में मौजूद उनके दल के दो सदस्य भी पानी की धारा के साथ बह गये। पानी का बहाव इतना तेज था कि पास खड़े तीन-चार खच्चर भी नदी के वेग से नहीं बच पाये।

  सूरत गुजरात से आये भीम केदार के द्वार पर मोक्ष की कामना लिये अपने पत्नी के साथ आये थे लेकिन प्रकृति के तांडव ने उनको भी नहीं छोड़ा। भयावह मंजर देखकर दिल का दौरा पड़ गया और पत्नी को मंदाकिनी की विशाल धाराओं ने अपने आगोश में ले लिया। राजस्थान के राधेश्याम ने तो इस सैलाब में अपने पूरे परिवार को ही खो दिया। उनकी आंखों से अभी भी आंसू आ रहे हैं वह सुध-बुध खो चुके हैं। अपनों के खोने के गम को उनकी सिसकती आंखें बता रही है। महाराष्ट्र के गोंदिया से आई साक्षी तो अपने दो साले के बच्चे को गोद में लेकर देवभूमि आई थी लेकिन उत्तरकाशी की एक पहाड़ी पर पूरी दो रातें उन्होंने घने अंधेरे में टार्च की रोशनी में बिताई जहां गन्दा पानी पिलाकर उन्होंने बच्चे की जान किसी  तरह बचाई।
   
रूद्रप्रयाग में खच्चरों का व्यापार करने वाले व्यापारी राकेश तो अपने साथी को अपने साथ लेकर 16 जून को केदार के दर पर पहुंचे थे। रात को बरसात शुरू हुई। 17 जून की सुबह तकरीबन 6 बजकर 55 मिनट पर गांधी सरोवर से पानी का ऐसा सैलाब आया कि उसके साथी और खच्चर मन्दाकिनी की कई फुट ऊंची धाराओं में बह गये। भारी अफरातफरी के बीच किसी तरह उन्होंने मंदिर के दरवाजे की आड़ ली और अन्दर प्रवेश किया। राकेश बताते हैं बारिश के कारण उस रात किसी ने महामृत्युंजय का जाप किया तो किसी ने आरतियां  और भजन गाकर  छ्त्र  पकड़कर रात काटी लेकिन प्रकृति  की तांडव लीला के आगे किसी की एक नहीं चली। वह लोग खुशकिस्मत थे जो तेजी से मंदिर के भीतर चले गये और उन्हीं में से एक राकेश भी थे।
   
केदारघाटी में भीषण तबाही का मंजर देखने के बाद हर किसी की रूह  कांप रही है। चारधाम की यात्रा करने वाले यात्री डरे और सहमे हुए नजर आते हैं क्योंकि पहली बार उन्होंने मौत को इतने करीब से देखा। किसी की आंखों में अपने के खोने का गम साफ झलक रहा है तो कोई जंगल में फंसने के बाद  सकुशल एयरपोर्ट पहुंचने के लिए सेना का शुक्रिया अदा कर रहा है। कोई देवभूमि के वाशिन्दों की दिलेरी पर गर्व कर रहा है जिन्होंने अपने मकानों में उन्हें सिर छुपाने का आशियाना दिया तो कोई अपने सहयात्रियों की मदद का मुरीद हो गया है जिनकी वजह से उन्हें इस भीषण आपदा में नया जीवन मिल गया। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो देवभूमि में इस बार हुई लूटपाट को हमेशा याद  रखेंगे ।  जैसे-जैसे उत्तराखण्ड में आपदा राहत के कार्यों में तेजी आ रही है वैसे-वैसे उत्तराखण्ड में बीते दिनों हुई इस तबाही की  ऐसी अनगिनत कहानियां सामने आ रही है।

प्रकृति के इस तांडव का कहर सबसे ज्यादा  चमोली, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ के सीमान्त इलाकों में पड़ा है।  उत्तराकाशी के भटवाड़ी, झाला , पुरोला ,भरसाई सरीखे सैकड़ो गाँव आपदा की जद में हैं वहीँ रुद्रप्रयाग के पोला , घनसाली , सिल्ली ,  विजय नगर , चंद्रापूरी , देवल गाँव जैसे पचास से ज्यादा गाँव प्रभावित हैं । चमोली जिले में पांडुकेश्वर, ,गोपेश्वर  थराली , गोविन्दघाट सरीखे कई   साठ  से सत्तर गाँव इस आपदा  के गर्त में समा  गए हैं ।  यहाँ  की  सारी सड़कों का नामोनिशान मिट गया है। खेत खलिहान सब कुछ पानी के सैलाब में बन गए हैं । कोई मवेशी  भी अब नहीं बचे हैं ।  कई लोगो ने अपने परिवार को खोया है तो कई महिलाये विधवा हो गई हैं । ये वही महिलाए हैं जिन्होंने कभी  राज्य आन्दोलन में ना केवल  सरकार से सीधी  लड़ाई लड़ी बल्कि चिपको आन्दोलन के जरिये गढवाल  का नाम पूरे विश्व के पटल पर उकेरा था ।  आज इन गावो का संपर्क कट चुका  है और सबसे बड़ा संकट यह है आने वाले दिनों में यह अपना घर परिवार कैसे पलेंगी ?

पुल टूटने से राशन मिलना मुश्किल हो गया है। संचार बहुत दूर  की गोटी हो चली है और तो और  सारे मकान और होटल पानी के वेग में बह गये हैं। लोगों के तीन मंजिले भवन ताश के पत्तों की तरह ऐसे ढह रहे है मानो किसी फिल्म का ट्रेलर चल रहा है। चार धाम की तीन महीने की यात्रा से इनकी पूरी साल भर की जो आजीविका चलती थी अब उस पर ग्रहण लग गया है क्युकि अब फिर से यह यात्रा शुरू करने में कम से कम चार से पांच साल का समय लग सकता है ऐसे में उनकी जिन्दगी कैसे चलेगी  यह सवाल अहम है क्युकि उसकी सुध लेने वाला अब कोई नहीं बचा है ।  केदारघाटी की इस आपदा में सबका ध्यान गढ़वाल की तरफ गया है।  कुमाऊ मंडल के सीमान्त जनपद  पिथौरागढ़ के तल्ला जोहार, मल्ला जोहार, गोरीछाल, मदकोट, सोबला, पांगला, दारमाघाटी भी इस आपदा से बुरी तरह प्रभावित हुई है। यहां रहने वाले कई लोगों की जिन्दगी जहां उजड़ गई है तो वहीं मकान नदी में बह गये हैं।  दुकानों का सामान नदी की उफनती धाराओं में बह गया है। मवेशियों के साथ वाहन भी ऐसे बहे हैं, मानों कागज की कोई नाव पानी में तैर रही है। यहां पर मौसम  की आंख मिचौली के बीच कई हजार जिन्दगियां अब भी  दांव पर लगी है।

उत्तराखण्ड की नहीं पूरे देश का यह ऐसा भीषण संकट है जहां सेना के कठिन प्रयासों के बाद हजारों लोग मौत के मुंह से निकलकर बाहर आये है तो वहीं भीषण बरसात ने उनके अपनों के नामोनिशान को कहीं का नहीं छोड़ा है। हजारों लाशें भागीरथी, अलकनन्दा, गंगा, मन्दाकिनी, काली, गोरी नदियों में बह गई है जिनका मिलना मुश्किल हो चुका है। जो मिल भी रही है वह क्षत-विक्षत है जिन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। केदारनाथ के बाहर पड़े लाशों के ढेर को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है मलबा मंदिर से कई फुट ऊपर तक बहा है। स्थिति की भयावहता को इस बात से समझा जा सकता है जिन्दगियों को बचाने के लिए  सेना ने प्रशासन और सरकार के साथ मिलकर अपनी पूरी ताकत यहां झोंक दी है। केदारनाथ कभी शिवभक्तों की भारी भीड़ से गुलजार था लेकिन अब यहां खड़े होने पर ऐसा लग  रहा है मानो यह कोई भुतहा-खंडहर बन  चुका  है। चारों ओर मलबा ही  मलबा  और शवों का ढेर हैं  जो मलबे के कई फीट अंदर तक नजर आता है। कुदरत की इस तांडवलीला को केदारघाटी का रामबाड़ा, गौरीकुंड   और सोनप्रयाग बता रहा है जहां कभी लोग अठखेलियां खेला करते थे लेकिन आज यह पूरी तरह उजड़ गया है।  यहाँ का लक्ष्मी नारायण मंदिर, दुर्गा मंदिर पानी में बह चुका  है जिसके अवशेष मिलने भी बहुत दूर हैं । केदारपुरी का शिवशक्ति पूजा प्रतिष्ठान गायब है । काली कमली , अन्नपूर्णा लौज जमींदोज हो गए हैं । पास का  बाजार अब नहीं  दिखता  जहाँ हर वक्त चहल पहल देखने को मिलती थी ।  इस सैलाब ने अगस्तमुनि, गौरीकुंड में भी  भारी तबाही मचा दी है जहां पुराने मकानों  और पुलों का नामोनिशान नहीं है। लोग सेना की मदद से रस्सी के सहारे चढ़कर अपनी मंजिल तक  किसी तरह पहुंच रहे हैं। मार्ग में जगह-जगह पत्थर गिर रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों पहाड़ मनुष्य को विनाश का पाठ पढ़ा रहे है क्योंकि विकास के चमचमाते  सपने दिखाकर यहां के पहाड़ों को बेतरतीब ढंग से पिछले कई दशक में काटा गया है। गोविन्दघाट में हर तरफ पानी ही पानी दिख रहा है। सैकड़ों वाहन अब तक अलकनन्दा के वेग में बह चुके है। सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में बलुवाकोट से आगे की सड़क का नामोनिशान नहीं है तो मदकोट में सैकड़ों परिवारों के घर ढह चुके हैं। धारचूला में  काली नदी में एनएचपीसी की आवासीय कालौनी जलमग्न है।

यह वही उत्तराखण्ड है जिसने 80 के दशक में ज्ञानसू का भूकम्प, भीषण अतिवृष्टि, बाढ़ का कहर देखा तो वहीं 90 के दशक में उत्तरकाशी और चमोली के भूकम्प के झटके भी महसूस किये है। कैलाश मानसरोवर यात्रा के पथ में मालपा नामक जगह पर भूस्खलन से भारी तबाही का मंजर भी  इसने देखा है। 2003 मे उत्तरकाशी में वरूणावत के भारी भूस्खलन के अलावा 2012 में उत्तरकाशी में ही  असीगंगा व भागीरथी के तट पर बादल फटने के कहर के अलावा सुमगढ़ बागेश्वर में बादल के कहर में कई परिवारों को जमींदोज होते देखा है, जहां जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ और जान माल को व्यापक नुकसान हुआ। वहीं बीते बरस अगस्त में ऊखीमठ में बादल फटने का कहर भी यह प्रदेश देख चुका है। लेकिन हमारी याददाश्त कम रहती है। हम पुरानी घटनाओं को जल्द भूलना जानते हैं और उससे सबक भी नहीं लेना चाहते। आज प्रदेश के सामने खड़ा हुआ यह सबसे बड़ा संकट है जहां सरकारी मशीनरी के पसीने छूट गये हैं। केदारघाटी की इस घटना को भी विजय बहुगुणा की सरकार सही से टैकल नहीं कर पाई। इसकी बड़ी वजह प्रदेश की बेलगाम नौकरशाही है जिसे पहले दिन इतनी बड़ी विभीषिका का आभास तक नहीं हुआ। शायद इसी वजह से मुख्यमंत्री पहले दिन नौकरशाहों के सुर में सुर मिलाते देखे गये। दूसरे दिन भयावहता की तस्वीर उन्होंने केन्द्र को भेजी अपनी रिपोर्ट मे पेश की जिसके बाद प्रदेश की कार्यप्रणाली ने काम करना शुरू किया   और विपक्षी दलों के नेताओं के  हवाई दौरों को लेकर सक्रियता और होड़ देखने को मिली जहां सभी ने हवाई सैर का  जमकर लुप्त उठाया। बेहतर होता अगर उस समय पूरा तंत्र लोगों को बचाने मे हेलीकाप्टर लगाता। अन्धाधुन्ध विकास और कारपरेट लूट के चलते उत्तराखण्ड में बीते एक दशक से ज्यादा समय से प्रकृति से भारी छेड़छाड़ शुरू हुई है। धार्मिक पर्यटन के नाम पर यहां जहां मुनाफे का बड़ा कारोबार ढाबों, रिजार्ट के जरिए हुआ है वहीं वनों की अन्धाधुंध कटाई से भी पहाड़ की परिस्थितिकी संकट में है। पहाड़  में जल,जमीन,जंगल का सवाल आज भी जस का तस है। नदियों के किनारे कब्जों की आड़ में जहां बड़ा अतिक्रमण हुआ है वही इसी की आड़ में बड़े-बड़े रिजार्ट भी खुले है। इन निर्माण कार्यों पर किसी तरह की रोक लगाने की जहमत किसी में नही है क्योंकि राजनेताओं, माफियाओं और कारपरेट के काकटेल ने पहाड़ को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसमें राजनेताओं की भी सीधी मिलीभगत है क्योकि न केवल अपने चहेतों को उन्होंने जमीनें यहां दिलवाई है बल्कि बड़ी परियोजना लगाने के नाम पर विकास के चमचमाते सपने के बीच रोजगार का झांसा भी पहाड के ग्रामीणों को दिया गया है। यही नहीं पावर वाली कम्पनियों से प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर मोटा माल अपनी जेबों में भरा है ।  राज्य गठन के बाद भाजपा, कांग्रेस की सरकारों ने अपने करीबियों को न केवल नदियों में खनन के पट्टे दिये हैं बल्कि ठेकेदारों को भी पहाड़ों में निर्माण कार्य में मुख्य मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया है। पर्यटन  के सैर सपाटे के बीच पहाड़ में ट्रैवल ऐजेन्टों की सुविधा के लिए जगह जगह पहाड़ काटकर सड़के काटी गई है जहां बेतरतीब ढंग से गाडि़यां दौड़ रही है। साथ ही ऐसे इलाकों में जहां जल प्रचुर मात्रा में है वहां बांध बनाने का चलन सुरंग निकालकर शुरू हुआ है। अलग राज्य का गठन पहाड़ के पिछड़ेपन के कारण हुआ था लेकिन आज हालत यह है चट्टाने दरकने से गांव के गांव खाली हो रहे है । अब गाँव में बुजुर्गो की पीड़ी ही दिख रही है । जलविघुत परियोजना के नाम पर पहाड़ की जमीनों को खुर्द बुर्द किया जा रहा है। टिहरी इसका नायाब नमूना है जहां विकास की चमचमाहट दिखाई गई लेकिन टिहरी के डूबने की कथा स्थिति की भयावहता को उजागर करती है। प्राकृतिक सम्पदा की लूट में उत्तराखण्ड की कोई सरकार अछूती नहीं है। विकास के नाम पर सरकार की नीयत साफ नहीं है। हर किसी का उद्देश्य इस दौर में  मुनाफा कमाना हो चला है और कारपरेट के आसरे फलक-फावड़े बिछाए जा रहे हैं। वर्तमान में प्रदेश के भीतर 200 से अधिक जलविघुत परियोजना चल रही है। तकरीबन 550 योजनाएं प्रस्तावित है जिनमें से गढ़वाल के मुख्य इलाकों में 70 परियोजनाएं निर्माणधीन है जो ,भागीरथी  अलकनंदा और मंदाकनी में बनाई जानी  हैं जहां पहाड़ों को चीरकर काटकर विस्फोट कर सुरंग बनाई जाएंगी  जो भविष्य के लिए कतई सुखद संकेत नहीं है। इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहेंगे ऊर्जा प्रदेश होने के बाद भी उत्तराखण्ड के उन गांवों को बिजली नहीं मिलती जहां यह  जलविघुत परियोजनाएं चल रही है। सारी  बिजली तो दिल्ली ,हरियाणा , राजस्थान और मध्य प्रदेश सरीखे कई राज्यों को जा रही है ।
पिछले कुछ समय से उत्तराखंड  में  पर्यावरणीय  मानको को ताक पर रखकर जिस तरह विकास के नाम पर अंधेरगर्दी यहां मची है उसी का परिणाम केदारघाटी का हाल का यह हादसा है। यह प्रकृति की आपदा से ज्यादा हमारे स्वयं के द्वारा निर्मित आपदा है। कालिदास की तर्ज पर जिस पेड़ पर हम बैठे है उसी को काटने में लगे हुए है। वन सम्पदा के साथ यही खिलवाड़ अब  उत्तराखंड  में विनाश को दावत दे रहा है। जंगलों को काटकर रिजार्ट बनाये जा रहे हैं  तो वहीँ  खनन माफियाओं के आगे उत्तराखण्ड का प्रशासन भी पूरी तरह बतमस्तक है।
    
उत्तराखण्ड का इलाका दुर्गम है। आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील इस राज्य में अब एक कारगर तन्त्र आपदा के मुकाबले के लिए काम करना चाहिए। हम आपदा पर नियंत्रण कर सकते है। चारधाम यात्रा से पूर्व मौसम विभाग ने भारी बारिश की चेतावनी राज्य सरकार को दी गई  थी लेकिन राज्य सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। नौकरशाहों  ने मुख्यमंत्री को अंधेरे में रखा। उत्तराखंड  मे मौसम के पूर्वानुमान के लिए केन्द्र सरकार ने मौसम रडार स्थापित करने के लिए जमीन दिये जानें की मांग 2004 में की थी लेकिन अभी तक राज्य सरकार जमीन ही नहीं दिला पाई है। सरकार की असंवेदनशीलता का एक और नमूना यह है कि राज्य में 2010 से 233 गांवों को विस्थापित पुनर्वास हेतु चुना गया था जिसकी संख्या आज बढ़कर 550 हो चली है। सरकार अब तक गढ़वाल के एक गांव का ही विस्थापन कर पाई हैजबकि इस दौर में  सरकारें अपने प्रभाव व रसूख के इस्तेमाल से अब तक भूमाफिया, कारपरेट, अपने करीबियों , नाते रिश्तेदारों  और नेताओं को कई सौ हेक्टेयर जमीने दे चुकी है। 
प्राकृतिक संसाधनों की बड़ी लूट के कारण आज उत्तराखंड कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है। अगर  अभी भी इस हादसे से हमने सबक नहीं लिया तो तबाही बड़े पैमाने पर होगी। हिमालय में  अब मौसम बदल रहा है। पहाड़ों का दोहन किया जा रहा है। ग्लोबल वार्मिग का सीधा प्रभाव यहां भी महसूस किया जा सकता है। ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। अनियोजित विकास के कारण आज पर्वतीय इलाकों में संकट के बादल मडरा रहे है। राज्य बनने के बाद यहां बाहरी व्यक्तियों के जमीन होने से आबादी का घनत्व लगातार बढ रहा है जिससे बिल्डरों की पौ बारह हो गई है। भाजपा में जनरल  खंडूरी के कार्यकाल में माफिया और नेता खौफ खाते थे और उनके शासन में बाहरी व्यक्तियों के जमीन खरीदने पर रोक लग गई थी लेकिन विजय बहुगुणा के आने के बाद एक बार फिर बिल्डरों के हौंसले बुलन्द है। वह पूरे पहाड़ को नोचकर खाना चाह रहे है जिससे सरकार की भी मिलीभगत है।

उत्तराखण्ड देश का एक ऐसा प्रदेश है जहा 2007 में पहली बार आपदा प्रबन्धन का एक मंत्रालय खोला गया था लेकिन मजेदार बात यह है उसकी एक भी बैठक आज तक नहीं बुलाई गई। आपदा प्रबन्धन के नाम पर तबसे बड़े-बड़े सेमिनार कर धन की व्यापक बंदरबाट ही की गई जिसमें राजनेताओं से लेकर नौकरशाही ने अपने हाथ साफ किये। यही नहीं नौकरशाहों के साथ हमारे नेताओ ने विदेश की बड़ी सैर कर अब तक आपदा प्रबंधन से ज्यादा अपना खुद का प्रबंधन मोटे माल को कमाकर किया है । बेहतर होता अगर इसी  पैसो का इस्तेमाल डाप्लर  रडार सिस्टम लगाने से लेकर सैटेलाईट फ़ोन खरीदने में किया जाता । आज इस छोटे प्रदेश का हर नेता विदेश घूमना पसंद कर रहा है । जिस जनता ने उसे चुनाव जिताकर  विधायक बनाया है उससे उसको कुछ लेना देना नहीं है शायद यही वजह है चार धाम यात्रा में जान बहुत सस्ती है । वहीँ आपदा प्रबन्धन विभाग को उत्तराखण्ड में ऐसी दुधारू गाय माना जाता है जहां सबकी नजर प्रभावितों को मदद करने के बजाय अपना हित साधने और कमीशनखोरी में लगी रहती है। निचले स्तर से ऊपर स्तर तक भ्रष्टाचार का ऐसा घुन  लगा है जो उत्तराखण्ड को खाये जा रहा है। भूविज्ञानी तो पहले ही यहां घनी आबादी वाले इलाकों में निर्माण के मानक बदलने की मांग कर चुके है लेकिन सरकारें ऐसा कहां सुनती हैं? भारत निर्माण के हक के  नाम पहाड़ के मासूम ग्रामीणों को विकास व रोजगार के सपने दिखाए जा रहे हैं। वह भी पर्यावरणीय मानकों को ताक पर रखकर शायद तभी केदारघाटी मे जलप्रलय जैसी घटनाएं हो रही हैं। यह तो एक शुरुवात भर है  ।  विकास की अंधी  दौड़ में सरकारें किस तरह फर्राटा भर रही है इसका बेहतर नमूना गोमुख से होकर उत्तरकाशी तक 100 किमी फैला इलाका पेश करता है जिसे केन्द्र सरकार ने ईको सेंसटिव जोन बीते दिनों  घोषित किया लेकिन प्रदेश की सरकार , मुख्यमंत्री और पांचों सांसदों को साथ होकर इसे खारिज करने की मांग प्रधानमंत्री से मिलकर कर चुके हैं। मजेदार बात यह है वर्तमान मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के सुर मे सुर मिलाते कदमताल कर रहे है। अब टिहरी की तर्ज पर लवासा  बसाने  की बात बहुगुणा द्वारा  हो रही है साथ ही पाला मनेरी,लोहारी नागपाल, विष्णुप्रयाग, तपोवन के चमचमाते सपने दिखाकर उर्जा प्रदेश का सपना ग्रामीणों को दिखाया जा रहा है लेकिन शायद लोग भूल रहे हैं पहाड़ों के बेतरतीब कटाव के कारण उत्तराखण्ड आपदा के एक बड़े सुनामी के ढेर में बैठा है। नदियों के इस अविरल प्रवाह को रोकने का एक बड़ा खामियाजा हमें आने वाले दिनों में भुगतना पड़ सकता है।

यह सच है पर्यटन इस राज्य की सबसे बड़ी रीढ़ है जो राजस्व प्राप्ति का अहम साधन है। हमें पर्यटकों को बुनियादी सुविधाऐं देनी चाहिए। चार धाम की यात्रा में भारी भीड़ और अव्यवस्थाएं हर साल देखने को मिलती है। हमें यात्रा मार्ग पर आपदा रोकने के लिए और उसके मुकाबले के लिए एक तंत्र विकसित करना होगा। बेशक विकास जरूरी है लेकिन पर्यावरण के साथ विकास में भी एक संतुलन बनाकर लकीर खींचने की जरूरत है। बेहतर होगा पहाड़ी इलाकों में दोहन पर रोक लगने के साथ ही यहां के अवैध कब्जों और निर्माण पर भी ब्रेक लगे। बड़े सुरंग आधारित बांधों के बजाय छोटे बांधों पर जोर दिया जा सकता है ।  जो भी हो उत्तराखण्ड की इस आपदा ने यह बड़ा सबक दिया है कि नियोजित विकास के साथ पारिस्थितिकीय संतुलन बनाने की जरूरत है। अगर अब भी हम नहीं चेते तो केदारघाटी जैसे हादसे होते रहेंगे। आर्थिक पैकेज इमदाद की गुहार पेश की जाती रहेगी जिसमें राजनीति होती रहेगी। कुछ समय ‘पीपली लाइव‘ के नत्था की तरह यह खबर सुर्खियां बटोरेगी और हर बार की तरह कुछ समय बाद लोग यह सब भूल जायेंगे। वैसे भी हमारी मैमोरी शॉट टर्म है ।



Wednesday 19 June 2013

मंडी उपचुनाव में हिमाचल

72  घंटे पहले उत्तराखंड की तरह हिमाचल में प्रकृति ने अपनी जो विनाशलीला दिखाई उससे हिमाचल के सी एम वीरभद्र सिंह भी नहीं बच पाए और कई  घंटे जाम में फंसने  के बाद भी  उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखी  ।  किन्नौर  में फसने के बाद उनके उड़नखटोले ने जिस फुर्ती के साथ मंडी  के चुनाव प्रचार के लिए उड़ान भरी वह देखने लायक  थी क्युकि उपचुनावों में यह सुनिश्चित माना जाता रहा है जिस पार्टी की सरकार राज्य में होती है वही सिकंदर बन जाता है लेकिन पिछले  कुछ समय से देश में यह ट्रेंड ख़त्म सा हो रहा है । हाल के दिनों में इसका नायाब  नमूना उत्तराखंड के  टिहरी  लोक सभा उपचुनाव में देखने  को मिला  जहां  उत्तराखंड  के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा अपनी सीट नहीं पचा पाए और करारी हार का मुह उन्हें देखना पड़ा । शायद इसके मजमून को हिमाचल के मुख्य मंत्री  वीर भद्र बखूबी समझ रहे थे तभी भूस्खलन और  प्रकृति  की  तांडव  लीला के बावजूद उन्होंने मंडी  में चुनाव प्रचार की तरफ अपने कदम तेजी से  बढाये  जहाँ उनकी प्रतिष्ठा  सीधे दाव  पर लगी है  ।

हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह द्वारा खाली कराई गई  मंडी  संसदीय सीट के लिए होने जा रहा चुनाव दिलचस्प बनता  जा रहा है | जैसे जैसे मतदान की तिथि  23 जून  पास आते जा रही है वैसे वैसे पूरे संसदीय इलाके में चुनाव प्रचार जोर पकड़ता जा रहा है |  मंडी में  कांग्रेस के टिकट पर वीरभद्र सिंह की  पत्नी प्रतिभा सिंह  पहली बार राजनीती के समर में अपना भाग्य आजमाने उतरी  हैं  तो  वही इस सीट पर भाजपा ने पूर्व पंचायत राज्यमंत्री  जय  राम ठाकुर  पर  अपना  दाव लगाया है |  मंडी  लोक सभा उपचुनाव हिमाचल  में ऐसे समय में हो रहा है जब लोक सभा के आम चुनाव होने में बमुश्किल एक  साल से भी कम का समय बचा है | ऊपर से कांग्रेस जिस तरीके से आर्थिक सुधारो की अपनी लीक पर फर्राटा भर रही है और जिस तरीके से उस पर भ्रष्टाचार  के आरोप हाल के दिनों में लगे हैं उसने पहली बार मंडी  के  वोटरों के मन में एक  नई  आशंका को बल प्रदान किया है | इन सबके बीच यह उपचुनाव निश्चित ही भाजपा और कांग्रेस सरीखे दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए हिमाचल  में अहम हो चला है क्युकि मंडी  उपचुनाव की बढ़त दोनों दलों के लिए आने वाले लोक सभा चुनावो में उनके मनोबल को सीधे प्रभावित करेगी |


वैसे भी राज्य में कांग्रेस और भाजपा इन दोनों दलों के इर्द गिर्द ही राजनीती चलती आई है और  2014 के फाईनल  से ठीक पहले राज्य में अपनी ताकत का अहसास कराने का यह एक अच्छा  लिटमस  टेस्ट साबित हो सकता है । मण्डी ससदीय सीट पर 11,24,770 वोटर प्रत्यशियो की किस्मत  का फैसला करेगे जहाँ पर महिला और पुरुष वोटर बराबर तादात में हैं । वीरभद्र की पत्नी को महिला वोटरों का आसरा नजर आ रहा है शायद तभी वह अपने पति के नाम के साथ राजनीती में अपना भाग्य आजमाने इस बार उतरी हैं ।  हिमाचल में इस संसदीय इलाके में  तक़रीबन प्रदेश का दो  तिहाई इलाका शामिल हैं जिसमे  कुल्लू , लाहुल स्फीति  और किन्नौर समेत चंबा के कुछ इलाके शामिल हैं जहाँ पर वीरभद्र की सियासी बिसात हमेशा से मजबूत मानी जाती रही है ।

लेकिन नए राजनीतिक माहौल के बीच मंडी में हो रहे उपचुनाव के इस घमासान में कांग्रेस के सामने मुश्किलें इस दौर में ज्यादा हैं क्युकि राज्य की कांग्रेस सरकार  का  अब तक  का निराशाजनक  कार्यकाल कांग्रेस के लिए भारी पड़ता दिखाई दे रहा है |  राज्य के चुनावो में उठे  भ्रष्टाचार की गूँज अभी उपचुनाव में भी नहीं थमती  दिख रही है जहाँ   विरोधी  दलों के सीधे निशाने पर  मुख्यमंत्री हैं  , वहीँ केंद्र सरकार द्वारा सब्सिडी ख़त्म करने, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी  यहाँ  के आम वोटर को सीधे प्रभावित कर रहे हैं |  मंडी का आम वोटर हिमाचल में इस समय पशोपेश में है क्युकि बीते विधान सभा चुनावो में केंद्र की तमाम नाकामयाबियो के बीच प्रेम कुमार धूमल  की अगुवाई में भाजपा अपना पुराना किला सुरक्षित नहीं रख पायी और राज्य में कांग्रेस ने तमाम अन्तर्विरोध  के बाद सत्ता हासिल करने में सफलता पायी थी । अब केंद्र सरकार के रंग ढंग देखते हुए यहाँ का आम वोटर विधान सभा चुनावो से इतर एक नई  लकीर अगर यहाँ की राजनीती में खींचता दिखता  है तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए । वर्तमान में हिमाचल  के अखाड़े में उपचुनाव की ऐसी मंडी सजी है कि इस बार भाजपा से लेकर कांग्रेस दोनों मुख्य पार्टियों के चेहरों पर कोई लहर देखने को नहीं मिल रही है । इस चुनावी रस्साकशी के बीच हिमाचल की सत्ता गवाने के बाद पूर्व मुख्य मंत्री धूमल के सामने इस बार सबसे बड़ी चुनौती किसी भी तरह कांग्रेस को हराकर मंडी  में कमल खिलाने  की है क्युकि  मंडी  सरीखी हॉट सीट पर भाजपा की एक जीत निश्चित ही भाजपा के लिए 2014 के मिशन के लिए काम आएगी और कार्यकर्ताओ के मनोबल को भी बढ़ाएगी ।  दूसरी तरफ   मंडी  का यह उपचुनाव वीरभद्र सरकार के अब तक के रिपोर्ट कार्ड का जहाँ मूल्यांकन करेगा वहीँ 2014 की सियासी बिसात में दोनों की सियासी  जमीन को बैरोमीटर में नापेगा । 

             मुख्यमंत्री की पत्नी प्रतिभा सिंह को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाये जाने के बाद से कार्यकर्ताओ में काफी जोश तो जरुर दिख रहा है लेकिन वीरभद्र की मुश्किल इस समय उनके विरोधी गुट ने  बढाई  हुई हैं जो सी एम् के रूप में उनकी आँखों में शुरू से खटकते रहे हैं ।  केन्द्रीय मंत्री आनंद शर्मा , स्वास्थ्य मंत्री कौल  सिंह ठाकुर, विजय सिंह मनकोटिया समेत सिचाई मंत्री विद्या स्टोक्स का एक बड़ा गुट अन्दर ही अन्दर वीरभद्र के खिलाफ बगावती तेवरों का झंडा उठाये हुए है जिनकी गुटबाजी विधान सभा चुनावो से पहले से ही सबके सामने जगजाहिर है । ऐसे में अगर उपचुनाव में यह सारे खेमे वीरभद्र के खिलाफ  अगर भीतर घात में एकजुट होते हैं तो अगले लोक सभा चुनावो में अपना किला मजबूत करने की बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री के सामने पेश  आ सकती है ।

 अगर भाजपा इस सीट पर कोई बड़ा उलटफेर करने में सफल रहती है तो इसके झटके  से वीरभद्र की कुर्सी भी शायद ही उबार पाएगी ।  वहीँ विधान सभा चुनावो में जो भाजपा गुटबाजी के चलते कांग्रेस के हाथ के सामने हाफती  नजर आ रही थी वह इस मण्डी  उपचुनाव के  एकजुटता का पाठ न केवल पडा रही है बल्कि अपने दिग्गज नेताओ की दूरी भी पाट  रही है । पहली बार धूमल कैम्प के सभी विरोधी उपचुनाव के जरिये अपने पुराने गिले शिकवे दूर करते दिख रहे हैं  जिसमे  उनके धुर विरोधी शांता कुमार शामिल हैं जिनका धूमल से छत्तीस का आकडा हिमाचल में जगजाहिर रहा है । मंडी  में अनुराग ठाकुर के  लगातार हो रहे दौरे  भी यह बतलाने के लिए काफी हैं राज्य की जमीन खोने के बाद भाजपा काफी परेशान  है और अपनी पुरानी गलतियों से सबक लेती दिख रही है जहाँ उसकी कोशिश   2014 की बिसात मजबूत करने की हो चली है । शायद तभी सभी दिग्गज मंडी  में वीरभद्र की पत्नी प्रतिभा सिंह को पटखनी देने के लिए हर किसी को अपने अनुरूप साध रहे हैं बल्कि वोटरों को भी यह अहसास करा रहे हैं यू पी ए  मौजूदा दौर में डूबता जहाज है । अब उनका यह प्रचार क्या  रंग लाता है यह 27 जून को पता चलेगा लेकिन फिलहाल को प्रतिकूल मौसम में भी हिमाचल  की मंडी में उपचुनाव का पारा सातवें आसमान में है ।

Tuesday 11 June 2013

छत्तीसगढ़ में अपना वजूद बचाते अजित जोगी

एक समय था जब मध्य प्रदेश से अलग हुए आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के नाम का डंका बड़े जोर शोर के साथ बजा करता था । साथ ही उनकी गिनती दस जनपद के खासमखास लोगो में होती थी जहाँ पर उनका सिक्का बड़ी बेबाकी से चला करता था ।  उस  दौर को याद करें  तो अहमद पटेल से लेकर  जनार्दन द्विवेदी  हर कैम्प में उनकी तूती बोला करती थी  ।  यही नही अविभाजित मध्य प्रदेश में रायपुर में अपनी  इसी प्रशासनिक दक्षता का  लोहा जोगी ने आलाकमान के सामने  भी मनवाया था  शायद इसी के चलते पार्टी आलाकमान ने अजित  जोगी को छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रुपी कांटो का ताज पहनाया  .....

१ नवम्बर २००० की सुबह जोगी के लिए सुकून भरी साबित हुई ।  अविभाजित मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायको की संख्या ज्यादा थी लिहाजा वहां की अंतरिम सरकार कांग्रेस की बनी ।  इस दौर में तकरीबन तीन साल जोगी को राजपाट सँभालने का मौका मिल गया ।  .2003 में चुनावी डुगडुगी बजी  और विधान सभा चुनावो के बाद नई  करवट बदली  और  रमन  सिंह की बिछाई  बिसात में  जोगी  ऐसे चारो खाने चित्त  हो गए जिसके झटको से वह आज तक नहीं उबर पाए हैं ।  2003 के बाद   से उनके हाथ लगातार  सत्ता फिसलती  गई । यही वह दौर था जब अजित के बेटे अमित जोगी की दिलीप सिंह जूदेव प्रकरण के कारण खासी किरकिरी हुई ।  उस दौर को  याद करें  तो ऐसे आरॊप भी लगे जूदेव प्रकरण को हवा देने में  उनके बेटे अमित जोगी की खासी अहम् भूमिका है । .इसके बाद एक मर्डर के सिलसिले में अमित जोगी को जेल की हवा भी खानी पड़ी । 

राजनीती संभावनाओ का खेल है॥ यहाँ चीजे हमेशा एक जैसी नही रहती । उतार चदाव आते रहते है ।  बेटे का नाम मर्डर केस में आने के बाद छत्तीसगढ़ में २००३ के आम चुनाव में पार्टी ने  अजित जोगी के चेहरे  को आगे किया परन्तु उसके हाथ से सत्ता फिसल गई ..... मजबूर होकर जोगी को विपक्ष में बैठना पड़ा ....इसके बाद से लगातार राज्य में कांग्रेस का ग्राफ घटता जा रहा है.... खुद अजित जोगी की राजनीती पर अब संकट पैदा हो गया है...उनको करीब से जाने वाले कहते है वर्तमान दौर में उनकी राजनीती के दिन ढलने लगे है....खुद राज्य में जोगी अपने विरोधियो से पार नही पा रहे है.....इसी के चलते अब कई लोग और कांग्रेस के जानकार यह मानने लगे है अगर समय  जोगी पर ज्यादा भरोसा किया गया तो राज्य में रमन सिंह तीसरी बार अपनी सरकार बना लेंगे..... शायद इसी को धयान में रख इस बार आलाकमान ने केंद्रीय मानती चरण दस महंत पर अपना भरोसा जताया है और उन्ही के चेहरे को लेकर चुनाव में जाने का मन बनाया है । आज स्थिति बदल चुकी है । छत्तीसगढ़ में  नक्सलियों के भीषण हमले ने जहाँ कांग्रेस के कई कद्दावर चेहरों को छीन  लिया है वहीँ आने वाले  विधान  सभा चुनावो को लेकर पहली बार कांग्रेस के सामने असल संकट खड़ा हो गया है । 
२००४ में अजित जोगी एक कार दुर्घटना में घायल हो गए जिसके चलते आज तक वह व्हील चेयर में है परन्तु  अब पहले से कुछ ठीक होने  बाद भी जोगी का राजनीती से मोह नही छूट रहा है ... जानकार बताते है कि जोगी एक दौर में आदिवासियों के बीच खासे लोकप्रिय थे , आज आलम यह है कि छत्तीसगढ़ में " चावल वाले बाबा जी " के मुकाबले जोगी की कोई पूछ परख तक नही होती .....यह बात धीरे धीरे अब जोगी भी समझ रहे है शायद तभी अब वह अपनी नयी  बिसात बिछाकर  आलाकमान को आइना दिखा रहे हैं ।

पिछले चुनाव में जोगी ने राज्य के कोने कोने में पार्टी के लिए वोट मांगे थे  । जनता ने उनके नेतृत्व को नकार दिया ....बीते  विधान सभा चुनावो में आदिवासी बाहुल्य इलाको में कांग्रेस को कुछ खास सफलता नहीं  मिल सकी .....यह घटना ये बताने के लिए काफी है कि किस तरह जोगी अपने राज्य के आदिवासियों के बीच  ठुकराए जा रहे है  जबकि जोगी छत्तीसगढ़ में खुद को आदिवासियों का बड़ा हिमायती बताया करते थे ......भारतीय राजनीती में वंशवाद से कोई अछूता नही है फिर जोगी उस पार्टी की उपज है जहाँ सबसे ज्यादा वंशवाद की अमर बेल फैली है ।  इसकी परछाई जोगी पर स्वाभाविक  पड़नी थी ... शायद इसी के चलते उन्होंने १५ वी लोक सभा के चुनावो में अपनी पत्नी डॉक्टर रेनू जोगी को लोक सभा का चुनाव लड़ाया लेकिन वहां पर भी जोगी की नाक कट गई .....इसके बाद भी उनका  राजनीती के प्रति उनका मोह कम नही हुआ .....राज्य सभा के जरिये केंद्र वाली सियासत करने में रूचि दिखाई लेकिन असफलता ही हाथ लगी......


अब जोगी यह बात भली भांति शायद जान गए है मौजूदा समय में उनका राज्य में बड़े पैमाने पर सक्रिय हो पाना असंभव लगता है ॥ साथ ही पार्टी आलाकमान ने उन पर घास डालनी बंद कर दी है... प्रदेश राजनीती में उनके विरोधियो ने उनको हाशिये पर धकेल दिया है इस लिहाज से वह अपना खुद का वजूद बचाने में लगे हुए है......बीते दिनों छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले में मारे गए नेताओ की श्रद्धान्जली  सभा में जिस तरह के तल्ख़ तेवर अजित जोगी ने दिखाए हैं उससे साफ़ जाहिर होता है कि आलाकमान जोगी को आने वाले विधान सभा चुनावो से दूर रखना चाहता है लिहाजा जोगी ने इस शोक सभा में दिग्गी राजा पर निशाना साधकर यह कहा छत्तीसगढ़ को बाहरी नेताओ की  अब आवश्यकता नही है । वह दिल्ली से आयातित नेताओ को छत्तीसगढ़ चुनावो का चेहरा बनांये जाने से अन्दर ही अन्दर बेहद आहत  दिखे और सभा में  झल्लाकर अपने तल्ख़ तेवर दिखाकर उन्होंने पार्टी आलाकमान की चुनाव से पहले मुश्किलों को बढाने का काम एक तरह से किया है  ।   


जोगी  की असल मुश्किल यह है वह अब भी छत्तीसगढ़ में खुद को सी एम के रूप में  देखना  चाहते हैं साथ ही आज भी  अपने को आदिवासियों का  बड़ा हिमायती मानने से परहेज नही करते है..... आलाकमान की इस बेरुखी  और वक़्त की नजाकत को भापते हुए अब उन्होंने आदिवासी इलाको में अपने बेटे अमित के लिए सम्भावना तलाशनी शुरू कर दी है.....आदिवासी कार्ड खेलकर वह राज्य में अपने बेटे अमित के चेहरे  को जनता के सामने लाकर उन्हें  राज्य की राजनीती में अपनी विरासत सौपने की दिशा में जल्द ही कदम बढ़ाकर कोई बड़ा  फैसला ले सकते है । ."जग्गी " हत्या कांड में जेल की यात्रा कर चुके अमित भी अब पिता के पग चिन्हों पर चलकर अपनी छवि बदलने की छटपटाहट  में हैं  ....

वह इस बात को जानते है चाहे राज्य के कांग्रेसी नेता और दिग्गी राजा का कैम्प  उनके पिता को आने वाले दिनों में किनारे करने के मूड में है लेकिन पिता आदिवासी इलाके में उनको स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है.....अजित जोगी भी इस बात को बखूबी जान रहे है  .. तभी उनकी नजर आदिवासियों के एक बड़े वोट बैंक पर आज भी लगी हुई है जो छत्तीसगढ़ के आने वाले विधान सभा चुनावो में उनके साथ आ सकता है ..... ये अलग बात है  बस्तर में लोक सभा के उप चुनाव में वह पार्टी के लिए खास करिश्मा नही कर पाये .....इस चुनाव में बलिराम कश्यप के निधन से रिक्त हुई सीट भाजपा के पाले में चली गई.....लेकिन आदिवासियों की सभा में आज भी जोगी की एहमियत कम नही हुई है .... उनकी सभाओ में लोगो की भारी भीड़ उमड़ आती है....

 हाल ही मे कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में भी अजित जोगी ने बड़ी भीड़ को अपने पक्ष में करने की लामबंदी की थी  । अब जोगी की कोशिश है कि छत्तीसगढ़ में युवा नेतृत्त्व के नाम पर किसी तरह वह अपने बेटे अमित जोगी का दाव  चल दें  जिससे आलाकमान को कुछ हद तक अपने  पक्ष में किया जा सके  और आने वाले विधान सभा चुनाव में किसी भी तरह अमित जोगी को कांग्रेस पार्टी टिकट दे जिससे राज्य में वह उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा सके.....

देखना होगा अजित जोगी का यह  दाव छत्तीसगढ़ में कितना कारगर साबित होता है.....?. इस बहाने अजित जोगी जहाँ अपने बेटे को आगे कर अपनी विरासत को आगे बदाएगे वही आदिवासियों के बीच अपनी लोकप्रियता के मद्देनजर अपने बेटे अमित जोगी की राजनीतिक राह आसान कर अपने विरोधियो को  भी करारा जवाब  दे सकेंगे । फिलहाल तो चरण दास  महंत द्वारा छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कमान हाथ  में  आने और वहां पर दिग्गी गुट की बदती सक्रियता और राहुल दरबार से बढती निकटता के मद्देनजर अजित जोगी की छत्तीसगढ़ की राजनीती में वापसी के आसार  तो मुश्किल ही दिख रहे  हैं । वैसे भी    उनके   ही नेतृत्व   में पार्टी लगातार  दो  विधान सभा चुनाव हार चुकी है । ऐसे में अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए जोगी के पास बेटे का ही आसरा बचा है जिससे वह छत्तीसगढ़ में अपनी साख बचाने  में सफल हो सकते हैं । 

Wednesday 5 June 2013

विकास का असंतुलन और नक्सलवाद



कुछ समय पूर्व छत्तीसगढ़ के कांकेर, दंतेवाडा  जिलों में जाने का मौका मिला ।  नक्सलियों का भय यहाँ जाते हुए सबके चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता था।  शाम ढलने के साथ ही सड़को में अजीब सा सन्नाटा पसर  जाता था ।   यह सब  ऐसे इलाके हैं जहाँ मुख्यालय के आस पास ही  सरकारी  मशीनरी सक्रिय रहती है । इलाके के अन्दर कोई सुरक्षा बल जाना पसंद नहीं करता । फिर  इस इलाके में  मैंने कदम रखा तो लोगो ने अनुरोध किया आगे खतरा है मत जाइये  लेकिन मन कहाँ  मानता  ।  खबरों के साथ एक खास तरह का सरोकार था और नक्सल प्रभावित इलाको की वस्तुस्थिति जानना  चाहता था सो अपने रिस्क पर चल पड़ा अपनी मंजिल  की तरफ बिना किसी  खौफ के । रास्ते में रामकिशन नाम के एक शख्स  से सामना हुआ । उसकी बातो से आभास हुआ वह नक्सली विचारधारा  का झंडा पूरे इलाके में काफी समय से उठाये हुए है ।  जब  नक्सली हिंसा को मैंने गलत  ठहराने की कोशिश  की तो उसने बताया "हमारे बाप दादा ने जिस समय हमारा घर बनाया था उस समय  सब कुछ ठीक ठाक था ... संयुक्त परिवार की परंपरा थी ... सांझ ढलने के बाद सभी लोग एक छत के नीचे बैठते थे और सुबह होते ही अपने खेत खलिहान की तरफ निकल पड़ते थे ।  अब हमारे पास रोजी रोटी का साधन नहीं है... जल ,जमीन,जंगल हमसे छीने जा रहे है और दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है ... हमारी वन सम्पदा   टाटा , एस्सार , अम्बानी  सरीखे कारपोरेट घराने लूट रहे है और "मनमोहनी इकोनोमिक्स " के इस दौर में अमीरों और गरीबो की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है... विकास  के इसी असंतुलन ने हमें  सरकार  से लड़ने को मजबूर किया है "
  
साठ साल के रामकिशन नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़  के  दंतेवाड़ा सरीखे अति संवेदनशील उस  इलाके से आते है जिनकी कई एकड़ जमीने उदारीकरण के दौर के आने के बाद कारपोरेटी बिसात के चलते हाथ से चली गई ।  पिछले दिनों रामकिशन ने मुलाक़ात के दौरान जब अपनी आप बीती सुनाई तो मुझे भारत के विकास की असली परिभाषा मालूम हुई ।  "शाईनिंग इंडिया", " भारत निर्माण " के हक़ के नाम पर विश्व विकास मंच पर भारत के  बुलंद आर्थिक विकास का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओ को शायद उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारो एकड़ जमीने इस देश में कॉरपोरेट घरानों के द्वारा या तो छिनी गई है या यह सभी छीनने की तैयारी में हैं । दरअसल इस दौर में विकास एक खास तबके के लोगो के पाले में गया है वही दूसरा तबका दिन पर दिन गरीब होता जा रहा है जिसके विस्थापन की दिशा में कारवाही तो दूर सरकारे चिंतन तक नहीं कर पाई है । 

फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को  चुनौती  दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कारपोरेट " का हित साधने  में लगे हुए  हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताते है तो समझना यह भी जरुरी हो जाता है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" का  खेल खेलना चाहती है?

 
कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से १९६७ में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई ।  सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था । उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी ।  इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला । केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हैं ।

नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है । बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है । नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है ।  चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है । इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित कर रहे हैं और समय आने पर अब  उन  पर  हमले  कर उनकी सत्ता को ना केवल चुनौती दे रहे हैं बल्कि यह भी बतला रहे हैं समय आने पर वह सत्ता तंत्र को आइना दिखाने का माददा  रखते हैं ।

नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ।  इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया ।  यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए हैं ।

आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है । देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में माओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे। "ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी । तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है ।  चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात हैं ।  बीते दिनों छत्तीसगढ़ में एक हजार से ज्यादा नक्सलियों ने कांग्रेस के उनतीस से ज्यादा कांग्रेसी  नेताओ को जिस तरह गोदम  घाटी में  मौत के घाट  उतारा उसे राजनेताओ पर की गई पहली सबसे भीषण कार्यवाही माना जा सकता है । महेंद्र  वर्मा तो नक्सलियों के निशाने पर पहले से ही थे लेकिन कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में नक्सलियों ने गोलाबारी में नन्द कुमार पटेल , उदय मुदलियार जैसे वरिष्ठ  नेताओ को मारकर  अपने नापाक इरादे जता  दिए ।  2009 में लालगढ़ में नक्सलियों  ने अपना खौफ पूरे बंगाल में दिखाया था इसके बाद 2007 में पचास  से ज्यादा पुलिस कर्मी नक्सली हिंसा में मारे   गए तो वहीँ 2010  में छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के 76 जवानो की हत्या से नक्सलियों ने तांडव ही मचा  दिया । उसके बाद से अब तक यह पहली भीषण कार्यवाही है जब नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओ को निशाने पर लिया  ।

  केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जुलाई  2011  में पेश रिपोर्ट में तकरीबन तिरासी जिले ऐसे पाए गए जहाँ माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं । हालाँकि 2009  तक  आठ  राज्यों के  तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में थे  । वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है ।  सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है  तो वहीँ सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है । सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ।


कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है ।  यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर " मनमोहनी इकोनोमिक्स " ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है । जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है ।  मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है ।  मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खाई  को और चौड़ा कर रहा है ।

सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस के चलते समाज में बढती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है । आदिवासी इलाको में तस्वीर भयावह है । प्राकृतिक संसाधनों से देश के यह सभी जिले भरपूर हैं लेकिन राज्य और केंद्र सरकार की   गलत नीतियों ने  यहाँ के आदिवासियों का पिछले कुछ दशक से शोषण किया है  और इसी शोषण के प्रतिकार का रूप नक्सलवाद के रूप में हमारे सामने आज  खड़ा है ।   "सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है । हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है ।  अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और अराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता और कई   विदेशी संगठन धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है । अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है ।  केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है और बड़ा सवाल इस दौर में यह भी है नक्सल प्रभावित राज्यों में बड़े बड़े पॅकेज देने के बाद भी यह पैसा कहाँ खर्च हो रहा है इसकी जवाबदेही तय करने वाला कोई नहीं है । इलाको में बिजली नहीं है तो पानी का संकट भी अहम हो चला है । वहीँ अस्पताल के लिए आज भी आजादी  के बाद लोगो को मीलो दूर का सफ़र तय करना पड़ रहा  है । परन्तु दुःख है हमारी सरकारों ने नक्सली हिंसा को सामाजिक , आर्थिक  समस्या से ना जोड़कर उसे कानून व्यवस्था से जोड़ लिया है । इन्ही दमनकारी नीतियों के चलते  इस समस्या को गंभीर बताने पर सरकारे ना केवल तुली हैं बल्कि उसे लोकतंत्र के लिए बाद खतरा बता भी रही है और वोट बैंक के स्वार्थ के चलते एक की कमीज दूसरे से मैली बताने पर भी तुली हुई हैं । जबकि असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है लेकिन हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है । राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है ।  पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दूसरे राज्य में चले जा रहे है बल्कि आये दिन अपनी बिछाई  बिसात से सत्ता को अपने अंदाज में चुनौती दे रहे हैं । ऐसे में राज्य सरकारे एक दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है ।  इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए है...गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे  है ।  केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है । भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए हैं  साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है । कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता ।  इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है।

नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।  चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है।  सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है । हमें यह समझना पड़ेगा कि  लुटियंस की दिल्ली के  एसी कमरों में बैठकर नक्सली हिंसा का समाधान नहीं हो सकता । इस दिशा में सरकारों को अभी से गंभीरता के साथ विचार करना होगा तभी बात बनेगी अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है ।

कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है ।  बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है।  विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है ।  नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना और अब सीधे  छत्तीसगढ़ में राजनेताओ की हत्या बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके  हैं । नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है।   इस दौर में पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है । ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारण  है । एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है जिसका प्रयोग वह अपनी ताकत में इजाफा करने में करते हैं
। कई परियोजनाए इनके दखल के चलते अभी विभिन्न राज्यों में लंबित पड़ी हुई है ।  नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "छतरा " और छत्तीसगढ़ का  "बस्तर" , कांकेर और "दंतेवाडा " जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता और इन इलाको के जंगल में जाने से हर कोई कतराता है  । यह हालत  काफी चिंताजनक  तस्वीर को सामने पेश  करते हैं । 

नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता ।  वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसर गया है  साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है। अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए हैं । सरकारों को गहनता से साथ यह सोचने की जरुरत है इन इलाको में विकास का पंछी  यहाँ के दरख्तों से गायब है और  समझना होगा अब राजनीतिक रंग से इतर  तालमेल, बातचीत  के साथ इन इलाको  में विकास की बयार बहाने का समय आ गया है । कम से कम छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित घने जंगलो में जाकर मुझे तो यही अहसास हुआ है ।