Monday 22 April 2024

उत्तराखंड के 'खामोश चुनाव ' में दांव पर दिग्गजों की प्रतिष्ठा



 


अल्‍मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय सीट पूरी तरह से पर्वतीय और  चार जिलों बागेश्‍वर, चंपावत, पिथौरागढ़ और अल्‍मोड़ा, में फैली हुई संसदीय सीट है।  परिसीमन के बाद अल्मोड़ा- पिथौरागढ़ संसदीय सीट के अंतर्गत 14 विधानसभा क्षेत्र आते हैं।  धारचूला, डीडीहाट, पिथौरागढ़, गंगोलीहाट , कपकोट, बागेश्वर , द्वाराहाट, सल्ट, रानीखेत, सोमेश्वर , अल्मोड़ा, जागेश्वर, लोहाघाट और चम्पावत विधानसभा क्षेत्र अल्‍मोड़ा-पिथौरागढ़ लोकसभा सीट के अंतर्गत आते हैं ।  इस क्षेत्र को राजा बालो कल्याण चंद ने 1568 में बसाया था। महाभारत काल में यहां की पहाड़ियों और आसपास के क्षेत्रों में मानव बस्तियों जिक्र मिलता है। यह क्षेत्र चंदवंशीय राजाओं की राजधानी था।  धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ये इलाका काफी समृद्ध रहा है। इस संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाला पूरा इलाका चीन और नेपाल के साथ-साथ गढ़वाल सीमा से सटा हुआ है । इस संसदीय क्षेत्र में भले ही चार जिले आते हैं लेकिन  लोकसभा चुनावों में  मतदाताओं का मिजाज लगभग एक जैसा ही रहता है और रास्ट्रीय मुद्दे यहाँ ज्यादा हावी रहते हैं। 


अल्‍मोड़ा पिथौरागढ़ लोकसभा सीट लम्बे समय से अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट  है।   1957 में यह संसदीय क्षेत्र पहली बार अस्तित्व में आया। लम्बे समय तक इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा रहा लेकिन दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों की तरह कांग्रेस की ज़मीन प्रदेश में भी खिसकने लगी और अल्मोड़ा सीट किसी भी अपवाद का हिस्सा नहीं बनी । अल्मोड़ा संसदीय सीट के राजनीतिक इतिहास में जाएं तो यहां से पहले सांसद देवीदत्त पंत चुने गए। वर्ष 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के देवीदत्त पंत ने सोशलिस्ट पार्टी के पूर्णानन्द उपाध्याय को हराया। 1957 के उपचुनाव में कांग्रेस के जंगबहादुर बिष्ट ने जनसंघ केसोबन सिंह जीना को पराजित किया। वर्ष 1962 के चुनाव में कांग्रेस के जंगबहादुर बिष्ट ने जनसंघ के प्रताप सिंह को पराजित किया। 1967 के चुनाव में कांग्रेस के ही जंगबहादुर बिष्ट ने जनसंघ के गोविन्द सिंह बिष्ट को पराजित किया। वर्ष 1971 के चुनाव में कांग्रेस के नरेन्द्र सिंह बिष्ट ने जनसंघ के सोबन सिंह जीना को हराया। वर्ष 1952 से 1971 तक इस लोकसभा सीट में  पांच चुनावों में लगातार कांग्रेस को इस सीट से जीत हासिल हुईl 1977 में पहली बार जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी को इस सीट से जीत मिलीl इसके बाद फिर इस सीट पर कांग्रेस ने वापसी कर ली । वर्ष 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी ने कांग्रेस के नरेन्द्र सिंह बिष्ट को पराजित किया लेकिन 1980 में कांग्रेस ने वापसी की और कांग्रेसी नेता हरीश रावत ने जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी को पराजित किया। इस चुनाव में वे मुरली मनोहर पर भारी पड़े। वर्ष 1984 के चुनाव में फिर से कांग्रेस के हरीश रावत विजयी रहे। वर्ष 1989 में भी कांग्रेस के हरीश रावत का जलवा बरकरार रहा जिसमें उन्होंने उत्तराखण्ड क्रांति दल के काशी सिंह ऐरी को पराजित किया।

1991 के चुनावों में फिर से बाजी पलटी। इसमें रामलहर के चलते भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट से अनजान प्रत्याशी जीवन शर्मा को उतारा और उन्होंने कांग्रेस के हरीश रावत के विजयी रथ पर विराम लगा दिया। इसके बाद इस सीट से वर्ष 1996, 1998, 1999 व 2004 में भाजपा के बची सिंह रावत लगातार चार लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज करते रहे। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बची सिंह रावत ने कांग्रेस की रेणुका रावत को हराया। 1980 से 1991 के बीच हुई 3 बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हरीश रावत को इस सीट से जीत मिली। हालांकि वर्ष 1991 से यह सीट भाजपा के खाते में चली गई। भाजपा के जीवन शर्मा एक बार और बची सिंह रावत तीन बार यहां के सांसद चुने गए। क्षेत्र में राष्‍ट्रीय दलों का ही बोलबाला है। संसदीय क्षेत्र में केवल एक बार क्षेत्रीय दल उक्रांद ने जबरदस्‍त चुनौती दी थी।  सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने के बाद भी भाजपा और कांग्रेस के बीच शुरूआती दौर पर बराबर की टक्कर रही, वर्ष 2009 में कांग्रेस के प्रदीप टम्‍टा सांसद चुने गए तो वर्ष 2014 से भाजपा के अजय टम्‍टा यहाँ से दिल्ली पहुंचे लेकिन 2019 बीजेपी ने कांग्रेस की राजनीतिक ज़मीन पूरी तरह खिसका दी। 2019 में भाजपा के अजय टम्टा ने कुल मतदान का 65.5 प्रतिशत वोट प्राप्त कर रिकॉर्ड कायम किया। कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप टम्टा 31.2 प्रतिशत वोट ही ला सके। अब एक बार फिर प्रदीप टम्टा और अजय टम्टा आमने सामने हैं l यह लगातार चौथा अवसर है, जब दोनों चेहरे एक बार फिर आमने सामने हैं । 

ठाकुर-ब्राह्मण बाहुल्य इस संसदीय क्षेत्र के जातीय समीकरण पर नजर डालें तो यहां सर्वाधिक 44 प्रतिशत राजपूत व 29 प्रतिशत ब्राह्मण के साथ ही 27 प्रतिशत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के लोग हैं। वर्ष 2009 में इस सीट के अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने के बाद से यहां कांग्रेस व भाजपा ने लगातार टम्टा बंधुओं पर ही भरोसा जताया है। अन्य दलित नेताओं की इस सीट से दावेदारी तो हुई, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। कांग्रेस से प्रदीप टम्टा एक बार फिर सफल रहे हैं। भाजपा प्रत्याशी अजय टम्टा संघ से नजदीकी और शिवप्रकाश की गुडबुक में संगठनकी  सक्रियता के चलते टिकट पाने में सफल रहे वहीं कांग्रेस ने भी एक बार फिर प्रदीप टम्टा पर भरोसा जताया है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत के नजदीकी के चलते वह टिकट पाने में सफल रहे।अल्मोड़ा सीट पर कांग्रेस ने एक बार फिर से प्रदीप टम्टा पर ही दांव खेला है। जबकि इस क्षेत्र में कांग्रेस के कई अन्य नेता भी दावेदार थे। इनमें बसंत कुमार का नाम सबसे ऊपर माना जा रहा था। लेकिन इस सीट पर कांग्रेस ने टम्टा के सामने टम्टा का फार्मूला अपनाया। प्रदीप टम्टा 2009 में लोकसभा से चुनाव जीत चुके हैं और 2016 में कांग्रेस से राज्यसभा सांसद भी रहे हैं। पूर्व में सोमेश्वर के विधायक भी रह चुके हैं। इसके चलते कांग्रेस ने भाजपा के अजय टम्टा के खिलाफ प्रदीप टम्टा को मैदान में उतारा है। अल्मोड़ा सीट पर कांग्रेस  की स्थिति कुछ बेहतर है और चुनावी मुकाबले में कांग्रेस भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकती है। इसका एक कारण यह माना जा रहा है कि अजय टम्टा से क्षेत्र के मतदाताओं में  नाराजगी है। वह संसद में भी राज्य के सवालों को  उठाने में नाकामयाब रहे साथ ही दस वर्ष से उनके खिलाफ एंटीओ इंकम्बैंसी बानी है।   भाजपा भीतर इस सीट पर उम्मीदवार को बदलने की चर्चा थी लेकिन सभी कयासों को दरकिनार करते हुए अजय टम्टा को ही फिर से तीसरी बार उम्मीदवार बनाया गया । अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य,  शिक्षा,  संचार व्यवस्था के साथ ही विकास के तमाम सवाल पर भी प्रत्याशियों को दो-चार होना पड़ेगा, लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं जो चुनाव के दौरान उभर कर सामने  आ रहे हैं। अगर मुद्दों पर मतदान हुआ तो इस बार की राह आसान नहीं लग रही।  बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चंपावत का एक बड़ा हिस्सा आपदा से प्रभावित है। नैनी सैनी से नियमित हवाई सेवाओं की शुरुआत न हो पाना भी एक बड़ा मुद्दा होगा।  अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में  युवा मतदाता बड़ी संख्या में 18 से 40 वर्ष आयु वर्ग के हैं  जो चुनाव परिणामों का रुख बदल सकते हैं। युवाओं के अपने मुद्दे हैं जो पार्टी प्रत्याशी युवाओं को लुभा पाएगा वह बाजी पलटने में सक्षम हो सकता है। युवा मतदाताओं की  शिक्षा व रोजगार के मुद्दे पर जनप्रतिनिधि कुछ खास नहीं कर पाए हैं लेकिन अजय टम्टा मोदी के नाम की माला से क्या इस बार वैतरणी पार कर पाएंगे ये बड़ा सवाल है?  अल्मोड़ा संसदीय सीट के अंतर्गत पूर्व सैनिक बड़ी संख्या में  वोटर हैं जो किसी भी प्रत्याशी का भाग्य बदलने के लिए काफी है। इसके अलावा इस संसदीय सीट से सर्विस मतदाताओं की संख्या भी अच्छी खासी है जो हार-जीत का समीकरण बना व बिगाड़  सकते हैं।

हरिद्वार संसदीय सीट  की अगर बात करें तो यह दो जिलों देहरादून और हरिद्वार को मिला कर बनी है l 1977 में परिसीमन के बाद ये निर्वाचन क्षेत्र अस्तित्व में आया था l मौजूदा समय में इस सीट के अंतर्गत चौदह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं l शुरूआत में भारतीय लोकदल के प्रभाव वाली इस सीट पर कांग्रेस ने पकड़ मजबूत करने में सफलता हासिल की थी, लेकिन 1991 के बाद कुछ एक मौके छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर समय भाजपा ने ही सदन में इस  क्षेत्र प्रतिनिधित्व किया है।  रामलहार में ये सीट भगवामय होती रही है।  1977 में जब ये सीट अस्तित्व में आई, तब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का यहां पर खासा दबदबा था। यही कारण रहा कि परिसीमन के बाद यहाँ से सबसे पहले  लोकदल का प्रतिनिधी चुन कर दिल्ली पहुंचाl  1980 में यह सीट जनता पार्टी ने जीती, लेकिन 1984 में समीकरण बदले और कांग्रेस लहर का असर  यहाँ के चुनाव परिणामों में देखने को मिलाl इसके बाद 1987 के उपचुनाव में भी कांग्रेस को यहाँ अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब मिली। यहाँ तक कि मंडल- कमंडल के दौर में यानि 1989 में भी  कांग्रेस ने यहाँ से जीत हासिल की l  लेकिन 1991 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए राम सिंह सैनी ने अपनी ज़मीनी पकड़ के कारण इस सीट पर समीकरणों को बदल दिया और सीट पर भाजपा ने अपना झंडा गाड़ दिया। इसके बाद ये संसदीय सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दी गई और भाजपा ने इस दौरान हरपाल साथी  को मैदान में उतारा जिन्होंने लगातार तीन चुनाव जीतकर एक रिकार्ड बनाया। इसके बाद हरिद्वार की जनता ने सपा पर भरोसा  जताया और 2004 में ये सीट सपा की झोली में  डाल द ।  2011 में परिसीमन होने के बाद इस लोकसभा क्षेत्र  का राजनीतिक मिजाज काफी प्रभावित हुआ। हरिद्वार सीट में देहरादून के तीन विधानसभा क्षेत्र डोईवाला, धर्मपुर और ऋषिकेश शामिल किए गए। बदलते चुनावी समीकरणों  के बीच भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा को इस क्षेत्र  पर नए सिरे से प्रयास करना पड़ा।  ये सीट 2009 में अनारक्षित श्रेणी में आ गई जिसके बाद कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत मैदान में उतरे और जीत दर्ज की लेकिन मोदी लहर में ये सीट फिर से  भाजपा के पाले में आ गई। पिछले दो  लोकसभा  चुनावों में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक लगातार दो बार जीत कर यहाँ से दिल्ली पहुंचे l हालाँकि  2014 में आम आदमी पार्टी ने भी यहाँ अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की और पहली पुलिस महानिदेशक रही कंचन चौधरी को मैदान में उतारा पर सफल नहीं हो सकी। हरिद्वार लोकसभा सीट 2009 से पूर्व सुरक्षित सीट थी, परंतु 2009 में कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत ने हरिद्वार का रुख किया तो हरिद्वार के मतदाताओं ने उनको हाथों हाथ लिया और हरीश रावत भाजपा प्रत्याशी स्वामी यतीश्वरानंद  को एक लाख से भी अधिक मतों से पराजित कर लोकसभा पहुंचे। 2014 के चुनाव में मोदी लहर के चलते इस सीट पर भाजपा नेता पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 592320 मत प्राप्त कर तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत की पत्नी रेणुका रावत को डेढ़ लाख से भी अधिक मतों से पराजित किया। 2019 में भी भाजपा ने डाॅ निशंक पर भरोसा जताते हुए उनको मैदान में उतारा तो कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से पूर्व विधायक अंबरीश कुमार पर भरोसा जताया जिनको भी हार का सामना करना पड़ा था। डॉ निशंक मोदी लखर में दूसरी बार संसद गए और शिक्षा मंत्री बने। हरिद्वार संसदीय सीट से साल 2019 में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक ने जीत हासिल की थीl साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में निशंक ने कांग्रेस के अंबरीश कुमार को कुल 258729 वोटों के अंतर से हराया था l 

हरिद्वार के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो यहां से दो राष्ट्रीय पार्टियां भाजपा और कांग्रेस ही ज्यादातर चुनाव जीतती रही हैं। 1977 से लेकर अब तक हुए चुनावों में 5 बार भाजपा तो 5 बार कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई है। 1977 में जनता पार्टी की लहर चली तो भगवानदास राठौड चुनाव जीते। 1980 में  इस सीट से लोकदल के जगपाल सिंह चुनाव जीते। 1984 में कांग्रेस के सुंदर लाल ने इस सीट पर कब्जा किया। इसके बाद 1987 में उन्हीं की पार्टी के राम सिंह सांसद चुने गए। 1989 में कांग्रेस टिकट पर जगपाल सिंह सांसद चुने गए। तीन बार लागतार कांग्रेस के प्रत्याशी विजयी होते रहे। इसके बाद लगातार चार बार भाजपा ने हरिद्वार लोकसभा सीट पर अपनी पताका फहराई। 1991 में भाजपा के राम सिंह और 1996 में हरपाल सिंह साथी सांसद बने। हरपाल सिंह साथी भाजपा के टिकट पर लगातार तीन बार  सांसद चुने गए। 1996 के अलावा 1998, 1999 में भी साथी चुनाव जीते। 2004 में समाजवादी पार्टी के राजेंद्र कुमार बाडी चुनाव जीते। 2009 में यहां के कांग्रेस के हरीश रावत सांसद चुने गए। 2014 में उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमेश पोखरियाल निशंक को भाजपा ने मैदान में उतारा। निशंक ने कांग्रेस के खांटी नेता हरीश रावत की पत्नी रेणुका रावत को चुनाव हराकर भारी वोटों से जीत हासिल की।  2014 में डॉ  रमेश पोखरियाल निशंक को मिले मत कांग्रेस प्रत्याशी रेणुका रावत के अलावा बसपा प्रत्याशी हाजी इस्लाम और आप प्रत्याशी कंचन चौधरी भट्टाचार्य समेत बाकी सभी 22 प्रत्याशियों को मिले कुल वोटों से ज्यादा थे। निशंक को 5 लाख 92 हजार 320 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी रेणुका रावत को 4 लाख 14 हजार 498 मत हासिल हुए। 2014 में भाजपा प्रत्याशी डॉ रमेश पोखरियाल निशंक की जीत का अंतर एक लाख 77 हजार 822 रहा। 2019 में भाजपा इस रिकॉर्ड जीत को बरकरार रख पाती है या नहीं, यह तो समय ही बताएगा। इस सीट के अंतर्गत चौदह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं जिनमें  भेल रानीपुर , भगवानपुर (एससी), हरिद्वार, हरद्वार ग्रामीण, झबरेड़ा (एससी), ज्वालापुर (एससी), खानपुर, लक्सर, मंगलौर, पिरान कालियार, रुड़की, धर्मपुर, डोईवाला और ऋषिकेश l  हरकी पैड़ी, शक्तिपीठ मां मनसा देवी मंदिर, गायत्री तीर्थ शांतिकुंज,योगगुरु बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ और भारत की नवरत्न कंपनियों में शामिल भेल के साथ ही इस संसदीय सीट की जाती हैl  यहां का राजाजी टाइगर रिजर्व देश ही नहीं दुनिया में भी अपनी अलग पहचान रखता हैl 20 सालों में हरिद्वार लोकसभा सीट पर वोटरों की संख्या में रिकॉर्ड 122 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है 2004 के चुनाव में वोटरों की संख्या 914440 थी जो अब बढ़ कर  2031668 हो गई है l

इस बार भाजपा ने हरिद्वार सीट पर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को मैदान में उतारा है, वहीँ उनके मुकाबले कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत अपने बेटे के राजनीतिक करियर को मज़बूत करने का कोई मौका नहीं गवाना चाहते l ऐसे में हरिद्वार की लड़ाई काफी रोचक बन गई है। हरिद्वार लोकसभा सीट पर मुकाबला रोचक होने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। जहां एक ओर स्थानीय और बाहरी प्रत्याशी के मुद्दे को हवा  दी जा रही है वहीँ  कांग्रेस को अंदरूनी कलह के चलते अपने नेताओं के दल-बदल करने का सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है,  वहीं संगठन स्तर पर मजबूत नजर आ रही भाजपा मोदी के नाम पर मतदाताओं को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। 6 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं एवं 22 प्रतिशत एससी वोटर को मिलाकर कुल 1835527 मतदाताओं की यह सीट 1977 से अस्तित्व में आई। मुद्दों की बात करें तो अगर राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर वोट पड़े तो यहाँ फिर से भाजपा मजबूत हो सकती है लेकिन डॉ रमेश पोखरियाल निशंक को  टिकट न मिलने से भाजपा में बड़ा तबका असंतुष्ट है।  डॉ निशंक कहने को हरिद्वार में हैं लेकिन लोकसभा प्रत्याशी त्रिवेंद्र के पक्ष में खड़े होने के बजाए इस सीट पर वह अपना खुद का जनसम्पर्क करने में ज्यादा लगे हुए हैं जिससे भाजपा की परेशानी बढ़ रही है।  इस सीट पर दो से ढाईलाख की मुस्लिम आबादी भी है जिस  पर सपा और बसपा डोरे दाल रही है।  हरीश रावत अगर खुद इस सीट से अगर प्रत्याशी होते तो कांग्रेस के लिए यहाँ पर अच्छी संभावनाएं शायद बन सकती थी लेकिन पुत्रमोह में हरदा ने बेटे के लिए ही चुनाव का प्रचार करना पसंद किया।  

 हरिद्वार संसदीय सीट दो जिलों देहरादून और हरिद्वार को मिला कर बनी है l 1977 में परिसीमन के बाद ये निर्वाचन क्षेत्र अस्तित्व में आया था l मौजूदा समय में इस सीट के अंतर्गत चौदह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं l शुरूआत में भारतीय लोकदल के प्रभाव वाली इस सीट पर कांग्रेस ने पकड़ मजबूत करने में सफलता हासिल की थी, लेकिन 1991 के बाद कुछ एक मौके छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर समय भाजपा ने ही सदन में इस  क्षेत्र प्रतिनिधित्व किया है 1977 में जब ये सीट अस्तित्व में आई, तब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का यहां पर खासा दबदबा था। यही कारण रहा कि परिसीमन के बाद यहाँ से सबसे पहले  लोकदल का प्रतिनिधी चुन कर दिल्ली पहुंचाl  1980 में यह सीट जनता पार्टी ने जीती, लेकिन 1984 में समीकरण बदले और कांग्रेस लहर का असर  यहाँ के चुनाव परिणामों में देखने को मिलाl इसके बाद 1987 के उपचुनाव में भी कांग्रेस को यहाँ अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब मिली। यहाँ तक कि मंडल कमंडल के दौर में यानि 1989 में भी  कांग्रेस ने यहाँ से जीत हासिल की l  लेकिन 1991 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए राम सिंह सैनी ने अपनी ज़मीनी पकड़ के कारण इस सीट पर समीकरणों को बदल दिया और सीट पर भाजपा ने अपना झंडा गाड़ दिया । इसके बाद ये संसदीय सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दी गई और भाजपा ने इस दौरान हरपाल साथी  को मैदान में उतारा जिन्होंने लगातार तीन चुनाव जीतकर एक रिकार्ड बनाया। लेकिन इसके बाद हरिद्वार की जनता ने सपा पर भरोसा  जताया और 2004 में ये सीट सपा की झोली में  डाल दी   लेकिन 2011 में परिसीमन होने के बाद इस लोकसभा क्षेत्र  का राजनीतिक मिजाज काफी प्रभावित हुआ। हरिद्वार सीट में देहरादून के तीन विधानसभा क्षेत्र डोईवाला, धर्मपुर और ऋषिकेश शामिल किए गए। बदलते चुनावी समीकरणों  के बीच भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा को इस क्षेत्र  पर नए सिरे से प्रयास करना पड़ाl  ये सीट 2009 में अनारक्षित श्रेणी में आ गई  जिसके बाद कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत मैदान में उतरे और जीत दर्ज की। लेकिन मोदी लहर में ये सीट फिर से एक बार BJP के पाले में आ गई l पिछले दो चुनावों में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक लगातार दो बार जीत कर यहाँ से दिल्ली पहुंचे l हालाँकि  2014 में आम आदमी पार्टी ने भी यहाँ अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की और पहली पुलिस महानिदेशक रही कंचन चौधरी को मैदान में उतारा पर सफल नहीं हो सकी।

24 सालों में हरिद्वार लोकसभा सीट पर वोटरों की संख्या में रिकॉर्ड 122 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2004 के चुनाव में वोटरों की संख्या 914440 थी जो अब बढ़ कर   2031668 हो गई है।हरिद्वार संसदीय सीट से साल 2019 में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक ने जीत हासिल की। 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में निशंक ने कांग्रेस के अंबरीश कुमार को कुल 258729 वोटों के अंतर से हराया था। इस बार बीजेपी ने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को मैदान में उतारा है, वहीँ उनके मुकाबले कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत अपने बेटे के राजनीतिक करियर को मज़बूत करने का कोई मौका नहीं गवाना चाहते । ऐसे में हरिद्वार की लड़ाई काफी रोचक बन गई है।पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत विगत् एक वर्ष से हरिद्वार सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, वे वंशवाद की चपेट में आ खुद रणछोड़दास बन  कांग्रेस के कई नेताओं से नाराजगी मोल ले चुके हैं। ऐसा नहीं है कि हरिद्वार सीट पर कांग्रेस के पास उम्मीदवारों की कमी थी। प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा के अलावा हरक सिंह रावत भी यहां से चुनाव लड़ने का दावा कर रहे थे।  खानपुर से निदर्लीय विधायक उमेश कुमार शर्मा को कांग्रेस से टिकट दिए जाने की भी बात हुई लेकिन इस पर हरीश रावत ने अपना विरोध जता दिया। राजनीतिक तौर पर हरीश रावत इस क्षेत्र में खासे जनाधार वाले नेता माने जाते हैं। अल्मोड़ा सीट से जब बार बार उनको ठुकराया गया तो 2009 में हरि  के इस द्वार के माध्यम से हरदा चुनाव जीतकर संसद पंहुचे थे। साथ ही उनकी हरिद्वार के हर मामले में सक्रियता भी रही और कांग्रेस के वोट बैंक के हिसाब से भी ये सीट उसके लिए मजबूत रही है। हरीश रावत अपने जनाधार का फायदा अपने पुत्र को कितना दिलवा पाएंगे यह तो चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा।  अगर हरीश रावत स्वयं यहाँ से चुनाव लड़ते तो मुकाबला बेहद दिलचस्प और कांटे का बन सकता था। त्रिवेंद्र सिंह रावत के सामने  संगठन और  पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे निशंक  को साधने की चुनौती रही है।  पूर्व में डोईवाला उपचुनाव में त्रिवेंद्र का हारना और 2012  में मुख्यमंत्री  रहते हुए बी सी खंडूड़ी का कोटद्वार से पराजित होना कैसे हुआ ये भी किसी से छिपा नहीं है।  खटीमा में धामी की हार कैसे  भाजपा के बड़े  नेताओं के चलते हुई और भीतरघात ने हरा दिया यह देखते हुए भाजपा की राह हरिद्वार में इस बार आसान नहीं लग रही।  खानपुर विधायक उमेश कुमार के निदर्लीय चुनाव में आने से  मामला  त्रिकोणीय बना था बसपा ने इस सीट से मुस्लिम कार्ड चलकर भाजपा और कांग्रेस को असहज करने का काम किया है। 

इधर नैनीताल-उधमसिंह नगर लोकसभा सीट ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों ही दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण सीट है।  भाजपा  ने जहाँ अजय भट्ट पर एक बार फिर भरोसा जताया है वहीँ कांग्रेस से प्रकाश जोशी मैदान में ताल ठोक रहे हैं। इसके अलावा बसपा सहित आठ अन्य प्रत्याशी भी चुनावी समर में शिरकत कर रहे हैं। नैनीताल-उधमसिंह नगर संसदीय सीट उत्तराखंड के दो जिलों, नैनीताल और उधम सिंह नगर, से मिलकर बना है। पहले ये केवल नैनीताल सीट हुआ करती थी और फिर 2008 में इसका विस्तार तराई के इलाकों में होते हुए उधम सिंह नगर को भी इसमें जोड़ा गया ।   यूं तो आज़ादी के बाद से ही ये सीट कांग्रेस का गढ़ रही है।  कहने को 17 आम चुनावों में 11 बार कांग्रेस ने यहाँ जीत दर्ज़ की है लेकिन प्रदेश के गठन के बाद बीजेपी की इस सीट पर धीरे धीरे पकड़ बनी और 2014 की मोदी लहर में ये सीट बीजेपी कैंप में शामिल हो गई और तब से अब तक भाजपा  मजबूती के साथ यहाँ पैठ बनाए हुए है l एक ओर बीजेपी जीत की हैट्रिक की तैयारियों में जुटी है वहीँ दूसरी ओर कांग्रेस के लिए ये सीट अब प्रतिष्ठा का सवाल बन गयी है l 1995 में नैनीताल के तराई वाले हिस्से को अगलकर उधमसिंह नगर जिला बनाया गया इसका नाम स्वतंत्रता सेनानी उधम सिंह के नाम पर रखा गया l उधम सिंह ने लंदन जाकर जालियावाला बाग हत्याकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की हत्या की थी।  नैनीताल उधमसिंह लोकसभा सीट का गठन साल 2008 में हुए परिसीमन के बाद हुआ था l नैनीताल-उधम नगर सिंह नगर लोकसभा सीट में दोनों ज़िलों के 14 विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं।  उधमसिंह नगर के बाजपुर, गदरपुर, जसपुर, काशीपुर, खटीमा, किच्छा, नानकमत्ता, रुद्रपुर और सितारगंज जबकि नैनीताल जिले के पांच विधानसभा भीमताल, हल्द्वानी, नैनीताल, कालाढूंगी और लालकुआँ शामिल है ।  

नैनीताल-ऊधमसिंह नगर संसदीय क्षेत्र मतदाताओं के लिहाज़ से उत्तराखंड की दूसरी सबसे बड़ी सीट है । 2008 के परिसीमन के बाद 2009 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी।  कांग्रेस के करण चंद सिंह बाबा यहाँ से चुनकर संसद पहुंचे l इस चुनाव में बीजेपी के बच्ची सिंह रावत दूसरे नंबर पर रहेl  वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में ये सीट भाजपा के खाते में पहुंची।  2014 में भगत सिंह कोश्यारी  कांग्रेस के प्रत्याशी करण चंद सिंह बाबा को 2 लाख 84 हजार 717 मतों से हरा कर दिल्ली पहुंचे l इस चुनाव में भगत सिंह कोश्यारी को 6 लाख 36 हजार 769 वोट मिले थे जबकि कांग्रेस के करण चंद सिंह बाबा को 3 लाख 52 हजार 52 वोट हासिल हुए थी  लेकिन 2019 में बीजेपी ने अजय भट्ट को मैदान में उतारा और उनके सामने कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत मैदान में थे।  इस चुनाव में अजय भट्ट को 7 लाख 72 हजार 195 वोट हासिल हुए जबकि हरीश रावत  के खाते में 4 लाख 33 हजार 99 वोट ही गए l

नैनीताल (6 विधानसभा सीट) और उधमसिंह नगर (9 विधानसभा सीट) जिले को कवर करने वाली इस लोकसभा सीट में कुल 15 विधानसभा सीटें हैं  कहा जाता है कि सबसे अधिक तराई की 13 विधानसभा सीट के वोटर ही यहां के लोकसभा प्रत्याशी का भविष्य तय करते हैं. पलायन करके तराई के क्षेत्र में बसे पहाड़ के लोग इन 13 विधानसभा सीटों में अच्छी खासी संख्या में रहते हैं. इसीलिए तराई के लोग ही इस लोकसभा सीट पर निर्णायक भूमिका में नजर आते हैं।  नैनीताल-उधमसिंह नगर लोकसभा सीट पर लगभग 19 लाख वोटर हैं जिसमें लगभग 10 लाख पुरुष वोटर और 9 लाख महिला वोटर शामिल हैं।  इस सीट पर उधमसिंह नगर का खटीमा शहर नेपाल देश से लगा हुआ है जबकि दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की सीमा से सटा हुआ है।  उत्तराखंड के साथ-साथ उत्तर प्रदेश से कई कर्मचारी यहां स्थित फैक्ट्री में काम करते हैं।  नैनीताल-उधमसिंह नगर क्षेत्र में ग्रामीण आबादी 63.11 फीसदी है जबकि 36.89 फीसदी शहरी जनसंख्या है. इसमें 16.08 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोगों की हिस्सेदारी है. जबकि 5.17 फीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी है. 17-18 प्रतिशत ओबीसी और 15 से 18 फीसदी क्षत्रिय और ब्राह्मण हैं. इस लोकसभा क्षेत्र में 15 फीसदी मुस्लिम समुदाय निवास करता है। क्षेत्र की कुल आबादी 25 लाख है।  

नैनीताल-उधमसिंह नगर लोकसभा सीट भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत की कर्मस्थली रही है।  यही कारण है कि 1951 में हुए पहले चुनाव से लेकर 1957 तक के चुनाव में उनके दामाद यहां से सांसद चुनते आए।  इसके बाद 1962, 1967 और 1971 के लोकसभा चुनाव में पंत के बेटे केसी पंत ने लगातार तीन बार जीत दर्ज की.राम लहर में हारे तिवारी: केसी पंत ने कांग्रेस के टिकट पर यहां से चुनाव लड़ा लेकिन 1977 में लोक दल के नेता भारत भूषण ने केसी पंत के जीत के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए अपनी जीत दर्ज करवाई।  इसके बाद 1980 के चुनाव में एनडी तिवारी ने भारत भूषण को भारी मतों से हराया। 1984 के चुनाव में एनडी तिवारी ने अपने खास और करीबी सत्येंद्र चंद्र को यहां से बड़ी जीत दर्ज करवाई।  नारायण तिवारी को तब तक लोग देश का बड़ा नेता मान चुके थे लेकिन एनडी तिवारी की इस सीट पर 1989 में जनता दल के डॉक्टर महेंद्र पाल ने जीत दर्ज की।  1991 की राम लहर में नारायण दत्त तिवारी को इस सीट पर बलराज पासी के हाथों हार का सामना करना पड़ा।  इसके बाद 1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की इला पंत ने एनडी तिवारी को बड़े अंतर से हराया। 2002 में कांग्रेस के डॉ महेंद्र पाल ने इस सीट पर जीत दर्ज की।  इसके उपचुनाव में भी दोबारा वही जीते लेकिन साल 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के केसी सिंह बाबा ने लगातार दो बार कांग्रेस को ही जीत दिलाई लेकिन उनका जीत का ये रथ 2014 के लोकसभा चुनाव में थम गया।   भगत सिंह कोश्यारी ने सीट भाजपा की झोली में डाली।  इसके बाद साल 2019 के चुनाव में भाजपा के अजय भट्ट ने जीत दर्ज कराई। 2024 के चुनाव में भी भाजपा ने अजय भट्ट को अपना उमीदवार बनाया है।  हालाँकि काम के मामले में अजय भट्ट कुछ खास नहीं कर पाए हैं लेकिन उन्हें भी इस बार मोदी की माला का ही सहारा है।  अपने चुनाव प्रचार के बीच अजय भट्ट ने ये कहा मेरे कर्मों की सजा आप मोदी को नहीं देना।  यह कहकर कांग्रेस प्रत्याशी प्रकाश जोशी को एक बड़ा मुद्दा हाथ दे दिया। हालाँकि प्रकश जोशी की जगह पर अगर यहाँ महेंद्र पाल , भुवन कापड़ी , यशपाल आर्य को अगर प्रत्याशी बनाया जाता तो कांग्रेस के लिए यहाँ पर अच्छी संभावनाएं हो सकती थी लेकिन फिलहाल भाजपा अपने संगठन  और कैडर के वोटोंके बूते इस सीट पर आगे नजर आ रही है।     

टिहरी-गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र टिहरी, उत्तरकाशी व देहरादून जनपद की 14 विधानसभा सीटों को मिलाकर बना है। आज़ादी के समय टिहरी राज्य का भारत में विलय होने के बाद यहाँ आम चुनाओं में स्थानीय राज घराने  का काफी दबदबा रहा है।टिहरी गढ़वाल संसदीय सीट पूर्व में पौड़ी, दक्षिण में हरिद्वार, पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और उत्तर में चीन की सीमा से सटा हुआ संसदीय क्षेत्र है। यह क्षेत्र  उत्तरकाशी, देहरादून और टिहरी गढ़वाल जिले के कुछ हिस्सों को शामिल कर बनाया है। कुल 14 विधानसभा क्षेत्र, पुरोला, यमुनोत्री, गंगोत्री, घनसाली, प्रतापनगर, टिहरी, धनोल्टी, चकराता, विकासनगर, सहसपुर, रायपुर, राजपुर रोड, देहरादून कैंट व मसूरी , इस संसदीय क्षेत्र में शामिल हैं। पर्यटन के लिहाज़ से ये संसदीय सीट काफी महतवपूर्ण है और उत्तराखंड की आर्थिक मजबूती बनाए रखने में इस क्षेत्र का खासा योगदान है l लाखमंडल, गोमुख, गंगोत्री, यमुनोत्री धाम तथा दुनियां का आठवां सबसे बड़ा टिहरी बांध सहित स्वामी रामतीर्थ की तप स्थली और श्रीदेव सुमन की कर्मस्थली इसी लोकसभा सीट के अंतर्गत आते हैं l इसके अतिरिक्त चम्बा, बुढा केदार मंदिर, कैम्पटी फॉल, देवप्रयाग आदि प्रसिद्ध स्थान भी इसी लोकसभा  क्षेत्र का हिस्सा हैंl

1949 में टिहरी राज्य का भारतीय संघ में विलय के होने के बाद 1951-52 के पहले लोकसभा चुनाओं में राजा मानवेंद्र शाह का नामांकन खारिज होने पर महारानी कमलेंदुमति को निर्दलीय चुनाव में उतारा गया और उन्होंने इस सीट पर पहले ही लोकसभा चुनाओं के बाद राज परिवार की उपस्थिति दर्ज़ करवा दी l इसके बाद हुए चुनावों में टिहरी रियासत के अंतिम राजा मानवेंद्र शाह 1957 में इस सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीतकर संसद पहुंचे और 1967 तक वे इस सीट पर सांसद रहेl इसके बाद जब साल 1971 में कांग्रेस के टिकट से परिपूर्णानंद ने टिहरी लोकसभा सीट पर जीत दर्ज़ की l1977 में त्रेपन सिंह नेगी बीएलडी की टिकेट पर यहाँ से चुनाव जीते और 1980 में कांग्रेस में शामिल हो विजय हुए। एक बार फिर राज परिवार इस सीट से संसद के भीतर पहुंचे लेकिन बीजेपी की टिकेट पर l पहले 1991 और फिर 2004 में मानवेंद्र शाह भाजपा की टिकट पर सांसद चुने गए। इसके बाद साल 2009 में हुए चुनाओं में कांग्रेस ने वापसी करते हुए विजय बहुगुणा ने यहाँ से जीत हासिल की। लेकिन विजय बहुगुणा के प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से खाली हुई इस सीट पर भाजपा ने मौजूदा सांसद राज्य लक्ष्मी शाह को उपचुनाओं के दौरान मैदान में उतार, जो तब से लगातार इस सीट पर अपना वर्चस्व कायम रखे हुईं हैंl राज्य लक्ष्मी शाह ने 2014 में कांग्रेस से साकेत बहुगुणा और 2019 में प्रीतम सिंह को शिकश्त दीl लेकिन ये दोनों ही जीत मोदी लहर के बीच भी बहुत बड़े फासले की जीत नहीं थी, कांग्रेस को 2014 में 31 फीसदी और 2019 में 30 फीसदी मत मिले थे। एक बार फिर बीजेपी ने माला राज्य लक्ष्मी शाह को चुनाव मैदान में उतारा है। उनका मुकाबला इस बार कांग्रेस प्रत्याशी जोत सिंह गुनसोला से होगा। गुनसोला पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन इस सीट पर सबसे अधिक निर्दलीय प्रत्याशी बॉबी पंवार की चर्चा है जिसने पेपर लीक के मसले को उठाकर उत्तराखंड की राजनीती में युवाओं के एक बड़े तबके के दिल को जीतने का काम किया है।  बॉबी को उक्रांद का भी समर्थन हासिल है लेकिन उनके पास भाजपा जैसे चुनाव लड़ने के संसाधन और बूथ मैनेजमेंट नहीं है।  अगर यह चुनाव बाबी हार भी जाते हैं तो उत्तराखंड की भविष्य की राजनीती में वो सितारे बन सकते हैं।  इस सीट पर बॉबी पंवार  के होने से कांग्रेस के वोटों में सेंध लगने की संभावनाएं जताई जा रही हैं।

 टिहरी लोकसभा सीट पर कुल 19.74 लाख मतदाता हैंl इनमें से 8.13 लाख पुरुष मतदाता हैं जबकि 7.60 लाख महिला मतदाता हैं l वहीँ 18 से 19 आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या 28,638 है, जबकि 85 वर्ष से अधिक उम्र वाले मतदाताओं की संख्या 12,999 हैl इसके अलावा दिव्यांग मतदाताओं की संख्या 16, 363 जबकि सर्विस वोटर की संख्या 12, 876 हैl टिहरी सीट पर लगातार तीन बार चुनाव जीतने वाली भाजपा की महारानी माला राजलक्ष्मी के मुकाबले कांग्रेस के जोत सिंह गुनसोला मैदान में हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रीतम सिंह टिहरी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े हैं और तीन लाख से ज्यादा मतों से हार चुके हैं। अगर टिहरी सीट से प्रीतम सिंह कांग्रेस के स्वाभाविक उम्मीदवार होते तो मुकाबला जोरदार होता लेकिन प्रीतम सिंह चुनाव लड़ने से पहले ही इनकार कर चुके थे। 

राज्य की सबसे बड़ी और विषम भौगोलिक परिस्थिति वाली गढ़वाल संसदीय सीट है। प्रदेश के पांच जिलों को समेटती इस सीट में जहां तीन पर्वतीय जिले पौड़ी, चमोली व रुद्रप्रयाग हैं, वहीं टिहरी जिले के दो विधानसभा क्षेत्र देवप्रयाग व नरेंद्रनगर और नैनीताल जिले का रामनगर विधानसभा क्षेत्र शामिल है।सीट की विषम भौगोलिक परिस्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनावी दंगल में उतरने वाले प्रत्याशियों को जहां चीन सीमा से लगे नीती-माणा व केदारघाटी समेत उच्च हिमालयी क्षेत्र की खड़ी चढ़ाई नापनी पड़ती है, वहीं कोटद्वार भाबर के साथ ही रामनगर तक की दौड़ लगानी पड़ती है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अब तक हुए लोकसभा के चार चुनाव में इस सीट पर भाजपा का दबदबा रहा।यह सीट तीन बार भाजपा और एक बार कांग्रेस के पास रही। राज्य बनने के बाद वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के मेजर जनरल (सेनि) भुवनचंद्र खंडूड़ी ने इस सीट पर विजय प्राप्त की थी। वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर सतपाल महाराज ने इस सीट पर कब्जा जमाया।वर्ष 2014 में भाजपा के टिकट पर पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल (सेनि) भुवनचंद्र खंडूड़ी ने जीत दर्ज की। वर्ष 2019 में भाजपा के तीरथ सिंह रावत इस सीट पर विजयी रहे। तीरथ सिंह रावत को पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी का राजनीतिक शिष्य माना जाता रहा है।

2019 के लोकसभा चुनाव में गढ़वाल संसदीय सीट में मतदाताओं की कुल संख्या 13,55,776 थी। इसमें 6,46,688 महिला और 6,74,632 पुरुष मतदाता थे। वर्तमान में  गढ़वाल संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या 13,58,703 है।  2019 में संपूर्ण गढ़वाल संसदीय सीट में पौड़ी जिले में सर्वाधिक 42.41 प्रतिशत से अधिक मतदाता रहे। रुद्रप्रयाग जिले में 14.13 प्रतिशत, चमोली में 22.40 प्रतिशत, टिहरी जिले की दो विधानसभा क्षेत्रों में 12.64 प्रतिशत और रामनगर विधानसभा क्षेत्र में 8.39 प्रतिशत मतदाता हैं। संसदीय सीट के अंतर्गत कुल 14 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे कम 79,061 मतदाता लैंसडौन में हैं। इस सीट पर करीब 84 प्रतिशत हिंदू, दस प्रतिशत मुस्लिम, चार प्रतिशत सिख और दो प्रतिशत इसाई मतदाता हैं। हिंदुओं के दो प्रमुख तीर्थ धाम बदरीनाथ और केदारनाथ के साथ पंच बदरी व पंच केदार के अलावा सिखों के प्रसिद्ध तीर्थ हेमकुंड साहिब समेत कई प्रमुख धार्मिक एवं पर्यटन स्थल इस क्षेत्र में हैं।गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर का मुख्यालय भी इसी सीट के अंतर्गत है। गढ़वाल संसदीय सीट में सैन्य पृष्ठभूमि से जुड़े परिवारों की संख्या काफी अधिक है और यही मतदाता चुनाव में निर्णायक भूमिका का निर्वहन भी करते हैं।

प्रदेश में लोकसभा की पांचों सीटों पर भाजपा का सबसे ज्यादा फोकस गढ़वाल सीट पर ही रहा। इस सीट पर पूर्व राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी के पक्ष में चुनावी प्रचार के लिए भाजपा के बड़े-बड़े नेता और स्टार प्रचारकों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा जैसे दिग्गजों ने बलूनी के पक्ष में जमकर पसीना तो बहाया, साथ ही वोटरों  को रिझाने के लिए कई गांरटियां मतदताओं के सामने रखने में कमी नहीं की। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा अनिल बलूनी के प्रचार के दौरान दी गई गांरटी से साफ हो गया है कि भाजपा के लिए गढ़वाल सीट जीतना इस बार  आसान नहीं लग रहा  है। बलूनी की पैराशूट नेता की छवि के साथ ही दिल्ली में रहनेवाले नेता की छवि पूरे इलाके में बन रही है जिसको कांग्रेस के गणेश गोदियाल बेहतर ढंग से कैश करने में पीछे नहीं हैं।  गढ़वाल सीट पर सबसे ज्यादा  चर्चा कांग्रेस के उम्मीदवार गणेश गोदियाल को मिल रही है, जहाँ खुद गोदियाल अकेलेभाजपा के संसाधनों और स्टार प्रचारकों से लोहा ले रहे हैं।  वह राज्य के ऐसे नेता हैं जो पहली बार भाजपा को मोदी के अंदाज में चुनौती दे रहे हैं। गणेश गोदियाल के प्रचार  और जान अपील को देखकर ये  कहा जा सकता है भविष्य में उत्तराखंड में कभी कांग्रेस को कोई उबार सकता है तो वो नई पीड़ीके नेता गोदियाल ही होंगे।   जिस तरह से गोदियाल के पक्ष में  गाँवों से लेकर शहरों में युवाओं और महिलाओं का  का हुजूम उमड़ रहा है  उससे भाजपा परेशान हो चुकी है। अंकिता भंडारी हत्याकांड, भर्ती घोटाला, और अग्निवीर योजना के साथ-साथ केदारनाथ में सोना लगाए जाने के मामले को गोदियाल अपने चुनाव प्रचार में जमकर हवा दे रहे हैं। इससे भाजपा को न उगलते बन रहा है न निगलते। नरेंद्र मोदी की स्टाइल में गढ़वाली भाषण में बैटिंग कर रहे गोदियाल ने अभी तक पिच पर अपनी सफल बल्लेबाजी की है और अपना पूरा फोकस स्थानीय मुद्दों की तरफ किया हुआ है जिस पर जनता भी हामी भरती  दिखाई देती है।पत्रकार आशुतोष नेगी भी निर्दलीय इस सीट से मैदान में लड़ रहे हैं जिनको उक्रांद ने अपना समर्थन दिया है।  अंकिता भंडारी से जुड़े सवालों को वो लगातार अपनी सभाओं में उठा रहे हैं जिससे गढ़वाल की जंग इस बार स्थानीय के साथ दिल्ली केन्द्रित उमीदवार के विमर्श में आकर खड़ी  हो गई है।     

इस बार सीधे -साधे ईमानदार  नेता तीरथ सिंह रावत का टिकट काटकर भाजपा  गढ़वाल सीट पर बुरी तरह से फंस चुकी  है। दशकों से गढ़वाल सीट को भाजपा के लिए सुरक्षित माना जा रहा था लेकिन गोदियाल ने यहाँ अच्छा चुनाव लड़कर भाजपा को बैकफुट पर ला दिया है।   भाजपा के बड़े-बड़े नेता आये दिन  बलूनी के पक्ष में मतदताओं को रिझाने में लगे हैं लेकिन उसके पास गोदियाल की कोई काट नहीं मिल पा रही।चुनाव प्रचार के दौरान एक बार तो   केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह मतदाताओं को यह कहते हुए नजर आए कि आप बलूनी को सिर्फ एक सांसद के तौेर पर नहीं चुन रहे हैं, बल्कि बलूनी केंद्र में बड़े पद पर जाने वाले हैं इसके बाद भी गढ़वाल गोदियाल के पक्ष में खड़ा होता जमीनी स्तर पर दिखाई दे रहा है।  यहां तक कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट जोशीमठ में बलूनी के पक्ष में वोट की अपील करते हुए  रो दिए।  यही महेंद्र भट्ट पहले जोशीमठ में प्रदर्शन करने वालों को माओवादी कह चुके थे।  अब चुनावी मौसम में उन्हीं के बीच हाथ जोड़ते और आंसू गिराते देखे। कांग्रेस का कोई स्टार प्रचारक तक गढ़वाल सीट पर प्रचार के लिए नहीं पंहुचा लेकिन गोदियाल जनसमर्थन और विश्वास से इस बार कांग्रेस को मजबूत स्थिति में लेकर आ गए हैं।  भाजपा  चमोली जिले में भाजपा कांग्रेस विधायक राजेंद्र भंडारी को अपने पाले में ला चुकी है लेकिन राजेंद्र के भाजपा में शामिल होने के बाद भंडारी के खिलाफ क्षेत्र के मतदाताओं में भारी रोष देखने को मिल रहा है जिसका नुकसान भाजपा को होने की आशंका बन गई है।  जोशीमठ  की भीषण आपदा के दंश से अभी तक वहां की जनता उबर नहीं पाई है और इसका खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ सकता है।  केदारनाथ पुनर्निर्माण के कार्यों को लेकर भी सरकार के खिलाफ भारी नाराजगी बनी हुई है जिसका नुकसान बलूनी को हो सकता है।  इसी तरह से  पौड़ी, देवप्रयाग, कोटद्वार ,श्रीनगर , चौबट्टाखाल सीटों पर भाजपा द्वारा जमकर कांग्रेस में तोड़फोड़ की गयी है जिससे भाजपा का पुराना कार्यकर्ता नाराज हो चला है जिसका प्रभाव पूरी सीट पर दिखाई देता है।  नए-नए भाजपाई बने कांग्रेसी नेताओं को प्रचार में झोंकने से स्थानीय भाजपा नेताओं की पूछ परख काम हुई है  जो चुनाव में असर डाल सकती है। पौड़ी गढ़वाल सीट पर  2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार रहे मनीष खंडूड़ी ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया है लेकिन अपने पिता बी सी खंडूड़ी के वोटों पर वो कितना दखल रखते हैं ये इस चुनाव में सही से पता चल जाएगा।  बलूनी के पौड़ी सीट से उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही  राज्य भाजपा के बड़े नेताओं की मुश्किलें बढ़ गई  हैं।  इन सभी नेताओं को खुद के भविष्य को लेकर खतरा लग रहा है जिस कारण वे मन से बलूनी के प्रचार में नहीं लगे हैं।  

बहरहाल राज्य गठन के 24 बरस बाद भी  प्रदेश की राजनीति में भाजपा और कांग्रेस का ही दखल रहा है।  राज्य बनने के बाद हुए  4 लोकसभा चुनाव हुए हैं जिनमें कांग्रेस और भाजपा की सरकारें रही। पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज एक सीट के साथ 38.31 प्रतिशत मत मिले थे तो वहीं भाजपा को तीन सीट मिलने के साथ 40.98 प्रतिशत मत मिले थे जो कि कांग्रेस से महज 2.67 प्रतिशत ही ज्यादा रहा। इसी तरह 2009 में भाजपा की खंडूड़ी सरकार होने के बावजूद कांग्रेस को पांच सीटों के साथ ही 36.11 प्रतिशत वोट हासिल हुए जबकि भाजपा को 2004 के मुकाबले लगभग 13 फीसदी वोटों का भारी नुकसान हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव में देश में मोदी की  सुनामी  रही  तब  भाजपा ने पाँचों सीटें 56 प्रतिशत वोट से अपने नाम की लेकिन इस चुनाव में भी कांग्रेस के खाते में भले ही एक सीट नहीं आ पाई हो उसका वोट प्रतिशत 34.40 प्रतिशत रहा जो कि 2009 के मुकाबले महज दो प्रतिशत ही कम रहा। मोदी लहर होने के बावूजद कांग्रेस पार्टी पर मतदाताओं ने अपना भरोसा नहीं खोया लेकिन इस बार 2024 की परिस्थितयां अलग हैं।  कांग्रेस के कद्दावर नेताओं ने जिस तरह से इस चुनाव में चुनाव लड़ने से इंकार किया है वह राज्य के साथ ही देश के भविष्य के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है।  आज कांग्रेस की जो हालत है उसके लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं की गुटबाजी और पार्टी आलाकमान  ही जिम्मेदार है लेकिन पुरानी गलतियों से भी देश की सबसे पुरानी पार्टी सबक लेने को तैयार नहीं है।  देखना होगा 4 जून को जब चुनाव परिणाम आएंगे तो लोकसभा में ऊंट किस करवट बैठेगा ?