Tuesday 14 November 2023

दीपोत्सव पर समाज को नई राह दिखलाएं




हिन्दू परंपरा में त्यौहार से आशय  उत्सव और हर्षोल्लास से लिया जाता है। अपने देश की बात  की जाए  तो यहाँ मनाये जाने वाले त्योहारों में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं। यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहार कमोवेश परिस्थिति के अनुसार अपने रंग , रूप और आकार में भिन्न हो सकते हैं लेकिन इनका अभिप्राय आनंद की प्राप्ति ही होता है। बेशक अलग -अलग धर्मों में त्यौहार मनाने के विधि विधान भिन्न हो सकते हैं लेकिन सभी का मूल मकसद बड़ी आस्था और विश्वास  का संरक्षण होता है । सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा जुडी हुई है  जिनमें से सभी का सम्बन्ध आस्था और विश्वास से है। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है इन त्योहारों की  पौराणिक कथाएँ भी प्रतीकात्मक होती हैं। कार्तिक मॉस की अमावस के दिन दीपावली  का त्यौहार मनाया जाता है । दीपावली का त्यौहार महज त्यौहार ही नहीं है, इसके साथ कई पौराणिक गाथाएं  भी  जुडी हुई हैं ।
 
दीपावली की  शुरुआत  आमतौर पर कार्तिक मॉस की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होती है जिसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देव धन्वन्तरी की पूजा अर्चना का विधान है । धन्वन्तरि जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथों  में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूँकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है।  लोकमान्यताओं  के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन वस्तु खरीदने से उसमें कई गुना   वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनियाँ के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

 धनतेरस के दिन चाँदी खरीदने की भी प्रथा है जिसके सम्भव न हो पाने पर लोग चाँदी के बने बर्तन खरीदते हैं। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में सन्तोष रूपी धन का वास होता है। सन्तोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है वही आज के समय में लोगों को नहीं है । जिसके पास सन्तोष है वह स्वस्थ है, सुखी है, और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं। उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। इसी दिन भगवान  को प्रसन्न रखने के लिए नए नए बर्तन , आभूषण खरीदने का चलन  लम्बे समय से चला आ रहा  है। यह अलग बात है मौजूदा दौर में  बाजार अपने हिसाब से सब कुछ तय कर रहा है और पूरा देश चकाचौंध के साये में जी रहा है जहां अमीर के लिए दीवाली ख़ुशी का प्रतीक है वहीँ गरीब आज भी दीपावली उस उत्साह और चकाचौंध के साये में जी कर नहीं मना पा रहा है जैसी उसे अपेक्षा है।  आज  समाज में अमीर और गरीब की खाई दिनों दिन गहराती ही जा रही है।
 
 धनतेरस के दूसरे दिन नरक चौदस मनाई जाती है जसी छोटी दीपावली भी कहते हैं। कहा जाता है कि जब वासुदेव  श्रीकृष्ण ने नरकासुर राक्षस के प्राण हरे थे, तो उसके बाद उन्होंने तेल और उबटन से स्नान किया था और यहीं  से उबटन लगाने की परंपरा शुरू हुई।  ऐसा माना जाता है इस दिन कृष्ण ने नरकासुर रक्षक का वध कर उसके कारागार से तकरीबन 16000 कन्याओं को मुक्त किया था।माना जाता है कि नरक चतुर्दशी के दिन ऐसा करने से नरक से मुक्ति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस वजह से इस दिन महिलाएं खासतौर से उबटन से स्नान करती हैं। स्वर्ग के साथ उन्हें सौभाग्य का भी वरदान मिलता है।  

इस दिन किसी पुराने दिए में  सरसों के तेल में पांच  अन्न के दाने डालकर घर में जलाकर रखा जाता है जो दीपक यम दीपक कहलाता है। तीसरे दिन अमावस की रात दीपावली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन गणेश जी और लक्ष्मी की स्तुति की जाती है । दीवाली के बाद अन्नकूट मनाया जाता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। 

पौराणिक मान्यता है कृष्ण ने नंदबाबा और यशोदा और ब्रजवासियों को इन्द्रदेव की पूजा करते देखा ताकि इन्द्रदेव ब्रज पर मेहरबान हो जाये तो उन्होंने ब्रज के वासियों को समझाया कि जल हमको गोवर्धन पर्वत से मिलता है जिससे प्रभावित होकर सबने गोबर्धन को पूजना शुरू कर दिए। यह बात जब इंद्र को पता चली तो वह आग बबूला हो गए और उन्होंने ब्रज को बरसात से डूबा देने की ठानी  जिसके बाद भारी वर्षा का दौर बृज में देखने को मिला।  सभी  रहजन वासुदेव श्रीकृष्ण के पास गए और तब कान्हा ने तर्जनी पर गोवर्धन  पर्वत उठा लिया। पूरे सात दिन तक  भारी वर्षा हुई पर ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे । सुदर्शन चक्र ने उस दौर में बड़ा काम किया और वर्षा के जल को सुखा दिया। बाद में इंद्र ने कान्हा से माफ़ी मांगी और तब सुरभि गाय ने कान्हा का दुग्धाभिषेक किया जिस मौके पर 56 भोग का आयोजन नगर में किया गया । तब से गोबर्धन पर्वत और अन्नकूट की परंपरा चली आ रही है ।
 
 शुक्ल द्वितीया को भाई दूज मनायी जाती है।  कहा जाता है यम और यमुना सूर्य के दो बच्चे थे और एक बार यमुना ने अपने भाई को अपने साथ भोजन करने के लिए घर पर आमंत्रित किया था लेकिन यम ने अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण पहले तो इनकार कर दिया, लेकिन कुछ देर के बाद उसने महसूस किया कि उसे जाना चाहिए क्योंकि उसकी बहन ने उसे बहुत प्यार से आमंत्रित किया है। अंत में, वह उसके पास गया और यमुना ने उसका स्वागत किया और उसके माथे पर तिलक भी लगाया। यम वास्तव में उसके आतिथ्य से बेहद खुश हुआ और उसे एक इच्छा माँगने के लिए कहा। तब यमुना ने कहा कि जो इस दिन अपनी बहन से मिलने जाएगा, उसे मृत्यु का भय नहीं रहेगा। उनके भाई ने खुशी से ‘तथास्तु’ कहा और यही कारण है कि हम भाई दूज का त्यौहार मनाते हैं। मान्यता है यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज आस पास भी नहीं फटकते। 
 
ऐसा  भी माना जाता है कि भगवान सूर्य के दो बच्चे यम और यमुना थे और दोनों जुड़वाँ थे लेकिन जल्द ही उनकी माँ देवी संग्या ने उन्हें अपने पिता की तरह ज्ञान प्राप्त करने के लिए छोड़ दिया। उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी परछाई छोड़ रखी थी जिसका नाम उन्होंने छाया रखा। छाया ने भी एक बेटे को जन्म दिया था जिसका नाम शनि था लेकिन उसके पिता उसे पसंद नहीं करते थे। परिणामस्वरूप, छाया ने दोनों जुड़वा बच्चों को अपने घर से दूर फेंक दिया। दोनों जुदा हो गए और धीरे-धीरे काफी समय बीतने के बाद एक रोज यमुना ने अपने भाई को मिलने के लिए बुलाया, क्योंकि वह वास्तव में पिछले काफी समय से यम से मिलना चाहती थी। जब यम, यानी मृत्यु के देवता, उनसे मिलने पहुंचे तब उन्होंने उनका खुशी से स्वागत किया। वह अपने आतिथ्य से वास्तव में काफी खुश हुए; यमुना ने उनके माथे पर तिलक लगाया और उनके लिए स्वादिष्ट भोजन भी पकाया। यम ने खुशी महसूस की और अपनी बहन यमुना से पूछा कि क्या वह कुछ चाहती है? तब यमुना ने उस दिन को आशीर्वाद देना चाहा ताकि सभी बहनें अपने भाइयों के साथ समय बिता सकें और इस दिन जो बहनें अपने भाई के माथे पर तिलक लगाएंगी, मृत्यु के देवता उन्हें परेशान नहीं करेंगे। यम इस पर सहमत हुए और कहा ठीक है परिणामस्वरूप हर वर्ष इस दिन बहनें अपने भाइयों के साथ इस अवसर को मनाती हैं ।
 
दीपावली में दीयों को जलाने की परंपरा उस समय से चली आ रही है जब रावण  की लंका पर विजय होने के बाद राम अयोध्या लौटे थे। राम के आगमन की ख़ुशी इस पर्व में देखी जा सकती है । जिस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या लौटे थे उस रात कार्तिक मॉस की अमावस थी और चाँद बिलकुल दिखाई नहीं देता था। तब नगरवासियों में अयोध्या को दीयों की रौशनी से नहला दिया । तब से यह त्यौहार धूमधाम से  मनाया जा रहा है । 

ऐसा माना जाता है दीपावली की रात यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हस परिहास करते और आतिशबाजी से लेकर पकवानों की जो धूम इस त्यौहार में दिखती है वह सब यक्षों  की ही दी हुई है  वहीँ कृष्ण भक्तों की मान्यता है इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राक्षस नरकासुर का वध किया था । इस वध के बाद लोगों ने ख़ुशी में घर में दिए जलाए। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान नारायण  विष्णु ने अपने  नरसिंह रूप को  धारण कर  हिरण्यकश्यप का वध किया था और समुद्र मंथन के पश्चात प्रभु धन्वन्तरी और धन की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई जिसके बाद से उनको खुश करने के लिए यह सब त्यौहार  के रूप में मनाया जाता है। वहीँ  जैन मतावलंबी मानते हैं कि जैन धरम के 24 वे तीर्थंकर महावीर का निर्वाण दिवस भी दिवाली को हुआ था। 

बौद्ध मतावलंबी का कहना है बुद्ध के स्वागत में तकरीबन 2500 वर्ष पहले लाखों  अनुयायियों ने दिए जलाकर दीपावली को मनाया। दीपोत्सव सिक्खों के लिए भी महत्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण  मंदिर का शिलान्यास हुआ था और दीपावली के दिन ही सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को कारागार से रिहा किया गया था। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद  ने 1833 में दिवाली के दिन ही प्राण त्यागे थे । इसलिए  उनके लिए भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है ।
 
भारत के सभी  राज्यों में दीपावली धूमधाम के साथ मनाई जाती है। परंपरा के अनुरूप इसे मनाने के तौर तरीके अलग अलग बेशक हो सकते हैं लेकिन आस्था की झलक सभी राज्यों में दिखाई देती है। गुजरात में नमक को लक्ष्मी का प्रतीक मानते हुए जहाँ इसे बेचना शुभ माना जाता है वहीँ राजस्थान में दीपावली के दिन रेशम के गद्दे बिछाकर अतिथियों के स्वागत की परंपरा देखने को मिलती है। हिमाचल में आदिवासी इस दिन यक्ष पूजन करते हैं तो उत्तराखंड में थारु आदिवाई अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली  मनाते  हैं। बंगाल में दीपावली  को काली  पूजा के रूप में मनाया जाता है।  देश के साथ ही विदेशों में भी दीपावली की धूम देखने को मिलती है। ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक में यह में दीपावली धूम के साथ मनाया जाता है।  विदशों में भी धन की देवी के कई रूप देखने को मिलते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्रकट का दिन माना जाता है।
 
भारतीय परंपरा उल्लू को लक्ष्मी का वाहन मानती है लेकिन महालक्ष्मी स्रोत में गरुण अथर्ववेद में हाथी को लक्ष्मी का वाहन बताया गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू ही बताया गया है लेकिन प्राचीन यूनान में धन की अधिष्ठात्री देवी के तौर पर पूजी जाने वाली हेरा का वाहन मोर है। 

भारत के अलावा विदेशों में भी लक्ष्मी पूजन के प्रमाण मिलते हैं। कम्बोडिया में शेषनाग पर आराम कर रही विष्णु जी के पैर दबाती एक महिला की मूरत के प्रमाण बताते हैं यह हमारी देवी लक्ष्मी ही  है।  प्राचीन यूनान के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की आकृति देखी जा सकती है। रोम में चांदी  की थाली में लक्ष्मी की आकृति होने के प्रमाण इतिहासकारों ने दिए हैं। पडोसी देश श्रीलंका में भी पुरातत्वविदों  को खनन और खुदाई में कई भारतीय देवी देवताओं की कई मूर्तियां  मिली हैं जिनमे लक्ष्मी भी शामिल है । इसके अलावा थाईलैंड ,जावा , सुमात्रा, मारीशस , गुयाना , अफ्रीका ,जापान, अफ्रीका जैसे देशों में भी इस धन की देवी की पूजा की जाती है। यूनान में आइरीन, रोम में फ़ोर्चूना , ग्रीक में दमित्री को धन की देवी एक रूप में पूजा जाता है तो  यूरोप में भी एथेना ,मिनर्वा और एलोरा का महत्व है।  
 
 समय बदलने के साथ ही बाजारवाद के दौर के आने के बाद आज बेशक इसे मनाने के तौर तरीके भी बदले हैं लेकिन आस्था और भरोसा ही है जो कई दशकों तक परंपरा के नाम पर लोगों को एक त्यौहार के रूप में देश से लेकर विदेश तक के प्रवासियों को एक सूत्र में बाँधा है।

 बाजारवाद के इस दौर में  घरों में मिटटी के दीयों की जगह आज चीनी उत्पादों और लाइट ने ले ली है लेकिन यह त्यौहार उल्लास का प्रतीक तभी बन पायेगा जब हम उस कुम्हार के बारे में भी सोचें  जिसकी रोजी रोटी मिट्टी के उन दीयों  से चलती है जिसकी ताकत चीन के सस्ते दीयों ने  आज छीन ली है।  हम पुराना वैभव लौटाते हुए यह तय करें कि कुछ दिए उस कुम्हार के नाम  इस दीपावली  में खरीदें जिससे उसकी भी आजीविका चले और उसके घर में भी खुशहाली आ सके।
 
इस त्यौहार में भले ही महानगरों में आज  चकाचौंध का माहौल है और हर दिन अरबों के वारे न्यारे किये जा रहे हैं लेकिन सरहदों में दुर्गम परिस्थिति में काम करने वाले जवानों के नाम भी हम एक दिया जलाये जो दिन रात सरहदों की निगरानी करने में मशगूल हैं  और अभी भी दीपावली अपने परिवार से दूर रहकर मना  रहे हैं । इस दीपावली पर हम यह संकल्प भी करें तो बेहतर रहेगा यदि इस बार की दीपावली हम पौराणिक स्वरुप में मनाते हुए स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करें। पटाखों के शोर से अपने  को दूर करते हुए पर्यावरण का ध्यान रखें और कुम्हार के दीयों से  अपना घर रोशन ना करें बल्कि समाज को भी नहीं राह दिखाए  तो तब कुछ बात बनेगी।