Monday 24 November 2014

नए शीत युद्ध की आहट



शीत युद्ध वह परिस्थिति है जब दो देशो के बीच प्रत्यक्ष युद्ध ना होते हुए भी युद्ध की परिस्थिति बनी रहती है | विश्व इतिहास के पन्नो में झाँकने पर यही परिभाषा हर इतिहास के छात्र को ना केवल पढाई जाती रही है बल्कि विश्व इतिहास की असल धुरी की लकीर इन्ही दो राष्ट्रों अमरीका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच खिंची जाती रही है लेकिन अभी की परिस्थियों ने पूरे विश्व को उन्ही परिस्थियों के बीच लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ कभी वह पहले शीत युद्ध के दौर में खड़ा था | यह सवाल इस समय इसलिए भी बढ़ा हो चला है क्युकि नए सिरे से विश्व उन्ही परिस्थियों के बीच खड़ा हो रहा है जहाँ वह एक दौर में था तो इसे विश्व राजनीती की एक नई करवट के तौर पर समझा जा सकता है | दरअसल पिछले हफ्ते जिस तरीके का अप्रत्याशित घटनाक्रम घटा है उसके संकेतो को डिकोड किया जाए तो पुराने शीत युद्ध के दौर की यादें ताजा हो रही हैं |

              ऑस्ट्रेलिया में जी 20 देशो की बैठक में भाग लेने गए रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन बीच बैठक को छोड़कर अपने देश लौट गए यह खबर भले ही जोर शोर से ब्रेकिंग न्यूज़ की शक्ल ना ले पाई हो लेकिन अमरीका  से लेकर यूरोप तक इस खबर ने हलचल मचाने का काम किया है | बीते दिनों रूस ने क्रीमिया में कब्ज़ा कर लिया और इसके बाद पुतिन के निशाने पर यूक्रेन आ गया है जहाँ पर कब्ज़ा जमाने और पाँव पसारने की बड़ी रणनीति पर वह काम कर रहा है | हाल में सम्पन्न जी 20 सम्मलेन के दौरान भी इसका साया मडराता दिखा जब पश्चिमी देशो की एक बड़ी जमात ने रूस को सीधे अपने निशाने पर लेते हुए युक्रेन में अनावश्यक दखल ना देने की मांग के साथ ही उस पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने की घुड़की देने से भी परहेज नहीं किया जिसका असर यह हुआ पुतिन को बीच में ही यह सम्मेलन छोड़ने को मजबूर होना पड़ा |


इस साल की शुरुवात से ही रूस के सितारे गर्दिश में चलते दिखे हैं | क्रीमिया को लेकर उसकी मोर्चेबंदी शुरुवात  से ही जारी रही वहीँ जुलाई महीने में मलेशिया के एम एच  17 विमान गिराने को लेकर भी पूरी दुनिया की निगाहें रूस पर लगी रही जिसमे उसके शामिल होने और संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता और अब क्रीमिया पर टकटकी लगाये जाने से रूस पूरी दुनिया की निगाहों में खटक रहा है शायद यही वजह है बीते दिनों ऑस्ट्रेलिया में सम्पन्न हुए जी -20  सम्मलेन में पुतिन  अपनी आलोचनाओ से असहज नजर आये और बीच बचाव करते हुए बीच सम्मलेन को छोड रूस के लिए उड़ान भरी |

कई मुद्दों पर सहमति  बनाने के लिए जी 20 के देश आपस में साथ बैठे जिनमे पर्यावरण से जुडी चिंताओं से लेकर आर्थिक मंथन पहली प्राथमिकताओ में था लेकिन रूस में घटा घटनाक्रम सभी की जुबान पर आ गया और पश्चिम के कई देशों ने पुतिन पर एक के बाद एक तीखा हमला करना शुरू कर दिया शुरुवात  सुपर पावर अमेरिका से ही हुई जिसके राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि यूक्रेन में रूस का हस्तक्षेप पूरी दुनिया के लिए खतरा है वहीँ  ब्रिटेन की यह धमकी दी कि अगर रूस ने अपने पड़ोस को अस्थिर करना नहीं छोड़ा तो उस पर नए प्रतिबंध लगाए जाएंगे।  रही-सही कसर कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने पूरी कर दी। हार्पर ने कहा कि वह उनसे हाथ नहीं  मिलाएंगे | इसके ठीक बाद अमरीका ने अपनी सधी चाल से ऑस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री को साधकर एक प्रस्ताव पास किया जिसमे रूस से मलेशियाई विमान के हादसे में मारे गए लोगो को न्याय देने से लेकर क्रीमिया को मुक्त करने से लेकर यूक्रेन के पचड़े में ना फंसने का अनुरोध किया | इसी प्रस्ताव के आने के बाद पुतिन ने रूस का रुख किया |

देखते ही देखते रूस के बैंकों रक्षा और ऊर्जा कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया गया।  यह कार्रवाई रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध कठोर करने के यूरोपीय संघ के फैसले के बाद की गई। यूक्रेन के बहाने अमेरिका ने जो निशाना साधा है उससे रूस को कई तरह के आर्थिक नुकसान होने के आसार हैं क्युकि अमरीकी दवाब में अब पश्चिमी देश  और यूरोपियन यूनियन रूस पर आक्रामक रुख अपनाएंगे और वही भाषा बोलेंगे जो अमरीका अभी बोल रहा है 

वैसे यूक्रेन मसले को जन्म देने में अमेरिका का बड़ा हाथ है | 2009 में  नाटो विस्तार के बाद से ही एशियाई देशों में भी कई तरह की गतिविधियां बढ़ी हैं। फिर भी कई एशियाई देशों का अमेरिका की तरफ झुकाव जारी है जिसके कारण रूस अब  पहले से अलग-थलग पड़ गया है जिससे उसकी  अर्थव्यवस्था को  नुकसान पहुंचा है। रूस के कई हजार सैनिक अभी हथियारों से लैस पूर्वी यूक्रेन में मौजूद हैं जबकि सीमा के पास भी कई हजार से ज्यादा सैनिकों की मौजूदगी बताई जा रही है। यह एक चिंताजनक तस्वीर हमारे सामने पेश करता है |   हालांकि रूस किसी तरह के सैन्य  दखल से साफ़ इनकार करता रहा है लेकिन परदे के पीछे की कहानी किसी से छिपी नहीं है | विद्रोहियों को सीधे सैन्य सहायता  और साजोसामान देने में रूस की भूमिका से पूरी दुनिया भली भांति वाकिफ है | 

जी 20  सम्मलेन का मकसद तो  वैश्विक आर्थिक सवालों के जवाब ढूंढना था लेकिन ब्रिस्बेन में यूक्रेन का संकट ही सभी के सामने हावी रहा |  जर्मनी की चांसलर एंजिला मर्केल ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ यूरोप में चल रहे संकट पर जो मुलाकात  की  उसे नए शीत युद्ध की शुरुआत  के रूप में देखा  जा रहा है | रूस और पश्चिम के बीच तनाव की वजह यूक्रेन का राजनीतिक भविष्य और रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्जा जमाया जाना  है | पूर्वी यूक्रेन में क्रीमिया की डगमगाती हुई राजनीति से काफी बुरा असर पड़ा है लेकिन  पश्चिम को खुद को शीत युद्ध में धकेल दिए जाने से भी बचना चाहिए |

मौजूदा दौर में बावजूद पश्चिम के लिए पुतिन के साथ नए माहौल में एक अदद वार्ता जरुरी बन गयी है | विश्वास बहाली से ही यह समस्या का निदान संभव हो सकता है साथ ही नए समझौते संभव हो पायेगे |  पश्चिमी देशों और यूक्रेन की सरकार को इस कड़वे सच को स्वीकारना ही होगा कि रूस की मदद के बिना यूक्रेन के आर्थिक और सामाजिक हालात बदलना नामुमकिन है|  
अब जरुरत इस बात की है कि कीव और पश्चिम के नेता एक सहमति पर राजी हो जाएं और क्रेमलिन के आगे एक ऐसा प्रस्ताव रखें जिससे रूस के राजनीतिक लक्ष्य भी पूरे होते रहें |  मौजूदा दौर में  की चमचमाहट लाने यूरोप जैसी संवैधानिक सरकार बनाने और बाजार में आर्थिक विकास लाने में यूक्रेन पर बाहर से किसी तरह का दबाव नहीं होना चाहिए|

वहीँ यूक्रेन को भी बदलती परिस्थितियो के मद्देनजर अपने को मथना पड़ेगा | जरुरी यह है  रक्षा से जुड़ी राजनीति पर वह निष्पक्ष रहने की कोशिशें करने के साथ ही  नाटो की सदस्यता के लिए जोर आजमाइश ही ना करे |  यूरोपीय संघ के साथ मिल कर रूस के लिए किसी भी तरह आर्थिक रुकावटें ना खड़ी करे और विवादित इलाकों को स्वयत्ता देने पर राजी हो जाए | इसी के आसरे यूक्रेन के संकट पर एक बड़ी लकीर खिंची जा सकती है | रूस और पश्चिम के रिश्तों को बहुत जल्दी वैसा नहीं बनाया जा सकता जैसे कि वे संकट के दिनों से पहले थे. | अमेरिका और यूरोपीय संघ को अपनी सूझ बूझ को दिखाकर रूस के साथ समझौता कर इस मसले पर बात करने की कोशिशो पर आखरी समय तक काम करने की जरुरत है | बातचीत किसी भी मसले के समाधान का कारगर रास्ता है | अगर फिर भी सुलह नहीं होती है तो पूरी दुनिया फिर से शीत युद्ध का नया दौर देख सकती है इससे इकार भी नहीं किया जा सकता | अमरीका और रूस एक दूसरे के चिर प्रतिद्वंदी रहे हैं | दोनों के बीच सम्बन्ध कभी सामने नहीं रहे | सोवियत संघ के बिखराव के बाद तो सम्बन्धो में बहुत ज्यादा तल्खी देखने को मिली गयी थी  और यूक्रेन विवाद के बाद तो रूस अमरीकी सम्बन्ध और तल्ख़ होने के आसार हैं | वैसे भी पश्चिमी देशो को साधकर अमरीका जिस तरह की नई मोर्चेबंदी करता दिखाई दे रहा है उससे रूस की भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ती ही जा रही हैं | जी 20 में सभी देशो ने जिस तरह रूस को निशाने पर लिया और उस पर कई प्रतिबन्ध लादने की घोषणा की इसके बाद रूस की चिंताएं बढ़नी जायज हैं | ऐसे दौर में  वैश्विक मंच पर भारत के रुख का भी सभी को इन्तजार है | क्रीमिया संकट से निपटने की जिम्मेदारी रूस के मत्थे डालकर भारत अपना बचाव नहीं कर सकता | हमारी विदेश नीति की परीक्षा का भी यह निर्णायक दौर है क्युकि वैश्विक मंच पर जिस तरह नरेन्द्र दामोदरदास मोदी अपनी उपस्थिति दिखा रहे हैं उससे भारत की ताकत को कम नहीं आँका जा सकता | भारत के रूस से जहाँ पुराने मैत्री सम्बन्ध रहे हैं वहीँ मनमोहन के दौर तक आते आते भारत का अमेरिकी झुकाव किसी से छिपा नहीं है | अब मोदी के सामने सबसे बड़ी मुश्किल इस दौर में यह है कैसे वह इन दो पाटो के बीच फंसकर भारत के स्टैंड  रख पाते हैं ?