Friday 30 December 2011

नूतन वर्ष मंगलमय हो.....

आप सभी को नए साल की बधाइयाँ और शुभकामनाएं देनी हैं .......नए साल की कई योजनाओं में एक खास योजना है कि अब नियमित रूप से ब्लॉग पर लिखना है...साल की शुरुआत नए संकल्पों का वर्ष होता है ........ इस बार अटल प्रतिज्ञा कर ली है.....लिखने की इच्छा बहुत है लेकिन व्यस्तताओ के बावजूद समय नही निकाल पाता हूँ .... देखें, इस बार मेरी अटल प्रतिज्ञा का क्या होता है? वैसे इरादे मजबूत है ......मैं खुद बहुत दिनों से सोच रहा था कि मुझे ब्लॉग पर नियमित रूप से लिखना चाहिए.....लेकिन कुछ व्यस्तताओ और अपने रिसर्च वर्क के चलते ब्लॉग पर लिखना नहीं हो पाया ......लेकिन अब कोशिश रहेगी कि ब्लॉग पर नियमित रूप से कुछ लिखूं ।


२०१२ में आप हर्ष का नया रूप पाएंगे और बोलती कलम की धार में और पैनापन ..... छमा प्रार्थी हू कि व्यस्तताओ के चलते २०११ में कम पोस्ट अपने ब्लॉग पर लिख पाया ......


आपको एक बार फिर नूतन वर्ष २०१२ की शुभकामनाये...........आप सभी की राय की मुझे बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी....

Wednesday 2 November 2011

उफ... यू पी ए से होता मोहभंग





विदर्भ की रामकली बाई इन दिनों मायूस है.... .....यह रामकली वह है जिसका एक बच्चा अभी एक साल पहले कुपोषण के चलते मर गया..... इस बच्चे की बात करने पर आज भी वह सिहर उठती है.... पिछले कुछ वर्षो में जैसी त्रासदी विदर्भ ने देखी होगी शायद भारत के किसी कोने ने देखी होगी......सरकार आये दिन गरीबो को अनाज के नाम पर कई घोषणा कर रही है लेकिन सच्चाई यह है कि गरीबो की झोपड़ी तक कोई अनाज नहीं पहुच पा रहा है जिसके चलते आज रामकली के बच्चे कुपोषण के चलते मारे जा रहे है......


महंगाई को कम करने के सरकार दावे तो जोर शोर से करती रही है लेकिन सच्चाई यह है कि देश में आम आदमी की थाली दिनों दिन महंगी होती जा रही है.....प्रधानमंत्री जहाँ ऊँची विकास दर और कॉरपोरेट नीतियों का हवाला देते नहीं थकते वही देश के वित्त मंत्री यह कहते है हमारे पास महंगाई रोकने के लिये कोई जादू की छड़ी नहीं है तो इस सरकार का असली चेहरा जनता के सामने बेनकाब हो जाता है......हद तो तब हो जाती है जब रिज़र्व बैंक १४ वी बार अपनी ब्याज दर बढाता है ताकि मार्केट में लिक्विडिटी बनी रहे ...इसके बाद भी आलम ये है महंगाई देश को निगलते जाती है और गरीब परिवारों की रोटी का एक बड़ा संकट पैदा हो जाता है ..... आज यह जानकर हैरत होती है कि हमारे देश में भुखमरी की समस्या लगातार बढती जा रही है ...... यूं ऍन ओ की हालिया रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो कुपोषण ने हमारे देश में सारे रिकार्डो को ध्वस्त कर दिया है.....आपको यह जानकर हैरत होगी कि हर रोज तकरीबन ७००० मौते अकेले कुपोषण से हमारे देश में हो रही है.....सरकार खाद्य सुरक्षा कानून लाने की बात लम्बे समय से कर रही है लेकिन इसको पेश करने की राह भी आसान नहीं है......


मनमोहन और सोनिया की अगुवाई वाली सलाहकार परिषद् में इसे लेकर अलग अलग सुर है..... राजनेताओ को आम आदमी से कुछ लेना देना नही है ... अगर ऐसा होता तो आज हमारे ऊपर कुपोषण का कलंक नहीं लगता..... बढती जनसँख्या ने देश में खाद्य संकट को हमारे सामने बड़ा दिया है.....ऐसा नहीं है देश में पर्याप्त मात्रा में खाद्यान उत्पादन नहीं हो रहा ॥ उत्पादन तो हो रहा है लेकिन फसल के रख रखाव के लिये हमारे पास पर्याप्त मात्रा में गोदाम नहीं है ...... इसी के चलते करोडो का अनाज हर साल गोदामों में सड़ता जा रहा है.... अभी इस बार मध्य प्रदेश में चावल का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ .... वहां के मुख्यमंत्री शिवराज परेशान हो गए है .... सी ऍम होने के नाते उन्होंने केंद्र को चिट्टी लिख दी ... उन्होंने कहा मध्य प्रदेश में रख रखाव के लिये पर्याप्त गोदाम नहीं है लिहाजा केंद्र सरकार इस अनाज के रख रखाव की व्यवस्था सुनिश्चित करे लेकिन देखिये केंद्र ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की .....


कभी कभी सोचता हूँ हमारे देश में केंद्र ओर राज्यों में अलग अलग सरकारे होने के कारन कई बार सही तालमेल नहीं बन सकता .... यही हाल अभी मध्य प्रदेश में हो रहा है....कमोवेश यही हालात आज देश के अन्य राज्यों में है जहाँ पर कांग्रेस सत्ता में नहीं है ......खेती को लाभ का सौदा बनाने की दिशा में आज तक कोई पहल नहीं हुई है जिसके चलते खेती हमारे देश में उजड़ रही है.....यूनेस्को का कहना है भारत की गिनती दुनिया के सबसे कुपोषित देशो में हो रही है....लेकिन इन सबके बाद मनमोहनी इकोनोमिक्स ऊँची विकास दर और "भारत निर्माण " की अगर दुहाई दे तो यह कुछ हास्यास्पद मालूम पड़ता है .......हद तो तब हो जाती है जब इस देश में घोटालो के बाद एक घोटाले होते रहते है और हमारे प्रधानमंत्री अपनी नेकनीयती का सबूत देते नहीं थकते......


देश की जनसँख्या तेजी से बढ़ रही है ... हाल ही में हमने १२१ करोड़ के आकडे को छुआ है अगर यही सिलसिला जारी रहा तो यकीन जानिए हम चीन को पीछे छोड़ देंगे... ऐसे में बड़ी आबादी के लिये भोजन जुटाने की एक बड़ी चुनौती हमारे सामने आ सकती है....पिछले दो दशको में हमारा खाद्यान उत्पादन १.५ फीसदी तक जा गिरा है.... मनमोहन के दौर में हमारे देश में दो भारत बस रहे है... एक तबका ऐसा है जो संपन्न है ...वही एक तबका ऐसा है जो अपनी रोजी रोटी जुटाने के लिये हाड मांस एक कर रहा है....


याद कीजिये १९९० का दौर उस समय हमारा देश आर्थिक सुधारो की दहलीज पर खड़ा था.... नरसिम्हा राव की सरकार उस समय थी...उस दौर में हमारे देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान की खपत ४६८ ग्राम हुआ करती थी... उदारीकरण के आज २० सालो बाद भी भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान उपलब्धता ४०० ग्राम हो गई है ....यही नहीं आप यह जानकार चौंक जायेंगे १९९० में प्रति व्यक्ति ४२ ग्राम दाल उपलब्ध थी वही २०११ में यह आकडा भी लुढ़क गया और यह २५ ग्राम तक पहुच गया .... यह आंकड़ा औसत है जिसमे मनमोहनी इकोनोमिक्स का संपन्न तबका भी शामिल है साथ ही वह क्लास भी जो रात को दो रोटी भी सही से नहीं खाता होगा...


अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट कहती है देश की ७० फीसदी आबादी आज भी २० रूपया प्रति दिन पर गुजर बसर करती है.....ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है इस दौर में कैसे यह गरीब तबका दो समय का भोजन अपने लिये बनाता होगा ? ऊपर से यह सरकार २६ और ३२ की बहस चलाकर गरीबो क मुह पर तमाचा मारने पे तुली रहती है ...........


देश में आज थाली दिन प्रति दिन महंगी होती जा रही है.....घरेलू गैस के दामो में भी सरकार ने इजाफा कर दिया है... यही नहीं तेल के दाम भी बड़ा दिए है इसके चलते लोगो करता जीना दुश्वार होता जा रहा है.....सरकार को तेल कंपनियों का घाटा पूरा करना है ... आम आदमी से कुछ भी लेना देना नहीं है ..... अगर आम आदमी से कुछ लेना देना होता तो उसकी तरफ सरकार ध्यान तो जरुर देती...... शायद तभी आम आदमी का अब यु पी ऐ से मोहभंग होता जा रहा है.....तेल और घरेलू गैस के दामो को बढाने का फैसला इस सरकार ने एक बार फिर कर दिया है.... कल ही मुद्रा स्फीति रिकॉर्ड १२.२५ % पार कर गई है जो अब तक की सबसे बड़ी दर है.... ऊपर से रिजर्व बैंक ने बैंक लोन की दर बढाने का फैसला कर माध्यम वर्गीय परिवारों को निराश किया है ........


मनमोहन के दौर में समाज में अमीर और गरीबी की जो खाई चौड़ी हुई है उसके पीछे बहुत हद तक हमारी खाद्यान प्रणाली जिम्मेदार है .....जबसे मनमोहन ने देश में उदारीकरण की शुरुवात की तबसे हर सरकार का ध्यान ऊँची विकास दर बरकरार रखने और सेंसेक्स बढाने पर जा टिका है .....आकड़ो की बाजीगरी आज के दौर में कैसे की जाती है ये हर किसी को मालूम है ....वैसे भी यह बात समझ से परे लगती है आम आदमी करता सेंसेक्स से क्या लेना देना ? बीते २० सालो में एक खास बात यह देखने में आई है सरकार की विकास दर और गरीबी के आकडे दोनों तेजी के साथ बढे है .... सरकारी आंकड़ो में विकास ने "हाईवे " की तरह छलांग लगाई है लेकिन इस रफ़्तार ने कुपोषण , गरीबी, भुखमरी जैसी समस्याओ को बढाया है ....इस दौर में कृषि जैसे सेक्टर की हालत सबसे खस्ता हो गई......


शहरों में चकाचौंध तो तेजी से बढ़ी लेकिन गावो से लोगो का पलायन बदस्तूर जारी रहा .....आज आलम यह है कृषि में हमारी विकास दर दो फीसदी से भी कम है जो हमारे फिसड्डी होने को बखूबी बया कर रही है..... ..... किसानो को सरकार ने इस दौर में पैकेज भी प्रदान किया है .... इस दौर में बैंक भी किसानो की मदद के लिये आगे आये है लेकिन इन सब चीजो के बाद भी किसान परंपरागत खेती को छोड़ने पर आमादा है......साहूकार के दौर में किसानो पर जो कर्ज के कष्ट थे अब वह लोन के बाद भी ज्यादा बढ़ गए है.....


आकडे इस बात की गवाही देने के लिये काफी है किसान आत्महत्या का एक बड़ा कारण कर्ज रहा है... किसान पर कर्ज को चुकाने का बोझ इतना ज्यादा है वह समय से इसे नहीं चुका सकता .... वैसे भी भारत की कृषि को "मानसून का जुआ " कहा जाता है जो "इन्द्र देव " की कृपा पर ज्यादा टिकी हुई है......उस पर तुर्रा यह है हमारे प्रधान मंत्री इसे लाभ का सौदा बनाने के बजाय विदेशी निवेश बढाने पर आमादा है जिसकी वकालत शुरू से मनमोहनी अर्थशास्त्र शुरू से करता रहा है......


ऐसे में अपने किसान की खुशहाली दूर की कौड़ी लगती है ...... अपने घर खुशहाली नहीं रहेगी तो दूसरे से मदद मांगने से क्या फायदा.....? लेकिन मनमोहन शायद अमेरिकी अमेरिकी कंपनियों के ज्यादा निकट चले गए है ..... शायद तभी उन्हें अपने देश के पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री के नारे "जय जवान जय किसान " का एहसास इस दौर में नहीं होता......अगर ऐसा होता तो बीते सात सालो में ढाई लाख किसान आत्महत्याए अपने देश में नहीं होती......और ना ही कुपोषण का यूनेस्को का कलंक हमारे माथे पर लगता...................

Monday 24 October 2011

ठाकरे की सेना में बेगाने मनोहर ...........




महाराष्ट्र की राजनीती को अगर करीब से समझने का कभी मौका आपको मिला होगा तो कांग्रेस के बाद शिवसेना का गढ़ यहाँ की राजनीती एक दौर में हुआ करती थी....इसे राम लहर में सवार होने की धुन कहे या सियासी बिसात के आसरे "आमची मुम्बई" के नारे देकर वोट लेने का नायाबफ़ॉर्मूला ....शिवसेना ने उस दौर में लोगो के बीच जाकर अपनी पैठ को जिस तरीके से मजबूत किया इसने कांग्रेस के सामने पहली बार चुनौती पेश की और महाराष्ट्र की राजनीती में सीधे दखल देकर भाजपा के साथ पहली बार गठबंधन सरकार बनाकर कांग्रेसियों के होश फाख्ता कर दिए थे.......



मराठी मानुष के जिस मुद्दे के आसरे शिव सेना ने उस दौर में बिसात बिछाई थी बहुत कम लोग शायद ये बातें जानते है उस दौर में बाला साहब ठाकरे के साथ मिलकर मनोहर जोशी ने शिवसेना का राज्य में मजबूत आधार तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ..... परन्तु आज वही मनोहर जोशी पार्टी में हाशिये में है...... मनोहर जोशी ने अपने समय में ना केवल महाराष्ट्र की राजनीती में अपना एक ऊँचा मुकाम बनाया बल्कि शिवसेना का वोट बैंक बढाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.......पार्टी की भलाई के लिये उन्होंने कभी किसी पद की चाह नहीं रखी ... हाँ, ये अलग बात है पार्टी ने उन्हें जो भी काम सौपा उसे उन्होंने वफादारी के साथ पूरा किया......



२ दिसम्बर १९३७ को महाराष्ट्र के एक मध्यम वर्गीय ब्रह्मण परिवार में जन्मे जोशी के राजनीतिक कैरियर की शुरुवात आपातकाल के दौर में हुई॥ उस दौर में मुंबई के मेयर की कमान उनके हाथो में रही......१९९० में शिवसेना के टिकट पर उन्होंने पहली बार विधान सभा का चुनाव जीता ...९० के दशक में ही भाजपा के साथ मिलकर जब शिव सेना ने राज्य में पहली बार गठबंधन सरकार बनाई तो मनोहर गजानन जोशी को राज्य के १५ वे मुख्यमंत्री की कमान मिली......इसी दौर में छगन भुजबल ने शिव सेना को अलविदा कहा था और यही से जोशी का नया सफ़र शुरू हो गया ......



1999 में बाला साहब ठाकरे ने उन्हें मध्य मुंबई से चुनाव लड़ाया जहाँ से वह भारी मतों से विजयी हुए ....... इसके बाद उन्होंने शिव सेना के कद को राष्ट्रीय राजनीती में बढाया......यही वह दौर था जब जोशी को लोक सभा अध्यक्ष के पद पर बैठाया गया ..... उस दौर की यादें आज भी जेहन में बनी है ...... मनोहर के इस कार्यकाल ने लोकसभा के इतिहास में एक नयी इबादत लिख दी...... अपनी समझ बूझ से उन्होंने जिस अंदाज में लोक सभा चलायी उसकी आज भी सभी पार्टियों के नेता तारीफ किया करते थे ......



२००४ में मनोहर को पार्टी ने केंद्र में भारी ओद्योगिक मंत्री की जिम्मेदारी से नवाजा जिसे उन्होंने बड़ी शालीनता के साथ निभाया ....... लेकिन इसके बाद मनोहर के सितारे गर्दिश में चले गए... २००४ में मनोहर को कांग्रेस के एकनाथ गायकवाड के हाथो मुह की खानी पड़ी ..... इसके बाद पार्टी ने २००६ में उनको राज्य सभा में बेक डोर से संसद में इंट्री दिलवा दी.....



बाला साहब ठाकरे के राजनीती से रिटायरमेंट के बाद मनोहर जोशी का राजनीतिक सिंहासन डोलने लगा...... आज हालत ये है मनोहर अपनी पार्टी में बेगाने हो चले है... पार्टी में उनकी कोई पूछ परख नहीं हो रही है...... दरअसल जब तक शिव सेना की कमान बाला साहब ठाकरे के हाथो में थी तब तक शिवसेना में मनोहर जोशी के चर्चे जोर शोर के साथ हुआ करते थे.....



शिवसेना के कई कार्यकर्ता जो इस समय मनोहर के समर्थक है वो बताते है उस दौर में अगर कोई काम निकालना होता था तो कार्यकर्ता सीधे मनोहर को रिपोर्ट करते थे ... मनोहर को रिपोर्ट करने का सीधा मतलब उस दौर में ये होता था आपका काम किसी भी तरह हो जायेगा ... राज्य की राजनीती से केंद्र की राजनीती में पटके जाने के बाद भी उन्होंने जिस शालीनता के साथ केन्द्रीय मंत्री का दायित्व निभाया उसने सभी को उनका कायल कर दिया ...



आज हालत एक दम अलग हो गए है......शिवसेना की राजनीती पहले "मातोश्री" से तय हुआ करती थी..... बाला साहब ठाकरे के वीटो के कारन कोई उनके द्वारा लिये गए फैसले को चुनोती नहीं दे सकता था... आज आलम ये है शिव सेना दो गुटों में बट चुकी है॥ एक मनसे है जिसकी कमान राज ठाकरे के हाथो में है जो कभी शिवसेना के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रमुख हुआ करते थे.....बाला साहब की शिव सेना की कमान उद्धव ठाकरे के हाथो में है जो पार्टी को अपने इशारो पर चला रहे है॥ ऐसे विषम हालातो में कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस कर रहा है...



बाला साहब के समय में पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों पर मनोहर की राय को कभी अनदेखा नहीं किया जाता था लेकिन आज मनोहर को उद्धव भाव तक देना पसंद नहीं करते॥ पार्टी में उन्होंने अपना नियंत्रण इस कदर स्थापित कर लिया है वह महत्वपूर्ण फैसलों पर अपनी मित्र मंडली से सलाह लेना ज्यादा पसंद करते है.....ऐसे में मनोहर जोशी के भावी भविष्य को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चाये अभी से शुरू होने लगी है..... विषम हालातो के मद्देनजर अभी मनोहर कोई बड़ा फैसला लेने से परहेज कर रहे है...... लेकिन समय आने पर मनोहर अपने पत्ते जरुर खोल सकते है ....



वैसे बताते चले शिव सेना से इतर उनकी अन्य दलों के नेताओ से भी काफी मधुर संबध रहे है ... राकपा में शरद पवार, विलास राव देशमुख ओर प्रफुल्ल पटेल जैसे नेता भी उनके बेहद करीबियों में शामिल है.... इसके मद्देनजर अगर वह शिव सेना से इतर किसी अन्य पार्टी में जाने की सोचे तो उनके पास सभी जगहों से बेहतर विकल्प मौजूद है......




वैसे भी २४ साल मराठी अस्मिता के आसरे वोटर को लुभाने की कला में माहिर इस "ब्राह्मण कार्ड " को कोई भी पार्टी आगे करने से नहीं डरेगी........ वैसे भी राजनीती संभावनाओ का खेल है ..... जो भी हो फिलहाल शिव सेना में मनोहर के सितारे बुलंदियों पर नहीं है .....लेकिन भावी राजनीती का रास्ता जोशी को अब खुद तय करना है..... अगर अपनी पार्टी में उनकी पूछ परख कम हो रही हैतो इसका असर उनकी भावी राजनीती में पड़ना तय है.....



महाराष्ट्र के पिछले विधान सभा में भी देखने में आया था उद्धव ने उनको वो सम्मान नहीं दिया जो सम्मान बाला साहब ठाकरे दिया करते थे.....ऐसे में वो उद्धव से दूरी बनाये रखे थे लेकिन ये दूरिया कब तक बनी रहेगी यह अब बड़ा सवाल बन गया है.... दूरियों को पाटना भी जरुरी है ... आमतौर पर बेहद शांत, शालीन , ईमानदार रहने वाले मनोहर जोशी को अब आगे का रास्ता खुद तय करना है..... वैसे यकीन जानिये फिलहाल महाराष्ट्र में शिवसेना में उनकी राह में कई कटीले शूल है जिनसे पार पाने की एक बड़ी चुनोती इस समय जोशी के पास है.........देखना होगा २४ साल पार्टी की उम्मीदों पर खरा उतरे जोशी इस बार की परीक्षा में कैसा प्रदर्शन करते है?

Tuesday 18 October 2011

मैं फिल्म निर्देशक कम थियेटर निर्देशक ज्यादा हूँ.....


"गाँधी माई फादर " जैसी फिल्म बनाकर फिरोज अब्बास खान ने खुद को बालीवुड में फिल्म निर्देशक के तौर पर स्थापित किया है... वैसे बताते चले फिरोज साहब की गिनती थियेटर मंझे खिलाडियों में होती है.... जिन्होंने "सालगिरह" , "तुम्हारी अमृता", "विक्रेता रामलाल और गाँधी विरुद्ध " जैसे नाटको का कुशल निर्देशन किया ... २००७ में उनके द्वारा बनाई गई फिल्म "गाँधी माईफादर " ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमे "दर्शन जरीवाला " ने गाँधी किरदार के रोल के लिए खासी लोकप्रियता बटोरी..... यही नही इस मूवी ने विशेष जूरी को "बेस्ट स्क्रीन प्ले एशिया प्रशांत पुरस्कार" समेत कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते जिससे फिरोज को काफी लोकप्रियता मिली.... फिरोज आज भी अपने को थियेटर निर्देशक मानते है... बीते दिनों मेरी और मेरे साथी ललित की उनसे मुलाकात के मुख्य अंश ----


गाँधी माई फादर आखिरकार आपने बना ही ली.....गाँधी जैसे विराट व्यक्कित्व के किरदार को तीन घंटो के कैनवास पर उकेरना कितना मुश्किल काम था .....? साथ ही आपसे जानना चाहेंगे किस विचार ने इस किरदार के बारे में मूवी बनाने की प्रेरणा आपको दी...?
लम्बे अरसे से थियेटर से जुड़ा रहा....अभी भी पूरी तन्मयता के साथ काम कर रहा हू ..... थियेटर करते वक्त मेरे मन में फिल्म बनाने को लेकर उत्सुकता पैदा हुई....कई लोगो ने उस समय कहा आपको ऐसी फिल्म बनानी चाहिए जो थियेटर से एक दम अलग हटकर हो.... तभी मैंने तय कर लिया था मुझे अलग हटकर फिल्म बनानी है... फिर गाँधी जी जैसे विराट व्यक्तित्व पर फिल्म बनाने का आईडिया यही से जेनेरेट हुआ.....इसके लिए मैंने गाँधी जी पर नए तरीके से रिसर्च की और नयी सोच को लेकर लोगो के बीच गया.......

गाँधी माई फादर आपकी मूवी मैंने देखी ... बापू के हर एस्पेक्ट को छूने की कोशिश आपने की है....गाँधी जी पर रिसर्च के दौरान आपको क्या क्या दिक्कते आई?
फिल्म बनाने का आईडिया आने के बाद जेहन में कई तरह के सवाल उभरे ...मन में ख्याल आया इतने बड़े व्यक्तित्व के हर पहलू को उजागर करने की कोशिश के दौरान किसी भी तरह की गलती ना होने पाये ....गाँधी जी की कहानी को लेकर जो काम किया है उसमे सबसे जरुरी था जिस व्यक्तित्व को हम महात्मा कह रहे है आखिर क्यों कह रहे है ? मुझे एक पल लगा एक ऐसा आदमी जिसके पीछे सारा देश खड़ा है सारा समाज खड़ा है वही महात्मा है .... इस पर रिसर्च के लिए मैं कई बार दक्षिण अफ्रीका गया .... वहां पर गाँधी जी ने काफी लम्बा समय बिताया था.....वहां कई इतिहासकारों ने मुझसे बात की जिससे गाँधी जी को गहराई से समझ पाया .....

"गाँधी माई फादर "के लिए आपने किन किन श्रोतो और सन्दर्भ का सहारा लिया जिससे आपको गाँधी जी पर फिल्म बनाने में सरलता हुई ?
मेरा सबसे बड़ा श्रोत चंडी लाल दलाल थे जो महात्मा गाँधी जी के लेखाकार थे....उनकी किताबो ने फिल्म निर्माण में मेरी मदद की ....इसके अलावा लीलम बंसाली, हेमंत कुलकर्णी की किताबो ने भी मुझे नयी राह दिखलाई....महाराष्ट्र के इतिहासकार अजीज फडके से भी समय समय पर मेरी मुलाकात होती रही... रोबर्ट सेन की बायोग्राफी ने भी मुझे काफी लाभ पहुचाया.....

उदारीकरण
के बाद मल्टीप्लेक्स का युग आया है ....तकनीकी विकास के साथ इस दौर में फिल्म बनाने की तकनीक भी बदली है....इस समय लोगो की डिमांड भी फिल्म को लेकर अलग तरह की है...ऐसे में आप दर्शको से क्या अपेक्षा रखते है?

दर्शको से आज के दौर में मैं क्या अपेक्षा करू ? कौन सी फिल्म अच्छी है कौन सी फिल्म बुरी है यह तय करना तो दर्शको का काम है देखिये कहा भी जाता है "लाइफ ब्लो डा बेल्ट बेल्ट इस ब्लो" यह तो आपको तय करना है जो आज के दौर में संभव नही हो रहा है ....गाँधी माई फादर की बात करू तो इसे बनाने में पांच साल तो मेरे रिसर्च में ही चले गए ....


आज का दौर अब्बास साहब एक अलग तरह का दौर है.... अजब गजब कहानियो की फिल्मे हुआ करती है .... साथ ही कम बजट और कम समय में फिल्मे पूरी भी हो जा रही है ?

हाँ , आपकी बात सही है... आज सभी को फिल्म निर्माण की जल्दी है....पुराना दौर एक अलग तरह का दौर होता था... संगीत , गीत के साथ कहानी भी उस दौर में अलग प्रभाव छोडती थी.... लेकिन आज रिसर्च नाम की कोई चीज ही नही बची है सिनेमा में .... मैंने गाँधी माई फादर बनाने में पांच साल तो रिसर्च में ही बिता दिए... दूसरा कोई निर्देशक होता तो पांच साल में पचास फिल्मे बना देता .....


पिछले दिनों हमारे समाज में " डेल्ही बेली" जैसी फिल्मे आई ... क्या आप उसे फिल्म मानते है? उसमे अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ ?

देखिये मेरा मानना है थोडा बहुत तो चल जाता है लेकिन डेल्ही बेली ने तो हद ही कर दी.... ज्यादा अशिष्ट भाषा की फिल्मो को आप परिवार क साथ बैठकर नही देख सकते.... दूसरा आज के लोगो में फिल्म देखने का नजरिया भी बिलकुल बदल गया है.... जिसके चलते निर्देशक भी ये तय करने लगे है आपको क्या चाहिए?


आप थियेटर के मंझे खिलाडी है.... "गाँधी माई फादर " बना ली तो क्या हुआ ? मैं तो आज भी आपको थियेटर के कलाकार के रूप में देखता हू.....थियेटर की वर्तमान सूरते हाल पर आपका क्या कहना है ?

मैंने तो आपको पहले ही कह दिया मैं फिल्म निर्देशक कम थियेटर निर्देशक ज्यादा हू.... बालीवुड में आज कई थियेटर के कलाकार काम कर रहे है.....मुझे नही लगता आज भी कोई अच्छी कलाकारी में उनसे ज्यादा निपुण है......थियेटर के साथ खास बात यह है इसमें दर्शक आपके प्ले को तुरंत फीडबैक दे देता है जबकि फिल्म में ऐसा नही है......


हबीब तनवीर साहब को आज आप कैसे याद करते है? आखिरी दिनों में क्या आपकी उनसे कोई मुलाकात हुई ?

तनवीर साहब से मेरे बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहे है.....आखिरी बार जब वह नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा आये तो उन्हें पता चला मेरा प्ले है... उन्होंने उसको देखा उसमे मैंने रामलाल की भूमिका निभाई ....तनवीर जी ने नाटक के बाद खुद मुझे शाबासी दी थी..... मै समझता हू उनके जैसा अब तक ना तो कोई थियेटरकार था ना कभी होगा ......

Monday 10 October 2011

आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनता नक्सलवाद ........





"हमारे बाप दादा ने जिस समय हमारा घर बनाया था उस समय घर पर सब कुछ ठीक ठाक था ... संयुक्त परिवार की परंपरा थी ... सांझ ढलने के बाद सभी लोग एक छत के नीचे बैठते थे और सुबह होते ही अपने खेत खलिहान की तरफ निकल पड़ते थे ॥ अब हमारे पास रोजी रोटी का साधन नहीं है... जल ,जमीन,जंगल हमसे छीने जा रहे है और दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है ... हमारी वन सम्पदा कारपोरेटघराने लूट रहे है और "मनमोहनी इकोनोमिक्स " के इस दौर में अमीरों और गरीबो की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है..."




६८ साल के रामकिशन नक्सल प्रभावित महाराष्ट्र के गडचिरोली सरीखे अति संवेदनशील इलाके से आते है जिनकी कई एकड़ जमीने उदारीकरण के दौर के आने के बाद कारपोरेटी बिसात के चलते हाथ से चली गई ... पिछले दिनों रामकिशन ने ट्रेन में जब अपनी आप बीती सुनाईतो मुझे भारत के विकास की असली परिभाषा मालूम हुई.... "शाईनिंग इंडिया" के नाम पर विश्व विकास मंच पर भारत की बुलंद आर्थिक विकास का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओ को शायद उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारो एकड़ जमीने इस देश में कॉरपोरेट घरानों के द्वारा या तो छिनी गई है या यह सभी छीनने की तैयारी में है...दरअसल इस दौर में विकास एक खास तबके के लोगो के पाले में गया है वही दूसरा तबका दिन पर दिन गरीब होता जा रहा है जिसके विस्थापन की दिशा में कारवाही तो दूर सरकारे चिंतन तक नहीं कर पाई है .....



फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है.... जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनोती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कोर्पोरेट " का हित साध रहे है.........प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताते है तो समझना यह भी जरुरी हो जाता है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" करता खेल खेलना चाहती है?




कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से १९६७ में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई .... सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था ......उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी.... इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला ..........केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है.....




नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है.... बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है......नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है.... चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है .....और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है ......इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित करते है ......



नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है....जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ॥ इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया... यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए है .....




आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है .....देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में मओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे .."ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी...तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है॥ चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात है....




आज तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में है.... वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है .... सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है ....सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है....सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ॥"




कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है.... यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर " मनमोहनी इकोनोमिक्स " ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है....जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है ॥ मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है .... मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खायी को और चौड़ा कर रहा है ....



सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस कारन समाज में बदती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है ..."सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है...हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है... अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और आराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है....अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है.... केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है...



असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है ....हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है.... राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है.... पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दुसरे राज्य में चले जा रहे है ...ऐसे में राज्य सरकारे एक दुसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है... इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए है...



गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे है ॥ इसे अमली जामा पहनाने में कितना समय लगेगा कुछ कहा नहीं जा सकता.....? केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है ....भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए है...साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है....कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता.... इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है....




नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है.... चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है.... सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है ... इस दिशा में सरकारों को अभी से विचार करना होगा तभी बात बनेगी.... अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है....



कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है... बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है... विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है... नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके है....नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है... पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है ....वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है ....ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारन है ....




एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है.... कई परियोजनाए इनके दखल के चलते लंबित पड़ी हुई है.... नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "चतरा " और छत्तीसगढ़ करता "बस्तर" ओर "दंतेवाडा " जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता.... यह काफी चिंताजनक है...



नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता ॥ वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसरगया है .... साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है.... अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे... आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए है... ऊपर की कहानी केवल रामकिशन की नहीं , कहानी घर घर के रामकिशन की बन चुकी है........

Sunday 2 October 2011

भारतीय राजनीती में गहरा रहा है परिवारवाद ............




हमारे देश की राजनीती में परिवारवाद तेजी से गहराता जा रहा है.....जिस तेजी से परिवारवाद यहाँ पैर पसार रहा है उसके हिसाब से वह दिन दूर नहीं जब देश में कोई भी ऐसा नेता मिलना मुश्किल हो जायेगा जिसका कोई करीबी रिश्तेदार राजनीती में नहीं हो ..... राजनीतिक परिवारों के लिये भारतीय राजनीती से ज्यादा उर्वरक जमीन पूरे विश्व में कही नहीं है.....आज का समय ऐसा हो गया है राजनीती का कारोबार सभी को पसंद आने लगा है ॥ तभी सभी अपने नाते रिश्तेदारों को राजनीती में लाने लगे है....ऐसे हालातो में वो लोग" साइड लाइन" होने लगे है जिन्होंने किसी दौर में पार्टी के लिये पूरे मनोयोग से काम किया था...



आज के समय में नेताओ का पुत्र होने लाभ का सौदा है .... अगर आप किसी नेता के पुत्र है तो सारा प्रशासनिक अमला आपके साथ रहेगा ........यहाँ तक की मीडिया भी आपकी ही चरण वंदना करेगा ....अगर खुशकिस्मती से आप अपने रिश्तेदारों की वजह से टिकट पा गए तो समझ लीजिये आपको कुछ करने की जरुरत नही है ..... चूँकि आपके रिश्तेदार किसी पार्टी से जुड़े है इसलिए उनके साथ कार्यकर्ताओ की जो फ़ौज खड़ी है वो खुद आपके साथ चली आएगी...... इन सब बातो के मद्देनजर वो कार्यकर्ता अपने को ठगा महसूस करता है जिसने अपना पूरा जीवन पार्टी की सेवा में लगा दिया...



धीरे धीरे भारतीय राजनीती अब इसी दिशा में आगे बढ़ रही है ..... राजनीती में गहराते जा रहे इस वंशवाद को अगर नहीं रोका गया तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे लोकतंत्र का जनाजा ये परिवारवाद निकाल देगा .......भारतीय राजनीती आज जिस मुकाम पर है अगर उस पर नजर डाले तो हम पाएंगे आज राष्ट्रीय दल से लेकर प्रादेशिक दल भी इसे अपने आगोश में ले चुके है..... कांग्रेस पर राजनीतिक परिवारवादी के बीजो को रोपने का आरोप शुरू से लगता रहा है लेकिन आज आलम यह है कल तक परिवारवाद को कोसने वाले नेता भी आज अपने बच्चो को परिवारवाद के गर्त में धकेलते जा रहे है..... देश की विपक्षी पार्टी भाजपा में भी आज यही हाल है ... उसके अधिकांश नेता आज परिवारवाद की वकालत कर रहे है....."हमाम में सभी नंगे है" कमोवेश यही हालात देश के अन्य राजनीतिक दलों में भी है........


भारतीय राजनीती में इस वंशवाद को बढाने में हमारा भी एक बढ़ा योगदान है.....संसदीय लोकतंत्र में सत्ता की चाबी वैसे तो जनता के हाथ रहती है लेकिन हमारी सोच भी परिवारवाद के इर्द गिर्द ही घुमा करती है .... वह सम्बन्धित व्यक्ति के नाते रिश्तेदार को देखकर वोट दिया करती है....जबकि सच्चाई ये है , चुनाव में राजनीतिक परिवारवाद से कदम बढ़ने वाले अधिकाश लोगो के पास देश दुनिया और आम आदमी की समस्याओ से कोई वास्ता ओर सरोकार नहीं होता ......वो तो शुक्र है ये लोग अपने पारिवारिक बैक ग्राउंड के चलते राजनीती में अपनी साख जमा लेते है ...... ऐसे लोगो ने भारतीय राजनीती को पुश्तैनी व्यवसाय बना दिया है .......जहाँ पर उनकी नजरे केवल मुनाफे पर आ टिकी है.....इसी के चलते आज वे किसी भी आम आदमी को आगे बढ़ता हुआ नहीं देखना चाहते......


वंशवाद अगर इसी तरह से अगर आगे बढ़ता रहा तो आम आदमी का राजनीती में प्रवेश करने का सपना सपना बनकर रह जायेगा ........परिवारवाद को बढाने वाले कुछ लोगो ने राजनीती को अपनी बपोती बना कर रख दिया है......यही लोग है जिनके चलते आज "जन लोकपाल " बिल पारित नहीं हो पा रहा है.... अन्ना सरीखे लोगो ने आज इन्ही की बादशाहत को खुली चुनोती दे दी है ......जिसके चलते खुद को सत्ता का मठाधीश समझने वाले इन नेताओ को आज उनका सिंहासन खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है.........

तेरा जाना दिल के अरमानो का लुट जाना........


तेरा जाना दिल के अरमानो का लुट जाना" .....विदर्भ की जनता पर आज हिंदी फिल्म का यह पुराना गाना सौ फीसदी सच साबित हो रहा है.... अपने किसी जन नेता के खोने का गम किसी को कैसा सताता है यह इस गाने से बखूबी साबित हो जाता है... बीते दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बाबू साहब उर्फ बसंत राव साठे की मौत की खबर से पूरे विदर्भ वासी शोकमग्न है... साठे का गुडगाव में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया .... ८६ वर्षीय साठे इंदिरा , राजीव, नरसिंह राव की तीनो सरकार में वरिष्ठ मंत्री और अन्य पदों पर रहे थे ......उनके निधन से महाराष्ट्र के विदर्भ ने एक बड़े जन नेता को खो दिया .......... साठे से जुडी कुछ बातें ......... ........





विदर्भ के कट्टर समर्थक ---- सार्वजनिक जीवन में रहते हुए २००३ में साठे ने अपने सहयोगी एन के पी साल्वे के संघ कांग्रेस का त्याग किया था ... यह कदम उन्होंने स्वतन्त्र विदर्भ की मांग के समर्थन में उठाया था .....



मिलिटरी स्कूल में शिक्षा --- साठे ने अपनी आरंभिक पदाई नासिक के भोंसले मिलिटरी स्कूल से की .... नागपुर विश्व विद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र राजनीतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री ली ... साथ ही उन्होंने अपनी वकालत भी की.....



बाक्सिंग चैम्पियन---- विचारो से गाँधीवादी , आत्मा से समाजवादी पड़ी के दरमियान खेलो में भी आगे रहे.... मौरिस स्कूल से वह बाक्सिंग चैम्पियन भी रहे....समाजवादी से कांग्रेसी ---- साठे मशहूर वक्ता होने के साथ ही सामाजिक जीवन से समाजवादी नजर आये... १९४८ में उन्होंने लोहियावाद से प्रेरित होकर समाजवादी पार्टी में प्रवेश लिया ... १९६४ में अशोक मेहता से प्रेरित होकर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में राजनीती को करियर के रूप में चुना......



अकोला से सांसद -----साठे ने अपना पहला लोक सभा चुनाव १९७२ में अकोला से लड़ा था .... १९७० में वह य़ू एन ओ में भारतीय प्रतिनिधित्व भी कर चुके थे.....इंदिरा के साथी---- आपातकाल और उसके बाद विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने इंदिरा गाँधी का साथ दिया.... १९७७ में इसके फलस्वरूप उनको कांग्रेस संसदीय दल का उपनेता बनने का मौका मिला...... १९७९ तक वह पार्टी के प्रवक्ता भी रहे......



कलर टी वी योगदान --- १९८० में साठे कांग्रेस सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री बनाये गए.....इस दौर में उन्होंने भारत में टी वी के युग की शुरुवात की.....हम लोग, बुनियाद जैसे सेरियालो की नीव डालने और १९८३ के एशियन गेम को टी वी में दिखाकर उन्होंने सबसे सामने खुद का लोहा मनवाया था.....



८० में वर्धा से निर्वाचित---- १९७२ में अकोला संसदीय इलाके से चुनाव जीतने के बाद साठे १९८० में महात्मा गाँधी की कर्म स्थली वर्धा से चुनाव जीतकर केंद्र में मंत्री बने ....... ७२ में योजना आयोग के सलाहकार नियुक्त हुए .... ८० से ९० तक लगतार वर्धा का प्रतिनिधित्व भी किया... इस दरमियान वह इस्पात, रसायन, उर्वरक कोयला मंत्री भी रहे ....... विदर्भ में उद्योग को गति भी सही मायनों में साठे ने ही दी......



लेखक भी रहे--- बसंतराव लेखन से भी जुड़े रहे.... २००५ में अपना ८१ वा जन्म दिन मनाते समय उन्होंने अपनी आत्मकथा " मेमोरीज ऑफ़ ऐ रेशेंलिस्ट " लिखी...उन्होंने नए भारत नयी चुनौतिया , भारत में आर्थिक लोकतंत्र समेत तकरीबन आठ किताबे लिखी......इन आठो किताबो में उनकी काले धन पर लिखी गई एक किताब खासी महत्वपूर्ण है....



उतारा था यूनियन जेक----- बसंतराव में बचपन से देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी.... १९४२ में नागपुर की जिला अदालत की ईमारत पर चदकर उन्होंने अंग्रेजी शासन के प्रतीक यूनियन जेक को नीचे उतारकर तिरंगा फहराया था....



विदर्भ से नाता गहरा --- उनका विदर्भ से गहरा नाता था ॥ दिल्ली की राजनीती में रमे रहने के बाद भी वह समय निकालकर वर्धा आते थे ... यहाँ आकर काम करवाया करते थे.... जिस दिन उनकी मौत करता समाचार लोगो ने सुना तो आखें नम हो गई....




लोग कह रहे थे अगर वो ९१ में वर्धा से नहीं हारते तो शायद नर सिंह राव की जगह प्रधानमंत्री होते.....राजीव की हत्या के बाद वह लगातार हाशिये में चले गए... ९१ की हार के बाद पार्टी ने उन्हें १९९६ में दुबारा वर्धा से टिकट दिया लेकिन वह अपनी सीट नहीं बचा पाए....इसके बाद से उन्होंने कभी इस संसदीय इलाके में कदम नहीं रखा .....उनकी मौत के बाद भी आज विदर्भ में उनके प्रशंसको की कमी नहीं है... शायद यही कारन है आज भी लोग उनकी गिनती इस इलाके में "विकास पुरुष"के रूप में करते है.........

Tuesday 13 September 2011

हिलजात्रा ..............



लोकसंस्कृति का सीधा जुडाव मानव जीवन से होता है..... उत्तराखंड अपनी प्राकृतिक सुषमा और सौन्दर्य का धनी रहा है ..... यहाँ पर मनाये जाने वाले कई त्योहारों में अपनी संस्कृति की झलक दिखाई देती है... राज्य के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में मनाये जाने वाले उत्सव हिलजात्रा में भी हमारे स्थानीय परिवेश की एक झलक दिखाई देती है...


हिलजात्रा एक तरह का मुखौटा नृत्य है .... यह ग्रामीण जीवन की पूरी झलक हमको दिखलाता है... भारत की एक बड़ी आबादी जो गावों में रहती है उसकी एक झलक इस मुखौटा नृत्य में देखी जा सकती है... हिलजात्रा का यह उत्सव खरीफ की फसल की बुवाई की खुशी मनाने से सम्बन्धित है... इस उत्सव में जनपद के लोग अपनी भागीदारी करते है...


"हिल " शब्द का शाब्दिक अर्थ दलदल अर्थात कीचड वाली भूमि से और "जात्रा" शब्द का अर्थ यात्रा से लगाया जाता है ... कहा जाता है मुखौटा नृत्य के इस पर्व को तिब्बत ,नेपाल , चीन में भी मनाया जाता है... उत्तराखंड का सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ सोर घाटी के नाम से भी जाना जाता है ...यहाँ पर वर्षा के मौसम की समाप्ति पर "भादों" माह के आगमन पर मनाये जाने वाला यह उत्सव इस बार भी बीते दिनों कुमौड़ गाव में धूम धाम के साथ मनाया गया...


इस उत्सव में ग्रामीण लोग बड़े बड़े मुखौटे पहनकर पात्रो के अनुरूप अभिनय करते है.....कृषि परिवेश से जुड़े इस उत्सव में ग्रामीण परिवेश का सुंदर चित्रण होता है......इस उत्सव में मुख्य पात्र नंदी बैल , ढेला फोड़ने वाली महिलाए, हिरन, चीतल, हुक्का चीलम पीते लोग, धान की बुवाई करने वाली महिलाए है .... कुमौड़ गाव की हिलजात्रा का मुख्य आकर्षण "लखिया भूत " होता है... इस भूत को "लटेश्वर महादेव" के नाम से भी जानते है॥ मान्यता है यह लखिया भूत भगवान् भोलेनाथ का १२वा गण है ... कहा जाता है इसको प्रसन्न करने से गाव में सुख समृधि आती है...


हिलजात्रा का मुख्य आकर्षण लखिया भूत होता है जो सबके सामने उत्सव के समापन में लाया जाता है... जिसको दो गण रस्सी से खीचते है...यह बहुत देर तक मैदान में घूमता है ..... माना जाता है यह लखिया भूत क्रोध का प्रतिरूप है...... जब यह मैदान में आता है तो सभी लोग इसका फूलो और अक्षत की बौछारों से अभिनन्दन करते है...इस दौरान सभी शिव जी के १२ वे गण से आर्शीवाद लेते है...कहते है इस भूत के प्रसन्न रहने से गाव में फसल का उत्पादन अधिक होता है ...


कुमौड़ वार्ड के पूर्व सभासद गोविन्द सिंह महर कहते है यह हिलजात्रा पर्व मुख्य रूप से नेपाल की देन है... जनश्रुतियों के अनुसार कुमौड़ गाव की "महर जातियों की बहादुरी के चर्चे प्राचीन काल में पड़ोसी नेपाल के दरबार में सर चदकर बोला करते थे ... इन वीरो की वीरता को सलाम करते हुए गाव वालो को यह उत्सव उपहार स्वरूप दिया गया..... तभी से इसको मनाने की परम्परा चली आ रही है ..... आज भी यह उत्सव पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है......

Monday 29 August 2011

१० जनपथ का पॉवर हाउस : अहमद पटेल

संसदीय राजनीती के मायने भले ही इस दौर में बदल गए हो और उसमे सत्ता का केन्द्रीयकरण देखकर अब उसे विकेंद्रीकृत किये जाने की बात की जा रही हो लेकिन देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस में परिवारवाद साथ ही सत्ता के केन्द्रीकरण का दौर नही थम रहा है .....दरअसल आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस में सत्ता का मतलब एक परिवार के बीच सत्ता का केन्द्रीकरण रहा है....फिर चाहे वो दौर पंडित जवाहरलाल नेहरु का हो या इंदिरा गाँधी या फिर राजीव गाँधी का ... राजीव गाँधी के दौर के खत्म होने के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब कांग्रेस पार्टी की सत्ता लडखडाती नजर आई..... उस समय पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान सीता राम केसरी के हाथो में थी..... यही वह दौर था जिस समय कांग्रेस पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजरी..... यही वह दौर था जब भाजपा ने पहली बार गठबंधन सरकार का युग शुरू किया और अपने बूते केन्द्र की सत्ता पायी थी....


उस दौर में किसी ने शायद कल्पना नही की थी कि एक दिन फिर यही कांग्रेस पार्टी भाजपा को सत्ता से बेदखल कर केन्द्र में सरकार बना पाने में सफल हो जाएगी.... यही नही वामपंथियों की बैसाखियों के आसरे अपने पहले कार्यकाल में टिकी रहने वाली कांग्रेस अन्य पार्टियों से जोड़ तोड़ कर सत्ता पर काबिज हो जाएगी और "मनमोहन" शतरंज की बिसात पर सभी को पछाड़कर दुबारा "किंग" बन जायेंगे ऐसी कल्पना भी शायद किसी ने नही की होगी ......


दरअसल इस समूचे दौर में कांग्रेस पार्टी की परिभाषा के मायने बदल चुके है ....उसमे अब परिवारवाद की थोड़ी महक है और कही ना कहीं भरोसेमंद "ट्रबल शूटरो" का भी समन्वय.....इसी के आसरे उसने यू पी ऐ १ से यू पी ऐ २ की छलांग लगाई है ....सोनिया गाँधी ने जब से हिचकोले खाती कांग्रेस की नैय्या पार लगाने की कमान खुद संभाली है तब से सही मायनों में कांग्रेस की सत्ता का संचालन १० जनपथ से हो रहा है ..... यहाँ पर सोनिया के भरोसेमंद कांग्रेस की कमान को ना केवल संभाले हुए है बल्कि पी ऍम ओ तक को इनके आगे नतमस्तक होना पड़ता है .....


इस दौर में कांग्रेस की सियासत १० जनपथ से तय हो रही है जहा पर कांग्रेस के सिपहसलार समूची व्यवस्था को इस तरह संभाल रहे है कि उनके हर निर्णय पर सोनिया की सहमती जरुरी बन जाती है.... दस जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय अहमद पटेल के जिम्मे है....जिनके निर्देशों पर इस समय पूरी पार्टी चल रही है....."अहमद भाई" के नाम से मशहूर इस शख्स के हर निर्णय के पीछे सोनिया गाँधी की सहमती रहती है.... सोनिया के "फ्री हैण्ड " मिलने के चलते कम से कम कांग्रेस में तो आज कोई भी अहमद पटेल को नजरअंदाज नही कर सकता है...


कांग्रेस में अहमद पटेल की हैसियत देखिये बिना उनकी हरी झंडी के बिना कांग्रेस में पत्ता तक नही हिला करता ....कांग्रेस में "अहमद भाई" की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के किसी भी छोटे या बड़े नेता या कार्यकर्ता को सोनिया से मिलने के लिए सीधे अहमद पटेल से अनुमति लेनी पड़ती है.....अहमद की इसी रसूख के आगे पार्टी के कई कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस करते है लेकिन सोनिया मैडम के आगे कोई भी अपनी जुबान खोलने को तैयार नही होता है ....मेरे राज्य से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस नेता के एक बेहद करीबी व्यक्ति ने मुझे बीते दिनों बताया कि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्री अहमद पटेल से अनुमति लेकर सोनिया से मिलते है ....


अहमद भाई को समझने के लिए हमें ७० के दशक की ओर रुख करना होगा.....यही वह दौर था जब अहमद गुजरात की गलियों में अपनी पहचान बना रहे थे.....उस दौर में अहमद पटेल "बाबू भाई" के नाम से जाने जाते थे और १९७७ से १९८२ तक उन्होंने गुजरात यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली .....७७ के ही दौर में वो भरूच कोपरेटिव बैंक के निदेशक भी रहे.....


इसी समय उनकी निकटता राजीव के पिता फिरोज गाँधी से भी बढ़ गई क्युकि राजीव के पिता फिरोज का सम्बन्ध अहमद पटेल के गृह नगर से पुराना था..... इसी भरूच से अहमद पटेल तीन बार लोक सभा भी पहुचे ... १९८४ में अहमद पटेल ने कांग्रेस में बड़ी पारी खेली और वह "जोइंट सेकेटरी" तक पहुच गए लेकिन पार्टी ने उस दौर में उन्हें सीधे राजीव गाँधी का संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया था ......


इसके बाद कांग्रेस का गुजरात में जनाधार बढाने के लिए पटेल को १९८६ में गुजरात भी भेजा गया .... गुजरात में पटेल को करीब से जाने वाले बताते है पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देते है... शायद तभी अहमद पटेल ने राजनीती में बचपन से ही पैर जमा लिए थे......पटेल के टीचर ऍम एच सैयद ने उन्हें ८ वी क्लास का मोनिटर बना दिया था.....यही नही जोड़ तोड़ की कला में पटेल कितने माहिर थे इसकी मिसाल उनके टीचर यह कहते हुए देते है कि अहमद पटेल ने उस दौर में उनको उस विद्यालय का प्रिंसिपल बना दिया था.....


शायद बहुत कम लोगो को ये मालूम है कि गुजरात के पीरमण में अहमद पटेल का जीवन क्रिकेट खेलने में भी बीता था उस दौर में पीरमण की क्रिकेट टीम की कमान खुद वो सँभालते थे .....टीम में उनकी गिनती एक अच्छे आल राउनडर के तौर पर होती थी.....अहमद पटेल की इन्ही विशेषताओ के कारण शायद उन्हें उस पार्टी में एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई जो देश की सबसे बड़ी पार्टी है .....यहाँ अहमद पटेल सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार है .....


अहमद की इसी ताकत का लोहा आज उनके विपक्षी भी मानते है.....यकीन जान लीजिये पार्टी को हाल के समय में बुरे दौर से उबारकर सत्ता में लाने में अहमद पटेल की भूमिका को किसी तरह से नजर अंदाज नही किया जा सकता....हाँ ये अलग बात है भरूच में कांग्रेस लगातार ४ लोक सभा चुनाव हारती जा रही है फिर भी हर गुजरात में होने वाले हर छोटे बड़े चुनाव में टिकटों कर बटवारा अहमद पटेल की सहमती से होता आया है जो यह बतलाने के लिए काफी है कि आज पार्टी में उनका सिक्का कितनी मजबूती के साथ जमा हुआ है ....


अहमद पटेल की ताकत की एक मिसाल २००४ में देखने को मिली जब पहली बार कांग्रेस यू पी ऐ १ में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी .... इस कार्यकाल में सोनिया के "यसबॉस " मनमोहन बने ओर वह अपनी पसंद के मंत्री को विदेश मंत्रालय सौपना चाहते थे लेकिन दस जनपद गाँधी पीड़ी के तीसरे सेवक कुवर नटवर सिंह को यह जिम्मा देना चाहता था लेकिन मनमोहन नटवर को भाव देने के कतई मूड में नही थे.....


हुआ भी यू ही.... जहाँ इस नियुक्ति में मनमोहन सिंह की एक ना चली वही नटवर के हाथ विदेश मंत्रालय आ गया ....मनमोहन का झुकाव शुरू से उस समय अमेरिका की ओर कुछ ज्यादा ही था.... लेकिन अपने कुंवर साहब ईरान और ईराक के पक्षधर दिखाई दिए.... कुंवर साहब अमेरिका की चरण वंदना पसंद नही करते थे और परमाणु करार करने के बजाए ईरान के साथ अफगानिस्तान , पकिस्तान के रास्ते भारत गैस पाइप लाइन लाना चाहते थे ... इस योजना में कुंवर साहब को गाँधी परिवार के पुराने सिपाही मणिशंकर अय्यर का समर्थन था ......वही मणिशंकर जो आज कांग्रेस पार्टी को सर्कस कहने और उसके कार्यकर्ताओ को जोकर कहने से परहेज नही करते ......


कुंवर , मणिशंकर मनमोहन को १० जनपथ का दास मानते थे.....लेकिन समय ने करवट ली और "वोल्कर" के चलते नटवर ना केवल विदेश मंत्री का पद गवा बैठे बल्कि पार्टी से भी बड़े बेआबरू होकर निकल गए..... लेकिन इसके बाद भी मनमोहन अपनी पसंद के आदमी को विदेश मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन १० जनपथ के आगे उनकी एक ना चली ....और प्रणव मुखर्जी को विदेश मंत्री की जिम्मेदारी मिली......प्रणव की नियुक्ति से परमाणु करार तो संपन्न हो गया लेकिन देश की विदेश नीति वैसे नही चल पाई जैसा मनमोहन चाहते थे.....लेकिन २००९ में जब अपने दम पर मनमोहन ने अपने को "मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया तो दस जनपद के आगे उनकी चलने लगी.....


इसी के चलते मनमोहन ने अपनी दूसरी पारी में एस ऍम कृष्णा, शशि थरूर , कपिल सिब्बल को अपने हिसाब से केबिनेट पद की कमान सौपी......आई पी एल में थरूर के फसने के बाद जब १० जनपथ ने उनसे इस्तीफ़ा माँगा तब अकेले मनमोहन उनका बीच बचाव करते नजर आये......इस समय १० जनपथ की और से प्रधानमंत्री मनमोहन को जबरदस्त घुड़की पिलाई गई थी .....तब १० जनपथ की ओर से मनमोहन को साफ़ संदेश देते हुए कहा गया था आपको ओर आपके मंत्रियो को १० जनपथ के दायरे में रखकर काम करना होगा ..... यही नही अहमद पटेल ने तो उस समय शशि थरूर को लताड़ते हुए यहाँ तक कह डाला था वे यह ना भूले वह किसकी कृपा से यू पी ऐ में मंत्री बने है......


दरअसल यह पूरा वाकया दस जनपथ में अहमद पटेल की ताकत का अहसास कराने के लिए काफी है....दस जनपथ शुरुवात से नही चाहता कि मनमोहन को हर निर्णय लेने के लिए "फ्री हेंड" दिया जाए....अगर ऐसा हो गया तो मनमोहन अपनी कोर्पोरेट की बिसात पर सरकार चलाएंगे....ऐसी सूरत में आने वाले दिनों में कांग्रेस पार्टी क भावी "युवराज " के सर सेहरा बाधने में दिक्कतें पेश आ सकती है .....इसलिए कांग्रेस के सामने यह दौर ऐसा है जब उसके हर मंत्री की स्वामीभक्ति मनमोहन के बजाए १० जनपथ में सोनिया के सबसे विश्वासपात्र अहमद पटेल पर आ टिकी है...


एक दौर ऐसा भी था जब अहमद पटेल की पार्टी में उतनी पूछ परख नही थी......लेकिन जोड़ तोड़ की कला में बचपन से माहिर रहे अहमद पटेल ने समय बीतने के साथ गाँधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा बढ़ा ली और सोनिया के करीबियों में शामिल हो गए.....राजनीतिक प्रेक्षक बताते है कि पार्टी में अहमद पटेल के इस दखल को पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता पसंद तक नही करते लेकिन सोनिया के आगे इस पर कोई अपनी चुप्पी नही तोड़ता.... बताया जाता है अहमद पटेल की आंध्र के पूर्व दिवंगत सी ऍम राजशेखर रेड्डी से कम बनती थी..... दोनों के बीच ३६ का आकडा जगजाहिर था ...कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियो में वह अकेले ऐसे थे जो अहमद पटेल के ज्यादा दखल का खुलकर विरोध करते थे......अब राजशेखर इस दुनिया में नही रहे इसका असर यह हुआ है अहमद पटेल ने पूरी पार्टी "हाईजेक" कर ली है.... यही वजह है उन्होंने दिवंगत राजशेखर के बेटे जगन मोहन के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला बनाकर उन्होंने इसमें सोनिया की सहमती ली है और अब मामले की सी बी आई जांच कराने में जुटे है .... आखिर बड़ा सवाल यह है इतने सालो से आन्ध्र की राजनीती में राजशेखर का जब वर्चस्व था तब कांग्रेस पार्टी को यह ध्यान क्यों नही आया कि रेड्डी के पास इतनी ज्यादा अकूत धन सम्पदा कैसे आई.....? कही कर नही यह कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहा है......


कुलमिलाकर आज कांग्रेस में अहमद पटेल होने के मायने गंभीर हो चले है ....किसको मंत्री बनाना है ... किस नेता को अपने पाले में लाना है ... जोड़ तोड़ कैसे होगा ? यह सब अहमद पटेल की आज सबसे बड़ी ताकत बन गई है .....अहमद की इसी काबिलियत के आगे जहाँ कांग्रेस हाईकमान नतमस्तक होता है वही बेचारे मनमोहन अपने मन की बेबसी के गीत गाते नजर आते है..... फिर अगर आज के दौर में कांग्रेस के कार्यकर्ता अगर यह सवाल पूछते है कि २४ अकबर रोड नाम मात्र का दफ्तर बनकर रह गया है तो जेहन में उमड़ घुमड़ कर कई सवाल पैदा होते है ..... कही न कही इसी के चलते पार्टी को आने वाले दिनों में मुश्किलों का सामना ना करना पड़ जाए....वैसे भी इस समय कांग्रेस के सितारे इस समय गर्दिश में है......

Thursday 25 August 2011

तुष्टीकरण की शिकार रही है तस्लीमा............






तस्लीमा नसरीन...... एक जाना पहचाना नाम है.... आज खास तौर पर इनका जिक्र ब्लॉग में कर रहा हू क्युकि आज तस्लीमा का जन्म दिन है .......शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो इनके नाम से परिचित नहीं होगा......


नसरीन का जन्म २५ अगस्त १९६२ को एक मुस्लिम परिवार में हुआ था....प्रसिद्द लेखिका नसरीन ने अपने जीवन की शुरुवात चिकित्सा के पेशे से की......१९८४ में चिकित्सा की पारी पूरी करने के बाद उन्होंने ८ वर्ष तक बंगलादेश के अस्पताल में काम किया .... सामाजिक गतिविधियों से जुड़े होने के बाद भी उन्होंने अपने को साहित्यिक गतिविधियों से दूर नहीं किया...... मात्र १५ वर्ष की आयु में कविता लिखकर अपनी लेखनकला की ओर सभी का ध्यान खींचा.....


तस्लीमा की पहली पुस्तक १९८६ में प्रकाशित हुई.....१९८९ में वह अपनी दूसरी पुस्तक को प्रकाशित करवा पाने में सफल रही.... इसके बाद तस्लीमा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा .......इस दूसरी पुस्तक को लिखने के बाद उनको दैनिक, साप्ताहिक समाचार पत्रों के संपादको की ओर से नियमित कॉलम लिखने के आमंत्रण आने लगे.... इस अवधि में "सैंट ज्योति" पाक्षिक पत्रिका का संपादन भी उनके द्वारा किया गया...तस्लीमा हमेशा बंगाली भाषा में लिखती रही है.....


नसरीन को धर्म, संस्कृति, परम्परा की आलोचना करने में कोई भय नहीं रहता ... ..... इसी कारन उनकी ६ मुख्य पुस्तके प्रतिबंधित श्रेणी में आती है जो क्रमश "लज्जा" (१९९३), अमर मेबले( १९९९), उताल हवा(२००२), को(२००३), द्विखंडितो( २००३), सी सब अंधकार (२००४) शामिल है......तस्लीमा की पुस्तकों पर उनके गृह देश बंगलादेश में भी विरोध के स्वर मुखरित होते रहे है.... जहाँ शेख हसीना ने इन पुस्तकों को अश्लील करार दिया ... वही भारत की पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने मुस्लिम कौम की भर्त्सना करने के चलते इन पुस्तकों पर प्रतिबन्ध लगाया..... १९९२ में तस्लीमा बंगलादेश का प्रतिष्टित साहित्यिक अवार्ड "आनंदा " पाने में सफल रही॥


निडर होकर धर्म के विरोध में लिखने के कारन "सोल्जर ऑफ़ इस्लामी ओर्गनाइजेशन " ने इनके खिलाफ मौत का फ़तवा जारी कर दिया.... जिसके बाद से कभी उन्होंने जनता के सामने आना पसंद नहीं किया........वहां की सरकार ने उनके खिलाफ उग्र प्रदर्शनों से बचाव हेतु उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया और देश से निर्वासित होने का फरमान जारी कर दिया .......२००४ में उनके खिलाफ विरोध जताने के एक मुद्दे के तौर पर यह कहा गया अगर किसी ने उनका मुह काला कर दिया तो उसको अवार्ड दिया जायेगा...


बंगलादेश के धार्मिक नेता सैयद नूर रहमान तो तस्लीमा के लेखन से इतना आहत हुए उन्होंने इनको आतंकवादी संगठन जीबी का जासूस तक करार दे डाला......२००५ में अमेरिका पर लिखी गई एक कविता पर फिर से उन्हें मुस्लिम समाज पर आपत्तिजनक टिप्पणिया करने के चलते खासी फजीहतें झेलनी पड़ी.......मार्च २००५ में उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम संगठनो ने इनका सर कलम करने के लिये ६ लाख के इनाम की घोषणा की....


इसके बाद ९ अगस्त २००७ को हैदराबाद प्रेस क्लब में उनके तेलगु संस्करण शोध के विमोचन के मौके पर "मुतेह्दा मजलिस ऐ अमल" के १०० लोगो ने ३ विधान सभा सदस्यों के साथ इन पर हमला बोल दिया.......इस घटना पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा हम इस्लाम के खिलाफ लिखने ओर बोलने वाले का विरोध करते रहेंगे.... सितम्बर २००७ में तस्लीमा पर कुछ कट्टरपंथियों ने हमला बोल दिया ...


भारत में इसी दौरान "आल इंडिया माइनोरिटी " फोरम ने इनके भारत रहने पर सवाल उठाये और इन्हें भारत से निकालने की मांग की.... स्थिति को बिगड़ता हुआ देख पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वामपंथी सरकार ने इनकी हिफाजत के लिये पुलिस नियुक्त की......परन्तु स्थिति नहीं संभल पायी......२१ नवम्बर २००७ को इन्हें जयपुर ले जाया गया और रातो रात दिल्ली लाया गया.....


३० नवम्बर २००७ को कट्टरपंथियों के विरोध को शांत करने के लिये तस्लीमा अपनी विवादित पुस्तक "द्विखंडितो" से ३ पन्ने हटाने को तैयार हो गई....इसके बाद तस्लीमा को उम्मीद थी तमाम विवाद उनका पीछा छोड़ देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.... ९ जनवरी २००७ को फ्रांस सरकार ने उन्हें" सियोमन दी वियोवर" सम्मान महिला अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिये दिया॥


कुछ साल पहले तक भारत सरकार ने उन्हें जयपुर में एक गुप्त स्थान में रखा जहाँ पर उन्हें किसी से मिलने की अनुमति नहीं दी गई......भले ही नसरीन को भारत छोड़े हुए लम्बा समय हो गया हो लेकिन आज भी वह कोलकाता को अपना घर मानती है.....तसलीमा तो भारत से चली गई लेकिन उनके जाने के बाद भारत की धर्म निरपेक्ष छवि को करार तमाचा लगा है .....


हमारे साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है हम इतिहास की घटनाओ से सबक नहीं सीखते .... "सैटेनिक वर्सेज" जिस दौर में रुश्दी ने लिखा तो पूरे इस्लाम जगत में हलचल मच गई ऐसे समय में ब्रिटेन ने रुश्दी को व्यापक सुरक्षा मुहैया करवाई लेकिन एक हम है जो अतिथि देवो भवः का दंभ भरते है ओर किसी शरणार्थी को ठीक से सुरक्षा भी नहीं दे सकते...


पश्चिम बंगाल में साहित्य से जुड़े कई विद्वानों ने तस्लीमा का बचाव करते हुए हाल के कुछ वर्षो में कहा कि उनको राज्य में रहने की अनुमति दी जानी चाहिए .... हिंदी की चर्चित और प्रतिष्ठित साहित्यकार महाश्वेता देवी ने तो तस्लीमा की वकालत करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार से कुछ साल पहले कहा था तस्लीमा कोलकाता को अपना घर मानती रही है लिहाजा उनको राज्य में रहने की अनुमति मिलनी चाहिए ... लेकिन तत्कालीन वामपंथी सरकार ने उनकी मांग को ठुकरा दिया ... यही नही यू पी ऐ सरकार ने भी अपनी वोट बैंक की राजनीती के चलते तस्लीमा को भारत में रहने की इजाजत ही नही दी...एकतरफ हम दलाई लामा को अपने देश में रहने की अनुमति लम्बे समय से दिए हुए है लेकिन आज तक हम तस्लीमा जैसी लेखिकाओ को भारत में रहने की इजाजत नही दे पाते..... कही न कही यह हमारी धर्म निरपेक्ष छवि के ऊपर करार तमाचा है....

Friday 19 August 2011

किन्नरों का कजलिया...........



भोपाल अपनी गंगा जमुना तहजीब और झीलों की खूबसूरती के लिए जाना जाता है .....कला संस्कृति के गढ़ के रूप में भोपाल का कोई सानी नही है.... साथ ही यहाँ की कई परम्पराए लोगो को सीधे उनकी संस्कृति से जोड़ने का काम करती है.... वैसे भी लोक संस्कृति का सीधा सम्बन्ध मानव जीवन से जुड़ा है....

भोपाल में राखी के त्यौहार के बाद किन्नरों का "कजलिया" भी इस बात का बखूबी अहसास कराता है......हर साल राखी के बाद होने वाले किन्नरों के इस आयोजन पर पूरे शहरवासियो की नजरे लगी रहती है.....इस आयोजन की लोकप्रियता का अहसास मुझे तब हुआ जब इस बार किन्नरों को देखने के लिए भोपाल में रहने वाले लोगो का पूरा हुजूम सड़को पर निकल आया....

कजलिया को मनाने की परम्परा भोपाल में नवाबी दौर से चली आ रही है....इस बारे में किन्नरों से जब मैंने बात की तो उन्होंने बताया अच्छी बारिश को लेकर यह आयोजन भोपाल में हर साल होता है जिसमे निकाले जाने वाले जुलूस में सभी किन्नर बढ़ चढ़कर अपनी भागीदारी करते है....माना जाता है एक बार भयंकर अकाल पड़ने पर भोपाल के नवाब को किन्नरों की शरण में जाना पड़ा था...बताया जाता है किन्नरों द्वारा छेड़े गए राग मल्हार के फलस्वरूप इन्द्र देव खासे प्रसन्न हो गए और शहर में मूसलाधार बारिश हो गई....उसके बाद से इस आयोजन की परम्परा चल निकली ..... इठलाते हुए जब ये किन्नर जुलूस में शामिल होने सडको पर निकलते है तो मानो पूरा शहर उन्हें देखने सड़को पर उमड़ आता है .... सड़के जाम तक हो जाती है लेकिन ना तो शहरवासी परेशान होते है ना ही किन्नर....इस दौरान लोग सड़को पर निकले किन्नरों को छेड़ते भी है परन्तु बुरा मानने के बजाय किन्नर अपना नया राग मल्हार छेड़ देते है.....

भोपाल में किन्नरों के जुलूस के दौरान किन्नरों का मानवीय चेहरा भी मुझे देखने को मिला ........ समझ से अलग थलग रहने वाले इस वर्ग ने इंसानियत की जो मिसाल पेश की है वह सराहनीय होने के साथ ही अनुकरणीय है .....भोपाल में किन्नरों के कजलिया के दौरान कुछ बच्चो को साथ देखकर मै चौंक गया ... बढती जिज्ञासा को शांत करने के लिए किन्नरों के बीच बैठा .... दरअसल किन्नर समाज का अंग होते हुए भी समाज से कटे रहते है.... इस कारण इस समाज के प्रति जिज्ञासा औरभय साथ साथ रहता है....जिसके चलते इस समाज की गतिविधियों का सही से ज्ञान लोगो को नही हो पाता.... इन किन्नरों ने कई मासूम लडकियों को भी गोद ले रखा है....जो अनाथ बच्चो को पढ़ाने लिखाने से लेकर उन्हें खान पान भी उपलब्ध करा रहे है.... राजधानी भोपाल के मंगलवारे और इतवारे में रहने वाले कुछ किन्नरों की ये पहल निश्चित ही समाज के लिए अनुकरणीय है... काश समाज की मुख्य धारा से जुड़े लोग भी अगर इस दिशा में ध्यान दे तो कई लोगो की जिन्दगी रोशन हो सकती है ....

"कजलिया " के दौरान निकलने वाला किन्नरों का जुलूस मंगलवारे से शुरू होता है और यह शहर के मुख्य मार्गो से होता हुआ गुफा मंदिर तक पहुचता है....पहले इस मंदिर के पास की पहाड़ी पर एक तालाब था ॥ दुधिया तालाब नामक इस तालाब का अस्तित्व वक्त के साथ खत्म हो गया...परन्तु किन्नरों की ये परम्पराए आज भी जारी है .... शायद ये हमारे देश में ही संभव है जहाँ किन्नर उत्साहपूर्वक आज भी कजलिया मनाते , अनाथ बच्चो को गोद लेते है और बढ़ चढ़कर अपनी भागीदारी इस आयोजन में करते है........

Thursday 11 August 2011

देवीधुरा का बग्वाल परमाणु युग में पाषाण युद्ध का चमत्कार ......




उत्तराखंड अपनी मनमोहक प्राकृतिक सुषमा और नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए देश विदेश में खासा जाना जाता है साथ ही इस देवभूमि की अनेक परम्पराए यहाँ की धर्म ,संस्कृति से जुडी हुई है......ऐसी ही अनूठी परम्परा को अपने में संजोये देवीधुरा मेला है जिसे देश विदेश में पाषाण युद्ध "बग्वाल" के नाम से जाना जाता है....... प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के पावन पर्व पर लगने वाले इस मेले में एक दूसरे को पत्थर मारने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है ....


कुमाऊ अंचल के जनपदों नैनीताल,अल्मोड़ा, उधम सिंह नगर को चम्पावत का देवीधुरा क़स्बा एक दूसरे से जोड़ता है.....कहा जाता है कि देवीधुरा पूर्णागिरी माता का एक पीठ है जहाँ पर चंपा और कालिका को प्राचीन काल में प्रतिष्टित किया गया था ...


यहाँ का सर्वाधिक महान आश्चर्य यह है कि देवीधुरा में माता बाराही का तेज इतना है कि आज तक कोई प्राणी इन्हें खुली आँखों से नही देख पाया.... जिसने भी ऐसा दुस्साहस किया वह अँधा हो गया....बग्वाल की पृष्ठभूमि चार राजपूती ख़ामो के पुश्तेनी खेल से जुडी हुई है जिसमे गहरवाल , वल्किया, लमगडिया , चम्याल मुख्य है.....श्रावण शुक्ल के दिन सभी गाववासी एकत्रित होते है और एक दूसरे को निमंत्रण भेजकर बग्वाल में भाग लेते है.....


रक्षाबंधन के समय सभी खामे एक दूसरे को निमंत्रण देती है और बग्वाल में भागीदार बनती जाती है ....बग्वाल के समय वल्किया और लमगडिया खाम एक छोर पश्चिम से प्रवेश करती है तो चम्याल और गहरवाल पूर्वी छोर से रणभूमि में आते है .....मंदिर के पुजारी द्वारा आशीर्वाद मिलने के बाद सभी एक स्थान पर इकट्टा होते है ...आम तौर पर गहरवाल खाम सबसे अंत में आती है जिस पर गहरवाल खाम का व्यक्ति पत्थर फैक कर प्रहार करता है..... गहरवाल के पत्थर फैकने के साथ ही "बग्वाली कौतिक" शुरू हो जाता है.....


इस पत्थरो के युद्ध में भाग लेने वाली चारो खामे वैसे तो आपस में मित्र होती है लेकिन पत्थरो के युद्ध के समय वह सारे रिश्ते नाते भूल कर एक दूजे पर पूरी ताकत के साथ वार करते है......चार दलों के द्वारा लाठियों और फर्रो को सटाकर एक सुरक्षा कवच बना लिया जाता है जो घायल की सुरक्षा करने का काम करता है......बग्वाल के दौरान पत्थरो की वर्षा द्वारा शरीर के विभिन्न अंग लहुलुहान हो जाते है लेकिन रक्त की बूंदे गिरने के बाद भी कोई चीत्कार नही सुनाई देती है.....

मुख्य पुजारी एक व्यक्ति के शरीर के बराबर रक्त गिरने के बाद बग्वाल को रोकने का आदेश दे देता है......तकरीबन बीस से पच्चीस मिनट तक चलने वाले इस पाषाण युद्ध की समाप्ति के बाद बग्वाल खेलने वाली खामे एक दूसरे के गले मिलती है... इस दौरान पत्थरो से घायल हुए लोगो को गंभीर चोट नही आती...ऐसा माना जाता है कुछ वर्ष पूर्व तक लोग बग्वाल खेले जाने वाले मैदान की बिच्छु घास अपने शरीर में लगा लिया करते थे जिससे वह कुछ समय बाद खुद ही ठीक हो जाया करते थे ....आज बिच्छु घास तो नही लगाई जाती है लेकिन पत्थरो के घाव अपने आप बाराही माता की कृपा से स्वतः ठीक हो जाते है.....


उत्तराखंड के देवीधुरा का" बग्वाल" मेला आधुनिक परमाणु युग में भी पाषाण युद्ध की परंपरा को संजोये हुए है.....यह मेला आपसी सदभाव की जीती जागती मिसाल है.....यहाँ खेले जाने वाले बग्वाल को देखने दूर दूर से लोग पहुचते है और एक अलग छाप लेकर जाते है.... तीर्थाटन के मद्देनजर ऐसे स्थान राज्य के आर्थिक विकास में खासे उपयोगी है ... यह अलग बात है सरकारी उपेक्षा के चलते देवीधुरा के विकास का कोई खाका अलग राज्य बनने के बाद भी नही बन सका है जिसके चलते उत्तराखंड में सांस्कृतिक परम्पराए दम तोड़ रही है ....वैश्वीकरण के इस दौर में यदि आज "बग्वाल" सरीखी हमारी सांस्कृतिक परम्पराए जीवित है तो इसका श्रेयः निसंदेह इन मान्यताओ का वैज्ञानिक स्वरूप है........

Wednesday 27 July 2011

उत्तराखंड में फिर से खूंटा गाड़ने की तैयारी में है खंडूरी......

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमत्री भुवन चन्द्र खंडूरी की राज्य में सक्रियता एक बार फिर बढ गई है.....उत्तराखण्ड में आगामी विधान सभा चुनावो से ठीक पहले खंडूरी की इस सक्रियता से एक बार फिर इस बात के कयास लगने शुरू हो गए है कि पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व के साथ उनके सम्बन्ध ठीकठाक नही चल रहे है ..... राज्य में विधान सभा चुनावो से ठीक पहले अगर जनरल ने अपने राजनीतिक जीवन का कोई बड़ा फैसला ले लिया तो भाजपा को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.....


दरअसल इस समय राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री निशंक के साथ उनकी पटरी नही बैठ रही है ..... निशंक अपने को पार्टी में बड़ा सर्वेसर्वा मानते है.... पार्टी के कई दिग्गज नेता उनकी इसी कार्य शैली की वजह से खासे नाराज है .... यह नाराजगी केवल हाल के दिनों में ही नही बड़ी है... निशंक के साथ पार्टी के आम कार्यकर्ताओ के संबंधो में कटुता उनकी ताजपोशी के बाद से ही बढ़नी शुरू हो गई थी.... अब विधान सभा चुनाव पास आने से ठीक पहले निशंक के खिलाफ ये नाराजगी भाजपा के लिए राज्य में नुकसान देहक साबित हो सकती है.....


भाजपा में इस समय निशंक को हटाने की मुहिम परवान पर है... और इस समय दो पूर्व मुख्यमत्री खुले तौर पर निशंक को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाने की कोशिसो में लगे है....यह कोई और नही राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री खंडूरी और भगत सिंह कोशियारी है.... दोनों खुले तौर पर पार्टी के आला नेतृत्व से निशंक को हटाने के लिए लॉबिंग करने में जुटे है.....

बीते दिनों हरिद्वार में राजनाथ सिंह के महिला मोर्चे के कार्यक्रम में इनदिनों महारथियों की अनुपस्थिति से यह सन्देश गया है कि उत्तराखण्ड भाजपा की साढ़े साती अभी दूर नही हुई है.... अगर ये दूर नही हुई तो पार्टी के आगामी चुनावो में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.........निशंक को मुख्यंमंत्री बनाने में खंडूरी की अहम् भूमिका रही थी..... लेकिन मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद निशंक ने खंडूरी को भाव देने बंद कर दिए... यही नही कल तक जो भगत सिंह कोशियारी खंडूरी को राज्य के मुख्यमत्री पद से हटाने की मुहिम छेड़े थे आज वे भी खुलकर खंडूरी का साथ दे रहे है.....


दरअसल इसके गहरे निहितार्थ है ... मुख्यमत्री बनाये जाने के बाद निशंक ने अपने कार्यकाल में कोई विशेष छाप नही छोड़ी है .... उनके कुर्सी सँभालने के बाद राज्य में भ्रष्टाचार का ग्राफ तेजी से बड़ा है....जहाँ कर्नाटक में भाजपा येदियुरप्पा पर करोडो के वारे न्यारे करने के आरोप झेल रही है इसी तरह के हालत उत्तराखण्ड में भी है परन्तु वहां का मीडिया इस बात पर खामोश है... यह सब निशंक की बाजीगरी का नतीजा है कि कोई भी निशंक के खिलाफ राज्य में लिखने का साहस नही कर पा रहा है.....


सूचना विभाग की कमान निशंक ने मुख्यमंत्री पद सँभालने के बाद से खुद अपने पास रखी है ... मीडिया को खुश करने के लिए निशंक ने इन दिनों सभी को थोक के भाव से विज्ञापन देने शुरू कर दिए है ... मजेदार बात तो ये है कि कई ऐसे समाचार पत्रों , पत्रिकाओ को इस अवधि में विज्ञापन दे दिए गए है जिनका राज्य में कोई वजूद नही है......चुनावी वर्ष में निशंक कोई रिस्क मोल नही लेना चाहते ..... इसलिए विज्ञापनों पर वह पानी की तरह पैसा बहा रहे है ......जाहिर है वह भी नीतीश, शिवराज और मोदी, रमन वाली राह पर चलना चाहते है........ परन्तु निशंक को शायद यह मालूम नही इन लोगो के सपनो की राह देखना आसान है जमीनी हकीकत को समझना अलग बात है... फिर उत्तराखण्ड में आम आदमी उनके कार्यकाल से इतना खुश भी नही है कि शिवराज और मोदी की तरह दुबारा उनको राजगद्दी पर बैठा ही देगा .....


निशंक पर भ्रष्टाचार के कोई मामूली आरोप नही है......कैग की रिपोर्टो में उनके खिलाफ लगाये गए आरोपों में वाकई दम नजर आता है ...बीते साल महाकुम्भ के नाम पर निशंक ने केंद्र के द्वारा दी गई मदद का जमकर दुरुपयोग किया ... इस मामले में नौकरशाहों के साथ मिलकर निशंक के कुछ मंत्रियो ने भी जमकर मलाई खायी ......यही नही कुम्भ मेले के दौरान हुए निर्माण कार्यो में भी भारी अनियमितता पायी गई.........देहरादून के एक न्यूज़ चैनल में काम करने वाले मेरे एक मित्र की बातें माने तो हरिद्वार में जिस जिस जगहों पर महाकुम्भ के दौरान निर्माण कार्य किये गए वह आज पूरी तरह जवाब दे चुके है ...बरसात के मौसम में निशंक के निर्माण कार्यो की पोल अच्छे ढंग से खुल गई है .....


ऋषिकेश में भूमि आवंटन से लेकर कई जल विद्युत परियोजनाओ को निरस्त करने के मामले निशंक सरकार की साख के लिए संकट बनते जा रहे है..... यही नही निशंक के राज में भ्रष्टाचार की गंगा जमकर बह रही है .... रामदेव केंद्र सरकार के खिलाफ सत्याग्रह की बातें कर रहे है ॥बेहतर होता वह अगर देवभूमि से निशंक के खिलाफ सत्याग्रह की बातें करे तो यह माना जाए वह भी भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट है..... पार्टी चाहे कोई भी हो भ्रष्टाचार का दोषी अगर कोई तो उसके खिलाफ कड़े फैसले लेने में भय कैसा ....?


कांग्रेस आदर्श सोसाइटी पर अशोक चौहान इस्तीफ़ा ले लेती है .... राजा , कनिमोझी और कलमाड़ी को तिहाड़ भेज देती है लेकिन येदियुरप्पा और निशंक पर कोई कार्यवाही करने से डरती है? क्यों? क्या ऐसा करने से भाजपा अपने को कमजोर नही कर रही है....? भाजपा मनमोहन और चिदंबरम से एक ओर इस्तीफे की मांग करती है परन्तु वह येदियुरप्पा और निशंक को अभयदान दे देती है ?क्या इससे उसकी भ्रष्टाचार की लड़ाई कमजोर नही हो जाती?


उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री इन सब बातो के मद्देनजर खासे आहत है... वह अपनी पार्टी में बेगाने हो गए है.... खंडूरी निशंक सरकार के साथ ही पार्टी आलाकमान से भी नाराज हो गए है .... बार बार निशंक को हटाने के लिए दबाव देने के बाद भी पार्टी के आला नेता उनको घास डालने के मूड में नही है..... खंडूरी राज्य भर में भ्रमण करके जनता की नब्ज टटोल चुके है.... जनता में निशंक सरकार के खिलाफ गहरी नाराजगी है....इस नाराजगी की बड़ी वजह निशंक की ख़राब कार्यशेली है जिसको खंडूरी ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सामने रखा .... बीते दिनों हुई मुलाकात में सुषमा स्वराज के वीटो के चलते निशंक को हटाने की मुहिम ठंडी हो गई ...


इस बार उनके धुर विरोधी कोशियारी भी निशंक को हटाने की खंडूरी की मुहिम में साथ थे.... पिछले महीने लखनऊ में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में खंडूरी की अनुपस्थिति ने कई सवालों को जन्म दे दिया .... निशंक को न हटाने के पीछे पार्टी का तर्क है कि चुनावी वर्ष में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला सही नही होगा लिहाजा उसने एकजुटता के मद्देनजर यह बयान दे दिया कि पार्टी उत्तराखंड का आगामी चुनाव निशंक, कोशियारी और खंडूरी तीनो के नेतृत्व में लड़ेगी.....भाजपा में खंडूरी और कोशियारी इस फैसले को नही पचा पा रहे है ....


कहा तो यहाँ तक जा रहा है पार्टी आलाकमान राज्य में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल के काम काज से भी संतुष्ट नही है....वह राज्य में पार्टी कार्यकर्ताओ में नया जोश नही फूंक पा रहे है .... आलाकमान ने कोशियारी से चुफाल की जगह प्रदेश अध्यक्ष का पद स्वीकार करने को कहा ... कोशियारी ने साफ़ साफ़ कह दिया कि वह निशंक के सी ऍम रहते तो इस जिम्मेदारी को नही स्वीकार सकते... साथ ही इस बार उन्होंने खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाने की बातें कही परन्तु आलाकमान ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया .....


लिहाजा अब खंडूरी निशंक के खिलाफ मोर्चा खोलने में लगे है.... कोशियारी अपने को पार्टी कर समर्पित सिपाही बताते है ॥ जब तक खंडूरी मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने उन्हें हटाने के लिए राज्य सभा सदस्यता से इस्तीफे की धमकी तक दे डाली थी..... इस बार चुनावी वर्ष में वह निशंक को हटाने के लिए भाजपा छोड़ने का साहस शायद ही कर पाये.....उनसे पहले खंडूरी भाजपा को गच्चा देने के मूड में नजर आ रहे है .....


अगर सब कुछ ठीक रहा तो चुनावो से ठीक पहले खंडूरी उत्तराखंड में एक अलग पार्टी खड़ी कर सकते है..... बीते दिनों उत्तराखंड क्रांति दल के शीर्ष नेता ऐरी से उनकी मुलाकातों को इसी रूप में देखा जा रहा है .... ऐरी ने खंडूरी की साफगोई के मद्देनजर उत्तराखंड क्रांति दल से जुड़कर पहाड़ की अस्मिता बचाने की अपील की है .... जिस मुद्दों को लेकर राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी वह सपने आज पूरे नही हुए है॥ उत्तराखंड में कोई तीसरा मोर्चा भी नही है जो भाजपा और कांग्रेस का विकल्प जनता के सामने बन सके..... लिहाजा ऐरी ने खंडूरी को राज्य के हित में भाजपा छोड़ने की बात कही....


भाजपा से नाराज चल रहे खंडूरी अगर अलग राह चुनते है तो भाजपा के भी कई नेता उनका साथ दे सकते है..... यही नही खंडूरी के करीबियों की माने तो वह इन दिनों अपने समर्थको के साथ गुपचुप ढंग से रणनीति बना रहे है ... बताया जाता है कि राज्य में कई पूर्व सैनिक जनरल के साथ राज्य बचाने की इस मुहिम में साथ है॥ इसमें उन्हें कुछ नौकरशाहों का भी साथ मिल रहा है.....भाजपा के नेता इस मसले पर कुछ बोलने की स्थिति में नही है.....

हाँ, यह अलग बात है निशंक के काम काज से नाराज चल रहे कई विधायक और मंत्री समय आने पर जनरल का खुलकर साथ दे सकते है.....खंडूरी का गढ़वाल में खासा जनाधार है.... कुमाऊ में भी उनकी साफगोई के सभी लोग कायल है....भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में जब माहौल बन रहा हो ऐसे में निशंक और येदियुरप्पा जैसे लोगो को फ्री हैण्ड दिए जाने का भाजपा आलाकमान का फैसला आम जन मानस के गले नही उतर रहा है.....


ऐसे में जब उत्तराखंड में विधान सभा चुनाव ज्यादा दूर नही हो , भाजपा को खंडूरी सरीखे इमानदार नेता की जरुरत बन रही है ,पार्टी उनके बजाय निशंक को आगे कर चुनाव लड़ने कर मूड बना रही है....पार्टी के आला नेताओ की माने तो गडकरी द्वारा उत्तराखंड में हाल में करवाए गए एक सर्वे में निशंक के नेतृत्व में पार्टी की हालत पतली होने का अंदेशा बना है....अगर यही सब रहा तो आगामी चुनावो में निशंक पार्टी की राज्य में लुटिया पूरी तरह डुबो देंगे.....


सब बातो के मद्देनजर अब भाजपा में तीरथ सिंह रावत , टी पी एस रावत , मोहन सिंह गाववासी , मनोहरकांत ध्यानी, बच्ची सिंह रावत जैसे कई दिग्गज नेता खंडूरी के साथ खड़े हो रहे है....खंडूरी की राजनाथ से शुरू से पटरी नही बैठ रही थी....क्युकि राजनाथ के अध्यक्ष रहते खंडूरी को सी ऍम की कुर्सी ५ लोक सभा हारने के बाद गवानी पड़ी थी ... अब उन्ही राजनाथ सिंह को राज्य में पार्टी का चुनाव प्रभारी बनाया गया है जिसे खंडूरी नही पचा पा रहे है .... वैसे बताते चले भाजपा के समर्पित सिपाही रहे खंडूरी भाजपा को अलविदा कहने से पहले
निशंक को हटाने कर एक दाव ओर खेलने की कोशिश करेंगे............

इस दरमियान खंडूरी की कोशिश निशंक की जगह खुद मुख्यमंत्री पद की कमान लेने की भी बन सकती है ....अगर पार्टी उनको निशंक की जगह पर सी ऍम की कुर्सी सौप दे तो शायद वो बगावत कर झंडा बुलंद करना छोड़ देंगे ..........

अपनी बेदाग़ छवि के मद्देनजर अब खंडूरी के सामने एक ही विकल्प बच रहा है या तो वह भाजपा को "गुड बाय" कहे और अपनी खुद की पार्टी बनाये या उत्तराखंड क्रांति दल जैसे दल के साथ जुड़कर राज्य में भाजपा और कांग्रेस का विकल्प जनता के बीच बने... देखना होगा जनरल को इसमें कितनी सफलता आने वाले दिनों में मिलती है ?


बहरहाल जो भी हो खंडूरी आने वाले दिनों में भाजपा की बढ़ी मुसीबत बने रहेंगे.....भाजपा हाई कमान से अब इस बात की उम्मीद बिलकुल भी नही है वह निशंक को चुनावों से पहले हटाने का "रिस्क" मोल लेगी...... ऐसे में अब सबकी निगाहे खंडूरी की तरफ है ॥ कोई बड़ा फैसला उन्ही को लेना है.....

Sunday 19 June 2011

भाजपा को "अलविदा "कहने के मूड में मुंडे...............

पूरे देश में इस समय जनलोकपाल बिल को लेकर शोर गुल हो रहा है वही राम देव की काला धन वापस मागने की खबरे सुर्खिया बटोर रही है ..... पिछले कुछ समय पहले देश में राम देव के अनशन को लेकर पुलिसिया अत्याचार और सुषमा स्वराज के ठुमको, जनार्दन दिवेदी पर जूता फैके जाने की घटना को मीडिया ने बड़े तडके के साथ पेश किया .....इन सब के बीच भाजपा सोच रही है मानो उसे अन्ना और रामदेव ने बहुत बड़े मुद्दे दे दिए है ... उसको उम्मीद है इस बार वह कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करके ही दम लेगी....

इस समय भाजपा पूरी तरह विपक्ष की भूमिका में है.... सभी का ध्यान केंद्र की राजनीती पर लगा हुआ है ......हर कोई नेता यू पी ऐ के खिलाफ अनशन करने में लगा हुआ है.....कभी कभी तो ऐसा लगता है भाजपा को अन्ना और रामदेव के रूप में नायक मिल गए है जो कांग्रेस की नाक में दम कर रहे है....शायद इसीलिए कांग्रेस आलाकमान दोनों को सख्ती से निपटाने के मूड में है.......

जाहिर है भाजपा भी सारे घटनाक्रम पर नजर लगाये हुई है....उत्तर प्रदेश की खोयी जमीन को फिर से पाने की जुगत में लगी भाजपा ने पिछले दिनों उमा को पार्टी में दुबारा शामिल कर लिया लेकिन इन सबके बीच नितिन गडकरी के गृह राज्य महाराष्ट्र में भाजपा आलकमान का ध्यान नही गया ..... यहाँ पर उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष गोपीनाथ मुंडे ने बगावती तेवर दिखाने शुरू कर दिए है........ मुंडे भाजपा को जल्द ही गुड बाय कहने के मूड में दिखाई दे रहे है ....... गोपीनाथ महाराष्ट्र में भाजपा का एक बड़ा चेहरा है .....उनकी राजनीति को समझने के लिए हमें महाजन के दौर में जाना होगा....

मुंडे महाजन का बहनोई का रिश्ता है इसी के चलते जब महाजन मुंडे को भाजपा में लाये तो उनका पार्टी के कई दिग्गज नेता सम्मान करते थे लेकिन महाजन के अवसान के बाद मुंडे राज्य की राजनीती में पूरी तरह से हाशिये पर धकेल दिए गए .....आज आलम यह है अपने राज्य में मुंडे खुद अपनी पार्टी में बेगाने हो चले है.....

नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनाये जाने के बाद गोपीनाथ मुंडे राज्य की राजनीती में पूरी तरह से उपेक्षित कर दिए गए है..... उनके समर्थक भी गडकरी ने एक एक करके किनारे लगा दिए है... ऐसे में मुंडे की चिंता जायज है ... वह आलाकमान से न्याय की मांग कर रहे है....

महाजन के जाने के बाद उनके साथ कुछ भी अच्छा नही चल रहा ... जब तक पार्टी में महाजन थे तो उनके चर्चे महाराष्ट्र में जोर शोर के साथ होते थे.... समर्थको का एक बड़ा तबका उनसे उनके अटके नाम निकाला करता था....अगर भाजपा में महाजन का दौर करीब से आपने देखा होगा तो याद कीजिये महाजन की मैनेजरी जिसने पूरी भाजपा को कायल कर दिया था... भाजपा का हनुमान भी उस दौर में महाजन को कहा जाता था .......

महाजन के समय मुंडे की खूब चला करती थी.... मुंडे को महाराष्ट्र में स्थापित करने में महाजन की भूमिका को नजर अंदाज नही किया जा सकता॥ यही वह दौर था जब मुंडे ने राज्य में अपने को एक बड़े नेता के तौर पर स्थापित किया .....महाजन के जाने के बाद पार्टी में कुछ भी सही नही चल रहा.... आज भाजपा को महाजन की कमी सबसे ज्यादा खल रही है....महाजन होते तो शायद भाजपा में आज अन्दर से इतनी ज्यादा गुटबाजी और कलह देखने को नही मिलता... . महाराष्ट्र की राजनीती में शिव सेना के साथ गठजोड़ बनाने और भाजपा को स्थापित करने में महाजन की दूरदर्शिता का लोहा आज भी पार्टी से जुड़े लोग मानते है ....

मुंडे ने महाजन के साथ मिलकर राज्य में भाजपा का बदा जनाधार बनाया... आज आलम ये है जबसे गडकरी अध्यक्ष बने है तब से मुंडे के समर्थको की एक नही चल पा रही है॥ इससे मुंडे खासे आहत है.....अपनी इस पीड़ा का इजहार वह पार्टी आलाकमान के सामने कई बार कर चुके है पर उनकी एक नही सुनी जा रही है जिसके चलते उन्होंने अब पार्टी से अलविदा कहने का मन बनाया है.....

पार्टी में हर नेता की आकांशा आगे जाने की होती है .... मुंडे भी यही सोच रहे है....वर्तमान में स्वराज के बाद वह लोक सभा में उपनेता है.... वह चाहते है लोक लेखा समिति का अध्यक्ष पद उनको मिल जाए .....इसके लिए वह पिछले कुछ समय से पार्टी के नेताओ के साथ बातचीत करने में लगे हुए थे... सूत्र बताते है कि अपनी ताजपोशी के लिए उन्होंने आडवानी को राजी कर लिया था .... खुद आडवानी लोक लेखा समिति से मुरली मनोहर जोशी की विदाई चाहते थे ...

दरअसल आडवानी और मुरली मनोहर में शुरू से ३६ का आकडा जगजाहिर रहा है ....अटल के समय आडवानी की गिनती नम्बर २ और मुरली मनोहर की गिनती नम्बर ३ में हुआ करती थी.... लेकिन अटल जी के जाने के बाद भाजपा में हर नेता अपने को नम्बर १ मानने लगा है.....अटल जी के समय आडवानी ने अपने को उपप्रधानमंत्री घोषित कर परोक्ष रूप से मुरली मनोहर को चुनोती दे डाली थी .....

इसके बाद आडवानी के आगे मुरली दौड़ में पीछे चले गए....वो तो शुक्र है इस समय पूरी भाजपा संघ चला रहा है जिसके चलते मुरली मनोहर जैसे नेताओ को लोक लेखा समिति की कमान मिली हुई है ..... आडवानी को सही समय की दरकार थी लिहाजा उन्होंने मुरली के पर कतरने की सोची....पर दाव सही नही पड़ा .......

बताया जाता है संघ मुरली मनोहर को लोक लेखा समिति के पद से हटाने का पक्षधर नही था जिसके चलते मुंडे का लोक लेखा समिति के अध्यक्ष बन्ने का सपना पूरा नही हो सका ......संघ तो शुरू से इलाहाबाद के संगम में विलीन होते जा रहे मुरली मनोहर को आगे लाने का हिमायती रहा है.... जोशी के हिंदुत्व के कट्टर चेहरे के मद्देनजर वह १५ वी लोक सभा में उनको लोक सभा में विपक्ष का नेता बनाना चाहता था लेकिन ये कुर्सी सुषमा के हाथ में चली गई.....

संघ के फोर्मुले पर गडकरी ने भी अपनी सहमती जता दी......और ऐसे में मुंडे के हाथ निराशा ही लगी ... बताया जाता है लोक लेखा समिति का अध्यक्ष खुद को बनाये जाने की मंशा को उन्होंने गडकरी के सामने भी रखा था और अपने को अब केन्द्रीय राजनीती में सक्रिय करने की मंशा से उन्हें अवगत करवा दिया था... गडकरी भी संघ के आगे किसी की नही सुन सकते थे... उन्होंने मुंडे से बातचीत कर मुद्दे सुलझाने की बात कही थी...... वह भी बीच में बिना बातचीत किये सपरिवार उत्तराखंड चार धाम के दर्शन करने चले गए.... ऐसे में मुंडे का मुद्दा लटका रह गया.....

इससे पहले भी मुंडे ने अपने बगावती तेवर दिखाए थे.... याद करिये कुछ अरसा पहले उन्होंने मुंबई शहर में भाजपा अध्यक्ष पद पर मधु चौहान की नियुक्ति का सबके सामने विरोध कर दिया था जिसके बाद आलाकमान को "डेमेज कंट्रोल" करने में पसीने आ गए थे....इस बार भी कुछ ऐसा ही है॥ मुंडे अब और दिन पार्टी में अपनी उपेक्षा नही सह सकते.... वह महाराष्ट्र भाजपा में पार्टी का एकमात्र ओबीसी चेहरा है... महाराष्ट्र में उनके होने से पिछड़ी जातियों कर एक बड़ा वोट भाजपा के पाले में आया करता था ॥ अब अगर वह पार्टी को अलविदा कहते है तो नुकसान भाजपा को ही उठाना होगा.....


मुंडे की नाराजगी का एक बड़ा कारन अजित पवार का गद रहा पुणे था जहाँ पर गडकरी ने अपने खासमखास विकास मठकरी को भाजपा जिला अध्यक्ष बना दिया ॥ जबकि मुंडे अपने चहेते योगेश गोगावाले को यह पद देना चाहते थे.....लेकिन आडवानी का भारी दबाव होने के बाद भी गडकरी ने अपनी चलायी .... मुंडे की चिंता यह भी है जबसे गडकरी पार्टी के अध्यक्ष बने है तब से महाराष्ट्र में उनका दखल अनावश्यक रूप से बढ़ रहा है ...


बड़ा सवाल यह भी है अगर गडकरी के चार धाम के प्रवास से लौटने के बाद मुंडे की मांगो पर गौर नही किया गया तो क्या वो महाराष्ट्र में भाजपा के लिए चुनोती बन जायेंगे......? साथ ही वह कौन सी पार्टी होगी जिसमे मुंडे शामिल होंगे या सवाल अभी से सबके जेहन में आ रहा है...?वैसे भाजपा को अलविदा कहने वाले सभी नेताओ का हश्र लोग देख चुके है .... फिर चाहे वो मदन लाल खुराना हो या उमा भारती.....या बाबूलाल मरांडी हो या कल्याण सिंह.... पार्टी से इतर किसी का कोई खास वजूद नही रहा है॥ ऐसे में मुंडे को कोई फैसला सोच समझ कर लेने की जरुरत होगी......


वैसे इस बात को मुंडे बखूबी समझते है ....शायद तभी अभी से उन्होंने भाजपा से इतर अन्य दलों में सम्भावनाये तलाशनी शुरू कर दी है.....बीते दिनों शिव सेना के कुछ नेताओ के साथ उनकी मुलाकातों को इससे जोड़कर देखा जा रहा है...कहा जा रहा है शिव सेना उनको अपने पाले में लाने की पूरी कोशिशो में जुटी हुई है ... बताया जाता है मुंडे ने ही हाल में शिवसेना और राम दास अठावले की रिपब्लिक पार्टी को एक मंच पर लाने में बड़ा योगदान दिया....शायद इसी के मद्देनजर शिव सेना भी मौजूदा घटनाक्रम पर नजर बनाये हुए है.....यही नही ऍन सी पी के नेताओ के साथ उनके मधुर संबंधो के मद्देनजर वह उनकी तरफ भी जा सकते है........


मुंडे का भविष्य बहुत हद तक गडकरी के साथ होने वाली बैठक पर टिका है.....अगर इसमें कोई नतीजा नही निकला तो इस बार मुंडे भाजपा को अलविदा कहने में देर नही लगायेंगे.....

Thursday 16 June 2011

माम्मू का अधूरा सपना ..........................

वह कसाब को फासी पर चढाने की राह लम्बे समय से देखता रहा लेकिन हमारे देश के नेताओ की वोट बैंक की राजनीती के कारण मुंबई पर हमला करने वाले आतंकी अजमल आमिर कसाब को फासी पर नही चढ़ाया जा सका ......कसाब को फासी पर चदाये जाने की कसक माम्मू के दिल में व्याप्त थी लेकिन माम्मू की तमन्ना अधूरी रह गई.....

आज जिस माम्मू नाम के शख्स की बात आपसे कर रहा हू ,वह कोई मामूली आदमी नही है...वह देश का एकमात्र जल्लाद था जो उन लोगो को फासी पर लटकाया करता था जिनकी मृत्युदंड की याचिका राष्ट्रपति के द्वारा ख़ारिज कर दी जाती थी...मीरत के टी पी नगर में रहने वाला माम्मू जल्लाद उत्तर प्रदेश जेल का कर्मचारी था जिसने कई दर्जन लोगो को फासी पर लटकाया था......

माम्मू को करीब से जानने वालो का कहना है कि माम्मू हर दिन कसाब को फासी पर चढाने की राह देखता रहा लेकिन उसका सपना पूरा नही हो सका ....माम्मू का पूरा खानदान अरसे से जल्लाद का काम करता आ रहा था ... माम्मू देवेन्द्र पाल सिंह भुल्लर की दया याचिका खारिज होने के बाद सुर्खियों में आया .......अगर भुल्लर की सजा पर कोई फैसला नही आता तो शायद माम्मू भी सुर्खिया नही बटोरता ..... बहुत कम लोग ये जानते होंगे माम्मू देश का आखरी जल्लाद था और अब उसकी मौत के बाद देश में जल्लादों का संकट पैदा हो गया है ....

अपनी मौत से पहले उसने जेल के अधिकारियो से कई बार यह विनती की कसाब को जल्दी फासी पर लटकाया जाए जिससे उसकी तमन्ना पूरी हो सके लेकिन हमारे देश की घिनोनी राजनीती के चलते उसकी मुराद पूरी नही हो सकी और वह खुदा को प्यारा हो गया.....६६ साल का माम्मू पिछले कुछ समय से बीमार चल रहा था जिसका पता जेल प्रशासन को भी था पर कसाब को फासी पर लटकाने का फैसला जेल वालो को नही बल्कि राष्ट्रपति को करना था ...

माम्मू का पूरा खानदान जल्लादी के काम से था....उसके पिता और दादा भी इस काम को कर चुके थे.... उसके पिता कालू ने तो इंदिरा गाँधी के हथियारे कहर सिंह और बलवंत सिंह को फासी पर लटकाया था .... पिता की मौत के बाद माम्मू ने कई लोगो को अपने हाथो से फासी पर लटकाया ...

माम्मू के दादा राम अंग्रेजो के दौर में जल्लाद का काम किया करते थे ... आज़ादी के दौर में कई क्रांतिकारी भी हस्ते हस्ते फासी के तख़्त पर चढ़ गए जिन्हें माम्मू के दादा ने ठिकाने लगाया ... इनमे भगत सिंह , सुखदेव, राजगुरु जैसे क्रांति कारी भी शामिल थे ......

आज़ादी के महानायकों को फासी पर चढाने का जो काम माम्मू के दादा ने किया था उससे वह बहुत शर्मिंदा था क्युकि माम्मू के दादा ने यह सब काम फिरंगियों के दबाव में किया था और अंग्रेजी हुकूमत काली चमड़ी वालो से किस तरह बर्ताव करती थी इसकी मिसाल इतिहास में आज भी पढने को मिल जाती है....

माम्मू बार बार कसाब को फासी पर जल्द चदाये जाने की बातें इसलिए करता था क्युकि उसे लगता था अगर उसने इस आतंकी को फासी पर चढ़ा दिया तो उसके पुरखो के सारे पाप मिट जायेंगे और उसको प्रायश्चित करने का एक सुनहरा मौका मिल जाता .....लेकिन माम्मू की ख्वाइश अधूरी ही रह गई......