Wednesday 30 January 2013

राजनाथ की राह में बिखरे शूल


बीते दिनों कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी को लेकर  लखनऊ  में एक समारोह का आयोजन हुआ । इस मौके पर  अब पूर्व हो चुके  भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी  भी  उपस्थित थे । मंच पर जैसे ही उनको माला  पहनाई गई तो वह माला टूट गई ।   यह गडकरी की  दुबारा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी से  ठीक पहले एक बड़ा अपशकुन साबित हुआ । चुनाव की तिथि से महीनो पहले जहाँ महेश जेठमलानी ने राष्ट्रीय कार्यकारणी से इस्तीफ़ा देकर गडकरी की मुश्किलों को बढाया वहीँ मशहूर वकील और भाजपा से  राज्य  सभा  सांसद रामजेठमलानी ने सबसे मुखर होकर गडकरी के खिलाफ अकेले मोर्चा खोला  जिसके सुर में सुर यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और जसवंत सिंह ने मिलाया । इसके बाद राम जेठमलानी को जहाँ निलंबन झेलना पड़ा वहीँ  वरिष्ठ  भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने अपने तल्ख़ तेवर बरक़रार रखते हुए गडकरी के खिलाफ चुनाव लड़ने की  घोषणा  कर भाजपा के आंतरिक लोकतंत्र की हवा निकालने का काम किया और गडकरी की मुसीबत बढ़ा दी । लेकिन असल घटनाक्रम तो नामांकन के ठीक एक दिन पहले घटा जब गडकरी विरोधी खेमे ने आयकर विभाग की छापेमारी के दौरान संघ पर इतना दबाव  बनाया कि अंत में संघ खुद को लाचार बताने को मजबूर हुआ और उसे यह बयान  मजबूरी में देना पड़ा कि भाजपा अपना अध्यक्ष चुनने को खुद स्वतन्त्र है ।

                     
 असल में भाजपा में नए अध्यक्ष के नामांकन से ठीक पहले आडवानी संघ के एक कार्यक्रम में शिरकत करने मुंबई गए थे जहाँ उनके साथ नितिन गडकरी और सर कार्यवाह भैय्या  जी जोशी भी मौजूद थे । इसी दिन महाराष्ट्र में गडकरी की कंपनी पूर्ती के गडबडझाले को लेकर आयकर विभाग ने छापेमारी की कारवाही सुबह से शुरू कर दी ।  आडवानी की भैय्या जी जोशी से मुलाकात हुई तो ना चाहते हुए बातचीत में पूर्ती का गड़बड़झाला बातचीत में आ गया । आडवानी ने भैय्या  जी  जोशी से गडकरी पर लग रहे आरोपों से भाजपा की छवि खराब होने का मसला छेडा  जिसके बाद भैय्या जी को गडकरी के साथ बंद कमरों में बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा । काफी  मान मनोव्वल के बाद गडकरी इस बात पर राजी हुए अगर संघ को उनसे परेशानी झेलनी पड़  रही है  तो वह खुद अपने पद से इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं । 

आडवानी से भैय्या जी जोशी ने गडकरी का   विकल्प सुझाने को कहा तो उन्होंने यशवंत सिन्हा का नाम सुझाया । हालाँकि पहले आडवानी  सुषमा के नाम का  दाव  एक दौर में चल चुके थे लेकिन सुषमा खुद अध्यक्ष पद के लिए इंकार कर चुकी थी लिहाजा आडवानी ने यशवंत का नाम बढाने की कोशिश की जो संघ को कतई मंजूर नहीं हुआ । बाद में गडकरी से भैय्या जी ने अपना विकल्प बताने को कहा तो उन्होंने राजनाथ सिंह का नाम सुझाया जिस पर संघ ने अपनी हामी भर दी और आडवानी को ना चाहते हुए राजनाथ को पसंद करना पड़ा । इसके बाद   शाम को दिल्ली में जेटली के घर भाजपा की  डी --4 कंपनी की बैठक हुई जिसमे रामलाल मौजूद थे जिन्होंने राजनाथ  सिंह के नाम पर सहमति बनाने में सफलता हासिल कर ली  और देर रात राजनाथ सिंह को सुबह राजतिलक की तैयारी के लिए रेडी रहने का सन्देश भिजवा  दिया  गया । सुबह होते होते राजनाथ के घर का  कोहरा भी  धीरे धीरे  छटता गया और दस बजते बजते संसदीय बोर्ड  ने  उनके नाम पर पक्की मुहर लगा दी और इस तरह राजनाथ दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में सफल रहे ।                
 दरअसल पूर्ती  का  गडबडझाला भाजपा की पिछले कुछ महीने से गले की फांस बना हुआ था जिसमे गडकरी के साथ पूरी पार्टी की खासी फजीहत हो रही थी जिससे पार्टी का उबर  पाना  मुश्किल लग रहा था क्युकि  इसके बाद भी संघ अपने लाडले गडकरी की अध्यक्ष पद पर दुबारा ताजपोशी का पूरा मन बना चुका  था लेकिन  आयकर  विभाग के छापो ने गडकरी की दुबारा ताजपोशी पर ग्रहण सा लगा दिया जिससे ऐसा दबाव पड़ा कि  एक सौ  अस्सी  डिग्री पर  झुकते  हुए गडकरी खुद इस्तीफ़ा देने को मजबूर हो गए जिसकी उम्मीद बहुत कम लोगो को थी  क्युकि  दुबारा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी को संघ कितना उतावला था इसकी मिसाल सूरजकुंड  से ही दिखाई देने लगी थी जब संघ ने भाजपा के संविधान में संशोधन तक कर डाला था  । भाजपा में आर एस एस के दखल का इससे नायाब उदाहरण कही नहीं मिल सकता । पिछली बार जब गडकरी केशव कुञ्ज के वरदहस्त के चलते अध्यक्ष बनाये गए थे तो उनकी टीम में मराठी लाबी के स्वयंसेवको  की बड़ी कतार देखने को मिली थी और कार्यकर्ता भी उस दौर में ऐसे अध्यक्ष के साथ  मजबूरन कदमताल करते नजर आये जिसका  नाम किसी ने पहले नहीं  सुना था  और उस चेहरे को मोहन भागवत ने पैराशूट की तर्ज पर दिल्ली की चौकड़ी के सामने उतारा जिस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता था ।

अब गडकरी दुबारा अध्यक्ष बनने से रह गए तो इसे  मोहन  भागवत की व्यक्तिगत  हार के तौर  पर देखा  रहा है । लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद गडकरी को देखिये वह अब भी खुद को पार्टी का सच्चा सिपाही बताने पर तुले हुए हैं । गडकरी कह रहे हैं उन  पर लगे आरोपों से भाजपा की  छवि को नुकसान  पहुँच रहा था लिहाजा  उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया लेकिन वह यह क्यों  भूल  रहे हैं अगर नैतिकता के आधार पर वह पहले ही इस्तीफ़ा दे देते तो कौन सा अनर्थ हो जाता ?  पहले तो वह किसी भी तरह की जांच से नहीं  घबरा रहे थे लेकिन अब वह अपने खिलाफ इसे कांग्रेस का षडयंत्र करार जहाँ  दे रहे हैं वहीँ आयकर अधिकारियों को भी वह लताड़ रहे हैं और हद में रहने की नसीहत दे रहे हैं जो  गडकरी  के दीवालियेपन और खासियाहट को  उजागर कर रहा है ।  गडकरी संघ की  कृपा दृष्टि  से   भाजपा के   राष्ट्रीय अध्यक्ष जरुर  रहे हों लेकिन उनकी सोच ने कार्यकर्ताओ और पार्टी के वरिष्ठ  नेताओ के सर को बीते तीन बरस में चकरा  ही दिया था । गडकरी को ना केवल  अपने  खुद के दिए बयानों पर कोई खेद रहा और ना ही बीते तीन बरस में मनमोहन सरकार को घेरने की कोई रणनीति कारगर साबित  हुई ।   

 अफजल गुरु कांग्रेस का दामाद, औरंगजेब की औलाद , तलुए चाटते जैसे ना जाने  कई नए शब्द उनकी निजी डिक्शनरी में जहाँ शामिल रहे वहीँ  फूहड़   बयानबाजी  के बावजूद उनकी सबसे बड़ी ताकत हर समय संघ को खुश करने और मोहन भागवत की  चरण वंदना   करने में लगी रही और शायद यही वजह भी रही अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने संघ के साथ इस निकटता  को ढाल के रूप में इस्तेमाल भी किया । गडकरी ने अपने कार्यकाल में कारपोरेट के आसरे पार्टी के फंड में चन्दे  की रिकॉर्ड रकम जुटाकर जहाँ संघ को खुश किया वहीँ अपने समर्थको की भारी फ़ौज  महाराष्ट्र  से  हाईजैक  कर ली जहाँ गोपी नाथ मुंडे  सरीखे जनाधार वाले नेता और उनके समर्थको को हाशिये पर  रखकर अपनी खुद की बिसात बिछाई ।  वहीँ अपने कार्यकाल में अंशुमन मिश्र  एन आर आई को भाजपा प्रत्याशी बनाये जाने , झारखंड में सोरेन के साथ जबरन सरकार बनाने ,  बाबू  सिंह कुशवाहा को  यू पी चुनावो में साथ लेने ,अजय संचेती को कोयला  खदाने आवंटित करने  के काम कर भाजपा के अध्यक्ष की  पुरानी शुचिता  को  तार तार ही कर डाला और इससे आडवानी के साथ जेटली, सुषमा सरीखे लोगो की खूब भद्द पिटी  क्युकि  उन्हें भी लगता था पार्टी की जीत का सेहरा भाजपा नेताओ के सर बधता  है और हार की बदनामी का ठीकरा  गैर आर एस एस पृष्ठभूमि के नेताओ के सर फोड़ा जाता है लिहाजा इस बार गैर संघी नेताओ ने मुखर होकर गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और संघ ने खुद की बिसात पर गडकरी को कुर्बान कर दिया ।


गडकरी के बाद अब कमान राजनाथ सिंह  के हाथ आई है । वह एक सुलझे हुए नेता है और उत्तर प्रदेश की नर्सरी से  आते हैं जहाँ भाजपा ने हिंदुत्व का परचम एक दौर में फहराकर केंद्र में सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी । लेकिन इस बार अपनी दूसरी पारी में राजनाथ के पास  बहुत कम समय बचा है । लोक सभा चुनावो से पहले पार्टी को 10 राज्यों के चुनावी समर में कूदना है वहीँ दूसरी  पंक्ति  के नेताओ  में इस दौर में आगे निकलने की जहाँ होड़ मची हुई है  तो वहीँ राज्यों में  छत्रप दिनों दिन मजबूत होते जा रहे हैं जिसके चलते आगामी चुनावो में भाजपा के लिए प्रधानमंत्री पद की  उम्मीदवारी  को लेकर  सबसे बड़ा संकट खड़ा  हो गया है ।  इधर गुजरात तीसरी बार फतह करने के बाद मोदी की महत्वाकान्शाएं बढ़ गयी हैं और उन्हें  प्रधान मंत्री पद के लिए  प्रोजेक्ट करने की मांग पार्टी के भीतर से ही  मुखर होने लगी है जिस पर एन डी ए के बिखरने का अंदेशा बना हुआ है।  ऐसे माहौल में राजनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती   एन डी ए  का दायरा बढाने और नए सहयोगियों के तलाश की है तो वहीँ पी एम  को लेकर  एन डी ए  में किसी एक नाम पर सर्व सम्मति  बनाने की  चुनौती से जूझना है ।  


अटल बिहारी को  प्रधानमंत्री बनाने में आडवानी उनके सारथी थे वहीँ राजनाथ किसके सारथी  रहेंगे और  किसको सहयोग देंगे यह सवाल अब राजनीतिक गलियारों में गरमाने लगा है ।  अब तक केन्द्रीय नेतृत्व के कमजोर होने से हर मोर्चे पर भाजपा जूझ रही थी  । उम्मीद है राजनाथ के आने से भाजपा की  ग्रह दशा कुछ ठीक होगी । गडकरी के खिलाफ लग रहे आरोप जहाँ भाजपा की छवि  पर ग्रहण लगा रहे थे  वहीँ अब उम्मीद है राजनाथ के आने के बाद  भाजपा की दुर्गति होने का अंदेशा कम हो गया है । बेदाग़  राजनाथ के कमान सौंपने के बाद अब भाजपा सड़क से संसद तक में भ्रष्टाचार की लड़ाई को मजबूती से उठा सकती है । संघ के पास इस दौर में मोदी को छोड़कर ना कोई ब्रह्मास्त्र , ना कोई हथियार है और ना ही समय । ऐसे में संघ की तरफ से  भाजपा में संघर्ष  विराम के लिए राजनाथ को आगे करने की  पहल  इस समय  ज्यादा कारगर साबित हो सकती है । वाजपेयी  के राजनीती से सन्यास के बाद भाजपा में किसी सर्व मान्य नेता के नाम पर सहमति  नहीं है । राज्यों में  उसके   छत्रप  दिनों दिन मजबूत हो  रहे हैं  तो वहीँ आडवानी का राजनीतिक करियर ढलान  पर है । 7  रेस कोर्स में जाने की  उनकी उम्मीदें  भी अब ख़त्म   हैं शायद तभी बीते बरस उन्हें अपने जन्म दिवस के मौके पर उन्हें  यह कहना पड़ा पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया । अब किसी पद की चाह नहीं रही है तो वहीँ डी -4 की दिल्ली  वाली  चौकड़ी तो बीते तीन बरस से मोहन भागवत के निशाने पर है जब अटल के राजनीती से सन्यास और लगातार दो  लोक सभा चुनाव हारने के बाद से संघ ने भाजपा को एक व्यक्ति के करिश्मे की पार्टी न बनाने की रणनीति के तहत गडकरी को दिल्ली के अखाड़े में  उतारा ताकि पार्टी में संघ का सीधा नियंत्रण स्थापित हो सके । 

लेकिन अब गडकरी की विदाई से मोहन भागवत को  तगड़ा झटका लगा है और कई  विश्लेषक  इसे उनकी  निजी हार के रूप में देख रहे हैं और अब राजनाथ सिंह भी संघ के वरदहस्त के चलते अध्यक्ष जरुर बने हैं लेकिन उनके  एन  डी ए से जुड़े नेताओ से मधुर सम्बन्ध हैं  जिसका  लाभ  वह आने वाले दिनों में जरुर लेना चाहेंगे । वह पार्टी के पहले अध्यक्ष भी रह चुके हैं लिहाजा उनका अनुभव पार्टी के नाम आएगा लेकिन राजनाथ के जेहन में उनके पिछला कार्यकाल भी जरुर उमड़ घुमड़ रहा होगा तब पार्टी में गुटबाजी चरम पर थी  जिसकी  कीमत पार्टी को लोक सभा में करारी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी वह भी उनके  अपने ही कार्यकाल में । भले ही राज्यों के चुनावो में भाजपा ने  अच्छा  प्रदर्शन  उनके कार्यकाल में किया  । कर्नाटक  में पहली बार भाजपा का कमल राजनाथ के कार्यकाल में ही   खिला  था वहीँ आज पार्टी को येदियुरप्पा  के बागी होने की बड़ी कीमत चुकानी पड़  रही है । भाजपा के 13 विधायक स्पीकर को अपना इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं जिससे  शेटटार  की मुश्किलें इस दौर में बढ़ी  ही हैं साथ में भाजपा के पास आने वाले दिनों में कर्नाटक  में दुबारा काबिज होने की बड़ी  चुनौती  भी खड़ी  है ।

वहीँ राजनाथ के गृह राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा वेंटिलेटर पर है तो राजस्थान , उत्तराखंड, हिमाचल में सत्ता से बाहर  हो चुकी है । इस दौर  ब्रांड मोदी की दीवानगी कार्यकर्ताओ से लेकर नेताओ में जरुर है लेकिन गठबंधन की राजनीति में मोदी की गुजरात से  बाहर स्वीकार्यता दूर की कौड़ी है । इससे  राजनाथ कैसे जूझते हैं यह देखने वाली बात होगी ?  देखना यह भी होगा जब  यू पी ए  2 के पास   उपलब्धियों  के  नाम पर कहने को  कुछ ख़ास नहीं है ऐसे में वह पार्टी की नैय्या  कैसे पार  लगाते है ?

पिछले कार्यकाल में राजनाथ  को आडवानी के विरोधी खेमे के नेता के तौर पर प्रचारित  किया गया था लेकिन इस बार की  परिस्थितिया बदली  बदली सी  दिख रही हैं । भाजपा लगातार 2 लोक सभा चुनाव हारने के बाद से   केंद्र में  वापसी के लिए छटपटा  रही है । उम्र के इस अंतिम पडाव पर अब आडवानी को राजनाथ में जहाँ  उम्मीद  दिख रही है और ऐसा  उत्साह किसी के अध्यक्ष बनाये जाने पर नहीं दिख रहा है तो मोदी ट्विटर पर ट्वीट  करके राजनाथ को अनुभवी नेता करार दे चुके हैं और उनसे मिलने दिल्ली तक आ पहुचे हैं जहाँ बीते दिनों ढाई घंटे दोनों के बीच मिशन 2014 को लेकर चर्चा भी  हुई है जिसके बाद भाजपा में अंदरखाने मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव समिति की कमान देने को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है । वही पिछली दफे राजनाथ ने मोदी को पार्टी के संसदीय बोर्ड से जहाँ बाहर  कर दिया था  वहीँ  इस बार राजनाथ ने  मोदी को सबसे लोकप्रिय सी एम कहना पड़ा है । जाहिर है यह सब भाजपा में  नई  संभावनाओ का द्वार खोल रहा है । 


राजनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद भले ही कोहरा छंट  चुका  है लेकिन मोदी को लेकर सस्पेंस अभी भी बरकरार है । आडवानी 7 रेस कोर्स की रेस से बाहर  हैं तो डी --4 की चौकड़ी के निशाने पर मोहन भागवत हैं  और इन सबके बीच गैर संघ  बैक ग्राउंड के नेता मोदी को पी एम बनाने की तान इस दौर में  छेड़  रहे हैं  ।  जो वसुंधरा राजनाथ से आँख मिलाना तक पसंद नहीं करती थी वह आज राजनाथ को बधाई  देने सबसे पहले पहुचती है तो वहीँ जिस खंडूरी को हटाने के लिए राजनाथ ने भगत सिंह कोश्यारी के साथ अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया था अब वहीँ खंडूरी  पार्टी के लिए इस दौर में जरुरी बन गए हैं जिनको राजनाथ आने वाले दिनों में अपने संसदीय बोर्ड में भी ले सकते हैं तो यह बदलती फिजा की तरफ इशारा कर रहा है ।               लोक सभा चुनावो से पहले राजनाथ को मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ में भाजपा की दुबारा वापसी के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा । इसके बाद महाराष्ट्र और दिल्ली में ध्यान देना होगा जहाँ भाजपा लम्बे समय से सत्ता से  बाहर  है । दक्षिण में भाजपा के दुर्ग को मजबूत करना होगा साथ ही नए सहयोगी गठबंधन के लिए ढूँढने  होंगे । इस बार निश्चित ही राजनाथ के लिए बदली परिस्थितिया हैं । लोग भाजपा में उम्मीद देख रहे हैं लेकिन पार्टी की गुटबाजी आगामी चुनाव में उसका खेल खराब कर सकती है राजनाथ को इस पर ध्यान  देना होगा । सभी को एकजुट करने की भी बड़ी चुनौती उनके सामने है । वहीँ संघ को भी बदली परिस्थियों के अनुरूप भाजपा के लिए बिसात बिछाने की  जिम्मेदारी राजनाथ के कंधो पर देनी होगी  क्युकि गडकरी के बचाव से सवाल इस दौर में संघ की तरफ भी उठे हैं । 

 संघ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है वह बहुत जल्द इस दौर में लोगो पर भरोसा कर रहा है और कहीं ना कहीं संगठन को लेकर भी बहुत जल्दबाजी दिखा रहा है । शायद इसी वजह से गडकरी सरीखे लोगो ने संघ के आसरे अपने निजी और व्यवसायिक हित ही इस दौर में साधे हैं और अब संघ की कोशिश इसी व्यक्तिनिष्ठता को  खत्म  करने की होनी चाहिए और यही चुनौती से  असल में राजनाथसिंह  को भी अब  झेलनी  है । आज भाजपा को दो नावो में सवार होना है । 


गुजरात में मोदी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर  पर अपना दक्षिणपंथी चेहरा विकास की तर्ज  पर और  उम्मीद के रूप में पेश करना  होगा जहाँ हिंदुत्व के मसले पर देश के जनमानस को एकजुट करना होगा जिसकी डगर मुश्किल दिख रही है क्युकि गुजरात की परिस्थितिया अलग थी । वहां मोदिनोमिक्स माडल को हिंदुत्व के समीकरणों और खाम रणनीति के आसरे मोदी ने  नई  पहचान अपनी विकास की लकीर खींचकर दिलाई लेकिन केंद्र में गठबंधन राजनीती में ऐसी परिस्थितिया नहीं हैं  लिहाजा  राजनाथ की राह में कई  कटीले शूल दिख रहे हैं जिनसे जूझ पाने की गंभीर  चुतौती उनके सामने है । देखते है राजनाथ दूसरी पारी में क्या करिश्मा  कर पाते हैं  ?

Sunday 27 January 2013

चिंतन, चुनावी आहट और राहुल का ट्रेलर .......

हिंदी सिनेमा में सत्तर का दशक  बालीवुड  के लिए  नायाब तोहफा है  । इस दशक को अगर याद करें तो  स्टारडम का क्रेज असल में यहीं से शुरू होता है । इसी दौर में अमिताभ बच्चन परदे पर एंग्री यंग मैन की छवि 'दीवार' के जरिये गढ़ते हैं और शशि कपूर उनके सामने आते हैं । अमिताभ कहते हैं मेरे पास गाड़ी है ,बंगला है , बैंक बैलेंस है?  तुम्हारे पास क्या है ? तो जवाब में शशि कपूर कहते हैं "मेरे पास माँ है " । 

अब परदे से इतर राजनीती के  मैदान में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपनी इसी छवि को एंग्री यंग मैन के आसरे मतदाताओ के सामने गढ़ने की कोशिश इन दिनो कर रहे हैं क्युकि जयपुर के चिंतन शिविर से निकला सन्देश साफ़ है । इस दौर में जहाँ राहुल को 2014 की बिसात को अपने बूते बिछाना है वहीँ देश की युवा आबादी जिसकी तादात तकरीबन 65 फीसदी से ज्यादे है उसको कांग्रेस के पाले में लाना है । देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी  पार्टी कांग्रेस ने जयपुर में चिंतन कर राहुल को चुनावी कमान सौंपकर 2014 से पहले जनता को राहुल का ट्रेलर सही मायनों में दिखा दिया है । बीते दिनों जहाँ धोनी की अगुवाई में टीम इंडिया  ने इंग्लैंड की टीम को  रांची में शिकस्त देकर अपने को नम्बर वन  बनाया , वहीँ कांग्रेस ने जयपुर के चिंतन के आसरे राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर उन्हें पार्टी में नम्बर 2 का ओहदा दे ड़ाला ।  

सोनिया गाँधी के साथ ही पूरी पार्टी ने युवा कार्ड खेलकर राहुल गाँधी को  नई  जिम्मेदारी देने  में किसी तरह की हिचक नहीं दिखाई । 42 वर्षीय राहुल गाँधी को उपाध्यक्ष बनाये जाने की खबर चिंतन शिविर के अंतिम दिन जैसे ही आई वैसे ही पूरे देश भर में कांग्रेस जश्न से सरोबार हो गई ।  पहले कांग्रेस में राहुल गाँधी महासचिव हुआ करते थे अब उन्हें पार्टी ने उपाध्यक्ष के तौर  पर प्रमोट किया है  । पार्टी में अपरोक्ष रूप से उनकी गिनती सोनिया के बाद ही होती थी अब भी वह पार्टी में उनके बाद ही गिने जायेंगे सिर्फ पद का बदलाव उनके लिए किया गया है । इस लिहाज से देखें तो राहुल की इस नई  ताजपोशी को एक बड़े क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखने की जरुरत नहीं है । 

   हालांकि  हमें यह नहीं भूलना चाहिए  चुनाव समिति की कमान राहुल को सौपकर कांग्रेस 2014 की बिसात बिछाने में लग गई  है ।  उपाध्यक्ष बनाये  जाने के बाद जिस अंदाज में राहुल ने अपना भाषण दिया वह अकसर हर नेता बड़े बड़े मंच से देता रहता है और इसको  जमीनी हकीकत में बदलना आसान भी नहीं रहता  लेकिन राहुल के भाषण में भावनात्मकता का भाव जहाँ  दिखा वहीँ  पार्टी के कैडर को प्रभावित करने के लिए उन्होंने जिन बातो का जिक्र किया उससे सभी राजनीतिक दल इस दौर में जूझ रहे है । फिर भी भावनाओ के जरिये राहुल यह अहसास कराने में तो कामयाब ही रहे कि अब कांग्रेस में संगठन की मजबूती के साथ जनाधार बढाने की कोशिशो को अमली जाम पहनाने  का सही समय आ गया है । राहुल ने कांग्रेस की जिन कमियों का जिक्र अपने संबोधन में किया वह  नई नहीं हैं क्युकि इसका जिक्र वह पहले भी कई बार मंचो से करते रहे हैं लेकिन जनता उनसे जवाब चाह रही है बीते आठ बरस में उनके द्वारा इस सिस्टम को सुधारने के क्या प्रयास किये गए जब वह खुद पार्टी के महासचिव बनकर पार्टी का झंडा थामे हुए हैं  ।
  मसलन राहुल अगर सत्ता को जहर मान रहे हैं तो सवाल उठाना लाजमी है अगर ऐसा है तो वह राजनीती के अखाड़े में अपने कदम क्यों बढ़ा  रहे हैं ? टिकट के बटवारे में अगर कांग्रेस के आम कार्यकर्ता की उपेक्षा इस दौर में हुई है तो इसका दोष किसका है जब उनका पूरा परिवार राजनीती में दशको से है और खुद सोनिया पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कमान अपने हाथ में थामे हुई हैं ? सभी को मालूम है मनमोहन के दौर में सत्ता का असल केंद्र दस जनपथ बना है लेकिन राहुल कांग्रेस  को नए सिरे से परिभाषित करने पर जोर देते नजर आ रहे हैं । राहुल देश भर में ब्लाक स्तर पर नए नेता तैयार करने पर जोर दे रहे हैं लेकिन राज्यों और संगठन में कांग्रेस के बड़े नेताओ की गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि हर चुनाव में यह पार्टी का खेल खराब ही  कर रही है  और नेताओ में आपसी सामंजस्य  का अभाव साफ़ देखा जा सकता है । इसके बाद भी वह यह सब कहकर इसका दोष किसके मत्थे  आखिर गढ़ना चाहते हैं ? 


कांग्रेस ने  राहुल को उपाध्यक्ष तो घोषित कर दिया है लेकिन भावी  प्रधानमंत्री के रूप में  पेश करने पर सस्पेंस अभी भी बरकरार है । पार्टी अभी उनके नाम को प्रोजेक्ट करने से डर  रही है संभव हो इसके पीछे लोक सभा चुनावो की तैयारिया छिपी हुई हों लेकिन जयपुर के चिंतन के जरिये कांग्रेस ने यह सन्देश देने में सफलता पायी है आज का युग गठबंधन राजनीती का है और आगे भी इसी के इर्द गिर्द भारतीय राजनीती सिमट कर रहेगी शायद यही सोचकर  कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया है अब आने वाले दिनों में उसे अपने लिए नए सहयोगियों की तलाश तो शुरू करनी ही होगी क्युकि अपने बूते वह तीसरी बार सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती । पचमढ़ी में जहाँ एकला चलो रे का नारा  दिया गया था वहीँ शिमला में गठबंधन वाली लीक पर कांग्रेस चली थी । अब इस दौर में जयपुर में भी चिंतन राहुल और उनकी भावी राजनीती के मद्देनजर नए सहयोगियों को गठबंधन के आसरे अमली जामा पहनाने की कोशिशे शुरू होने  वाली हैं । 

कांग्रेस के निशाने पर 2014 है और नजरें युवा वोट बैंक पर हैं शायद तभी राहुल को बड़ा चेहरा  बनाने  की कोशिश जयपुर चिंतन के जरिये उसके द्वारा की गई है ।  उपाध्यक्ष  पद पर इस ताजपोशी ने वंशवाद की परंपरा को आगे बढाने की कांग्रेसी  पृष्ठभूमि की एक ननई  इबादत भी लिख डाली है और अब राहुल अपने युवा साथियो के साथ संगठन में जिन चेहरों को जगह देंगे उसमे भी इसकी छाप  दिखाई देगी । वैसे भी वैसे अभी राहुल की कोर टीम में   सचिन पायलट , ज्योतिरादित्य , जितिन  प्रसाद, ज्योति मिर्धा ,अरुण यादव,  संदीप दीक्षित ,अन्नू टंडन , प्रिया  दत्त सरीखे जो चेहरे शामिल हैं उन्हें राजनीती विरासत में ही मिली है । आने वाले दिनों में यही लोग उनकी टीम में अपनी दुबारा  जगह बनाने में कामयाब रहेंगे । युवा कार्ड खेलकर कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ परिवारवाद की अमरबेल को बढाने का ही काम किया है । शायद राहुल यह भूल रहे हैं वह अपनी पार्टी में चाटुकारों की एक बड़ी टोली से घिरे हैं और यही चाटुकारों की टोली  हर चुनाव में कांग्रेस का खेल खराब कर रही है ।बेहतर होगा वह इन सबसे पिंड  छुड़ाकर कांग्रेस में नयी  जान फूंके । परिवारवाद द्वारा केवल कांग्रेस ने  केवल अपनी पीड़ी को  आगे बढाने का ही काम किया है । भारत के सम्बन्ध में इसे देखे तो हिन्दुस्तान में यह एक क्रांतिकारी घटना है जहाँ नेहरु गाँधी परिवार का सत्ता में वर्चस्व पिछले कई दशको से बरकरार है और अब उसकी पांचवी पीड़ी राजनीती के मैदान में है । 


दरअसल कांग्रेस में आजादी के बाद से ही परिवारवाद के बीज बोये जाने लगे थे । इसकी शुरुवात तो हमें मोतीलाल नेहरु के दौर से ही देखने को मिलती है जब कांग्रेस के कई नेताओ के न चाहते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरु को कमान दे दी थी । महात्मा  गाँधी तो कभी नहीं चाहते थे आजादी के बाद कांग्रेस उनके नाम का उपयोग करे । शायद तभी गाँधी ने आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने की मांग की थी लेकिन नेहरु ने उनकी एक ना सुनीं । जवाहर ने भी मोतीलाल वाली लीक पर चलकर न केवल इंदिरा को उस दौर में अध्यक्ष बनाया तब उनकी उम्र भी महज 42 बरस की थी । उस दौर को अगर हम याद करें तो कांग्रेस के पास कई अच्छे चेहरे थे प्रति जिनको वह  आगे कर सकती थी लेकिन इंदिरा की बादशाहत को कोई चुनौती  नहीं दे सका ।  इंदिरा से पहले का एक दौर शास्त्री वाला भी हमें देखने को मिलता है जहाँ उन्होंने अपनी उपयोगिता को सही मायनों में साबित करके दिखाया लेकिन इसके बाद कांग्रेस ने नेहरु गाँधी परिवार के नाम को भुनाने का काम ही किया । इंदिरा एक दौर में तानाशाह भी बनी, किसी ने उन्हें दुर्गा कहा तो किसी ने गूंगी गुडिया भी कहा । वहीँ कई लोगो ने उनके नेतृत्त्व की सराहना भी की लेकिन इंदिरा के बाद संजय, राजीव , सोनिया और अब राहुल सब अपने परिवार के आसरे हर दौर में आगे रहे । सभी ने अपने परिवार से इतर किसी को सत्ता के  केंद्र में आने से रोका । नरसिंह राव वाला दौर अलग दौर रहा । उस समय पार्टी  की अगुवाई करने से सोनिया ने साफ़ इनकार कर दिया था लेकिन सीताराम केसरी के  दौर के बाद उन्होंने कमान न केवल अपने हाथ में ली वरन खड्डे में जाती कांग्रेस की नाव को भवसागर पार लगाया था । उस दौर में उन्होंने  2004 में न केवल प्रधान मंत्री का पद ठुकरा कर  अनूठी  मिसाल कायम की । लेकिन मनमोहन के दौर  में भी मनमोहन मजबूरी का नाम पी ऍम बने रहे।  असल नियंत्रण का केंद्र तो दस जनपथ  ही बना रहा |

कुछ समय पहले तक राहुल गाँधी को भी राजनीती में आने से परहेज था लेकिन वह भी न चाहते हुए राजनीती में आये । आज से 8 साल पहले जब यू पी  के चुनावो में  राहुल को स्टार बनाकर कांग्रेस ने उतारा तो उन्हें किसी ने गंभीरता के साथ नहीं सुना ।  किसी ने  राहुल पर राजनीती को जबरन थोपे जाने के आरोप भी लगाये तो  कुछ लोगो ने तो राहुल की तुलना राजीव गाँधी  से कर डाली तो कुछ राहुल में राजीव गाँधी का  अक्स देखते पाए गए लेकिन राजीव का दौर वर्तमान दौर से बिलकुल अलग है । तब कांग्रेस को चुनौती  देने वाली पार्टी कोई नहीं थी तो वहीँ आज रीजनल पार्टिया देश की राजनीती को सही मायनों में प्रभावित कर रही है । भाजपा और कांग्रेस इस दौर में बड़े दल जरुर है लेकिन दोनों अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकते शायद तभी इस दौर में गठंधन एक  सच्चाई  बन चुकी है । ऐसे माहौल में कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ ज्यादा है और एंटी इन्कम्बेंसी का भी खतरा बना है और उसकी नज़रे अब युवा वोट बैंक पर लगी दिख रही हैं । 


जयपुर के चिंतन के जरिये राहुल ने कांग्रेस  को नए रूप में ढालने का जो मंत्र  दिया है अह आने वाले दिनों में कितना कारगर होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए केवल राहुल को  उपकप्तान बनाने से अब कांग्रेस के अच्छे  दिन नहीं आने  वाले हैं क्युकी राहुल भी इस दौर में चाटुकारों की बड़ी टीम से घिरे हुए हैं और इसी टीम के साथ मिलकर वह यू पी और बिहार चुनाव में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा  चुके  है जहाँ पर  कांग्रेस को करारी  शिकस्त खाने पर मजबूर होना पड़ा  । यू पी  में एक दौर में प्रचार कर जहाँ उन्होंने अपरिपक्व नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई वहीँ कांग्रेस की सीटें भी नहीं बढाई । अभी भी अगर 2014 में राहुल के सामने अगर खुदा  ना खास्ता मोदी सामने आते हैं तो राहुल का जलवा फेल  ही रहने वाला है  । गुजरात में इस बार भी अंतिम दिनों में चुनाव प्रचार में जहाँ जहाँ राहुल गए वहां कांग्रेस की करारी हार हुई । राहुल को अब यह समझना होगा बिना पार्टी का संगठन  खड़े किये बिना कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं । राहुल को सरकार की नीतियों को जनता तक पहुचाना होगा और संगठन में नेताओ के नाते रिश्तेदारों को हटाना पड़ेगा । आज भी अधिकाश पदों पर कांग्रेस के मंत्रियो के रिश्तेदार महत्वपूर्ण पदों पर कुंडली मारकर बैठे हैं ।  2014 के लोक सभा चुनाव की  डुग डुगी  बजने में 15 माह से भी कम का समय बचा है । इतने कम समय में  संगठन मजूत हो जाएगा और सही टिकटों का बटवारा होगा यह सब संभव नहीं दिखाई देता । यह समय ऐसा है जब आम आदमी का मनमोहनी नीतियों से मोहभंग हो गया है । सरकार कॉर्पोरेट पर दरियादिली दिखा रही है जबकि आम आदमी की उपेक्षा कर रही है । महंगाई बढ़  रही है । गैस की घरेलू सब्सिडी ख़त्म है तो  डीजल के दाम लगातार बढ़ रहे है  । भ्रष्टाचार का सवाल जस का तस है । कांग्रेस अगर सोच रही है मनमोहन के बजाए राहुल का चेहरा आगे कर देने भर से कांग्रेस तीसरी बार केंद्र में वापसी कर जाएगी तो यह दिवा स्वप्न से कम नहीं लगता । ऐसे  माहौल में राहुल के सामने चुनोतियो का पहाड़ ही खड़ा है । राहुल के पिता राजीव का भी राजनीती में प्रवेश संजय गाँधी की मौत के बाद हुआ था तो उन्हें भी महासचिव बनाया गया था लेकिन तब सहानुभूति की लहर ने राजीव को सत्ता के  शीर्ष पर पहुचाया लेकिन आज के दौर में यह दूर की गोटी है क्युकि  राज्यों में रीजनल पार्टियों का प्रभुत्व है वह केंद्र में सरकार बनाने में मोल तोल  कर रही है  और शायद यही कारण  है कांग्रेस भी रिटेल में ऍफ़ डी  आई  के मसले पर इनके सहयोग  के बिना आर्थिक सुधारों का फर्राटा नहीं भर सकती ।  आज कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है । कार्यकर्ता उपेक्षित है तो उसके अपने  नेताओ के पास  मिलने का समय नहीं है । कांग्रेस 28 राज्यों में से 18 राज्यों में पूरी तरह साफ़ है । संगठन लुंज पुंज है । ऐसे में राहुल को लोगो को यह अहसास कराना होगा वह परिवारवाद की विरासत बचाने  आगे नहीं आये हैं बल्कि उनका सपना गाँव के अंतिम छोर  में खड़े व्यक्ति तक विकास पहुचाना है लेकिन बिना संगठन के यह सब संभव नहीं है । राहुल की असली चुनौती  बिहार और उत्तर प्रदेश है । यही वह प्रदेश है जहाँ  अच्छा  करने पर कांग्रेस केंद्र में सरकार बना सकती है । यू  पी में इस  28 विधायक और 22 संसद हैं । पिछले कुछ समय से यहाँ पर पार्टी का वोट प्रतिशत नहीं बढ रहा इस पर गंभीरता से विचार की जरुरत अब है । राहुल ने जयपुर में जो कुछ कहा उससे एक बारगी ऐसा लगा  वह अपने पिता राजीव वाली लीक पर चलकर कांग्रेस के लिए बिसात बिछा रहे हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए राजीव गाँधी भी कहा करते थे वह सत्ता के दलालों से कांग्रेस को बचाना चाहते हैं लेकिन इन्ही दलालों ने राजीव को फंसा दिया । बोफोर्स का जिन्न कांग्रेस की लुटिया उस दौर में डुबो गया था । अब राहुल को समझना होगा वह उन गलतियों से सबक लें ।


जयपुर में सोनिया की सहमति से राहुल को उपाध्यक्ष बनाने का फैसला पार्टी कार्यकर्ताओ में नए जोश का संचार भले ही कर जाए  लेकिन राहुल गाँधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान  भी नहीं है | २००९ के लोक सभा चुनावो में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा आरटीआई, किसान कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओ के सर ही बंधा था | वहीँ उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गाँधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था जो भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्युकि वह नेहरु की तर्ज पर भारत की  खोज करने पहली बार निकले  जहाँ वह दलितों के घर आलू पूड़ी खाने जाते थे  वहीँ कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस में उजागर करते थे  | लेकिन संयोग देखिये राजनीती एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है | अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है साथ ही आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ के नारों की भी हवा निकली हुई है क्युकि महंगाई चरम पर है | सरकार  ने घरेलू गैस की सब्सिडी ख़त्म कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में दी है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है | वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई , घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे  से लेकर डीजल , तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही ऍफ़डीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है | देश की अर्थव्यवस्था जहाँ सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है वहीँ आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्युकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है | यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनोमिक्स द्वारा आम आदमी के बजाए  कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा  दिखा रही है |


 ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है राहुल गाँधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है क्युकि यूपीए २ की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा  काम इस दौर में नहीं हुआ है | उल्टा कांग्रेस कामनवेल्थ ,२ जी ,कोलगेट जैसे मसलो पर लगातार घिरती  रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है | ऊपर से रामदेव , अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है |  यही नहीं दिल्ली में बीते दिनों हुई गैंगरेप की घटना के बाद जिस तरह फ्लैश माब  सड़को पर उतरा और उसके कदम लुटियंस की दिल्ली के रायसीना हिल्स की तरफ बढे उसने कांग्रेस के सामने मुश्किलों का पहाड़ लोक सभा चुनावो से ठीक पहले खड़ा कर दिया है।  । देश में  मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं जो गडकरी से लेकर खुर्शीद तक को उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद तक में चुनौती दे चुके हैं | ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्युकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई  साख वापस नहीं आ सकती | दाग तो दाग हैं वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते |

 ऊपर से  आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने  नहीं रखते क्युकि उसके लिए दो जून की रोजी रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है | वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है क्युकि वही सरकार के लिए चुनावो में बिसात बिछा रहा है | ऐसे खराब माहौल में राहुल को बैटिंग करने में दिक्कतें पेश आ सकती हैं | साथ ही राहुल के सामने उनका अतीत भी है जो वर्तमान में भी उनका पीछा शायद ही छोड़ेगा |ज्यादा समय नहीं बीता जब २००९ में २००  से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावो में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार ,उत्तर प्रदेश, पंजाब,तमिलनाडु के विधान सभा चुनावो में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा | उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरुर लेकिन यहाँ भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही | इन जगहों पर राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी | संगठन भी अपने बजाय राहुल का औरा लिए करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगो की भीड़ वोटो में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गाँधी ने भी उन इलाको का दौरा नहीं किया जहाँ कांग्रेस कमजोर नजर आई | चुनाव  निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए | ऐसे में  अब दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है |  
    
    वैसे एक दशक से ज्यादा समय से राजनीती में राहुल को लेकर कांग्रेसी चाटुकार मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा आशावान हैं | लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में राहुल का चुनावी प्रबंधन पार्टी के काम नहीं आ सका | एमबीए, एमसीए डिग्रियों से लैस उनकी युवा टीम ने जहाँ  इन्टरनेट की दुनिया में राहुल के लिए माहौल  बनाया वहीँ कांग्रेसी चाटुकारों की टोली ने उन्हें विवादित बयान देने और चुनावी सभा में बाहें ही चढ़ाना सिखाया | अगर वह जनता की नब्ज पकड़ना जानते तो शायद उत्तर प्रदेश के अखाड़े में वह उनसे कम उम्र के अखिलेश यादव से नहीं हारते | एक दशक से भारत की राजनीती में सक्रिय राहुल गाँधी जहाँ पुराने चाटुकारों से घिरे इस दौर में  नजर आते हैं वहीँ उनकी सबसे बड़ी कमी यह है की चुनाव  निपटने के बाद वह उन संसदीय इलाको और विधान सभा के इलाको में फटकना तक पसंद नहीं करते जहाँ कांग्रेस लगातार हारती जा रही है | यही उनकी सबसे बड़ी कमी इस दौर में बन चुकी है और शायद यही वजह है हिंदी भाषी रायो में कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह साफ़ हो गया है । दक्षिण  में आन्ध्र के जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस की मुश्किलें बढाई  हुई हैं तो केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा , केरल में उसका कोई जनाधार बचा नहीं दिख रहा । 

वहीँ अगर राहुल के बरक्स हम युवा तुर्क अखिलेश यादव को देखें तो उत्तर  प्रदेश के चुनावो में वह मीडिया की नज़रों से बिलकुल ओझल रहे लेकिन उन्हें अपने काम पर भरोसा था वह जनता से सीधा संवाद स्थापित करने में कामयाब रहे और जनता ने सपा को इस साल मौका दिया वहीँ कांग्रेस को उसी हाल पर छोड़ दिया जहाँ वह बरसो से उत्तर प्रदेश में खड़ी है |  अखिलेश की सबसे बड़ी खूबी यह है वह अच्छे संगठनकर्ता हैं ही साथ ही वह एक एक कार्यकर्ता का नाम तक जानते हैं और उनसे कभी भी सीधा संवाद आसानी से स्थापित कर लेते हैं | वहीँ राहुल गाँधी को अपने चाटुकारों से फुर्सत मिले तब बात बने | 

राहुल गाँधी को अगर आने वाले दिनों में  अपने बूते कांग्रेस को तीसरी बार सत्ता में लाना है तो संगठन की दिशा में मजबूत प्रयास करने होंगे साथ ही कार्यकर्ताओ की भावनाओ का ध्यान रखना होगा क्युकि किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी रीड उसका कार्यकर्ता होता है | अगर वह ही हाशिये पर रहे तो पार्टी का कुछ नहीं हो सकता | राहुल को उन कार्यकर्ताओ में नया जोश भरना होगा जिसके बूते वह जनता के बीच जाकर सरकार की नीतियों के बारे में बात कर सकें | उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है तो कांग्रेस की मौजूदा लोक सभा सीटो की चुनोती बरक़रार रखने की विकराल चुनौती  सामने है ।

        एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीती में सक्रियता दिखाने वाले राहुल गाँधी ने शुरुवात में कोई पद ग्रहण नहीं किया | उन्होंने बुंदेलखंड के इलाको के साथ बिहार , उड़ीसा ,विदर्भ के इलाको के दौरे किये और जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओ को गौर से सुना | इसी दौरान वह उड़ीसा में पोस्को और नियमागिरी के इलाको में जाकर वेदांता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं जिन पर पूरे देश का ध्यान गया | यही नहीं भट्टा परसौल, मुंबई की लोकल ट्रेन से लेकर कलावती के दर्द को उन्होंने बीते एक दशक में करीब से महसूस किया है | लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह रही है वह इन इलाको में एक बार अपनी शक्ल  दिखाने और  मीडिया में सुर्खी बटोरने के लिए जाते जरुर हैं  उसके बाद खामोश हो जाते हैं और उन इलाको को उसी हाल पर छोड़ देते हैं जिस हाल पर वह इलाका पहले हुआ करता था तो उनके  विरोधी  सवाल उठाने  लगते है |

मिसाल के तौर पर विदर्भ के इलाके को लीजिए | बीते एक दशक में साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्याए कर चुके हैं जिसको राहुल अपनी राजनीति से उठाते है | कलावती के दर्द को संसद के पटल पर परमाणु करार के जरिये उकेरते हैं लेकिन उसके बाद कलावती को उसी के हाल पर छोड़ देते हैं | २००५ में अपने पति को खो चुकी कलावती का दर्द आज भी कोई नहीं समझ सकता | न जाने लम्बा समय बीतने के बाद वह कहाँ गुमनामी के अंधेरो में खो गई | राहुल उसकी सुध इस दौर में लेते नहीं दिखाई दिए जबकि आडवानी की रथ यात्रा के  दौरान २०११ में अक्तूबर के महीने में उसकी बेटी सविता ने भी ख़ुदकुशी कर ली  | वहीँ इसी साल २०१२ में कलावती की छोटी बेटी के पति ने खेत में कीटनाशक दवाई खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी | तब राहुल गाँधी  की तरफ से उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई | जबकि कलावती के जरिये संसद में परमाणु करार पर मनमोहन सरकार ने खूब तालियाँ अपने पहले कार्यकाल में बटोरी थी तब  वाम दलों की घुड़की के आगे हमारे प्रधानमंत्री नहीं झुके | उसके बाद क्या हुआ कलावती अपने देश में बेगानी हो गयी |  कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में थकी हुई रीता बहुगुणा जोशी के हाथ कमान दी जो अपने जीवन का एक चुनाव तक नहीं जीत सकी | शुक्र है इस बार के चुनाव में उन्हें हार नहीं मिली |  चुनावो के बाद भीतरघातियो पर कारवाही  तक नहीं हुई और ना ही राहुल  उत्तर प्रदेश के आस पास फटके | यही हाल बिहार में हुआ अकेले चुनाव लड़ने का मन तो बना लिया लेकिन संगठन दुरुस्त नहीं था न कोई चेहरा था जो नीतीश के सामने टक्कर दे सकता था इसी के चलते २०१० के विधान सभा चुनाव में केवल ४ सीट ही हाथ लग सकी | चुनाव निपटने के बाद बिहार को भी वैसा ही छोड़ दिया जैसा उत्तर प्रदेश है | अब ऐसे हालातो में पार्टी का प्रदर्शन कैसे  सुधरेगा यह एक बड़ी पहेली बनता जा रहा है |  राहुल को यह कौन समझाए वोट कोई पेड पर नहीं उगते | उसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है और कार्यकर्ताओ को साथ लेकर चलना पड़ता है जिसमे संगठन एक बड़ी भूमिका अदा करता है | लेकिन राहुल की सबसे बड़ी मुश्किल यही है चुनाव के दौरान ही वह चुनाव प्रचार करने इलाको में नजर आते हैं चुनाव निपटने के बाद उन इलाको से नदारद पाए जाते है |
          यू पी ए २ में राहुल के पास अपने को साबित करने की एक बड़ी चुनौती है जिस पर वह अभी तक खरा नहीं उतर पाए हैं | मिसाल के तौर पर अन्ना के आन्दोलन को ही देख लीजिए उस  दौरान  सोनिया गाँधी बीमार थी | राहुल को कांग्रेस के बड़े नेताओ के साथ डिसीजन मेकिंग की कमान दी गई थी लेकिन अन्ना के आन्दोलन पर उनकी एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई | यही नहीं जनलोकपाल जैसे अहम मसलो पर वह उनकी पार्टी का स्टैंड सही से सामने नहीं रख पाए | वह इस पूरे दूसरे कार्यकाल में संसद से नदारद पाए गए है | सदन में कोई बड़ा बयान उनके द्वारा जहाँ नहीं दिया गया वहीँ किसानो की आत्महत्या, महंगाई, ऍफ़डीआई ,गैस सब्सिडी खत्म करने  जैसे मसलो पर उनका कोई बयान मीडिया में नहीं आया  है जो सीधे आम आदमी से जुड़े मुद्दे हैं | यही नहीं भ्रष्टाचार के मसले पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढे बैठे रहे | वाड्रा डीएलएफ के गठजोड़ पर भी उनकी चुप्पी ने कई सवालों को जन्म तो दिया ही साथ ही कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में अपनी पार्टी के कोष से नैशनल हेराल्ड को दिए गए ९० करोड़ रुपये के चंदे पर भी राहुल ने खामोश रहना मुनासिब समझा | हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसे लोगो का कद बढ़ाया गया  जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे | लेकिन राहुल ने उस पर भी कुछ नहीं कहा और ना ही मंत्रिमंडल विस्तार में युवा चेहरों की वैसे तरजीह मिली जिससे कहा जा सके कि विस्तार में राहुल की छाप दिखाई दे रही है | ऐसे  में  राहुल गाँधी  की भूमिका को लेकर सवाल उठने लाजमी ही हैं | अब समय आ गया है जब उनको देश से और आम जनता से जुड़े मुद्दे सामने लाने से नहीं डरना होगा तभी बात बनेगी | नहीं तो अभी के हालत  कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे नजर नहीं आते | वर्तमान में पार्टी जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में ढलान पर है वहीँ मध्य प्रदेश , गुजरात  पंजाब, हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ में उसकी हालत बहुत पतली है | औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता खोला था लेकिन यहाँ पर कांग्रेस पतली हालत में है | सबसे ज्यादा खराब हालत आन्ध्र में है जहाँ जगन मोहन रेड्डी आने वाले विधान सभा चुनावो में मजबूत खिलाडी बनकर उभरेंगे इसके आसार अभी से नजर आने लगे हैं | देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के हालत भी कांग्रेस  जैसे ही हैं | चोर चोर मौसरे भाई जुगलबंदी  यहाँ पर सटीक बैठ रही है | नितिन गडकरी पर लग रहे भ्रष्टाचार के दाग भाजपा की साख को ख़राब कर दी है भले ही संघ का लाडला अब दूसरी बार अध्यक्ष बनने से रह गया हो लेकिन इसने भाजपा की भ्रष्टाचार की लड़ाई को कमजोर ही किया है ।  ऐसे में रास्ता इन दोनों दलों से इतर तीसरे मोर्चे की तरफ जा रहा है जहाँ पर अपने अपने राज्यों के छत्रप मजबूत स्थिति में जाते दिख रहे है जिससे भाजपा और कांग्रेस दोनों की सत्ता में आने  की सम्भावनाए धुंधली होती दिखाई दे रही है | ऐसे में राहुल को कांग्रेस के लिए रास्ता तैयार करने में मुश्किलें पेश आ  सकती हैं |

                 वैसे असल परीक्षा तो आने वाले दिनों में दस राज्यों के विधान सभा चुनावो में है जहाँ कांग्रेस के साथ राहुल की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है ।  अगर यहाँ कांग्रेस अच्छा कर गई तो वह लोक सभा चुनाव का जुआ जल्द खेल सकती है ।  लेकिन यह दूर की गोटी है  राहुल इतने कम समय में कांग्रेस में नई  जान फूंक पायेंगे ? बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा , भूमि अधिग्रहण, लोकपाल  जैसे मसले अभी भी अधर में लटके हैं। मनमोहन के दौर में अमीरों और गरीबो की खाई  दिन पर दिन चौड़ी ही होती जा रही है । इस दौर में कारपोरेट दिनों दिन मजबूत होता जा रहा है तो वहीँ सरकार  ने पूरा बाजार उसके हवाले कर दिया है जहाँ नीतियों के निर्धारण में सीधे उसका साफ़ दखल देखा जा सकता है । भारत के संविधान की बहुत सारी चीजें  पीछे छूट गई हैं । समाजवाद रददी  की टोकरी में चला गया है तो जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाला कोई नेता इस दौर में नहीं बचा है । सभी वालमार्ट  के स्वागत में फलक फावड़े बिछाये हुए है । ऐसे माहौल में क्या राहुल इस पर ध्यान दे पायेंगे यह अपने में बड़ा सवाल है । 

वैसे भी यू पी ए के लिए यह समय मुश्किलों भरा है जहाँ उसके पास उपलब्धियों के नाम पर कुछ खास कहने को बचा नहीं है क्युकि  हर बार वह किसी न किसी मुश्किल में घिरती ही रही है ।  मनमोहन पी ऍम पद के अपने आखरी पडाव पर खड़े हैं । गाँधी परिवार के आसरे कांग्रेस एकजुट नजर आती है इसलिए राहुल मजबूरी का नाम कांग्रेसी चाटुकारों के लिए बन चुके हैं जो हर चुनाव में राहुल को दिग्भ्रमित करने का काम किया करते हैं । कांग्रेस में इस समय कोई जनाधार वाला नेता नहीं बचा है लिहाजा कांग्रेस को एकजुट करने के लिए राहुल ही तुरूप का पत्ता इस दौर में बन चुके हैं । ऐसे में कांग्रेस पार्टी का  सबसे बड़ा खेवनहार वही गाँधी परिवार बना रहेगा जिसके बूते वह लम्बे समय से भारतीय राजनीती में छाई है और यही राहुल गाँधी का औरा उसे चुनावी मुकाबले में भाजपा के बराबर खड़ा कर सकता है क्युकि सोनिया का स्वास्थ्य सही नहीं है | मनमोहन के आलावे कोई दूसरा चेहरा पार्टी में ऐसा इस दौर में बचा नहीं है जो भीड़ खींच सके और लोगो की नब्ज पकड़ना जाने | जाहिर है रास्ता ऐसे में उसी गाँधी परिवार पर जा टिकता है  जिसके नाम पर पार्टी इतने वर्षो से एकजुट नजर आई है और यही औरा गाँधी परिवार की पांचवी पीड़ी में पार्टी के कार्यकर्ताओ को राहुल गाँधी के रूप में नजर आता है जो उसमे नेहरु से लेकर इंदिरा, संजय  और राजीव  गाँधी तक का अक्स देख रहा है |  शायद इसके मर्म को सोनिया गाँधी भी बखूबी समझ रही हैं तभी कांग्रेस जयपुर के चिंतन के आसरे राहुल गाँधी को कमान सौंपने वाली ढाई चाल इस दौर में चलती दिखाई दे रही है |

Monday 14 January 2013

उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा का कौन होगा नया सूबेदार ?


उत्तराखंड में सत्तारुढ कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भाजपा में नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर घमासान तेज होता जा  रहा है । मौजूदा दौर में दोनों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष की विदाई तय मानी जा रही है लेकिन नए सूबेदार के लिए दोनों दलों में कई नाम सामने आने से अब पार्टी आलाकमान के सामने दिक्कतें दिनों दिन बढती ही जा रही है । भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल जहाँ दिसम्बर में अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं तो वहीं   एक व्यक्ति एक पद के फार्मूले  के आधार पर राज्य के कांग्रेस प्रभारी चौधरी बीरेन्द्र  सिंह बीते बरस ही मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य को बदलने की बात कह चुके हैं  । लिहाजा सर्द मौसम में  दून  से लेकर दिल्ली तक सभी की जुबान पर इन दिनों एक ही सवाल है उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस का नया सूबेदार कौन होगा ?  वह भी तब जब लोक सभा चुनावो की  उल्टी  गिनती शरू हो चुकी है और उससे पहले राज्य  में दोनों पार्टियों को निकाय चुनाव और पंचायत चुनावो का सामना करना है ।

                       भले ही भाजपा  और कांग्रेस आंतरिक लोकतंत्र , अनुशासन का हवाला देकर अपने को पाक साफ़ बताये लेकिन उत्तराखंड  में इन दोनों राष्ट्रीय दलों में कुछ भी ' आल इज  वेल' नहीं है । मुख्यमंत्री विजय  बहुगुणा जहाँ अपने अंदाज में  प्रदेश को चला रहे हैं वहीं कांग्रेस का आम कार्यकर्ता इस दौर में हताश हो चुका है क्युकि  सरकार और संगठन में दूरी इस कदर बढ़ चुकी है कि इस दौर में नौकरशाह आम कांग्रेसी कार्यकर्ता को भाव नहीं दे रहे हैं तो वहीं  भाजपा में  खंडूरी, कोश्यारी और निशंक सरीखे नेता अपने अपने अंदाज में पंचायत चुनावो से लेकर निकाय और लोक सभा चुनावो की बिसात  बिछाने में लगे हुए हैं ।  आम भाजपा का कार्यकर्ता भी इस दौर में भाजपा से परेशान हो चुका  है । ऐसे में दोनों दलों के सामने नए अध्यक्ष को लेकर पहली बार सर फुटव्वल  की स्थति बनती दिख रही है । आम सहमति बननी  तो दूर हर गुट अपने अपने अंदाज में अपने समर्थको के साथ एक  दूसरे  को पटखनी देने में लगा हुआ है । राज्य  में जातीय समीकरण इतने जटिल हैं कि  मुख्यमंत्री से लेकर नेता प्रतिपक्ष  और विधान सभा अध्यक्ष से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक सभी इस दौर में इसी राजनीती के आसरे चुने जा रहे हैं ।

                       भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल तो अपना कार्यकाल दिसंबर में ही पूरा कर चुके हैं लेकिन गडकरी के दुबारा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के लिए संघ ने जिस तरह पार्टी संविधान में संशोधन किया उससे चुफाल के समर्थक इस दौर में बम बम जरुर हैं लेकिन खुद चुफाल अब दुबारा इस जिम्मेदारी  को लेने के के मूड में नहीं हैं । हालाँकि गडकरी के दुबारा अध्यक्ष बनाये जाने की सूरत में अगर चुफाल के उत्तराधिकारी की तलाश में दावेदारों की संख्या बढती है तो नए मुखिया के चयन में गडकरी की बड़ी भूमिका देखने को मिल सकती है । ऐसे में चुफाल के सितारे फिर से बुलंदियों में जा सकते हैं । चुफाल अभी भले ही न्यूट्रल हैं लेकिन उनकी सबसे बड़ी ताकत खंडूरी से निकटता है । 
चुफाल ही वह पहले  शख्स  थे जिन्होंने 2007 में खंडूरी के मुख्यमंत्री बनाये जाने का खुले तौर पर सबसे पहले समर्थन किया था । उस दौर को अगर याद करें तो 20 से ज्यादा विधायक  भगत सिंह कोश्यारी के समर्थन में खड़े थे । अपने समर्थन के लिए कोश्यारी की चिट्टी जब सभी भाजपा विधायको  के पास गई तो  कोश्यारी  के समर्थन में कई लोगो ने बिना चिट्टी पढ़े ही दस्तखत कर डाले थे  वहीँ  चुफाल ने पूरी चिट्टी न केवल पड़ी बल्कि कोश्यारी की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के विरोध में निशंक के साथ खंडूरी  का खुलकर साथ भी दिया । इसके बाद खंडूरी ने उनको अपनी कैबिनेट में न केवल मलाईदार मंत्रालय दिया बल्कि प्रदेश अध्यक्ष की बिसात भी अपने ही बूते बिछाई थी  । लिहाजा इस बार भी अगर दावेदारों का झगडा आलाकमान के सामने बढता है तो खंडूरी का वीटो चुफाल के लिए फिर से नई  सम्भावना का द्वार  खोल सकता है । चुफाल के कार्यकाल में भाजपा न केवल विधान सभा चुनावो में सत्ता के  लगभग करीब पहुची बल्कि टिहरी उपचुनाव में विजय बहुगुणा के बेटे साकेत को  धूल  चटाई । 

चुफाल के उत्तराधिकारी के चयन के लिए इस समय भाजपा में खंडूरी, कोश्यारी, निशंक के कई समर्थक दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं । नए सूबेदार के लिए भाजपा में कई नाम उभरकर सामने आ रहे हैं । बताया जाता है पार्टी आलाकमान छेत्रीय संतुलन की बिसात पर काम कर रहा है । वर्तमान में भाजपा में नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट कुमाऊँ  से हैं तो नए सूबेदार का पद   इस हिसाब से गढ़वाल के खाते में जाना चाहिए । यही नहीं अजय भट्ट  राज्य में भाजपा के ब्राहमण   चेहरे हैं इस लिहाज से गढ़वाल में किसी ठाकुर नेता को संतुलन साधने के लिहाज से आगे किया जा सकता है । दावेदारों में तीरथ सिंह रावत, मोहन सिंह गांववासी,  त्रिवेन्द्र  सिंह रावत और धन सिंह रावत के नाम प्रमुखता से उठ रहे हैं । इन सभी के पास अपने अपने दावे हैं जिनको नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है लेकिन इतना तय है  भाजपा  आलाकमान बिना खंडूरी को विश्वास में लिए बगैर भाजपा के नए सूबेदार की घोषणा नहीं करेगा क्युकि  हलिया विधान सभा चुनावो में इसी खंडूरी फैक्टर के बूते भाजपा का प्रदर्शन तमाम आशंकाओ के बावजूद ठीक रहा था । यह अलग बात है कुछ सीटो पर गुटबाजी, भीतरघात , गलत टिकटों के आवंटन से भाजपा सत्ता में वापसी से  चूक गई । चौबटटाखाल से भाजपा विधायक तीरथ सिंह रावत नए अध्यक्ष की  रेस में सबसे आगे हैं । वह  खंडूरी के सबसे करीबी हैं और इसी के चलते कई महीनों पहले से खंडूरी अपने इस विश्वासपात्र का नाम पार्टी आलाकमान के सामने  दिल्ली  में  रख चुके हैं । हालाँकि आलाकमान खंडूरी को खुद प्रदेश अध्यक्ष का पद आफर  कर चुका है लेकिन खंडूरी ने इस जिम्मेदारी को लेने से इनकार कर दिया है । साफ़ है अगले चुनावो में भी भाजपा का बाद चेहरा खंडूरी ही रहेंगे और खंडूरी तीरथ के आसरे  अब भविष्य की भाजपा तैयार करने का खाका अपने निर्देशन में खींचने वाले हैं ।
त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कोश्यारी का हनुमान जरुर कहा जाता है लेकिन  खंडूरी और निशंक की  गुड बुक में उनका नाम इस दौर में गायब है जिसके चलते उनकी प्रदेश अध्यक्ष की दावेदारी कमजोर नजर आ रही है । वैसे  भाजपा नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में वह कुछ समय पहले  कोश्यारी से गहन निकटता के बावजूद नेता प्रतिपक्ष की लड़ाई में अजय भट्ट से  पिछड  गए ।   कोश्यारी की  मुश्किल इस दौर में  निशंक ने बढाई  हुई है  । प्रदेश अध्यक्ष के लिए एक गुट द्वारा कोश्यारी  का नाम आगे किये जाने के बाद निशंक अपने समर्थको के साथ कोश्यारी  को डेमेज करने के लिए खंडूरी के साथ हाथ मिला सकते हैं ।  निशंक समर्थको की  मजबूरी ऐसी सूरत में खंडूरी  के करीबी  तीरथ सिंह रावत के साथ जाने की बन रही है ।  मोहन सिंह गांववासी  का नाम भी अध्यक्ष पद के लिए गलियारों में उछल  रहा है । वह संघ के सबसे करीबियों में शामिल होने के साथ ही कुशल संगठनकर्ता भी हैं तो वहीँ धन सिंह रावत भी संघ में सीधी  पकड़ रखने के साथ ही आलाकमान पर पकड़ रखते हैं जिस कारण  उनका दावा भी अपनी जगह है । वैसे बताते चलें इन सबसे इतर रेस में खंडूरी, निशंक , भगत  सिंह  कोश्यारी भी बने हुए हैं लेकिन इनकी  कम सम्भावनाए  इस रूप में बन रही हैं क़ि  पार्टी आने वाले लोक सभा चुनावो में पार्टी  इन्हें  अपना बड़ा चेहरा बना रही  है और इसी के जरिये भाजपा राज्य में पांच  सीटो पर कांग्रेस को  तगड़ी चुनौती  दे सकती है ।  पूर्व कैबिनेट  मंत्री  प्रकाश पन्त जो सितारगंज में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा  से बुरी तरह परास्त हो गए वह भी  अब अपनी नजरें नैनीताल संसदीय सीट पर लगाये  हैं ।  पार्टी में एक तबका उके राजनीतिक पुनर्वास के लिए उनको भाजपा की कमान राज्य में देने की बात कह रहा है लेकिन कोश्यारी खेमे ने उनके नाम पर फच्चर फंसा दिया है । वैसे बताते चलें इसी खेमे ने प्रकाश पन्त को सितारगंज सरीखी ऐसी विधान सभा से पिछले साल बहुगुणा के विरोध में उतारा उठाया जहाँ पहाड़ी वोटर गिने चुने हैं । इस खेमे की कोशिश प्रकाश पन्त की भावी राजनीति पर ग्रहण लगाने के रही और शायद  यही कारण  है प्रकाश अब राजनीतिक  बियावान में अपने लिए मैदानी इलाको में जमीन तलाश रहे हैं । 

             

        वहीँ कांग्रेस में भी प्रदेश अध्यक्ष के दावेदारों की लम्बी चौड़ी फ़ौज खड़ी है ।  मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य के कैबिनेट मंत्री बनाये जाने के बाद पार्टी आलाकमान उन्हें सरकार और संगठन की दोहरी जिम्मेदारी नहीं  देना  चाहता लिहाज पार्टी के प्रदेश प्रभारी चौधरी बीरेंद्र सिंह ने बीते साल ही दून  आकर कांग्रेस का कप्तान बदले जाने की बात कही थी । तब से कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष बदलने की राग भैरवी   तान हर जिले में सुनने को  मिली  है ।   संगठन  को ठेंगा दिखाते हुए  पार्टी का हर नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस का सूबेदार बदले जाने की बात खुले आम मीडिया में कहने से परहेज नहीं कर रहा था जिसके  बाद प्रदेश प्रभारी को ऐसी बयानबाजी पर  रोक लगानी पड़ी । अभी  भी  कई कार्यकर्ता बहुगुणा सरकार की कार्यशैली से निराश हैं । उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को 10 महीने पूरे होने वाले हैं लेकिन लालबत्ती  पाने की कार्यकर्ताओ की हसरत अभी तक अधूरी ही है ।  वहीँ सरकारके तमाम मंत्री और संतरी इस दौर में अपने नाते रिश्तेदारों को लालबत्ती के पदों पर समायोजित करने में लगे हुए हैं जिससे कांग्रेस का आम कार्यकर्ता बहुत ज्यादा नाराज है । ऐसे में यशपाल आर्य भी अब कार्यकर्ताओ के सीधे निशाने पर हैं । उनके पुत्र संजीव आर्य को हाल ही में सहकारी बैंक की लालबत्ती से नवाजा जा  चुका है तो वहीँ यशपाल की मुख्यमंत्री   बहुगुणा के साथ लगातार बढती निकटता हरीश रावत के समर्थक नहीं पचा पा रहे हैं । कुमाऊं से होने के बाद भी यशपाल कुमाऊं के कार्यकर्ताओ का दिल जीतने में नाकामयाब  अब तक रहे हैं । हालांकि  यशपाल के अध्यक्ष पद पर रहते कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव में जहाँ भाजपा को सभी 5 सीटो पर पराजित किया था वहीँ टिहरी उपचुनाव में मुख्यमंत्री बहुगुणा के बेटे साकेत की हार पर कार्यकर्ता यशपाल को सीधे निशाने पर लेने से नहीं चूक रहे हैं ।  उत्तराखंड में  कांग्रेस का मतलब केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत  हैं । उनकी आम कार्यकर्ता से लेकर उत्तराखंड के आम जन जन तक  पैठ आज भी कायम है लेकिन मुख्यमंत्री पद की  रेस में इस बार भी वह विजय बहुगुणा से पिछड  गए जबकि हरीश रावत के  पास अपने समर्थको और विधायको की बड़ी तादात थी । ऐसे में अब हरीश रावत के समर्थक यशपाल  आर्य को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने के लिए दिल्ली में पूरी तरह से एकजुट है ।  टिहरी में कांग्रेस  की हार का ठीकरा   वह संगठन पर  फोड़ रहे हैं जिसकी कमान यशपाल आर्य के हाथ में है ।

                
      हरीश रावत के समर्थक यशपाल  आर्य के स्थान पर जहां सांसद प्रदीप टम्टा  और पिथौरागढ़ से  विधायक  मयूख महर के नाम के लिए दस जनपथ में लाबिग कर रहे हैं वहीँ नारायण दत्त तिवारी गुट के समर्थक विधायको का एक गुट हरीश रावत गुट को पटखनी देने के लिए सांसद सतपाल महाराज के नाम का बड़ा दाव खेल सकते हैं । इधर  उत्तराखंड कांग्रेस में बने कई गुटों ने राज्य के प्रभारी  चौधरी वीरेंद्र सिंह की मुश्किलों को बढा  दिया है । 13 दिसंबर को  देहरादून में हुए उत्तराखंड कांग्रेस के चिंतन शिविर में महेंद्र पाल ने जिस तरह विजय बहुगुणा की तारीफों में कसीदे पड़े उससे उनका नाम भी भावी प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर लिया जा रहा है । महेंद्र पाल कुमाऊं  से आते है और मुख्यमंत्री बहुगुणा गढ़वाल के है । लिहाजा संतुलन के लिहाज से भी यह सही रहेगा । खुद केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत को पाल के नाम से कोई ऐतराज नहीं है । वहीँ हरीश रावत  का एक गुट  राज्य के पूर्व परिवहन मंत्री हीरा सिंह बिष्ट के नाम का दाव खेलने के मूड में  भी दिख रहा है । देहरादून पी सी सी कार्यालय में उनको लेकर दस जनपथ तक में  एक बड़ा बाजार गरम दिखाई दे रहा है ।  हरीश रावत के विरोधी  यह तर्क दे रहे हैं मुख्यमंत्री बहुगुणा सितारगंज से विधायक हैं जो  कुमाऊ में आता है । वही इस लिहाज से देखें तो  उनके  हिसाब से  प्रदेश  अध्यक्ष  गढ़वाल के ही खाते में आना चाहिए । लेकिन कांग्रेस की नजरें अभी भाजपा के  नए प्रदेश अध्यक्ष पर भी टिकी हैं । राज्य में कांग्रेस के सूत्रों का मानना है भाजपा का अध्यक्ष घोषित होने के बाद कांग्रेस अपने पत्ते पूरी तरह खोलेगी ।

18 से 20 जनवरी तक जयपुर में होने जा रहे कांग्रेस पार्टी के चिंतन शिविर में उत्तराखंड कांग्रेस के अगले प्रदेश अध्यक्ष के नाम पर भी चिंतन होने के आसार  दिख रहे हैं । इस बार नए अध्यक्ष पद के चयन में मुख्यमंत्री बहुगुणा की चलने की पूरी संभावना दिख रही है । दस जनपथ में बहुगुणा की सीधी पकड़, रीता बहुगुणा और अम्बिका सोनी, अहमद पटेल  से सीधी पकड़  और सांसद सतपाल महाराज के साथ गहन  निकटता प्रदेश अध्यक्ष के चयन में उनको फायदा पंहुचा सकती है । सतपाल महाराज के समर्थक हरीश रावत के केन्द्रीय मंत्रिमंडल में आने के बाद से अपने को असहज महसूस कर रहे है और महाराज के कई समर्थक अब इस बार उन पर प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी लेने का बहुत दबाव डाल  रहे हैं । सतपाल और हरीश रावत गुट में शुरू से  36 का आंकड़ा उत्तराखंड में जगजाहिर रहा  है । विजय  बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाये जाने में सतपाल महाराज की भूमिका भी किसी से शायद ही छिपी है । सतपाल ने ही हरीश  रावत सरीखे खांटी  कांग्रेसी नेता के मुख्यमंत्री बनने  की राह इस बार भी मुश्किल की जिसके बाद हरीश रावत की राय पर आलकमान ने रावत के करीबी ज्यादा विधायको को बहुगुणा  कैबिनेट में जगह दी । अब सतपाल हरीश के  केन्द्रीय मंत्री बनाये जाने को   नहीं पचा पा रहे हैं ऐसे में वह खुद राज्य के अध्यक्ष की कमान अपने हाथो में लेना चाहेंगे । अगर सतपाल खुद आगे नहीं भी आते हैं तो संभावना है वह बहुगुणा को भरोसे में लेकर किसी के नाम को आलकमान के यहाँ आगे करें । वैसे बताते चलें बहुगुणा और सतपाल अभी भी  यशपाल  आर्य को ही दूसरा कार्यकाल देने के लिए आलाकमान को  किसी तरह से मनवाने में लगे  है ।

बहरहाल भाजपा और कांग्रेस  के लिए आने वाला समय उत्तराखंड में खासा चुनौतीपूर्ण रहने वाला है । छत्रपो के कई गुट ,  सरकार और संगठन को साथ लेकर दोनों दलों को  2013  के मध्य में निकाय , पंचायत  चुनावो का सामना करना है । फिर 2014 में लोक सभा चुनावो की  डुगडुगी  बजेगी । ऐसे माहौल  में सांगठनिक  कौशल  के आसरे ही दोनों दल तमाम  चुनौतियों से पार पा सकते हैं लेकिन मौजूदा दौर में उत्तराखंड में नए सूबेदार के लिए दोनों दलों की नूराकुश्ती थमती नहीं दिख रही है लिहाजा कड़ाके की  ठण्ड में भी उत्तराखंड का राजनीतिक पारा पूरी तरह गर्म है । 



Sunday 13 January 2013

दोस्ती में पड़ी दरार ......

भारतीय  क्रिकेट टीम को वन  डे  सीरीज में 2-1 से हराने के बाद पाकिस्तान की टीम अभी जीत के जश्न से पूरी तरह से सरोबार भी नहीं हुई  थी कि पाकिस्तान ने एक बार फिर अपना घिनौना  चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया ।  पुंछ जिले में  मेंढर सेक्टर के मनकोट  इलाके में बीते मंगलवार हुए हादसे में पाक सेना  की बॉर्डर एक्शन फ़ोर्स के
जवान भारतीय  इलाके में 100 मीटर अन्दर घुस आये और भारतीय  सेना  पर अपना धावा बोल दिया जिसमे लांसनायक सुधाकर सिंह और हेमराज को भारत ने खो दिया । ऐसा करके पकिस्तान ने  नवम्बर 2003 से चले आ रहे  संघर्ष विराम का न केवल उल्लंघन किया बल्कि बर्बर कार्यवाही कर एक भारतीय  जवान हेमराज का सर काट डाला ।  बर्बर कार्यवाही में पाक ने जहाँ  तमाम अन्तरराष्ट्रीय  कानूनों की धज्जियाँ  उड़ाई वहीँ बीते दौर में हुए कारगिल युद्ध की यादो को ताजा करा दिया ।  उस दौर को अगर हम याद करें तो कैप्टन सौरभ कालिया के शव के साथ भी पकिस्तान ने ऐसा ही सलूक किया था और सर कलम करने वाले एक  पाकिस्तानी जवान को 5 लाख रुपये के पुरस्कार से नवाजा था ।

       सुधाकर सिंह  और हेमराज के साथ की गई इस अमानवीय कार्यवाही ने हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है अब पकिस्तान के साथ  किस मुह से हम दोस्ती का हाथ बढ़ाये ? पकिस्तान के साथ दोस्ती का आधार क्या हो वह भी तब जब वह लगातार भारत की पीठ पर छुरा भौंकते  हुए लगातार विश्वासघात ही करता जा रहा है । इस दुस्साहसिक कारवाई  की जहाँ पूरे देश   में निंदा  हुई है वहीँ आम आदमी अब भारतीय नीति नियंताओ से सीधे सवाल पूछ रहा है कि अब समय आ गया है जब पकिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लिए जाएँ तो यह वाजिब सवाल है ।  यही नहीं विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अगर इस बार सरकार  के द्वारा  की  जाने वाली हर कार्यवाही के समर्थन में कदमताल कर रही हैं तो यह सही भी है क्युकि  लगातार होते हमलो से हमारा  धैर्य अब जवाब दे रहा है । बीते एक बरस में लाइन ऑफ़ कंट्रोल  में मुठभेड़  की यह 70 वी घटना है जहाँ पकिस्तान की मंशा इसके जरिये भारत में उन्माद फैलाने की ही रही है ।

     असल में  कारगिल के दौर में भी पकिस्तान ने भारत के साथ ऐसा ही सलूक किया था  ।  हमारे प्रधानमंत्री वाजपेयी रिश्तो  में गर्मजोशी लाने लाहौर बस से गए लेकिन  नवाज  शरीफ  को अँधेरे में रखकर मिया मुशर्रफ  कारगिल की पटकथा तैयार करने में लगे रहे । इस काम में उनको पाक की सेना का पूरा सहयोग मिला था । इस बार की कहानी भी पिछले बार से जुदा नहीं है । अपने कार्यकाल के अन्तिम पडाव पर खड़े पाक सेनाध्यक्ष अशफाक कियानी भारत के साथ रिश्तो को सुधारने के बजाए बिगाड़ना चाहते हैं । यह उनके द्वारा दिए गए हाल के बयानों में साफ़ झलका है । अभी कुछ दिनों पूर्व उन्होंने भारत को चेताते हुए कहा था समय आने पर भारत को माकूल जवाब दिया जायेगा । इसकी परिणति हमारी सेना के दो जवान खोने के रूप मे हुई है । पुंछ   की इस कार्यवाही में कियानी का पाक के सैनिको को  पूरा समर्थन रहा है ।  पाक में सरकार तो नाम मात्र की है वहां पर चलती सेना की ही है और बिना सेना के वहां पर पत्ता भी नहीं हिला हिलता  । कट्टरपंथियों की बड़ी जमात वहां ऐसी है जो भारत के साथ सम्बन्ध सुधरते नहीं देखना चाहती है ।  ऐसी सूरत में अगर हम बार बार उससे दोस्ती का राग  छेड़ते है  तो यह हजम नहीं होता क्युकि  छलावे के सिवा यह कुछ भी नहीं है ।


          दुखद पहलू यह है पाक जहाँ  इस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही में अपना हाथ होने से अब भी साफ़ इनकार कर रहा है वहीँ भारत सरकार  कह रही है वह हमारे सब्र का इम्तिहान नहीं ले तो यह पहेली किसी के गले नहीं उतर रही । आखिर कब तक हम पाक के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहेगे  और बातचीत से मेल मिलाप बढ़ायेंगे जबकि हर मोर्चे पर वह हमको धोखा ही धोखा देता आया है । इस घटना के बाद हमारे नीतिनियंताओ को यह सोचना पड़ेगा  अविश्वास की खाई  में दोनों मुल्को की दोस्ती में दरार पडनी  तय है । अतः अब समय आ गया है जब हम पाक के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ डालें । हमें अपने उच्चायुक्त को पाक से वापस बुला लेना  चाहिए ताकि पाक के चेहरे को पूरी दुनिया में बेनकाब किया जा  सके ।

  मुंबई  में 26/11 के हमलो में भी पाक की संलिप्तता पूरी दुनिया के सामने ना केवल उजागर हुई थी बल्कि पकडे गए आतंकी कसाब ने  यह खुलासा  भी किया हमलो की साजिश पाकिस्तान में रची गई जिसका मास्टर माइंड हाफिज मोहम्मद  सईद  था । हमने मुंबई हमलो के पर्याप्त सबूत पाक को सौंपे भी लेकिन आज तक वह इनके दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाया है । आतंक का सबसे बड़ा मास्टर माईंड हाफिज पाकिस्तान में खुला घूम रहा है और  भारत  के खिलाफ लोगो को जेहाद छेड़ने के लए उकसा भी रहा है लेकिन आज तक हम पाक को हाफिज के मसले पर ढील ही देते रहे हैं  यही कारण  है वहां की सरकार  उसे पकड़ने में नाकामयाब रही है ।  2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हमले के बाद उसके जमात उद  दावा ने  कश्मीर के ट्रेंनिग कैम्पों में घुसकर युवको को  जेहाद के लिए प्रेरित किया । अमेरिका द्वारा उसके संगठन  को प्रतिबंधित  घोषित  करने  और उस पर करोडो डालर के इनाम रखे जाने के बाद भी पाकिस्तान  सरकार  ने उसे कुछ दिन लाहौर की जेल में पकड़कर रखा और जमानत पर रिहा कर दिया । आज  पाकिस्तान  उसे   पाक में होने को सिरे से नकारता रहा है जबकि असलियत यह है पुंछ की इस बर्बर कार्यवाही में हाफिज की संलिप्तता एक बार फिर से उजागर हुई है । बताया जाता है सप्ताह भर पहले उसको
मेंढ़र इलाके से सटे पाकिस्तान के कब्जे वाले पी ओ  के में  देखा गया था जिसने पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के साथ भारत में घुसपैठ बढाने की कार्ययोजना को तैयार किया था ।  भारतीय गृह मंत्रालय भी अब इस बात को मान रहा है उस इलाके में हाफिज नजर आया था । भारत के खिलाफ इस साजिश  को अंजाम देने में उसे पाक की सेना का पूरा सहयोग मिला लेकिन पाकिस्तान को देखिये वह  अपनी सेना की करतूत को इस पूरे मामले में नकार रहा है । अब ऐसे हालातो में हम उससे बेहतर सम्बन्ध कैसे बना सकते हैं ?

 26 / 11 के हमलो के बाद भारत ने  जहाँ कहा था जब तक 26 /11 के दोषियों पर पाक  कार्यवाही नहीं करेगा तब तक हम उससे कोई बात  नहीं  करेंगे लेकिन आज तक उसके द्वारा दोषियों पर कोई कार्यवाही ना किये जाने के बाद भी हम 200 बिलियन व्यापार , वीजा  नियमो में ढील , क्रिकेट के आसरे अगर इस दौर में निकटता बढा रहे हैं तो यह हमारी लुंज पुंज विदेश नीति वाले रवैये को उजागर करता है । पिछले साल भारत दौरे पर आये रहमान मालिक से जब 26 /11 के बारे में हमने पुछा तो उन्होंने कहा इवाइडेंस और आरोपों में भेद होता है । अगर भारत सबूत पेश करता है तो पाक 26/11 के दोषियों को सजा देगा । लेकिन यह कैसा सफ़ेद झूठ  है । भारत तो पहले  ही पाक को सभी सबूत पेश कर  चुका  है लेकिन पाक उस पर कोई कार्यवाही  क्यों नहीं करता ?  अब तो  हर घटना में अपना  हाथ होने से इनकार करना पाक का शगल ही बन गया है । लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर युद्ध विराम तो नाम मात्र का है इसके बावजूद भी उस पूरे इलाके में सैनिको के बीच अकसर तनाव देखा जा सकता है और फायरिंग की घटनाएं आये  दिन होती रहती हैं । सर्द मौसम में कोहरे की आड़ में भारतीय सेना में घुसपैठ की कार्यवाहियां अब पाक की सेना कर  रही है  क्युकि  इस दौर में जम्मू में शांति ही शांति रही है । पाक  का पूरा ध्यान अपने अंदरूनी झगडो  और तालिबान में लगा रहा है । उसे लगता है अगर ऐसा ही जारी रहा तो आने वाले दिनों में कश्मीर उसके हाथ से निकल जायेगा । अतः ऐसे हालातो में वह अब लश्कर और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनो को पी ओ  के  में भारत के खिलाफ एक  बड़ी जंग लड़ने के लिए उकसा रहा  है जिसमे कई कट्टरपंथी संगठन उसे मदद कर रहे हैं । पाक की राजनीती का असल सच किसी से छुपा नहीं है । वहां पर सेना कट्टरपंथियों का हाथ की कठपुतली ही  रही है । सरकार तो नाम मात्र की लोकत्रांत्रिक  है  असल नियंत्रण तो सेना का हर जगह है ।  पाक इस बार यह महसूस कर रहा है अगर समय रहते उसने भारत के खिलाफ अपनी जंग शुरू नहीं की तो कश्मीर का मुद्दा ठंडा पड  जायेगा । अतः वह भारतीय सेना को अपने निशाने पर लेकर कट्टरपंथियों की पुरानी  लीक पर चल निकला है । आने वाले दिनों में अफगानिस्तान से अमरीकी सेनाओ की वापसी  तय मानी जा रही है ।  ऐसे में भारत को चौकन्ना रहने की जरुरत है  क्युकि  अमेरिकी  सैनिको की वापसी के बाद पाक में कई कट्टरपंथी सेना के जरिये भारत में घुसपैठ तेज कर सकते हैं । कश्मीर का राग पाक का पुराना राग है जो दोस्ती के रिश्तो में सबसे बड़ी दीवार है । ऐसे दौर में हमें पाक पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । हमारी सेना को ज्यादा से ज्यादा अधिकार सीमा से सटे इलाको में मिलने चाहिए ।


                         2 जवानो की हत्या के बाद अब भारत को पाक के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए । उसे किसी तरह की ढील नहीं मिलनी चाहिए । पकिस्तान हमारे धैर्य  की परीक्षा ना ले अब ऐसे बयान देकर काम नहीं चलने वाला क्युकि  इस घटना ने हमारे  सैनिकॊ  के मनोबल को   गिराने का काम किया है । पाक के साथ भारत को अब किसी तरह की नरमी नहीं बरतनी चाहिए और कूटनीति के जरिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर उसके खिलाफ माहौल बनाना  चाहिए  साथ ही अमेरिका सरीखे मुल्को से बात कर यह बताना  चाहिए  आतंक के असल सरगना पकिस्तान में  पल रहे हैं और आतंकवाद के नाम पर दी जाने वाली हर मदद का इस्तेमाल पाक दहशतगर्दी फैलाने में कर रहा है । इस समय पाक को  तकरीबन 3 अरब से ज्यादा की सालाना  इमदाद अमेरिका के आसरे मिल रही है जिससे पाक की माली हालत कुछ सुधरी है अन्यथा वहां की अर्थव्यवस्था तो पटरी से उतर चुकी है । आर्थिक विकास  दर  जहाँ लगातार घट रही है वहीँ आतंक के माहौल के चलते कोई नया निवेश नहीं हो पा रहा है । घरेलू गैस से लेकर तेल की बड़ी कीमतों ने संकट बढाया  है तो  वहीँ दैनिक उपभोग की चीजो के दाम आसमान छू रहे हैं । अगर पाक को विदेशो से मिलने वाली मदद इस दौर में बंद हो जाए तो उसका दीवाला निकल जायेगा । ऐसी सूरत में कट्टरपंथियों के हौंसले भी पस्त हो जायेंगे । तब भारत  पी ओ के में चल रहे आतंकी शिविरों को अपना निशाना बना सकता है ।  माकूल कार्यवाही के लिए यही समय बेहतर होगा ।  अब समय आ गया है जब पाक के खिलाफ भारत बातचीत के विकल्पों से इतर कोई बड़ी कार्यवाही की रणनीति  अख्तियार करे क्युकि एक के बाद एक झूठ  बोलकर पाक हमें धोखा दे रहा है और कश्मीर के मसले के अन्तरराष्ट्रीयकरण  के पक्ष में खड़ा है ।

                   आज तक हमने पाक के हर हमले का जवाब बयानबाजी से ही दिया है । भारत सरकार धैर्य , संयम  की दुहाई देकर हर बार लोगो के सामने सम्बन्ध सुधारने की बात दोहराती रहती है ।  इसी नरम रुख से पाक का दुस्साहस इस कदर बढ  गया है  वह हमारे जवानो के शव धड से अलग कर अंतरराष्ट्रीय नियमो का उल्लंघन करता है और कश्मीर पर मध्यस्थता का पुराना राग छेड़ता  रहता है ।यह दौर भारतीय नीति नियंताओ के लिए असली परीक्षा का है  क्युकि  उसी की नीतियां अब पाक के साथ भारत के भविष्य को ने केवल तय कर सकती है बल्कि अंतरराष्ट्रीय  मोर्चे पर यह मामला उसकी कूटनीति के आसरे दुनिया तक पहुच सकता है । लेकिन दुर्भाग्य है वोट बैंक के स्वार्थ के चलते हम अपने जवानो की शहादत का बदला लेने के बजाए धैर्य और संयम की दुहाई देकर पाक के साथ सम्बन्ध हर बार  सुधारने की बात  दोहराते  रहे हैं । दुर्भाग्य है आज इस देश में ना तो इंदिरा गाँधी सरीखा नेतृत्व किसी के पास बचा है और ना ही वाजपेयी सरीखी  विदेश नीति । क्या करें सारी  कवायद तो इस दौर में विदेशी निवेश बढाने और   मनमोहनी  इकोनोमिक्स  के आसरे विकास की लकीर खींचने और अमरीकी कंपनियों को लाभ पहुचाने में लगी है । सीमा पर देश की रक्षा करने वाले जवानो के दुःख दर्द को महसूस करने की छमता किसी राजनेता में नहीं बची है । यही नहीं जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाले शास्त्री सरीखे नेता भी इस दौर में नहीं हैं जो ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली लीक पर चला करते थे । अगर ऐसा होता तो सौरभ कालिया के दौर की पुनरावृत्ति  इस देश में नहीं होती ।

Saturday 12 January 2013

करिश्माई व्यक्तित्व के धनी थे विवेकानंद


150 वां जयंती वर्ष  

भारत के कण कण में कभी देवो का वास था और यहाँ की धरा को कभी  सोने की चिड़िया  भी  कहा जाता था ।  इसी धरा को कई महापुरुषों  ने अपने जन्म से धन्य  किया है ।  त्याग, सहनशीलता, गुरु भक्त और देशभक्त  सरीखे गुणों से युक्त महापुरुष इतिहास के  किसी भी कालखंड में मिलना मुश्किल हैं लेकिन विवेकानन्द जिन्हें उस दौर में नरेन्द्रनाथ नाम से पुकारा जाता था एक ऐसा नाम है जिन्होंने  करिश्माई व्यक्तित्व के किरदार को एक दौर में जिया । आज भी लोग गर्व से उनका नाम लेते हैं और युवा दिलो में  वह  एक आयकन  की भांति बसते हैं ।   इतिहास के पन्नो में विवेकानंद का दर्शन उन्हें एक ऐसे महाज्ञानी व्यक्तित्व के रूप में जगह देता है जिसने अपने ओजस्वी विचारो के द्वारा दुनिया के पटल पर भारत का नाम बुलंदियों के शिखर पर पहुँचाया । उनके द्वारा दिया गया वेदान्त दर्शन भारतीय  दर्शन की एक अनमोल धरोहर है । 

                   विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में विश्वनाथ और भुवनेश्वरी  देवी के घर हुआ था । बचपन में नरेन्द्रनाथ नाम से जाने जाने वले विवेकानंद काफी चंचल प्रवृति के थे । उनकी माता भगवान की अनन्य उपासक थी लिहाजा माँ के सानिध्य में वह भी ईश्वर प्रेमी हो गए । बचपन में विवेकानंद की माँ इन्हें रामायण की कहानी सुनाती  थी तो इसको यह बड़ी तन्मयता से सुनते थे । रामायण में हनुमान के चरित्र ने उस दौर में इनके जीवन को खासा प्रभावित किया ।   साथ ही अपनी माँ  की तरह वह भी शिवशंकर के अनन्य भक्त हो गए । कई बार वह शिव से सीधा साक्षात्कार करते मालूम पड़ते थे और अपनी माँ से कहा करते कि  उनमे शंकर का वास है । यह सब सुनकर इनकी माँ चिंतित हो उठती कि उनका यह बेटा कहीं बाबा सन्यासी ना बन जाए । 


                बचपन से ही नरेन्द्रनाथ पढाई  लिखाई  में रूचि लेने लगे । पढाई  में यह अव्वल दर्जे के छात्र थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है जो चीज एक बार यह पद लेते उसे कभी भूलते नहीं थे ।  गुरुजनों के प्रति इनका सम्मान उस दौर में भी देखते ही बनता था । बड़े होने पर भी गुरु से इनका लगाव बना रहा । विवेकानंद का मानना था कि जीवन में सफल होने के लिए अच्छा  गुरु मिलना जरुरी है क्युकि  गुरु ही अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की तरफ ले जाता है । बचपन से ही गुरु के अलावे आध्यात्मिक  चीजो की तरफ इनका  झुकाव  हो गया और इसी दौरान मुलाकात  राम कृष्ण परमहंस से हुई जिन्होंने इन्हें अपना मानस पुत्र घोषित कर दिया ।  परमहंस की दी हुई हर शिक्षा को विवेकानंद ने अपने जीवन में ना केवल उतारा  बल्कि लोगो को भी इसके जरिये कई सन्देश दिए जिसने आगे बदने की राह खोली ।  जीवन के अंतिम पडाव पर परमहंस सरीखे गुरु ने जब विवेकानंद को अपने पास बुलाया और कहा  अब मेरे जाने की घड़ी  आ गई है तो विवेकानंद बड़े भावुक हो गए लेकिन परमहंस  गुरु ने जनसेवा का जो गुरुमंत्र इन्हें दिया उसका प्रचार , प्रसार विवेकानंद ने देश , दुनिया में किया । विवेकानंद युवा तरुणाई पर भरोसा करते थे और ऐसा मानते थे अगर कुछ नौजवान उनको मिल जाएँ तो वह पूरी मानव जाति  की सोच को बदल सकते हैं ।                                          
            11 सितम्बर  1893 का दिन इतिहास में  अमर है  । इस दिन अमेरिका में विश्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया जिसमे दुनिया के कोने कोने से लोगो ने शिरकत की । उस दौर में भारत के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी इन्ही के कंधो पर थी । गेरुए कपडे पहने विवेकानन्द ने  अपनी वाणी से वहां पर मौजूद जनसमुदाय को मंत्र मुग्ध कर दिया ।  जहाँ सभी अपना भाषण   लिखकर लाये थे  वहीँ विवेकानंद ने अपना मौखिक भाषण दिया । दिल से जो निकला वही बोला और जनसमुदाय के अंतर्मन को मानो  झंकृत ही कर डाला । उनके शालीन अंदाज ने लोगो  को  उन्हें सुनने को मजबूर कर दिया ।  

धर्म की  व्याख्या  करते हुए वह बोले जैसे सभी नदियां  अंत में समुद्र में जाकर मिलती है वैसे ही  वैसे ही दुनिया में अलग अलग धर्म अपनाने वाले मनुष्य को एक न एक दिन  ईश्वर  की शरण में   जाकर ही लौटना पड़ता है । संसार में कोई  धर्म  न बड़ा है और ना ही छोटा । इस तरह उन्होंने यह कहा संसार के सभी धर्म समान है उनमे किसी भी तरह का भेद नहीं है । इस प्रकार उन्होंने अपने ओजस्वी विचारों के जरिये हिंदुत्व की नई परिभाषा उस दौर में गड़ने का काम किया ।                        

1894 में न्यूयार्क में उन्होंने वेदांत सोसाईटी बनाई तो वहीँ 1900 की शुरुवात में सेन फ्रांसिस्को में भी इसकी एक शाखा खोली ।   भारत आकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना भी इनके  प्रयासों से ही हुई । इस दरमियान धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए कई दौरे भी  किये  जहाँ अपने वेदांत दर्शन के जरिये उन्होंने लोगो की सोच बदलने का काम सच्चे अर्थो में किया । विवेकानन्द  के द्वारा दिया गया वेदान्त दर्शन एक अनमोल धरोहर है । विवेकानन्द एक कर्मशील व्यक्ति थे और अपने विचारो के जरिये उन्होंने समाज के सोये जनमानस को जगाने का काम किया ।  वह मानते थे प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे आदर्शो  और भाव का समन्वय होना जरुरी है साथ ही शिक्षा को परिभाषित करते हुए यह कहा अपने पैरो पर खड़ा होने जो चीज सिखाये वह शिक्षा है । 

विवेकानन्द ने वेदांत को नया रूप देकर उसे मोक्ष में बदलने का काम सही मायनों में करके दिखाया । विवेकानन्द को  आज हम इस रूप में याद करे कि  उनके द्वारा दिया गया दर्शन हम अपने में आत्मसात करें, साथ ही अपने जीवन में कर्म को प्रधानता दें तो कुछ बात बनेगीं  । बेहतर होगा युवा पीड़ी उनके विचारो से कुछ सीखे  और उनको आयकन बनाने के बजाए उनकी शिक्षा को अपने में उतारे और प्रगति पथ पर चले ।

Wednesday 9 January 2013

भाजपा का कल्याण ........

चाहे कल्याण सिंह के बारे में कैसे ही कयास क्यों ना लगाये जायें लेकिन उनकी भाजपा में वापसी लगभग  तय मानी जा रही है । इसके संकेत कल्याण  सिंह के भाजपा के प्रति उमड़ रहे प्रेम से दिखाई दे रहे है जब 25 दिसंबर को पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  के जन्म दिन के मौके पर एक कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे कल्याण ने अटल  बिहारी की तारीफों में कसीदे पड़े जिसके बाद उनकी भाजपा में वापसी की पटकथा लगभग तैयार हो चुकी है ।  माना जा रहा है आगामी 21 जनवरी को एक सादे समारोह में उनकी राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का भाजपा में विलय होगा । हालाँकि कल्याण की नजरें फिलहाल  आने वाले लोक सभा चुनावो पर लगी हुई हैं जहाँ अपने बेटे राजवीर के लिए वह लोक सभा चुनावो  की बिसात बिछा  रहे हैं ।  भाजपा भी कल्याण सिंह  के चेहरे और जनाधार को बखूबी समझती है शायद तभी उत्तर प्रदेश में उनके प्रभाव वाली सीटों पर इस बार वह उनको फ्री हैण्ड  दे सकती  है । उत्तर प्रदेश में मिली करारी पराजय ने भाजपा को अपने गिरेबान में झांकने को मजबूर कर दिया है लिहाजा वह फिर से कल्याण की शरण में जाने को मजबूर हुई है ।

                          भाजपा को छोड़ते समय कल्याण का मिजाज कुछ अलग था लेकिन अटल जी के जन्म दिवस पर हिंदुत्व की जैसी राग भैरवी  तान कल्याण ने छेड़ी है उसने भाजपा को भी  पार्टी में वापस लाने को मजबूर कर दिया है । वह भी एक दौर था जब कल्याण ने कभी भाजपा में वापस ना लौटने  की बात  दोहराई थी लेकिन अब लोक सभा चुनावो की बेला पास आते देख कल्याण ने यू टर्न ले लिया है । भाजपा भी इस दौर में उत्तर प्रदेश में  वैंटिलेटर पर है और इस दौर में अकेला कल्याण का ऐसा चेहरा है जिसके बूते वह लगातार नीचे जा रहे अपने प्रदर्शन को  कुछ हद तक सुधार सकती है ।  शायद इसी के मद्देनजर दिल्ली  में भाजपा के संसदीय बोर्ड और शीर्ष नेताओ ने पहली बार कल्याण की  भाजपा में  वापसी  के संकेत दिए हैं ।  हालाँकि संघ उनकी वापसी का शुरू से हिमायती रहा है ।  पार्टी अध्यक्ष गडकरी  उनकी वापसी का रास्ता  उमा भारती  की तर्ज  पर बनाने में  पिछले कुछ समय लगे हुए थे लेकिन यू पी में कल्याण विरोधी बड़ा खेमा उनकी राह में   सबसे बड़ा  रोड़ा बना हुआ था । लेकिन इस बार पार्टी की यू पी में लगातार गिरती हुई साख को देखते हुए कल्याण के मसले पर विरोध के स्वर कुछ  कम हुए हैं और यही वजह है  पहली बार राजनाथ सिंह सरीखे उनके  धुर  विरोधी  नेता कल्याण की भाजपा में वापसी को लेकर आशान्वित हैं । समय समय पर कल्याण के बंगले में होने वाली दोनों की ये मुलाकातें बहती हवा का संकेत तो बीते बरस से दे  ही रही हैं लेकिन दोनों के बीच सीटो के बटवारे को लेकर  अभी भी सहमति  बनती नहीं दिख रही है । साथ ही कल्याण के निर्दलीय सांसद होने से दिक्कतें पेश आ रही है क्युकि  आने वाले लोक सभा चुनावो में कल्याण अपने साथ अपने बेटे राजवीर के लिए भी लोक सभा का टिकट मांग सकते हैं । 


               कल्याण सिंह के जाने के बाद से उत्तर प्रदेश में भाजपा  अपने को अनाथ महसूस कर रही है  क्युकि वर्तमान में कोई नेता उनके जाने से रिक्त हुई जगह की भरपाई नहीं कर पाया । तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण नब्बे के दशक में संघ परिवार का बड़ा चेहरा रहे हैं जिनका नाम बाबरी  विध्वंस  केस में भी  जुड़ा ।  अपने कार्यकाल में यू पी में भाजपा को कल्याण सिंह ने नई  ऊंचाई  पर पहुचाया । राम जन्म भूमि आन्दोलन के  उस दौर में रामलला हम आयेंगे मंदिर यहीं बनायेंगे के नारे कल्याण लगाते जहाँ पाए गए वहीँ उस दौर को अगर हम याद करें अपने को पिछडो के बड़े नेता के तौर पर उन्होंने  स्थापित किया । यही वह दौर भी रहा जब विध्वंस के समय वह 24 घंटे के लिए जेल भी गए और छूट भी आये । उस दौर में कल्याण  को ट्रम्प कार्ड के तौर पर इस्तेमाल कर  भाजपा ने ब्राहमणों , राजपूतो के अलावे पिछडो के एक बड़े वोट बैंक की गोलबंदी अपने पाले में की ।  इसके बाद 1999  में पार्टी नेताओ के कुप्रबंधन ने कल्याण को भाजपा छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था ।  .1999 में उन्होंने अपनी खुद की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी  बनाई  ।   उस दौर में कई लोगो को कल्याण की कुसुम राय  से मित्रता  रास नहीं आई । कुसुम लखनऊ की जब पार्षद हुआ करती थी तो दोनों एक दूजे के करीब आ गए । शास्त्री भवन इसका गवाह रहा । कल्याण कभी  कुसुम की राय को अनसुना नही किया करते थे तभी उनको राज्य सभा का सांसद भी  बनाया ।   उस दौर  में "जहाँ बाबू  जी जायेंगे वहां मैं जाउंगी " के नारे का तो कुसुम ने  जनाजा निकाल दिया  क्युकि  राज्य सभा में  होने के चलते अगर वह भाजपा  का साथ छोडती तो उनको राज्य सभा की  सदस्यता से भी हाथ धोना  पड़ता । खैर कल्याण जान गए पार्टी से बाहर होने का खामियाजा क्या होता है ?    जनवरी 2004 में भाजपा में वापस भी  आ गए । भाजपा ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया  ।  बुलंदशहर  से लोक सभा का चुनाव भी लडाया  लेकिन 20 जनवरी 2009 को भाजपा को फिर से  गुड बाय कहकर मौलाना मुलायम का दामन थाम लिया । इस बार का लोक सभा चुनाव उन्होंने एटा से निर्दलीय जीतकर भाजपा के बड़े नेताओ को आइना दिखा दिया ।  नवम्बर 2009 में फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम की पार्टी की नाक कट गई और मुलायम को कल्याण के चलते भारी नुकसान  उठाना पड़ा जिसके बाद कल्याण ने सपा छोड़ी और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के रथ  पर सवार हुए । 2010 में कल्याण ने अपने को संघ का सच्चा सेवक बताया लेकिन भाजपा में फिर से  शामिल होने को नकार दिया ।       

2009 में कल्याण ने भाजपा इसलिए छोड़ी क्युकि  वह बुलंदशहर से अपने बेटे राजबीर के लिए टिकट मांग रहे थे लेकिन पार्टी आलकमान ने यहाँ से अशोक प्रधान को टिकट दे दिया । खुद आडवानी उस दौर में कल्याण के  खिलाफ चले गए ,कल्याण ने भाजपा को भला बुरा कहा । जाहिर है भाजपा छोड़ने के बाद राष्ट्रवादी क्रांति  पार्टी के जरिये वह लोगो के बीच भी गए लेकिन पार्टी यू पी में कोई बड़ा आधार और संगठन  तैयार नहीं कर सकी । इतना जरुर है कल्याण के  भाजपा छोड़ने के बाद भाजपा  यू  पी में नेताविहीन पार्टी हो गई । रही सही कसर अटल जी के  संसदीय  राजनीती से सन्यास ने पूरी कर दी जिसके बाद भाजपा में अंतर्कलह बढ़ गई । रमापति राम त्रिपाठी ,लाल जी टंडन , अरुण जेटली, राजनाथ सिंह , सूर्या प्रताप शाही  के जरिये भाजपा यू पी के सियासी अखाड़े में उतरी लेकिन विधान सभा चुनावो, पंचायत चुनावो  से लेकर लोक सभा चुनाव तक कुछ ख़ास करिश्मा नहीं कर सकी ।  लाल जी टंडन के पास जहाँ अटल  जी की खडाऊ के सिवाय कुछ नही था तो वहीँ कलराज मिश्र संगठन के आदमी थे जिन्हें पार्टी अक्सर पिछले दरवाजे से राज्य सभा और विधान परिषद  भेजती  थी । यही हाल अरुण जेटली का भी रहा ।  उनका हाल भी राजनाथ सिंह सरीखा हो गया जिन्होंने अपने जीवन में चुनाव लड़ने के बजाए अक्सर कलराज की तरह बैक डोर से ही संसदीय राजनीति की ।  शाही भी राज्य के  सियासी पारे का बैरोमीटर नहीं नाप सके । ऐसी सूरत में यू पी में भाजपा की सेहत गिरनी ही थी । योगी आदित्यनाथ , विनय कटियार को भी पार्टी ने  भाव नहीं दे रही थी जिसके चलते  इनका प्रभाव केवल अपनी  विधान सभा सीटो  तक ही सिमट कर रह गया । रही सही कसर कल्याण ने पार्टी छोड़कर पूरी कर दी ।

                 
 6 दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस का दाग कल्याण पर जरुर लगा लेकिन पिछड़ी जतियो में कल्याण की मजबूत पकड़ का लोहा उनके विरोधी भी मानते हैं । शायद एक दौर में मौलाना मुलायम भी उनको साथ लेकर यू पी के पचास फीसदी वोट अपने पाले में लाने के समीकरण बना रहे थे । अब  कल्याण के भाजपा में वापस आने से भाजपा के वोट बैंक  पर प्रभाव पड़ना  तय है क्युकि उनकी खुद की लोध जाति  पर  पकड़ के साथ ही कुर्मी और अन्य  पिछड़े वर्गों पर पुरानी  ठसक  आज भी बरकरार है ।   कभी कल्याण ने ही उत्तर प्रदेश में विनय कटियार, ओ पी सिंह, रामकुमार वर्मा को राजनीती ककहरा सिखाया था और यह सब चेहरे अति पिछडो का एक बड़ा चेहरा भी बन गए थे । यू पी की तकरीबन 30 लोक सभा सीट जिनमे ,खुर्जा  अलीगढ, बुलंदशहर ,एटा ,इटावा , मैनपुरी, कन्नौज , फतेहपुर, आगरा, जालौन, हमीरपुर, बांदा और झाँसी सरीखे संसदीय इलाके शामिल हैं जहाँ पर कल्याण फैक्टर के प्रभाव को हम आज भी नहीं नकार सकते । ऐसी सूरत में कल्याण की वापसी का लाभ भाजपा को मिलना तय  है ।  पिछडो की तादात यू पी में तकरीबन 52 फीसदी है और कल्याण की पकड़ भी इसी वर्ग में मजबूत है । हिंदुत्व  का बड़ा चेहरा होने से ब्राह्मण भाजपा के पाले में आ सकते हैं । अटल जी  के राजनीती से सन्यास के बाद भाजपा के प्रति ब्राहमणों का रुख सकारात्मक  नहीं  है और यही वजह है इस दौर में वह बसपा और समाजवादी पार्टी के साथ चले गए  । राजपूतो की बड़ी तादात भी इस दौर में भाजपा से नाराज है । ऐसे में कल्याण की वापसी से भाजपा में खलबली जरुर मचेगी । साथ ही भाजपा कल्याण के जरिये उत्तर प्रदेश में अब फिर से अपना हिन्दू कार्ड चल सकती है जिससे बड़े पैमाने पर वोटो का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में हो जाए और यू पी की खोयी हुई जमीन भाजपा पा सके ।  गुजरात में मोदी की वापसी के बाद लखनऊ में लाल जी टंडन के संसदीय इलाके में जिस तरह  मोदी की अटल जी से बड़ी  तस्वीरें लगी दिख रही हैं वह राजनीती के नए मिजाज को बता रही हैं ।  इन परिस्थियों में  मोदी  यू पी के अखाड़े में अपनी बिसात बिछाते अगर आने वाले दिनों में  दिखते  हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।  इस काम में उनको उमा भारती का साथ मिल सकता है ।   ऐसे में वह वरुण गाँधी को अपना बड़ा चेहरा आने वाले चुनावो में बना सकते  है ।
               
                        लेकिन यह सवाल अब भी बना है क्या भाजपा 90 के दशक वाला इतिहास दोहरा पायेगी ? ऐसी पार्टी जो राम मंदिर आन्दोलन की आंधी में केंद्र की सत्ता में आई क्या वह उत्तर प्रदेश में अपनी खोयी जमीन वापस पायेगी यह सवाल अहम होगा ? लेकिन असल सवाल तो कल्याण के सामने खड़ा है क्या भाजपा में वह अपना पुराना खोया हुआ सम्मान हासिल कर पाएंगे ? उनके साथी नेता उन्हें किस रूप में स्वीकारते हैं यह भी देखने वाली बात होगी क्युकि इन्ही पुराने नेताओ की राजनीती ने कल्याण को कभी भाजपा छोड़ने पर मजबूर कर दिया था । ऐसे में भाजपा में कल्याण की वापसी सवालों को पैदा  तो जरुर करेगी ।