Thursday 9 March 2017

नीतीश की नजर मिशन 2019 पर

बिहार  की सत्ता पर ठसक के साथ तीसरी बार काबिज होने वाले जेडीयू अध्यक्ष और सूबे के सीएम नीतीश कुमार ने मिशन 2019 के लिए अभी से मुनादी कर डाली  है । नीतीश ने 2019 लोकसभा चुनाव की ज़मीन तैयार करते हुए भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता को हवा देनी शुरू का दी है ।  11 मार्च के बाद अगर पीएम  मोदी का औरा फीका पड़ता है और भाजपा सकारात्मक परिणाम  पांच राज्यो के विधान सभा चुनावों में हासिल  करने में नाकामयाब रहती है तो  राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ महा गठबंधन  बनाने में नीतीश   उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं  जिससे 2019 में मोदी सरकार की विदाई हो सकेगी । साथ ही उन्होंने उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन  पटनायक को साधकर अपने पत्ते भी खोल दिए हैं । बीते दिनों उन्होंने नवीन पटनायक से मुलाकात में यह भी साफ़ कर दिया आगामी राष्ट्रपति चुनाव में  विपक्ष के प्रत्याशी के तौर पर विपक्ष अपना मजबूत उम्मीदवार उतारने पर विचार कर सकता है । नीतीश का साफ़ मानना है  अगर बीजेपी का हराना है तो तमाम पार्टियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है। नीतीश की हुंकार के बाद लग रहा है कि पी एम  मोदी के खिलाफ 11 मार्च के बाद  वह उसी तरह की गोलबंदी सभी दलों को साधकर करना चाहते हैं जैसा प्रयोग उन्होंने  बिहार में किया  ।मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत की तर्ज पर नीतीश ने  भरोसा ही नहीं उम्मीद जताई है भाजपा को महागठबंधन की तर्ज पर पराजित किया जा सकता है। 

 तो क्या माना जाए नीतीश ने बिहार से निकलकर पहली बार राष्ट्रीय राजनीती में सक्रिय होने के संकेत दे दिए हैं और क्या पहली बार बिहार के महागठबंधन की तर्ज पर सभी दल नीतीश की छाँव तले एकजुट होकर मोदी सरकार के खिलाफ बड़ी मोर्चाबंदी  11  मार्च के बाद  करने जा रहे हैं  । इन शुरुवाती संकेतों को डिकोड करें तो विपक्ष की कमान अपने  हाथ में लेते  ही नीतीश कुमार के निशाने पर अभी से 2019 आ चुका है जिसके खिलाफ वह माहौल बनाने में जुट गए हैं जिसकी शुरुवात आने वाले दिनों में उनके दक्षिण के राज्यो के  सघन दौरे से होने जा रही है । यह भाजपा को शिकस्त देने के लिए गैर भाजपाई दलों को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिश मानी जा सकती है । 
नवीन पटनायक के साथ नीतीश जब मुलाक़ात कर रहे थे  तो उनकी नजरें शायद  भारतीय राजनीती की इस ऐतिहासिक इबारत की ओर भी जा रही थी । शायद इसलिए उन्होंने  11 मार्च से पहले  गैर भाजपा दलों और अपने कार्यकर्ताओ को तैयार  रहने की सलाह इशारो इशारो में दे डाली है । आत्मविश्वास से लबरेज नीतीश  राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन  बनाने में  सिर्फ उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं । उत्प्रेरक किसी भी क्रिया की गति को बढाने में सहायक है  लिहाजा नीतीश की राष्ट्रीय राजनीती में  सार्थकता को कम   नहीं आँका जा सकता ।  वहीँ जद यू को भी उम्मीद है नीतीश की साफ़ छवि और सुशासन बाबू की छवि को ढाल बनाकर 2019 से पहले वह गैर भाजपा दलों को अपने पाले में लाकर गठबंधन में स्वीकार्यता बढ़ा सकते हैं । यूँ  तो  2019 की  चुनावी बिसात अभी बहुत दूर है मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काट की तैयारी नीतीश अभी से करने लगे हैं।विपक्षी दलों  की एकजुटता मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार पर फिट बैठ रही  है  ।   बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव भी उनका इस समय  भरपूर साथ दे रहे हैं। लालू ने तो बीते बरस ही  यहां तक कह दिया कि नीतीश एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे तो हमें खुशी होगी।

उम्मीदों और देश की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर नीतीश  द्वारा भाजपा के खिलाफ गोलबंदी का प्रयोग आसान  नहीं लगता क्युकि  बिना उत्तर प्रदेश फतह किये बिना दिल्ली में अगली सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाने के सपने देखना मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने जैसा है ।  यू पी में  11  मार्च को कांग्रेस सपा महागठबंधन  के मजबूत होने की सूरत में ही नीतीश प्रधान मंत्री पद की दावेदारी कर सकते हैं लेकिन यहाँ  पर भी राजनीती के दिग्गज नेताजी को साधना नीतीश के लिए  आसान नहीं होगा । अतीत में  नेताजी  महागठबंधन  से  बिहार चुनावों से पहले ही खुद बाहर हो चुके हैं  ।  सपा  और बसपा के इर्द गिर्द ही यू पी की  राजनीती घूमती रही है लेकिन  मोदी को रोकने के लिए और नीतीश को पी एम उम्मीदवार बनाने के लिए यह  दोनों दल अपने गिले शिकवे भुलाकर साथ आयेंगे ऐसा कहना दूर की  गोटी है ।  रही बात अजीत सिंह की  तो उनका पश्चिमी यू पी पर जबरदस्त प्रभाव है लेकिन फिलहाल वह  अपने पत्ते 11 मार्च के बाद फैंटने की सूरत में होंगे । ऐसा ही हाल झारखंड के पूर्व  मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का है  जिनका कोई नावलेवा  अब नहीं बचा है ।ममता नीतीश को लेकर साथ आ सकती है लेकिन क्या वह नीतीश को बड़ा चेहरा बनाएगी ?  तो  ऐसे हालातों  में नीतीश के पी एम के  सपनों को भला  कैसे पंख लग पायेंगे ? नीतीश के बारे में कहा जा रहा है वह भविष्य में लोक सभा चुनावों से पहले  अपनी पार्टी जद यू ,राजद,  झारखंड विकास मोर्चा , आर एल  डी का विलय कर जनविकास दल नाम की नई पार्टी खड़ी करना चाहते हैं लेकिन  पांच राज्यों में भाजपा के मजबूत होने के चलते इनका यह प्रयोग पूरे देश में साकार हो पायेगा इसमें संशय है । बिहार देश नहीं है और देश का मतलब इस दौर में बिहार नहीं है । हर राज्य की परिस्थितिया कमोवेश अलग अलग हैं और आज का वोटर भी अब बदल चुका है । राष्ट्रीय राजनीती अपनी जगह है और राज्यों में छत्रपों के वर्चस्व  हो हम नहीं नकार सकते । मुलायम सिंह , मायावती , नवीन पटनायक , ममता ,केजरीवाल, उमर अब्दुल्ला क्यों अपने राज्यों को नीतीश की पार्टी के हवाले कर देंगे और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे ? नीतीश का साथ बिहार में कांग्रेस ने दिया और कांग्रेस ने यू पी में सपा से गठबंधन किया ।  सोनिया का प्रयोग बिहार में सफल रहा लेकिन देश के मसले पर कांग्रेस भी अपनी 132  बरस पुरानी साख क्यों नीतीश के साथ जाने से खोएगी ? वैसे अगर यू पी  में  अखिलेश अच्छा प्रदर्शन कर ले जाते हैं तो वह भी खुद पी एम की कतार में खड़े हो सकते हैं । क्या वह भी नीतीश के नेतृत्व  को स्वीकार कर पाएंगे ?नीतीश कुमार ने  लोकतंत्र की रक्षा के लिए गैर भाजपा दलों से एकजुट होने की अपील  की है।उन्होंने भरोसा दिलाया कि भाजपा विरोधी दलों कांग्रेस वामदल और अन्य क्षेत्रीय दलों को 2019  से पहले एक साथ लाने के लिए प्रयासरत रहेंगे  । 

राजनीती संभावनाओ का खेल है और यहाँ  महत्वाकांशा हिलारे मारती रहती है। इस समय नीतीश के साथ भी यही हो रहा है ।अलग मोर्चा बनाने के  कई बार प्रयास हो चुके हैं मगर यह मोर्चे बहुत दूर तक सफर तय नहीं कर पाए।1996 में नेताजी  ने अपने पैतरे से केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनाने की मंशा पर जहाँ पानी फेरा था वही बाद में  वह रक्षा मंत्री बन गए। 1999  में अटल बिहारी की सरकार गिरने के बाद  अपनी  दूरदर्शिता से कांग्रेस को गच्चा देकर उसे सरकार  बनाने से रोक दिया था । वही नेताजी ने  2004 में न्यूक्लिअर डील पर यू पीए 1 को संसद में विश्वासमत प्राप्त करने में जहाँ मदद की वहीँ  यू पीए 2 के तीन साल के जश्न में वह  शरीक भी  हुए  तो वहीँ मौका आने पर कांग्रेस के साथ रहकर उसी के खिलाफ तीखे तेवर दिखने से बाज नहीं आये । उसकी नीतियों को कोसते हैं और तीसरे मोर्चे का राग अपनी राष्ट्रीय  कार्यकारणी में  कई  बार अलापते रहे  जिसमे वह भाजपा -कांग्रेस दोनों को किनारे कर लोहियावादी, समाजवादी , वामपंथियों को साथ लेकर राजनीति की नई लकीर उसी तर्ज पर खींचते  दिखाई  दिए  जो उन्होंने 1996 में नरसिंह राव के मोहभंग के बाद खींची थी  । इसके बाद देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को साधकर तीसरे मोर्चे का दाव  खेल गया लेकिन यह प्रयोग भी असफल रहा ।  यू पी ए के  दौर में प्रोग्रेसिव  अलाइंस  बनाने  की बातें भी खूब हुई लेकिन चुनाव से पहले यह प्रयोग  भी फुस्स हो गया ।3  बरस पहले  ही लोकसभा चुनाव के समय नेताजी  ने तमाम छोटे दलों को जोड़ कर भाजपा और कांग्रेस के सामने तीसरे मोर्चा के रूप में सशक्त चुनौती पेश करने की पहल की थी पर वह नाकामयाब रहे। अब नीतीश कुमार मोदी का भय दिखाकर सभी पार्टियों को जोड़ने की बात कर रहे हैं। भविष्य में उनकी कोशिश अपनी शराबबंदी की योजना को पूरे देश में प्रचारित करने की है । इसे  ब्रांड इमेज बनाने का कार्य प्रशांत किशोर करने जा रहे हैं । 

   दरअसल जब लोग भाजपा और कांग्रेस से ऊब जाते हैं तब वह तीसरे विकल्प की तरफ चले जाते हैं। लेकिन जब यह दल सत्ता में रहते हैं तो इनके राजनीतिक हित  टकराने लगते हैं।  देश में अब माहौल बदल  चुका है । विकास के नाम पर ही अब वोट मिल रहे हैं इस बात को हमें समझने पड़ेगा । आज का भारत नब्बे के दशक वाला नहीं रहा जब मंडल कमंडल ने देश की राजनीती को झटके में बदल दाल था ।  आज  हर क्षेत्रीय दल का अपना समीकरण है तो पार्टियां भी जातीय  राजनीती के दंगल से अपने को बाहर नहीं निकाल पा रही हैं । देश में क्षेत्रीय स्तर पर सभी विपक्षी दलों के आपस में टकराव हैं। जहां सपा होगी वहां बसपा के लिए साथ देना गवारा नहीं होगा। द्रमुक और अन्नाद्रमुक  एक साथ नहीं होना चाहेंगे। इस तरह अगर देखें तो नीतीश का सभी पार्टियों को साथ लाने का सपना तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक विपक्षी दल अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर न उठें। बड़ा सवाल है क्या 11 मार्च के बाद देश की सियासत बदलेगी ? अगर भाजपा कमजोर हुई और मोदी की साख घाट गयी तो क्या यह विपक्ष  की एकजुटता नया रंग होली के बाद छोड़ेगी ? ये ऐसे सवाल हैं जो इस समय पूरे देश में उमड़ गुमड़ रहे हैं ।  
 राजनीती  की  नई  बिसात  में  11  मार्च को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम  आने के बाद नीतीश कुमार  कुछ ऐसी खिचड़ी पकाना चाह रहे हैं जिससे भाजपा  से इतर एक नयी मोर्चाबंदी केंद्र  में शुरू हो सके जिसकी कमान वह खुद अपने हाथो में लेकर  सियासत  में नई  लकीर खिंच सकें ।  1996  में जब नरसिंहराव सरकार से लोगो का मोहभंग हो गया तो नेताजी ही वह शख्स  थे जिसने समाजवादियो , वामपंथियों, लोहियावादी विचारधारा के लोगो को एक साथ   लाकर उस दौर में शरद पवार के साथ मिलकर एक नई  बिसात केंद्र की राजनीती में चंद्रशेखर को  आगे लाकर बिछाई थी । उसी तर्ज पर  चलते हुए नीतीश  अपना राग गा रहे हैं  ,साथ में तीसरे मोर्चे के लिए भी हामी भरते दिख रहे हैं ।  दशकों  बाद वह  गैर भाजपाई  मोर्चे के लिए अपनी शतरंजी बिसात बिछाने में लग गए हैं ।  11 मार्च के बाद विपक्ष  की एकजुटता का सही से पता चल पायेगा । अगर मोदी का जादू चल गया  तो विपक्ष  की एकता  फीकी पड़  जाएगी और अगर भाजपा हारी तो यह प्रधानमंत्री  की करारी हार होगी क्योंकि इन पांच राज्यों के चुनावों में मुख्य चेहरा मोदी ही रहे जिनके इर्द गिर्द पूरी चुनावी कैम्पैनिंग हुई । राजनीती के अखाड़े में चतुर नीतीश कुमार इस बात को बखूबी समझ  रहे हैं 11  मार्च को  अगर मोदिनोमिक्स की हवा निकलती है तो  भाजपा  के खिलाफ तब विपक्ष पूरा एकजुट नहीं हुआ  तो समय हाथ से निकल जायेगा। वैसे भी नीतीश कुमार के पास  पी ऍम बनने का सुनहरा मौका शायद ही होगा जिसमे  1996 की  तीसरे मोर्चे  से  हुई गलतियों से सीख लेकर एक नई  दिशा में देश को ले जाने का साहस दिखा सकते है । वैसे भी इस समय देश में कांग्रेस ढलान  पर है तो भाजपा  पर भी  11  मार्च को लेकर साढ़े  साती चल रही है । 

11  मार्च के बाद मोदी  के लिए आने वाले ढाई बरस  चुनौतियों  भरे रहेंगे वहीँ नीतीश के सामने भी आने वाले बरसों  में उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है । मोदी के सामने पूरा देश है तो नीतीश के सामने बिहार । मोदी गुजरात मॉडल के बूते जब 7  रेस कोर्स का सफर तय कर सकते हैं तो नीतीश भी अपने बिहार मॉडल और सुशासन बाबू के  शराबबंदी के आसरे देश में नई  लकीर  खींचने का माद्दा तो रखते हैं  शायद यही वजह है  नीतीश  कुमार को लेकर विपक्ष के कैडर मे जोश है और अगर 11 मार्च को भाजपा आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पायी तो केंद्र में मोदी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी । ऐसे में  बिहार मॉडल के आसरे नीतीश दिल्ली जीतने की तैयारी  विपक्ष को एक छतरी तले लाकर कर सकते हैं ।   11 मार्च के बाद तीसरे   मोर्चे की सियासत को आगे बढाने  का  बेहतर समय नीतीश के पास  आ सकता  है । नीतीश  इसके मर्म को शायद समझ भी रहे हैं । ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि राजनीती  के अखाड़े में नीतीश  का 11  मार्च के बाद विपक्ष की एकजुटता  का दाव  कितना कारगर होता है और पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद  विभिन्न राज्यों के छत्रप किस तरह उनके इस कदम पर ताथैय्या  करते हैं । फिलहाल 11  मार्च का इन्तजार हर किसी को है ।

Wednesday 1 March 2017

चुनावी शोर तले मणिपुर पर ख़ामोशी





इस समय देश की सियासत परवान चढ़ रही है । जिधर देखो उधर चुनावी चर्चा चल रही है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस दौर में तमाम न्यूज चैनलों में भी न्यूज़रूम चुनावी दंगल का शो  बनकर रह  गया है । कुछ समय से सभी चैनल पंजाब और यू पी पर जहाँ  पैनी नजर रखे हुए थे वहीँ अभी हाल यह है चुनावी चर्चा केवल और केवल उत्तर प्रदेश के चुनावों तक जाकर सिमट गयी है । राष्ट्रीय मीडिया की बात करें तो तकरीबन 90 फीसदी चर्चा पंजाब और उत्तर प्रदेश  तक है जबकि गोवा , उत्तराखंड सरीखे राज्यों को बमुश्किल 10  फ़ीसदी  प्रतिनिधित्व मिल पाया । शायद इसकी वजह इन राज्यों  का आबादी के लिहाज से छोटा  होना हो सकता है । साथ की केन्द्र  में भी इन राज्यो का वजन कम है क्योंकि यहाँ लोक सभा की बहुत कम सीटें हैं । यही हाल मणिपुर को लेकर भी है । आगामी  4  मार्च और 8  मार्च को वहां पर दो चरण में मतदान होना है लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में मणिपुर की चर्चा नहीं के बराबर है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी मणिपुर से जुड़े सरोकारों की सुध इस दौर में नहीं ले पा रहा है शायद इसलिए क्युकि पूर्वोत्त्तर की समस्याओं पर चर्चा करने की फुरसत मीडिया के पास नहीं है और वहां पर टी आर पी के मीटर भी नहीं लगे हैं जो न्यूज चैनलों को प्रतिस्पर्धा में टॉप  5 तक पहुंच सकें । 

 छोटे से पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की  मीडिया द्वारा अनदेखी कई सवालों को खड़ा करती है । राजनेताओं का मणिपुर सरीखे पूर्वोत्तर के राज्यों से कोई सरोकार नहीं है शायद इसकी वजह यह है  यहाँ से लोकसभा के  2 सांसद हैं इसलिए कांग्रेस और  भाजपा सरीखे राष्ट्रीय दल  भी मणिपुर के मसलो पर चुप्पी साधने से बाज नहीं आते । मणिपुर के जमीनी  हालातों से मीडिया अनजान है । पिछले कुछ समय से वहां पर बड़े पैमाने पर आर्थिक नाकेबंदी चल रही है लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसी लेकर कोई हलचल नहीं है । शायद ही कोई न्यूज़ चैनल ऐसा होगा जिसने  इस चुनाव में मणिपुर के सवालों और आम जनता के सरोकारों से जुडी खबरों को अपने चैनल में प्रमुखता के साथ जगह दी हो । आर्थिक नाकेबंदी की एक आध खबरें प्रिंट मीडिया के माध्यम से ही प्रकाश में आईं  ।

मणिपुर  के हालात बहुत अच्छे नहीं है । चुनावी माहौल  के बीच आज भी मणिपुर के विरुद्ध नाकेबंदी  चल रही है। इसकी शुरूआत नवम्बर में हुई थी जब राज्य  सरकार ने मणिपुर में  नए जिले बनाने की घोषणा की । मणिपुर में जाति और जमीन की खाई दिनों दिन गहराती जा रही है । राज्य में नगा और कूकी समुदाय के बीच पुराना संघर्ष है ।  दोनों समुदायों के बीच हुई हिंसा में कई लोग मारे जा चुके हैं ।  चुनाव के पास होते ही अब संघर्ष तेज हो रहा है और हर पार्टी इस जंग का इस्लेमाल अपने फायदे के लिए करना चाहती है ।  चुनावी बरस में राज्य सरकार द्वारा  मणिपुर के जिले का विभाजन  करने का कदम मणिपुर के लोगों और सरकार के गले की हड्डी बन चुका है।  मणिपुर की कुल जनसंख्या में 60  प्रतिशत लोग मैतई समुदाय से आते हैं ।  ऐसे में साफ है कि राज्य की राजनीति में मैतई समुदाय का वर्चस्व ही पहाड़ और घाटी के बीच बढ़ती दूरियों की एक बड़ी वजह इस चुनाव में  भी है।

 मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी मैतई समुदाय से आते हैं और वह इस चुनाव में मैतई समुदाय को अपने पक्ष में लामबंद कर कांग्रेस की जीत का सपना लगातार चौथी बार भी देख रहे हैं । मणिपुर में कांग्रेस  हैट्रिक लगा चुकी है ।  इबोबा सरकार  मैतई  समुदाय का खुलकर पक्ष लेते रहते हैं जिसे लेकर लोगों में भारी रोष देखा जा सकता है ।  इस चुनाव में पहाड़ और घाटी के बीच ही वोटों का विभाजन होने का अंदेशा है । ख़ास बात यह है मणिपुर में कुल 60 विधानसभा सीटों में से 40 सीटें घाटी में हैं जबकि पहाड़ पर विधानसभा की 20 सीटें हैं ।मैदानी इलाकों का प्रतिनिधित्व जायद होने के चलते पहाड़ के लोगों की सरकार के गठन में उतनी भूमिका नहीं रहती है । ऐसे में  कांग्रेस मैतई समुदाय से बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है और चुनावो से पहले खुलकर उनके पक्ष में लामबंद होती दिखती है । इस बार भी  सरकार ने  नगा बहुल वाले पहाड़ी जिलों का बंटवारा कर दो नए जिले बनाए है जिसने चुनावों से पहले घाटी और पहाड़ के बीच दरार पैदा कर दी है । इसी  कार्ड के चलते इबोबी सरकार चुनाव जीतने का सपना देख रही है । कांग्रेस के खिलाफ  सत्ता विरोधी लहर तो है लेकिन  मैतई समुदाय के पक्ष में माहौल होने के चलते  सत्तारूढ़  कांग्रेस ने सब मैनेज कर लिया है । पूर्वोत्तर में आसाम की तरह भाजपा मणिपुर में अपना वोट बैंक बनाने की जुगत में है । इसके लिए इस बार पार्टी ने पूरी ताकत लगाई है । नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस  के साथ उसका गठबंधन  इसी  का  नतीजा  है । 

  मानवाधिकार कायकर्ता इरोम शर्मिला  भी  राजनीतिक अखाड़े में कूद पड़ी हैं और चुनाव लड़ रही हैं। वह विवादित सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को रद्द किए जाने की मांग करती आ रही हैं। मणिपुर विधानसभा के लिए इरोम शर्मिला की नई नवेली पार्टी, पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस ने  सिर्फ तीन प्रत्याशी ही खड़े किये हैं । शर्मिला स्वयं थोबल विधानसभा क्षेत्र से मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के विरुद्ध लड़ रही हैं।  इरोम शर्मिला ने पार्टी तो बना ली है पर उनके पास धनबल , बाहुबल नहीं है ना ही कार्यकर्ताओं की भारी भरकम फ़ौज जो  राष्ट्रीय दलों का मुकाबला कर सके । मणिपुर की लगभग साठ फीसदी आबादी इम्फाल के इर्द-गिर्द घाटी में रहती है। शेष कुकी, नगा, ज़ोमी कबीले के लोग पहाड़ों में निवास करते हैं। घाटी में मैतेई, मणिपुरी ब्राह्मण, विष्णुप्रिय मणिपुरी के अलावा आबादी का 8.3 प्रतिशत पांगल है जिनका  राजनीति और व्यापार में दखल रहता है। मैतेई आबादी को प्रभावित करने के मकसद से इबोई सिंह ने नये सिरे से जिले बनाने की घोषणा की थी जिसके विरुद्ध नगा बहुल इलाकों में लंबे समय तक नाकेबंदी का मंजऱ था।  इबोबी सिंह  बिना चिंता के मैदान में इस बार भी  डटे  हुए हैं । भाजपा के लिए राह मुश्किल भरी इसलिए भी है  भाजपा को नागा जाति की समर्थक पार्टी के तौर पर पूर्वोत्तर में देखा जाता है । एक मुश्त वोट अगर मैतयी के पड़ते हैं  तो बाजी कांग्रेस के नाम होने में देर नहीं लगेगी इसलिए भाजपा भी यहाँ फूंक फूंक कर कदम रख रही है । 

मैतेयी और नागा जातियों की मौजूद दौर में  खाई  ने नागालैंड और मणिपुर के दोनों राज्यों के बीच भी तनाव पैदा कर दिया है।   यूनाइटेड नागा कौंसिल जैसे गुट मणिपुर से आने वाले ट्रकों और अन्य वाहनों को अपने यहां से गुजरने नहीं देते इसलिए कई  बार मणिपुर की आर्थिक  नाकाबंदी हो चुकी है।राष्ट्रीय मीडिया और  ने मणिपुर की इतनी अधिक अनदेखी की है कि अपने  चैनल में मणिपुर को नहीं के बराबर स्पेस दिया ।  केंद्र सरकार  मणिपुर में एक नवंबर से अनिश्चितकालीन आर्थिक नाकाबंदी को लेकर मूकदर्शक  बनी हुई है । इस नाकेबंदी  की वजह से मणिपुर में लोगों को खाने-पीने समेत जरूरी सामानों की किल्लत पैदा हो गई । पेट्रोल के दाम 350  रुपये लीटर बढ़ गए । रसोई गैस का सिलेंडर 2000 रुपये  तक पहुँच गया । यही नहीं नेशनल हाइवे 2  भी बंद होने से मणिपुर में गुजर बसर कर पाना मुश्किल हो गया लेकिन मीडिया मणिपुर पर खामोश रहा ।   आर्थिक नाकेबंदी का प्रभाव  इंफाल के  कई हिस्सों में देखा जा सकता था जहाँ लोग  कर्फ्यू के साये में जीवन बिता रहे थे । इन इलाकों में नागा समूहों द्वारा  ब्लास्ट भी किये गए । साथ ही  विरोध प्रदर्शन में  वाहनों में आग भी लगी । पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान हिंसा वाले इलाकों में  तमाशा देखते रहे और आंसू गैस से आगे मामला बढ़ नहीं पाया । सीएम ओकराम ईबोबी सिंह के नए जिले बनाने की घोषणा से  नागा समूह ने 1 नवंबर से वहां नाकाबंदी शुरु कर दी जिससे जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ और दिल्ली केंद्रित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मणिपुर के  बदतर हालातों की खबरों को स्पेस देना मुनासिब नहीं समझा । 

मणिपुर में जारी आर्थिक नाकेबंदी और क्षेत्रीय अखंडता को कांग्रेस  ने बड़ा मुद्दा बनाया है और दो तिहाई बहुमत इस बार भी पाने की उम्मीद लगायी है वहीं कांग्रेस ने इस नाकेबंदी के लिए भाजपा को जिम्मेदार बताया है  । ईरोम  बेशक  अखाड़े में हैं लेकिन 3  प्रत्याशियों की ताकत मणिपुर का भाग्य बदलने का माद्दा नहीं रखती है । वह भी तब जब चुनाव हाइटेक हो गया है जहाँ राष्ट्रीय दलों  के वार रूम से सब चीजें  मैनेज हो रही हैं ।   राज्य में भाजपा बीते बरस  से ही सत्ता में आने के सपने देख रही है लेकिन कांग्रेसी नेताओं  के पिटे चेहरों के बूते वह मणिपुर फतह कर जाएगी ऐसा मुश्किल दिखता  है । मणिपुर में  जिलों को विभाजित  करने का कार्ड चलकर मणिपुर में  कांग्रेस ने सत्ता विरोधी लहर को खत्म सा  कर दिया है । कांग्रेस ने जहाँ मैतयी को अपने पक्ष में कर लिया है वहीँ मैदानी इलाकों में भी उसका प्रतिनिधित्व ज्यादा होने से हाथ मजबूत दिख रहा है । पहाड़ी इलाकों में सीटें कम होने से बाजी कांग्रेस के नाम होने के आसार दिख रहे हैं क्योंकि वही सिकंदर बनेगा जिसका सिक्का 40 सीट पर मजबूत होगा । फिलहाल समीकरण कांग्रेस के पक्ष में मजबूत दिखाई दे रहे हैं लेकिन राजनीति की बिसात पर कौन प्यादा बनता है और कौन वजीर इसका फैसला 11 मार्च को चलेगा ।