Tuesday 11 March 2014

नैनीताल से साइकिल की सवारी करने को बेताब एन डी तिवारी



कांग्रेस के कद्दावर नेता और चार बार अविभाजित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे नारायण  दत्त तिवारी समाजवादी पार्टी के टिकट पर आगामी लोक सभा चुनाव में नैनीताल संसदीय सीट से ताल ठोकते नजर आ सकते हैं । बीते एक बरस से नेताजी के साथ  लखनऊ  में  एन डी तिवारी की गलबहियां  उत्तराखंड की राजनीती में कोई नया गुल खिला  सकती  है । अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो एन डी तिवारी   नैनीताल सीट से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार  घोषित किये जा सकते हैं । दरअसल 2009  में  आंध्र प्रदेश के "सीडी" काण्ड  के बाद जहां तिवारी  की  कांग्रेसी आलाकमान से दूरियां  बढ़ गयी  वहीँ चुनावी बरस में तिवारी की राय को कांग्रेस लगातार अनदेखा करती रही है जिसके चलते राजनीतिक  बियावान में तिवारी अपने तरकश से अंतिम तीर आने वाले कुछ दिनों में छोड़ सकते हैं । सूत्र बताते हैं कि  होली से ठीक बाद  चुनाव लड़ने के सम्बन्ध में तिवारी अपने गृहनगर के कुछ करीबियों से परामर्श कर अपने पत्ते खोल सकते हैं । वह  20  मार्च से उत्तराखंड में अपनी पारी ट्वेंटी ट्वेंटी अंदाज में खेलते नजर आ सकते हैं ।  लम्बे समय से लखनऊ में नेताजी और अखिलेश यादव के साथ तिवारी की  इस नई  जुगलबंदी ने उत्तराखंड की सियासत में  अब एक नई लकीर  खींचने की कोशिश की है । नेताजी ने तिवारी को नैनीताल से लड़ने का ऑफर दिया  है जिस पर तिवारी इन दिनों अपनी बिसात  बिछाते नजर आ रहे हैं । कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग नेता और उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के नैनीताल-ऊधमिसंहनगर से समाजवादी पार्टी सपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने की  नैनीताल में चर्चा जोर शोर से  है. इस सीट से तिवारी तीन बार सांसद रह चुके हैं. तीन बार उत्तर प्रदेश और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे एनडी की उत्तराखंड में मान्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक बने आठ मुख्यमंत्रियों में वह ऐसे इकलौते सीएम हैं जिन्होंने काफी खींचतान  के बावजूद अपना  कार्यकाल पूरा किया.

                            सक्रिय  राजनीती में  नारायण  दत्त तिवारी की इस वापसी से  न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस के तमाम दिग्गजों के होश फाख्ता किये हुए हैं शायद यही वजह है हर राजनीतिक दल नैनीताल को लेकर अपने पत्ते खोलने की स्थिति में नहीं है । 8 अक्तूबर, 1925 को नैनीताल के बलूती गांव में पैदा हुए तिवारी आजादी के समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष  रहे  । तिवारी  देश के  ऐसे इकलौते  नेता हैं जो राजनीति में  परोक्ष रूप से सक्रिय हैं. उत्तर प्रदेश में चार बार और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तथा केंद्र में लगभग हर महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रहे तिवारी  की राजनीतिक पारी राजनीती की पिच पर उनकी बैटिंग करने की टेस्ट मैच  स्टाइल को बखूबी बयां करती है । 1952 में काशीपुर से चुनाव जीत कर पहली बार विधानसभा पहुंचे एनडी तिवारी की फिर से चुनावी रजानीति में लौटने की सुगबुगाहट से बड़े-बड़े नेताओं के पसीने इस दौर  में  छूट रहे हैं क्योंकि नैनीताल  सीट पर तिवारी का मजबूत जनाधार रहा है । अपने कार्यकाल में इस तराई के इलाके में तिवारी ने विकास की  जो गंगा बहाई उसकी आज भी विपक्षी काफी  तारीफ़ किया करते हैं  शायद यही वजह है उनके विरोधी भी उनके राजनीतिक कौशल के कायल रहे हैं । वैसे तिवारी के सक्रिय  राजनीतिक जीवन की शुरुवात इसी नैनीताल की कर्मभूमि से ही हुई  ।

 चालीस के दशक में जनान्दोलनों में सक्रिय  रहे तिवारी ने अपनी सियासी पारी को नई  उड़ान इसी नैनीताल संसदीय इलाके  ने जहाँ दी  वहीँ स्वतंत्रता आंदोलन और आपातकाल  के दौर में भी तिवारी ने अपनी भागीदारी से अपनी राजनीतिक कुशलता को बखूबी साबित किया । नारायण दत्त तिवारी नब्बे  के दशक  में   प्रधानमंत्री की कुर्सी से चूक गए थे ।  उस दौर को अगर याद करें तो नरसिंह राव ने चुनाव नहीं लड़ा लेकिन  नरसिंह  राव  पीएम बन गए । अगर तिवारी नैनीताल में नहीं हारते तो शायद वह उस समय देश के प्रधानमंत्री बन जाते । इसके बाद तिवारी की उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के रूप में इंट्री 2002  में हुई । 2002 में उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने पर कांग्रेस आलाकमान ने  हरीश रावत को नकारकर एनडी तिवारी को  सरकार की बागडोर सौंपी। तिवारी उस समय लोकसभा में नैनीताल सीट से ही सांसद  थे लिहाजा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर रामनगर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और रिकार्ड जीत दर्ज कर उत्तराखंड में अपनी  धमाकेदार इंट्री की। तिवारी के   तमाम राजनीतिक कौशल के वाबजूद उनके विरोधी तिवारी को राज्य आंदोलन के मुखर विरोधी नेता के रूप में आये  हैं शायद इसकी बड़ी वजह तिवारी का अतीत में दिया गया वह बयान   रहा जिसमे उन्होंने कहा था उत्तराखंड उनकी लाश पर बनेगा लेकिन इन सब के बीच नारायण  दत्त  तिवारी की गिनती विकास पुरुष के रूप में उत्तराखंड में होती रही है । इसका सबसे बड़ा कारण  यह था उन्होंने अपनी सरकार में विरोधियो के साथ तो लोहा लिया साथ ही विपक्षियो को भी अपनी अदा से खुश रखा । उस दौर में भाजपा पर मित्र विपक्ष के आरोप भी लगे । 

2002 के बाद उन्होंने  कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन 2012 में हल्द्वानी, रामनगर, काशीपुर , विकासनगर,  किच्छा ,जसपुर, रुद्रपुर और गदरपुर में कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए   बड़े रोड शो करके वोट मांगे ।  इस लिहाज से उत्तराखंड में तिवारी फैक्टर की अहमियत को नहीं नकारा जा सकता । 2009  में  हैदराबाद राजभवन "सेक्स स्कैंडल" और  हाल ही में " रोहित  शेखर" पुत्र विवाद के बाद सियासत में उनका सियासी कद घट जरुर गया लेकिन  तिवारी टायर्ड  नहीं हुए बल्कि देहरादून  में   फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का "अनंतवन "  फिर से उनकी  राजनीति का नया  केंद्र बन गया  जहाँ से  उन्होंने लखनऊ  की तरफ अपने कदम बढ़ाये और नेताजी और अखिलेश सरकार को अपना मार्गदर्शन देने का  न केवल काम  किया बल्कि  यू पी के कई सरकारी विभागो की ख़ाक छानकर यह बता दिया अभी भी राजनीती उनकी रग रग में बसी है । भले ही कांग्रेस आलाकमान उनको भाव ना दे लेकिन वह हर किसी को सलाह देने को तैयार हैं । 

अब मुलायम सिंह यादव ने  नारायण दत्त  तिवारी के इसी राजनीतिक कौशल को कैश करने की  योजना  अपने सिपहसालारों   के साथ  बनाई है और सपा तिवारी को आगे कर उत्तराखंड में अपनी पकड़ मजबूत बनाने की योजना को मूर्त रूप देने  में लगी  है । वैसे सपा का उत्तराखंड में खासा जनाधार नहीं है क्युकि  अलग राज्य आंदोलन के दौर में मुलायम की गिनती खलनायक के तौर पर होती आयी है ।  अतीत में रामपुर तिराहा काण्ड ने उनकी इस छवि को खराब किया है वहीँ उत्तराखड में मायावती का हाथी लगातार  इस दौर में पहाड़ की चढ़ाई चढ़ रहा है बल्कि अपना वोट बैंक भी मजबूत कर रहा है । सपा अब  तिवारी को साथ लेकर उन्हें नैनीताल से चुनाव लड़वाकर जहाँ  उत्तराखंड में अपना वोट बैंक मजबूत कर रही है वहीं तिवारी के साथ  ब्राह्मणों  का बड़ा जनाधार होने से सपा अन्य राजनीतिक दलों  के खिलाफ अपना ध्रुवीकरण पडोसी राज्य में कर सकती है । अगर ऐसा होता है तो भाजपा , कांग्रेस और बसपा के जनाधार में सेंध लग सकती है । 

वैसे नैनीताल हाट सीट को लेकर  भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एवं वरिष्ठ नेता बची सिंह रावत के सभी पदों से इस्तीफा देने के बाद पार्टी में उभरी गुटबाजी से भाजपा आलाकमान की  भी चिंताएं बढ़ गई हैं। नैनीताल-ऊधमसिंह नगर लोकसभा सीट से दावेदारी में नाम शामिल नहीं होने से आहत बचदा ने बीते  रविवार को इस्तीफा दे दिया था। बची सिंह रावत ने इस बार के लोकसभा चुनाव में नैनीताल सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई थी। प्रदेश अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत समेत सभी बड़े नेताओं ने उन्हें भरोसा भी दिलाया था। प्रदेश चुनाव कार्यसमिति की बैठक में दावेदारी करने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व सांसद बलराज पासी के अलावा बचदा का नाम भी शामिल था लेकिन अब  बचदा की नाराजगी से भाजपा को नुकसान झेलना पड़ सकता है। मामला हाईकमान तक पहुंचने से पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी की राह में  भी अब रोड़े बिछने लगे हैं। कोश्यारी विरोधी पूरी  लॉबी  अब बचदा के साथ खड़ीहो गई है।   सूत्र बताते हैं लॉबी ने स्पष्ट कर दिया है कि  अगर बचदा को  नैनीताल से टिकट नहीं मिलता है तो   राज्य सभा सदस्य  भगत सिंह कोश्यारी  को भी टिकट नहीं दिया जाना चाहिए ।  ऐसे में चर्चा यह है  भाजपा    पूर्व  केंद्रीय मानव एवं संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी को नैनीताल सीट से चुनाव मैदान में उतार सकती  है । वैसे भी डॉ जोशी की बनारस सीट से मोदी  की दावेदारी की चर्चाये जोर शोर से हैं । केशव कुञ्ज नागपुर से जुड़े सूत्र बताते हैं मोदी के बनारस से लड़ने की सूरत में  डॉ जोशी को कानपुर  से टिकट दिया जाना चाहिए लेकिन बताया जाता है कानपुर  से कलराज मिश्र  लम्बे समय से अपनी दावेदारी जता रहे हैं । ऐसे में डॉ जोशी के लिए नैनीताल सबसे मुफीद  सुरक्षित  सीट नजर आ रही है । अतीत में वह अल्मोड़ा संसदीय सीट से चुनाव में ताल ठोक चुके हैं। डॉ जोशी पहाड़  से ताल्लुक रखते हैं और उनके नैनीताल से लड़ने से मुकाबले में भाजपा आ सकती है । वैसे भी यह सीट कांग्रेस का गढ़  रही है। सपा से एन डी  तिवारी के नैनीताल से लड़ने की सूरत में यहाँ पर मुकाबला रोचक बन  सकता है ।   कांग्रेस के निवर्त मान सांसद  के सी बाबा को फिर कांग्रेस से  टिकट मिलने की सूरत में नैनीताल हाट सीट पर  त्रिकोणीय  मुकाबले  में सभी की नजरें लगी रहेंगी । ऐसे में देखने वाली बात होगी क्या   89  के पड़ाव पर एन डी का करिश्मा   और जादू इस सीट पर चल पायेगा ? 



1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

राजनीति की कहानी किसी फिल्म से कम नहीं।