उत्तराखंड की हरीश रावत की कांग्रेस शासित सरकार पर भी संकट आ गया है । अरुणाचल की तरह कांग्रेस के लिए यहाँ मुश्किलें बढ़ गई हैं | रावत की चार साल पुरानी कांग्रेस सरकार के नौ विधायकों ने बगावती तेवर दिखाकर रावत को अस्थिर करने की तैयारी पूरी कर ली है और बीजेपी के खेमे में चले गए हैं | इन सात विधायकों में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और बर्खास्त कृषि मंत्री हरक सिंह रावत भी शामिल हैं । बागियों की अगुआई कर रहे डॉ. हरक सिंह रावत ने राज्य मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया है । इस बीच कांग्रेस के सभी नौ बागी विधायक भाजपा के 26 विधायकों के साथ दिल्ली पहुंच गए जिन्हें एक चार्टेड प्लेन से दिल्ली लाया गया | दिल्ली पहुंचने पर राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा ने हरीश रावत पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाते हुए कहा कि उनके नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए। वहीं कांग्रेस के बागी विधायक हरक सिंह रावत ने भी कहा कि हरीश रावत की सरकार गिरने के बाद राज्य में एक बेहतर सरकार बन सकेगी। हरक सिंह रावत के मुताबिक उनके साथ बगावत करने वाले कांग्रेसी विधायकों में विजय बहुगुणा, शैलारानी रावत, कुंवर प्रणव चैंपियन, प्रदीप बत्रा, अमृता रावत, सुबोध उनियाल, शैलेंद्र मोहन सिंघल और उमेश शर्मा हैं और इस फेहिरस्त में कई नाम और जुड़ सकते हैं | राजभवन की तरफ से हरीश रावत को सदन में 28 मार्च तक का समय दिया गया है जिसके चलते इस छोटे से राज्य में हार्स ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलने की आशंकाए बढती दिख रही हैं |
गौरतलब है कि उत्तराखंड में विधानसभा की कुल 70 सीटें हैं, एक सीट एंग्लो इंडियन नामित हैं और उसे जोड़ कर सीटों की संख्या 71 पहुंच जाती है। कांग्रेस के पास बहुमत से एक सीट ज्यादा 36 सीटें हैं। बीजेपी के पास 28 सीटें हैं तो बीएसपी की झोली में 2 सीटें हैं । अन्य के खाते में 4 सीटें हैं। एक बड़े जनांदोलन से निकला उत्तराखंड बीते 15 बरस में कई सियासी घटनाओं का गवाह रहा है | वर्ष 2000 में मानसून सत्र में लोकसभा ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन को मंजूरी दी जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को यह अलग राज्य अस्तित्व में आया | चूँकि अविभाजित अंतरिम सरकार में 30 में से 24 विधायक भाजपा के थे लिहाजा भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जहाँ बाहरी नित्यानंद स्वामी की सी एम के रूप में ताजपोशी हुई | नित्यानंद स्वामी के दौर में नौकरशाहों ने नए नवेले ऐसे नेताओं की घिग्गी बाँध दी जिनकी उत्तर प्रदेश में कोई पूछ परख भी नहीं होती थी | नौकरशाही ने इसी दौर से उत्तराखंड में अपने पैर मजबूती के साथ जमाने शुरू कर दिए जिससे यहाँ के नेता असहज हो गए | मजबूर होकर भाजपा को राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों से ठीक चार महीने पहले वरिष्ठ नेता भगत सिंह कोश्यारी को आगे करना पड़ा जो स्वामी की सरकार में उर्जा मंत्री भी थे | कोश्यारी का करिश्मा भी फीका पड़ गया और राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी | कांग्रेस में भी मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो उसके प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत मुख्यमंत्री के स्वाभाविक दावेदार थे लेकिन आलाकमान ने यू पी के चार बार मुख्यमंत्री रहे एन डी तिवारी को उत्तराखंड की पहली निर्वाचित सरकार का मुखिया बनाया | तिवारी के कार्यकाल में सड़क , पर्यटन , शिक्षा , स्वास्थ्य , आई टी, ऊर्जा सेक्टर में बूम आने के दावे जोर शोर से किये गए और उन्हें विकास पुरुष के नाम से नवाजा जाने लगा लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह था तिवारी जी ने राज्य में दिल खोल के सरकारी खजाना लुटाया और अपने पांच बरस के कार्यकाल में 16 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में राज्य के कदम डुबोने में देरी नहीं लगाई | ऊपर से दरोगा भरती , पटवारी भरती , लालबत्ती जैसे विवादों और घोटालों ने उनकी सरकार की मिटटी पलीत कर दी जिसकी बड़ी कीमत उनकी सरकार को 2007 के चुनावों में चुकानी पड़ी जब भाजपा की उत्तराखंड में पूर्ण बहुमत से वापसी हुई लेकिन यहाँ पर भी मुख्यमंत्री पद को लेकर आर पार की लड़ाई जारी रही | विधायक बड़े पैमाने पर कोश्यारी की रहनुमाई कर रहे थे लेकिन आलाकमान ने जनरल खंडूरी को आगे किया | खंडूरी के आते ही नौकरशाही खौफ खाने लगी | खंडूरी ने नौकरशाहों , माफियाओं और खुद अपनी पार्टी के उन नेताओं के नाक में दम कर दिया जो लूट खसोट की कमीशनबाजी से अपनी समानांतर सरकार उत्तराखंड में चलाते आये थे | पहली बार ऐसा लगा उत्तराखंड में कोई ईमानदार मुख्यमंत्री आया है जिसके मन में राज्य के प्रति कुछ करने की तमन्ना है | राज्य में भ्रष्टाचार की गंगा में रोक लगायी जिसके चलते माफियाओं , नौकरशाहों और खुद अपनी पार्टी के नेताओं की आँखों में खंडूरी खटकने लगे जिसके चलते एक षड़यंत्र के चलते भाजपा के नेताओं निशंक और कोश्यारी ने उनको मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से न केवल हटाया बल्कि भाजपा का राज्य में जहाज डुबो दिया जिसके बाद नई उम्मीद और नए युवा नेतृत्व के तहत डॉ निशंक को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया |निशंक भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर उस तिकड़म का सहारा लेने से पीछे नहीं रहे जो रास्ता एन डी तिवारी ने पकड़ा | बिजली, जमीन के प्रोजेक्टों में धांधली, कुम्भ , सिट्जुरिया में घोटाले से निशंक हिट विकेट हो गए और कोश्यारी और जनरल खंडूरी की जुगलबंदी ने उत्तराखंड में फिर से 2012 के चुनावों से पहले जनरल खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया | अपने तीन माह के कार्यकाल में खंडूरी ने जो निर्णय लिए उसकी मिसाल भारतीय राजनीति में देखते को नहीं मिलती यही वजह रही अपनी ईमानदारी के आसरे खंडूरी उस चुनाव में भाजपा का मुख्य चेहरा बने और कांटे की टक्कर के बीच वह भाजपा के जहाज को 31 सीटों तक पार ले गए | यह अलग बात है वह पार्टी के भीतरघात के चलते खुद कोटद्वार से चुनाव हार गए जिसके बाद सूबे में कांग्रेस ने पी डी ऍफ़ की मदद से सरकार बनाई और विजय बहुगुणा को काफी विरोध के बाद मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन केदारनाथ की 2013 की आपदा ने भी खुद उनका विकेट लेने में देरी नहीं की जिसके बाद हरीश रावत की ताजपोशी कांग्रेस ने की |
राज्य में दबाव की परंपरागत रणनीति पर गौर करें तो अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को उन्हीं की पार्टी के बड़े दिग्गज भगत सिंह कोश्यारी , रमेश पोखरियाल निशंक और कुछ नेताओं का भारी विरोध झेलना पड़ा। अंततः उन्हें चुनाव से छह माह पूर्व ही मुख्यमंत्री पद से विदा होना पड़ा। पहली निर्वाचित कांग्रेस की तिवारी सरकार में भी तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हरीश रावत ने सरकार के विरोध में अपने स्वर इस तरह बुलंद किए | उन्हें अपनी सारी ऊर्जा सरकार को बचाने में ही लगानी पड़ी। इसके लिए उन्होंने नेताओं को खुश करने के लिए लालबत्तियां बांटने की जो परंपरा शुरू की उसका असर राज्य को आज तक झेलना पड़ रहा है।भाजपा की खण्डूड़ी सरकार भी अपने जन्म के समय से ही विरोध झेलती रही। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने विरोधी झण्डा इस कदर उठाया कि महज ढाई वर्ष में ही खण्डूड़ी सरकार निपट गई। इसका असर यह हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य में लोकसभा की पांचों सीटें हार गई। पार्टी के अंदरूनी हालात को जानते हुए भी खण्डूड़ी के सिर ही इस हार का ठीकरा फोड़ा गया। इसी तरह निशंक सरकार भी तमाम विरोधों और अंतर्द्वंद्वों के चलते अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। हालांकि निशंक सरकार पर कई विवादों के बादल भी छाये रहे जिनके चलते निशंक को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 31 सीटों के साथ बसपा ,उक्रांद और निर्दलियों पी डी एफ के समर्थन से सत्ता में तो आ गई लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की ताजपोशी से विरोध का खासा बवंडर मचा। बहुगुणा का विरोध इस कदर हुआ कि एकबारगी तो कांग्रेस में टूट होना निश्चित माना जाने लगा। तकरीबन दो वर्ष में ही बहुगुणा की भी मुख्यमंत्री पद से विदाई हो गई और हरीश रावत को राज्य की कमान मिली। हालांकि अधिकतर मुख्यमंत्रियों की असमय विदाई के कई कारण लचर शासन और भ्रष्टाचार के मामले भी कुछ हद तक रहे लेकिन असल में इन सबकी जड़ में सत्ता पाने की महत्वकाक्षाएं और राजनीतिक समीकरण ही मुख्य रहे हैं। आज मुख्यमंत्री हरीश रावत को भी इसी समस्या से जूझना पड़ रहा है।राजनीतिक तौर पर देखा जाये तो हरीश रावत ने केंद्रीय मंत्री रहते विजय बहुगुणा के साथ जो किया वही आज उनके साथ भी किया जा रहा है। एक पुख्ता रणनीति के तहत इस समय भाजपा अपनी बिसात में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले भाजपा में शामिल किये गए सतपाल महाराज को साधकर हरीश रावत सरकार को शहीद करेने की तैयारी में खड़ी है |
हरीश मंत्रिमंडल से निलंबित डॉ हरक सिंह रावत तो शुरुवात से ही हरीश रावत को निशाने पर लेते रहे हैं लेकिन इस बार की बगावत में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत का पूरा साथ मिला है | कुछ समय पूर्व बहुगुणा ने राज्य में विकास कार्यों सरकार की योजनाओं और नीतियों का जायजा लेने के लिए राज्य का दौरा करने की कोशिश की | इसकी आड़ में उन्होंने अपने बगावती इरादे जाहिर कर दिए लेकिन इसके बाद भी हरीश रावत चकमा खा गए |
‘हरीश रावत ’ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उम्मीद थी कि सब कुछ कांग्रेस में सामान्य हो जायेगा लेकिन यहाँ भी मंत्री पद को लेकर और लालबत्ती को लेकर अंदरूनी खींचतान थमी नहीं | छोटा राज्य होने के कारण पार्टी में झगड़े और व्यक्तिगत स्वार्थ इतने अधिक रहे कि अँधा बांटे रेवेड़ी वाली बात उत्तराखंड में हर सरकार में लागू है | जिसको खुश नहीं कर सको वहीँ आँखें तरेर देता है जिससे उत्तराखंड का विकास दूर की कौड़ी लगता है | असल में इसकी सबसे बड़ी वजह नीतियों का देहरादून से संचालित होना और राजनेताओं का अपने आकाओं का एजेंट बना रहना है |
उत्तराखंड की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ पर सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं हो पाया | पहले नीतियां लखनऊ में बनती थी आज देहरादून से नीती नियंता अपना शासन चलाते हैं और छोटा राज्य होने के कारण कमीशनबाजी और लूटखसोट में मिलजुलकर सभी नेताओं के साथ हाथ साफ़ करने में लगे रहते हैं | इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ सत्ता में जो भी दल भागीदार रहा उसका मुख्यमंत्री ठसक के साथ केवल अपनी सरकार ही बचाता रहा । बीते 15 बरस में उत्तराखंड मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बना है और नीतियों के बनने से लेकर उसके इम्प्लिटेशन में मुखिया की ही भागीदारी यत्र , तत्र और सर्वत्र देखी जा सकती है | उत्तराखंड का आम आदमी आज भी विकास की आस में बैठा हुआ है | इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे अविभाजित यूपी में जो नेता ग्राम प्रधान का चुनाव तक नहीं जीत सकते थे वह आज उत्तराखंड में मंत्री और विधायक बनकर अपनी ठसक दिखा रहे हैं और तो और तिवारी जी के शासन में 350 से ज्यादा लालबत्ती बांटने को राज्य के लिए सही नहीं मानने वाले पहाड़ी सी एम ‘रावत ’ भी आज दिल खोलकर अपने लोगों को लालबत्ती से अलंकृत करने में पीछे नहीं रहे हैं |
इन 15 बरस में भले ही हरिद्वार में गंगा में कितना पानी बह चुका हो लेकिन उत्तराखंड से ना तो पहाड़ों से लोगों का पलायन रुका और ना ही लूट खसोट | अविभाजित यू पी का आकार बड़ा था और तब उत्तराखंड के नेता वहां पर अपनी अदद पहचान के लिए तरसा करते थे लेकिन अलग उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद छोटे छोटे विधान सभा इलाके और इकाइयाँ होने से हर किसी के पास लूट करने के कई रास्ते खुल गए जहाँ मंत्री से लेकर माफिया , नौकरशाहों से लेकर ठेकेदारों के काकटेल ने लूट की गंगा में सहभागिता दिखाने में देरी नहीं लगाई और शायद यही वजह रही उत्तराखंड में इन15 बरसों में ऐसी लूट खसोट मची कि जिसकी मिसाल हमें देखने को नहीं मिलती | ईमानदारी का तमगा लिए मुख्यमंत्री ‘हरीश रावत ’ भले ही अपनी सरकार को साफ़ सुथरी बताने से पीछे नहीं दिखाई देते हों लेकिन यह सच किसी से शायद ही छिपा है कि वह अब तक उत्तराखंड की सबसे भ्रष्ट सरकार चला रहे हैं जहाँ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य , पेयजल से लेकर आपदा खनन हर विभाग में खुली लूट चल रही है जहाँ अधिकारी, मंत्री और संतरी तीनों की मिलीभगत और पूरी मशीनरी बहती गंगा में हाथ साफ़ करने में लगी है |
राज्य गठन की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि इसे कोई सशक्त नेतृत्व नहीं मिल पाया | जनरल बी सी खंडूरी ने अपनी अलग पहचान जरूर बनाई लेकिन कड़े फैसले खुद भाजपा के अपने नेताओं को रास नहीं आये जिसके चलते निशंक और कोश्यारी की जोड़ी ने उन्हें ठिकाने लगाने में देरी नहीं लगाई | अनुभव के मामले में तिवारी जी सबसे तजुर्बेकार थे लेकिन उन्होंने भी अपनों के लिए दिल खोल के खजाना खोलने में देरी नहीं लगाई जिससे राज्य पर कर्ज दिनों दिन बढ़ता ही चला गया |
रावत सरकार के संरक्षण में तो उत्तराखंड में माफियाओं का एक बड़ा नेटवर्क पूरे राज्य में सक्रिय है जो मंत्रियो से लेकर नौकरशाहों को साधकर राज्य से मोटा माल बटोरने में लगा हुआ है | यह सब खुला खेल तो मुख्यमंत्री की नाक के नीचे खेला जा रहा | हरीश रावत की चिंता भले ही किसी तरह अपनी सरकार को 2017 तक खींचने की हो लेकिन इससे उत्तराखंड का कुछ भी भला नहीं होने जा रहा है |
बार बार उत्तराखंड के विकास के लिए हिमाचल माडल की बात कही जाती है और यशवंत सिंह परमार सरीखे नेता की चर्चा यहाँ भी होती रही है लेकिन इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ पर परमार सरीखा नेतृत्व तो दूर लीक से अलग हटकर सोचने वाला कोई दूरदर्शी नेतृत्व ही नहीं उभर पाया है | जो नेतृत्व उभरा भी उसे पार्टी के नेताओ ने हटाने के लिए अपनी पूरी उर्जा लगा दी | क्षेत्रीय ताकतों की बात करनी बेमानी है क्युकि वह भी अपने निजी स्वार्थो के चलते सत्ता के तलवे चाटते रहे | राज्य में राष्ट्रीय दलों को पटखनी दे सकने वाली क्षेत्रीय शक्ति की जरूरत हमेशा महसूस की गई। इसके लिए अनुकूल स्थितियां भी पैदा हुईं लेकिन नेताओं की अक्षमता स्वार्थ लोलुपता और अदूरदर्शिता के चलते क्षेत्रीय विकल्प के जो मौके उभरे थे वे भी हाथ से चले गए |
अब तक यहां शासन में रहे भाजपा और कांग्रेस जैसे दल विकास के मोर्चे पर बुरी तरह फेल रहे हैं। भ्रष्टाचार और घोटालों के दर्जनों किस्से मंत्रियों और नौकरशाहों के दामन पर चिपके रहे। आज भी बाहुबल और धनबल पूरी तरह पहाड़ पर हावी है। राज्य में होने वाली नियुक्तियों और राज्य में लगने वाले उद्योगों में पहाड़ियों को दरकिनार किया जा रहा है। यहां के मुख्यमंत्रियों की भूमिका अपने पार्टी हाईकमान की कृपा पर टिकी है । बेचारा मुख्यमंत्री समय-समय पर अपने आकाओं के पार्टी फंड में मोटी रकम न केवल दे रहा है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के बेशकीमती उपहार भी अपने आकाओं के नाम करने में पीछे नहीं है । जिन उद्देश्यों के लिए उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बनाया गया था गया वह सपना धूल धूसरित हो रहा है |
भले ही देवभूमि में हरीश सरकार के खिलाफ बगावत के हुदहुद का पटाक्षेप भले ही 28 मार्च को विधानसभा के पटल पर होगा लेकिन राजनीतिक समीकरण बनाने-बिगाड़ने की एक अहम कड़ी बागियों को मिल चुका दल बदल का नोटिस बन सकता है। माना जा रहा है कि कांग्रेस के सभी नौ बागी विधायकों को भेजे गये इस नोटिस के बाद विधायक दबाव में होंगे। बागी हो चुके नौ विधायकों पर दलबदल कानून के तहत कार्रवाई को राजभवन मान्यता देगा तो यह तय है कि सभी बागी विधायकों को असमय विधायकी से हाथ धोना पड़ेगा जबकि अभी सरकार के पास एक साल का कार्यकाल है। ऐसे में इस बात की उम्मीद की जा रही है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ सीधा टकराव न करने वाले विधायक वापस सरकार के साथ आने का रास्ता भी बचाये हुए हैं।
संविधान के 91वें संशोधन में दलबदल कानून से बचने के लिए किसी भी दल से टूटकर अलग होने के लिए दो तिहाई सदस्यों की आवश्यकता होगी। यानि वर्तमान में कांग्रेस के 36 विधायकों के दल से टूटने के लिए 24 का आंकड़ा चाहिए और वर्तमान में बागी सिर्फ नौ बहुत ही कम हैं। स्पीकर बागियों पर कार्रवाई कर सकते हैं और विधायकों के मन में इस कानून का खौफ उन्हें वापस आने को विवश कर सकता है लेकिन अगर 28 मार्च से पहले यह 9 बागी अन्य असंतुष्टो को साधकर अपना आंकड़ा बड़ा ले जाते हैं तो हरीश रावत की अपनों के जाल में फँस सकते हैं । ऐसी सूरत में कांग्रेस नंबर गेम में भाजपा से पिछड़ कर रह जायेगी | लेकिन विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी बीजेपी और बागी विधायकों ने विधानसभा सचिव चंद्र शर्मा को दिया है । जब तक अविश्वास प्रस्ताव पर फैसला न हो जाये तब तक वह किसी विधायक के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं सकते हैं । ऐसे में उत्तराखंड की विधानसभा की विश्वासमत की जंग दिलचस्प मोड़ पर चली गई है । रूठने और मनाने का सिलसिला चलेगा भी या नहीं फिलहाल तो कुछ नहीं कहा जा सकता ।
उत्तराखंड में चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की स्थानीय ताकतों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थो को हमेशा ज्यादा तरजीह दी जिसके चलते विकल्प की छटपटाहट आज भी उत्तराखंड में करीब से महसूस की जा रही है | उत्तराखंड में विकास के बजाए मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने और बचाने का सियासी ड्रामा राज्य गठन के बाद से ही खेला जा रहा है शायद यही वजह है बीते 15 बरस में यह राज्य 8 मुख्यमंत्रियों का शासन देख चुका है और इन सबके के बीच क्या पता 28 मार्च 2016 आते आते यहाँ पर 9 वें मुख्यमंत्री का सियासी ड्रामा देखने को न मिल जाए ? वैसे भी बीते 15 बरस में उत्तराखंड की पहचान न केवल मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बल्कि गली गली में पनप रहे छुटभइये नेताओं, ठेकेदारों से इतर नहीं बन सकी है |
गौरतलब है कि उत्तराखंड में विधानसभा की कुल 70 सीटें हैं, एक सीट एंग्लो इंडियन नामित हैं और उसे जोड़ कर सीटों की संख्या 71 पहुंच जाती है। कांग्रेस के पास बहुमत से एक सीट ज्यादा 36 सीटें हैं। बीजेपी के पास 28 सीटें हैं तो बीएसपी की झोली में 2 सीटें हैं । अन्य के खाते में 4 सीटें हैं। एक बड़े जनांदोलन से निकला उत्तराखंड बीते 15 बरस में कई सियासी घटनाओं का गवाह रहा है | वर्ष 2000 में मानसून सत्र में लोकसभा ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन को मंजूरी दी जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को यह अलग राज्य अस्तित्व में आया | चूँकि अविभाजित अंतरिम सरकार में 30 में से 24 विधायक भाजपा के थे लिहाजा भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जहाँ बाहरी नित्यानंद स्वामी की सी एम के रूप में ताजपोशी हुई | नित्यानंद स्वामी के दौर में नौकरशाहों ने नए नवेले ऐसे नेताओं की घिग्गी बाँध दी जिनकी उत्तर प्रदेश में कोई पूछ परख भी नहीं होती थी | नौकरशाही ने इसी दौर से उत्तराखंड में अपने पैर मजबूती के साथ जमाने शुरू कर दिए जिससे यहाँ के नेता असहज हो गए | मजबूर होकर भाजपा को राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों से ठीक चार महीने पहले वरिष्ठ नेता भगत सिंह कोश्यारी को आगे करना पड़ा जो स्वामी की सरकार में उर्जा मंत्री भी थे | कोश्यारी का करिश्मा भी फीका पड़ गया और राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी | कांग्रेस में भी मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो उसके प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत मुख्यमंत्री के स्वाभाविक दावेदार थे लेकिन आलाकमान ने यू पी के चार बार मुख्यमंत्री रहे एन डी तिवारी को उत्तराखंड की पहली निर्वाचित सरकार का मुखिया बनाया | तिवारी के कार्यकाल में सड़क , पर्यटन , शिक्षा , स्वास्थ्य , आई टी, ऊर्जा सेक्टर में बूम आने के दावे जोर शोर से किये गए और उन्हें विकास पुरुष के नाम से नवाजा जाने लगा लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह था तिवारी जी ने राज्य में दिल खोल के सरकारी खजाना लुटाया और अपने पांच बरस के कार्यकाल में 16 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में राज्य के कदम डुबोने में देरी नहीं लगाई | ऊपर से दरोगा भरती , पटवारी भरती , लालबत्ती जैसे विवादों और घोटालों ने उनकी सरकार की मिटटी पलीत कर दी जिसकी बड़ी कीमत उनकी सरकार को 2007 के चुनावों में चुकानी पड़ी जब भाजपा की उत्तराखंड में पूर्ण बहुमत से वापसी हुई लेकिन यहाँ पर भी मुख्यमंत्री पद को लेकर आर पार की लड़ाई जारी रही | विधायक बड़े पैमाने पर कोश्यारी की रहनुमाई कर रहे थे लेकिन आलाकमान ने जनरल खंडूरी को आगे किया | खंडूरी के आते ही नौकरशाही खौफ खाने लगी | खंडूरी ने नौकरशाहों , माफियाओं और खुद अपनी पार्टी के उन नेताओं के नाक में दम कर दिया जो लूट खसोट की कमीशनबाजी से अपनी समानांतर सरकार उत्तराखंड में चलाते आये थे | पहली बार ऐसा लगा उत्तराखंड में कोई ईमानदार मुख्यमंत्री आया है जिसके मन में राज्य के प्रति कुछ करने की तमन्ना है | राज्य में भ्रष्टाचार की गंगा में रोक लगायी जिसके चलते माफियाओं , नौकरशाहों और खुद अपनी पार्टी के नेताओं की आँखों में खंडूरी खटकने लगे जिसके चलते एक षड़यंत्र के चलते भाजपा के नेताओं निशंक और कोश्यारी ने उनको मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से न केवल हटाया बल्कि भाजपा का राज्य में जहाज डुबो दिया जिसके बाद नई उम्मीद और नए युवा नेतृत्व के तहत डॉ निशंक को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया |निशंक भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर उस तिकड़म का सहारा लेने से पीछे नहीं रहे जो रास्ता एन डी तिवारी ने पकड़ा | बिजली, जमीन के प्रोजेक्टों में धांधली, कुम्भ , सिट्जुरिया में घोटाले से निशंक हिट विकेट हो गए और कोश्यारी और जनरल खंडूरी की जुगलबंदी ने उत्तराखंड में फिर से 2012 के चुनावों से पहले जनरल खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया | अपने तीन माह के कार्यकाल में खंडूरी ने जो निर्णय लिए उसकी मिसाल भारतीय राजनीति में देखते को नहीं मिलती यही वजह रही अपनी ईमानदारी के आसरे खंडूरी उस चुनाव में भाजपा का मुख्य चेहरा बने और कांटे की टक्कर के बीच वह भाजपा के जहाज को 31 सीटों तक पार ले गए | यह अलग बात है वह पार्टी के भीतरघात के चलते खुद कोटद्वार से चुनाव हार गए जिसके बाद सूबे में कांग्रेस ने पी डी ऍफ़ की मदद से सरकार बनाई और विजय बहुगुणा को काफी विरोध के बाद मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन केदारनाथ की 2013 की आपदा ने भी खुद उनका विकेट लेने में देरी नहीं की जिसके बाद हरीश रावत की ताजपोशी कांग्रेस ने की |
राज्य में दबाव की परंपरागत रणनीति पर गौर करें तो अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को उन्हीं की पार्टी के बड़े दिग्गज भगत सिंह कोश्यारी , रमेश पोखरियाल निशंक और कुछ नेताओं का भारी विरोध झेलना पड़ा। अंततः उन्हें चुनाव से छह माह पूर्व ही मुख्यमंत्री पद से विदा होना पड़ा। पहली निर्वाचित कांग्रेस की तिवारी सरकार में भी तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हरीश रावत ने सरकार के विरोध में अपने स्वर इस तरह बुलंद किए | उन्हें अपनी सारी ऊर्जा सरकार को बचाने में ही लगानी पड़ी। इसके लिए उन्होंने नेताओं को खुश करने के लिए लालबत्तियां बांटने की जो परंपरा शुरू की उसका असर राज्य को आज तक झेलना पड़ रहा है।भाजपा की खण्डूड़ी सरकार भी अपने जन्म के समय से ही विरोध झेलती रही। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने विरोधी झण्डा इस कदर उठाया कि महज ढाई वर्ष में ही खण्डूड़ी सरकार निपट गई। इसका असर यह हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य में लोकसभा की पांचों सीटें हार गई। पार्टी के अंदरूनी हालात को जानते हुए भी खण्डूड़ी के सिर ही इस हार का ठीकरा फोड़ा गया। इसी तरह निशंक सरकार भी तमाम विरोधों और अंतर्द्वंद्वों के चलते अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। हालांकि निशंक सरकार पर कई विवादों के बादल भी छाये रहे जिनके चलते निशंक को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 31 सीटों के साथ बसपा ,उक्रांद और निर्दलियों पी डी एफ के समर्थन से सत्ता में तो आ गई लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की ताजपोशी से विरोध का खासा बवंडर मचा। बहुगुणा का विरोध इस कदर हुआ कि एकबारगी तो कांग्रेस में टूट होना निश्चित माना जाने लगा। तकरीबन दो वर्ष में ही बहुगुणा की भी मुख्यमंत्री पद से विदाई हो गई और हरीश रावत को राज्य की कमान मिली। हालांकि अधिकतर मुख्यमंत्रियों की असमय विदाई के कई कारण लचर शासन और भ्रष्टाचार के मामले भी कुछ हद तक रहे लेकिन असल में इन सबकी जड़ में सत्ता पाने की महत्वकाक्षाएं और राजनीतिक समीकरण ही मुख्य रहे हैं। आज मुख्यमंत्री हरीश रावत को भी इसी समस्या से जूझना पड़ रहा है।राजनीतिक तौर पर देखा जाये तो हरीश रावत ने केंद्रीय मंत्री रहते विजय बहुगुणा के साथ जो किया वही आज उनके साथ भी किया जा रहा है। एक पुख्ता रणनीति के तहत इस समय भाजपा अपनी बिसात में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले भाजपा में शामिल किये गए सतपाल महाराज को साधकर हरीश रावत सरकार को शहीद करेने की तैयारी में खड़ी है |
हरीश मंत्रिमंडल से निलंबित डॉ हरक सिंह रावत तो शुरुवात से ही हरीश रावत को निशाने पर लेते रहे हैं लेकिन इस बार की बगावत में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत का पूरा साथ मिला है | कुछ समय पूर्व बहुगुणा ने राज्य में विकास कार्यों सरकार की योजनाओं और नीतियों का जायजा लेने के लिए राज्य का दौरा करने की कोशिश की | इसकी आड़ में उन्होंने अपने बगावती इरादे जाहिर कर दिए लेकिन इसके बाद भी हरीश रावत चकमा खा गए |
‘हरीश रावत ’ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उम्मीद थी कि सब कुछ कांग्रेस में सामान्य हो जायेगा लेकिन यहाँ भी मंत्री पद को लेकर और लालबत्ती को लेकर अंदरूनी खींचतान थमी नहीं | छोटा राज्य होने के कारण पार्टी में झगड़े और व्यक्तिगत स्वार्थ इतने अधिक रहे कि अँधा बांटे रेवेड़ी वाली बात उत्तराखंड में हर सरकार में लागू है | जिसको खुश नहीं कर सको वहीँ आँखें तरेर देता है जिससे उत्तराखंड का विकास दूर की कौड़ी लगता है | असल में इसकी सबसे बड़ी वजह नीतियों का देहरादून से संचालित होना और राजनेताओं का अपने आकाओं का एजेंट बना रहना है |
उत्तराखंड की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ पर सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं हो पाया | पहले नीतियां लखनऊ में बनती थी आज देहरादून से नीती नियंता अपना शासन चलाते हैं और छोटा राज्य होने के कारण कमीशनबाजी और लूटखसोट में मिलजुलकर सभी नेताओं के साथ हाथ साफ़ करने में लगे रहते हैं | इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ सत्ता में जो भी दल भागीदार रहा उसका मुख्यमंत्री ठसक के साथ केवल अपनी सरकार ही बचाता रहा । बीते 15 बरस में उत्तराखंड मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बना है और नीतियों के बनने से लेकर उसके इम्प्लिटेशन में मुखिया की ही भागीदारी यत्र , तत्र और सर्वत्र देखी जा सकती है | उत्तराखंड का आम आदमी आज भी विकास की आस में बैठा हुआ है | इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे अविभाजित यूपी में जो नेता ग्राम प्रधान का चुनाव तक नहीं जीत सकते थे वह आज उत्तराखंड में मंत्री और विधायक बनकर अपनी ठसक दिखा रहे हैं और तो और तिवारी जी के शासन में 350 से ज्यादा लालबत्ती बांटने को राज्य के लिए सही नहीं मानने वाले पहाड़ी सी एम ‘रावत ’ भी आज दिल खोलकर अपने लोगों को लालबत्ती से अलंकृत करने में पीछे नहीं रहे हैं |
इन 15 बरस में भले ही हरिद्वार में गंगा में कितना पानी बह चुका हो लेकिन उत्तराखंड से ना तो पहाड़ों से लोगों का पलायन रुका और ना ही लूट खसोट | अविभाजित यू पी का आकार बड़ा था और तब उत्तराखंड के नेता वहां पर अपनी अदद पहचान के लिए तरसा करते थे लेकिन अलग उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद छोटे छोटे विधान सभा इलाके और इकाइयाँ होने से हर किसी के पास लूट करने के कई रास्ते खुल गए जहाँ मंत्री से लेकर माफिया , नौकरशाहों से लेकर ठेकेदारों के काकटेल ने लूट की गंगा में सहभागिता दिखाने में देरी नहीं लगाई और शायद यही वजह रही उत्तराखंड में इन15 बरसों में ऐसी लूट खसोट मची कि जिसकी मिसाल हमें देखने को नहीं मिलती | ईमानदारी का तमगा लिए मुख्यमंत्री ‘हरीश रावत ’ भले ही अपनी सरकार को साफ़ सुथरी बताने से पीछे नहीं दिखाई देते हों लेकिन यह सच किसी से शायद ही छिपा है कि वह अब तक उत्तराखंड की सबसे भ्रष्ट सरकार चला रहे हैं जहाँ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य , पेयजल से लेकर आपदा खनन हर विभाग में खुली लूट चल रही है जहाँ अधिकारी, मंत्री और संतरी तीनों की मिलीभगत और पूरी मशीनरी बहती गंगा में हाथ साफ़ करने में लगी है |
राज्य गठन की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि इसे कोई सशक्त नेतृत्व नहीं मिल पाया | जनरल बी सी खंडूरी ने अपनी अलग पहचान जरूर बनाई लेकिन कड़े फैसले खुद भाजपा के अपने नेताओं को रास नहीं आये जिसके चलते निशंक और कोश्यारी की जोड़ी ने उन्हें ठिकाने लगाने में देरी नहीं लगाई | अनुभव के मामले में तिवारी जी सबसे तजुर्बेकार थे लेकिन उन्होंने भी अपनों के लिए दिल खोल के खजाना खोलने में देरी नहीं लगाई जिससे राज्य पर कर्ज दिनों दिन बढ़ता ही चला गया |
रावत सरकार के संरक्षण में तो उत्तराखंड में माफियाओं का एक बड़ा नेटवर्क पूरे राज्य में सक्रिय है जो मंत्रियो से लेकर नौकरशाहों को साधकर राज्य से मोटा माल बटोरने में लगा हुआ है | यह सब खुला खेल तो मुख्यमंत्री की नाक के नीचे खेला जा रहा | हरीश रावत की चिंता भले ही किसी तरह अपनी सरकार को 2017 तक खींचने की हो लेकिन इससे उत्तराखंड का कुछ भी भला नहीं होने जा रहा है |
बार बार उत्तराखंड के विकास के लिए हिमाचल माडल की बात कही जाती है और यशवंत सिंह परमार सरीखे नेता की चर्चा यहाँ भी होती रही है लेकिन इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ पर परमार सरीखा नेतृत्व तो दूर लीक से अलग हटकर सोचने वाला कोई दूरदर्शी नेतृत्व ही नहीं उभर पाया है | जो नेतृत्व उभरा भी उसे पार्टी के नेताओ ने हटाने के लिए अपनी पूरी उर्जा लगा दी | क्षेत्रीय ताकतों की बात करनी बेमानी है क्युकि वह भी अपने निजी स्वार्थो के चलते सत्ता के तलवे चाटते रहे | राज्य में राष्ट्रीय दलों को पटखनी दे सकने वाली क्षेत्रीय शक्ति की जरूरत हमेशा महसूस की गई। इसके लिए अनुकूल स्थितियां भी पैदा हुईं लेकिन नेताओं की अक्षमता स्वार्थ लोलुपता और अदूरदर्शिता के चलते क्षेत्रीय विकल्प के जो मौके उभरे थे वे भी हाथ से चले गए |
अब तक यहां शासन में रहे भाजपा और कांग्रेस जैसे दल विकास के मोर्चे पर बुरी तरह फेल रहे हैं। भ्रष्टाचार और घोटालों के दर्जनों किस्से मंत्रियों और नौकरशाहों के दामन पर चिपके रहे। आज भी बाहुबल और धनबल पूरी तरह पहाड़ पर हावी है। राज्य में होने वाली नियुक्तियों और राज्य में लगने वाले उद्योगों में पहाड़ियों को दरकिनार किया जा रहा है। यहां के मुख्यमंत्रियों की भूमिका अपने पार्टी हाईकमान की कृपा पर टिकी है । बेचारा मुख्यमंत्री समय-समय पर अपने आकाओं के पार्टी फंड में मोटी रकम न केवल दे रहा है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के बेशकीमती उपहार भी अपने आकाओं के नाम करने में पीछे नहीं है । जिन उद्देश्यों के लिए उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बनाया गया था गया वह सपना धूल धूसरित हो रहा है |
भले ही देवभूमि में हरीश सरकार के खिलाफ बगावत के हुदहुद का पटाक्षेप भले ही 28 मार्च को विधानसभा के पटल पर होगा लेकिन राजनीतिक समीकरण बनाने-बिगाड़ने की एक अहम कड़ी बागियों को मिल चुका दल बदल का नोटिस बन सकता है। माना जा रहा है कि कांग्रेस के सभी नौ बागी विधायकों को भेजे गये इस नोटिस के बाद विधायक दबाव में होंगे। बागी हो चुके नौ विधायकों पर दलबदल कानून के तहत कार्रवाई को राजभवन मान्यता देगा तो यह तय है कि सभी बागी विधायकों को असमय विधायकी से हाथ धोना पड़ेगा जबकि अभी सरकार के पास एक साल का कार्यकाल है। ऐसे में इस बात की उम्मीद की जा रही है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ सीधा टकराव न करने वाले विधायक वापस सरकार के साथ आने का रास्ता भी बचाये हुए हैं।
संविधान के 91वें संशोधन में दलबदल कानून से बचने के लिए किसी भी दल से टूटकर अलग होने के लिए दो तिहाई सदस्यों की आवश्यकता होगी। यानि वर्तमान में कांग्रेस के 36 विधायकों के दल से टूटने के लिए 24 का आंकड़ा चाहिए और वर्तमान में बागी सिर्फ नौ बहुत ही कम हैं। स्पीकर बागियों पर कार्रवाई कर सकते हैं और विधायकों के मन में इस कानून का खौफ उन्हें वापस आने को विवश कर सकता है लेकिन अगर 28 मार्च से पहले यह 9 बागी अन्य असंतुष्टो को साधकर अपना आंकड़ा बड़ा ले जाते हैं तो हरीश रावत की अपनों के जाल में फँस सकते हैं । ऐसी सूरत में कांग्रेस नंबर गेम में भाजपा से पिछड़ कर रह जायेगी | लेकिन विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी बीजेपी और बागी विधायकों ने विधानसभा सचिव चंद्र शर्मा को दिया है । जब तक अविश्वास प्रस्ताव पर फैसला न हो जाये तब तक वह किसी विधायक के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं सकते हैं । ऐसे में उत्तराखंड की विधानसभा की विश्वासमत की जंग दिलचस्प मोड़ पर चली गई है । रूठने और मनाने का सिलसिला चलेगा भी या नहीं फिलहाल तो कुछ नहीं कहा जा सकता ।
उत्तराखंड में चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की स्थानीय ताकतों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थो को हमेशा ज्यादा तरजीह दी जिसके चलते विकल्प की छटपटाहट आज भी उत्तराखंड में करीब से महसूस की जा रही है | उत्तराखंड में विकास के बजाए मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने और बचाने का सियासी ड्रामा राज्य गठन के बाद से ही खेला जा रहा है शायद यही वजह है बीते 15 बरस में यह राज्य 8 मुख्यमंत्रियों का शासन देख चुका है और इन सबके के बीच क्या पता 28 मार्च 2016 आते आते यहाँ पर 9 वें मुख्यमंत्री का सियासी ड्रामा देखने को न मिल जाए ? वैसे भी बीते 15 बरस में उत्तराखंड की पहचान न केवल मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बल्कि गली गली में पनप रहे छुटभइये नेताओं, ठेकेदारों से इतर नहीं बन सकी है |
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