Monday 2 February 2009

अगाध आस्था और विश्वास का केन्द्र है : ऋषे स्वर महादेव


उत्तराखंड के पग पग पर देवालयों की कतारे है| इसी कारण यहाँ की धरा को देवभूमि की संज्ञा से नवाजा गया है| अपने बहुत से धार्मिक कार्यो के द्वारा यहाँ की भूमि को अनेक ऋषियों ने धन्य कियाहै| कई साधू महात्माओ ने तो आजीवन यहाँ जनम पाने की आकांशा लिए समाधी तक ली है| प्राचीन समय से ही यहाँ के पौराणिक धर्म स्थलों के प्रति आम जनमानस की गहरी रूचि रही है |आज भी यहाँ के देवालयों में आने वाला हर एक भक्त एक अमित छाप लेकर जाता है और बार बार यहाँ आने की कामना करता है |निराश प्राणी यहाँ आकर सुख शान्ति की अनुभूति करता है| एक तरह से यहाँ की वादियों में डेरा जमाकर व्यक्ति परम पिता प्रभु के दर्शनों की आस में अपना तन मन समर्पित कर देता है उसके मन में किसी भी तरह से अनंत ब्रहम के दर्शनों की जिज्ञासा जाग उठती है|

उत्तराखंड का सीमान्त जनपद चम्पावत अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और रमणीयता के लिए प्रसिद्ध रहा है| यहाँ पर मौजूद बहुत सारे पौराणिक स्थल इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते है | यहाँ पर जहाँ पूर्णागिरी माता का चमत्कारिक मन्दिर है, वहीँ री टा साहब जैसे सर्व धर्म समभाव वाले स्थल भी है |चम्पावत जनपद में बालेश्वर , नागनाथ जैसे मन्दिर भी है जो इसका महत्त्व बताते है ,विश्व प्रसिद्ध "बग्वाल" मेला भी यहीं होता है जिसमे पत्थर युद्ध होता है माता बाराही का मन्दिर विश्व में अपनी ख्याति पाए हुए है|

चम्पावत से तकरीबन १२ किलो मीटर की दूरी पर लोहाघाट नगर स्थित है| चम्पावत से लोहाघाट आने पर ऋषे श्वर महादेव का अनुपम देवालय पर्यटकों का मन मोह लेता है |देव शिव शंकर की यह तपस्थली चारो दिशाओ से देवदार के सघन वनों से भरी पड़ी है| ऐसा माना जाता है की यहाँ पर सप्त ऋषियों ने सतयुग में तपस्या कर भोलेशंकर भगवान् को प्रसन्न किया था |तब शिव शंकर यहाँ प्रकट हुए थे , तभी से लोगो में इसके प्रति आस्था बनीं हुई है |जन शुत्रियो के अनुसार यह भी माना जाता है , यहाँ पर शिव शंकर भगवान् अपने अपने भक्त बाणासुर की रक्षा करने को प्रकट हुए थे और यहीं पर उन्होंने बाणासुर को अपराजेय होने का वर दिया था जो आगे चलकर उसके लिए कई बार लाभकारी साबित हुआ| शिव से अजेय वर पाकर बाणासुर अपने को अपराजेय समझने लगा था|

किन्दवंतिया है इस वर को पाने के बाद बाणासुर युद्ध के मोर्चे पर हर किसी दो दो हाथ करने की ठानता है ,लेकिन कोई वीर सूरमा उसके कद के लिए नही मिल ता है और वह उसे वर दान देकर अपराजेय बनने वाले शिव शंकर भगवान से ही युद्ध करने की ठान लेता है |शिव बाणासुर के घमंड को देखकर उससे रणभूमि में युद्ध करने को तैयार होते है परन्तु पार्वती उनको ऐसा करने से रोक लेती है | अपनी पत्नी के आदेश पर अब शिव बाणासुर से कहते है जिस दिन महल के ऊपर की धवजा धरती पर गिरेगी उसी दिन तुमसे दो दो हाथ करने को कोई तैयार होगा| ऐसा माना जाता है आगे चलकर उस के गिरने पर कृष्ण के साथ शिव का युद्ध हो जाता है तब बाणासुर की रक्षा करने को शिव आते है| युद्ध इतना भयानक होता है की खून की धाराए बहने लगती है खून की धाराएं नदी का रूप धारण कर लेती है |इसी नदी को"लोहावती" नदी कहा जाता है जो मन्दिर के पास से बहती है |बाद में शिव के आग्रह पर कृष्ण बाणासुर को छोड़ देते है और स्वयं कैलाश में चले जाते है| लोगो का मानना है की शंकर यहाँ आने से पहले अपने कुछ बेताल और भेरव को यहाँ छोड़ जाते है जो यहाँ शिव लिंग अपने आराध्य देव के लिए स्थापित कर जाते है , जिसकी आगे चलकर पूजा की जाती है |वर्त्तमान में इसी लिंग ने ताबे में स्थान ग्रहण कर लिया है फिर भी इस शिव लिंग की स्थापना कैसे हुई इस विषय में लोगो में एका नही है?




मन्दिर बहुत से चमत्कारों से भरा है |स्थानीय पुजारी कहते है पुराने समय में अंग्रेजो के काल में भी मन्दिर कई चमक्तारो का साक्षी रहा है |बताते है एक बार एक अंग्रेज ने मन्दिर में गेट पर ताला दाल दिया |उस समय देवता अवतरित हुए थे यह शक्ति "डंगरिया" पर आई थी ताला लगने के बाद जब वह डंगरिया देव के रूप में मन्दिर में आया तो उसने "चावल के " दाने फैककर ताले को अलग कर दिया | सच में वह अद्भुत चमत्कार था |इस शक्ति को देखकर अंग्रेज भी महादेव के आगे नतमस्तक हो गएऔर ताबे का कलश मन्दिर में चदाया |तभी से यहाँ पर विशाल शिव लिंग विराजमान है| कुछ लोगो का मानना है की पास में शव विसर्जन के लिए घाट होने के कारण किसी दिव्य "भूत पिसाच का भी वास है परन्तु यह सभी शिव के गन के रूप में जाने जाते है|

ने मन्दिर के पास बकरी की बलि पुजारी के आदेश की अवहेलनाकर ली |पुजारी के लाख विनय करने के बाद उसने किसी की एक नही सुनी| तभी शिव शंकर उससे गुस्सा हो गएऔर की शुरूवात घनघोर बारिस से हुईजिसने पास में चल रहे निर्माण कार्यो को भारी हानि पहुचायीऔर सवयम वह मुस्लिम युवक अपना मानसिक संतुलन खो बैठा | कहा जाता है आगे चलकर शिव ने उसको माफ्ह किया और उस युवक ने अपने जीवन के शेष बसंत शिव अर्चन में अर्पित कर दिए| तभी से मन्दिर के प्रति लोगो में गहरी आस्था उभरनी शुरू हुई |लोहाघाट में इस मन्दिर को सभी मनो रथो को पूरा करने वाला जाना जाता है |यहाँ की पूजा के द्वारा मनुष्य के सारे कार्य पूरे हो जाते है|

मन्दिर को विकशित करने में श्री श्री १०८ स्वामीजी हीरानंद जी महाराज का बहुत योगदान है |वह ३४ वर्षो से यहाँ पर साधना में तल्लीन है| समय समय पर यहाँ पर धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता रहा है |नवरात्रियों में भी यहाँ पर भक्तो की भारी भीड़ उमड़ पड़ती है| उत्तराखंड में पौराणिक स्थानों की भारी भरमार मौजूद है |वर्त्तमान खंडूरी सरकार के कार्यकाल में तीर्थाटन और धर्मस्व मंतरालय भी बनाया गया है ,परन्तु सरकार की भारी उपेक्षा चलते आज ऐसे धार्मिक स्थल उपेक्षित पड़े है| सरकार को आज जरूरत है की ऋषि स्वर सरीखे धार्मिक स्थलों को लेकर कोई नीति बनाये| कोलिधेक निवासी "चंचल सिंह ढेक" कहते है "
इस मन्दिर की चमत्कारिक देखते ही बनती है|यहाँ पर आने वाला हर पर्यटक एक अमिट याद को लेकर जाता है | सरकार को चाहिए वह ऐसे स्थलों अपनी प्राथामिकताओ में शामिल करे जिससे इस स्थान की कीर्ती दूर दूर तक फेल सकती है |............