18 महीने के कार्यकाल को पूरा करने के बाद नए बरस अमित शाह दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए हैं | इसमें शायद ही किसी को संदेह रहा होगा कि नए बरस में शाह को पार्टी फिर से जिम्मेदारी देने जा रही है | असल में जलगाँव में संघ के सरकार्यवाह और प्रान्त प्रचारक जिस तरीके से संगठन को मथने एकजुट हुए उसी समय शाह की वापसी का रास्ता साफ़ हो गया था | हालाँकि अमित शाह की अगुवाई में दिल्ली के बाद बिहार में मिली करारी हार के बाद से वह भाजपा के मार्गदर्शक मंडल के निशाने पर हैं | गाहे बगाहे पार्टी के ऐसे नेता भी डॉ जोशी और आडवाणी के कैम्प में नजर आये हैं जिनको मोदी कैबिनेट में या तो जगह नहीं मिल सकी और बिहार चुनावों में ऐसे कई नेता हाशिये पर चले गए थे लेकिन बिहार चुनावों के बाद पार्टी में शाह के खिलाफ जिस तरह गोलबंदी शुरू हुई और हार के मंथन के लिए जवाबदेही तय किये जाने की बात दोहराई जाने लगी उससे शाह की दूसरी पारी को लेकर सस्पेंस कायम था | संघ के वरदहस्त के चलते शाह को अभयदान मिल गया| प्रधानमन्त्री मोदी पहले ही सर संघचालक मोहन भागवत के सामने अमित शाह को लेकर रजामंदी जाता चुके थे लिहाजा 11 अशोका रोड में नामांकन की सिर्फ औपचारिकताएं ही बची थी |
2014 में भाजपा को प्रचंड जीत दिलाने वाले अमित शाह फिर से भाजपा के अध्यक्ष चुन लिए गए | अब इसके साथ ही भाजपा और सरकार पर नरेंद्र मोदी की पकड़ पूरी हो गई है। भारत की सबसे बड़ी पार्टी पर अब दो गुजरातियों के हवाले जरूर है लेकिन अमित शाह की दूसरी पारी चुनौतियों भरी रहने के आसार हैं | 2014 में लोक सभा चुनावों में जहाँ उन्होंने भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाया तो वहीँ हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू, झारखंड में भाजपा को सत्तासीन करवाया और 2015 जाते जाते दिल्ली और बिहार की करारी हार ने पार्टी के भीतर अमित शाह के विरोध का लावा पार्टी में बाहर निकाल दिया | दबे सुर में कार्यकर्ताओं के बीच यह जुमला कहा जाने लगा अब पोटली और ब्रीफकेस के सहारे राजनीति करने वालों की नींद उड़ गई है लेकिन शाह ने जिस तरीके से मनमाने ढंग से चुनावी बिसात बिहार और दिल्ली में बिछाई उससे उनकी पार्टी सहयोगियों और विपक्षियों के बीच खूब भद्द पिटी |
साइंस से स्नातक अमित शाह कॉलेज में छात्र नेता रहे। संघ की शाखाओं में बचपन से ही जाते थे और राजनीति में आने से पहले एक स्टॉक ब्रोकर थे। जानकार बताते हैं कि एक वरिष्ठ संघ प्रचारक ने युवा शाह को उस समय संघ और भाजपा में अपनी पैठ बना चुके नरेंद्र मोदी से मिलवाया था। मोदी उन दिनों अपनी टीम बना रहे थे। उन्हें युवा शाह के आत्मविश्वास ने काफी प्रभावित किया। शाह ने मोदी से लालकृष्ण आडवाणी का चुनाव प्रचार संभालने की इच्छा जताई। जिम्मेदारी मिल जाने के बाद शाह ने उसे बखूबी निभाया । आडवाणी के उस चुनाव के बाद शाह ने पार्टी में अच्छी पहचान बना ली। भाजपा और गुजरात की राजनीति को करीब से देखने वाले कई लोग मोदी और शाह के रिश्ते को 80-90 में आडवाणी और मोदी के रिश्ते जैसा बताते हैं। शायद यही कारण है कि मोदी को शाह में अपने उस युवा जोश की झलक दिखी और उन्होंने अपना अभिन्न सहयोगी बना लिया। जब केशुभाई पटेल को हटाकर मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो उससे पहले ही उन्होंने अमित शाह को एक कद्दावर नेता बना दिया था।
2002 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की दोबारा सरकार बनी तो शाह की सूझबूझ और वफादारी देखते हुए सबसे कम उम्र के शाह को गृहराज्य मंत्री बनाया गया। शाह को सबसे अधिक मंत्रालय दिए गए और उन्हें दर्जनों कैबिनेट समितियों का सदस्य बनाया गया। शाह सरीखी माइक्रो मैनेजमेंट की क्षमता कम ही लोगों में है। जब लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा रणनीति बना रही थी तब शाह जानते थे कि यूपी जीते बिना दिल्ली नहीं जीता जा सकता है । पार्टी की यूपी की कमान संभालते ही शाह एक राज्य के नेता से राष्ट्रीय नेता बन गए और मोदी लहर ने शाह को सबसे बड़ा शहंशाह बना डाला ।
दूसरी बार अब कमान शाह के हाथ आई है । वह एक सुलझे हुए नेता है और गुजरात की उस नर्सरी से आते हैं जहाँ भाजपा ने हिंदुत्व का परचम एक दौर में फहराकर सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी । लेकिन इस बार अपनी दूसरी पारी में अमितशाह के पास बहुत कम समय बचा है । पार्टी को इस बरस 5 राज्यों बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी के चुनावी समर में कूदना है जहाँ पर भाजपा का कोई नामलेवा नहीं है | भाजपा असम से बहुत उम्मीद लगाये है तो वहीँ केरल में भी पार्टी संघ के संगठन के बूते थोड़ी बहुत आस लगाये बैठी है | इसके अलावे कोई ऐसा राज्य नहीं है जहाँ भाजपा चमत्कार करने जा रही है | भाजपा की असल मुश्किल बंगाल, तमिलनाडु, पुदुचेरी, केरल है जहाँ पार्टी का कोई मजबूत कैडर नहीं है और इन राज्यों में जिस तरह छत्रप दिनों दिन मजबूत होते जा रहे हैं उससे आगामी चुनावो में भाजपा के लिए सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया है ।
शाह की सबसे बड़ी परीक्षा 2017 में यूपी में होगी | यू पी में भारतीय जनता पार्टी एक दशक से भी अधिक समय से वेंटिलेटर पर लेकिन लोकसभा में मोदीलहर के चलते उसे अभूतपूर्व सफलता मिली थी अब वैसे करिश्मे की उम्मीद बेमानी ही लगती है लेकिन भारतीय जनता पार्टी यह जरूर चाहेगी कि वह यू पी में किंगमेकर की भूमिका में रहे जिससे बसपा के साथ सौदेबाजी कर किसी तरह सरकार चलाई जा सके | वैसे यू पी की मुख्य लड़ाई सपा और बसपा के इर्द गिर्द ही घूमती रही है लिहाजा भाजपा के लिए यहाँ नाक बचाना मुश्किल है |वैसे लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों में भाजपा का सूपड़ा साफ़ रहा था | कोई बड़ा चमत्कार ही यू पी में भाजपा के जहाज को बचा सकता है | फिर यू पी में भाजपा के पास कल्याण सिंह सरीखे चेहरे का भी अभाव है और बिना सर्वमान्य नेता के अभाव में पार्टी की गत बिहार और दिल्ली सरीखी होने के आसार हैं | 2016 के बाद शाह को बड़ी चुनौती मिलने जा रही है | इसके अलावा उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, हिमाचल और गुजरात में भी भाजपा की प्रतिष्ठा सीधे सीधे दाव पर रहेगी जहाँ भाजपा सीधी लड़ाई में है और यहीं पर शाह को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा | अगर भाजपा 2017 में बहुत अच्छा कर लेती है तो 2018 में मध्य प्रदेश , राजस्थान,कर्नाटक, छत्तीसगढ़ सरीखे राज्यों में पार्टी की जीत की संभावनाएं बढ़ जाएगी| इसके अलावा अमित शाह की सबसे बड़ी मुश्किल कार्यकर्ताओं और संगठन के नेताओं से परस्पर संवाद बन गया है |
आडवाणी भले ही संघ प्रमुख भागवत के निर्देशों के बाद मोदी सरकार के खिलाफ कोई बयान देने से बच रहे हैं लेकिन डॉ जोशी पार्टी की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट नेताओं को साधकर नई गोलबंदी की तरफ तेजी से बढ़ते दिखाई दे रहे हैं । अगर शाह की बिहार वाली कार्यप्रणाली में सुधार नही हुआ तो भाजपा की 2017 में मुश्किलें बढ़ सकती हैं । उत्तर प्रदेश में शाह को सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत होगी जहाँ पर लोक सभा चुनावों की सफलता को दोहराना सबसे बड़ी चुनौती होगी क्युकि इसके बाद ही मोदी लहर भावी लोकसभा चुनावों में भाजपा का रास्ता तय करेगी और शाह के चुनावी प्रबंधन की असल परीक्षा होगी क्युकि दिल्ली का रास्ता बिहार से ही होकर जाता है और यू पी ही मोदी सरकार की भावी दिशा और दशा को तय करेगा ।
अमित शाह प्रधानमंत्री खासमखास हैं। इसके कारण ही मोदी ने उन पर भरोसा जताया है । 2017 और 2018 में अगर शाह की कप्तानी में भाजपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव में माहौल भाजपा के पक्ष में जाना तय है लेकिन मौजूदा हालात भाजपा के पक्ष में नहीं हैं । रूपया लगातार लुढक रहा है । आर्थिक सुधारो को गति नहीं मिल पा रही है । औद्योगिक विकास दर भी रुकी हुई है । महंगाई की मार आम जनता पर पड़ रही है लेकिन सरकार कुछ नहीं कर पा रही है । शाह को चाहिए वह ऐसा कुछ करें जिससे आम आदमी सरकार के करीब आये । इसके लिए पार्टी के मंत्रियों को पार्टी मुख्यालय पर बैठाना अनिवार्य करना चाहिए जिससे कार्यकर्ताओं की समस्याओं के साथ जनता की समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिल सके । पश्चिम बंगाल, केरल में अगर भाजपा को कुछ सीटें मिल गई तो यह शाह की उपलब्धि मानी जाएगी। 2017 सही मायनों में अमित शाह के लिए बड़ी चुनौती लेकर आएगा । उत्तर प्रदेश में कमल अगर विधान सभा चुनाव में कमल खिल गया तो पार्टी के लिए उसे भुनाने का भरपूर मौका मिल जाएगा । मौजूदा हालात शाह के लिए अच्छे नहीं हैं । गुजरात , यू पी के कई पंचायत चुनाव में भाजपा को मुह खानी पड़ी है वहीँ शिवराज भी मध्य प्रदेश के चुनावों में कुछ ख़ास सफलता नहीं पा सके हैं । छत्तीसगढ़ में चावल वाले बाबाजी का जलवा भी अब बेअसर है जिसके बाद भाजपा बैकफुट पर आ गयी है ।
नई पारी में नए राज्यों में शाह को चाहिए वह गठबंधन की राजनीती के माध्यम से नए दलों को जोड़ें तो भाजपा को लाभ मिल सकता है ।शाह को दक्षिण में भाजपा के दुर्ग को मजबूत करना होगा साथ ही नए सहयोगी से गठबंधन के लिए नए विकल्प ढूँढने होंगे । इस बार निश्चित ही शाह के लिए बदली परिस्थितिया हैं । लोग मोदी में अभी भी उम्मीद देख रहे हैं लेकिन पार्टी की गुटबाजी आगामी चुनाव में उसका खेल खराब कर सकती है । शाह को इस पर ध्यान देना होगा । सभी को एकजुट करने की भी बड़ी चुनौती उनके सामने है । मोदी का हनीमून पीरियड अब ख़त्म है और मंत्रियों के परफॉरमेंस का आंकलन होना अब जरूरी है । वहीँ संघ को भी बदली परिस्थियों के अनुरूप भाजपा के लिए बिसात बिछाने की जिम्मेदारी शाह के कंधो पर देनी होगी ।
संघ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है वह बहुत जल्द इस दौर में सीनियर नेताओं को किनारे कर शाह की टीम पर भरोसा कर रहा है और कहीं ना कहीं संगठन को लेकर भी बहुत जल्दबाजी दिखा रहा है । अब संघ की कोशिश इसी व्यक्तिनिष्ठता को खत्म करने की होनी चाहिए और यही चुनौती से असल में शाह को भी अब झेलनी है । आज भाजपा को दो नावो में सवार होना है । गुजरात में मोदी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर अपना दक्षिणपंथी चेहरा विकास की तर्ज पर और उम्मीद के रूप में पेश करना होगा जहाँ विकास के मसले पर देश के जनमानस को एकजुट करना होगा जिसकी डगर मुश्किल दिख रही है क्युकि गुजरात की परिस्थितिया अलग थी । वहां मोदिनोमिक्स माडल को हिंदुत्व के समीकरणों और खाम रणनीति के आसरे मोदी ने नई पहचान अपनी विकास की लकीर खींचकर दिलाई लेकिन केंद्र में गठबंधन राजनीती में ऐसी परिस्थितिया नहीं हैं । सरकार के अपने नेतागण आये दिन राम मंदिर , लव जेहाद, ध्रुवीकरण , को लेकर तीर छोड़ते रहते हैं और प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहते हैं जिससे जनता में गलत सन्देश जाता है और मोदी के सबका साथ सबका विकास के नारों की हवा निकल जाती है । ऐसी मुश्किलों से पार्टी को बाहर निकालना होगा । लिहाजा शाह की राह में कई कटीले शूल दिख रहे हैं जिनसे जूझ पाने की गंभीर चुनौती अब उनके सामने है । देखते हैं मोदी के लाडले अमित शाह दूसरी पारी में क्या करिश्मा कर पाते हैं ?
अमित शाह प्रधानमंत्री खासमखास हैं। इसके कारण ही मोदी ने उन पर भरोसा जताया है । 2017 और 2018 में अगर शाह की कप्तानी में भाजपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव में माहौल भाजपा के पक्ष में जाना तय है लेकिन मौजूदा हालात भाजपा के पक्ष में नहीं हैं । रूपया लगातार लुढक रहा है । आर्थिक सुधारो को गति नहीं मिल पा रही है । औद्योगिक विकास दर भी रुकी हुई है । महंगाई की मार आम जनता पर पड़ रही है लेकिन सरकार कुछ नहीं कर पा रही है । शाह को चाहिए वह ऐसा कुछ करें जिससे आम आदमी सरकार के करीब आये । इसके लिए पार्टी के मंत्रियों को पार्टी मुख्यालय पर बैठाना अनिवार्य करना चाहिए जिससे कार्यकर्ताओं की समस्याओं के साथ जनता की समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिल सके । पश्चिम बंगाल, केरल में अगर भाजपा को कुछ सीटें मिल गई तो यह शाह की उपलब्धि मानी जाएगी। 2017 सही मायनों में अमित शाह के लिए बड़ी चुनौती लेकर आएगा । उत्तर प्रदेश में कमल अगर विधान सभा चुनाव में कमल खिल गया तो पार्टी के लिए उसे भुनाने का भरपूर मौका मिल जाएगा । मौजूदा हालात शाह के लिए अच्छे नहीं हैं । गुजरात , यू पी के कई पंचायत चुनाव में भाजपा को मुह खानी पड़ी है वहीँ शिवराज भी मध्य प्रदेश के चुनावों में कुछ ख़ास सफलता नहीं पा सके हैं । छत्तीसगढ़ में चावल वाले बाबाजी का जलवा भी अब बेअसर है जिसके बाद भाजपा बैकफुट पर आ गयी है ।
नई पारी में नए राज्यों में शाह को चाहिए वह गठबंधन की राजनीती के माध्यम से नए दलों को जोड़ें तो भाजपा को लाभ मिल सकता है ।शाह को दक्षिण में भाजपा के दुर्ग को मजबूत करना होगा साथ ही नए सहयोगी से गठबंधन के लिए नए विकल्प ढूँढने होंगे । इस बार निश्चित ही शाह के लिए बदली परिस्थितिया हैं । लोग मोदी में अभी भी उम्मीद देख रहे हैं लेकिन पार्टी की गुटबाजी आगामी चुनाव में उसका खेल खराब कर सकती है । शाह को इस पर ध्यान देना होगा । सभी को एकजुट करने की भी बड़ी चुनौती उनके सामने है । मोदी का हनीमून पीरियड अब ख़त्म है और मंत्रियों के परफॉरमेंस का आंकलन होना अब जरूरी है । वहीँ संघ को भी बदली परिस्थियों के अनुरूप भाजपा के लिए बिसात बिछाने की जिम्मेदारी शाह के कंधो पर देनी होगी ।
संघ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है वह बहुत जल्द इस दौर में सीनियर नेताओं को किनारे कर शाह की टीम पर भरोसा कर रहा है और कहीं ना कहीं संगठन को लेकर भी बहुत जल्दबाजी दिखा रहा है । अब संघ की कोशिश इसी व्यक्तिनिष्ठता को खत्म करने की होनी चाहिए और यही चुनौती से असल में शाह को भी अब झेलनी है । आज भाजपा को दो नावो में सवार होना है । गुजरात में मोदी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर अपना दक्षिणपंथी चेहरा विकास की तर्ज पर और उम्मीद के रूप में पेश करना होगा जहाँ विकास के मसले पर देश के जनमानस को एकजुट करना होगा जिसकी डगर मुश्किल दिख रही है क्युकि गुजरात की परिस्थितिया अलग थी । वहां मोदिनोमिक्स माडल को हिंदुत्व के समीकरणों और खाम रणनीति के आसरे मोदी ने नई पहचान अपनी विकास की लकीर खींचकर दिलाई लेकिन केंद्र में गठबंधन राजनीती में ऐसी परिस्थितिया नहीं हैं । सरकार के अपने नेतागण आये दिन राम मंदिर , लव जेहाद, ध्रुवीकरण , को लेकर तीर छोड़ते रहते हैं और प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहते हैं जिससे जनता में गलत सन्देश जाता है और मोदी के सबका साथ सबका विकास के नारों की हवा निकल जाती है । ऐसी मुश्किलों से पार्टी को बाहर निकालना होगा । लिहाजा शाह की राह में कई कटीले शूल दिख रहे हैं जिनसे जूझ पाने की गंभीर चुनौती अब उनके सामने है । देखते हैं मोदी के लाडले अमित शाह दूसरी पारी में क्या करिश्मा कर पाते हैं ?
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राजनीतिज्ञ के कार्यकाल में एक वर्ष का समय, दो, चार चुनाव अधिक नहीं होते हैं।
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