उनका आत्मविश्वास, साहस और कौशल विलक्षण था। भारतीय राजनीती में योगदान अप्रीतम था। वह ममतामयी थी। अपना जीवन उन्होनें ग्वालियर रियासत और मध्यप्रदेश की प्रगति और विकास के लिए झोंक दिया था। उनका जीवन पूरी तरह से जन सेवा के लिए समर्पित था। वह निडर थी। हमेशा लोगों के बीच रहकर काम करने में उन्हें आनंद आता था । एक तरफ उनमें सादगी, सरलता, संवेदनशीलता की त्रिवेणी बसती थी, वहीँआमजन के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे। देश के मानस पटल पर कभी यदि कुशल नेतृत्व कला दिखाने वाली भारत की महिलाओं की सूची बनेगी तो उसके केन्द्र में सबसे पहले ग्वालियर की राजमाता का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। जब भी भाजपा और जनसंघ के स्वर्णिम इतिहास का जिक्र होगा उसमें ग्वालियर पर राज करने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम सबसे ऊपर जरूर आएगा। राजमाता के नाम से जानी जाने वाली विजयराजे सिंधिया भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक थी।
राजमाता अपने विचारों सिद्धांतों के प्रति हमेशा अडिग रहने वाली थी। भारतीयता में रची बसी वो ऐसी विदुषी जननायिका थी जिन्होंनें महलों की विलासिता और वैभव को छोड़कर हमेशा जनता से जुड़कर न केवल उनकी समस्याओं को उठाया बल्कि संघर्ष करने से कभी नहीं घबराई। इसके लिए सड़क पर उतरकर राजमाता होने के मायने समय -समय पर सबको बताये और राजमाता से लोकमाता बन गई। उन्होनें जीवन पर्यन्त आम इंसान की जिंदगी को शिद्दत के साथ जिया और अपनी जनसेवा की ललक से आम जनता के दिलों में विशेष छाप छोड़ी। राजमाता जन -जन से जुड़ी रही और उनके बीच रहकर महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही। राजमाता के व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था ,जो हर किसी को हमेशा राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करता था। पद और सत्ता की लालसा हर किसी को आज आकर्षित करती है लेकिन राजमाता इन सबसे हमेशा दूर रही।
राजमाता विजय राजे सिंधिया का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जिले में राणा परिवार में ठाकुर महेंद्र सिंह और चूड़ा देवेश्वरी देवी के घर हुआ था। विजया राजे सिंधिया के पिता श्री महेंद्र सिंह ठाकुर और विंदेश्वरी देवी माँ थी। विजयाराजे सिंधिया का पहला नाम रेखा दिव्येश्वरी था। विजया राजे सिंधिया ने अपना जीवन ग्वालियर और मध्य प्रदेश की प्रगति और विकास के लिए समर्पित कर दिया था । अपनी प्रखर क्षमता से उन्होनें भारतीय राजनीती को वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफलता पाई । सही मायने में वे ऐसी विदुषी महिला थी जिन्होंने भारतबोध को जिया और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए कारगर प्रयास हमेशा किए। वे सही मायने में एक राजमाता से ज्यादा समाजसेवा में रची बसी महिला थी जिनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुई थी । ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का मंत्र उनके जीवन का आदर्श था और भारत के आमजन में आज भी उनका नाम आदर और सम्मान से लिया जाता है ।
राजमाता का लालन - पालन उनकी दादी ने किया और अपना बचपन एक आम महिला की तरह बिताया। युवावस्था में उन्होंने बनारस के वसंत कॉलेज और लखनऊ के थोबर्न कॉलेज में अध्ययन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जहां उन्होंने आज़ादी की नई अलख जगाई । आत्मविश्वास से लबरेज होकर उन्होनें समाज के सामने एक अलग छाप छोड़ी। इसी अलहदा पहचान ने ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया का ध्यान आकर्षित किया। जीवाजी राव ने पहली मुलाकात में ही राजमाता से विवाह का फैसला किया जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार किया। विजयाराजे सिंधिया का विवाह 21 फरवरी 1941 को ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से हुआ था। 1950 के दशक में ग्वालियर हिंदू महासभा का गढ़ था । कांग्रेस पार्टी इस परिदृश्य से खुश नहीं थी और अफवाहें फैल रही थी कि यह पार्टी महाराजा के लिए समस्याएं खड़ी करेगी। जीवाजी राव मुंबई में अपने निजी काम में व्यस्त थे, इसलिए राजमाता ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने का फैसला किया और उन्हें समझा दिया कि महाराज कांग्रेस - विरोधी नहीं थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका संदेह तभी दूर होगा जब जीवाजी राव कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। जब राजमाता ने नेहरू को समझाया कि जीवाजी राव का राजनीति में प्रवेश करने का इरादा नहीं है , तो प्रधानमंत्री ने राजमाता को महाराज के स्थान पर खड़े होने के लिए कहा। अगर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी होते तो राजमाता चुनाव लड़ने के लिए राजी हो जातीं और ग्वालियर से जीत जाती लेकिन जीवाजी राव की रक्षा के लिए की गई यह राजनीतिक संधि लंबे समय तक नहीं चली।
1967 के चुनावों से पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा के साथ मतभेदों के बाद राजमाता सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ की ओर से विधानसभा के लिए चुनाव लड़े और एक स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव। वे दोनों चुनाव जीते और औपचारिक रूप से जनसंघ में शामिल होने के बाद विधान सभा के सदस्य बनने का फैसला किया। गोविंद नारायण सिंह को जब मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब राजमाता पर पहली बार लोगों का ध्यान गया। मध्यप्रदेश की विधान सभा रोचक मोड़ उस समय आया जब 36 सदस्यों ने अपना समर्थन वापस ले लिया और गोविन्द नारायण सिंह की सरकार को गिरा दिया। उस दौर को याद करें तो पहली बार मध्य प्रदेश पहली बार ‘कांग्रेस - मुक्त ’ हो गया जिसमें परदे के पीछे राजमाता की बिछाई बिसात ने काम किया। संयुक्त विधानमंडल नाम की एक संधि सरकार का गठन उस दौर में किया गया था जिसकी अध्यक्षता खुद राजमाता ने की।
मध्यप्रदेश में उस दौर में कांग्रेस की सरकार थी और द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री थे। एक दिन एक मीटिंग में मिश्र ने राजमाता को इंतजार करा दिया। उस समय हुए एक छात्र आंदोलन के कारण विजयाराजे और सीएम के बीच मनमुटाव चल रहा था। इस इंतजार ने उस मनमुटाव में आग में घी की तरह काम किया और राजमाता इसे अपना अपमान मान बैठी। वहां से जब राजमाता लौटी तो उन्होंने कांग्रेस सरकार के गिराने का संकल्प कर लिया। विजयाराजे कांग्रेस छोड़ जनसंघ से जा मिली और मिश्रा सरकार को गिराने की तैयारियों में जुट गईं। राजमाता ने इसके लिए कांग्रेस विधायकों को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया। देर रात तक विधायकों को तोड़ने की रणनीति गोविंद नारायण सिंह के साथ बनाई। जब विधायकों की संख्या 36 हो गई तो राजमाता ने उन्हें दो गोपनीय स्थानों पर रखा। अगले रोज इन विधायकों को राजमाता की बस में बैठाकर ग्वालियर ले जाया गया। यहां विधायकों को विजयाराजे ने बसों में बैठाकर दिल्ली भेज दिया गया। इस तरह राजमाता के आशीर्वाद से गोविंद नारायण को सीएम की कुर्सी मिल गई। राजमाता ने यहां विधायकों की मुलाकात मोरारजी देसाई और यशवंतराव चव्हाण से करवाई। विधायकों को जब वापस भोपाल लाया गया तो फिर विजयाराजे ने अपनी निजी सुरक्षा में ही इन्हें वापस लेकर आई। विधायकों के आने के बाद डीपी मिश्रा को इस्तीफा देना पड़ गया। अपनी मजबूत किलेबंदी से जिस दिन उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस सरकार को पलट दिया और गठबंधन सरकार बनाई । पहली बार मप्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी। 'संयुक्त विधायक दल' नाम के गठबंधन ने सरकार बनाई जिसमें राजमाता सर्वोच्च नेता बनीं और सिंह मुख्यमंत्री। हालांकि यह प्रयोग डेढ़ साल चल सका और फिर राजमाता व सिंह के बीच मतभेद हो गए और तत्कालीन मुख्यमंत्री मिश्र की कांग्रेस सरकार गिराने वाले सिंह फिर कांग्रेस में चले गए। उसी समय भारतीय राजनीतिक के फलक पर राजमाता सूर्य की भांति चमकी और जनता की सेवा के लिए राजमाता जनसंघ में शामिल हुई।
जनसंघ में एक प्रभावशाली और सबसे लोकप्रिय नेताओं में से राजमाता एक थी। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी की लहर का सामना किया और ग्वालियर क्षेत्र में तीन सीटें जीती। एक बार अटल जी और आडवाणी जी ने उनसे जनसंघ के अध्यक्ष बनने का आग्रह किया था लेकिन उन्होंने एक कार्यकर्ता के रूप में ख़ुशी ख़ुशी जनसंघ की सेवा करना स्वीकार किया। राजमाता ने अपना वर्तमान राष्ट्र के भविष्य के लिए समर्पित कर दिया था। राजमाता पद और प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीती थीं, न ही उन्होंने राजनीति की थी लेकिन जब उसने भगवान की पूजा की तो उनके मंदिर में भारत माता की बड़ी तस्वीर भी थी जो माटी के प्रति उनके अनुराग को दिखाता है। उनकी उनकी सेवाओं को सारे देश ने देखा और उसके स्पंदन को बखूबी महसूस किया। उनकी राष्ट्र के प्रति सेवा की जिजीविषा ने ही उन्हें राजमाता से लोकमाता बनाया और समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत किया।
भारतीय जनसंघ से भाजपा तक उनकी यात्रा में अनेक उतार - चढ़ाव आए लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांत और विचारधारा के प्रति जो समर्पण रहा उसे कभी नहीं छोड़ा। अटल जी और आडवाणी 1972 में उनके सामने आए। एक बार जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के लिए दोनों ने उनके साथ लम्बी मंत्रणा भी की। राजमाता ने कहा कि मुझे एक दिन का समय चाहिए। राजमाता जब दतिया के प्रमुख पीतांबरा माता के शक्तिपीठ गई , तो गुरुजी के साथ चर्चा की और अटल और आडवाणी जी से कहा कि वह एक कार्यकर्ता के रूप में भारतीय जनसंघ की सेवा करना जारी रखेंगी। पदों के प्रति उनमें कभी कोई आकर्षण नहीं था। वह इसे ठुकारने में भी देरी नहीं लगती थी और खुलकर सबके सामने अपनी बात मजबूती एक साथ रखती थी।
अटल, आडवाणी और कुशाभाऊ ठाकरे जी जैसे राजनीती के पुरोधाओं के सानिध्य को पाकर वह अभिभूत हुई और भारतीय जनसंघ को पल्लवित करने में अपनी जी-जान लगाई। भारतीय जनसंघ से भाजपा तक की उनकी यात्रा में उतार - चढ़ाव थे लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांतों और विचारधारा के प्रति समर्पण कभी नहीं छोड़ा। वह कई दशकों तक जनसंघ की सदस्य रहीं। जनसंघ के नेता के कारण राजमाता सिंधिया ने पूरे देश का लम्बा दौरा किया और पार्टी के लिए खुलकर प्रचार किया। भाजपा के लिए वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने में राजमाता सिंधिया ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कराया तो उन्होंने राजमाता को अपने पास बुलाया और उनसे 20 सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने को कहा था। उस समय राजमाता ने अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए इंदिरा के इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मैं जनसंघ की विचारधारा को नहीं छोड़ सकती। उन्होंने यह तक कह दिया कि मैं जेल जाना पसंद करूंगी लेकिन आपातकाल जैसे काले कानून का कभी समर्थन नहीं करूंगी। विचारधारा के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता शायद ही आज के दौर में किसी नेता में देखने को मिले। राजमाता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के सामने झुकने के बजाए जेल जाना पसंद किया और अपनी विचारधारा से नहीं डिगी।
जिस तरह इंदिरा गाँधी के पिता ने जीवाजी को संकट से बचाने के नाम पर विजय राजे को कांग्रेस से जोड़ा था, उसी तरह इंदिरा गाँधी ने विजय राजे के बेटे माधवराव सिंधिया को अपनी मां की भलाई का वादा करके जनसंघ छोड़ने के लिए मजबूर किया। माधवराव ने कांग्रेस के समर्थन में गुना के निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जनता पार्टी की लहर के बावजूद जीत गए। 1980 में वे औपचारिक रूप से कांग्रेस के सदस्य बने और तीसरी बार गुना से चुनाव जीते। 1984 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में , उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ग्वालियर से लड़ाई लड़ी। राजमाता ने अनिच्छा से अपने बेटे की मदद की। हालांकि उन्होंने केवल अटल बिहारी के लिए अपना चुनाव प्रचार किया। अभियान के दौरान उन्होंने कहा था कि उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सिंधिया परिवार की गरिमा बनी रहे। हालांकि उन्होंने वाजपेयी के लिए कहा लेकिन जनता समझ गई कि यह माधवराव को जीतने के लिए कहा गया था। क्षेत्र में राजमाता की लोकप्रियता समान रही। 1980 में जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने राजमाता से आग्रह किया कि वे रायबरेली से जनता पार्टी की ओर से इंदिरा गांधी से लोकसभा चुनाव लड़ें। राजमाता ने कहा कि पार्टी को फैसला करना चाहिए। राजमाता खुद रायबरेली गईं और इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा। वे पीछे नहीं हटी । बेशक उस दौर में वह चुनाव हार गई लेकिन उन्होंने संगठन के निर्णय का पालन कर राजनीति में अपना आदर्श स्थापित किया । राजमाता भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर संसद भी पहुंची जिसके बाद 1991, 1996 और 1998 में भी वह इस सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचती रही। उन्होंने 1999 में चुनाव नहीं लड़ा। 25 जनवरी 2001 में उनकी मृत्यु हो गई।
राजमाता ने भाजपा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके साथ ही उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष से बनाया गया। जब पार्टी ने राम जन्मभूमि आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई तब राजमाता ने भी इसको बखूबी आगे बढ़ाते रही। 6 दिसंबर 1992 में बाबरी विध्वंस के दौरान राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी विवादित स्थल के नजदीक मंच पर वरिष्ठ नेताओं के साथ मौजूद थी। इस दौरान उन्होंने वहां मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए भाषण भी दिया था। अन्य हिंदू नेताओं के साथ राजमाता ने भी कारसेवकों का मंदिर आंदोलन में नेतृत्व किया था। 1988 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यपरिषद में राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहली बार राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव लेकर आईं थी। केंद्र में जब जनता पार्टी की सरकार बनी। उस समय तत्कालीन नेताओं को कई सरकारी पद दिए गए थे लेकिन राजमाता ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में राजमाता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद में शामिल हो गईं। भारतीय राजनीति में सिंधिया राजघराने की बात जब भी होती है तो इस राजघराने के बेटा - बेटियों की चर्चा खूब होती है। विजया राजे सिंधिया के बेटे माधवराव सिंधिया पहले जनसंघ में रहे। बाद में वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बने। उन्होंने केंद्रीय मंत्री के रूप में भी देश की सेवा की। माधवराव सिंधिया के बेटे और विजयाराजे सिंधिया के पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया वर्तमान में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। विजयाराजे सिंधिया की दो बेटी वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भाजपा की वरिष्ठ नेता हैं। वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री रह चुकी हैं जबकि यशोधरा राजे सिंधिया पूर्व सांसद के साथ मध्यप्रदेश की सरकार में पूर्व खेल मंत्री भी रह चुकी हैं। कम समय में अपनी जनसेवा से यशोधरा राजे ने भी मध्य प्रदेश की राजनीती में बड़ा मुकाम हासिल किया है।
राजमाता ने भारतीय राजनीति में एक ऐसी सशक्त महिला के तौर पर पहचान बनाई जिसमें जनता के लिए हमेशा कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। उसकी दूसरी मिसाल आज तक भारतीय राजनीती में देखने को नहीं मिलती। हमेशा जनता से सीधा जुड़ाव, संवाद और राष्ट्रहित के प्रति सेवा करने की उनकी भावना ने उन्हें सही मायनों में लोकमाता बना दिया। अपनी सरलता, सहजता और संवेदनशीलता से उन्होनें सबका दिल जीत लिया। राजघराने से ताल्लुक रखने के बाद भी जनता के हर दर्द में सहभागी बनने की उनकी सेवा भावना का हर कोई मुरीद हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनकी विलक्षण प्रतिभा के कायल रहे हैं। कई बार सार्वजनिक मंचों से वे बता चुके हैं कैसे पार्टी के साधारण से साधारण कार्यकर्ता का ध्यान राजमाता एक मां की तरह रखती थी।
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