विश्व गौरैया दिवस गौरैया के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल 20 मार्च को मनाया जा रहा है। विकास की अत्याधुनिक चमचमाहट के बीच प्रकृति में गौरैया की अनदेखी हो रही है जो बड़ा चिंताजनक संकेत है। कभी हमारे आंगन में गौरैया की चहलकदमी होती थी आज वह सब सूने पड़े हुए हैं। विश्व गौरैया दिवस को मनाने की वजह गौरैया के अस्तित्व को बचाना है।
विश्व गौरैया दिवस की अवधारणा की कल्पना एक भारतीय पर्यावरणविद् मोहम्मद दिलावर ने की थी। भारत और दुनिया भर में गौरैयों की आबादी में तेजी से गिरावट के बारे में चिंतित दिलावर ने 2005 में नेचर फॉरएवर सोसाइटी की स्थापना की जो घरेलू गौरैया और अन्य सामान्य वनस्पतियों और जीवों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध एक गैर-लाभकारी संगठन है। पहला विश्व गौरैया दिवस 20 मार्च, 2010 को मनाया गया था। गिरती गौरैया की आबादी के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए विश्व गौरैया दिवस का बहुत महत्व है। यह दिन पर्यावरण के साथ गौरैया के परस्पर जुड़ाव, जैव विविधता और पारिस्थितिक संतुलन को बढ़ावा देने पर जोर देता है। यह सामुदायिक जुड़ाव, शैक्षिक कार्यक्रमों और नीति की वकालत के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है,जिसमें गौरैयों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए सामूहिक प्रयासों का आग्रह किया जाता है।
घरेलू गौरैया दुनिया में सबसे व्यापक और सामान्य तौर पर देखा जाने वाला जंगली पक्षी है।इसे यूरोपीय लोगों द्वारा दुनिया भर में पहुँचाया गया और अब इसे न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, भारत और यूरोप सहित दुनिया के दो-तिहाई भूभाग पर देखा जा सकता है।यह केवल चीन, इंडो-चीन, जापान एवं साइबेरिया और पूर्वी व उष्णकटिबंधीय अफ्रीका आदि क्षेत्रों में अनुपस्थित है। दुनियाभर में गौरैया की दर्जनों प्रजातियां हैं लेकिन भारत में हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिउ स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेट सी स्पैरो व ट्री स्पैरों मिल जाती हैं जिनमें इनमें सबसे अधिक हाउस स्पैरो बहुतायत हैं। गौरैया एक बहुत छोटा पक्षी है जिसका वजन 25 से 40 ग्राम और लंबाईं 15 से 18 सेमी होती है जो 50 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ सकती है।
गौरैया मादाओं की तुलना में अधिक रंगीन होती हैं जिनके पंखों पर काले, सफेद और भूरे रंग के निशान होते हैं। गौरैया को उनके मधुर गीतों के लिए जाना जाता है, जिनका उपयोग वे साथियों को आकर्षित करने और अपने क्षेत्रों की रक्षा करने के लिए करते हैं। एक गौरैया का औसत जीवनकाल 2 -3 वर्ष है लेकिन कुछ व्यक्ति 5 वर्ष या उससे अधिक तक जीवित रह सकते हैं। गौरैया अपने पूरे जीवन में केवल एक ही साथी के साथ संभोग करती हैं। वे अक्सर साल दर साल एक ही घोंसले के स्थान पर लौटते हैं। घरेलू गौरैया मादा हर साल 4 से 5 अण्डे देती है जिनमें से 12 से 15 दिन बाद बच्चों का जन्म होता है। इनकी एक महत्वपूर्ण क्षमता होती है यह आकाश में उड़ने के साथ-साथ पानी के भीतर तैरने की क्षमता भी रखते हैं। गौरैया झुंडों के रूप में जानी जाने वाले घरों में रहती हैं। गौरैया अपने घोंसले का निर्माण खुद से कर लेती हैं। हाउस स्पैरो मानव आवास के साथ आसानी से जुड़ जाती हैं। नर गौरैया की गर्दन पर काली पटटी व पीठ का रंग तम्बाकू जैसा होता है जबकि मादा की पीठ पर पटटी भूरे रंग की होती है। इनका जीवन सरल घर बनाने की जिम्मेदारी नर की व बच्चों की जिम्मेदारी मादा की होती है।
मौजूदा दौर में गौरैया की आबादी में गिरावट के लिए कई कारकों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जिनमें शहरीकरण और निर्माण में कंक्रीट के बढ़ते उपयोग के कारण हरित स्थानों में उल्लेखनीय कमी आई है जिससे गौरैया को उनके प्राकृतिक आवासों से वंचित कर दिया गया है। वायु और जल प्रदूषण गौरैया के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। दूषित जल स्रोत और प्रदूषकों से भरी हवा इन पक्षियों में विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन रही है। कृषि और शहरी क्षेत्रों में कीटनाशकों का उपयोग गौरैयों पर हानिकारक प्रभाव डाल रहा है। खेती में मौजूदा दौर में होने वाले रासायनिक उर्वरकों और मोनोकल्चर के उपयोग सहित आधुनिक कृषि पद्धतियाँ गौरैया के लिए खाद्य स्रोतों की उपलब्धता को प्रभावित कर दिया है।
गौरैया विलुप्त होने का मुख्य कारण शहरीकरण, रासायनिक प्रदूषण और रेडिएशन को माना जा रहा है। मोबाइल फोन, टॉवरों से निकलने वाली रेडियेशन भी बड़े पैमाने पर गौरैया की मृत्यु के कारण बन रहा है। लगातार हो रहे शहरीकरण, पेड़ों के कटान और फसलों में रासायनिक का छिड़काव गौरैया की विलुप्ति का कारण बन रहा है। फसलों में पड़ने वाले कीटनाशक खतरनाक होते हैं। गौरैया न सिर्फ हमारे आसपास की खूबसूरती का हिस्सा है, बल्कि पर्यावरण के संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। ये कीड़े मकोड़ों को खाकर फसलों की रक्षा करती हैं। हम गौरैया के अनुकूल आवास बनाकर गौरैया के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं। इसमें घौंसले स्थापित करना, जल प्रदान करना और देशी पेड़ और झाड़ियाँ लगाने का योगदान दे सकते हैं।
जैविक और टिकाऊ कृषि प्रथाओं को अपनाने और शहरी क्षेत्रों में कीटनाशकों के उपयोग को कम करने से गौरैयों के लिए सुरक्षित वातावरण बनाने में मदद मिल सकती है। गौरैयों के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में लोगों को शिक्षित करने और इनका संरक्षण करने के लिए प्रेरित करने के लिए विशेष जागरूकता अभियान जनसमुदाय द्वारा चलाये जाने चाहिए। पर्यावरण संरक्षण, हरित स्थानों और टिकाऊ शहरी नियोजन को बढ़ावा देने वाली नीतियों की वकालत एक अधिक गौरैया-अनुकूल वातावरण बनाने में योगदान कर सकती है। गौरैया संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करने से एक जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा मिलेगा।
गौरैया का पृथ्वी पर प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में भी बड़ा योगदान है। बदलते परिवेश में गौरैया अब ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहर तक देखने को नहीं मिल रही है। दुर्भाग्य की बात है कि इनकी तादात धीरे-धीरे कम हो गई है। पिछले 15 सालों में गौरैया की संख्या में 70 से 80 फीसदी तक की कमी आई है इसलिए जरूरी है इसके संरक्षण के लिए हम सभी अपनी छत पर पर्याप्त दाना-पानी रखें। इसके साथ ही अपने घरों के सास पास अधिक से अधिक पेड़ और पौधे लगाएं। कृत्रिम घोंसलों का निर्माण करें जिससे स्वछंद होकर वे विचरण कर सके। आज जब गौरैया के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं तब ऐसे में हम सभी की जिम्मेदारी बनती है कि इस नन्हीं सी चिड़िया को बचाने में हम अपना अहम योगदान दें।
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