उदारीकरण के बाद देश में जिस तेजी से कारपोरेटी बिसात बिछी है उसने भ्रष्टाचार की गंगा बहाने में कोई कसर नहीं छोडी है । इस लूट के खिलाफ समय समय पर आवाजें उठती रही है लेकिन आज तक कोई सकारात्मक पहल इस दिशा में नहीं हो पाई है । इसी दौर में आम आदमी के सरोकार हाशिए पर चले गये है और देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे माहौल के बीच इन सवालों को बल मिल रहा है क्या आज के दौर में कोई ’प्रतीक पुरूष’ है जो इस दिशा में बड़ा प्रयास कर सकता है ।
भ्रष्टाचार विरोधी जंग में अहिंसावादी आंदोलन के प्रतीक पुरूष बने अन्ना हजारे ने यही जोखिम उठाकर पिछले साल अगस्त में सरकार के होश उड़ा दिये । अन्ना हजारे का आंदोलन 2011 मे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक नई सुबह लेकर आया । अपनी दृढ इच्छाशक्ति और सत्याग्रह के आगे सरकार को उन्होंने घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया । स्वतंत्रता के बाद पूरे देश में हुआ अन्ना का आंदोलन कई मायनों जनता और राजनेताओं को सबक दे गया । अपने को वीआईपी सरीखा व्यक्ति और शासन की राह आसान समझने वाले राजनेताओं के लिए एक कडी चेतावनी लेकर आया तो वहीं जनता को भी पहली बार इस ताकत का अनुभव हुआ कि जनता की ताकत के आगे ‘तंत्र’ एक ना एक दिन नतमस्तक हो सकता है ।
महाराष्ट्र के रालेगणसिद्धि गांव से निकले अन्ना जिस समय अपनी एक आवाज के साथ पूरे देश को एक सूत्र में बांधते नजर आते है तो उसमें राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों की चमक दिखती है साथ ही पिछले 64 सालों से व्यवस्था से त्रस्त आम आदमी का अक्स भी इसमें देखा जा सकता है । विकास की आस में खड़े आम आदमी का भरोसा जब भ्रष्ट तंत्र से उठने लगे तो ऐसे में वह अन्ना सरीखे गांधीवादी तंत्र के आगे नतमस्तक हो जाता है और अन्ना को तारणहार के रूप में ताकता नजर आता है । जनलोकपाल के मुद्दे पर अपनी लड़ाई को जनता के बीच ले जाकर अन्ना ने पिछले साल पूरे देश को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया । जिस तरीके से लोगों का कारवां बढ चढकर अन्ना के काफिले के साथ शहर दर शहर जुड़ा उसने पहली बार राजनेताओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी और लोकतंत्र में लोक के महत्व को बखूबी साबित कर दिखाया ।
दरअसल किसी भी आंदोलन के पीछे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थिति जिम्मेदार रहती है । अन्ना के आंदोलन के साथ भी यही देखने को मिला । हमारी आम जिन्दगी में रीतिरिवाजों की तरह शामिल हो चुके भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में आक्रोश तो पहले से मौजूद था लेकिन लोग इसे व्यक्त कर पाने की जहमत नहीं उठा पा रहे थे । 2 जी घोटाला, आदर्श सोसाइटी घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, कर्नाटक की खदानों में घोटाला कुछ ऐसे मुद्दे थे जिसने अन्ना के आंदोलन का रास्ता तैयार किया । 2010 में अरब देशों में उठी चिंगारी का असर परोक्ष रूप में भारत मे भी देखने को मिला । 2010 में अफ्रीका के छोटे से देश ट्यूनीशिया से उठी चिंगारी ने पूरे अरब जगत मे सुनामी ला दी । मधी पूर्व के जिन देशों मे लोकतंत्र की बयार बही वहां क्रान्ति का सीधा मतलब सैनिक तख्तापलट रहा । 2010 - 11 के साल को उथल पुथल के साल के रूप में हम देख सकते है । इसी दौर में ट्यूनीशिया के शासक को जहां देश छोडना पडा वहीं मिस्र में एकछत्र राज कर रहे मुबारक की सत्ता का अंत भी इसी दौर मे हुआ । वहीं यमन, जॉर्डन , अल्जीरिया , सीरिया , लीबिया भी इसकी लपटों में आ गये ।
अरब देशों के इन जनान्दोलनों में युवाओं ने संगठित होकर भागीदारी की और संचार माध्यमों से अपनी सरकारों की मुश्किलों को बढाने का काम किया । इस माहौल ने कहीं ना कहीं भारत के लोगों को भी प्रेरित किया और वह भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होकर खड़े हुए । यह अलग बात थी कि भारत में लोगों की लड़ाई जनलोकपाल बिल को लाने की थी ना कि अरब देशों की तरह तानाशाही के अंत जैसी ।
5 अप्रैल 2011 को जंतर मंतर पर अन्ना के धरने की शुरूवात और 4 जून 2011 की रात योगगुरु स्वामी रामदेव पर दिल्ली पुलिस की कारवाइयों ने आम आदमी को अपना गुस्सा बाहर निकालने का एक मौका आंदोलन के जरिए दे दिया । अन्ना का आंदोलन ठीक ऐसे समय में हुआ जब लगातार एक के बाद एक घोटालों से आम आदमी खुद को असुरक्षित और परेशान महसूस कर रहा था । अन्ना ने आम जनता के उबाल को एक तरह से प्लेटफार्म देने का काम किया । इस आंदोलन से अन्ना ने लोगों का दिल जीत लिया । अन्ना लोगों को यह संदेश दे पाने में कामयाब हुए कि अगर भ्रष्टाचार रूपी रावण का संहार होगा तो घर-घर में खुशहाली आएगी । इसी के चलते समाज के हर तबके ने ‘अन्ना टोपी’ पहनकर अगर ‘ मी अन्ना आहे ’ के नारे लगाए तो उसके केन्द्र में भ्रष्टाचार का घुन था जो हमें उदारीकरण के बाद से लगातार खाए जा रहा था ।
अरब देशों के इन जनान्दोलनों में युवाओं ने संगठित होकर भागीदारी की और संचार माध्यमों से अपनी सरकारों की मुश्किलों को बढाने का काम किया । इस माहौल ने कहीं ना कहीं भारत के लोगों को भी प्रेरित किया और वह भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होकर खड़े हुए । यह अलग बात थी कि भारत में लोगों की लड़ाई जनलोकपाल बिल को लाने की थी ना कि अरब देशों की तरह तानाशाही के अंत जैसी ।
5 अप्रैल 2011 को जंतर मंतर पर अन्ना के धरने की शुरूवात और 4 जून 2011 की रात योगगुरु स्वामी रामदेव पर दिल्ली पुलिस की कारवाइयों ने आम आदमी को अपना गुस्सा बाहर निकालने का एक मौका आंदोलन के जरिए दे दिया । अन्ना का आंदोलन ठीक ऐसे समय में हुआ जब लगातार एक के बाद एक घोटालों से आम आदमी खुद को असुरक्षित और परेशान महसूस कर रहा था । अन्ना ने आम जनता के उबाल को एक तरह से प्लेटफार्म देने का काम किया । इस आंदोलन से अन्ना ने लोगों का दिल जीत लिया । अन्ना लोगों को यह संदेश दे पाने में कामयाब हुए कि अगर भ्रष्टाचार रूपी रावण का संहार होगा तो घर-घर में खुशहाली आएगी । इसी के चलते समाज के हर तबके ने ‘अन्ना टोपी’ पहनकर अगर ‘ मी अन्ना आहे ’ के नारे लगाए तो उसके केन्द्र में भ्रष्टाचार का घुन था जो हमें उदारीकरण के बाद से लगातार खाए जा रहा था ।
अन्ना के अपनी जनलोकपाल की लडाई को उसी रामलीला मैदान से शुरू किया जहां कभी जेपी ने सत्ता को ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ गाकर चुनौती दी थी । इसी मैदान पर देश की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी ने पाक को 1972 में हराने के जश्न में रैली की थी । यही नहीं देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अयोध्या आंदोलन में इसी मैदान से अपनी हुंकार भरी थी । अन्ना ने भी इसी रामलीला मैदान से भ्रष्टाचार के खिलाफ मशाल जलाकर अतीत की सुनहरी यादों को पिछले साल ताजा कर दिया ।
एक लोकतांत्रिक देश में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के साथ मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । उसका कार्य जनता को जागरूक करना, शिक्षित करना ही नहीं वरन महत्वपूर्ण मसलों पर जनमत का निर्माण भी करना है । चूंकि हम एक लोकतांत्रिक प्रणाली में रह रहे हैं अतः यहां भी मीडिया की भूमिका इसी के आसरे चलती है । जब से न्यूज चैनलों की शुरूवात इस देश में हुई है तब से किसी भी घटना की जीवंत तस्वीरें दुनिया के किसी भी कोने में देखी जा सकती है । टीवी चैनलों के माध्यम का आज तक किसी बड़े जनान्दोलन में उपयोग नहीं हुआ जैसा अन्ना आंदोलन में देखने को मिला । खासतौर से अगस्त में हुए अन्ना के अनशन के 288 घंटे खबरिया चैनलों ने जिस तरीके से कवर किये उसकी मिसाल बहुत कम देखने को मिलती है । इस दौरान हिन्दी न्यूज चैनलों के साथ ही अंग्रेजी न्यूज चैनलों का वातावरण अन्नामय था । ऐसा पहली बार हुआ जब लोगों ने अन्ना आंदोलन के जरिए खुद को रामलीला मैदान से सीधे जुड़ा महसूस किया । इसका प्रभाव शहरों से कस्बों तक में दिखाई दिया जिसकी परिणति व्यापक जनसमर्थन से हुई । इसका बड़ा कारण अन्ना की पाक, साफ ईमानदारी छवि भी रही जिसके पीछे हर तबके की जनता साथ खड़ी दिखी ।
न्यूज चैनलों ने भी टीआरपी के चलते अन्ना की अगस्त क्रान्ति को खूब भुनाया । अन्ना के आंदोलन से पहले जेपी और वीपी के दौर में भी भ्रष्टाचार और महंगाई को केन्द्र बनाया गया था जो आगे चलकर सत्ता परिवर्तन का कारण भी बना । लेकिन जेपी, वीपी के दौर में भ्रष्टाचार व्यापक नहीं था और इलेक्ट्रानिक मीडिया जैसी कोई चीज नहीं थी । राजीव गांधी के दौर मे “बोफोर्स ” का जिन्न कांग्रेस की लुटिया डुबो गया । वीपी ने देश भर में रैली निकालकर इसे बड़ा मुद्दा बनाया जिसके चलते कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिर फिसल गई । उस दौर में संचार साधन आज जितने पर्याप्त नहीं थे । आज इंटरनेट की दस्तक ने पूरा परिदृश्य बदल दिया है । सोशल नेटवर्किंग , बेबलाग की दुनिया आज सभी के लिए खुली है जहां हर किसी को खुलकर अपने विचारों को कहने की आजादी है । अन्ना के आंदोलन की हर बदलती घटना को न्यूज चैनलों ने सीधे कवर किया जिससे जनता पल पल की घटनाओ से सीधे रूबरू हुई । पूरे 288 घंटे चैनलों ने अन्ना से जुड़ी हर छोटी खबर को ब्रेकिंग न्यूज बनाने में देरी नहीं की । रामलीला मैदान में खबरों के नये आयाम जुडते जा रहे थे और चैनल अपनी पूरी उर्जा अन्ना को दिखाने में कवर करते जा रहे थे । जिस चैनल के पास जितना संसाधन था उसने सब रामलीला मैदान में लगा दिया । एंकर रामलीला मैदान में अन्ना के साथ बैठा था तो विशेषज्ञों को स्टूडियो में बैठाकर सवालात किये जाते थे । भारतीय टेलीविजन चैनलों के इतिहास में यह नया ट्रेंड पहली बार देखने को मिला जब सभी समाचार चैनलो ने अपनी स्क्रीन को 3 से 4 भागों में बांटा और बिना ब्रेक का लाइव रामलीला मैदान से दिखाना शुरू कर दिया । पिछले साल अगस्त में चले अन्ना के आंदोलन मे सभी समाचार चैनलो ने सकारात्मक भूमिका निभाई शायद तभी सरकार को संसद में बहस कराने को मजबूर होना पडा । 27 अगस्त 2011 की घटना ने एक बात तो साफ कर दी कि अगर मीडिया चाहे तो किसी भी मुद्दे को बड़ा कैनवास दे सकता है और उसे पब्लिक का ऐजेण्डा बना सकता है ।
अन्ना के आंदोलन में मीडिया की एजेण्डा सेटिंग अवधारणा सटीक बैठती है । यह अवधारणा कहती है कि मीडिया द्वारा मुद्दों का निर्माण किया जाता है । वह लोगों को बताता है कि कौन सा मुद्दा महत्वपूर्ण है और कौन सा गौण । इसमें मीडिया कुछ मुद्दों को ज्यादा महत्व देकर शेष मुद्दों की उपेक्षा करता है । इससे जनमत प्रभावित होता है और लोगों को मीडिया के माध्यम से यह पता चलता है कि कौन से मुद्दे प्रमुख है तथा उनका प्राथमिकता क्रम क्या है । अन्ना के आंदोलन से पहले भ्रष्टाचार इतना बड़ा मुद्दा नहीं था लेकिन भ्रष्टाचार के आगे महंगाई , आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, नक्सलवाद जैसे कई मुद्दे एकाएक दब गये और केन्द्र में भ्रष्टाचार आ गया
अन्ना की अगस्त क्रान्ति के बाद कैबिनेट ने लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011 को 20 दिसम्बर 2011 को पारित किया । विधेयक लोकसभा में 28 दिसम्बर 2011 को पारित किया गया परन्तु विधेयक संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं कर सका क्योंकि दो तिहाई बहुमत के अभाव में विधेयक को संवैधानिक दर्जा देने सम्बन्धी संविधान संशोधन विधेयक पारित न हो सका । लोकपाल व लोकायुक्त विधेयक 2011 शीतकालीन सत्र समाप्त होने के कारण राज्यसभा में पारित नहीं हो सका ।
अन्ना के साथ किये गये वादे से केन्द्र सरकार मुकर गई और इसके खिलाफ अन्ना ने मुम्बई के आजाद मैदान में फिर से अनशन शुरू किया लेकिन यह अनशन ज्यादा नहीं चल पाया । अन्ना के रणनीतिकारों ने मुम्बई को अनशन स्थल के रूप में गलत चुना । साथ ही खराब स्वास्थ कारणों के चलते अन्ना आंदोलन में उतार का दौर आ गया । आजाद मैदान में मीडिया से भी अन्ना को सहानुभूति नहीं मिल पाई । इसका एक कारण टीम अन्ना की कोर कमेटी का लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरना भी रहा ।
टीम अन्ना की एक अहम सदस्य किरण बेदी पर एक चौथाई किराया देकर हवाई यात्रा करने को लेकर बिलों में गडबड़ी के आरोप जहां लगे वहीं शांति भूषण पर इलाहाबाद से खबर आई कि एक पुराने मकान को अपने नाम कराने में बडे पैमाने पर उन्होंने राजस्व की चोरी की है । वहीं भ्रष्टाचार के मामलों में अरविंद केजरीवाल भी फंस गये । नौकरी के दौरान उन पर 9 लाख रूपये बकाया होने के आरोपो से उनकी खूब भद्द पिटी । हालांकि उन्होने यह धनराशि प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर लौटा दी लेकिन इसके बाद भी उनकी मुश्किले कम नहीं हुई । दिल्ली में पिछले अनशन के दौरान लोगों से ली गई ‘धनराशि को अरविंद ने अनशन स्थल की व्यवस्था के बजाए उसे अपनी ‘परिवर्तन’ संस्था के फंड में जमा कर दिया । आंदोलन के दौरान छुट्टी लेकर रामलीला मैदान जाने और पूरा वेतन लेने के आरोपों के साथ ही कुमार विश्वास की भी खासी किरकिरी हुई । इसके चलते अन्ना आंदोलन की डगर डगमग लगने लगी ।
टीम अन्ना की एक अहम सदस्य किरण बेदी पर एक चौथाई किराया देकर हवाई यात्रा करने को लेकर बिलों में गडबड़ी के आरोप जहां लगे वहीं शांति भूषण पर इलाहाबाद से खबर आई कि एक पुराने मकान को अपने नाम कराने में बडे पैमाने पर उन्होंने राजस्व की चोरी की है । वहीं भ्रष्टाचार के मामलों में अरविंद केजरीवाल भी फंस गये । नौकरी के दौरान उन पर 9 लाख रूपये बकाया होने के आरोपो से उनकी खूब भद्द पिटी । हालांकि उन्होने यह धनराशि प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर लौटा दी लेकिन इसके बाद भी उनकी मुश्किले कम नहीं हुई । दिल्ली में पिछले अनशन के दौरान लोगों से ली गई ‘धनराशि को अरविंद ने अनशन स्थल की व्यवस्था के बजाए उसे अपनी ‘परिवर्तन’ संस्था के फंड में जमा कर दिया । आंदोलन के दौरान छुट्टी लेकर रामलीला मैदान जाने और पूरा वेतन लेने के आरोपों के साथ ही कुमार विश्वास की भी खासी किरकिरी हुई । इसके चलते अन्ना आंदोलन की डगर डगमग लगने लगी ।
मुम्बई में अन्ना के ‘ फ्लाप शो ’ के बाद मीडिया ने अन्ना आंदोलन के प्रति ‘एन्टी’ रूख अपना लिया । दूसरा पांच राज्यों के चुनावों में अन्ना के न जाने, बीमार हो जाने से यह आंदोलन भटकाव की दिशा में चला गया ।
5 राज्यों में चुनाव प्रचार के सम्बन्ध में टीम अन्ना की खासी ना नुकुर हुई जिससे लोगों के बीच अन्ना आंदोलन की साख वैसी नहीं पाई जैसी अगस्त में दिल्ली के रामलीला मैदान मे थी । 5 राज्यों के चुनाव निपटने के बाद अन्ना जब स्वस्थ होकर एक बार फिर जनलोकपाल की मशाल को थामना चाहते हैं तो टीम अन्ना के सदस्य सांसदो को भ्रष्टाचारी होने के मसले पर कोसते है जो मुख्य मुद्दे जनलोकपाल से ध्यान भटका रहा है । इस समय टीम अन्ना की कोशिश जनता के बीच जनलोकपाल की लडाई ले जाने की होनी चाहिए ।
5 राज्यों में चुनाव प्रचार के सम्बन्ध में टीम अन्ना की खासी ना नुकुर हुई जिससे लोगों के बीच अन्ना आंदोलन की साख वैसी नहीं पाई जैसी अगस्त में दिल्ली के रामलीला मैदान मे थी । 5 राज्यों के चुनाव निपटने के बाद अन्ना जब स्वस्थ होकर एक बार फिर जनलोकपाल की मशाल को थामना चाहते हैं तो टीम अन्ना के सदस्य सांसदो को भ्रष्टाचारी होने के मसले पर कोसते है जो मुख्य मुद्दे जनलोकपाल से ध्यान भटका रहा है । इस समय टीम अन्ना की कोशिश जनता के बीच जनलोकपाल की लडाई ले जाने की होनी चाहिए ।
अगस्त क्रान्ति के बाद टीम अन्ना मीडिया का समर्थन सही से नहीं जुटा पाई । जेपी आंदोलन में जनता बढ चढकर आगे आई । अन्ना को भी चाहिए था वह पूरे देश में जनलोकपाल की अलख जगाने खुद निकलें लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाये ।1987 में वीपी सिंह ने जब आंदोलन छेडा था तो सारा मीडिया उनका विरोधी था लेकिन कुछ समय बाद सारा मीडिया वीपी की मुट्ठी में आ गया क्योंकि वह देश भर की यात्रा पर निकले और इसमें जनता को उन्होंने साथ लिया । लोहिया कहा करते थे जनता के साथ संवाद की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिए । बिना जन के संसद अधूरी है । अन्ना भी अगर ऐसी कोशिश करते तो शायद अभी जनलोकपाल आंदोलन का उत्साह बना रहता लेकिन ऐसा हो नहीं पाया । आंदोलनों का कोई शास्त्र नहीं होता । मीडिया कोई आंदोलन खड़ा भी नहीं करता । यह स्वतः स्फृर्त होते हैं जहां लीडर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । लेकिन अगर लीडर अपने हिसाब से मुद्दे गढ़ने लगे और टीम के सदस्य अपनी ढपली अपना राग अपनाते रहे तो कोई आंदोलन लम्बा नहीं चल सकता । आंदोलनों को जनता की मांगो पर चलना ही पड़ता है ।
टीम अन्ना साफ मानना है कि वह क्रान्ति नहीं लाना चाहती । साथ ही उसका मकसद सत्ता का हिस्सा बनना भी नहीं हैं अतः ऐसे में उसे समझना होगा कि सिस्टम सुधारने की प्रक्रिया निचले स्तर से होनी चाहिए । सांसदों को निशाना बनाने से कुछ नहीं होने वाला । सभी जानते है कि लोकतंत्र के हमारे मंदिर में सांसद कितने दूध से धुले हैं ? ऐसा करने के बजाय मुख्य विषय जनलोकपाल को लोगों के बीच ले जाने की सख्त जरूरत है । चूंकि जनलोकपाल की बिसात में ’जन’ की बडी भूमिका है और सांसदों के चूने जाने का रास्ता भी इसी ‘जन’ के आगे से ही जाता है । लिहाजा अब जनलोकपाल की लडाई को जनता के बीच सीधे मैदान मे ले जाने की जरूरत है ।अन्ना अब इस बात को बखूबी समझ रहे हैं । शायद इसलिए उन्होंने रामदेव के साथ इस लड़ाई को बडे़ स्तर पर लड़ने का फैसला कर लिया है ।
टीम अन्ना साफ मानना है कि वह क्रान्ति नहीं लाना चाहती । साथ ही उसका मकसद सत्ता का हिस्सा बनना भी नहीं हैं अतः ऐसे में उसे समझना होगा कि सिस्टम सुधारने की प्रक्रिया निचले स्तर से होनी चाहिए । सांसदों को निशाना बनाने से कुछ नहीं होने वाला । सभी जानते है कि लोकतंत्र के हमारे मंदिर में सांसद कितने दूध से धुले हैं ? ऐसा करने के बजाय मुख्य विषय जनलोकपाल को लोगों के बीच ले जाने की सख्त जरूरत है । चूंकि जनलोकपाल की बिसात में ’जन’ की बडी भूमिका है और सांसदों के चूने जाने का रास्ता भी इसी ‘जन’ के आगे से ही जाता है । लिहाजा अब जनलोकपाल की लडाई को जनता के बीच सीधे मैदान मे ले जाने की जरूरत है ।अन्ना अब इस बात को बखूबी समझ रहे हैं । शायद इसलिए उन्होंने रामदेव के साथ इस लड़ाई को बडे़ स्तर पर लड़ने का फैसला कर लिया है ।
अन्ना ने अगस्त 2011 में उस आम आदमी का साथ पाने में सफलता हासिल की जो हमेशा शातिर सत्ता की ताकत के आगे इस दौर में छला जाता रहा है । आम आदमी भ्रष्टाचार से निजात पाना चाहता था तभी उसने बढ चढकर रामलीला मैदान में अपनी भागीदारी की । वहीं यूपीए 2 की प्रवृति जिस तरीके से भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने के बजाए उसे बचाने की रही उसके चलते लोगों की अन्ना से उम्मीदे दुगनी बढ़ गई हैं । जेपी ने 1974 में छात्र आंदोलन की शुरूवात की थी । बिहार में जन्मे इस आंदोलन ने पूरे देश में बदलाव का माहौल तैयार कर दिया ।
25 जून 1975 की अर्धरात्रि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया तो जेपी ने सेना और पुलिस को असंवैधानिक आदेश ना मानने की बात कह डाली और सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दे डाला था । उस दौर में पूरे उत्तर भारत में आंदोलन अपने चरम पर था । आपातकाल की घोषणा ने उसमें तड़का लगा दिया । उसके बाद अस्सी और नब्बे के दशक में देश में मंडल, कमंडल का दौर देखने को मिला जिसका प्रभाव भी व्यापक था लेकिन यह आंदोलन कहीं ना कहीं जाति और धर्म से जुड़े रहे अतः इसकी गाडी लम्बी नहीं चल सकी । लेकिन अन्ना के आंदोलन को हम जेपी के आंदोलन के बाद सबसे बडा आंदोलन मान सकते है । जनलोकपाल की लड़ाई केवल अन्ना की लड़ाई नहीं है । हर देशवासी अपने दैनिक इस भ्रष्टाचार से निजात पाना चाहता है । अन्ना ने आम आदमी के दर्द को हवा देने का काम सही मायनों में किया है । अन्ना तो सिर्फ एक प्रतीक है उनका आभामंडल करोड़ों लोगों ने बनाया है जो अन्ना में सिस्टम सुधारने की उम्मीद देखते हैं ।
25 जून 1975 की अर्धरात्रि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया तो जेपी ने सेना और पुलिस को असंवैधानिक आदेश ना मानने की बात कह डाली और सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दे डाला था । उस दौर में पूरे उत्तर भारत में आंदोलन अपने चरम पर था । आपातकाल की घोषणा ने उसमें तड़का लगा दिया । उसके बाद अस्सी और नब्बे के दशक में देश में मंडल, कमंडल का दौर देखने को मिला जिसका प्रभाव भी व्यापक था लेकिन यह आंदोलन कहीं ना कहीं जाति और धर्म से जुड़े रहे अतः इसकी गाडी लम्बी नहीं चल सकी । लेकिन अन्ना के आंदोलन को हम जेपी के आंदोलन के बाद सबसे बडा आंदोलन मान सकते है । जनलोकपाल की लड़ाई केवल अन्ना की लड़ाई नहीं है । हर देशवासी अपने दैनिक इस भ्रष्टाचार से निजात पाना चाहता है । अन्ना ने आम आदमी के दर्द को हवा देने का काम सही मायनों में किया है । अन्ना तो सिर्फ एक प्रतीक है उनका आभामंडल करोड़ों लोगों ने बनाया है जो अन्ना में सिस्टम सुधारने की उम्मीद देखते हैं ।
अन्ना को रामदेव से पहले कडा ऐतराज था । टीम अन्ना भी बार-बार रामदेव को साथ न लेने की बात दोहराती रहती थी शायद तभी जंतर –मंतर से लेकर आजाद मैदान में रामदेव अन्ना कदमताल नहीं कर पाये । लेकिन अब दोनों के निशाने पर कांग्रेस है । रामदेव ने काले धन की मांग को बडे स्तर पर उठाया है और इसके खिलाफ पूरे देश में बड़ी कैम्पेन चलाई है तो वहीं अन्ना ने जनलोकपाल के साथ कालेधन को भी अपने प्रमुख ऐजेण्डे में रखा है जिसमे चुनाव सुधार से लेकर किसानों से जुडे मुद्दे शामिल हैं । अन्ना हजारे के दामन पर किसी प्रकार का दाग नहीं है तो वहीं रामदेव का पंतजलि योगपीठ कांग्रेस निशाने पर है । 1100 करोड़ रू का आर्थिक साम्राज्य खड़ा करने वाले रामदेव पर विदेशी मुद्रा अधीनियम के तहत जहां यूपीए 2 शिकंजा कस रही है वहीं आचार्य बालकृष्ण की नागरिकता संदेह के घेरे में है । ऐसे में रामदेव के सामने खुद को पाक - साफ करने की चुनौती जहां खड़ी है वहीं अरबों रूपये वापस लाने के काले धन के संकल्प को भी उन्हें अपने करोड़ो अनुयायियों के जरिए पूरा करना है । रामदेव की सबसे बड़ी ताकत यही सबसे बड़े भक्त है तो वहीं अन्ना की सबसे बड़ी कमजोरी उनके संगठानिक ढांचे के कमजोर होने की रही है । ऐसे में दोनों की जुगलबंदी अगर 16 वीं लोकसभा में यूपीए को मटियामेट कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं । घोटालों के सबसे ज्यादा दाग कांग्रेस के दामन पर ही लगेंगे क्योंकि वहीं इस समय यूपीए - 2 को लीड कर रही है और जहां लीडर गडबड़ हो वहां पार्टी के अर्श से फर्श पर आने में देर नहीं लगती ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की लडाई ने कई मोर्चो पर सरकार को परेशान किया है । इन सबसे बौखलाई केन्द्र सरकार टीम अन्ना को भ्रष्ट साबित कर गडे मुर्दे उखाडने की कोशिश कर रही है इससे अन्ना और उनके समर्थक विचलित जरूर हुए हैं लेकिन अन्ना बैखौफ अंदाज में मैदान में अभी भी डटे है । वह भी सादगी भरे अंदाज में । शायद यही इस फकीर की सबसे बड़ी ताकत है और मैं भी उनकी इस अदा का कायल हूँ ।
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