किसी
ने कहा है इतिहास अपने को दोहराता है और राजनीति में हमेशा दो दूनी चार
नहीं होता। 14 साल पहले जिस नवाज शरीफ को पाकिस्तान छोड़ने पर मजबूर होना
पड़ा था आज वही नवाज शरीफ तीसरी बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने जा रहे
हैं। वहीं संयोग देखिए वक्त का पहिया कैसे घूमा और कैसे पाकिस्तान में
राजनीति एक सौ अस्सी डिग्री पर घूम गई। यह पूर्व तानाशाह मुशर्रफ की
नजरबन्दी से समझी जा सकती है जिनको इस बार चुनाव लड़ने के अयोग्य न केवल
घोषित कर दिया गया बल्कि उनको सत्ता पथ पर फटकने से रोकने के लिए सभी दल
जम्हूरियत की जंग में साथ-साथ कदमताल भी करने लगे।
पाकिस्तान में सैन्य शासकों के शासन से आवाम की बेरूखी और फिर लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव में अपने बैलेट द्वारा सहभागिता यह बताने को काफी है कि मौजूदा तौर में पाक में जम्हूरियत की बैचेनी किस कदर सुनाई दे रही है। साढ़े छह दशकों के लम्बे इतिहास में लोगों का विशाल जनसैलाब बलूचिस्तान से लेकर सिन्ध और पंजाब से लेकर खैबर पख्तून की सड़कों पर वोट डालने लोकतांत्रिक सरकार के चुनने निकला उसने पहली बार न केवल तालिबानी कठमुल्लों के हौसलों को अपने वोट की ताकत से आईना दिखाया बल्कि जम्हूरियत की इस नई जंग में कट्टरपथियो के होश भी ठिकाने लगा दिये। तालिबान की धमकियों से बेपरवाह होकर महिलाओं ने भी पाक की सड़कों पर खुले घूमकर जिस तरह इस बार मतदान किया उससे पाक में लोकतंत्र की एक नई सुबह का आगाज सही मायनों में हुआ है। व्यापक हिंसा, सैकड़ों मौतों के बाद 60 फीसदी के आसपास हुए मतदान से लोकतंत्ररूपी जो बयार पाक में चली है उसे पाक के भविष्य के लिए हम शुभ संकेत मान सकते हैं।
नेशनल असेम्बली की 272 सीटों के लिए हुए मतदान में नवाज की पार्टी पीएमएल (एन) 123 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में न केवल उभरी बल्कि पाक की राजनीति में उसने इस चुनाव में पीपीपी और तहरीक-ए इंसाफ जैसी कई पार्टियों को दहाई के अंकों में समेट दिया। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में पीएमएलएन के उभरने के बाद नवाज शरीफ का प्रधानमंत्री बनना तय है। वह तीसरी बार पाक की सत्ता संभालने जा रहे हैं। नवाज शरीफ को मिला यह जनादेश पाक में पीपीपी की अलोकप्रियता का एक ताजा प्रमाण है। एन्टी एनकम्बेन्सी फैक्टर ने भी इस चुनाव में पीपीपी के तिलिस्म को तोड़ने का काम किया है। साथ ही उन राजनीतिक पंडितों के आंकलन को झुठला दिया है जो इस चुना वमें इमरान खान को पाक की राजनीति का उभरता चेहरा बताने पर तुले थे। इस चुनाव से पहले ब्रिटिश काउंसिल की एक रिपोर्ट में नवाज शरीफ और इमरान की पार्टी में कांटे की टक्कर बताई गई थी लेकिन चुनाव परिणामों ने सेफोलाजिस्टों की घिग्घी बांध दी है। खैबर पख्तून में जहां इमरान ने अपना दबदबा इस चुनाव में कायम किया तो वहीं जरदारी की पीपीपी सिंध में अपनी लाज बचाने में सफल हो गई। वहीं नवाज की पीएमएल (एन) ने पंजाब, बलूचिस्तान में अपनी शानदार जीत से अन्य पार्टियों को सत्ता में आने से रोकने का काम किया है। पाकिस्तान का यह चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा क्योंकि सेना ने जहां चुनावी प्रक्रिया में अपने को दूर रखा वहीं बम धमाके और हिंसा के साये के बाद भी वोटरों में मतदान को लेकर उत्साह दिखा। यह पहला मौका है जब पाकिस्तान में सत्ता हस्तान्तरण का एक नया दौर देखने को मिल रहा है जहां आवाम मताधिकार के आसरे लोकतंत्र में सहभागिता को लेकर लोकतंत्ररूपी उत्सव में अपनी भागीदारी वोट से कर रहा है। इस चुनाव में पाक के आवाम का बड़ा तबका जिस तरह कट्टरपंथियों के सामने खड़ा हुआ है उसने पूरे विश्व को एक नया संदेश दिया है कि अब फौजी शासन की फरेबी स्टाइल देश को नहीं बचा सकती। स्थिर और खुशहाल पाकिस्तान का सपना लोकतंत्र में ही साकार हो सकता है। 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने मतदान में भाग लेकर जम्हरियत के प्रति अपने विश्वास को प्रकट करने का काम किया है क्योंकि 70 के दशक के बाद यह पहला मौका रहा जब तमाम धमकियों के बावजूद लोग अपने घरों से बाहर निकले।
पाक में जम्हरियत की इस जंग में नवाज शरीफ खरा उतरे और लोगों ने जिस विश्वास के साथ उन्हें आंखों पर बिठाया है उसके बाद उन पर लोगों की उम्मीदों को पूरा करने की एक कठिन चुनौती सामने खड़ी है। शायद इसी वजह से जीत के बाद नवाज ने पूरे आवाम को अपना शुक्रिया अदा किया। उन्होंने इस दौरान मुल्क में न केवल अमन चैन बहाल करने की वचन बद्धता दोहराई बल्कि पड़ेसी देशों में भी सम्बध सुधारने पर अपना जोर दिया। वैसे नवाज शरीफ ने अपनी पूरी चुनावी कैम्पेनिंग में कश्मीर के मुद्दे से दूरी तो बनाई ही साथ ही कारगिल की जांच और मुम्बई हमले के दोषियों पर कार्यवाही करने का भरोसा जताकर भारत के प्रति अपने विश्वास को बहाल करने का काम किया है। शायद इसी वजह से चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन को पाक की यात्रा का निमंत्रण देने में देर नहीं दिखाई।
पाकिस्तान में तीसरी बार सत्ता में वापसी के बाद नवाज शरीफ ने अपने को न केवल शेर साबित किया बल्कि उन आलोचकों का भी मुंह बन्द कर दिया है जो पाकिस्तान में नवाज की वापसी को मुश्किल मान रहे थे। अब नवाज के सामने पड़ोसियों से ज्यादा आंतरिक समस्याओं का पहाड़ सामने खड़ा है। तालिबान अभी भी पाकिस्तान की जहां गर्दन मरोड़ रहा है वहीं अफगानिस्तान से अमरीका की फौजों की अगले साल हो रही वापसी के बाद नवाज के सामने असल मुश्किल खड़ी हो सकती है क्योंकि ऐसे हालातों में तालिबान पाक की गर्दन तोड़ेगा अतः उसके मुकाबले के लिए नवाज को अभी से तैयार रहना होगा। पाक में कट्टरपंथी उन्मादी प्रवृत्ति के लोग आज भी आये दिन वहां खून खराबा और आतंक बढ़ा रहे हैं जिससे जूझने की कठिन चुनौती नवाज के सामने खड़ी है। इस समय पाक की अर्थव्यवस्था सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। आवाम दाने-दाने के लिए जहां मोहताज है वहीं गैस सिलेण्डर, खाद्य सामग्रियों के दाम तो आसमान छू रहे हैं। साथ में कई इलाके बिजली संकट से जूझ रहे हैं। आये दिन होने वाले धमाकों से कोई नया निवेश पाक में नहीं हो पाया है जिससे अर्थव्यवस्था बेहाल है। ऐसे में देखना होगा वह पाक में अपनी तीसरी पारी में क्या करिश्मा दिखा पाते हैं? वह भी ऐसे हालातों में जब बीते 7 सालों में अमरीका ने 20 अरब डालर की मद्द से उसे दीवाले होने से बचाया है और यही नवाज अपने चुनाव प्रचार में अमरीका और उसके नीति नियंताओं को बड़े-छोटे मंचों से लगातार कोसते ही रहे।
नवाज 1990 और 1997 के दौर में प्रधानमंत्री रह चुके हैं। यह तीसरा मौका है जब वह पाक की कमान संभालने जा रहे हैं। लेकिन पिछली यादों को भुलाना उनके लिए आसान नहीं होगा। दो बार सेना ने लंगड़ी देकर न केवल उन्हें सत्ता से हटाया बल्कि अपने दोनों कार्यकाल में वह सेना की कठपुतली बनाकर राजपाट संभालते रहे। नवाज ने भले ही इस चुनाव में पाक की आंतरिक समस्याएं दुरूस्त करने और सरकार में सेना के किसी तरह को हस्तक्षेप से इंकार होने के सब्जबाग दिखाए लेकिन यह सब करना आसान नही है । वह भी उस मुल्क में जहा बीते 65 सालो से सरकार में सेना का सीधा दखल रहा है और विदेश नीति से लेकर आंतरिक सुरक्षा सभी सेना तय करती रही है। यही नही सेना को हर मसले पर आईएसआई भी समर्थन करती रही है। ऐसे हालातो में नवाज को सेना से सीधे दो -दो हाथ करना पड़ सकता है। जाहिर है इन परिस्थियों में उन्हें खुद को अभी से तैयार करना होगा । इन परिस्थियों में वह फौज से टकराव नही लेना चाहेगे । हाल के वर्षो मे पाक के अंदरूनी हालात बहुत अच्छे नही रहे है। आंतकी ताकतों ने वहां के मासूम नागरिको का अमन चैन छीन लिया । माहौल कितना खराब है यह वहा आये दिन होने वाले हमलो से समझा जा सकता है। पाक का इतिहास बतलाता है वहा जम्हुरियत की हवा का स्वांग भले ही समय समय पर रचा जाता रहा हो लेकिन सेना के बिना पत्ता भी नही हिलता । जरा सा दाये -बाये करने पर तख्ता पलट आम बात है। जाहिर है मिया नवाज के जेहन में यह सारी बाते अब भी कौंध रही होगी । 90 के दौर को याद करे तो मुशर्रफ मिया नवाज की वजह से सेना प्रमुख बने क्योकि वरिष्ठता के आधार पर उनसे पूर्व दो लेफ्टीनेन्ट जनरल आगे थे लेकिन नवाज के भाई शाहबाज शरीफ के कहने पर मिया नवाज ने मुशर्रफ के नाम पर किसी तरह का एतराज नही जताया । वही मुशर्रफ ने मौका पाकर न केवल 12 अक्टूबर 1999 को नवाज शरीफ को सत्ता से न केवल बेदखल किया बल्कि उन्हे जेल में नजबन्द भी कर दिया । बाद में समझौते के कारण नवाज 7 साल सऊदी अरब चले गये जहां मिया नवाज पर पाक में राष्ट्रद्रोह , विमान अपरहण के मुकदमे चलाये गये । यही नही जिया उल हक के दौरे को भी देखे तो जुल्फिकार भुटटो ने भी दो लेफ्टीनेन्ट जनरलों को सुपरसीड कर दिया । मगर कुछ दिनो बाद जिया ने जुल्फिकार अली भुटटो की बलि उन्हे शूली पर चढ़कार ली । नवाज जब प्रधान मंत्री पद की शपथ पाक में लेंगे तो इस सीन से पार पाना आसान नही होगा । बड़ा सवाल इस दौर में मुशर्रफ को लेकर भी है जिनके साथ कारगिल में मुशर्रफ ने उन्हे अंधेरे में रखा जिसके चलते भारत पाक सम्बन्ध पटरी से उतर गये । अटल बिहारी के साथ लाहौर वार्ता का जो चैनल नवाज ने खोला था कारगिल होते होते वह चैनल भी बन्द हो गया और मुम्बई में 26/11 के बाद तो रिश्तो में जंग सरीखी नौबत कई बार आ चुकी है । ऐसे में नये कार्यकाल मे अब मिया नबाज को सेना के साथ फूंक फूंक कर कदम रखने होगे ।
मिया नवाज की भावी राजनीति बहुत हदतक अगले सेना प्रमुख की ताजपोशी से तय होगी । वर्तमान में अशफाक कियानी सेनाध्यक्ष पद से रिटायर होने जा रहे है। उन्होने अमरीका का पूरा भरोसा पाया था लेकिन बड़ा सवाल नये सेनाघ्यक्ष के चुनने को लेकर भी है जिसमें नवाज की क्या भूमिका होगी यह देखना होगा । अपने इस बार के चुनाव प्रचार में नवाज ने अमरीका को खूब खरी खोटी सुनाई है ऐसे में जमीनी स्तर पर वह अमरीका का दखल पाक की आंतरिक राजनीति मे कितना कम कर पाते है यह देखने वाली बात होगी । पाक के आवाम में नवाज की वापसी का जबरदस्त जश्न दिख रहा है। नेशनल असेम्बली में पीएम एल एन के मजबूत होकर उभरने के साथ ही पाक के आवाम की नवाज से उम्मीदे बढ़ गई है। नवाज आने वाले दिनो में सेना को नियंत्रण में रख राजनीति में किस प्रकार अपनी बिसात बिछाते है यह भी देखने वाली बात होगी । हालांकि अभी वह सभी दलो को साथ लेकर चलने की अपनी बात को दोहरा रहे है। यही वजह है चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होने तहरीक ए -इंसाफ पार्टी के प्रमुख इमरान खान से मुलाकात की है जो नेशनल असेम्बली मे इस बार मुख्य विपक्ष पार्टी के तौर पे उभरी है इसे राजनीति के लिहाज से अच्छा संकेत माना जा सकता है। प्रधान मंत्री पद पर बैठने के बाद अगर नवाज अपनी बिसात खुद ही बिछाते है तो यह बेहतर होगा अन्यथा सेना ही हमेशा की तरह उनके लिए खतरा पैदा कर सकती है। आतंकियो को नेस्तानाबूद करने के लिए नवाज को सेना को अपने नियंत्रण में लेना ही होगा क्योकि पाक में सेना व सरकार रिश्ते पहले से ही तल्ख रहे है । नवाज सेना की मदद से तालिबान , अलकायदा सरीखी ताकतो पर फतह पा सकते है।
पाक के इस चुनाव ने कई संदेश एक साथ दिये है। पहला यह कि आप किसी जननेता को नही नकार सकते । मिया नवाज आज भी पाक आवाम की बड़ी पसन्द बने है शायद तभी वह तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे है । दूसरा जनता फौजी शासन से त्रस्त आ चुकी है । अब वह सड़को पर निकलकर अपने वोट की ताकत को दिखा रही है । तीसरा जनता भष्ट्राचार से तंग आ चुकी है । पीपीपी की लुटिया शायद इसी भष्ट्राचार ने डुबोयी । कम से कम चुनाव परिणाम तो यही साबित करते है। और एक खास बात यह चुनावी सभा में उमड़ने वाली भारी भीड़ को देखकर हम इस मुगालते में ना रहे कि यह भीड़ वोट में तब्दील होगी । अगर ऐसा होता तो 17 सालो के लम्बे संघर्ष के बाद पाकिस्तान में सत्ता की चाबी इमरान खान के पास होती लेकिन ऐसा नही हो पाया क्योकि ये पब्लिक है सब जानती है पब्लिक है ।
पाकिस्तान में सैन्य शासकों के शासन से आवाम की बेरूखी और फिर लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव में अपने बैलेट द्वारा सहभागिता यह बताने को काफी है कि मौजूदा तौर में पाक में जम्हूरियत की बैचेनी किस कदर सुनाई दे रही है। साढ़े छह दशकों के लम्बे इतिहास में लोगों का विशाल जनसैलाब बलूचिस्तान से लेकर सिन्ध और पंजाब से लेकर खैबर पख्तून की सड़कों पर वोट डालने लोकतांत्रिक सरकार के चुनने निकला उसने पहली बार न केवल तालिबानी कठमुल्लों के हौसलों को अपने वोट की ताकत से आईना दिखाया बल्कि जम्हूरियत की इस नई जंग में कट्टरपथियो के होश भी ठिकाने लगा दिये। तालिबान की धमकियों से बेपरवाह होकर महिलाओं ने भी पाक की सड़कों पर खुले घूमकर जिस तरह इस बार मतदान किया उससे पाक में लोकतंत्र की एक नई सुबह का आगाज सही मायनों में हुआ है। व्यापक हिंसा, सैकड़ों मौतों के बाद 60 फीसदी के आसपास हुए मतदान से लोकतंत्ररूपी जो बयार पाक में चली है उसे पाक के भविष्य के लिए हम शुभ संकेत मान सकते हैं।
नेशनल असेम्बली की 272 सीटों के लिए हुए मतदान में नवाज की पार्टी पीएमएल (एन) 123 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में न केवल उभरी बल्कि पाक की राजनीति में उसने इस चुनाव में पीपीपी और तहरीक-ए इंसाफ जैसी कई पार्टियों को दहाई के अंकों में समेट दिया। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में पीएमएलएन के उभरने के बाद नवाज शरीफ का प्रधानमंत्री बनना तय है। वह तीसरी बार पाक की सत्ता संभालने जा रहे हैं। नवाज शरीफ को मिला यह जनादेश पाक में पीपीपी की अलोकप्रियता का एक ताजा प्रमाण है। एन्टी एनकम्बेन्सी फैक्टर ने भी इस चुनाव में पीपीपी के तिलिस्म को तोड़ने का काम किया है। साथ ही उन राजनीतिक पंडितों के आंकलन को झुठला दिया है जो इस चुना वमें इमरान खान को पाक की राजनीति का उभरता चेहरा बताने पर तुले थे। इस चुनाव से पहले ब्रिटिश काउंसिल की एक रिपोर्ट में नवाज शरीफ और इमरान की पार्टी में कांटे की टक्कर बताई गई थी लेकिन चुनाव परिणामों ने सेफोलाजिस्टों की घिग्घी बांध दी है। खैबर पख्तून में जहां इमरान ने अपना दबदबा इस चुनाव में कायम किया तो वहीं जरदारी की पीपीपी सिंध में अपनी लाज बचाने में सफल हो गई। वहीं नवाज की पीएमएल (एन) ने पंजाब, बलूचिस्तान में अपनी शानदार जीत से अन्य पार्टियों को सत्ता में आने से रोकने का काम किया है। पाकिस्तान का यह चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा क्योंकि सेना ने जहां चुनावी प्रक्रिया में अपने को दूर रखा वहीं बम धमाके और हिंसा के साये के बाद भी वोटरों में मतदान को लेकर उत्साह दिखा। यह पहला मौका है जब पाकिस्तान में सत्ता हस्तान्तरण का एक नया दौर देखने को मिल रहा है जहां आवाम मताधिकार के आसरे लोकतंत्र में सहभागिता को लेकर लोकतंत्ररूपी उत्सव में अपनी भागीदारी वोट से कर रहा है। इस चुनाव में पाक के आवाम का बड़ा तबका जिस तरह कट्टरपंथियों के सामने खड़ा हुआ है उसने पूरे विश्व को एक नया संदेश दिया है कि अब फौजी शासन की फरेबी स्टाइल देश को नहीं बचा सकती। स्थिर और खुशहाल पाकिस्तान का सपना लोकतंत्र में ही साकार हो सकता है। 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने मतदान में भाग लेकर जम्हरियत के प्रति अपने विश्वास को प्रकट करने का काम किया है क्योंकि 70 के दशक के बाद यह पहला मौका रहा जब तमाम धमकियों के बावजूद लोग अपने घरों से बाहर निकले।
पाक में जम्हरियत की इस जंग में नवाज शरीफ खरा उतरे और लोगों ने जिस विश्वास के साथ उन्हें आंखों पर बिठाया है उसके बाद उन पर लोगों की उम्मीदों को पूरा करने की एक कठिन चुनौती सामने खड़ी है। शायद इसी वजह से जीत के बाद नवाज ने पूरे आवाम को अपना शुक्रिया अदा किया। उन्होंने इस दौरान मुल्क में न केवल अमन चैन बहाल करने की वचन बद्धता दोहराई बल्कि पड़ेसी देशों में भी सम्बध सुधारने पर अपना जोर दिया। वैसे नवाज शरीफ ने अपनी पूरी चुनावी कैम्पेनिंग में कश्मीर के मुद्दे से दूरी तो बनाई ही साथ ही कारगिल की जांच और मुम्बई हमले के दोषियों पर कार्यवाही करने का भरोसा जताकर भारत के प्रति अपने विश्वास को बहाल करने का काम किया है। शायद इसी वजह से चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन को पाक की यात्रा का निमंत्रण देने में देर नहीं दिखाई।
पाकिस्तान में तीसरी बार सत्ता में वापसी के बाद नवाज शरीफ ने अपने को न केवल शेर साबित किया बल्कि उन आलोचकों का भी मुंह बन्द कर दिया है जो पाकिस्तान में नवाज की वापसी को मुश्किल मान रहे थे। अब नवाज के सामने पड़ोसियों से ज्यादा आंतरिक समस्याओं का पहाड़ सामने खड़ा है। तालिबान अभी भी पाकिस्तान की जहां गर्दन मरोड़ रहा है वहीं अफगानिस्तान से अमरीका की फौजों की अगले साल हो रही वापसी के बाद नवाज के सामने असल मुश्किल खड़ी हो सकती है क्योंकि ऐसे हालातों में तालिबान पाक की गर्दन तोड़ेगा अतः उसके मुकाबले के लिए नवाज को अभी से तैयार रहना होगा। पाक में कट्टरपंथी उन्मादी प्रवृत्ति के लोग आज भी आये दिन वहां खून खराबा और आतंक बढ़ा रहे हैं जिससे जूझने की कठिन चुनौती नवाज के सामने खड़ी है। इस समय पाक की अर्थव्यवस्था सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। आवाम दाने-दाने के लिए जहां मोहताज है वहीं गैस सिलेण्डर, खाद्य सामग्रियों के दाम तो आसमान छू रहे हैं। साथ में कई इलाके बिजली संकट से जूझ रहे हैं। आये दिन होने वाले धमाकों से कोई नया निवेश पाक में नहीं हो पाया है जिससे अर्थव्यवस्था बेहाल है। ऐसे में देखना होगा वह पाक में अपनी तीसरी पारी में क्या करिश्मा दिखा पाते हैं? वह भी ऐसे हालातों में जब बीते 7 सालों में अमरीका ने 20 अरब डालर की मद्द से उसे दीवाले होने से बचाया है और यही नवाज अपने चुनाव प्रचार में अमरीका और उसके नीति नियंताओं को बड़े-छोटे मंचों से लगातार कोसते ही रहे।
नवाज 1990 और 1997 के दौर में प्रधानमंत्री रह चुके हैं। यह तीसरा मौका है जब वह पाक की कमान संभालने जा रहे हैं। लेकिन पिछली यादों को भुलाना उनके लिए आसान नहीं होगा। दो बार सेना ने लंगड़ी देकर न केवल उन्हें सत्ता से हटाया बल्कि अपने दोनों कार्यकाल में वह सेना की कठपुतली बनाकर राजपाट संभालते रहे। नवाज ने भले ही इस चुनाव में पाक की आंतरिक समस्याएं दुरूस्त करने और सरकार में सेना के किसी तरह को हस्तक्षेप से इंकार होने के सब्जबाग दिखाए लेकिन यह सब करना आसान नही है । वह भी उस मुल्क में जहा बीते 65 सालो से सरकार में सेना का सीधा दखल रहा है और विदेश नीति से लेकर आंतरिक सुरक्षा सभी सेना तय करती रही है। यही नही सेना को हर मसले पर आईएसआई भी समर्थन करती रही है। ऐसे हालातो में नवाज को सेना से सीधे दो -दो हाथ करना पड़ सकता है। जाहिर है इन परिस्थियों में उन्हें खुद को अभी से तैयार करना होगा । इन परिस्थियों में वह फौज से टकराव नही लेना चाहेगे । हाल के वर्षो मे पाक के अंदरूनी हालात बहुत अच्छे नही रहे है। आंतकी ताकतों ने वहां के मासूम नागरिको का अमन चैन छीन लिया । माहौल कितना खराब है यह वहा आये दिन होने वाले हमलो से समझा जा सकता है। पाक का इतिहास बतलाता है वहा जम्हुरियत की हवा का स्वांग भले ही समय समय पर रचा जाता रहा हो लेकिन सेना के बिना पत्ता भी नही हिलता । जरा सा दाये -बाये करने पर तख्ता पलट आम बात है। जाहिर है मिया नवाज के जेहन में यह सारी बाते अब भी कौंध रही होगी । 90 के दौर को याद करे तो मुशर्रफ मिया नवाज की वजह से सेना प्रमुख बने क्योकि वरिष्ठता के आधार पर उनसे पूर्व दो लेफ्टीनेन्ट जनरल आगे थे लेकिन नवाज के भाई शाहबाज शरीफ के कहने पर मिया नवाज ने मुशर्रफ के नाम पर किसी तरह का एतराज नही जताया । वही मुशर्रफ ने मौका पाकर न केवल 12 अक्टूबर 1999 को नवाज शरीफ को सत्ता से न केवल बेदखल किया बल्कि उन्हे जेल में नजबन्द भी कर दिया । बाद में समझौते के कारण नवाज 7 साल सऊदी अरब चले गये जहां मिया नवाज पर पाक में राष्ट्रद्रोह , विमान अपरहण के मुकदमे चलाये गये । यही नही जिया उल हक के दौरे को भी देखे तो जुल्फिकार भुटटो ने भी दो लेफ्टीनेन्ट जनरलों को सुपरसीड कर दिया । मगर कुछ दिनो बाद जिया ने जुल्फिकार अली भुटटो की बलि उन्हे शूली पर चढ़कार ली । नवाज जब प्रधान मंत्री पद की शपथ पाक में लेंगे तो इस सीन से पार पाना आसान नही होगा । बड़ा सवाल इस दौर में मुशर्रफ को लेकर भी है जिनके साथ कारगिल में मुशर्रफ ने उन्हे अंधेरे में रखा जिसके चलते भारत पाक सम्बन्ध पटरी से उतर गये । अटल बिहारी के साथ लाहौर वार्ता का जो चैनल नवाज ने खोला था कारगिल होते होते वह चैनल भी बन्द हो गया और मुम्बई में 26/11 के बाद तो रिश्तो में जंग सरीखी नौबत कई बार आ चुकी है । ऐसे में नये कार्यकाल मे अब मिया नबाज को सेना के साथ फूंक फूंक कर कदम रखने होगे ।
मिया नवाज की भावी राजनीति बहुत हदतक अगले सेना प्रमुख की ताजपोशी से तय होगी । वर्तमान में अशफाक कियानी सेनाध्यक्ष पद से रिटायर होने जा रहे है। उन्होने अमरीका का पूरा भरोसा पाया था लेकिन बड़ा सवाल नये सेनाघ्यक्ष के चुनने को लेकर भी है जिसमें नवाज की क्या भूमिका होगी यह देखना होगा । अपने इस बार के चुनाव प्रचार में नवाज ने अमरीका को खूब खरी खोटी सुनाई है ऐसे में जमीनी स्तर पर वह अमरीका का दखल पाक की आंतरिक राजनीति मे कितना कम कर पाते है यह देखने वाली बात होगी । पाक के आवाम में नवाज की वापसी का जबरदस्त जश्न दिख रहा है। नेशनल असेम्बली में पीएम एल एन के मजबूत होकर उभरने के साथ ही पाक के आवाम की नवाज से उम्मीदे बढ़ गई है। नवाज आने वाले दिनो में सेना को नियंत्रण में रख राजनीति में किस प्रकार अपनी बिसात बिछाते है यह भी देखने वाली बात होगी । हालांकि अभी वह सभी दलो को साथ लेकर चलने की अपनी बात को दोहरा रहे है। यही वजह है चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होने तहरीक ए -इंसाफ पार्टी के प्रमुख इमरान खान से मुलाकात की है जो नेशनल असेम्बली मे इस बार मुख्य विपक्ष पार्टी के तौर पे उभरी है इसे राजनीति के लिहाज से अच्छा संकेत माना जा सकता है। प्रधान मंत्री पद पर बैठने के बाद अगर नवाज अपनी बिसात खुद ही बिछाते है तो यह बेहतर होगा अन्यथा सेना ही हमेशा की तरह उनके लिए खतरा पैदा कर सकती है। आतंकियो को नेस्तानाबूद करने के लिए नवाज को सेना को अपने नियंत्रण में लेना ही होगा क्योकि पाक में सेना व सरकार रिश्ते पहले से ही तल्ख रहे है । नवाज सेना की मदद से तालिबान , अलकायदा सरीखी ताकतो पर फतह पा सकते है।
पाक के इस चुनाव ने कई संदेश एक साथ दिये है। पहला यह कि आप किसी जननेता को नही नकार सकते । मिया नवाज आज भी पाक आवाम की बड़ी पसन्द बने है शायद तभी वह तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे है । दूसरा जनता फौजी शासन से त्रस्त आ चुकी है । अब वह सड़को पर निकलकर अपने वोट की ताकत को दिखा रही है । तीसरा जनता भष्ट्राचार से तंग आ चुकी है । पीपीपी की लुटिया शायद इसी भष्ट्राचार ने डुबोयी । कम से कम चुनाव परिणाम तो यही साबित करते है। और एक खास बात यह चुनावी सभा में उमड़ने वाली भारी भीड़ को देखकर हम इस मुगालते में ना रहे कि यह भीड़ वोट में तब्दील होगी । अगर ऐसा होता तो 17 सालो के लम्बे संघर्ष के बाद पाकिस्तान में सत्ता की चाबी इमरान खान के पास होती लेकिन ऐसा नही हो पाया क्योकि ये पब्लिक है सब जानती है पब्लिक है ।
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