Monday 9 December 2013

कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है यह जनादेश .......


"मैदान ऐ ज़ंग में होती है जीत और हार
पर सिकंदर वही होता है जिसे मिले जनता का प्यार"

किसी शायर के द्वारा कही गई उपर की यह पंक्तियाँ अनायास ही हमारे जेहन में आ रही है  हालाँकि देश के पांच राज्यों का चुनाव निपट चुका है लेकिन इन चुनावो के परिणाम ने दिखा दिया है कि  हार जीत तो चुनाव के साथ लगे ही रहते है, लेकिन असली सिकंदर वही बन पता है जिसको जनता का दुलार मिलता है.......... 

दिल्ली , राजस्थान, मध्य  प्रदेश , छत्तीसगढ़ मिजोरम के चुनावो के परिणाम  सामने आ चुके है....  मप्र , छत्तीसगढ़ का पुराना किला जहाँ बीजेपी ने बचा लिया वही दूसरी तरफ  शीला "दीदी" की  पार्टी   दिल्ली  के साथ ही राजस्थान में धराशायी हो गई है ।  मिजोरम  कांग्रेस  की लाज बचा  पाने में सफल हुआ है जहाँ लालथनहावला फिर से सरकार  में सफल हुए हैं  परन्तु  मिजोरम को अगर छोड़  दें तो  चार राज्यो की 7 2   लोक सभा की सीटें  बहती हवा के रुख का सही से अहसास करा  सकती है ।अगर इसके संकेतो को डिकोड  करें तो माहौल  पूरी तरह कांग्रेस विरोधी दिखायी देता है  जिसके चलते आने वाले लोक सभा चुनावो में पार्टी की  मुश्किलें  बढ़ सकती हैं ।  



आठ  दिसम्बर का लोग बड़ी जोर शोर से इंतजार किए हुए थे । कारण था यह चुनाव 2 01 4  के लोक सभा चुनावो की नब्ज टटोलने का जरिए बनेगा शायद  तभी  मीडिया में जोर शोर से चुनावो की कवरेज दी जा रही थी  और वह  इसे संसद का सेमीफाइनल करार दे रहे थे ।  मसला इतना रोचक बन गया क़ि  देश का दिल कही जाने वाली हमारी"दिल्ली" के बैरोमीटर से सभी दल लोक सभा चुनावो से पहले अपने सियासी सूरते हाल नापने में लगे थे  लेकिन जब ८ दिसम्बर को वोटिंग मशीनो का पिटारा खुला तो राजनीती के अच्छे अच्छे पंडितो के होश उड़ गए  ।  मिजोरम को छोड़ दे तो चुनावो में बीजेपी कांग्रेस पर पूरी  तय तरह भारी  पड़ी । दिल्ली में "आप" सरीखी  एक नई नवेली पार्टी ने एंटी कांग्रेस  माहौल का लाभ लेते हुए 2 8  सीटें  झटकते हुए भाजपा और  कांग्रेस के कई बड़े दिग्गजों को पानी पिला दिया ।

पांच राज्यो का यह चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक  रहा  ।  चुनावो में "सत्ता विरोधी" लहर की आंधी दिल्ली और राजस्थान को उडा  ले गई तो वहीँ इसका बहुत आंशिक असर मप्र , छत्तीसगढ़ में देखने को मिला । शिवराज और रमन सिंह ने अपने विकास के बूते यह साबित किया अगर आप अच्छा काम करते हैं तो जनता उसका फल दुबारा वापसी करवाकर देती है ।

 दरअसल इन  राज्यो  के चुनावो में जनता ने स्थानीय समस्याओ , विकास को तरजीह दी...... महंगाई, भ्रष्टाचार का पूरा ठीकरा केंद्र सरकार के सर फूटा ।  केंद्र की यू  पी ए सरकार ने अपने कार्यकाल में जिस तरह महंगाई का बोझ आम आदमी के कंधो पर डाला और जिस तरीके से उसके शासन में घोटालो की बाढ़ आयी उसने पहली बार कांग्रेस की चिंताओ को बढ़ाने का काम किया शायद यही वजह थी चुनाव परिणामो के आने के चन्द  घंटे  बाद राहुल सोनिया  को साथ लेकर कांग्रेस मुख्यालय के सामने प्रेस कॉन्फ्रेंस करते दिखायी दिए । बीजेपी , कांग्रेस इन चुनाव परिणामो पर नज़र लगाये थी... जहाँ कांग्रेस को यह आस थी  वह अपने मनमोहन के "मनमोहक"कार्यक्रमों की बदौलत  राज्यों के इक बड़े वोटरों के तबके तो लुभाने में कामयाब होगी वहीँ बीजेपी को अपने शासन वाले राज्यों में जीत आस तो थी , साथ में उसको दिल्ली में इस दफा कमल का फूल खिलने की भी  आस थी लेकिन  कांग्रेस चुनावी बैरोमीटर के दाब को परखने में गलती हो  गई....   मिजोरम  तो बच गया  पर राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसका सूपड़ा साफ़ हो गया ।


 इन राज्यों के विधान सभा चुनावो के परिणामो को प्रेक्षक अलग अलग नज़र से देख रहे है लेकिन वह भी  इस नतीजे पर पहुंचे हैं यह जनादेश पूरी तरह से कांग्रेस विरोधी रहा है । इस बार के मतदान का रुख पिछले बार से बिल्कुल अलग नज़र आता है।  पिछली बार के चुनावो में यह देखा गया सत्ता विरोधी लहर परिणामो को प्रभावित करती नज़र  आती थी जो सत्तारुद दल का जहाज गंतव्य स्थान तक ले जाने में बड़ा रोड़ा खड़ा करती थी लेकिन इस चुनाव में यह फैक्टर चारों खाने चित  हो गया है.... मप्र  छतीसगढ़ में जीत का सेहरा  शिव , रमन के सर बधा  है तो राजस्थान में वसुंधरा राजे ने फिर अपनी छमताओं  को बखूबी साबित कर दिखाया है  जहाँ दो तिहाई बहुमत से भाजपा  की राजस्थान में सरकार बनी है ।


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इस चुनाव के बाद कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग यह प्रचारित करने में लगा है कि वोटरों का विश्वास उसकी नीतियों में बना हुआ है....  लेकिन राज्यों के चुनाव में अब स्थानीय  मुद्दो के साथ राष्ट्रीय मुद्दे भी  जोर पकड़ने लगे है ।  ऐसे में जीत वही हासिल रहा है जो इनको जोर शोर से उठा रहा है ।  कम से कम राज्यों का वोटर अब यह समझ रहा है कौन सरकार अच्छी है? किसको वोट देना चाहिए...दिल्ली में आप का साथ देकर वोटर ने पहली बार एक नयी इबारत लिखने की कोशिश की है जिसकेआने वाले दिनों में गम्भीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं ।  खुदा - ना ख़ास्ता  यह दिल्ली के यह चुनाव परिणाम देश को वैकल्पिक राजनीती कि दिशा में मजबूती का साथ ना ले जाएँ | 

दिल्ली में चौथी  बार शीला जी का जलवा चल नहीं पाया । वह खुद अरविन्द  केजरीवाल के हाथो बुरी तरह पराजित हुई ।  इस हार ने  कांग्रेस का उत्साह ठंडा कर दिया । .बीजेपी को  दिल्ली से इस बार सबसे ज्यादा आस थी  लेकिन कांग्रेस के किले में "आप" ने सबसे बड़ी सेंध लगाकर भाजपा को बहुमत से दूर ले जाने में अहम भूमिका निभायी ।  

शीला जी का जादू  इस दिल्ली में नहीं चल पाया । बेशक शीला ने  बीते पंद्रह बरस से वहां पर विकास कार्यो की जड़ी लगा दी थी लेकिन इन 1 5  वर्षो में अपराधो का बढ़ना , महिलाओ का असुरक्षित  होना, कामनवेल्थ , २जी , कोलगेट  जैसे कई मुद्दे उनके विरोध में गए । दो साल पहले जंतर मंतर पर जनलोकपाल को लेकर जिस तरह प्रदर्शन हुए उसने शीला सरकार कि परेशानियो को बढ़ाने का काम ही  किया । रही सही कसर बिजली और पानी की  बढ़ी हुई कीमतो ने बढ़ा दी जिससे आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान था । अब  शीला  असफलता के लिए लोग क्रेडिट मनमोहन और सोनिया को दे रहे है जो सही नही है ... कांग्रेस को इन चुनावो से सबक लेने की जरुरत है... उसके साथ  एक बड़ी बीमारी यह लगी है वह स्थानीय नेताओ को पनपने नही देती ... बेहतर  होता इस चुनाव में कांग्रेस शीला के बजाए  किसी नए चेहरे पर दाव  लगाती।  वैसे  दिल्ली में सरकार और संगठन में शुरू से तनातनी  ही  रही । शीला  और जय प्रकाश अग्रवाल के बीच छत्तीस  के आंकड़े  ने सरकार  के सामने कई बार परिस्थितिया  असहज ही  बनायी ।  वहीँ  दिल्ली में बीजेपी की सबसे बड़ी भूल यह हो गई हर्षवर्धन  का नाम उसने सीएम के रूप में डिक्लेयर करने में देरी कर दी  । 

पिछले चुनाव में जहाँ विजय कुमार  मल्होत्रा शीला के आगे कही नही  ठहरे तो वह इस बार डॉ  हर्षवर्धन की साफ़ सुधरी  छवि के साथ भाजपा चुनावो में गयी  जिसमे बहुत हद तक उसको लाभ हुआ लेकिन फिर भी बहुमत से वह दूर ही रही ।

 दिल्ली में भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा इस दौर में  नहीं है जो विपक्षियो पर भारी पड़ता । साठ  के दशक तो याद करें तो  उस समय दिल्ली में "पंजाबी और वैश्य " बिरादरी का सेंसेक्स सातवे आसमां पर चढ़ा करता था लेकिन आज इसमे ग्लोबल मेल्टडाउन आ चुका है  ।  दिल्ली का हाल आज ऐसा है यहाँ पर बिहारी, उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड और अन्य राज्यो  के प्रवासियों की संख्या में  भारी इजाफा हो गया है ।  कांग्रेस इसको १९९८ में समझ गई जब उसने उत्तर प्रदेश  मूल की शीला दीक्षित  को  दिल्ली में पटक दिया ... शीला ने कमान लेकर परंपरागत वोट बैंक पर तो मजबूत पकड़ बनायी  साथ में प्रवासियों  की  सारी बिरादरी  को साथ भी ले लिया ... बेचारी बीजेपी  अभी  तक इस बात को नहीं समझ रही है शायद यही वजह है भाजपा में   विजय गोयल,  विजय मल्होत्रा , विजय जौली,  जगदीश मुखी  और अब हर्षवर्धन जैसे  नेताओ के साथ प्रयोग करने का दौर ही चल रहा है ।



 मप्र  तो शिव लहर पर फिर से सवार हो गया .... मध्य प्रदेश में कांग्रेस चारो खाने चित  हो गयी और शिव राज हैट्रिक लगाने में सफल हुए ।  नमो  की तर्ज पर कई विधायको का टिकट काटने का साहस उन्होंने दिखाया... जिसमे शिव पास हो गए..... शिव को उनके नेक कामो और योजनाओ  का मेवा मिला । कांग्रेस की तो  हवा फुस्स हो गई .... । सबसे बड़ी गलती  कांग्रेस की यह हुई उसने केंद्रीय मंत्री हरीश रावत को प्रदेश का प्रभारी बना कर भेजा । हरीश रावत खुद उत्तराखंड में सियासी गुटबाजी को बढ़ाते आये हैं । मध्य प्रदेश जाकर उन्होंने कांग्रेस की गुटबाजी को और हवा देने का काम किया ।  ज्योतिरादित्य, दिग्गी राजा, कमलनाथ, सुरेश पचौरी,अजय सिंह  सबकी गुटबाजी उसे ले डूबी ।  हार के कारणों पर राहुल बाबा पोस्टमार्टम  कब  शुरू  करें यह दूर  की गोटी है लेकिन कांग्रेस अपने घर में ही घिर कर रह गई  .... शिव तो चुनावो की तिथि घोषित होने से पहले से  दो तिहाई मप्र  घूम चुके थे...


जनसंदेश यात्रा के आसरे शिवराज ने भाजपा के पक्ष में माहौल बनाया और शिव की सादगी शिवराज के भ्रष्ट  मंत्रियो पर भारी पड़ी । साथ ही शिवराज की योजनाओ और नमो की  रैलियो ने भाजपा के पक्ष में हवा बनायी । 

छत्तीसगढ़ में  चावल वाले " रमनबाबा जी " का जलवा फिर से चल गया .. जोगी की कांग्रेस इस  ज़ंग में हार गई ... नक्सली हमले में कांग्रेस के कई नेता मारे गए पर उस सहानुभूति का लाभ वह नहीं ले सकी । बस्तर में जरुर उसने अपनी सीटो की संख्या में इजाफा किया लेकिन  रमन सिंह ने 4 9  सीटें जितवाकर उसके सपनो को ध्वस्त  ही कर दिया ।  रमन की साफ  सुधरी छवि  का मतदाताओ  पर अच्छा असर हुआ.... कांग्रेस की वहां पर हार होने से अब  अजित जोगी  का वनवास अब तय है । वैसे भी शायद दस जनपथ ने जोगी को इस बार चुनाव प्रचार से दूर ही  रखा ।

वहीँ राजस्थान में अशोक गहलोत  की रियासत नही बच सकी..... गहलोत की हार में बहुत हद तक केन्द्र सरकार की महंगाई और भ्रष्टाचार ने भूमिका निभायी । रही सही कसर  उनकी सरकार की विफलताओ ने पूरी कर दी । चुनावी बेला पास आते देख गहलोत ने राजस्थान में ताबड़तोड़  योजनाओ की शुरुवात  की और इसी दौर में बड़े बड़े लोकार्पण भी शुरू हुए । लेकिन विकास के हर मोर्चे पर भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था की लचर व्यवस्था ने उनके शासन की पोल खोल दी । यही नहीं अपने रिश्तेदारो को जिस तरह उन्होंने खनन के पट्टे  बाटे और यह मामला विधान सभा में भी गूंजा उससे उनकी खासी किरकिरी  हुई । रही सही कसर  भवरी -मदेरणा और बाबूलाल की रास लीलाओ ने पूरी कर दी जिसकी आम जनता में खासी  छीछलेदारी हुई । 


वही मिजोरम में सत्ता विरोधी लहर की आंधी नहीं चल सकी ...कांग्रेस  ने  पूरा दो तिहाई बहुमत फिर से पा लिया । मिजो नेशनल फ्रंट की सत्ता में वापसी की कोशिशे रंग नहीं ला सकी ।  लालथनहावला  के सामने एक बार फिर  बड़ी चुनौती जन आकांशा को पूरा करने की है । देखना होगा प्रदेश के विकास के लिए इस बार वह क्या प्रयास करते दिखाए देंगे ?

बहरहाल पांच राज्यो  के चुनावो के बाद लोकसभा का आंकलन करना बड़ी भारी भूल होगी लेकिन बहती हवा यह अहसास  तो करा ही रही है कांग्रेस लगातार सिकुड़ रही है औरअगर यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में लोकसभा चुनाव में सौ सीटें  जीत पाना उसके लिए मुश्किल होगा ।  पांच राज्यो के परिणामो  के बाद अब मतदाताओ  की"रिवर्स स्विंग" ने उसको  " बेक फ़ुट ड्राइव" में लाकर खड़ा कर दिया है...अब उसे  नई रणनीति पर काम करना होगा । " नमो " की तर्ज पर उसे किसी चेहरे के साथ लोक सभा चुनाव में आगे जाना ही होगा । वैसे भी चुनाव की उलटी गिनती इस साल के बीतने के साथ शुरू हो जायेगी । ऐसे में किसी ख़ास रणनीति पर दस जनपथ को काम करना ही होगा और गांधी परिवार को अब बदलती परिस्थितियो के अनुकूल अपने को मथना पड़ेगा क्युकि पहली बार गांधी  परिवार  का "औरा " नमो" के आगे फीका पड़ता दिखायी दे रहा है । रही सही कसर मनमोहनी इकोनोमिक्स ने पूरी कर डाली है जहाँ आम आदमी की थाली दिन पर दिन महंगी होती जा रही है और भ्रष्टाचार ने कांग्रेस की मिटटी पलीत कर डाली है । ऐसे में अब कांग्रेस के वार रूम पॉलिटिक्स  के  कर्ता धर्ताओ को कुछ तो करना ही होगा ? 

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