ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव अब पूरी दुनिया में देखा जा सकता है | दुनिया की सबसे भीषण चुनौतियों में से एक अब ग्लोबल वार्मिंग बन चुकी है यही कारण है कि 10 बरसों की तुलना में वर्ष 2015 अब तक का सबसे गरम बरस रहा और धरती का तापमान अभी जितना है इतना पिछले कई हजार वर्षों में नहीं बढ़ा | आई पी सी सी ने अनुमान लगाते हुए दोहराया भी है धरती का तापमान 2100 में सबसे गर्म होगा जो 1 से लेकर 6 डिग्री तक बढ़ सकता है | यह बहुत हद तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर निर्भर करेगा | बीते बरस नवंबर माह में ही ठंड की शुरुआत हो चुकी थी अभी स्थिति यह है दिसम्बर में कड़ाके की ठण्ड का अहसास भी नहीं हो पा रहा |
पिछले कुछ वर्षो से मौसम का मिजाज लगातार बदलता ही जा रहा है जिस कारण पूरी दुनिया में अप्रत्याशित परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं | जलवायु परिवर्तन के इस प्रभाव को हम बीते कुछ बरस में धरती के स्वर्ग कश्मीर से लेकर उत्तराखंड और नेपाल तक देख चुके हैं और बीते दिनों चेन्नई में हुई मूसलाधार बरसात जिसने कई बरसों के रिकार्ड को तोड़ दिया यह भी ग्लोबल वार्निंग की खतरनाक दस्तक की तरफ इशारा कर रही है | यदि हम इनके रूख को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सब जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है । ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस कार्बन डाईऑक्साइड 40.2 प्रतिशत, मिथेन 16.7 प्रतिशत, नाइट्रस ऑक्साइड 20 प्रतिशत व ओजोन 36 प्रतिशत बढ़ गयी है | ठण्ड का मौसम शुरू होने को है लेकिन कहीं बेमौसम फल और फूल उग आये हैं तो कहीं भीषण बरसात ने कहर बरपाया हुआ है | मौसम किस करवट पूरे विश्व में बैठ रहा है यह इस बात से समझा जा सकता है कि मौसम चक्र के बदलते रूप से दुनिया काहर देश इस समय प्रभावित है | सुनामी, कैटरीना, रीटा, नरगिस, हुदहुद आदि परिवर्तन की इस बयार को पिछले कुछ वर्षो से ना केवल बखूबी बतला रहे है बल्कि गौमुख , ग्रीनलैंड, आयरलैंड और अन्टार्कटिका में लगातार पिघल रहे ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्निंग की आहट को करीब से महसूस भी कर रहे हैं ।
इस प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं है । पिछले कुछ समय से यहाँ के मौसम में अप्रत्याशित बदलाव हमें देखने को मिले हैं । असमय वर्षा का होना , सूखा पड़ना, बाढ़ आ जाना , हिमस्खलन , भारी बरसात जैसी प्राकृतिक आपदाएं जलजला आना तो अब आम बात हो गयी है । "सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामला " कही जाने वाली हमारी माटी में कभी इन्द्रदेव महीनो तक अपना कहर बरपाते हैं तो कहीं इन्द्रदेव के दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं ।
आज पूरे विश्व में वन लगातार सिकुड़ रहे हैं तो वहीँ किसानो का भी इस दौर में खेतीबाड़ी से सीधा मोहभंग हो गया है । अधिकांश जगह पर जंगलो को काटकर जैव ईधन जैट्रोफा के उत्पादन के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है तो वहीँ पहली बार जंगलो की कमी से वन्य जीवो के आशियाने भी सिकुड़ रहे हैं जो वन्य जीवो की संख्या में आ रही गिरावट के जरिये महसूस की जा सकती है वहीँ औद्योगीकरण की आंधी में कार्बन के कण वैश्विक स्तर पर तबाही का कारण बन रहे हैं तो इससे प्रकृति में एक बड़ा प्राकृतिक असंतुलन पैदा हो गया है और इन सबके मद्देनजर हमको यह तो मानना ही पड़ेगा जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से हो रहा है और यह सब ग्लोबल वार्मिंग की आहट है ।
औद्योगिक क्रांति के बाद जिस तरह से जीवाश्म ईधनो का दोहन हुआ है उससे वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी है । वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की यही मात्रा ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है । कार्बन डाई आक्साइड के साथ मीथेन , क्लोरो फ्लूरो कार्बन भी इसके लिए जिम्मेदार है जिसमे 55 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड है । वैज्ञानिकों ने पाया है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से ही वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साईड और ग्रीन हाउस गैसों में बेतहाशा वृद्धि हुई है साथ ही बीते 100 बरसों में धरती के तापमान में भी दशमलव 85 की वृद्धि हुई है| आर्कटिक महासागर में बर्फ का लगातार पिघलना और लगातार ग्लेशियरों का पिघलना यह बतलाने के लिए काफी है कि मौसम चक्र तेजी के साथ बदल रहा है |
जलवायु परिवर्तन पर आई पी सी सी ने अपनी रिपोर्ट में भविष्यवाणी की है 2015 तक विश्व की सतह का औसत तापमान 1.1 से 6.4 डिग्री सेन्टीग्रेड तक बढ़ जाएगा जबकि समुद्रतल 18 सेंटीमीटर से 59 सेन्टीमीटर तक ऊपर उठेगा । रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.20 अरब लोगो को पीने का पानी नहीं मिलेगा और लगभग 60 करोड़ लोग भूख से मारे जायेंगे । अगर यह सच साबित हुआ तो यह दुनिया के सामने किसी भीषण संकट से कम नहीं होगा ।
कार्बन डाई आक्साइड के सबसे बड़े उत्सर्जक अमेरिका ने पहले कई बार क्योटो प्रोटोकोल पर सकारात्मक पहल की बात बड़े बड़े मंचो से दोहराई लेकिन आज भी असलियत यह है जब भी इस पर हस्ताक्षर करने की बारी आती है तो वह इससे साफ़ मुकर जाता है । अमरीका के साथ विकसित देशो की बड़ी जमात में आज भी कनाडा, जापान ,चीन सरीखे कई विकसित देश खड़े हैं जो किसी भी तरह अपना उत्सर्जन कम करने के पक्ष में नहीं दिखाई देते । विकसित देश अगर यह सब करने को राजी हो जाएँ तो उन्हें अपने जी डी पी के बड़े हिस्से का त्याग करना पड़ेगा जो तकरीबन 5.5 प्रतिशत बैठता है और यह सब मौजूदा दौर में दूर की गोटी ही लगती है।
इधर अधिकांश वैज्ञानिको का मानना है कि कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित देशो को किसी भी तरह फौजी राहत दिलाने के लिए कुछ उपाय तो अब करने ही होंगे नहीं तो दुनिया के सामने एक बड़ा भीषण संकट पैदा हो सकता है और यकीन जान लीजिये अगर विकसित देश अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहते हैं तो तापमान में भारी वृद्धि दर्ज होनी शुरू हो जायेगी । अगर ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री की दर से बढती रही तो समुद्री सहत तकरीबन 6 फीट तक बढ़ जायेगी यही नहीं धरती का एक बड़ा हिस्सा पानी में डूब जायेगा | यह आशंका निर्मूल नहीं है क्युकि दुनिया की सबसे विश्वसनीय जर्नल साइंस ने इसे अपनी रिपोर्ट में प्रकाशित भी किया है जिसमें दुनिया के 20 बड़े शहरों के डूबने की भविष्यवाणी की गई है | इस रिपोर्ट में भारत के मुंबई, कोलकाता समेत पडोसी चीन के शंघाई सरीखी आलीशान शहर शामिल हैं | अमरीका के पूर्वी तट और मेक्सिको की खाड़ी में समुद्री सतह तेजी से बढ़ रही है | बीते 50 बरस में यहाँ समुद्र का जल स्तर 8 इंच से अधिक बढ़ा है जिसका कारण ग्लेशियरों का पिघलना है जो ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से सिकुड़ रहे हैं |
वैसे इस बढ़ते तापमान का शुरुवाती असर हमें अभी से ही दिखाई देने लगा है । हिमालय के ग्लेशियर अगर इसी गति से पिघलते रहे तो 2030 तक अधिकांश ग्लेशियर जमीदोंज हो जायेंगे । नदियों का जल स्तर गिरने लगेगा तो वहीँ भीषण जल संकट सामने आएगा । वैसे ग्रीनलैंड में बर्फ की परत पतली हो रही है वहीँ उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक इलाके की कहानी भी किसी से शायद ही अछूती है । बर्फ पिघलने से समुद्रो का जल स्तर बढ़ने लगा है जिस कारण आने वाले समय में कई इलाको के डूबने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता । कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा न केवल उपरी समुद्र में बल्कि निचले हिस्से में भी बढती जा रही है बल्कि पशु पक्षियों में , जीव जन्तुओ में भी इसका साफ़ असर परिवर्तनों के रूप में देखा जा सकता है जिनके नवजात समय से पूर्व ही इस दौर में काल के गाल में समाते जा रहे हैं । कई प्रजातियाँ इस समय संकटग्रस्त हो चली हैं जिनमे बाघ, घडियाल , गिद्ध , चीतल , भालू, कस्तूरी मृग, डाफिया, घुरड़, कस्तूरी मृग सरीखी प्रजातियाँ शामिल हैं । लगातार बढ़ रहे तापमान से हिन्द महासागर में प्रवालो को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है ।
सूर्य से आने वाली पराबैगनी विकिरण को रोकने वाली ओजोन परत में छेद दिनों दिन गहराता ही जा रहा है । हम सब इन बातो से इस दौर में बेखबर हो चले हैं क्युकि आर्थिक सुधारों की थाप पर चल रहे देश में लोगो को चमचमाते मालो की चमचमाहट ही दिख रही है । ऐसे में प्रकृति से जुड़े मुद्दों की लगातार अनदेखी हो रही है । यह सवाल मन को कहीं ना कहीं कचोटता जरुर है शायद यही वजह है पूरी दुनिया 11 दिनों तक पेरिस में इस संकट की भयावहता को करीब से महसूस कर भी रही है | विकास की अंधाधुंध दौड़ में आज हम प्रकृति का विदोहन करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे जिससे अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया में गंभीर असंतुलन पैदा हो गया है |
इसमें कोई दो राय नहीं आज दुनिया में जो जलवायु परिवर्तन हुआ है उसमे बड़े देशों की हिस्सेदारी कुछ ज्यादा है अतः बेहतर होगा पेरिस सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग का रास्ता भी बड़े और विकसित देशों से ही निकले | जिस तकनीक के आसरे विकसित देशों ने ताकत हासिल की आज उसी के चलते दुनिया में संकट मडरा रहा है | आज जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को हर देश भुगत रहा है | कई देशों के सामने खाद्यान का संकट खड़ा है वहीँ सूखा , बाढ़ और अतिवृष्टि ने इस दौर में भारत सरीखी समूची ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था वाले देश का तो बंटाधार कर दिया है | आर्थिक सुधार और औद्योगीकरण को गति देने के साथ ही ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ी है |
वैज्ञानिको के ताजा आंकड़ो को अगर आधार बनाये तो 2030 तक पृथ्वी का तापमान 6 डिग्री बढ़ जायेगा । वहीँ पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिख रहा है जिसके चलते अफ्रीका में खेती योग्य भूमि आधी हो जायेगी । अगर ऐसा हुआ तो खाने को लेकर एक सबसे बड़ा संकट पूरी दुनिया के सामने आ सकता है क्युकि लगातार मौसम का बदलता मिजाज उनके यहाँ भी अपने रंग दिखायेगा । प्राकृतिक असंतुलन को बढाने में प्रदूषण की भूमिका भी किसी से अछूती है । कार्बन डाई आक्साइड , कार्बन मोनो आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड , क्लोरो फ्लूरो कार्बन के चलते आम व्यक्ति सांस लेने में कई जहरीले रसायनों को ग्रहण कर रहा है । नेचर पत्रिका ने अपने हालिया शोध में पाया है विश्वभर में तकरीबन एक करोड़ से ज्यादा लोग जहरीले रसायनों को अपनी सांस में ग्रहण कर रहे हैं ।
वायुमंडल में इन गैसों के दूषित प्रभाव के अलावा पालीथीन की वस्तुओ के प्रयोग से कृषि योग्य भूमि की उर्वरता कम हो रही है । यह ऐसा पदार्थ है जो जलाने पर ना तो गलता है और ना ही सड़ता है । साथ ही फ्रिज , कूलर और एसी वाली कार्यसंस्कृति के अत्यधिक प्रयोग , वृक्षों की कटाई के कारण पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है । जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण तो पहले से ही अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । अन्तरिक्ष कचरे के अलावा देश के अस्पतालों से निकलने वाला मेडिकल कचरा भी पर्यावरण को नुकसान पंहुचा रहा है जो कई बीमारियो को भी खुला आमंत्रण दे रहा है ।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में तेजी से तब्दीली हो रही है । वायुमंडल जहाँ गरमा रहा है वहीँ धरती का जल स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है । इसका ताजा उदाहरण भारत का सुन्दर वन है जहाँ जमीन नीचे धंसती ही जा रही है । समुद्र का जल स्तर जहाँ बढ़ रहा है वहीँ कई बीमारियों के खतरे भी बढ़ रहे हैं । एक शोध के अनुसार समुद्र का जल स्तर 1.2 से 2.0 मिलीमीटर के स्तर तक जा पहुंचा है । यदि यही गति जारी रही तो उत्तरी ध्रुव की बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी । कोलोरेडो विश्वविद्यालय की मानें तो अन्टार्कटिका में ताप दशमलव 5 डिग्री की दर से बढ़ रहा है । इस चिंता को समय समय पर यू एन ओ महासचिव बान की मून भी जाहिर कर चुके हैं ।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ईमानदारी से सभी देशो को मिल जुलकर प्रयास करने की जरुरत है । दुनिया के देशो को अमेरिका के साथ विकसित देशो पर दबाव बनाना चाहिए । अमेरिका की दादागिरी पर भी रोक लगनी जरुरी है । साथ ही उसका भारत सरीखे विकास शील देश पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि विकास शील देश इस समय बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं । ग्लोबल वार्मिंग का दोष एक दूसरे पर मडने के बजाए सभी को इस समय अपने अपने देशो में उत्सर्जन कम करने के लिए एक लकीर खींचने की जरुरत है क्युकि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अकेले विकासशील देशो की नहीं विकसित देशो की भी है जिनका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान रहा है ।
यकीन जान लीजिये अगर अभी भी नहीं चेते तो यह ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया के लिए आखरी वार्निंग साबित हो सकती है | अक्सर ग्लोबल वार्मिंग जैसे मसलों पर दुनिया कई बार आपसी चर्चा के लिए तैयार दिखाई देती है लेकिन वह उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को हासिल करना तो दूर किसी आपसी निर्णय तक नहीं पहुँच पाती | इसका सबसे बड़ा कारण विकसित और विकासशील देशो के ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के मसले पर आपसी झगडें हैं क्युकि अमरीका सरीखे विकसित देश ग्रीन हाउस गैस बढ़ने के लिए भारत , चीन जैसे देशों को दोषी ठहराते हैं और जब अपने उत्सर्जन को कम करने की बारी आती है तो वह जिम्मेदारियों से पीछे भागने में देरी नहीं लगाते हैं |
अब ऐसे माहौल में रास्ता निकलना मुश्किल ही लगता है लेकिन पेरिस में प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह वैश्विक मंच में अपनी बात को बेबाकी से रखते हुए पूरी दुनिया से अपनी जिम्मेदारियों को समझने का आह्वान किया है और बड़े देशो की उत्सर्जन में हिस्सेदारी को उठाया है उससे इस बात की उम्मीद तो बन ही रही है कि पेरिस में तमाम देश मिलजुलकर कोई ऐसा रास्ता तो निकाल ही लेंगे जिससे धरती को बचाया जा सके | ऐसे विकास से भी क्या लाभ जहाँ पर मानव का जीवन ही खतरे में पड जाए | पेरिस में मोदी की पहल पर जिस तरह बीते दिनों अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन को मूर्त रूप दिया गया वह स्वागतयोग्य है | सौर उर्जा बढ़ते ताप से धरती को बचाने का कारगर माध्यम साबित हो सकता है जिसमे विकसित और विकासशील देशों की पहली धुरी पी एम मोदी बने हैं |
सौर उर्जा की मौजूदा तकनीक काफी महंगी है लिहाजा विकासशील देशों के सामने इस पर निर्भरता संभव नहीं है लेकिन दोनों के एक मंच पर साथ आने और गठबंधन बनने से निश्चित ही कोई नई राह खुलेगी ऐसी उम्मीद तो बन ही रही है | फिर इस बार पेरिस में चल रहा जलवायु परिवर्तन का सम्मेलन 30 नवम्बर से 11 दिसंबर तक चल रहा है जिसमे पूरी दुनिया पेरिस की छतरी तले जिस तरह एकजुट दिख रही है उससे इस बात का पता तो चल ही रहा है कि दुनिया अब अपनी जिम्मेदारियों को मान रही है और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को करीब से महसूस भी कर रही है | वैश्विक राजनीति में इन दिनों मोदी और ओबामा की जुगलबंदी की चर्चाएं जोर शोर से चल निकली हैं | कहा जाता है कि मोदी और ओबामा की कैमिस्ट्री आमतौर पर हर मसले पर अच्छी रही है और पहली बार ओबामा ने मोदी के सामने यह जतला दिया है कि अब विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं भाग सकते इसे डिकोड करें तो पेरिस से जलवायु परिवर्तन के मसले पर कोई नया रास्ता जरूर निकलेगा ऐसी उम्मीद तो इस बार बंध ही रही है |
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