जिस समय भाजपा की कोर टीम अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई में यू पी चुनावों की बिसात बिछाने में लगी हुई थी ठीक उसी समय भाजपा शासित राज्यों के माडल स्टेट गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने फेसबुक पर गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश कर भाजपा आलाकमान की चूलें हिलाने का काम कर दिया | हालाँकि आनंदी बेन के बारे में कई महीनो से कयास लग रहे थे कि वो किसी राज्य की राज्यपाल बनायी जा सकती हैं लेकिन एकाएक इस्तीफे ने भाजपा के भीतर न केवल हलचल मचा दी बल्कि विपक्षियों को भी बैठे बिठाए एक मुद्दा दे दिया | भाजपा अपने को चाल चलन और अलग चेहरे वाली पार्टी के रूप में प्रचारित कर अक्सर संसदीय लोकतंत्र और पार्टी के संसदीय बोर्ड की दुहाई देकर अपने को पार्टी विथ डिफरेंस कहती आई है लेकिन आनंदी के फेसबुक पर लिखे इस्तीफे ने चुनावी बरस में भाजपा की चिंताओं को तो बढ़ा ही दिया |
आनंदी के इस्तीफे के मजमून को समझें तो आगामी 21 नवम्बर को 75 बरस में प्रवेश कर रही हैं लिहाजा बढती उम्र सीमा और नई भाजपा में 75 से अधिक के नेताओं के किसी पद पर विराजमान न होने की लक्ष्मण रेखा के निर्धारित होने के चलते उन्होंने यह फैसला किया है | लेकिन असल सवाल यह है आखिर तीन महीने पहले आनंदी ने इस्तीफे की पेशकश क्यों की ?आखिर ऐसा क्या हो गया जो उन्होंने पार्टी के फोरम पर गुजरात से जुड़े सवालों को ना उठाकर सीधे सोशल मीडिया पर ही इस्तीफ़ा दे डाला ? उम्र तो एक बहाना है इसकी असल वजह भाजपा का गुजरात में दिन प्रतिदिन गिरता जनाधार और अमित शाह के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा भी रहा |
22 मई 2014 को आनंदी की जब सी एम पद के रूप में ताजपोशी हुई तो किसी ने भी नहीं सोचा था जिस गुजरात को मोदी ने अपनी छाव तले हिन्दुत्व के तडके के साथ ब्रांड गुजरात के साथ जोड़ने की कोशिश की थी उसी गुजरात में भाजपा के दुर्दिनो की शुरुवात मोदी के 7 रेस कोर्स आने के बाद शुरू हो जाएगी | असल में आनंदी मोदी के जाने के बाद सही मायनों में गुजरात को नहीं संभाल पाई | आनंदी के कार्यकाल का सबसे बडा रोड़ा हार्दिक पटेल का पाटीदार आन्दोलन रहा जिसने पूरे गुजरात में भाजपा विरोध की लेकर पैदा कर दी | अगस्त 2015 में पाटीदार आन्दोलन के बाद से ही लग गया था आनंदी से गुजरात संभालना मुश्किल हो रहा है | उसके बाद से ही पटेलों में असंतोष इस कदर बढ़ गया कि हाल में संपन्न पंचायत चुनावों और नगर निगम के चुनावों में भाजपा ढेर हो गयी | भाजपा को 31 में से 23 जिला पंचायतो में करारी हार का सामना करना पड़ा | शहरी इलाकों में जहाँ भाजपा का वोट प्रतिशत 50 फीसदी के आस पास था वहां वह घटकर 43 फीसदी पर जा पहुंचा और विपक्षी कांग्रेस ने अपने ग्रामीण जनाधार में इजाफा कर अपना वोट प्रतिशत 47 फीसदी कर कर डाला | इसके बाद से ही दिल्ली में बैठे भाजपा आलाकमान के तोते उड़ने लगे | रही सही कसर 11 जुलाई को उना में गौ रक्षकों के द्वारा दलितों की निर्मम पिटाई दी पूरी कर दी जिसने सड़क से लेकर संसद तक विपक्षियों को बैठे बिठाए एक बड़ा मुद्दा दे दिया | ऊना काण्ड से पूरे देश में दलितों के खिलाफ गलत सन्देश पूरे देश में चला गया और पूरे मीडिया ने इसकी व्यापक कवरेज की जिसके चलते गुजरात के फब्बारे की हवा निकल गयी | दलित मुद्दा सियासी बिसात के केंद्र में हर उस राज्य में है जहाँ आगामी समय में चुनाव होने हैं | पंजाब,यू पी और उत्तराखंड के चुनावों में यह मुद्दा हावी होने का अंदेशा बना हुआ था और गुजरात में भी इसको हवा मिलनी शुरू हो गयी थी जिसके चलते भाजपा की छवि और खुद पी एम मोदी की छवि पर ग्रहण लगने की आशंका बनी हुई थी |
इससे आभास हो चला था कि राज्य में कानून व्यवस्था काफी लचर है और व्यवस्था को संभाल पाने में आनंदी असहज हैं | गुजरात को माडल स्टेट का दर्जा भले ही भाजपा देती रही हो लेकिन असल सच यह है मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात अमित शाह ने हाईजैक कर लिया | आनंदी के समर्थकों की मानें तो राज्य के तमाम मंत्रीगण और आला अधिकारी सीधे अमित शाह को रिपोर्ट करने लगे थे जिससे आनंदी बेन के सामने मुश्किलें खड़ी हो गयी थी और गुजरात के शासन प्रशासन में अपने दखल न होने से वह कई दिनों से खुद को असहज पा रही थी | मोदी के दिल्ली जाने के बाद गुजरात के हालत खराब हो गए जिसके चलते पार्टी को पूरे देश में बड़ी नाराजगी उठानी पड़ सकती थी इसलिए समय से पहले आनंदी ने इस्तीफे की पेशकश कर भाजपा को राहत देने का काम किया लेकिन आंनदी बेन के उत्तराधिकारी के लिए आंखरी समय तक जिस अंदाज में शह मात का खुला खेल भाजपा के मॉडल स्टेट गुजरात में मचा उसने पहली बार भाजपा की गुटबाजी को सतह पर ला दिया ।
गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए नितिन पटेल का नाम लगभग तय हो गया था लेकिन आखरी समय में अमित शाह ने बाजी पलट कर रख दी । हालाँकि नितिन के अलावे भूपेंद्र सिंह चूड़ासमा, वित्त मंत्री सौरभ पटेल और राज्य बीजेपी अध्यक्ष और जल संसाधन और विधानसभा अध्यक्ष तथा आदिवासी नेता गनपत वासवा के बीच अगले मुख्यमंत्री के कई दावेदार भाजपा के सामने आये लेकिन मोदी और शाह की रजामंदी रूपानी पर जाकर टिक गई । यह नई भाजपा का असल सच है जहाँ मोदी और शाह दोनों एक दूसरे की जरूरत बन चुके हैं । इसका प्रभाव मंत्रिमंडल विस्तार से लेकर संगठन सभी जगह देखा जा सकता है जहाँ शाह मोदी की रजामंदी के बिना भाजपा का पत्ता भी नहीं हिलता ।
अस्सी के दशक में कांग्रेस ने गुजरात में राज करने के लिए खाम यानि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान गठजोड़ बनाया था । इसे टक्कर देने के लिए पटेल समुदाय ने भाजपा का हाथ थामा था तब से पटेल (लेउवा और कडवा ) भाजपा की ही गिरफ्त में हैं और पाटीदार आंदोलन के बाद भाजपा किसी भी तरह गुजरात में पटेलों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती लिहाजा सारे समीकरणों को साधते हुए उसने नितिन पटेल का नाम डिप्टी सी एम के रूप में चला और मंत्रिमंडल में बड़े पैमाने में पटेल समुदाय को प्रतिनिधित्व दिया । वैसे भी गुजरात में अगले बरस चुनावी डुगडुगी बज रही है लिहाजा विजय रूपानी और नितिन पटेल की जोड़ी को आगे कर भाजपा अपना गढ़ गुजरात बचाने की अंतिम कोशिश में है । विजय रूपानी को आमतौर पर संगठन का आदमी माना जाता है । गुजरात भाजपा में उनकी अच्छी पकड़ है । जैन समुदाय से आने वाले रूपानी गुजरात भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर भी काबिज हैं । आरएसएस के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले रूपानी आपातकाल के दौरान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था । आपातकाल के दौरान इन्हें जेल भी जाना पड़ा । एक सामान्य पार्षद से लेकर गुजरात भाजपा में कद्दावार नेता तक का सफर तय करने वाले रूपानी राजकोट का मेयर भी रह चुके हैं । साथ ही विजय रूपानी आनंदीबेन की सरकार में ट्रांसपोर्ट, वाटर सप्लाय, लेबर व रोजगार मंत्रालय संभाल चुके हैं । विजय रूपानी के सांगठनिक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह चार बार गुजरात भाजपा के महासचिव रह चुके हैं वहीँ नितिन पटेल गुजरात सरकार में सबसे अनुभवी और वरिष्ठ मंत्री रह चुके हैं । वह गुजरात सरकार के सभी विभागों के मंत्री रह चुके हैं । वह काफी सुलझे हुए नेता हैं । नितिन पटेल गुजरात के मेहसण्डा जिले ताल्लुक रखते हैं और मेंहसण्डा पाटीदार आंदोलन का गढ़ रहा है। भाजपा आलाकमान और पार्टी नेतृत्व का मानना है कि नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री बनाने से पाटीदार आंदोलन ठंडा पड़ जायेगा । गुजरात के मौजूद हालातों के मद्देनजर एक पटेल को दीप्ती सी एम और पटेलो को मंत्रिमंडल में भागीदारी देने से पाटीदार आंदोलन के सुर ठन्डे पड जाएंगे ।विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय भले ही चौंकाने वाला फैसला है लेकिन मोदी -शाह की जोड़ी ने पहले भी ऐसे कई फैसले लिये हैं । हाल के बरस में देखें तो महाराष्ट्र में एकनाथ खड़से की जगह देवेंद्र फड़नवीस को सीएम बनाया गया वहीँ जाटलैंड हरियाणा में पहली बार जाट नेता को किनारे कर एक पंजाबी बिरादरी से आने वाले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया । आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में पहली बार एक गैरआदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को चुना गया ।
अगले बरस गुजरात में चुनाव है जिसमे पी एम मोदी की प्रतिष्ठा भी दांव पर है । मोदी के लिए गुजरात की क्या अहमियत है यह इस बात से समझी जा सकती है गुजरात में उनकी जड़ें गहरी हैं जिसके सरदार बनने के बाद ही वह पी एम की कुर्सी पर बैठ पाए । ऐसे में रूपानी के सामने अब बहुत विकट चुनौती गुजरात के सरोवर में भाजपा का कमल खिलाना है । मोदी के दिल्ली जाने के बाद बीते दो बरस में भाजपा के गुजरात मॉडल पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं । पाटीदारों का गुस्सा जहाँ बरक़रार है वहीँ ऊना की घटना से दलित आक्रोश अभी थमा नहीं है । गुजरात की विकास दर भी मौजूदा दौर में गिर चुकी है वहीँ बेरोजगारी का संकट दिनों दिन बढ़ता जा रहा है । ऐसे हालातों में रूपानी के सामने गुजरात की विकट चुनौतियां सामने हैं जिनसे पर पाना उनके लिए आसान नहीं होगा और गुजरात की हार जीत के साथ उत्तर प्रदेश , पंजाब , उत्तराखंड , मणिपुर , गोवा का चुनाव 2019 में मोदी सरकार का एसिड टेस्ट करेगा । साथ ही गुजरात में आनंदीबेन के समर्थको को साधना भी रूपानी के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि जिस तर्ज पर आनंदीबेन के करीबियों को अमित शाह ने ठिकाने लगाया है उससे मुश्किलें बढ़नी तय हैं । बहुत सम्भव है आने वाले बरस में होने वाले चुनाव में टिकट चयन में शाह और रूपानी की ही चलेगी ऐसी सूरत में इन विधायकों को आनंदी के करीबी होने का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है । ऐसी परिस्थितियो में रूपानी को फूक फूक कर कदम रखने होंगे और अपने हर फैसले में नितिन पटेल को भी साधना जरूरी होगा । नितिन पटेल का सी एम बनना पहले से तय था लेकिन आखिरी समय में बाजी अमित शाह ने पलट दी जिससे नितिन भीतर ही भीतर खफा हैं । उनके समर्थक पटेल समुदाय के लोग इसके खिलाफ राज्य की सडकों पर प्रदर्शन तक कर चुके हैं । हालांकि संसदीय बोर्ड के नाम पर रूपानी को सी एम बना दिया गया है लेकिन गुजरात भाजपा में अब भी सब ठीक नहीं है । अगर ऐसा ही रहा तो गुजरात में आनंदीबेन के इस्तीफे के बाद गुटबाजी भाजपा को नुकसान जरूर पहुंचाएगी। नितिन पटेल और विजय रूपानी की आपसी खींचतान में सरकार भले ही अपना कार्यकाल पूरा कर ले लेकिन एंटी इनकंबेंसी भाजपा का खेल बिगाड़ न दे अगर ऐसा हुआ तो यह मोदी और शाह की जोड़ी की भी हार होगी । अब देखना होगा नए सी एम रूपानी इन चुनौतियों से कैसे निपटते हैं ?
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