Thursday 9 September 2021

‘ ध्यानचंद एक ऐसा नाम है जो अमर है ’


 


अशोक कुमार भारत के पूर्व हॉकी  ओलम्पियन खिलाड़ी रहे हैं । वो हॉकी  के जादूगर कहे जाने वाले महान खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद के बेटे हैं । महज 6 बरस की  उम्र में हॉकी  स्टिक पकड़ ली और अपने पिता ध्यानचंद और चाचा रूप सिंह के पगचिन्हों पर चलते हुए उन्होनें 70 के दशक में अपनी प्रतिभा से हॉकी  के खेल में अपना अलग स्थान बनाया और अपने खेल से सभी का दिल जीत लिया । अशोक ने भारत की ओर से तीन विश्वकप खेले हैं । उन्होनें पहला विश्व कप 1971 में खेला जिसमें भारतीय टीम ने कांस्य पदक हासिल किया । उसके बाद 1973 के विश्वकप की रजत पदक विजेता टीम के भी सदस्य रहे । 1975 के विश्वकप जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य भी रहे । अशोक कुमार ने दो बार ओलम्पिक खेलों में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया । 1972 में म्यूनिख में भारत ने  कांस्य पदक हासिल किया वहीं 1976 में मांट्रियल  में भारत सातवें  स्थान में रहा । अशोक कुमार भारत के लिए तीन एशियाई खेलों का हिस्सा भी रहे हैं जहां भारत ने तीनों में रजत पदक प्राप्त किया । 

भारतीय हॉकी टीम भले ही टोक्यो ओलम्पिक में 41 साल बाद कांस्य पदक जीती  है लेकिन ओलम्पिक के इतिहास में भारतीय हॉकी  का इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में आज भी दर्ज है । भारतीय पुरुष हॉकी  टीम ने 1928 के एम्सडर्म ओलम्पिक से अपना सफर शुरू किया था, जो अभी तक बदस्तूर जारी है । 1928 से 1956 तक का दौर भारतीय हॉकी  का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है । इसी दौर में भारतीय हॉकी टीम ने सर्वाधिक मेडल जीते । भारतीय हॉकी  टीम के नाम ओलम्पिक हॉकी  में लगातार 6 गोल्ड मेडल जीतने का विश्व रिकार्ड भी दर्ज है । 

भारतीय हॉकी  टीम के स्वरूप , हालिया प्रदर्शन और तमाम संभावनाओं को लेकर 
मैंने बीते दिनों ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार से विशेष बातचीत की । अशोक कुमार मानते हैं टोक्यो ओलम्पिक में मेडल जीतना खिलाड़ियों के लिए निश्चित ही प्रेरणा और जीत का काम करेगा । अब हमको यह देखने की जरूरत है देश में हॉकी  को कैसे बढ़ावा दिया जाए।  

प्रस्तुत है हॉकी  के खेल को लेकर  उनसे हुई  इस विशेष बातचीत के मुख्य अंश :  

41 बरस के बाद भारतीय हॉकी  टीम ने ओलम्पिक में मेडल पाने का सूखा खत्म किया । इस ऐतिहासिक विजय गाथा को आप किस रूप में देखते हैं ?

ये हमारे लिए हाकी में एक बड़ी जीत है । इस जीत ने टीम के अंदर एक उत्साह भर दिया है । हमारी उन तमाम उन नाकामयाबियों के ऊपर पर्दा डाल दिया है जो हमने पिछले कई वर्षों से झेली है । वो उम्मीदें जो हमारी टीम के साथ हमेशा बनी रही कि टीम अच्छा करेगी । हमारी उम्मीदें तब धूमिल हो गई लेकिन इस टोक्यो ओलम्पिक में टीम के अंदर एक नया जज्बा देखने को मिला । एक ऐसा जज्बा,  किसी चीज को पाने की  लगन देखने को मिली । ये लगन एक दिन की नहीं थी । इसने पूरे डेढ़ से दो साल का वक्त लगाया । इस टीम ने उस भरोसे को जीतने के लिए जो उन्होनें खुद के ऊपर था और अपनी टीम, सारे खिलाड़ियों  के ऊपर था जिनकी वजह से टीम ने अच्छा परफार्म किया ।  शुरुवाती झटके हमें बहुत बुरे लगे हैं और आस्ट्रेलिया के खिलाफ जो बड़ी हार हुई इस ओलम्पिक में वह एक बड़ा झटका था लेकिन आगे के मैचों में इस टीम ने संतुलित होकर मानसिक ढंग से जो तकनीक अपनाई वो टीम के लिए तारीफ करने की बात है ।  सबसे बढ़कर उस दौरान में हमारे प्रधानमंत्री जी ने जो पर्सनल टच दिखाया वो काबिले – तारीफ रहा । मोदी जी ने हॉकी  के खिलाड़ियों को ये अहसास कराया आप अकेले नहीं हैं । पूरा हिंदुस्तान आपको देख रहा है । टीम के खिलाड़ियों से व्यक्तिगत तौर पर बात करने जैसी प्रधानमंत्री जी की बातें निश्चित रूप से टीम की स्प्रिट को बढ़ाने में बहुत सहायक सिद्ध हुई । जर्मनी के साथ मैच तो भारतीय हॉकी  के लिए बेहतरीन था ।  इसे वर्ल्ड हॉकी  खेलने वाले लीजेंड ही खेल सकते हैं । 

आस्ट्रेलिया के खिलाफ करारी हार के बाद क्या बेल्जियम जैसी चैम्पियन टीम के खिलाफ ये टीम शानदार वापसी कर लेगी ऐसी उम्मीद आपको थी ? आस्ट्रेलिया के खिलाफ हार के बाद टीम के मनोबल पर तो असर पड़ता है वो भी तब, जब आप ओलम्पिक खेल रहे हैं ? आस्ट्रेलिया से हार के बाद आप आगे क्वालिफाई   कर जाएंगे और कांस्य पदक ले जाएंगे ये कहीं न कहीं चौकाया ? 

हमको ही नहीं पूरी दुनिया को चौंकाया । हाँ , हमको ये लगा आस्ट्रेलिया के खिलाफ हम प्रेशर में खेले । आस्ट्रेलिया का रिकार्ड काफी अच्छा है । प्रेशर में 7 गोल हो गए और हमारी टीम अव्यवस्थित हो गई । पूरा मनोबल टूट गया । हार के बाद सभी ने ये जाहिर भी किया होगा । उसको उबारने के लिए आपस में तालमेल बना । इसके बाद हमने बेल्जियम जैसी विश्व चैंपियन टीम को जिस अंदाज में पराजित किया वो काबिले – तारीफ था । किसी टीम का एक लेवल अगर बन जाए तो उसको मैंटेन करना होता है । नेगेटिव पॉइंट निकालना और पाजिटिव बनाना मैनेजमेंट का काम होता है । खिलाड़ियों की समझ ,विवेक और हौंसला भी काम करता है । टोक्यो ओलम्पिक में हॉकी  क्वार्टर फाइनल मैच तो मिसाल के तौर पर याद रखा जाएगा । 

हॉकी  के जादूगर दादा ध्यानचंद ने भारतीय हॉकी  की दुनिया में एक अलख जगाई व दादा जब खेलते थे तो संसाधन बेहद सीमित थे । आज ग्लैमर, पैसा ,   स्पांसरशिप,  शोहरत सब कुछ है । कैसे इस दौर को आप उस दौर से अलग पाते हैं ?

हर्ष भाई आपने बिलकुल ठीक बात आपने कही । पहले ओलम्पिक शौकिया खेलों में होते थे । पहले खिलाड़ी  अपने संसाधन में खेलते थे । आज के दौर में बदलाव आ गया है । अब प्रोफेशनल आ गए हैं । जब प्रोफेशनल खेल रहे होते हैं तो चीजें बदल जाती हैं । उनके पीछे पैसे का बड़ा हाथ होता है। हम अच्छा करेंगे तो अच्छा पैसा मिलेगा ये बात हो जाती है । ध्यानचंद जी के जमाने में ये सब बातें नहीं थी । जो बात असली थी वो ये कि देश के लिए गोल्ड मेडल जीतने की ललक, गोल्ड जीतने के लिए सारी कोशिशें उस दौर में हुआ करती थी । गोल्ड जीतने के लिए तब कोई एक्सपोजर नहीं हुआ करता था । टेस्ट, संसाधन नहीं थे । उनके बावजूद आपको अपनी ड्यूटी  पूरी करने के बाद प्रैक्टिस  करनी होती थी । शौकिया खेल में उन्होनें खेल को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया जिसकी मिसालें आज तक दी जाती हैं। ओलम्पिक तो ओलम्पिक होता है ।  हर वर्ष ओलम्पिक में रिकार्ड टूटते रहते हैं । कोई भी खेल हो । जब से ये ओलम्पिक शुरू हुआ है तब से रिकार्ड टूटने का सिलसिला चल रहा है ।  आज की  भारतीय हॉकी  टीम और ध्यानचंद  की कोशिशें जो उन्होनें अपने बेहतर खेल से, व्यवहार से और अपने कहे गए लफ्जों से भी बनाई । जब जर्मनी के हिटलर  ने कहा तुम मेरे लिए जर्मनी में आ जाओ मैं तुम्हें जर्मनी में सर्वोच्च पद दूंगा तब उनका एक लाइन का जवाब मैं एक भारतीय हूँ और भारत में रहकर ही देश की सेवा करना चाहता हूँ वहीं से खेलना चाहता हूँ । तो इस तरह के प्रलोभन पैसों के लिए होते हैं लेकिन ध्यानचंद ने इसको महत्व देने के बजाय देश की हॉकी  और गरिमा को ध्यान दिया। भारत पहुँचकर तब उन्होनें गोल्ड को देश को समर्पित किया । ये चीज बदस्तूर जारी रही  । अनेकानेक हमारे खिलाड़ियों ने हॉकी  की गंगा जो ध्यानचंद ने निकाली इसमें  कई खिलाड़ियों ने अपना योगदान दिया है । फिर चाहे इसमें के डी सिंह बाबू , किशनलाल दादा, बलवीर शाह , चरणजीत सिंह हों या महान खिलाड़ी लेसली क्लाउडियस , भास्करन हों इन सबने देश की हाकी में अपना अमूल्य योगदान दिया है ।  हमने भी 1972 का ओलम्पिक खेला है तब ब्रांज मेडल मिला तो यकीन मानिए हर्ष भाई मैंने ब्रांज लाकर बाबू जी को दिखाया । पहले के दौर में जीतने भी खिलाड़ी थे ये सिर्फ और सिर्फ गोल्ड लेकर ही आते थे । गोल्ड की चाहत रखते थे ।  देश को मेडल  समर्पित करते थे । उसमें ब्रांज और सिल्वर मेडल का महत्व नहीं रह जाता था लेकिन आप ये देखिए आज के दौर में स्पर्धाएँ बढ़ गई हैं ।  हमारी टीम 41 साल के बाद हॉकी  में कांस्य पदक लेकर आई है तो आप ये देखिये हर्ष भाई पूरे देश भर  में कितना उत्साह है । खिलाड़ियों , राजनेताओं, युवाओं में इतना उत्साह इस बार देखा गया है तो ये मेडल आने वाले समय में भारतीय हॉकी  के लिए एक अच्छा संकेत है । हम अब उस पायदान पर खड़े हो गए हैं जहां से अगली दो सीढ़ियाँ गोल्ड तक जाती हैं  ।    

राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार हॉकी  के महान जादूगर  दादा ध्यानचंद के नाम शुरू करने को लेकर देश में राजनीति गरमा गई है । विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है । इस फैसले को आप किस रूप में देखते हैं ? क्या अवार्डों में भी  राजनीति आप जायज मानते हैं ? व्यक्तिगत तौर पर जानना चाह रहा हूँ ? 

इस बात को मैं  खिलाड़ी के तौर पर नहीं कहूँगा । जब राजीव गांधी खेल रत्न नाम से पुरस्कार शुरू किया गया था तब तो इस तरह की कोई आवाज नहीं होती थी । अब सरकार किस लिहाज और गरिमा से अवार्ड का नाम रखती है यह सब तो सरकार के ऊपर निर्भर करता है । वह तय करे ।  ध्यानचंद तो एक नाम है जो किसी के दिल , दिमाग और जेहन से नहीं निकल सकता और खेल का सबसे बड़ा अवार्ड जिसे देश का सबसे बड़ा  खिलाड़ी माना गया उसके नाम से रखा गया उससे तो खुशी ही होनी चाहिए । मैं भी उस खुशी में शामिल हूँ । ये अवार्ड प्रधानमंत्री  मोदी जी ने उनके नाम पर रखा लेकिन ध्यानचंद की गरिमा को ठेस कहीं से नहीं पहुँचती । ध्यानचंद एक ऐसा नाम है जो अमर है  । 

भारतीय हॉकी  टीम कभी ओलम्पिक में क्वालिफाई करने के लिए तरस जाती थी । आज 12 से टाप की चार टीमों में जगह बनाने में कामयाब हुई है । अब ओलम्पिक जीतने के बाद इस टीम का भविष्य कैसा देख रहे हैं आप ? इस टीम की मजबूत स्ट्रेंथ क्या रही ? किन क्षेत्रों में सुधार की गुंजाइश नजर आती है आपको फिलहाल  ? 

मुझे याद आता है जब दादा ध्यानचंद ने अपना शुरुवाती दौर का खेल हॉकी  का शुरू किया था । पहली बार निक्कर – बनियान और पीटी शूज पहनकर वो मैदान में खड़े हुए थे । हॉकी  में  उनकी पकड़ मजबूत थी क्योंकि झाँसी हीरो क्लब में उनकी प्रैक्टिस हुई थी जो कंकड़ – पत्थरों वाला ग्राउंड था । आजीवन उन्होनें यहाँ प्रैक्टिस की । गेंद को संभालने की जितनी कला उस समय उनके अंदर आ गई थी उसको उन्होनें आर्मी ज्वाइनिंग के समय भी दिखाया और खेलना शुरू किया । गेंद का कंट्रोल वहीं  से शुरू हो गया था । उसके मद्देनजर ट्रेनर उन पर नजर डालते थे तो उनकी नजर केवल ध्यानचंद पर पड़ी तो लगा इस बच्चे के अंदर बहुत कुछ है । उन्होनें ध्यानचंद को बुलाया और शाबासी देते हुए कहा ‘तुम बहुत अच्छा खेलते हो लेकिन तुम्हारा खेल व्यक्तिगत है । इस टीम के खिलाड़ियों के साथ खेलोगे तो तुम कामयाब हो जाओगे’।  हर्ष भाई मैं इस वाक्य को आज की हॉकी  के साथ जोड़ना चाहता हूँ । ये टीम गेम है । जो जज्बा हमारे हाकी खिलाड़ियों ने टीम के रूप में दिखाया है उसकी दाद देनी चाहिए । शुरू में जरूर हम संगठित नजर नहीं आए लेकिन बाद में हमारे खेल में निखार आता गया । आस्ट्रेलिया से मिली हार के बाद भी हम उबरे । इस पूरे ओलम्पिक में, मैं कहूँ तो खासतौर से पीआर श्रीजेश एक बड़े गोलकीपर के तौर पर उभरकर सामने आए । दशकों से ऐसा बेहतरीन गोलकीपर हमको नहीं मिला था । खेल में ऐसा बचाव करने वाला बेहतरीन खिलाड़ी मेरी नजर में आज तक नहीं आया है । वो असली हकदार इस जीत में हैं जिनके खेल को हम टाप पर रख सकते हैं ।  इनकी गोलकीपिंग मुझे सबसे बढ़िया लगी ।  हमारा डिफेंस भी बहुत अच्छा इस ओलम्पिक में रहा ।  हरमनप्रीत सिंह ने मौके पर गोल दागे ।  रूपेन्दर पाल सिंह राइट हाफ में अच्छा खेले , सेंटर में मनप्रीत मुझे प्रेशर में दिखे जो नहीं होना चाहिए था । लेफ्ट हाफ में हमारे विवेक सागर सिंह आते हैं उन्होनें भी मौके पर बड़े अच्छे गोल दागे । हाँ, मुझे हल्की सी निराशा शुरू से आई जिसे मैंने अपने लफ्जों में कहा भी ये भारत की  फारवर्ड लाइन की टीम कहीं  से कमजोर दिखती है और उसका असर हमें शुरुवाती मैचों में भी लगा ।  चाहे वो आस्ट्रेलिया के खिलाफ मैच हो या स्पेन के खिलाफ । फारवर्ड लाइन के जिस तारतम्य के लिए भारतीय हॉकी  मशहूर थी वो नहीं दिखी । अटैक इज द बेस्ट वे आफ प्लेईंग  यानी हॉकी जितना आप अटैक करोगे उतना विपक्ष को परेशानी होती है तो वो कहीं न कहीं  हमारी कमी रही लेकिन कोई बात नहीं , परिणाम कांस्य पदक के रूप में मिला है जो एक नई शुरुवात है । इस शुरुवात को अब संभालने की कोशिश होनी चाहिए। अभी तो जलसे चल रहे हैं ।  रिसेप्शन दिये जा रहे हैं ।  उनके बारे में बहुत बयान  हो रहे हैं। निसंदेह हमारी हॉकी  टीम इस जीत की हकदार है तो बयान भी होंगे लेकिन इस जीत को अपने दिमाग के अंदर गर्व के साथ महसूस करना है , दिखाने वाले गर्व के साथ इसे नहीं लाना है  ।  

यूरोपियन खिलाड़ी बहुत आक्रामक हॉकी  खेलते हैं । वे स्टिक से गेंद  लगाते हैं ।  एक दिशा में पास देते हैं और सीधे सेंटर फारवर्ड पास बनाकर गोल करने पर आमादा हो जाते हैं ।  आमतौर पर भारत की हॉकी  टीम के खिलाड़ी ये सब नहीं कर पाते हैं । बड़ी टीमों के साथ भारत लंबे समय तक गेंद अपने पास रखने में नाकामयाब रहता है । इस ओलम्पिक में भी ये सब देखने को मिला है ।  ऐसा क्यों ? 

क्योंकि ये एस्ट्रो टर्फ का खेल बनाया ही इसलिए गया था । यूरोपियन के फायदे के लिए था जिसका खामियाजा एशियन हॉकी  को भुगतना पड़ा । आप देखिये आज हमारी पाक की टीम कहाँ खड़ी है ? पूरे खेलों में जो पहले अच्छा खेलती थी वो सब टीमें  खत्म हो गई ।  एस्ट्रो टर्फ  ऐसा गेम है जिसकी बहुतायत में देशों को जरूरत होती है । एस्ट्रो  टर्फ में हालैण्ड , आस्ट्रेलिया में सैकड़ों ग्राउंड हैं । हमारे कालेजों में क्या ऐसे क्वालिटी के मैदान उपलब्ध हैं ? जब इनकी संख्या ही नहीं बढ़ रही तो कैसे अच्छा  कर सकते हैं हम ? 

आज एक सीमित नंबर को लेकर हम हॉकी  खेल रहे हैं । वो जुनून , शौक कम हो गए हैं । बच्चे को खेलना एस्ट्रो टर्फ पर है। सभी कच्चे ग्राउंड पर कैसे खेल सकते हैं ? क्रिकेट के कोच आज हर स्कूल में हैं । पैसा अच्छा दिया जा रहा है । हॉकी  में कौन सी अच्छी पेंशन मिलती है । ये सब देखना तो प्रबंधन का काम है । हमें अब बच्चों में से ही भविष्य के लिए खिलाड़ी तैयार करने चाहिए । डिफेंस , फारवर्ड एन 100 में से बेहतरीन 10 बच्चों को छाँटें । 
 
जैसा आपने कहा यूरोपियन टीमें ड्रिबलिंग करती हैं वो जरूर इसे करती हैं लेकिन इस ओलम्पिक के अंदर हमने जो मैच खेले हैं उनमें हम उन्नीस  ही नहीं बीस थे । एक -दो  जगह ऐसा लगा हारने वाले हैं लेकिन ये खेल ही ऐसा है।  एक पाले से गाइड दूसरे पाले में पहुंचाई जा सकती है लेकिन यही तो खेल का अंदाज है ।  कोचिंग के साथ ही शारीरिक फिटनेस भी जरूरी है ।  पुरानी हॉकी  में पूरे 11 खिलाड़ी 70 मिनट पसीना बहाते हुए खेलते थे लेकिन आज हाकी ऐसी हो गई है जिस खिलाड़ी को चाहें 2 मिनट में आप बादल सकते हैं  इसलिए आज हॉकी  में तमाम बदलाव भी कर दिये गए हैं  ।  ये हिम्मत जज्बे का खेल है ।  ये सेल्फ स्टेमिना का खेल है  । 

लेकिन यूरोपियन खिलाड़ी को गाइड के स्टिक से लगने से पहले ही खुद को मानसिक रूप से खुद को पास के लिए तैयार कर लेते हैं ।  
 नहीं – नहीं । ये सब बातें टेक्निकल होती हैं । हम भी इन सब बातों को अच्छे से जानते हैं । हमारे खिलाड़ी भी ड्रिबलिंग करते हैं पासिंग भी । जर्मनी को हमने इस बार ओलम्पिक में 5-4 से पराजित किया जो मायने रखता है । खिलाड़ी मैदान पर कैसे गेंद निकाल रहे हैं ये देखना चाहिए । ध्यानचंद क्यों  ध्यानचंद कहलाए क्योंकि उनकी ड्रिबलिंग और पासिंग बेहतरीन थी । खिलाड़ी जब से हाकी पकड़ता है अगर दिल- दिमाग से मजबूत नहीं है तो किसी भी खेल को नहीं जीत सकता चाहे वो कोई भी खेल क्यों ना हो ? नर्वस सिस्टम भी एक चीज है नर्वस सिस्टम दिमाग को सीधे आर्डर देता है।   

कहीं न कहीं तेज रफ्तार से खेलने के मामले में  हम अभी बहुत पीछे हैं ?

मैंने कहा ना आपसे   पहली लाइन रामबाण का काम करेगी । जितनी कमी है उसको दूर करने का काम कोच करेंगे।  अब नई पौध को देश में तैयार करने की ज़िम्मेदारी इन्हें लेनी ही चाहिए । हमारे देश में सुविधाएं नहीं हैं । कोच नहीं हैं तो स्कूल में हॉकी  नहीं होती । उस तरह के मैदान भी नहीं है । शुरू के दौर के कोच और खिलाड़ी अलग थे वो चीज आज नहीं है । 60 ,70 , 80 के दशक में जैसा ये खेल खेला जाता था वैसा आज नहीं है । 

महिला हॉकी टीम ने भी इस बार ओलम्पिक में कमाल कर दिया ? 
 हमारी महिला हॉकी  टीम ने भी इस बार टोक्यो ओलम्पिक में अपने खेल से सभी का दिल जीत लिया । हार – जीत तो खेल का अहम हिस्सा है । ये महिला हॉकी   टीम सही मायनों में हारकर भी देशवासियों के दिलों में जीत गई । मुझे पूरी उम्मीद थी ये टीम मेडल जरूर लाएगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका।  

भारत में खेलों में पर्याप्त बजट भी नहीं है । भारत में महज 3 पैसे प्रतिदिन जहां खर्च होता है वहीं पड़ोसी चीन में 6 रु 10 पैसा प्रतिदिन खर्च होता है जो भारत के मुक़ाबले 200 गुना अधिक है । अमरीका का खेलों का साल का बजट 22000 करोड़ है जबकि ब्रिटेन में यह 11000 करोड़ है वहीं भारत में साल भर में खेलों में महज 2596  करोड़ रू खर्च किए जा रहे  हैं । क्या आपको नहीं लगता इस पर अब नए सिरे से मंथन करने की आवश्यकता है ?

जब आप पूछ ही रहे हैं तो मैं जरूर कहना चाहूँगा ये जो फेडरेशन संचालित करते हैं उनको देखना चाहिए हाकी में जो चीज शुरुवात में मिलनी चाहिए वैसे ग्राउंड कहाँ हैं हमारे पास ? मुश्किल से लेवल ग्राउंड 40 से 50 होंगे हमारे पास जहां हॉकी  ढंग से खेली जा सकती होगी । कई ग्राउंड को 5 से 6 साल में बदलना पड़ता है । जब स्कूल में ग्राउंड हैं ही नहीं हमारे पास तो कैसे स्तरीय हॉकी  खेली जा सकेगी ? मैं तो कहूँगा 2596 करोड़ का बजट ये जो केंद्र का है ये हर स्टेट का होना चाहिए तब वही से हॉकी  और अन्य खेल देश में आगे बढ़ेंगे । आज खेलों में बजट को बढ़ाए जाने की बड़ी आवश्यकता है ।  ओलम्पिक में जीत के बाद अब हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ गई है । अब भारतीय हाकी फेडरेशन कि यह ज़िम्मेदारी है कि हमें अपनी टीमों को अच्छे से तैयार करना है । स्कूल , कालेज से ही टीमों में यह ललक तैयार करने की जरूरत है जिससे कि वह अच्छा प्रदर्शन  कर सकें । 

आप जब 100 खिलाड़ी रखते हैं तो आपको 10 मिलते हैं 100 में 90 तो वेस्टेज हो जाता है ट्रेनिंग पार्ट में 10 खर्च होता है । हमारे खिलाड़ी आज  छोटे – छोटे आयोजनों में ही उलझ कर रह जाते हैं ।  यूथ ओलम्पिक , यूथ ओलम्पिक है वो ओलम्पिक नहीं है । उसमें मापदंड अलग है लेकिन हमारे खिलाड़ी उन छोटे खेलों में जीत को ही जीवन का अंतिम फाइनल मानने की भूल कर बैठते हैं । आज अगर आप यूथ ओलम्पिक में जीत गए हैं तो आपने जहान जीत लिया है इस तरह  की मानसिकता से भी हमारे देश के खिलाड़ियों को आज बाहर निकलने की  जरूरत है । उन्हें इनसे भी आगे बढ़ने की कोशिश भी करनी चाहिए । उनका जीवन का उद्देश्य जब नेशनल खेलना , नौकरी करना और कोचिंग करना है तो कैसे मेडल आ पाएंगे ? मेडल पाना वो भी ओलम्पिक में कोई आसान काम थोड़ी है । इसके लिए एक समर्पण की जरूरत होती है । लक्ष्य अर्जुन के तीर  जैसा मछली की आँख पर ही होना चाहिए जो मिसिंग है ।
 
हॉकी  के महान जादूगर दादा ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग लंबे समय से उठती आ रही है लेकिन आज तक उनको भारत रत्न नहीं मिल सका है । यू पी ए सरकार के दौर से यह मांग उठती रही है ।  क्या ओलम्पिक में इस बार भारत के कांस्य पदक जीतने के बाद सवा सौ करोड़ से अधिक भारतवासियों की ये मुराद पूरी हो पाएगी ? 

फिलहाल इसका जवाब तो मेरे पास भी नहीं है। ध्यानचंद ने तीन बार देश को ओलम्पिक में गोल्ड दिलाया था और दादा का खेल तो पूरी दुनिया ने देखा है वो किस तरह के महान खिलाडी थे। ध्यानचंद एक ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जिनका  ताल्लुक हॉकी  के जरिये  सिर्फ देश की प्रतिष्ठा, मान , सम्मान बढ़ाने में ही लगा रहा । ध्यानचंद का हुनर हासिल करना आज भी किसी खिलाड़ी के लिए सपना ही है । उन्होनें हॉकी  को बहुत कुछ दिया है ।

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